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________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ४ सद्दष्टान्तमविनीतलक्षणम् ३७ तरां दशविधक्षेत्रवेदनामनुभूय स गर्भाद् गर्भ, जन्मतो जन्म, मरणाद् मरणं, दुःखाद् दुःखं, पुनः पुनश्चतुर्गतिदुःखं प्राप्नुवन् दुर्लभबोधितां दीर्घ संसारितां च प्राप्तवान् || ३ || अविनीतस्य सदृष्टान्तमवस्थामाह मूलम् — जहां सुणी पूइकण्णी, निक्केंसिज्जइ सव्वसो । एवं दुस्सील पडिणीए, मुहंरी निक्कसि ॥ ४ ॥ छाया यथा शुनी पूतिकर्णी निष्कास्यते सर्वतः । एवं दुःशीलः प्रत्यनीकः मुखारिर्निष्कास्यते ॥ ४ ॥ 'जहा० ' इत्यादि - यथा- पूतिकर्णी - पूती - दुर्गन्तवन्तौ कर्णौ यस्याः सा तथोक्ता, कर्णगतानेकविषमत्रणपरिपाकजनितदुस्सहदुर्गन्धपूयविकृतरक्तस्रावस्थितकृमिमक्षिका निकर दंशनोद्भूततीव्रतर वेदनाव्याकुलतया प्रतिक्षणमितस्ततो भ्रम - न्तीत्यर्थः, शुनी=कुक्कुरी, सर्वशः = सर्वप्रकरेण प्रतिस्थानात् निष्कास्यते = निःसार्यते, और घोर नरक में जाकर नारकी की पर्याय से उत्पन्न हुआ। वहां उसने दश प्रकार की तीव्रतर क्षेत्रसंबंधी वेदना को पाया। वहां की स्थिति को समाप्त कर जब वह वहां से निकला तो भी इस के दुःखों का अन्त नहीं आया । एक गर्भ से दूसरे गर्भ में पहुंचना और वहां के कष्टों को भोगना, फिर वहां से मर कर पुनः जन्म धारण करना और कष्टों को भोगना, इस प्रकार अनंतसंसारी बने हुए इस क्षुद्रबुद्धि की आत्मा को बोधिका लाभ दुर्लभ हो गया ॥ ३ ॥ अविनीत की अवस्था को दृष्टान्त द्वारा सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं'जहा सुणी०' इत्यादि । દસ પ્રકારની તીવ્રતર ક્ષેત્ર સંબંધી વેદનાએ સહેવી પડી. એ સ્થિતિ ભાગવી એ જયારે ત્યાંથી નિકળ્યા છતાં પણ તેના દુ:ખાનો અંત ન આવ્યા. એક ગર્ભમાંથી બીજા ગર્ભ માં જવું અને ત્યાંનાં કષ્ટ ભાગવવાં. એક સ્થળેથી મરી બીજે સ્થળે ફરી જન્મ ધારણ કરવા અને કષ્ટ ભાગવવાં. આ પ્રકારે અનન્ત સંસારી બનેલ તે ક્ષુદ્રબુદ્ધિના આત્માને બેધિનો લાભ દુર્લભ બની ગયા. अविनीतनी व्यवस्थाने दृष्टांत द्वारा सूत्रार प्रदर्शित उरे छे - 'जहा gunt'. Seeule. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧
SR No.006369
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages855
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size45 MB
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