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________________ ६४२ उत्तराध्ययनसूने बायकारणवादरूपं जैनदर्शनं, यद्वा-न्याययुक्तं मागं सम्यगदर्शनादिरूपं मार्ग= मोक्षमार्ग श्रुत्वा परिभ्रश्यन्ति-मोक्षमार्गात् पच्युता भवन्ति । अत्र दृष्टान्ताः-जमालिप्रभृतयो निह्नवाः। __ अथ के ते जमालिप्रभृतयः ? इत्युच्यते-जमालिप्रभृतयः सप्त प्रवचननिहवाःमिथ्यात्वाभिनिवेशाज्जिनोक्ततत्त्वापलापकास्त्यक्तसम्यग्दर्शना अभूवन् । तत्र जमालिः प्रथमः, स बहुरतः-बहुषु समयेषु रतः सक्तः, प्रभूत समयैः कार्योत्पत्तिर्भवति, नत्वेकेन समयेनेति प्ररूपयति ॥ १ ॥ तिष्यगुप्तो द्वितीयः-स जीवप्रदेशिकः -जीवः प्रदेश एवं यस्य स जीवप्रदेशः, स एव जीवप्रदेशिकः, चरमप्रदेश एव जीव इति प्ररूपयति ॥२॥ तृतीय आषाढः स तु अव्यक्तिकः, अव्यक्तम्-अस्फुटं वस्तु (नेयाउयं मग्गं-नैयायिकं मार्ग) पंचसमवायकारणवादरूप जैनदर्शन को, अथवा सम्यग्दर्शनादिरूप न्याययुक्त मार्ग-मोक्षमार्ग को (सोच्चाश्रुत्वा) सुनकर भी उसमें श्रद्धानहीं होने से (परिभस्सइ-परिभ्रश्यन्ति) उस मोक्षमार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं इसलिये श्रद्धा को दुलभ बतलाई है। इस विषय में दृष्टान्तस्वरूप जमालि निव आदि समझना चाहिये। जमालि आदि कौन हैं ? इस विषय को यहां प्रदर्शित किया जाता है। ये जमालि आदि सात व्यक्ति निह्नव-प्रवचन को छिपाने वाले हुए हैंमिथ्यात्व के अभिनिवेश से जिनोक्त तत्त्व के अपलापक-सम्यग्दर्शन से रहित हुए हैं। इनमें सर्वप्रथम जमालि हुए हैं, इनकी मान्यता यह है कि अनेकसमयों से द्रव्य की उत्पत्ति होती है, एक समय से नहीं? द्वितीय निहव तिष्यगुप्त हुए हैं, इनकी ऐसी मान्यता है कि जीवका एक अन्तिम प्रदेश ही जीवस्वरूप है २ । तृतीय निहव आषाढ हुए हैं, इनकी मगं-नैयायिक मार्ग पांय सभवाय४।२६पा६३५ नशन मथा सभ्य शनाहि३५ न्याययुत भाग-भाक्ष भागने साये सोच्चा-थत्वा सांसजीने ५६ सनामा श्रद्धा नवाथी परिभस्सइ-परिभ्रश्यन्ति से मोक्षमाथी भ्रष्ट थर्ड જાય છે. આ માટે શ્રદ્ધાને દુર્લભ બતાવેલ છે. આ વિષયમાં દષ્ટાંતસ્વરૂપ જમાલિ નિદ્રવ આદિ સમજવા જોઈએ. જમાલિ આદિ કેણ હતા એ વિષયને અહિં પ્રદર્શિત કરવામાં આવે છે. એ જમાલિ આદિ સાત વ્યક્તિ પ્રવચનનિધ્રુવ છુપાવવાવાળા હતા. મિથ્યાત્વના અભિનિવેશથી જીત તત્વના અપક્ષાપક – સમ્યગ્રદર્શનથી રહિત હતા. એમાં સર્વ પ્રથમ જમાલિ હતા. એમની માન્યતા એ હતી કે અનેક સમયેથી દ્રવ્યની ઉત્પત્તિ થાય છેએક સમયથી નહી. (૧) દ્વિતીય નિવ તિષ્યગુપ્ત હતા, એમની એવી માન્યતા હતી કે, જીવને એક અંતિમ પ્રદેશ જ જીવ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧
SR No.006369
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages855
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size45 MB
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