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उत्तराध्ययनसूत्रे अचेलका स्त्ररहित इव, भवति-तथाविधवस्त्रस्य तनुत्रायकत्वाभावात् । एकदा कदाचित-नूतनवस्त्रसद्भावे, सचेलकोऽपि नवीनवस्त्रवानपि भवति । एतद्-अचेल. कत्वं सचेलकत्वं चेति द्वयं, धर्महित-धर्माय हितं-श्रुतचारित्रधर्मोपकारक, ज्ञात्वा ज्ञानी मेधावी, नो परिदेवयेत् जीर्णवस्त्रसद्भावे विषादं न कुर्यात् ,
'एगया अचेलए' इत्यादि. __ अन्वयार्थ—(एगया-एकदा) कभी किसी समय कल्पनीय जीर्ण खंडित मलिन एवं अल्प वस्त्रों के सद्भाव में मुनि (अचेलए होई-अचेलको भवति) वस्त्र रहित जैसा ही होता है । क्यों कि जो जीर्णादिवस्त्र उसके होते हैं उनसे यथावत् शरीर की रक्षा नहीं होती है। (एगया) कभी किसी समय-नूतन वस्त्रों के सद्भाव में (सचेले यावि होइ-सचेलकोऽपि भवति) सचेल भी-नवीन वस्त्र वाला भी होता है ।(एवं-एतत्) ये दोनों ही अवस्थाएँ साधु की उसके (धम्महियं-धर्महितम् ) श्रुतचारित्र रूप धर्म की उपकारक हैं । ऐसा (नच्चा-ज्ञात्वा ) जानकर (नाणी नो परिदेवए ज्ञानी नो परि देवयेत् ) ज्ञानी मुनि किसी भी अपनी अवस्था में चाहे वस्त्र सहित अवस्था हो चाहे वस्त्र रहित अवस्था हो उसमें हर्णविषाद न करे। ___ भावार्थ-साधु को “ ये वस्त्र जो मेरे पास हैं वे बहुत ही जीर्ण शीर्ण हैं, तथा हलके पोतके हैं, ये बहुत थोड़े हैं, सुन्दर भी नहीं हैं इनसे शीत आदिक की रक्षा कैसे होगी' इस प्रकार कभी विषाद
'एगया अचेलए' त्यादि
म-क्या-एगया-एकदा quत ४६५नीय गति भलिन मन महपसीना समामा भुनि अचेलए होइ-अचेलको भवति १ २डित હોય છે, કેમ કે, જે જીર્ણ એવાં વસ્ત્ર તેની પાસે હોય છે તેનાથી યથાવત शरीरनी २क्षा थती नथी एगया मत ना सोना सहलामा सचेले यावि होइ-सचेलकोऽपि भवति सय ५५-नवीन वसा ५५ डाय छे. एवं-एतत् मावी भन्ने अवस्थामा साधुनी धम्महियं-धर्महितं श्रुतयारित्र ३५ धर्ममा ७५४१२४ छ सेनच्चा-ज्ञात्वा तशीन नाणी नो परिदेवए-ज्ञानि नो परिदेवयेत् ज्ञानी ५५५ અવસ્થામાં ચાહે વસ્ત્રસહિત અવસ્થા હોય, ચાહે વસ્રરહિત અવસ્થા હોય तभा उप-विषाहन ४२.
ભાવાર્થ–સાધુએ “આ વસ્ત્ર જે મારી પાસે છે તે ઘણાં જીર્ણશીર્ણ છે, તથા હલકા પિતનાં છે અને ખૂબ થોડાં છે, સુંદર પણ નથી, એનાથી ઠંડી વગેરેથી રક્ષા કેમ થશે આ પ્રકારને વિષાદુભાવ કદી ન કરવો જોઈએ. આ
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧