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________________ २ 6 उत्तराध्ययन सूत्रे | हिन्दी भाषानुवाद | उत्तराध्यनसूत्र पर संस्कृत टीका करने के पहले टीकाकार सर्वप्रथम अन्तिम तीर्थकर श्रीवर्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार करते हैंभवजलधि० ' इत्यादि । (भवजलधिनिमज्जज्जीवरक्षैककृत्यं) अपार संसाररूप समुद्र में डूबते हुए जीवों की रक्षा करना ही जिनका कार्य था, (विमल - हितवचोभिर्दर्शितात्मैकसूत्यम् ) जिन्होंने अपनी निर्मल हितावह देशनाओं के द्वारा भव्यात्माओं को आत्मकल्याण का मार्ग प्रदर्शित किया, तथा (सुर नर मुनिवृन्दैर्वन्यमानाङ्गिपद्मम् ) जिनका चरणकमल सुर-नर और मुनियों के समूह से वन्द्यमान था, ऐसे (सकल गुणनिधानं ) सभी गुणों के समस्त क्षायिक गुणों के निधानस्वरूप ( वर्धमानं ) चरम तीर्थंकर श्रीवर्धमानस्वामी को ( प्रणौमि ) मनवचन काया से मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥ भावार्थ - वर्धमान प्रभुने इस अपार संसाररूपी समुद्र में डूबते हुए जीवों को आत्म उद्धार का मार्ग बतलाया, उस मार्ग से ગુજરાતીભાષાનુવાદ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઉપર સંસ્કૃત ટીકા કરતાં પહેલાં ટીકાકાર સર્વ પ્રથમ अन्तिम तीर्थ ४२ श्री वर्धमान भनेन्द्र नमस्२ १२ छे :-'भवजलधि०' त्यिाहि. भव जलधिनिमज्जज्जीवरक्षैककृत्यं —અપાર સંસારરૂપ સમુદ્રમાં ડુબતા वोनी रक्षा श्वानुं ४ मनु' अर्थ तुं, विमलहितवचोभिर्दर्शितात्मैकसृत्यम्જેમણે પેાતાની નિર્મલ હિતાવહ દેશનાએથી ભવ્યાત્માઓના આત્મउद्याशुना भार्ग सभलव्यो, तथा सुर नर मुनि - वृन्दैर्वन्यमानाङ्घ्रिपद्मम्— मनां थरण उभा सुर-नर भने भुनियोना सभूडने वहनीय हुतां, मेवा सकलगुणनिधानं—मधा गुणेोना-समस्त क्षायि गुणाना - निधानस्व३५, वर्धमानं— थरभ तीर्थ १२ श्री वर्धमान स्वाभीने प्रणौमि — भन वयन प्रयाथी नभस्र ३ . ભાવાવ માન પ્રભુએ આ અપાર સંસારરૂપી સમુદ્રમાં ડુબતા જીવાને આત્મ ઉદ્ધારના માર્ગ ખતાન્યા. તે માર્ગથી તેમની રક્ષા થઈ. આથી ભગવાનને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧
SR No.006369
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages855
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size45 MB
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