________________
३८
%
D
उत्तराध्ययनसूत्र एवं अमुनैव प्रकारेण, दुःशील:-दुष्ट-विनयरहितं रागद्वेषदूषितं वा शीलं स्वभावः, आचारो वा यस्य स तथोक्तः, मूले- 'दुस्सील' इति लुप्तपथमान्तम् , तथाप्रत्यनीका प्रतिकूल:-गुर्वादिदोषान्वेषणपर इत्यर्थः, तथा-मुखारिः-विरुद्धभाषणशीलः, वाचा स्वपरानर्थकारीत्यर्थः, यत्तु 'मुहरी' मुखरः इति संस्कृतं मत्वा व्याख्यातम् , तन्न समीचीनं कोशाधनुक्तत्वात् , निष्कास्यते-दूरतः परिवय॑ते । अयं भावः—यथा पूतिकर्णी शुनी शान्त्याशां प्रकुर्वती यत्र यत्र गच्छति तत्र तत्रैव कचिद्दण्डताडिता कचिद् वाचा फट्कारिता कचिद् घृणितदृष्टया विलोकिता ___अन्वयार्थ (जहा-यथा ) जैसे (पूइकण्णी-पूतिकर्णी) सड़े हुए कानोंवाली (सुणी-शुनी) कुत्ती (सव्यसो-सर्वशः) सभी प्रकार से प्रत्येक स्थान से (निकसिजइ-निष्कास्यते) निकाल दी जाती है (एवं) इसी प्रकार (दुस्सील-दुःशीलः) विनयरहित अथवा साधु के आचारसे रहित (मुहरी-मुखारिः) वाचाल-निरर्थक बोलने वाला, (पडिणीएप्रत्यनीकः) ऐसा प्रत्यनीक-गुरु आज्ञा के प्रतिकूल चलने वाला शिष्यकुल-गण-संघ द्वारा गच्छसे हीलना, निन्दना, एवं खिंचना-पूर्वक (निक्कसिजइ) निकाल दिया जाता है ॥ ४॥
भावार्थ-जिस प्रकार कोई कुत्ती कि जिसके दोनों कान बहुत बुरी तरह सड़े हुए हों, और जिनमें से विषम व्रणों-घावों के पड़ जाने सेनहीं सहन करने योग्य ऐसा पीप गिर रहा हो, तथा कीड़े और मक्खियों के काटने से जो उत्पन्न तीव्रतर वेदना से सदा आकुल व्याकुल
अन्वयार्थ -(जहा-यथा) हेम (पूइकण्णी-पूतिकर्णी) सदा नोवाणी (सुणी-शुनी) छतरी (सव्वसो-सर्वशः) संघसा प्राथी (निक्कसिज्जइ-निष्कास्यते) प्रत्ये स्थेणेथी ४ढी भुवामां आवे छे. (एवं) २५॥ रीते (दुस्सील-दुःशीलः) विनयशडीत अथवा साधुना पाया२ रडीत (मुहरी-मुखारिः) पायाव-निरथ ४ मोसा (पडिणीए-प्रत्यनीकः) सेवा प्रत्यनी--शु३ ॥ज्ञा प्रति ચાલવાવાળા શિષ્ય-કુલ ગણ સંઘ દ્વારા ગચ્છથી નિંદિત બની, તિરસ્કૃત सनी (निक्कसिज्जइ) ४ढी भुवामा आवे छे.
ભાવાર્થ-જે પ્રકારે એક કુતરી કે જેના અને કાન ખુબ જ ખરાબ રીતે સડી ગયા છે. અને તેમાં ઉંડા ઘા પડી જવાથી સહન ન થઈ શકે તેવું પરૂ પડી રહેલ છે તથા કીડા અને માખીઓના કરડવાથી તીવ્ર એવી વેદના સહન ન થતાં તેનાથી આકુળ વ્યાકુળ બની આ બધાથી પિતાની રક્ષા કરવા માટે એકાત
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧