SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ उत्तराध्ययनसूत्रे ' निरुहाई' इति निरुत्थायो - प्रयोजनेऽपि न पुनः पुनरुत्थानशीलः पुनः कीदृशः सन्नित्याह - ' अप्पकुक्कुए ' इति अल्पकौकुच्यः - अल्पं कौकुच्यं यस्य स तथाअत्रापशब्दो नञर्थे वर्तते तथाच - करचरणभ्रूभ्रमणाद्यशिष्टचेष्टारहित इत्यर्थः निषीदेत् = उपविशेत् । ' अनुच्चे' इति विशेषणेन विनयः प्रदर्शितः । 'अक्कुचे ' इत्यनेन द्वीन्द्रियादित्रसजीवयतना सूचिता । स्थिरे' इत्यनेन वायुकाययतना सूचिता । 'अल्पस्थायी' इत्यनेन निषद्यापरिषद विजयः सूचितः । 'निरुत्थायी' इत्यनेन आभ्यन्तरिकव्युत्सर्गतपसः समाराधनाऽऽवेदिता । " , पडे भी तौ भी जब उठे तब जिस काम के लिये उठा हो उस समय और भी जो काम करना हो वे भी कर लेवे । तथा (अप्पकुक्कुए- अल्प कौकुच्यः) हाथ तथा पैर एवं भ्रू आदि का अशिष्ट संचालन न करे, तात्पर्य यह कि यदि यह पाठ आदि आसनपर जमकर बैठे तो भी ऐसी हालत में जिस प्रकार संसारी जन बैठे २ ही हाथ पैर आदि हिलाया डुलाया करते हैं वैसी अशुभ चेष्टाएँ नहीं करनी चाहिये । सूत्रकार ने ' अनुच्चे' इस पद द्वारा विनयगुण प्रदर्शन किया है। 'अकुचे' इस विशेषण द्वारा द्वीन्द्रियादि जीवों की यातना का सूचन किया है। 'स्थिरे' इस शब्द द्वारा वायुकाय की यातना का 'अल्पोत्थायी' इस पद द्वारा निषद्यापरीषह के विजय का 'निरुत्थायी' इस द्वारा आभ्यन्तर આવેલ છે. ઉઠવાનું કામ જો પડે તે પણ જ્યારે ઉઠે ત્યારે જે કામ માટે ઉઠેલ હાય તેની સાથે ખીજું પણ જે કામ કરવાનું હોય તે કરી લે. તથા अक्ष्पकुक्कुए–अल्पकौकुच्यः तथा हाथ अने पग तथा क्रू वगेरेनु अशिष्ट संचालन ન કરે. તાત્ય એ છે કે, જો તે પાટ આદુિ આસન ઉપર સ્થિર બેસે તે પણ એવી હાલતમાં જે પ્રકારથી સંસારી જન બેઠાં બેઠાં જ હાથ પગ વગેરે હુલાવ્યાडोलाव्या कुरै छे ते रीते अशुल येष्टाओ। रवीन लेई थे. सूत्रारे “अनुच्चे " आ પદ દ્વારા વિનયગુણુ પ્રદર્શન કરેલ છે. અત્તે આ વિશેષણ દ્વારા દ્વિ ઇન્દ્રિયાદિ જીવાની યતનાનું સૂચન કરેલ છે. સ્થિરે આ પદ દ્વારા વાયુકાયની યત્નાનું सूयन उरेल छे. “ अल्पोत्थायी " से यह द्वारा निषेधा परिषहुना विभ्यनुं सून्यन उरेल छे. निरुत्थायी थे यह द्वारा आभ्यंतर व्युत्सर्ग तपना तथा ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧
SR No.006369
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages855
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy