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प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा०९ क्रियमाणकृतविषयक विधारः ६७ नास्ति, किं तु क्रियते, एवमुक्ते सति स जमालिमिथ्यात्वमोहनीयोदयात् सम्यत्वपरिभ्रष्टः सन् व्यचिन्तयत्-क्रियमाणं कृतमिति जिनोक्तं सत्यं न भवितुमर्हति, यतोऽयं संस्तारकः क्रियमाणो न कृतः संस्तीर्यमाणोऽपि न संस्तृत इत्युच्यते । इति मनसि विचिन्त्य तत्र सर्वान् मुनीनाहूय जमालिः प्राह-यत् क्रियमाणं तत् कृतम् , यञ्चलत् तचलितम् , यदुदीर्यमाणं तदुदीरितम् , इत्यादि श्रीमहावीरस्वामिना यद् भाषितं तत् खलु मिथ्या, क्रियमाणे संस्तारके शयनरूपार्थसाधकत्वा. भावेन कृतत्वाभावात् । जमालि ने उनसे बार २ पूछना शुरु किया कि संस्तारक किया या नहीं ? उन्हों ने कहा संस्तारक अभी नहीं किया है कर रहे हैं। इस प्रकार जब उन्हों ने कहा तब मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से सम्यक्त्व से पतित होकर जमालि ने विचार किया कि “क्रियमाणं कृतम्" जो किया जा रहा है वह “किया गया" ऐसा जो जिन भगवान ने कहा है वह सत्य नहीं हो सकता है, क्यों कि संस्तारक क्रियमाण है वह " कृतः" किया गया ऐसा नहीं कहा जा सकता है। उसी तरह यह तो अभी “ संस्तीर्यमाण" है बिछाया जा रहा है, इसे "संस्तृतः" बिछ गया है, ऐसे कैसे कह सकते हैं। इस प्रकार विचार कर उन्हों ने अपने समस्त शिष्यों को बुलाकर कहा कि देखो भगवान् वीर प्रभु जो ऐसा कहते हैं कि “क्रियमाणं कृतम्" " यच्चलत् तत् चलितम् " " यदुदीयमाणं तदुदीरितम्" जो क्रियमाग है वह किया गया है, जो चल रहा है वह चल चुका है, जो उदय में आ શિષ્યોએ કહ્યું કે, સસ્તારક હજું કરેલ નથી પરંતુ કરીએ છી એ આ પ્રકારે
જ્યારે શિવેએ કહ્યું, ત્યારે મિથ્યાત્વ મેહનીયના ઉદયથી સમ્યકત્વથી પતિત थईन मानिये विया२ ४य है, “क्रियमाणं कृतं" ४२पामा मावे छ त “થઈ ચૂકયું” એવું જે જીન ભગવાને કહ્યું છે તે સત્ય ઠરતું નથી. કેમ કે सा२४ डियमा ते “कृतः” य यूथ्युंछ सेम ४डी शय नहि. मा प्रभाग २ मा "संस्तीर्यमाण" छे-पीछावामां मावछ यन બીછાવી દીધલ છે એમ કેમ કહી શકાય ? આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેમણે પિતાના સમસ્ત શિષ્યોને બોલાવીને કહ્યું કે, જુઓ ભગવાન વીર પ્રભુ જે એમ ४. छे , “क्रियमाणं कृतम् " " यच्चलत् तत् चलितम् ” “ यदुदीर्यमाणं तदु. दीरितम्" यमाय छ त थ यूयु छ, २ -याली २ छ, ते यादी
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧