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प्रियदर्शिनी टीका गा. २३ सूत्रदोषाः ३२
शब्दरूपगन्धरसस्पर्शा इति वक्तव्ये रूपगन्धशब्दस्पर्शरसा इति ब्रूयाद्' इत्यादि ॥१३॥
वचनभिन्न-यत्र वचनव्यत्ययः, यथा-वृक्षा ऋतौ पुष्पितः' इत्यादि ॥१४॥
विभक्तिभिन्नं-यत्र विभक्तिव्यत्ययः, यथा-'वृक्षं पश्य' इति वक्तव्ये 'वृक्षः पश्य ' इति ब्रूयात् ' इत्यादि ॥ १५ ॥
लिङ्गभिन्न-यत्र लिङ्गव्यत्ययः, यथा-' इयं स्त्री' इति वक्तव्ये 'अयं स्त्री' इति ब्रूयात् , इत्यादि ॥ १६ ॥ ___ अनभिहितं-स्वसिद्धान्तोपदिष्टाधिककथनम् । यथा-राशिद्वयमिति वक्तव्ये राशित्रयकथनम्, इत्यादि ॥ १७ ॥ का दोष आता है। क्यों कि सूत्र में जिस क्रम से इन्द्रियों का वर्णन किया गया है उसी क्रम से उनके विषय का भी वर्णन करना चाहिये ॥ १३ ॥ जहां वचन का व्यत्यय होता है वहां वचनभिन्न नामका दोष होता है जैसे " वृक्षाः ऋतौ पुष्पितः” यहां वचन व्यत्यय है। क्यों कि " पुष्पितः" की जगह " पुष्पिताः" ऐसा बहुवचन होना चाहिये ॥१४॥ जहां विभक्ति का व्यत्यय होता है वहा विभक्तिभिन्न दोष माना जाता है जैसे " वृक्षः पश्य" यहां पर विभक्ति भिन्न दोष है यहा, 'वृक्षः' की जगह 'वृक्षं' ऐसा होना चाहिये॥१५॥ जहां स्त्रीलिङ्ग आदि का व्यत्यय होता है वह लिङ्गभिन्न दोष है जैसे; " अयं स्त्री" यहां हुआ है । 'अयं' की जगह 'इयं ' होनी चाहिये सो ' इयं' की जगह 'अयं' कर दिया यह लिङ्गव्यत्यय है ॥ १६॥ जो बात सिद्धान्त में प्रतिपादित नहीं है उसे भी मानना अर्थात् सिद्धान्तकथित वात से भी ભિન્ન નામને દોષ આવે છે. કેમ કે, સૂત્રમાં જે કમથી ઈન્દ્રિયનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે એ જ કમથી એના વિષયનું પણ વર્ણન કરવું જોઈએ. (૧૩) જ્યાં વચનને ઉલટસુલટ વ્યત્યય થાય છે. ત્યાં વચનભિન્ન નામને દોષ લાગે છે.
म वृक्षाः ऋतौ पुष्पितः-मडी क्यनव्यत्यय छ, म पुष्पितः नी क्यामे " पुष्पिताः" सभ अवयन डा न. (१४) न्यो विमतिना व्यत्यय डाय छे. ते विमत लिन्न होष मानवामां आवे छे. भ "वृक्षः पश्य" मडि ५६ छ "वृक्ष पश्य" से ही छ. वृक्ष नीच्या वृक्षः मा विमतिना व्यत्यय છે. (૧૫) જ્યાં સ્ત્રીલિંગ આદિને વ્યત્યય બને છે તે લિંગ ભિન્ન દેષ છે, सेभ अयं स्त्री मी अयं नी याये इयं । नेय. ते इयं नी क्या-ये. अयं કરી દીધું એ લિંગવ્યત્યય છે, (૧૬) જે વાત સિદ્ધાંતમાં પ્રતિપાદિત નથી તેને માનવી, અર્થાત્ સિદ્ધાંત કથિત વાતથી પણ અધિક જે યુક્તિ
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧