SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 465
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१० उत्तराध्ययनसूत्रे वाभावः कथं स्यादित्याह - गृहस्थैः = श्रावकैः, असंसक्तः = रागसंसर्गवर्जित इत्यर्थः, अनिकेतः - गृहवर्जितः नैकत्र प्रतिबद्धस्थितिक इत्यर्थः परिव्रजेत् सर्वतो विहरेत् न तु नियतदेशादावेव । अयं भावः - गृहस्थैः सह रागसंसर्गकरणे, एकत्र प्रतिबद्धास्पदत्वे, नियत देशग्रामनगरादिविहारितायां वा ममत्वबुद्धिः स्यात् । तस्मादालस्यं निरस्य ग्रामनगरकुलादिष्वनियतवसतिर्निर्ममत्वः सन् यथाकल्पमासक्तिरहितश्चर्यामाचरेदिति । अर्थात् - ग्रामादि में कहीं भी ममत्व नहीं करे । तथा (गिहत्थेहिं असंसत्तो- गृहस्थैः असंसक्तः ) गृहस्थों के साथ राग के संसर्ग से वर्जित उनमें मोहरूप परिणाम से रहित होकर वह ( अणिएओ - अनिकेतः ) स्थानादि की ममतारहित होता हुआ (परिव्वए - परिव्रजेत् ) ग्राम नगरादि में विहार करता रहे। इसका भाव यह है कि गृहस्थों से रागात्मक परिणति करने पर साधु को एक ही जगह प्रतिबद्ध होकर रहने का प्रसंग प्राप्त हो सकता है, इस परिस्थिति में नियत देश, ग्राम आदि में ही उसका विहार होगा, अतः उसमें ममत्वबुद्धि का सद्भाव हो जायगा । इसलिये प्रमाद का परित्याग कर ग्राम नगर आदि में अनियतरूप से विचरने वले मुनि में निर्ममत्वभाव रहता है । इसलिये साधु को चाहिये की वह गृहस्थों से असंसक्त होकर यथाकल्प अनियतविहाररूप चर्या करता रहे। भावार्थ - इस गाथा द्वारा सूत्रकार १८वीं गाथा में कहे हुए ही अर्थात् — श्राभाद्दिभां उयाय पशु भभत्व न पुरे तथा गिहत्थेहिं अससत्तोगृहस्थैः-असंसकः गृहस्थनी साथै रागना संसर्गथी रहित-तेमां भोड३५ परिशाभथी रहित मनीने ते अणिएओ - अनिकेतः स्थानाहिनी भभता रहित थर्ध ने, परिव्वए-परिव्रजेत् आम नगर आहिभां विहार उरता रहे. तेनेो ભાવાર્થ એ છે કે, ગૃહસ્થા સાથે રાગાત્મક પરિણતી કરવાથી સાધુને માટે એક જગ્યાએ પ્રતિબદ્ધ થઈને રહેવાના પ્રસંગ પ્રાપ્ત થાય છે. આ પરિસ્થિતિમાં નિયત ગ્રામનગર આદિમાંજ તે વિચરશે, આથી એનામાં મમત્વની ભાવના ઉત્પન્ન થશે. માટે પ્રમાદના પરિત્યાગ કરી ગ્રામનગર આદિમાં અનિયત રૂપથી વિચરનાર મુનિમાં નિમાઁમત્વભાવ રહે છે. આટલા માટે જ સાધુ માટે તે ગૃહસ્થાથી અસંસક્ત ખની યથાકલ્પ અનિયત વિહારસ્વરૂપી ચર્ચા કરતા રહે તે જરૂરી છે. लावार्थ- —— ગાથા દ્વારા સૂત્રકાર ૧૮ મી ગાથામાં કહેલ અની પુષ્ટિ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧
SR No.006369
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages855
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy