SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 364
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ९ उष्णपरोषहजयोपदेशः ३०९ , दिकं तेन परिताप:- उष्णपरितापस्तेन तर्जितः, अत्यंत पीडितःसन्, तथापरिदाहेन = सूर्यकिरण संतप्तवायुना 'लू' इति भाषामसिद्धेन दाहज्वरादिकृतान्तरिकता पेन वा, तर्जितः, तथा परितापेन = सूर्यकिरणादिजनिततापेन- तर्जितः, सातं = सुखं प्रति न परिदेवयेत् = हा ! कदा मम चन्द्रचन्दनशीतलानिलादिभिः सह संयोगो भविष्यति येन मम शान्तिः स्यादिति ॥ ८ ॥ उपदेशान्तरमाह मूलम् - उपहाहितत्तो मेहांवी, सिगाणं नो विं पत्थंए । गायं नो परिसिंचेज्जा, ने वीऍज्जा यं अध्पेयं ॥ ९ ॥ छाया - उष्णाभितप्तः मेधावी, स्नानं नो अपि प्रार्थयेत् । गात्रं नो परिषिञ्चेत्, न वीजयेच आत्मानम् ॥ ९ ॥ संयोग से तप्त ऐसे जो भूमि, धूलि, एवं पाषाण आदि हैं उनके द्वारा जो परिताप-कष्ट होता है उससे, तथा (परिदाहेण ) सूर्य की किरणों द्वारा गर्म हुई वायु से लूसे, अथवा दाहज्वर आदि से होने वाले आन्तरिक ताप से (परिया वेणं - परितापेन) एवं सूर्य की किरणों से उत्पन्न हुई अत्यंत गर्मी से ( तज्जिए - तर्जितः ) अतिशय पीडित साधु ( सायं नो परिदेवए- शातं नो परिदेवयेत् ) सुख की वाच्छा न करे - हा ! किस समय मुझे चन्द्र अथवा चंदन के समान शीतल पवनादि का संयोग मिलेगा कि जिस से मुझे शांति मिले। अर्थात् साधु का कर्तव्य है कि वह हरएक अवस्था में उष्णपरीषह को जीते किन्तु इस से घबरावे नहीं ॥ ८ ॥ સંચાગથી તપેલ એવી જે ભૂમિ ધૂળ અને પાષાણવાળી છે. તેના દ્વારા જે કષ્ટ થાય छे, मेनाथी तथा “परिदाहेण” सूर्यनार द्वारा गरम थयेला वायुथी सूथी, अथवा हाडेनवर आद्दिथी थनार यांतरिङ तापथी परियावेणं- परितावेन भने सूर्यना रिबोथी उद्दूलवेस अत्यंत गरभीथी तज्जिए-तज्जितः अतिशय पीडित साधु "सायंनो परिदेव - शातं नो परिदेवयेत् सुमनी वांछना न उरे भने उया समये चंद्र અથવા ચંદનની જેવી શીતળ પવન આદિના સાગ મળે કે જેથી મને શાંન્તી થાય. અર્થાત્ સાધુનું કર્તવ્ય છે કે તે દરેક भुते, परंतु तेनाथी गलराय नहीं. (८) અવસ્થામાં ઉષ્ણુ પરીષહને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧
SR No.006369
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages855
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy