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उत्तराध्ययनसूत्रे 'आयरक्खिए' इत्यनेन मुनेरास्रवनिरोधः प्रदर्शितः । 'निरारंभे' इत्यनेन मुनेररतिपरीषहविजययोग्यता मूचिता। 'उवसंते' इत्यनेन कषायनिग्रहित्वं सूचितम् ।। 'मुणी' इत्यनेन प्रवचनरहस्यमननशीलत्वं प्रतिबोधितम् । 'धम्मारामे ' इत्यनेन संयमस्य रमणस्थानत्वं सूचितम् ।
'चरे' इत्यनेन मुनेः संयमविषये प्रमादवर्जितत्वं प्रवेदितम् । " आयरक्खिए" इससे यह सूचित किया है कि मुनि को आस्रव का निरोध करते रहना चाहिये। “निरारंभे" पद से यह ज्ञात होता है कि अरतिपरीषह को जीतने की योग्यता विना मुनिअवस्था आती नहीं है, क्यों कि उसी अवस्था में निरारंभता रहती है। " उवसंते" पद से यह सूचित होता है कि विना कषाय के निग्रह हुए आत्मा में मुनिव्रत पालने की योग्यता नहीं आती है, अतः कषाय का निग्रह अवश्य करना चाहिये । 'मुणी' पद से कषाय का निग्रह करने वाला तभी हो सकता है कि जब वह प्रवचन के रहस्य का मनन करने वाला होता है। विना ऐसा किये आत्मा कषायों का निग्रह नहीं कर सकता है । "धम्मारामे" इससे यह सूचित किया गया है कि कषायों का निग्रह करने का वही आत्मा परिणामशाली होगा-जो संयम में रमण करने की भावना रखता होगा, इसके विना नहीं। इसी लिये संयम को रमण का स्थान बतलाया गया है। "चरे" इस क्रियापद से मुनि को संयम के विषय में प्रमादरहित होना चाहिये यह बतलाया गया है। કચરિંતુ આ પદથી એમ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે કે, આમ્રવને નિરોધ કરીને રહેવું જોઈએ નિરામે આ પદથી અરતિ પરીષહને જીતવાની યોગ્યતા પ્રાપ્ત કર્યા સિવાય મુનિ અવસ્થા આવતી નથી. કારણ કે, આ અવસ્થામાં નિરા
मता २२ छ. उवस ते मा ५४थी सूयित थाय छ, पायना निड या સિવાય આત્મામાં મુનિવ્રત પાળવાની યોગ્યતા આવતી નથી જેથી કષાયને निड अवश्य ४२व। नेस. “ मुणी" ५४थी ४ायनी निड ४२वावा ત્યારે જ બની શકે છે કે, જ્યારે પ્રવચનનું રહસ્ય મનન કરનાર બની રહે. એમ ४ा सीवाय मात्मा पायोनी निड ४२१ शत। नथी. धम्मारामे ॥ ५४थी સૂચિત કરવામાં આવેલ છે કે-કષાને નિગ્રહ તેજ આમ કરવાને પરિણામ શાળી બને છે જે સંયમમાં રમણ કરવાની ભાવના રાખતા હોય, તેના વગર नही. माथी सयभने २भनु स्थान मतावेद छ. चरे ॥ ५४थी भुनिये સંયમના વિષયમાં પ્રમાદ રહિત બનવું જોઈએ એમ બતાવેલ છે.
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧