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उत्तराध्ययनसूत्रे (सगुप्तिसमितिं समां विरतिमादधानं सदा) जो पांच समिति और तीन गुप्तियों के धारक हैं, तथा सर्वदा सर्वविरति को पालने वाले हैं, (क्षमावदखिलक्षम) पृथिवी के समान जो सर्व प्रकार के अनुकूल प्रतिकूल परीषहादिक को सहन करते हैं, (कलितमजुचारित्रकम् ) जो निरतिचार चारित्र अराधन में सदा तत्पर रहते हैं, तथा-(सदोरमुखवस्त्रिकाविलसिताननेन्दु) वायुकायादि की यतना के लिये जिनका मुखरूपी चन्द्रमण्डल सदा सदोरक मुखवस्त्रिका से सुशोभित है, तथा(अपूर्वबोधप्रदं ) जो अपूर्व समकितरूपी बोध-बीज के दाता हैं और (भववारिधिप्लवम् ) इस संसारसमुद्र से भव्य जीवों के पार होने के लिये नौका समान हैं, ऐसे (गुरु) निर्ग्रन्थ गुरु महाराज को (प्रणौमि) मैं नमस्कार करता हूँ॥३॥
अब टीकाकार भगवानकी वाणी आदिको नमस्कार करके अपनी व्यक्तव्यता प्रकट करते हैं-'जैनों' इत्यादि ।
(जैनों सरस्वती) जिनेन्द्र के मुखकमल से निर्गत द्वादशाङ्गीरूप सरस्वती देवी को, एवं (गणनायकं गौतमं) गणनायक-गच्छ के नायक
(सगुप्तिसमितिं समां विरतिमादधानं सदा )- पांच समिति भने त्रा शुतियाना धा२४ छ, तथा सर्वहा सावितिने पावणा छ, (क्षमावदखिलक्षम) पृथ्वीना समान सब ४।२ना मनु प्रति परिषडाने सहन ४२ छ, (कलितमंजुचारित्रकम् )- नितिया२ यात्रिना आराधना सही तत्५२ २ छ. तथा (सदोरमुखवस्त्रिकाविलसिताननेन्दं) वायुधाय माहिनी યતનાને માટે જેમનું મુખરૂપી ચન્દ્રમંડળ સદા દેરાસહિતની મુંહપત્તીથી सुशालित छ, तथा (अपूर्वबोधप्रदं) अपूर्व समठित३पी माध-भीमना हाता छ भने (भववारिधिप्लवम् ) मा संसारसमुद्रथा भव्य वान पार ४२वामा नौ।समान छ, मेवा (गुरुं) निन्थ शु३ मडा२।०४ने (प्रणौमि) હું નમસ્કાર કરું છું.
હવે ટીકાકાર જીન ભગવાનની વાણું આદિને નમસ્કાર કરી સ્વવક્તव्यता प्र४८ ४२ छे--'जैनी' छत्यादि.
(जैनी सरस्वती) जिनेन्द्रना मु५४मगथी नित शis0३५ स२२वती हेवान, मने. (गणनायकम् गौतम ) आशुनाय४-२छन्नायमावान गौतम
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧