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________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. अ० १४७ श्रुतज्ञानलाभफलमू संप्रति श्रुतज्ञानलाभस्य फलमाहमूलम्-स पुजलत्थे सुविणीयसंसए, मणोरुई चिट्ठइ कम्मसंपया। तवोसमायारिसमाहिसंवुडे, महज्जुई पंचवयाइं पालिया ॥४७॥ छाया--स पूज्यशास्त्रः सुविनीतसंशयः, मनोरुचिस्तिष्ठति कर्मसंपदा।। ___ तपःसमाचारीसमाधिसंवृतः, महाद्युतिः पञ्च व्रतानि पालयित्वा॥४७॥ टीका--'स पुज्जसत्थे' इत्यादि-- स-शिष्यः, गुरुप्रसादात्माप्तश्रुतज्ञानः अतएवं-पूज्यशास्त्र:-पूज्यं-सर्वजनश्लाध्यं, शास्त्रं यस्य स तथा गुरुमुखादधीतं विनयपूर्वकमधीतं च शास्त्रं संमाननीयं भवतीति भावः । तथा-सुविनीतसंशयः-सुष्ठु विनीतः प्रसादितेन गुरुणा शास्त्रसिद्धान्तार्थपदानेन दूरीकृतः, संशयो यस्य स तथा, कर्मसंपदा-कर्म-क्रिया दशविधसमाचारीकरणरूपा, तस्याः संपन्नता, तया, मनोरुचि:-मनस:-गुरोमनसः, रुचिः-प्रीतिर्यस्मिन् स तथा, गुरुपिय इत्यर्थः, यद्वा-मनसि-गुरोमनसि मनोगते करते हैं कि शिष्य वाचनाकाल से पहिले, तथा वाचना के समय में और वाचना के अनन्तर में विनयगुण से विशिष्ट ही रहे। यह स्वाभाविक विनयगुण ही आचार्य आदि की प्रसन्नता में हेतु माना जाता है॥४६॥ श्रुतज्ञान के लाभ का क्या फल है इसे सूत्रकार कहते हैं-- 'स पुज्जसत्थे' इत्यादि। अन्वयार्थ-(पुज्जसत्थे-पूज्यशास्त्रः) सर्वजनों द्वारा श्लाघ्य है श्रुतज्ञान जिसका ऐसा (स-सः) वह शिष्य कि जिसका (सुविणीयसंसए-सुविनीतसंशयः) प्रसन्न हुए गुरु महाराज द्वारा प्रदत्त शास्त्रसंमत अर्थ के अध्ययन से संशय दूर हो चुका है, तथा (कम्मसंपया-कर्मसंपदा) दशविध समाचारी की आराधना रूप संपत्ति से (मणोरुई-मनोरुचिः) जो गुरु महाराज के मनकी प्रीति का स्थान बन गया है अथवा गुरु महाराज के मनोनुकूल શિષ્ય વાંચનકાળથી પહેલાં તથા વાંચનકાળના સમયમાં તેમજ વાંચનકાળ બાદ વિનયગુણથી વિભૂષિત બની રહે. આ સ્વાભાવિક વિનયગુણ આચાર્ય આદિની प्रसन्नता तु मनाय छे. ॥ ४६॥ श्रुतज्ञानना सानु शु छ ? तेना।२ मताव छ. स पुज्जसत्थे इत्यादि स-क्याथ-पूज्जसत्थे-पूज्यशास्त्रः सन द्वारा नुश्रुतज्ञान साध्य छे सेवा स-सः ते शिष्य नुं सुविणीयसंसए-सुविनीतसंशयः शुरु महारा દ્વારા પ્રદત્ત શાસ્ત્ર સંમત અર્થના અધ્યયનથી જેને સંશય દૂર થયેલ છે, તથા कम्मसंपया-कर्मसंपदा ६शविध सभायारीनी माराधना ३५ सपत्तिथी मनोरईमनोरुचिः रे गुरुमहान भनथी प्रीतिनु स्थान मानी गयेर छ. अथ। ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧
SR No.006369
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages855
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size45 MB
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