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प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ४६ द्वितीयाध्ययनसमाप्तिः पतितो न भवेदित्यर्थः । इति ब्रवीमि-भगवता यथा प्रतिबोधितं, तथा कथयामि न तु स्वबुद्धया प्रकल्प्येति भावः ॥ ४६ ॥
इति श्रीविश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मायकवादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपति- कोल्हापुरराजप्रदत्त" जैनशास्त्राचार्य "-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलालवतिविरचितायां श्रीमदुत्तराध्ययनमूत्रस्य प्रियदर्शिन्याख्यायां व्याख्यायां परीषहनामकं द्वितीयमध्ययनं सम्पूर्णम् ॥ २॥
-(०)होवे-संयम से पतित नहीं होवे। " इति ब्रवीमि" इस प्रकार हे जम्बू। भगवान ने जैसा कहा है मैंने वैसा ही कहा है। अपनी बुद्धि से कल्पित कर कुछ नही कहा है। ___ भावार्थ-अध्ययन की समाप्ति करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जो साधु इन परीषहों से पराजित नही होता है वह संयम को ठीक २ आराधना करता है । ये बाईस परीषह मैंने नहीं कहे हैं, भगवान् महावीरने कहे हैं। अतः इनका स्वरूप जानकर इनके सहन करने में प्रत्येक संयत को सावधान रहना चाहिये।
॥ यह द्वितीय परीषहअध्ययन समाप्त हुआ ॥२॥
ભાવાર્થ—અધ્યયનની સમાપ્તિ કરતાં સૂત્રકાર કહે છે કે, જે સાધુ આ પરીષહેથી પરાજીત નથી થતાં, તે સંયમની ઠીક ઠીક આરાધના કરે છે. આ બાવીસ પરીષહ મેં કહ્યા નથી ભગવાન મહાવીરે કહ્યા છે આથી એનું સ્વરૂપ જાણીને તેને સહન કરવામાં પ્રત્યેક સંતે સાવધાન રહેવું જોઈએ.
આ બીજું પરીષહ નામનું અધ્યયન સમાપ્ત થયું રા
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ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧