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________________ २६० उत्तराध्ययन सूत्रे नात् पूर्वमेव विनयेनानुरञ्जिता इत्यर्थः पूज्याः = आचार्यादयः, यस्य शिष्यस्य प्रसीदन्ति = प्रसन्ना भवन्ति ते प्रसन्नाः सन्तः विपुलं = विस्तीर्णम् आर्थिकम् =अर्थों मोक्षः स एव प्रयोजनमस्येत्यार्थिकं - मोक्षजनकं श्रुतं = श्रुतज्ञानम् - अङ्गोपाङ्गादिभेदयुक्तं लाभयिष्यन्ति प्रापविष्यन्ति ।। पूज्यप्रसादनस्यानन्तरंफलं श्रुतलाभः परंपराफलं तु मुक्तिरिति बोध्यम् । ' संबुद्धा' इति विशेषणेन - श्रुतज्ञानदानयोग्यता सूचिता । " पूर्वसंस्तुताः' इत्यनेन वाचनाकालात् प्राग्, वाचना काले, तदनन्तरं चेति कालत्रये वर्तमानः स्वाभाविकविनय एव प्रसन्नतायाः कारणमस्तीति सूचितम् ॥४६॥ गुण से अनुरंजित हुए ऐसे ( पुज्जा - पूज्याः ) पूज्य आचार्य महाराज आदि (जस्स पसीयंति - यस्य प्रसीदंति) जिस शिष्य के ऊपर प्रसन्न हो जाते हैं । (पसन्ना विउलं अट्ठियं सुयं प्रसन्नाः विपुलं आर्थिकं श्रुतम् ) उसके लिये प्रसन्न हुए वे विस्तीर्ण, एवं मोक्षजनक श्रुत की ( लाभइस्संति - लाभयिष्यन्ति ) प्राप्ति कराने वाले होते हैं । तात्पर्य इसका यह है कि जब पूज्य आचार्य महाराज, शिष्य के ऊपर उसके विनयगुण से प्रसन्न हो जाते हैं तो उस शिष्य को उनकी प्रसन्नता का लाभ यह मिलता है कि वह अंग उपांग आदि भेदविशिष्ट श्रुतज्ञान को प्राप्त कर लेता है । यह उनकी प्रसन्नता का साक्षात् फल है । परंपरा फल यह है कि उसको मुक्तिका लाभ होता है । इस गाथा के " संबुद्धा" इस विशेषण से श्रुतज्ञान के देने की योग्यता सूचित होती है । " पूर्वसंस्तुताः " इस विशेषण से सूत्रकार यह सूचित अनुरंत मनेस सेवा पुज्जा-पूज्याः पून्य मायार्य महाराज यहि जस्सपसीयंति - यस्यप्रसीदति ने शिष्य उपर प्रसन्न थर्ध लय छे प्रसन्ना विउलं अट्ठियं सुर्य - प्रसन्नाः विपुल आर्थिकं श्रुतं मेने भाटे असन्न थया ते विस्तीर्षु अने भोक्ष ४ श्रुतनी लाभइस्संति - लाभइष्यन्ति प्रसि उराववावाजा होय छे. भतस આના એ છે કે, જ્યારે આચાર્ય મહારાજ શિષ્યના વિનયગુણુથી તેના ઉપર પ્રસન્ન થઈ જાય છે ત્યારે એ શિષ્યને એમની પ્રસન્નતાના લાભ એ મળે છે કે, તે અંગ ઉપાંગ આદિ ભેદ વિશિષ્ટ શ્રુતજ્ઞાનના પ્રાપ્ત કરનાર બને છે. એ તેમની પ્રસન્નતાનુ' સાક્ષાત ફળ છે, અને પરંપરા ફળ એ છે કે તેને મુક્તિના લાભ મળે છે. 66 આ ગાથાના सुबुद्धा આ વિશેષણથી શ્રુતજ્ઞાન આપવાની ચેાગ્યતા सुमित थाय छे. पूर्वसंस्तुता या विशेषणुथी सूत्रार मेवु सूचित रेछे हैं, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ "
SR No.006369
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages855
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size45 MB
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