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प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० ३० शिष्याय शिक्षा
२२५ मूलम्-आसणे उर्वचिद्विज्जा, अणुच्चे अकुए थिरें।
अप्पुढाई निरुहाई, निसीएजप्पकुक्कुए ॥३०॥ छाया-आसने उपतिष्ठेत्, अनुच्चे अकुचे स्थिरे ।
____ अल्पोत्थायी निरुत्थायी, निषीदेत् अल्पकौकुच्यः ॥ ३० ॥ टीका-'आसणे' इत्यादि__ अनुच्चे-द्रव्यतो गुर्वासनानीचे, भावतः स्वल्पमूल्यके, अकुचे अकम्पमाने, यद्वा चटत्कारादिशब्दरहिते, स्थिरे समपादवत्त्वेन निश्चले, आसने उपतिष्ठेत् पीठादौ वर्षासु उपतिष्ठेत् उपविशेत् । ईदृशेऽप्यासने साधुः किमवस्थः संस्तिष्ठेदित्याह-'अप्पुट्ठाई' इति अल्पोत्थायी कार्ये सत्यपि ईषदुत्तिष्ठतीत्येवंशीलः, एककार्येणोत्थितः सन् बहुकार्यसंपादक इत्यर्थः । अत-एव-कीदृशः सन्नित्याह
अब शिष्य के लिये आसन की विधि कहते हैं-'आसणे'-इत्यादि।
अन्वयार्थ-शिष्य (अणुच्चे-अनुच्चे) द्रव्यकी अपेक्षा गुरुमहाराज के आसनसे नीचा भावकी अपेक्षा अल्पमूल्यवाला (अकुए-अकुचे) तथा चटचट इत्यादि शब्द से रहित, अथवा हिलनेवाला नहीं ऐसा जो (थिरे-स्थिरे ) स्थिर-चारों पाये जिसके समान हों ऐसे (आसणे-आसने ) आसन - पीठ फलक पाट पाटले आदि, उन पर वर्षाकाल में ( उवचिद्विज्जा-उपतिष्ठेत् ) बैठे। शिष्य जिस आसन पर बैठे वह गुरु के आसन की अपेक्षा नीचा होना चाहिये । तथा अल्प मूल्यवाला एवं हिलने डुलने वाला नहीं होना चाहिये। शिष्य अपने आसन पर जम कर बैठे, कारण विना न उठे, यही बात (अप्पुट्ठाईअल्पोत्थायी ) इस पद द्वारा प्रदर्शित की गई है। उठने का काम यदि
वे शिष्य भाटे सासननी विधि ४ छ, आसणे-त्याह.
स-पयार्थ-शिष्य अणुच्चे-अनुच्चे द्रव्यनी अपेक्षा शुरुमडान मासनथी नीया, सापनी अपेक्षा ६५भुस्यवाणा, अकुए-अकुचे तथा यस्यट त्यादि ४थी २हित अथवा सावनड़ी सेवा थिरे-स्थिरे स्थिर-थारे पायाना से सरमा डाय तवा, आसणे-आसने मासन-पी8 ५४ पाट पारमा मालिसना ५२ वर्षामा उवचिट्रिज्जा-उपतिष्ठेत असे. शिष्य २ આસન ઉપર બેસે તે ગુરુના આસનથી નીચું હોવું જોઈએ, તથા હલે ચલે નહીં તેવું હોવું જોઈએ. શિષ્ય પિતાના આસન ઉપર સ્થિર થઇને બેસે, કારણ १२ न 68, अप्पुट्ठाई-अल्पोत्थाई ॥ पात मा ५४ ॥२॥ प्रहशित ४२पामा उ० २९
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧