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___ उत्तराध्ययनसने वर्षासु वा, परितापेन-उष्णस्पर्शन, हेत्वर्थे तृतीया । पडून वा-प्रस्वेदादाीभूतेन मलेन वा, रजसा वा-परिशुष्य काठिन्यं प्राप्तेन मलेन वा, यद्वा-रजसाधूल्या, क्लिन्नगात्र-व्याप्तदेहः, सन् सात-सुखं समाश्रित्य न परिदेवयेत्-“हा! मममलापगमः कथं कदा वा भविष्यती" - ति कृत्वा न विलपेत् , विलापं न कुर्यादिति भावः ॥ ३६॥ में और वर्षाकाल में (परितावेणं-परितापेन ) उष्णस्पर्श द्वारा आये हुए (पंकेण व-पङ्केन वा) प्रस्वेद द्वारा गीले हुए मैल से (रएण वारजसा वा) या पसीने में संसक्त धूलि से (किलिण्णगाए-क्लिन्नगात्रः) व्याप्त शरीर होने पर भी (सायं नो परिदेवए-सातं नो परिदेवयेत् ) " हा मेरे इस मैल का निवारण कैसे और कब होगा" ऐसा विचार कर विलाप नहीं करे । किन्तु उस हालत में उस परीषह को अच्छी तरह सहन करे, इसका नाम जल्लपरीषह जय है।
भावार्थ-ग्रीष्मकाल में या वर्षाकाल में अधिक गर्मी पड़ने से शरीर में अधिक पसीना आया करता है । उससे शारीरिक मैल ढीला पड़ जाता है । रगड़ने से वह चिपका हुआ मैल शरीर से अलग हो जाता है । पुनः उसी स्थान पर उड़ी हुई रज आकर लग जाती है। उससे शरीर में आकुलता होती रहती है। इस आकुलता से न घबरा कर जो मुनि उस मैल से संसक्त होने का परीषह सहन करते हैं उसोका नाम जल्लपरीषहजय है । साधु स्वप्न में भी यह विचार न ग्रीष्मे Sनगानी *तुमा तथा वा-वा १२६४10 मने वर्षामा परितावेणं-परितापेन SuperN द्वारा मासा पंकेण व-पङ्केन वा ५२सेवा द्वारा सा भतथी रएण वा-रजसा वा मगर ५२सेवामा समेत धूथी किलिण्णगाए-क्लिन्नगात्रः व्याप्त शरीरमना छतi ५६ सायं नो परिदेवए-सातं नोपरिदेवयेत् भा। मामे निवारण કેમ અને કયારે થશે” એ વિચાર કરી વિલાપ ન કરે. પરંતુ તેવી હાલતમાં તે પરીષહને સારી રીતે સહન કરે તેનું નામ જલમલ પરિષહ જય છે.
ભાવાર્થ–પ્રીમકાળમાં યા વર્ષાકાળમાં અધિક ગરમી પડવાથી શરીરમાં અધિક પરસેવે વળે છે. તેનાથી શરીર ઉપર મેલ ઢીલા પડે છે ચોળવાથી તે ચૅટેલ મેલ શરીરથી છુટા પડે છે. ફરી એજ સ્થળે ઉડતી રજ આવીને ચાટે છે તેનાથી શરીરમાં આકુળતા થતી રહે છે. આથી એ આકુળતાથી ન ગભરાતાં જે સુનિ તે મેલને સંસક્તપરીષહ સહન કરે છે એનું નામ જલ્લમલ
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧