Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOFOFOTOSOSOKOFOTOTEƏKEDY श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः 4881 शास्त्रवार्त्ता- समुच्चय SOOOOOOOOOOOO और उसकी व्याख्या स्याद्वाद - कल्पलता हिन्दी विवेचन स्वचक ९-१०-११ [ अन्तिमः सप्तम: खंड : ] मूलमन्धकार १४४४ ग्रन्थप्रणेता आचार्य श्री हरिभद्रवरीवर व्याख्याकार न्यायविशारद महोपाध्याय श्री यशोविजयगणिवर 737 • हिन्दी विवेचनकार पंडितराज श्री बदरीनाथजी शुक्ल [ निवृत उपकुलपति- संपूर्णानन्द संस्कृत युनिवर्सिटी - वाराणसी | - अभिवीक्षणकार - प. पू. शास्त्रमर्मज्ञ आचार्य श्री विजयभुवनभानुमूरीश्वरजी महाराज - प्रकाशक दिव्यदर्शन ट्रस्ट ६८ - गुलालवाडी- मुंबई - ४ 5:59ROFOROFOOSTE 55555555555 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 'शासबासमुच्चय' ग्रन्थ के नाम के प्रारम्भ में 'शास्त्र' शब्द है। सर्व जीवों के हित का शासन आदेश करने वाले वाक्य या वाक्यसमूह को शास्त्र कहा जाता है । इस व्याख्या के अनुसार सर्वज्ञभगवंत का विधि-निषेधकारक वचन ही सच्चा शास्त्र है । यदि पूछा जाय कि शास्त्र का मुख्य प्रयोजन क्या है तो उस का उत्तर यह है कि अपने दुर्गुणों का-दोषों का दमन-उन्मूलन यही शास्त्र का प्रयोजन है । जिस वचन से दुर्गुणों की-रागद्वेष की वृद्धि होती हो वह वचन उस के लिये शास्त्र नहीं होता । अधिकांश विद्वानों की 'सर्वज्ञ वचन ही शास्त्र है,' इस बातमें सम्मति होने पर भी सब अपने अपने सम्प्रदायों के ग्रन्थों को ही सर्वज्ञवचनात्मक 'शास्त्र सिद्ध करने के लिये तत्पर रहते हैं । और आज तो ऐसा युग आया है कि शास्त्र के बुट्टे को भी न जानने वाले लोग मतावेश में आकर उनके अपने ही वचन को शास्त्र या भगवद्वाणी घोषित करने में जिंदगानी व्यतीत कर देते हैं । ऐसी स्थिति में भगवद् हरिभवमुग्मिहाराज का यह ग्रन्थ अतीव मार्गदर्शक बन सके ऐसा है । __ इस ग्रन्थ में कहीं भी मतावेश का दर्शन नहीं मिलेगा । कुशाग्रबुद्धि अन्धकारने विविध सम्प्रदायों के शास्त्रों की मुख्य मुख्य वार्ता-सिद्धान्तों का ग्रहाँ समुचित एवं प्रामाणिक ढंग से निरूपण किया है । उसके बाद उन वार्ताओं में कितना औचित्य और अनौचित्य हैं यह मीमांसा की गर्या है । प्रारम्भ में अनौचित्य को दिखा कर बाद में उनमें कैसे औचित्य हो सकता है उस का स्पष्ट निदर्शन किया है । यद्यपि हरिभद्रसूरिजी जन्मतः ब्राह्मण है फिर भी मतावेश से दूर रहने के कारण उन का सम्पूर्ण झुकाव जैनदर्शन के सिद्धान्तों में ही रहा है । इस लिये जैन सिद्धान्त के प्रतिपादन के बाद उन्होंने उस का सातवे स्तवक में सयुक्तिक समर्थन ही किया है । अन्य अन्य स्तवकों में भी अन्ततः जैन सिद्धान्तों का ही समर्थन किया गया है। इस तरह, जन्मतः ब्राह्मण होने पर भी जैन सिद्धान्तों की शरण लेने वाले ग्रन्थकारने एक ओर जन्मतः जैन होने पर भी उदासीन रहने वाले सज्जनों को यह सबक दिया है कि तुम जन होते हुये भी जैन सिद्धान्तों से अनभिज्ञ रहते हो यह बड़े शरम की बात है । वेद-पुराण आदि हजारो अन्यों के पढ़ने पर भी मानवजीवन के सही उत्थान के लिये जैन सिद्धान्तों का अध्ययन परम आवश्यक है। शाखवार्ताः ग्रन्थ पर 'स्थाबाद कल्पलता' संज्ञक व्याख्या निर्माण करके महोपाध्याय श्रीयशोविजय महाराजने इस अन्य को शोभा में चार चांद लगा दिये है । शास्त्रवारी मुल प्रन्य का विवरण करते करते महोपाध्यायजीने स्वतन्त्ररूप से अपनी व्याख्या में प्राचीन एवं नव्य न्याय में प्रसिद्ध अनेक वादस्थलों का अवतार किया है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना] प्रस्तुत खंड में स्तबक ९-१०-११ का समावेश किया गया है। ९ सयक में प्रारम्भ में मोक्ष एवं मोक्ष के उपाय की चर्चा की गयी है । मू लग्रन्थकारने यहाँ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति और सम्यग्दृष्टि जींय की भवसमुद्र के बारे में संवेग-वैराग्यगर्भित विचारणा का हृदयंगम वर्णन किया है उस के बाद श्लोक २२ से ज्ञानयोग से मुक्ति प्राप्त होने का जो पहले स्तबक के २१ वी कारिका से कहा गया था उस का स्पष्टीकरण किया गया है। उपाध्यायजी म. ने चौथी कारिका की व्याख्या में भिन्न भिन्न मतों के अनुसार 'मोक्ष क्या है.' यह दिखा कर उन की पूरी समालोचना कर के जनमतानुसार शुद्धात्मस्वरूपावस्था रूप मुक्ति का समर्थन किया है । उपरांत ज्ञान क्रिया का समुच्चय ही मोक्षोपाय है इस का समर्थन करते हुए ज्ञान से ही मोक्ष मानने वाले वेदान्त दुर्नय की तथा सम्यकक्रिया मात्र को मोक्षोपाय मानने वाले पातञ्चल मत की तथा ज्ञान-कर्म के तुल्ययात समुच्चय से मोक्ष मानने वाले भास्करीय आदि मत की समालोचना प्रस्तुत की है। उस के बाद वस्त्रादि को मुक्ति के प्रतिकूल मानने वाले दिगम्बर मत का भी (प्र. २८) विस्तार से निरसन किया गया है । पाँचवी कारिका की व्याख्या में सम्यक्त्व के शम-संवेगादि लक्षणों का मुंदर विवेचन है 1 ११ वी कारिका की व्याख्या में चार गति में कैसा दुख होता है यह दिखाया है । २८ बी कारिका की व्याख्या में शुद्ध चारित्र से केवलज्ञान की प्राप्ति के विवरण में धर्म-शुक्लध्यान का सुंदर विवेचन दिया है । २६ वी कारिका की व्याख्या में-सिद्धों को मुक्ति में 'चारित्र होता है या नहीं' इस चर्चा का विस्तार किया गया है । २५ वी कारिका की व्याख्या में, योगाचार्य के मतानुसार इच्छा-शास्त्र-सामर्थ्य योग तथा धर्मसंन्यास-योगसंन्यास आदि विषय का निरूपण हैं । धे बतमक में मू लग्रन्थकारने सर्वज्ञ सिद्धि के बारे में प्रथम ११ कारिकाओं में पूर्वपक्ष और उस के आगे उत्तरपक्ष किया है । उपरांत सर्वज्ञ के अभाव में बंद के द्वारा धर्माधर्मव्यवस्था का असभव विस्तारसे कहा गया है । उस के बाद आगम प्रमाण न मानने वाले बौद्धों के मत का ४८ वी कारिका से उपन्यास कर के ५० वी कारिका से विस्तार के साथ आगम के प्रामाण्य का और उसे ज्ञानोपाय मानने का निरूपण किया है एवं ६१ वीं कारिका से, आगम में विसंयाद की शंका के निरसन के लिये विषयशुद्धि का भी निरूपण किया गया है। ___उपाध्यायजी महाराज ने इस स्तबक की व्याख्या विस्तार से की है। सर्वसिद्धि के प्रकरण में मीमांसक कुमारिल के शोकवार्तिक की कारिकाओं को पूर्वपक्षमें उद्धत कर के विस्तार से उसका खंडन किया है. इस प्रकरण की पृष्ठभूमि सम्मतितर्क की व्याख्या है। प्रसंगतः इम में पृष्ठ १५ से १३ में पूर्वपक्ष की ओर से अभाव हेतुता विचार किया गया है । पृष्ट २१ से २७ तक पूर्वपक्ष की ओर से वर्णात्मक वेद के नित्यत्र का उपन्यास किया है । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ আমারা विशेषतः पृ० ३९ से ४२ तक सम्बन्धि स्वभावता वस्तु का स्वरूप नहीं है -इस मत का निरसन किया गया है । पृष्ठ ४४ से प्रामाण्यवाद का उपक्रम कर के प्रभाकर मुरारिमिश्र और भट्ट के मत का निरसन किया है, नैयायिकमत का भी निरसन कर के जैनमतानुसार अभ्यासदशा में प्रामाण्य ज्ञान स्वतः और अभ्यास दशा में परतः होता है-इसकी उपपत्ति की गयी है । इस विषय में व्याख्याकारने एक सुंदर संग्रहश्लोक दिया है-(पृ. ६५) प्रामाण्य खत एव केवलदृशां ज्ञप्तौ गुणापेक्षणाद् उत्पत्तौ परतः, स्वतश्च परतश्छाद्मध्यभाजां पुनः । अभ्यासे च विपर्यये च विदितं झप्ता, समुत्पदातेत्वन्यस्मादिति शासनं विजयते जैनं जगज्जित्वरम् ।। १६ घी कारिका की व्याख्या में उपमानप्रमाण की चर्चा में कुमारिल, नैयायिक, मिश्र, नध्य आदि के मतों का निरसन कर के उपमान का प्रत्यभिज्ञा में समावेश का सयुक्तिक प्रतिपादन किया है । १७ वे श्लोक की व्याख्या में असर्वज्ञत्व और वक्तृत्व में कारण कार्य भाव होने का निरसन किया है । पृष्ठ ८५ से ९८ तक चक्षु प्राप्यकारित्ववाद का खंडन किया है। पृ. ९. मे १६ तक जारस के सा: में अन्नामहेता विचार किया गया है । पृ. १८८ से ११० में योगियों के या केवली के प्रत्यक्ष में मन की करणता का प्रतिषेध किया है । घ. १३४ से १४८ तक वर्णात्मक वेद के नित्यत्वका निरसन किया है। प्र. १४५ से १७२ में नैयायिक अभिमत शब्दमें गुणव का निरसन कर के द्रव्यत्व का स्थापन किया है । इस स्तबक के अन्त में (प, १९६ से) दिगम्बर को अनभिमत केलि के कवलाहार का, अनेक प्राचीन-नवीन युक्तियों का उपन्यास कर के विस्तार से समर्थन किया है और प्रवचनसार के व्याख्याकार अमरचन्द्र, न्यायकुमुदचन्द्रका प्रभाचन्द्र एवं सर्वार्थसिद्धि व्याख्याकार आदि के मतों की विस्तृत समालोचना की गर्या है ।। ११ थे स्तबक में मूलग्रन्थकार ने, शब्द अर्थ के वीच तात्विक सम्बन्ध का निषेध कर के अपोह को शब्दवाच्य मानने वाले बौद्धमत का विस्तार से निरसन किया है। (कारिका १ से २९) इस की व्याख्या में शब्द का वाच्यार्थ क्या है इस विषय में भिन्न भिन्न मतों का उल्लेख कर के उन सभी का निरसन किया है, अपोहवाद का सविस्तर खंडन कर के तात्विक सम्बन्ध की उपपत्ति की गयी है । इस प्रकरण में व्याख्याकार ने सम्मतितर्क के दूसरे खंड के प्रारम्भिक अंश का पूर्णतः उपयोग किया है। उस के बाद मूलप्रन्थकारने कारिका ३० से ४८ तक एकान्त ज्ञानवादी एवं एकान्त कियावादी दोनों का खंडन कर के ज्ञान-क्रिया उभय के मिलने से मुक्ति होने का समर्थन किया है । व्याख्याकारने ९ वे स्तबक में ही इस विषय का अधिक विस्तार कर दिया है, अत एव यहाँ ज्यादा विस्तार नहीं किया है, फिर भी ४८ वी कारिका की व्याख्या में उभय हेतुता का अच्छा विचार उपस्थित किया है। ज्ञान प्रदीपतुल्य है, तप है सावरणी से प्रमार्जन करने तुल्य, और संयम द्वारपिधान तुल्य है । ये तीनों आत्मगृह की शुद्धि में एक साथ आवश्यक है-यह सुंदर बात पृ. ३०१-३०२ में की गयी है। कारिका ४५. से मूलप्रन्धकारने मुक्ति में जन्म-जरा-मृत्यु-रोग-शोकादि के अत्यन्ताभाव का एवं शाश्वत सुख का सुंदर वर्णन किया है । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ] - ..- ग्रन्थ के अन्त में स्त्रीमुक्ति का निषेध करनेवाले अप्रामाणिक दिगम्बर मत की व्याख्याकार ने विस्तारसे आलोचना प्रस्तुत की है । शास्त्रवार्ता के प्रत्येक खंड की प्रस्तावना में ग्रन्थगत विषय का संक्षिप्त निर्देश किया है. और वहाँ विस्तार से विषयानुक्रम भी दिया हुआ है । सिंहावलोकन न्याय से फिर से एकयार यहाँ स्मरण कर ले । ___ प्रथम स्तबक में:-भंगलबाद-मुक्तिसुखवाद-अविरत सम्यग्दृष्टि निषिद्धकर्मप्रवृसिचर्चा-पातंजलमतानुसार वृत्तिनिरोध विमर्श-नास्तिकवादनिरसन-सदसत्कार्यवाद-अवयधिस्वातन्त्र्यनिषेधचर्चाअन्धकार भाववाद-अभावाने प्रतियोगिज्ञानकारणताविचार-ज्ञानस्वप्रकाशवाद-अष्ट्रपौलिकत्वबाद... इत्यादि । द्वितीय तथक में :- पुण्य पाप नियमविचार-शब्दस्यतन्त्रप्रमाणसिद्धिविचार-पातंजल माध्यस्थ्योदयविमर्श-हिंसा अहिंसा विचार-वेदविहितहिंसासदोषत्वचर्चा-आत्मकालावभाव-नियतिकएकान्तान... इरसाय, नृतीय स्तबक में :- ईश्वरकतत्वनिरसन-सांख्यपुरुषप्रकृतिवादविमर्श-सांख्यसत्कार्यबादनिरसन...इत्यादि चतुर्थ स्तवक में :- भावक्षणिकत्यहेतुचतुष्टयधिचार-बाह्यार्थसिद्धि-सन्तानसामीपक्षद्वयचर्चायोग्यानुपलब्धिविमर्श-अभाव अधिकरण अभेदचर्चा-समवाय निरसन-क्षणिकवादयाधकविमर्श-निर्विकल्पसविकल्पज्ञानद्वयचर्चा-'घटपटयोरूपप्रयोगविचार...इत्यादि । पाँचवे स्तबक में :- विज्ञानवादियोगाचारमत-उदयन-गंगेशकृतयोग्यतालक्षणसमीक्षा-ज्ञानयालाभदपक्षसमीक्षा-बौद्धदेवेन्द्रचित्रज्ञानसमीक्षा... इत्यादि, ___ छठे स्तबक में :- श्रुणिकत्व साधकहेतुचतुष्टयसमीक्षा वस्तुनित्यानित्यत्वसिद्धि-चित्ररूपवादक्षणिकत्वादिउपदेशप्रयोजनान्वेषण... इत्यादि, सातवे स्तबक में :-जैन सम्मत अनेकान्तवाद उत्पादादित्रयात्मकसत्त्वविचार-नैयायिकामिमतजातिनिरसन-सामान्यविषेशोभयात्मकवस्तुकाद-द्रव्यास्तिक पर्यायास्तिकनयवाद-नयप्रमाणभेदचर्चाअवयत्रीवाद-अद्वैतवावनिरसन नामादि निक्षेपचतुष्टय एवकारअर्थविचार-सप्तभंगव्युत्पादन-चित्राकार ज्ञानवाद-भेदाभेदसिद्धि-अनेकान्तवाददोषनिरसन....इल्यादि, ___ आठवे स्तबक में वेदान्तमतपूर्वपक्ष-तदुत्तरपक्षप्रपश्चमिथ्यात्व- अज्ञान साधक-आभासवादप्रतिबिम्बबाद सालोक्यादिमुक्तिभेदचतुष्टय-ईश्वरे मायावृत्ति-पत्रीकरण-संन्यासअधिकारिविशेषणतासत्त्वमसिपदार्थ-वेदार्थ अनिश्चय-दृष्टिसृष्टिवादनिरसन-अविद्यानिरसन महाविद्यानुमाननिरसन...इत्यादि नववे स्तबक में :- मोक्षोपायविमर्श-सम्यग्दर्शन-ज्ञानयोग-ज्ञानकर्मसमुच्चय-सवामुक्तिवादधर्मशुक्लध्यान-मुक्तौ चारित्रसत्ताधिमर्श-इच्छादियोगत्रय... इत्यादि दसवे स्तबक में सर्वशसिद्धि-धर्माधर्मव्यवस्था-आगमप्रामाण्यप्रतिष्ठा-आगमविषयशुद्धि-अभावहेतुताविमर्श-वेदनित्यतानिरसन-वस्तु- सम्बन्धिस्वभावस्थापन - प्रामाण्यस्वतःपरतोवाद - उपमानस्य प्रत्यभिज्ञान्तर्भाव-चक्षु प्राप्यकारिखवाद-शब्दगुणत्वनिरसन केवलीकवलाहार...इत्यादि, Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] शाखयाता प्रस्तावना ११ वे स्तबक में :-- शब्दार्थसम्बन्धस्थापन-अपोहबादनिरसन-एकान्तज्ञानवादनिरमन-एकान्तक्रियावादनिरसनमुक्तिस्वरूपवर्णन-स्त्रीमुक्तिसिद्धि... इत्यादि, __इस प्रकार, शास्त्रवार्ता और उसकी स्याद्वादकल्पलता व्याख्या में दार्शनिक जगत के अनेकानेक सिद्धान्तों की छानबीन की गर्या है । इतने बहुसंख्य गहन विषयों की चर्चा अन्य किसी एक ही ग्रन्थ में मिलना दुर्लभ है, अत पत्र जिज्ञासुओं के लिये यह ग्रन्थ अवश्य पठनीय-मननीय है। ऋणनिर्देश :-शास्त्रवा० का सम्पादन कार्य पूर्ण हुआ है बह बड़े आनन्द की बात है। इस का श्रेय श्री तीर्थकर-गणधर भगवंतों एवं गुरुदेवों की कृपादृष्टि को है । जिन्होंने मेरे आध्यात्मिक उत्थान में भरसक रस लेकर मुझे विरतिमार्ग में आगे बढाया वे स्व. परमगुरुदेवसुविशालगच्छाधिपति सिद्धान्तमहोदधि-कर्मसाहित्यप्रदीप-निशताधिकमुनिगणनेता श्रीसंघहितप्राधान्यदाता कृपालु-पूज्यपाद आचार्यवर्य श्रीमद् विजयभनरीश्वर महाराजा के करुणामृत की धारा से ही इम ग्रन्थ का सम्पादन नवपल्लवित हुआ है । आप के अनन्य कृपापात्र पट्टालंकार, हजारों युवकों का शिविर के माध्यम से पुनरुत्थान करने वाले, शास्त्र के नाम से किये जाने वाले फिजुल जुल्मों का प्रतिकार करने वाले प्रकार साहसिक, न्यायविशारद, १०८ आबंधीलवर्धमानतपसमाराधक, श्री संहितदर्शी, ननामी पत्रिका के माध्यम से गालीकदम उछालने वाले नामदा के प्रति असीम करणावर्षी, पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय भुवनभानुमरीश्वरजी महाराजा के निरंतर बरसते रहे कृपामेघ ही इस ग्रन्थ के सम्पादन में प्राणपूरक रहा है । आप के पट्टालंकार सिद्धान्तदिवाकर-सुदृढसंयनालंकार-आद्यप्रवचनप्रभावक-पूज्यपाद गुरुदेव श्री विजय जयघोषसूरीश्वरजी महाराजा की अमूल्य सहाय के बिना एसे कार्य की सम्भावना ही नहीं हो सकती । विशेषतः दूर-निकटवर्ती अनेकानेक शुभेच्छक मुनियंद की सहानुभूति एवं पू. मुनिराजश्री नदीवोष विजय, पू, तपस्विरत्न मुनिश्री जयसोम विजय तथा मुनिश्री मनोरत्न विजय आदि सेवाभावि मुनियों का दृढ़ सहकार न मिलता तो इस अन्य के प्रस्तावनादि के लेखनकार्य के लिये मैं कभी समर्थ न हो सकता । ' कोल्हापुर के शाहूपुरी जैन श्वेताम्बर संघ के अग्रणीयों द्वारा की गर्या महती सेवा को भी मैं कैसे भूल सकुँगा ? शासनदेव को यही प्रार्थना है कि ऐसे उत्सम ग्रन्थरन्न के स्वाध्याय द्वारा अधिकृत मुमुक्षु वर्ग कदाग्रह विष का उद्भिरण कर के आत्महित को सिद्ध करें । बि. सं.। २०४४ जयसुंदरविजय Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय शास्त्रवार्ता के सम्पादन में किसी एक व्यक्ति का नहीं किन्तु अनेक महानुभावों का योगदान रहा है । निम्न लिखित इतिवृत्त को पढ़ने से यह भलीभाँति अवगन होगा । वि. सं. २०२६ में पूज्यपाद गुरुदेव भाचार्यश्री विजयभुवनभानुसूरि महाराज (उम बक्त पन्यास प्रवर श्री भानुविजय गणिवर) कलकत्ता की ओर विहार करते हुए वाराणसी पधारे । जिन के पास उन्होंने नव्यन्याय का अभ्यास किया था वे संपूर्णानन्द संरकृत युनिवर्सिटी के प्रोफेसर पंडितराज श्री बदरीनाथजी शुक्ल उस वक्त वहाँ ही थे, परस्पर मिले. अनेक दार्शनिक चर्चाप हुयी । परस्पर विचार-परामर्श हुआ नव यह निश्चित किया गया कि शास्त्रवार्ता की स्थाद्वादकल्पलता व्याख्या के अभ्यास का लाभ अनेक छात्रों को मिल सके एतदर्थ उसका हिन्दी विवेचन छपाया जाय । __पंडितजीन हिन्दी विवेचन के निर्माण की जिम्मेदारी अपने शिर पर दठायी । पांडित्यपूर्ण स्याद्वादकल्पलता का विवेचन यह कोई जैसे तसे पंडिन का काम भी नहीं था। हर्ष की बात है कि विवेचन के लिये व्युत्पन्न पंडित मिल गये । पंडिताजी ने वाराणसी में रह कर ग्रथम स्तबक का विवेचन पृण किया । पूज्य गुरुदेवश्री कलकत्ता-कानपुर दो चातुर्मास कर के गुजरात लौट आये । उन की कृपादृष्टि से अमदाबाद में मेरा न्याय का अध्ययन ठीक चल रहा था । पूज्यश्री का चातुर्मास जब सावरकुंडला में वि. सं २०३० में हुआ उस वक्त अमदावाद में हमने पं. दुर्गानाथ झा के पास इसी ग्रन्थ का अध्ययन प्रारम्भ किया था 1. सावरकुंडला पूज्य गुरुदेवश्री को यह बात ध्यान पर उपरोक्त प्रथम स्तघक का हिन्दी विवेचन अमदाबाद में मुद्रित कराने के लिये पूज्यत्रीने मेरे पाम भेज दिया 1 पंडितजी रहे यु.पी. के, अतः उन के हस्ताक्षर से नहीं थे कि अमदाबाद के कम्पोझीटर सरलता से पढ सके । इस लिये पहले तो अन्य के मूल-च्याख्या के पाठ से हिन्दी विवेचन को संबोजित करके लहिया के पास उस की प्रेस कोपी लिखायी। पंडितजीने हिन्दीविवेचन तो अच्छा किया था, किन्तु जिस प्रत के आधार से उन्हों ने विवेचन किया था उस पूर्वमुद्रित प्रत के पाठों में कहीं कहीं अशुद्धियाँ बहुन थी । उसका शोधन करने के लिये मैंने संवेगी उपाश्रय-अमदावाद के हस्तलिखित ज्ञानभंडार से एक प्राचीन प्रत निकाली और वह प्रत पूरे १ से १ स्तबक के मूल-व्याख्यापाठ के संशोधन में मेरे लिये अत्यन्त उपयोगी बन रही । शुद्ध पाठ की उपलब्धि से पंडितजी को भी अग्रिम स्तचकों के हिन्दी विवेचन में सरलता रही । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्त्ता सम्पादकीय अमदाबाद में पहले स्तबकका मुद्रण शुरू होने के बाद पूज्य गुरुदेवश्री का चातुर्मास जामनगर हुआ । वहाँ दिवाली वेकेशन में पंडितजी एक मास के लिये गये थे और उतने अवधि में वहाँ दूसरे और तीसरे स्तबका हिन्दी विवेचन अपने समक्ष मुनियों को बैठा कर लिखवाया था । जामनगर के बाद वि. सं. २०३२ का चातुर्मास पूज्यश्री ने अमलनेर (खानदेश) में किया । मैं भी उस वक्त पूज्यश्री के साथ था | पंडितजी वहाँ आये और करिवन आठ मास तक यह कार्य चलता रहा । यद्यपि पहला स्तत्रक दिव्यदर्शन ट्रस्ट की ओर से प्रकाशित होने वाला था, किन्तु पंडितजी की इच्छा एवं सूचना से वह पहला खंड चौखम्बा औरिखन्दालिया 'वाराणसी (U.P.) की ओर से प्रकाशित करवाया गया । अमलनेर में पंडितजी को रहने के लिये शीतल बिल्डिंगवाले मलुकचंदजी के पुत्रों ने अपने बिल्डिंग में एक पूरा फ्लेट ही खाली कर दिया | एवं नेमिचन्द्र मिश्रीमल बन्धुयुगल की ओर से पंडितजी के लिये संपूर्ण भोजन - पानी इत्यादि का प्रबन्ध हो गया । १०] मैं और दूसरे भी अनेक जिल्हा पनि आदि पात ९ मे १२ और पड़ने ३ से ६ घंटे तक पतिजी के पास अध्ययन के लिये बैठते थे । साथ साथ शास्त्रवार्त्ता के चौथे स्तबक का विवेचन चालू कर दिया | पहले तीन स्तबकों के विवेचन से इस में कुछ विशिष्टता यह थी कि पहले तीन स्तबक में परस्पर विचार- परामर्श नहीं हुआ था जब कि इस में पहले प्रातः तीन घंटे स्याद्वादकल्पलता की पंक्ति पृष्ठों पर काफी प्रश्नोत्तर रूप में परामर्श होता था उस के दुपहर तीन घंटे विवेचन लिखने का कार्य होता था और लिखते समय भी नया परामर्श होता था । इस प्रकार पंडितजी के और हमारे समवाय प्रयत्नों से स्तबक ४-५-६-७ और ८ का हिन्दी विवेचन अमलनेर में हो सका । बाद में अमलनेर से हमारा विहार हुआ और पंडितजी वाराणसी लौट गये । वहाँ जाने के बाद वे संपूर्णानन्द संस्कृत युनिवर्सिटी के बाइस चान्सलर पद पर नियुक्त हो जाने से ९-१०-११ स्तबकों के विवेचन में काफी विलम्ब होने पर भी आखिर उन्होंने पूरा लिख कर भेज दिया । मुद्रणालय में देने के पहले १ से २१ स्तबकों की संपूर्ण प्रेसकोपी के सुवाच्य सम्पादन - संस्कृत अन्य का प्राचीन प्रत के आधार से संशोधन, उस में योग्य रीति से परिच्छेदों का वर्गीकरण तथा पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष की पंक्तियों का अभ्रान्त विभाजन एवं उद्धृत पाठों के मूल स्थानों का यथासंभव अन्वेषण कर के उनका उल्लेख करना तथा उन मूलग्रन्थों के उद्धरणों की व्याख्या के साथ यहाँ हिन्दीविषेचन की तुलना कर लेना, कुछ वैपरीत्व हो तो सुधार लेना और अकारादि क्रम का परिशिष्ट बनाना इत्यादि सम्पादन कार्य की जिम्मेदारी मेरे सीर पर रही। तथा हिन्दी विवेचन की प्रेसकोपी का भी अच्छी तरह सम्पादन, बीच बीच में विषय के अनुरूप शिपक लगाना, परिच्छेदों का समुचित विभाजन करना, पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष की पंक्तियों को अलग कर दिखाना, विवेचन में कोई त्रुटि हो उस को सुधारना - संशोधन करना, आवश्यकता के अनुसार टीपण लिखना तथा मुद्रण के काल में सभी मुकों को जाँचना और हर स्तबकों के विस्तृत विषयानुक्रम शुद्धिपत्रक तैयार करना ... इत्यादि कार्यों की जिम्मेदारी भी मेरे सीर पर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११ रही । इस को अच्छी तरह अदा करने में मेरे से त्रुटि हो गयी हो तो उस के लिये क्षमायाचना । प्रेसको: का सम्पादन संशोधन { निरीक्षण) कार्थ हो जाने के बाद पूज्यपाद गुरुदेवश्री विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी महाराजा भी उसका सूक्ष्म दृष्टि से जांच निरीक्षण कर लेते थे, जिस से कोई त्रुटि रह गयी हो तो वह निकल जाय । कइ जगह आपने भी आवश्यकतानुसार टिप्पण लिखे हैं । प्रथमम्तवक्र में कई टीपण पडितजीने अपने आप मी लिखे हैं । शद्धप्रेसकोपी के लेखनकार्य में स्व. मुनिश्री द्वितश्वर विजय महाराज का अच्छा सहकार निःसंकोच मिलता रहता था। पहले स्तबक का मुद्रण अमदावाद में गमानन्द प्रिन्टींग श्रेस में हुआ । २-३-४ स्तबकों का मुद्रण पिंडवाडा (राज.) ज्ञानोदच प्रिन्टींग प्रेस में हुआ । ५-६-७-८ और नववे स्तबक का मुद्रण व्यावर (राज.) गौतम आर्ट प्रिन्टर्सने किया । १० और ११ व स्तबक का मुद्रण भरत प्रिन्दरी अमदावाद में हुआ-इस प्रकार अमदाबाद से मुद्रणयात्रा का प्रारम्भ और अमदावाद में ही उस की ममामि हुनी । ये सभी मुद्रक धन्यवाद के पात्र बने हैं ।। हिन्दी विवेचन के निर्माण में एवं पूरे अन्य के मुद्रण में विविध ग्राम नगरों के जन ने. मू. जैन संघों के ज्ञाननिधि में से अच्छा आर्थिक सहयोग मिला है । वे मी संघ भी धन्यवाद के पात्र हैं । प्रत्यक्ष या परोक्षरुप से दूर निकटवर्ती मुनिद का जो कुछ सहयोग मिला है. वह आवस्मरणीय है। पूज्यपाद स्व. आ. श्री प्रेममृरावरजी महाराजा, प. पृ. आ. श्री भुवनभानुसूरि महाराजा, प. पू. मुनिराजश्री धर्मोपविजय महाराज एवं उनके शिष्यरत्न प.पू.आ. श्री जयघोषसू रिमहाराजा इन सब गुरुदेवों की कृपा से किये गये इस विशाल प्रन्थ के संशोधन सम्पादन कार्य से जो कुछ पुण्यार्जन हुआ इस से भव्यजनों को अज्ञानविरह हो यही शुभेच्छा । वि. स. २०४४ । लि० जयसुंदरविजय कोल्हापुर संकेतसूचि वृहत्संग्रहणी सामाचारीप्रकरण पच्च. नि. यू. पच्चकखाणनियुक्ति चूणि वा. प. वाक्यपदीय त. सं. तत्यसंग्रह भ्या . कु. न्याय कुसुमाञ्जलि श्लो. वा. लोकवार्तिक प्र. तार योगदृष्टिसमुच्चय प्रधधनसार प्र. बा. प्रमाणवासिक श्रा. प्र. श्रापकप्रशनि उप. माला उपदेशमाला स्था . स्थानाङ्ग वि. आ. विशेषावश्यकमाध्य प्र. र. प्रशमरति आवश्यकनियुक्ति ल. वि. ललितविस्तरा त. स. तत्त्वार्थमन दशवे. दशवकालिक अ.म. प. अध्यात्ममतपरीक्षा भाषा. आषाराज सामा. यो. सं. आ. नि, Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थानुक्रमणिका पृष्ठ | विषय प्रकाशकीय निवेदन प्रस्तावना सम्पादकीय विषयानुक्रमः नवमः स्तरका १ से १३४ व्याख्या मंगलाचरणम् भगवान् महावीर के चरणों की नख कान्ति का सस्तव शंखेश्वरपाश्वनाथ भगवान के नामोच्चारण का प्रभाव जिनशासनकी सत्तिमता मोक्षप्राप्ति के उपाय का अस्तित्व है ? पूर्वपक्ष मोक्षोपाय क्रमपरिणतिसापेक्ष -इस आशंका का निरसन मोक्ष का उपाय: शान-दर्शन-चारित्र -उत्तरपक्ष नयायिक अभिमन मोक्ष की समीक्षा ६ चरमःखवंसस्वरूप मोक्ष मानने में बाधा दुःवयंस या दुःखात्यन्ताभाषरूप मोक्ष -एकदेशी परमात्मा में आत्मा के लयस्वरूप मुक्तिघिण्डि निरुपालय चित्तमन्तति मोक्षविज्ञानवादियो मुक्ति स्वातन्त्र्य स्वरूप है प्रकृति और उसके विकारों का विलय मुक्ति-साध्य विषय अनिमचित्तानुत्पादसहित पूर्वचित्तनाश मुक्ति-बौद्ध नित्यनिरतिशयसुख की अभिव्यक्ति मोक्ष -मीमांसक अधिधा नित्त होने पर केवल आत्मस्वरूप मुक्ति -वेदान्ती ज्ञानमात्र मोक्षोपायवादी वेदान्तीका निरसन प्रारब्धकर्म में अज्ञाननिवृत्ति प्रतिबन्धकत्व अमंगत मम्यक् क्रिया भी मुक्ति का हेतु १७ योगात्मक क्रियामात्र मोक्षोपायवादी पातंजलमतसमीक्षा ज्ञान-कर्म समुच्चय में मोक्षঅগ্নিামিন্নাথ शान-कर्म तुल्यवत् समुच्चयवादी भास्करमत शान के साथ कितने कर्म मोक्षजनक ? भास्करमत की समीक्षा द्रव्यात्मक अहरसिद्धि में बाधक शंका का निरसन कर्म से तत्वज्ञानद्वारा मोक्षलाभउनयनाचार्य उदयनाचार्यमत की समीक्षा ज्ञान-कर्मसमच्चयवाद का समर्थन २५ ज्ञानमात्र से मोक्ष-नव्यमत नव्यमत-निरसन युक्तियाँ नग्नता का आग्रही दिगम्बर मत दिगंयरों का निर्वस्त्र-निर्ग्रन्थता का समर्थन Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ विषय दिगम्बरमत का खण्डन बनादिपरिग्रह में पकान्तिक छेद की आशंका एकातिक छेद की आशंका का समाधान वस्त्रादि के परिग्रह में ग्रन्थ प्यवहार असिद्ध घखादि में प्रन्थस्वसाधक अनुमान का भंग स्वत्वपर्याय से यत्रादि में परिप्रह की आपत्ति-दि. मूच्छांविषयत्व या कयाधुपाय विषयत्वरूप स्वत्व अमान्य नये ढंग से स्वत्व के निर्वचन में भी अन्योन्याश्रय विभिन्न प्रकार के स्वत्व पक्ष में अनुगत ध्यवहार अनुपपन्न तृष्णाशुन्य स्त्रत्वपर्याय अबाधकश्वेतारघर आहार और वनावि तुल्यरूप से अपरिग्रह ४० यत्रादि के धारण से प्रमाद की शंका का निरसन यत्रावि आत्मदर्शन के बाधक नहीं ४१ आहारवत् वनादि उपकरण दुस्त्यज ४२ वस्त्रधारण का विधान नियमविधिरूप ४ वस्नग्रहण में जीयोत्पत्ति आदि दोष का निरसन घनग्रहण के अनेकलाम पात्रग्रहण से अनेक लाश अभ्यन्तरतपविरोधी बायतप अग्राख २८ बबादि साक्षात्-परम्परया मुक्तिसाधक न होने की शंका का निरसन १९ दिगम्बर के मूल अतुमान में क्षतियाँ ५० बसग्रहण से पच्चक्वाण का भंग नहीं ५१ विषय अध्यातिपरिणति आरमधर्म नहीं है ५२ वनादि संनिधान में आत्मरति अबाधित ५३ स्वयंगृहीत तस्य में भी पति के अभाव का संभव संरक्षणानुबन्धि रौनध्यान को अवकाश नहीं अधापरिषह जय की भांति आचलक्यपरीपह विजय संचलकत्व आचेलक्ष्य का विरोधी नहीं ५८ तीर्थकरादि में भी पूर्ण आचेलय अप्रसिद्ध अनुकरण छोडो, आज्ञापालन करे ६० दिगभ्यरमतनिरसन उपसंहार ६१ पर्याय पदों से दर्शन की स्तवना समग्यदर्शन के अभिव्यंजक शमादि लक्षण मोक्षोपाय सभी को सुलभ क्यों नहीं? ६७ मुरुदशामें कोई भेदभाव नहीं होता ६८ प्रथमसम्यग्दर्शन के प्रादुर्भाव की शेष प्रक्रिया अपेक्षित कर्मस्थितिहास सर्वजीय में असम्भव पूर्वपूर्वगुणसम्पदा से उत्तरोत्तर गुपवृद्धि प्रथम सम्यग्दर्शन भी निर्गुण को प्राम नहीं होता भस्यत्य की शंका से योग्यत्य का निर्णय ७४ भवस्थितिकारक बुरित का ज्ञान उसके नाश में सहायक सजीवों को मुक्तियोग्य मानने में आपत्ति ७६ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के उत्तरोत्तर परिणाम Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शाखवार्ता० प्रन्थानुक्रमणिका पृष्ठ विषय सुश्रूषा आदि क्रम से तत्वश्रवान का उदय संसार एक भीषण समुद्र सम्पष्टिको भवस्यरूप का यथार्थ दर्शन संवेगर्भित आत्मविचारणा नारक आदि चार गति में दुःख ही दुःख ८२ चारगति के दुग्न का वर्णन-उपदेशमाला ८४ सुन का आविर्भाव एकमात्र मोक्ष में ८५ भवनैर्गुण्यदर्शी को मोक्षार्थ निरन्तर उत्साह मुक्ति की साधना वास्तव में दुष्कर नहीं ९५ शुचारित्र-ध्यानारोहणादिक्रम से केवलज्ञान धर्मध्यान से शुक्लध्यान की ओर ९८ प्रथम शुक्लध्यान द्वितीय शुक्टभ्यान पर १०० सर्वकर्मक्षय की अन्तिमप्रक्रिया १॥ समुदधात की सविस्तर प्रक्रिया । २०२ समुद्धात में योगव्यापार अयोगिकवलि दशामें ध्यानसाधक हेतु पंचक का तात्पर्य शुक्लध्यान की चतुर्थ अवस्था । और सिद्धि शुद्ध तप स्वरूप ज्ञानयोग से मुक्ति १०८ मुक्ति में स्थिरतारूप चारित्र की अनिवृत्ति मोक्ष में चारित्र का असंभवएकनयमत क्षायोपशमिक चारित्र का क्षायिकभाव में रूपाम्लर शरीरपात के साथ शानविनाश आपत्ति का परिहार विषय श्रीर्य रहित सिद्धों को चारित्र कैसे ? ११५ शाश्वत चारित्र में सादिसान्तम्ब की अनुपपत्ति ११६ अधिकारि चारित्रगुण के ऊपर तीन विकल्प अविकारित्वरूप चारिन के उगपादन का नव्यप्रयास चारित्र उपपादक नव्यमत का निरसन १६८ अक्रिया से मोक्ष मुचक पचन की संगति ११९ निश्चयनय से चारित्र में मोशहेतुत्व का समर्थन नारी का प्रभाव मानने पर कोई आपत्ति नहीं सिद्धात्मा में चारित्र कल्पना आगमयाय १२३ चारित्रात्मा की सर्वाल्परण्या से चारित्राभाव की मुक्ति में सिद्धि १२४ परेशीमत समक्ष दुसरे पक्ष का निवेदन १२४ सायिकभाव की अविनश्वरता १२५ फलामात्र से चारित्रामाव की सिद्धि अशक्य चारित्र और ज्ञान में बैटलण्य का उपपादन सल्पिसंख्याबोधक वचन क्रियात्मक चारित्र के लिये शानयोग से मुक्ति यह बात वेदान्तमत की अपेक्षा से इच्छायोग-शास्त्रयांग-सामर्थ्य योग १३१ सामर्थ्ययोग के विना केवल ভাষা ও धर्मसन्यास और योगसन्यास योगदृष्टिक्षमुच्चय ग्रन्थ में इच्छादि तीन योम स्तबक-१-शुद्धिपत्रक १२७ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय दशमस्तबका १ से २२२ व्याख्याकारकृतमंगलाचरणम् वर्धमान-पाजिन-बाग्देवता स्तुति १ सर्वशसिद्धि विरोधी पूर्वपक्षघात २ प्रत्यक्ष और अनुमान से मर्चशसिद्धि असंभव किसी भी प्रकार अनुमान से सर्वशसिद्धि अशक्य प्रमेयत्यहेतु में असिद्धि आदि दोष आगमप्रमाण से सर्वशसिद्धि, अशक्य उपमानप्रमाण से सर्वशसिद्धि का असम्भव अर्थापत्तिप्रमाण से सर्वसिद्धि का असम्भव सर्वश अभावप्रमाण का विषय अभावग्राहक स्वतंत्र प्रमाण की सिद्धि ८ अभावग्राहकपमाण अनुमानात्मक नहीं है अभावप्रमाण के दो प्रकार अधिकरणज्ञान को हेतु मानने में आपत्ति का निवारण आलोक की हेतुता और अहेतुता की आपत्ति अभाचप्रमाण में अपरोक्षता की आपत्ति का निवारण इन्द्रिय में अभावमादकता के अनुमान का निराकरण अभाष ज्ञान इन्द्रियजन्य होने की दीघ आशंका प्रत्यक्ष से सूक्ष्म-दूरवी वस्तु का ग्रहण अशक्य धर्म-अधर्म आदि का ज्ञान प्रत्यक्षादि से असम्भष विषय सर्षषस्तु विषयक स्पष्टशाम का अमम्भव समाधिमग्नावस्था में बचनप्रयोग अशक्य धर्म-अधर्म की व्यवस्था वेदमूलक १९ नित्यवेद में दोषों का असम्भव अप्रमा की तरह ममा के भी अतिरिक्त हेतु की आपादक शंका का निवारण २० विशेषदर्शनाभाव से प्रमा में अतिरिक्त हेतु की सिद्धि वैदिक प्रमा के लिये आप्तोक्तत्व का निश्चय अनावश्यक घर्णात्मकंधेद में नित्यत्व का उपपादन २२ महशशब्द से बारबार उच्चारण की उपपत्ति अनुचित २४ शब्द के नित्यत्वपक्ष में सर्वदा सर्वोपलब्धि प्रसंग का निराकरण २४ शब्दमित्यत्वपक्ष में गौरव का परिहार २६ कोलाहल में तम्तमनामतीति की का परिहार विषयिता सम्बन्ध से शुकादि का कादिवर्ण जन्यतावच्छेदक वेदप्रामाण्य के लिये सर्वश कर्ता अनावश्यक स्मृष्टि का प्रारम्भ और अन्त असंगत है ३० इष्पापूर्तादिकर्मों का स्वरूप वेद से ही वर्णाश्रमादि की व्यवस्था ३२ प्रत्यक्ष के अभाव से सर्यशाभाव की सिद्धि अशक्य चार्वाकमत का निराकरण सर्वश का माधक अनुमानप्रयोग याधादि दोपों का निराकरण । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] विषय माहि प्रत्यक्ष के रूप वर्ष की प्रसिद्धि कुछ कुछ वस्तु के ज्ञान से सर्वतावादी का अभिप्राय कुछ कुछ वस्तु के ज्ञान से सर्वज्ञता पृष्ठ उत्पत्ति में प्रामाण्य परतः प्रामाण्य में अतिरिक्त हेतुओं की आवश्यकता ३७ अनुपपन्न ३८ एक पदार्थ के परिपूर्ण ज्ञान से सर्वशता ३९ स्वभावता पदार्थ का स्वरूप नहीं है - शंका ३८ अपौरुषेय वेद में निःस्वभावता की आपत्ति प्रभाकर मिश्र भट्ट के मतमें स्वतः प्रामाण्य का स्वरूप शेका का प्रत्युत्तर सर्वसम्बन्धिता यह पदार्थ से सर्वथा अतिरिक्त नहीं है ४० सर्वसाधक अनुमान * हेतु में उपाधि की शंका का निरसन ४२ किसी एक घटसाक्षात्कार में विश्वविषयकत्व की सिद्धि ▸ ' शंखः पीतः इस दृष्टान्त में साध्यशून्यता की शंका शंका का प्रत्युतर आगमप्रमाण से सर्वेश सिद्धि ३९ ४० ४३ ४३ ४५ ४५ शब्द के प्रामाण्य में भी गुणों की अपेक्षा ४६ इन्द्रिय में भी दोष की तरह गुण की सत्ता भी वास्तविक अरु वाक्य में अप्रामाण्य की आपति १७ ४७ ४८ ४९ [ शात्रवास प्रभ्धानुक्रमणिका विषय पृष्ट प्रभाकर और मिश्र के मत में लक्षण संगति ४२. भट्ट के मत में स्वतः प्रामाण्य क्षणसंगति प्रभाकर के मत का निरसन स्वतः प्रामाण्य मत में संशय की अनुपपत्ति प्रामाण्यनिश्चय होने पर भी संशय होने की उत्पत्ति- आशंका अभ्यास के बिना प्रामाण्य निश्रय का अभाव- उत्तर नैयायिक के मत में संशयानुत्पत्ति कान परतः प्रामाण्यग्रहण में अनवस्थादोप निरवकाश अभ्यासशा में इमाघनता बुद्धि की प्रामाण्यग्रह में समानता २० कालान्तरभावि इटसाधनता का निश्चय अनुभवरूप प्रामाण्यज्ञान का प्रयोजन संशयहास ܕ ५१ ५२ प्रामाण्यज्ञान में विशेष्यतादि का ज्ञान सम्बन्धरूप से सामग्री के असामध्ये या व्यवसाय के प्रतिबन्धकस्य की शंका ५.६. प्रतिबन्धकत्व की कल्पना में गौरव S ५८ तद्वद्विशेष्यकावच्छिन्नतत्प्रकारकत्वरूप प्रामाण्य लेने पर निर्दोषता की शंका ०८ निर्दोषता की आशंका का निरसन व्यवसाय में भासमान सम्बन्ध का अनुव्यवसाय में भान अबाधित मुख्य विशेष्यता का निवेश अमंगत अतभ्यास दशा में परतः प्रामाण्य का निश्चय ५३ ५.४ 42 ५९ ६० ६० ६२ ६२ ६३ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय प्रेक्षायत्ताहानि की शंका का उत्तर ६३ निकम्प प्रवृत्ति में प्रामाण्यनिश्चय अहेतु ६४ सर्वसाधक उपमान प्रमाण ६५ उपमान स्वतंत्र प्रमाण नहीं है वैशेषिक ६६ उपमान स्वतंत्र प्रमाण है-मीमांसक ६७ वैधर्म्य ग्राहक स्वतंत्रप्रमाण की आपत्ति ६५ 'गवय 'पद का शक्तिशान उपमान का फल-नैया वाक्य या अनुमान से शक्तित्रह का असंभव अन्योन्याश्रय दोष का निरसन अनुमान से गघयपद की शक्ति का ग्रह-उपमानप्रतिपक्षी अनुमान से गवयपदशक्तिह असंभव-या. मिश्र और नव्यनैयायिकों का मतभेद ७२ नव्यनयायिक के साथ दूसरे विद्वानों का मतभेद युचित्रादीयों के सामने दूसरे विद्वानों की आशंका दुसरे विद्वानों की शंका के प्रति युक्तिवादीयों का उत्सर उपमिति शान के प्रादुर्भाव की प्रक्रिया का निष्कर्ष उपमिति का प्रत्यभिज्ञा में अन्तर्भाध-व्याख्याकार प्रत्यभिक्षाभेद न मानने पर नये प्रमाण की आपत्ति शतपर्पजीवितहान का अनुमिति में अन्तर्भाव अनुचित अर्थापत्तिप्रमाण से सशसिद्धि बिषय वक्तृत्व असर्वशता का अनुमापक होने की आशंका अग्नि और धुम्र में कार्यकारणता की सिद्धि गर्दभ में कुम्भकारकार्यन्व के प्रसंग का निरसन वक्तृत्व असघशता का कार्य नहीं है ८२ अर्थापत्ति प्रमाण अनुमान से अभिन्न ८३ पक्षमता से हा अनुमानोदय बादी नैयायिक मत नैयायिकमत की चिन्सनीयता व्यतिरेकष्यातिज्ञान स्वतन्त्रप्रमाण नहीं है ८६ हेतु और साध्य का शान क्रमिक होता है विरोधशान अर्थापतिप्रमाण रूप नहीं है विशेषान्तरप्रकारक बुद्धि अर्धापत्तिरूप नहीं है सर्वत्र को अभावप्रमाण का विषय मानने में अशान चक्षु अप्राप्यकारिता वादस्थल चक्षु जसकिरणमय होने की आशंका ९० चक्षु में तैजसत्व का निराकरण-उत्तर ९१ दियारादि से ध्यवहितवस्तु के ग्रहण की आपत्ति प्राप्यकारिवपक्ष में उक्तदोप तदवस्थ-प्रत्युत्तर उदयनाचार्य के समाधान का निरमान ९२ स्फटिक में अभेद प्रत्यभिज्ञा की अनुपपत्ति अप्राप्यकारितापक्ष में गौरव दोष का आपादन ३ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ আদা, ঘিয়ামযাদ্ধা . . . .. .. . .. . . ११० १२ विषय गौरव झोर का परिवार कुड्य और अन्धकार में प्रतिबन्धकता का समर्थन प्राप्यकारितापक्ष में पक साथ शाखाचन्द्रग्रहणापत्ति पक आपत्ति का परिहार करने पर अभ्य आपत्ति शाखा-चन्द्र के एक साथ ग्रहण का समर्थन अभाशंश का ग्रहण इन्द्रिय से अभावप्रमाण न मानने पर भी अपेक्षा की उपपत्ति अतिरिक्त अभावप्रमाणयादी को चक्रकदोधापत्ति अधिकरणादि अविषयक इदंत्ररूप से अभावज्ञान का सम्भय वायु में रूपाभावप्रतीति न होन। की आपत्ति करणलक्षण्य के विना अभावग्रहण के चलक्षण्य का असंभव अज्ञातकरण से जन्य अभावज्ञान की अपरोक्षरूपता शातअनुपलब्धि करण होने की संभावना का प्रतिक्षेप अनुपलब्धि का ज्ञान अनुमान से-अन्यमत अन्यदीयमन में अमचि का बीज १०४ अधिकरणविशिष्ट अभाव के ज्ञान की अनुपपत्ति सर्वेश विरोधी प्रसंगसाधन का निरसन १०६ यात्राप्यतिशयो...का निरसन १८७ योगिप्रत्यक्ष में मन करण नहीं होता १०८ विषय योगजधर्मसहकृत नेत्र से योगिसाक्षात्कार की सम्भावना धर्म-अधर्मादि ग्राहक सर्वशज्ञान का उपपादन आगम सीर्फ शदात्मक ही नहीं है १११ मर्वज्ञ में कामादि विकार की आपत्ति का निरसन सर्वशविरोधी की अनेक पूर्धपक्षयुक्तियों का निरसन गृहीतग्राहित्य अप्रामाण्यप्रयोजक नहीं है ११३ लक्षण में यथार्थत्वादि के प्रवेश से दोषपरिहार अशक्य शान में ज्ञानविषयता का नियमन स्वभाव से परकीपरागादि के साक्षात्कार से कोई आपत्ति नहीं है सर्वज्ञज्ञान प्रान्त हो जाने की आपत्ति निग्यकाश समानकाल में उत्पाडव्यय के व्यवहार की आपत्ति का परिहार ११६ सर्वज्ञ के बिना भी सर्व का ज्ञान शक्य घचनप्रयोग से समाधि का भंग नहीं होता दृष्टकारण विघात की आपत्ति का निरसन निरक्षरभगवदभाषायादी दिगंबरमत का परिहार गगादिदोष में आवारकत्य का उपपादन अभ्यास से परमधाभाय की शंका का परिहार उत्कर्ष अपकर्ष के उक्त नियम के भंग की शंका का परिहार ११६ १६८ । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय . २४० विषय सर्वज्ञ के विना वेद से धर्माधम व्यवस्था की उपपत्ति आचार और स्मृति में घेद विना भी प्रामाण्य की शक्यता स्वतन्धपुरुष के बिना वेदसम्प्रदायप्रवृत्ति असंगत अनादि अग्धसंप्रदायवत् वेदसम्प्रदाय का अप्रामाण्य वेदार्थ में लौकिकपदार्थ नूल्यता अघटित घेद में प्रदीपादिवत् भ्रमकारकता संकेतापेक्षा होने पर स्वत: प्रामाण्य भंग वेदव्याख्या में अपीरुर्षयता का अमभव स्वनामनिर्देश के बिना भी ल्याभिप्राय निवेदन का सम्भव पदों की शक्ति का अर्थमात्र में सम्भव १३१ सर्वप्रणेता के बिना प्रामाण्य की अनुपपत्ति वेदवत् लौकिक वाक्यों में अपौरुषेयत्व की प्रसक्ति. ध्यंजकपक्ष में कार्यद्रय के असत्य की आपत्ति अनित्यपन में परायश्चिारण की उपपत्ति आनि में शक्तिमानी मीमांसक्रमत का परिहार गकारादि में शश्वत्यजाति अनिवार्य १३५ प्रत्यभिज्ञा से शब्द में एकत्यसिद्धि का असंभत्र शब्दनित्यताबादी का सविस्तर प्रतिपादन अबाधक शात और झायमान में ऐक्य निगएद १३७ उत्पत्ति की प्रतीति में भ्रान्तता अनुपपन्न नहीं प्रत्यभिशा में सजातीयाभदविषयकता का निराकरण सविस्तर प्रतिपादन का निरसन २३८ तार-मन्दता शब्दों में आरोपित नहीं है तार-मन्दता को ध्यान के धर्म मानने में आपत्ति विजातीय वायुमयोग में गजकमा की भापनि खण्डितयणश्रवण की आपत्ति संस्कारायच्छदकायमछेदेन शब्दग्रहण की आशंका घटबत् शब्द में सभागत्य की प्रसकि-उत्तर एक शब्द के श्रवण में सर्वशब्दश्रवणापत्ति दृश्यस्वभाव से आधान में शरदपरिणामिता सिद्धि शब्द अनुत्पत्तिपक्ष में कोलाहलप्रनीति की अनुत्पत्ति भिल भिन्न वायुमंयोग को कारण मानने में गौरय गुणविशेष की कारणता की शंका का उत्तर विपयिता सम्बन्ध से जन्यतायटेदकता मानने पर आपति व्यञ्जक द्वारा भीत्र के संस्कारपक्ष में वर्णग्रहणापत्ति प्रतिमियत वर्णग्रहणानुकूल संस्कार नमक व्याक की आशंका १४६ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय १६२ इन्द्रियसंस्कार जनक थ्यञ्जक से पृथक पृथक संस्कार अयुक्त-उत्तर घायुसंयोग से श्रोत्र संस्कार की अनुपपत्ति शब्द द्रव्य नहीं-गुण है -नैयायिक पूर्वपक्ष शब्द से बहिरिन्द्रयसिद्धि और शब्द आकाश का गुण । हेतु के उभय अंश की सार्थकता १४९ साध्याऽप्रसिद्धि की शंका का निरसन १५० शब्द को व्रव्य मानने में बाधक और संकट एकद्रव्याधितत्य हेतु वायु में व्यभिचारी होने की शका का निरसन १५१ उदभूतरूपजन्यता द्रव्यचाचष में ही सीमित करने में गौरव वायु में स्पार्शन प्रत्यक्षयिषयता की शंका का उत्तर वायु के स्पार्शन प्रत्यक्ष के प्रतिक्षेप में स्वतन्यमत १५३ स्वाश्रयसमवायसम्बन्ध से त्वचाभाव की प्रतिबन्धकता-एकदेशी १५४ एकदेशी के मत की असमीचीनता १५५ महत्व उद्भूतस्पर्श के प्रवेश में गौरव का निरसन शम्दगुणत्यवादी नैयायिकमत फा प्रतिकार-उत्तरपक्ष शब्द में द्रव्यवसायक अनुमान १५८ शब्दान्तरारम्भवाद से श्रवणप्राप्ति-नैयायिक बाणादि द्रष्य में क्षणिकत्वापत्ति-मन १५९ शब्द परिणामी व्रव्य होने से शाकथनसंगति [शास्त्रया" विषयानुक्रमणिका विषय ककारादि के लौकिक प्रत्यक्ष की नव्यदृष्टि से उपपत्ति नव्यदृष्टि से किये गये कथन की आलोचना गुणवान् होने से शब्द में द्रव्यत्य सिद्धि १६३ अल्पतादि के अनुभव से शब्द में गुणसिद्धि तीन-मन्दता से अल्प-महत्व प्रतीति मानने में दोष वायु प्रतिनिवर्तन से सिद्ध प्रयोग से शब्द में द्रव्यत्वसिद्धि भनेक पुरुप द्वारा पक शब्द के ग्रहण की उपपत्ति एकत्यादि संख्या के योग से शब्द में द्रव्यवसिद्धि घट और शब्द में समान रूप से एकत्यादि की प्रतीति नैयायिकप्रोक्त अनुमानमें एकद्रव्यत्वहेतु की असिद्धि विलक्षण क्षयोपशम ही मूर्तप्रत्यक्ष का जनक है मूर्म प्रत्यक्ष के प्रति उद्भूतरूप की कारणता का अस्वीकार विजातीय एकत्व को प्रत्यक्ष का कारण मानने में गौरव पाप-पुण्य और लोकबहुम्वाल्पत्व का अनिश्चय बहुलोक को प्रमाण मानने में संख्याव्याघातादि दोष कर्तृभस्मरण हेतुझ अपौरुषेयत्व का अनुमान दूषित विगान के सम्भवित पक्षवय में हेतु की अनुपपत्ति Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ૨૧ विषय पृष्ठ विषय गृह आगम से धर्माधर्म की व्यवस्था निर्दोष केवलशानी का कवलाहार अमान्य-दिग. पूर्वपक्ष स्वाभाविक आहारग्रहण की कल्पना अनुचित सूत्र से भी केवली का कवलाहार १९६ असिन्द्र २०१ अभ्यास आदि वाक्यवत् वेद में भी कर्तृस्मरण में थैमत्य १७६ किसी एक को प्रत्यक्ष न होने मात्र से उसका अभाव असिद्ध 'स्मृतियोग्य रहते हुए स्मृति. विषयत्वाभाय देतु का निरसन १७८ उपदेशकर्ता के स्मरणपूर्वक प्रवृत्ति का नियम असिद्ध १७९ आचाभिमत वेदाध्ययन में गुरुमुखाधीन वेदाध्ययनपूर्वकस्य की असिद्धि वेदमन्त्रों में अपौरुषेयत्वसाधक सामर्थ्य हेतु साध्यद्रोही असर्वज्ञ का सर्वशरूप में अर्थवाद अनुचित सर्वशसिद्धि वार्ता उपसंहार सर्वत्र और तचित आगम की प्रतीति दुर्लभ-बोंद्ध विज्ञान में गुणपूर्वकत्य साधक अनुमान १८६ परमप्रकृष्ट गुणसाधक अनुमान रागादि के हास से अतिशयसिद्धि १८७ संशय का उच्छेद और पूर्यापर अध्याघात से अतिशय का पता अतीन्द्रिय अर्थों के प्रातिभशान का अस्तित्व गुणवान् पुरुष में प्राति. भातिशय अविरुद्ध अदृष्ट वस्तु में विसंवाद की आशंका का निराकरण आगमषचन में धुणाक्षरन्याय और विसंवाद का निरत्तन स्वयं अज्ञ और कथिता पुरुष आगमघोध का अधिकारी २०३ केलि को कवलाहार का संभव न्यायसि-प्रवे० उत्तरपक्ष केवलि की उपवेशनादि क्रिया सीर्फ नियतिकृत-पूर्वपक्ष आगमयायवादी के मत का निरसन-उत्सरपक्ष प्रयल के अभाष में चेष्टा के अभाव की आपत्ति केवली में क्लेश होने में कोई विरोध नहीं है मातितुल्यता के आध चार विकल्पों का निरसन अंतिम तीन विकल्प का निरसन क्षुधा यह रागादि असा दोष होने की शंका-समाधान पापप्रकृति का रसघात हो जाने से दुःखाभाव शंका का उत्तर समुद्घातक्रिया निष्फलत्वापत्ति २०७ असातावेदनीय का अभिभव संभव नहीं दिगम्बर मत में 'एकादश जिने' सत्र की अनुपपत्ति केवली अतीन्द्रिय होने पर भी सुख दुःख का सम्भव २०६ २०८ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] विषय निरन्तर कलाहार की आपसि का प्रतिकार परमोदारिक शरीर की असिद्धि नामकर्म का विपाकोदय कैसे घटेगा केवलिदेह में अत्यन्त बैजात्यादि कल्पनाओं का निरसन फलाहार सर्वशतादि का विरोधी नहीं निशदि दोषापादन का निरसन तिज्ञानादि के आपन का निरसन आहार क्रिया से जुगुप्सादि दोषों का निरसन निराहार कालस्थिति मुचक सूत्र से ही महारसिद्धि व्याख्याकारकृत मंगलाचरण शब्द को अर्थ के साथ कुछ सम्बन्ध नहीं बोल शब्द और अर्थ में तादात्म्य का निरसन शब्द का अर्थ के साथ तदुत्पत्ति सम्बन्ध अशक्य पृष्ठ शब्दार्थ के बीच वास्तवसंन्य मानने में आपत्ति ર २१३ २६.४ २१६ २२० सयोगिकेलि की चिरतर अमर्यादित स्थिति की दिगम्बरपक्ष में आपत्ति सर्वशलाहार चर्चा का उपसंहार २२१ स्तबक - ११ २२३ से ३३६ २२३ २१६ २१७ २१८ ૨૮ २२४ २२६ સમ ૨૨૩ शब्द बुद्धिकल्पित अर्थ का वाचक उद्योतकर के आपादन का निरसन २२७ दिग्नाग आचार्य के वचन का अभिवाय २२८ विषय [ शाखा विषयानुक्रमणिका जातिविशेषितव्यक्ति में २२८ संकेत का असंभव अनभिप्रेत अर्थ में संकेत का असंभव २२९ ब्राह्मणादि शब्द से समुदाय का बोध २३० २३१ सम्बन्ध अथवा सामान्य में शब्दवाच्यत्व का निरसन अभिपत्य प्राप्त शब्द शब्दार्थ नहीं २३२ शब्दजन्यप्रतिभा से अर्थबोध - आशंका २३२ प्रतिभा से अर्थबोध का निरसन २३३ शब्द से अर्थविवक्षा का पृष्ठ अनुमान - अन्यमन २३३ अर्थ विवक्षा के अनुमान का निरसन २३४ वैभाषिक मत का निराकरण २३४ शब्द से बोध्य अर्थ अवास्तव उपसंहार स्वभाव से गोवाधारता का नियमन अशक्य स्वभावभेद द्वारा ही व्यक्तिबोध का आपादान सामान्य विशेषवाची शब्दभेद की उपपत्ति अपोहभेद अपोद्मभेद के लिये सामान्य भनावश्यक शब्द और लिंग के अप्रामाण्य की आपसि निरवकाश २३५ २३५ २३६ शब्दवाच्य वास्तवजाति मानने पर आपत्ति R बौद्ध मत में अपोह के विविध प्रकार २३७ कुमारिल के आक्षेप का प्रतिकार २३९ कुमारिल के अन्य आक्षेप का प्रतिकार २४० चालार्थ प्राप्ति की आपत्ति का प्रतिकार २४१ २४२ २४२ ર Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय अपो मान्यता में अन्योन्याश्रयकुमारिल का पूर्वपक्ष अर्थान्तरनिवृत्ति विशिष्टार्थवाचकता असंगत अपो की अनुपपत्ति गोय में भवरूपता की प्रति कुमारिलङ्कृत पूर्वपक्षयुक्तियों का निरसन शब्दप्रतिपाथ अपोह के अभाव की आपत्ति निरस्त लोकप्रसिद्ध विशेषण आदि भाष की उपपत्ति बौद्धविरोधि पक्ष में अनुपपति उद्योतकर प्रयुक्त अनुपपत्ति का निरसन २४७ दिग्नाग के कथन में आशय की स्पष्टता २४८ अर्थान्तरनिवृत्ति रूप अपोह में विशेषणता की उपपत्ति २४९ व्यक्ति में अता की उपपत्ति २४९ प्रतियोगि में वस्तुत्व का नियम असिद्ध २०० में अगोरूपता की आपत्ति का निरसन शब्दप्रतिवाद्य अह न होने की आपति सिंगादि के साथ अपोह का सम्बन्ध विचार शब्दों के बी-पुंनपुंसकता का निरसन वैयाकरण मतानुसार जाति में जाति मान्य पृष्ठ वैयाकरणमत के उपर बौद्ध की मीमांसा २४५ ૦૬ १४० २५१ २५१ २५२ ܝ २५४ २५६ २५६ २५.७ २५७ ०५८ [२३ विषय 28 २५९ संख्या की काल्पनिकता अपोह की अध्यापकता का निरसन २६० साध्यत्वादि की उपपति २६१ • पचति से अन्यापोह के बोध की उपपति रावल एक स्वरूप वाक्यार्थ का निरसन शद और अर्थ के बीच ताविक सम्बन्ध-उत्तर० सहकारि द्वारा उपादान में विशेषाधान असंभव २६५ शब्दार्थ सम्बन्ध न मानने पर बाधक २६५ दृश्य-विकल्प्य अर्थो के एकीकरण के नये अर्थ का परिहार २६६ उपादान के कारणों से उसमें विशेषाधान असंभव तादात्म्यादिविकल्पप्रयुक्त दोषों का निरसन प्रधान और गो आदि पद में लक्षण्य हेतुभेद - शब्दभेद दोनों में अन्योन्याश्रय का निरसन सत्य असत्य शब्दों में स्वरूपभेद का समग्रॅम शाब्दबोध में शक्तिग्रह की हेतुता का समर्थन नैयायिक अभिमत शक्तिपदार्थ का निरसन ' सर्वे सर्वार्थवाचका:' पक्ष में विरोध का परिहार २६२ वस्तुमात्र अनन्त धर्मात्मक है दृश्य और विकल्प्य अर्थों में भेद साधन की आशंका २६३ २६७ २६८ २६९ २७१ २७२ २७३ ૨૭૦ २.७५ २७६ २७८ २.७८ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] विषय भेदाभेद की सिद्धि से पूर्व आशंका का निरसन अस्पज्ञान में कल्पित विषयता का निरसन अस्पष्ट प्रतीति का अनुमान अन्तर्भाव अशक्य faeप में आरोपित वस्तुविषयता अमान्य ' क्षणिकाः सर्वसंस्काराः ' की अनुपपत्ति फलसाधक धान में अन्यथासिद्धि की शंका का निरसन मन्त्रप्राप्य फल में भी उभयहेतुता निर्बाध पृष्ठ अप्रामाण्य सकलविशेष अग्राहकता रूप नहीं है २८२ अपोह की शब्दवाच्यता का निरसन २८३ ज्ञान-क्रिया में अन्योन्य नेत्रघरणवत् सहकारिता विशिष्ट समवधान से किया में उत्कर्ष की आशंका कर्म विना जन्मादि नहीं होते मुक्ति में शाश्वत परमानन्द माओं के १५ भेद में दिगम्बर २७९ श्रीमुक्तिवाद पूर्वपक्ष २८० २८१ बौद्धशास्त्र निरर्थक हो जाने की आपत्ति fier में होभाव की आपत्ति ज्ञान से ही मोक्ष-ज्ञानत्रादिपश्न क्रिया से ही मोक्ष-क्रियावादी पक्ष २९२ २९० ज्ञान- क्रिया समुच्चय मुक्तिहेतुउभयवादीमत ज्ञानकिया की अन्योन्य संगति २८१ २८६ २८६ २८९ २९४ २९६ २९८ २९९ ३०० ३०२ ३०३ ३०४ ३०७ ३०९ [शास्त्रात विषयानुक्रमः विषय दिगम्बर की ब्रान्ति का सूचन दिगम्बरो अनुमान का निरसन हेतु में संदिग्धविपक्षव्यावृतिदोष पूर्वश्रुत के अध्ययन के विना मोक्षाभाव- पूर्वपक्ष मायाबहुलता के कारण सकल श्री में मुक्तिनिषेध अनुचित पूर्वश्रुत अध्ययन विना भी मोक्षप्राप्ति- उत्तरपक्ष ३१२ स्त्रीत्व चारित्राभाव का प्रयोजक नहीं ३१३ संघ की चनुविधता के उच्छेद की आपत्ति अपरिहार्य पृष्ठ ३०९ ३१० ३११ न्याययुक्त इन्द्रादिकृत भक्ति अनुकरणीय श्री कल्याण का भाजन स्त्रीमुक्तिसाधक अनुमान प्रयोग ग्रन्थकृत्प्रशस्तिः परिशिष्ट १ परिशिष्टः २ परिशिष्टः ३ ३११ ३१६ ३१.७ श्री चारित्रोत्कर्ष का विरोधी नहीं ३१६ प्रचलकर्मता श्री- पुरुष साधारण जिनकल्पी मुनियों की जिनकल्प प्रवृत्ति का उच्छेद संभव नहीं सममनरकप्रापक अध्ययसाय का अभाष अकिंचित्कर स्त्री में ऊर्ध्वाधोगसिवैषम्य का प्रयोजक कारणप्रेभ्य arrestees में स्त्रीवृतित्वाभाव का साधन दुष्कर freeभिन्नरूप स्वरूपयोग्यता का समर्थन ३२२ पुरुष से अनभिवन्यत्व का निरसन ३२३ चतुर्विधसंघस्वरूप तीर्थ में बी प्रवेश ३२४ भगवान् की खाभूषण में पूजा ३१४ ३१८ ३१९ ३२० ३२१ ३२४ ३२५ ३२५ ३२६ ३२९ ३३१ ३३५ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तत्रक १०-११ शुद्धिपत्रकम् झान भाव कार्य भवं पृष्टांक पंक्ति अशुद्ध २०१७ .....नष्टधाकष्ट ...नष्टधा कट ५३ मघतो सर्वशी ५८ हिरण्यगर्भ हिरण्यगर्भ पक्षका पश्नका १५॥३,५ द्रष्दुत्वे द्रष्टुत्वे १६३ वरंबुद्धिः दूर बुद्धिः १७१ उक्त व उक्तं च २३।११ पयनस्य पवमस्य (? पवनसंयोगस्य २३३११ तत्तकर्णानां तत्तत्कर्णानां ३.१ यहत्तमिष्टं यद्दत्तमिष्टं ४२।७ अपगमात् बापगमाव ४२।२१ समवधि समबन्धि ४३.२ दसौ यंदसौं ४४०३२ सर्व सर्वज्ञ ४८/४ प्रामाण्य प्रामाण्या१/२ कारण है। कारण है. प्रामाणा प्रमाणा । प्र.प. अशुद्ध ७६१ ज्ञान ७ कर रखा कररेखा હ૮l गतेमः गते: ८०१४ भाव निमगः भावनिश्चयः ८०८ कार्य ८२२५. निश्चय का निश्चय का, ८३३१ अनुपुलब्ध अनुपलब्ध ८३।१० मंच ८४२ व्याप्य की व्यापकी ८४।२७ चैयधकरण्य बैयधिकरण्य ८६.१५ समकालीनत्व समकालीनत्व ८६२३ यहाँ यह ८९३८ चेत् । चेत् । ८९।२३ प्रण ग्रहण पटमल पलम्भ ९३१२ पात्र भेदे पात्रभेदे ९६०२६ संम्मिलीत सम्मीलित ९६२७ चन्दमा चन्द्रमा १८८ार दंदशक दंदशूक १११।३१ प्रचंतक प्रवर्तक वन्माण प्रामाणात ५७४ प्रतिवन्धक शानं ६२।२४ सिद्धि ७०२ गवयपद ७३।१ दर्शन ७३५ वाच्वत्यो ७५।११ कपटभक्षी प्रमाणात प्रतिबन्धक शान सिद्ध गवयपद दर्शन चाच्यत्त्वी कण्टकभक्षी १९२१३ यत्मात्रेण २१७५३३ कथ १२२।१० कारिण १२३।२ निर्मूलकता १२५७ विपर्य कारिणं निर्मूलता विपर्यय Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] पू. /पं. १२९/८ १२९/२२ में अशुद्ध मिनिवेशत: १२९।२८ ||३९.३ ६३२/१ १३२।२६ तह १३४।३ तद्युक्तम. १३४/११ च १३४। ७ युक्ति मंगत मन्यायादा १३९।१८ शब्द की १३२।२८ ध्वनि का १३९२८ प्रतित કાર્ व्यञ्जकत्व २४३।१९ नियता १४५/२७ भी जन्यता के अपलाप की कारिभिः १४७/३ १५८०३४ दशा १७१/२ उक्त विजा १७१।२२ प्रत्यासक्ति १७३/२२ वेद की १७५/१२ कर्तविशेषे १७६१२ कर्तृत्वेना १७६/५ 'अभ्यास'ऐव १८०/२४ मुखाधीत રા 4 १८२।१० वैदे १८४२६ सर्वेश सिद्ध કાટ येह शुद्ध भिनिवेशतः लोक में L ॥३१॥ मग्न्यादा नहीं तदयुक्तम द्रव्य युक्तिसंगत शब्द के ध्वनि के प्रतीत व्यञ्जकत्वे नित्यता जग्यता के अपलाप की भी रकारिभिः दिशा उक्त विजा प्रत्यासक्त वेद के कर्तृविशेषे कर्तृवेना अभ्यास ० ' पक्ष मुखाधीन नोट: इस ८ वीं पंति को ४६ वे श्लोक के पूर्व में समझना दे खवंश सिद्धि दृष्ट पृ./पं. अशुद्ध १९१/७ धर्म १९२/१४ बचन १९३/१३ रूपदेश १९४११६ आगम सर्वश १९४/२८ वैयध्वं १९५/६४ प्रस्तुत १९५/१५ आगम में १९०३२१ पदार्थों १९५।२७ ओज १९५/२९ अद्भासित १९८/२१ केचली की १९८/२९ अनुमत १९९/९ जाता है, १९९२८ भगवान का २००१९ स्वाभ्यं २००१२२ विस्मृश्य २०२१५ २०२२८ २०७ ३० २०९/९ सभावनया प्रवृत्तिप्रधान से पग़घाल जिन २११९१८ क्षुद्र २१६।२ द्वारा, २१६५ कहला २९८।१२ दिन्थि २१९/४ मुमभजिणो २१९/११ अनुसार इत्यादि गाथा के २२११८ कमणां २२१।२५ आगम में કટાફ धर्मावस्था शुद्ध धम वचन रुपदेश सर्वश वैयर्थ्य ६४ चीं ( भागम में ) ? पदार्थों ओजन उद्भासित केवली के अभिमत जाते हैं, भगवान का स्वाभ्यां ऽविमृश्य संभावनया प्रवृत्तिप्रधान से पस्चात जिने शुद्ध द्वारा कवला दिन्द्रिय मुसमजिणो इत्यादि गाथा के अनुसार कर्मणां आगम के धर्मव्यवस्था ( पृ १८४) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७ संकेत मनन्तधर्मा क्षणिका मानने स्यसा { ব্যক্তিত্ব पृष्ठांक पक्ति अशुद्ध २२६६ सकेत २३०॥३३ घष २३२॥३५ द्रव्य २३२६३० प्रतिमा २४३४ बीजनेक २४९। सामा २०१६ अगोंतो २५४३ कार्यवृत्ति २५४।१३ अधया २५५।५ योउगाच्च २६६२ लक्षण इतर २६६।६ तसस्त २६४ार बाधम २७०1३१ बताया २७१०१ परमार्थक २७१।१५ होगी, २७२।२ शक्तैर वि २७२।२ कावे:-सर ९७२।२७ मंद २७६३२२ सब्दों २८०६ वहित वस्तु २८०१३२ कि, धध शब्द प्रतिभा बीजानेक सामर्थ्या अगोतो कार्थवृत्ति अथवा योगाच लक्षण- तर भोपपतेः क्रिया फलदा क्रियोत्कर्षा ॥३७॥ पधायक कहा जाता पृष्टांक पंक्ति अशुद्ध २८५३ मनन्त धर्मा २८६।१६ क्षणिका २८६।२८ मा ने २८७७ स्यया २८७ मोपपत्तः २९११२ कियाफलदा ५२.६७ कियोत्कषऽ २९३२ ॥३६॥ २९.६.१८,१२ पापक २९६।२५ कही जाती २९८१२२ उपचापकता २९८१२३ आत्मा अप २९८।३२ होने से २९८।३४ कलार्धाच्छ २९९।१२ । तत्रज्ञान २९२।१६ जीणम ६९९४१७ तृप्णीं १९९।२९ होता। ३००७ तयोहारि ३००।१७ सङ्केतिति ३००।२७ द्वारा ३०४।१० जन्मभाधे ततस्त बोधर उपधायकता आत्माश्रय होने से, फलाच्छि तत्र ज्ञान जेणम तृष्णी बताया परमार्थक होगी शक्तरवि कत्वेऽस? भेद शब्दों वहितयस्तु कि होता तयोगि सङ्केतित द्वारी %3 जम्माभावे महत्वपूर्ण सूचना स्तबक ९ के १३५ पृष्ठ के बाद फिर से पृष्ठांक १ से स्तबफ १८ चालु होता है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं 5 हिन्दीविवेचनालंकृत स्याद्वादकल्पताव्याख्याविभूषितः 卐 शास्त्रवार्तासमुच्चयः॥ [ नवमः स्तबकः ] ( व्याख्यामंगलाचरणम् ) प्रणतान प्रति नितिश्रिया स्वहृदो राग इव स्फुटीकृतः । त्रिशलातनयस्य संपदे पदयोः पाटलिमा नखल्विाम् ॥१॥ अपि स्वपित्ति विद्विषां ततिरपायरात्रिचरः प्रणश्यति यदाख्यया पठितसिद्धया विद्यया । स्तवप्रवणता स्वतः सततमस्य शङ्खेश्वरप्रमोश्चरणपङ्कजे भवति कस्य धन्यस्य न? ॥२॥ [ भगवान महावीर के चरणों की नख-कान्ति का संस्तव ] त्रिशला के तनय भगवान महावीर के चरणों को नख-कान्ति को लालिमा मानो उनके मोक्ष. लक्ष्मी के साथ हुदय का राग-स्नेह है, जो प्रणत जनों के प्रति (भगवान् को प्रसन्नता-श्री द्वारा उन्हें) मोक्ष सम्पत्ति यानी अात्मवभव प्रदान करने को प्रकट हुमा है। आशय यह है कि मक्तजन मगवान् के सन्मुख इस माशा और विश्वास से प्रणत होते हैं कि भगवान के प्रसाद अर्थात प्रभाव से उन्हें मोक्षसम्पत सुरभ हो सकेगी, अतः भगवान मानो उनको आशा और उनके विश्वास के अनुरूप उनके अभिमुख अपने हार्दिक राग को सुप्रसन्न होकर प्रकट करते हैं, फिन्तु अन्य के हृदय का राग अन्य को अमूर्तरूप में दृष्टिगत नहीं हो सकता अत: वे उसे अपने चरणों के नख-कान्ति को लालिमा के रूप में भक्तों के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं, भक्त भी अपनी भावुकता के बल उस लालिमा को भौतिक लालिमा के रूप में न ग्रहण कर अपने प्रति भगवान् के हृदय के रमणीय राम के रूप में प्रहण करते हैं। ध्याख्याकार ने भगवान् के चरणों के नख- कान्ति की वास्तव लालिमा को उनके हृदयराग के रूप में उत्प्रेक्षित कर अपनो अनुपम भक्ति का द्योतन किया है और साथ ही भगवान् की अप्रतिम कृपालुता का प्रदर्शन भी किया है ।।१।। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] [ शास्त्रार्त्ता स्त०६ श्लो० १ , हेतु युक्तिविलसत्सुवाचनं निर्मितोरुकुनवण्यापासनम् । भूत मावि भवदर्थेभासनं शासनं जयति पारमेश्वरम् ॥ मूल-अन्ये पुनर्वदन्त्येवं मोक्ष एव न विद्यते । ३ उपायाभावतः, किंवा न सदा सर्वदेहिनाम् ॥ १ ॥ + नवद्वैते मोक्षार्थानुष्ठानवैयर्थ्यमुक्तम् मोक्ष एव चोपायाभावाद् नास्तीति किमेतत् दूषणम् ? इति केषाञ्चिद् वार्तान्तरमाह - अन्ये पुनः नास्तिकप्रायाः वदन्ति एवं - यदुत मोक्ष एव न feed परमार्थतः । कथम् ? इत्याह- उपायाभावतः तत्प्राप्तिदेवभावात् नित्याऽवाप्तत्वेऽपि तदभिव्यक्तिहेत्वभावात् । सत्युपाये किंवा न सदा सर्वकाल [ शंखेश्वरपार्श्वनाथ भगवान के नामोच्चारण का प्रभाव ] जिस प्रकार यथाविधि पठित और सिद्ध की गई मन्त्रविद्या से शत्रुधों का समूह निश्चेष्ट होकर सो जाता है और निशाचरों का गण नितान्त नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार जिसकी श्राख्या से, जिसके नामोच्चारणमात्र से काम, क्रोध आदि शत्रुओं का समूह समाप्त हो जाता है और मोक्षमार्ग के कुसिद्धान्तवासना आदि विघ्न नष्ट हो जाते हैं, उस प्रभु शङ्खेश्वर के चरण कमल के स्तवन में किस पुण्यवान् प्राणी को अभिरुचि एवं निष्ठा सदा-सर्वदा के लिये अनायास जाग्रत् न होगी ? ! तापर्य यह है, कि प्रभु शङ्खेश्वर के नाम में इतना अधिक बल है कि उसके उच्चारण कर्त्ता के शत्रुओं का बल क्षीण हो जाता है, वे उसके समक्ष सुप्तवत् कुछ भी करने में प्रक्षम हो जाते हैं और उनकी इष्ट सिद्धि में सम्भावित समो विघ्न नष्ट हो जाते हैं, अतः संसार का प्रत्येक पुण्यवान् जन, जिसे भगवान् के नामोच्चारण की शक्ति का ज्ञान है, अनायास हो उनके चरण कमल के स्तवन मैं अपने आपको सदा के लिये समर्पित कर देता है और जो ऐसा नहीं कर पाता, निश्चय ही यह अधन्य है, पुष्पहीन हैं, पापात्मा है ॥२१॥ [ जिनशासन की सर्वोत्तमता ] हेतु और युक्तियों से जिसकी सुप्रतिष्ठा फैली हुई है, जिसने बड़े बड़े दुर्नयों को निरस्त कर दिया है, जो अतीत अनागत और वर्तमान सभी पदार्थों की यथार्थ अनुभूति अवगम कराने में समर्थ है, परमेश्वर 'जिन' का वह शासन संसार का सर्वोत्कृष्ट शासन है । आशय यह है कि मगवान् 'जिन' अरिहंत ही वास्तव में परमेश्वर हैं, उनके द्वारा उपदिष्ट आगम ही संसार का सर्वातिशायी शास्त्र है क्योंकि उसकी सुप्रतिष्ठा हेतुवों और युक्तियों पर आश्रित है, वह केवल अन्धश्रद्धा पर आधारित न होकर हेतु और तर्कपर आधारित है, उसमें बड़े से बड़े दुर्नय का दुर्भेद्य एकान्तवादों का युक्तिपूर्वक निराकरण किया गया है। वह यतः सर्वावरणमुक्त परमेश्वरज्ञान से उद्घाटित है अतः उससे तीनों काल के समग्र पदार्थों का स्फुट एवं यथार्थबोध प्राप्त हो सकता है, यही कारण है, जिससे भगवान् 'जिन' का शासन सर्वोत्तम शासन है । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टोका एवं हिन्दी विवेचन । मेव सर्वदेहिनाम् सर्वेषामेव संसारिणां स उपायः १ । मोक्षत्रत् तदुपायस्यापि क्वाचित्कृत्यकादाचित्कत्ययोस्तुल्यः पर्यनुयोग इति भावः ॥ १॥ __ मूल-कर्मादिपरिणत्याविसापेक्षो यद्यसौ ततः। अनादिमत्त्वात्कर्मादिपरिणत्यादि किं तथा ॥२॥ प्रस्तुतवाद्येव पराशयमाशङ्य परिहरति-यन्यसौ मोक्षोपायः, कर्मादिपरिणत्यादिसापेक्षः, 'कर्मादि इत्यादिना प्रधानादिग्रहः 'परिणत्यादि इत्यादिना विवादिग्रहः, तत्सापेक्षो. त्पत्तिका ततातहि अनादिमत्वात कमादे कमांदिपरिणत्यादि कि तथाकि कादाचित्कम् , अनादेः कर्मादेः स्वपरिणत्यादायन्यापेक्षाऽभावान ॥॥ [ मोक्षप्राप्ति के उपाय का अस्तित्व हैं ?-पूर्वपक्ष ] प्रथम कारिका में कतिपय विद्वानों को ग्रह प्राश का प्रदशित की गई है कि मोक्ष की प्राप्ति का कोई उपाय न होने से मोक्ष को मान्यता हो निराधार है अतः प्रद्वैतवाद में मोक्ष के लिये उपायों के अनुष्ठान के वधस्य रूप दोष का प्रशन असंगत है कारिका का अर्थ इस प्रकार है.. नास्तिफप्राय अन्य विद्वानों का यह कहना है कि वास्तव में तो मोक्ष का अस्तित्व ही नहीं है क्योंकि उसकी प्राप्ति का कोई उपाय नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-मोक्ष नित्य-प्राप्त है मतः उसकी प्राप्ति के उयाय की अपेक्षा न होने से उसका अभाव मोक्षाभाव का सापक नहीं हो सकता-तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि मोक्ष के नित्य प्राप्त होने पर भी उसकी अभिव्यक्ति सो निश्य है नहीं, अत: अभिव्यक्ति का उपाय अपेक्षित है और वह उपाय है नहीं, अतः मनभिपत मोक्ष स्पृहणीय न होने से तथा मोक्षाभिव्यक्ति का उपाय न होने से मोक्ष का अस्तित्व मान्य नहीं हो सकता। यदि इस दोष के परिहारार्थ यह कहा जाय कि- मोक्ष यदि उत्पाद्य है तो उसका उपाय भी है और मोक्ष यदि नित्य और अनभिव्यक्त है तो उसकी अभिव्यक्ति का उपाय है- तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि मोक्ष अथवा उसको अभिव्यक्ति का उपाय है तो सब मनुष्यों को सर्वदा सुलभ क्यों नहीं है ? इस प्रकार मोक्ष के समान मोक्ष अथवा मोक्षाभिव्यक्ति के उपायों के क्याचित्फत्व और कदाचिकत्व के सम्बन्ध में प्रश्न खड़ा है । अर्थात् यह एक जाज्वल्यमान प्रश्न है कि मोक्ष अथवा मोक्षाभिव्यक्ति का उपाय यदि नित्य हो तो उसे सवा सबको सुलभ होना चाहिये । वह किसी किसी को हो क्यों प्राप्त होता है ? और कभी कभी हो क्यों प्राप्त होता है ? और यचि उत्पाद्य है तो उसका उपाय क्या है ? और यह सबको सुलभ क्यों नहीं है ? । १।। दूसरी कारिका में वादी द्वारा उक्त प्रश्न के पराभिमत उत्तर की सम्भावना का परिहार किया गया है। कारिका का प्रथं इस प्रकार है:-यदि यह कहा जाय कि-मोक्षापाय की उत्पत्ति में कर्म आदि को परिणति अथवा प्रधान आदि के विवर्त आदि की अपेक्षा है, और यह सबको सदा सुलभ नहीं है. अत एवं मोक्षोपाय भी सबको सदा सुलभ नहीं होता- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो०३ ननु प्रधानादेनित्यस्यैकस्य सहकार्यपेक्षाऽभावेऽपि प्रवाहेणैव कर्मणोऽनादित्वात् कस्यचित् कर्मणः स्वभावतस्तथापरिणस्यमानस्योपादानात् तथापरिणत्यादिकं न दुर्घटम् , इत्यत आहमूल-तस्यैच चित्ररूपत्वात्तत्तथेति न युज्यते । उत्कृष्टाद्या स्थितिस्तस्य यजातानेकशः किल ।। ३ ।। 'तस्यैव अधिकृतस्यव कर्मणः चित्ररूपत्वात् विचित्रस्वभावात् तत् परिणत्यादिकम् , तथा-कादाचित्क्रम्' इति न युज्यते-न घटते, यत् यस्मात् तस्य-कर्यणः उस्कृष्टाद्या उत्कृष्टा ग्रन्थ्यवाप्त्यवच्छिन्नाऽपकर्षवती च स्थितिः अनेकशः बहुवारम् जाता, 'किल' इत्याप्तवचनमेतत् । तथा चाऽपकृष्टस्थितिकादिस्वभाववतः कर्मणो मोनोपायजननपरिणतिशालित्वेऽभव्यादीनामपि तल्लाभप्रसङ्गः, तेषामपि तीर्थकरादिविभूति दृष्टा ग्रन्थ्यवाप्तौ श्रतसामायिकलाभवणात । किश्व, एवं दर्शनादेः स्वभावनितत्वेन मोक्षः पुरुषकृतिसाध्यो न स्यादिति पर प्रत्युक्तं तदानुष्ठानयथ्य स्वयमप्यनिवारितम् । अपि च, प्रथम निगुणस्यैव सतो गुणावाप्तावग्रेऽपि कि गुणापेक्षया ? । अपि च, सर्वमुक्तिसिद्धान्तो नास्ति जैनानाम् । तदभावे चाऽयोम्यत्वशङ्कया कथं मोक्षोपाये प्रेक्षावां निराकुलप्रवृत्त्युपपत्तिः । न च शम-दम-भोगानभिषङ्गादिना मुमुक्षचिन तच्छानिवृत्तिः, शमादिमत्त्वनिश्चयानन्तरं प्रवृत्तिः, प्रवृत्त्युनरं च शमादिसंपत्चिरित्यन्योन्याश्रयात् । एतेन 'शमादिमन्वेन योग्यता' इत्यपि प्रत्युक्तम् , भव्यस्वजातिभेदोपगमविरोधाच्चेत्याग्रहनीयम् ॥३॥ कर्मादि अनादि है तथा उसे अपनी परिणति आदि में अन्य को अपेक्षा नहीं है, प्रत एवं उसकी परिणति मादि भी कादाचिस्क नहीं हो सकती, किन्तु उसे वह भी सार्यदिक ही होना चाहिये ।।२।। [मोक्षोपाय कर्मपरिणतिसापेक्ष- इस आशंका का निरसन ] तीसरी कारिका में इस कथन को अयुक्त बताया गया है कि-"मोक्षोपाय की उत्पत्ति में प्रधान के विवतं की अपेक्षा मानने पर तो जक्त दोष अवश्य हो सकता है, क्योंकि प्रधानवाद में प्रधान एक और नित्य होने से उसके विवर्त को सहकारी की अपेक्षा सम्भव नहीं है किन्तु मोक्षोपाय को कर्मपरिणतिसापेक्ष मानने पर उक्त दोष नहीं हो सकता क्योंकि कर्म व्यक्तिरूप में अनादि न होकर प्रवाहरूप में अनादि होता है, अतः यह सम्भव हो सकता है कि कर्मप्रवाह का घटक कोई कर्म-विशेष हो ऐसा होता है जो स्वभावत: मोक्षोपाय का जनन करने योग्य परिरगति को प्राप्त होता है। इसलिये कर्मविशेष को मोक्षोपायजनक परिणति के सर्वदा सर्वसुलभ न होने से उससे साध्य मोक्षोपाय भी सर्वदा सर्वसुलभ नहीं होता।" Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका एवं हिन्दी विचन । मूल-अनापि वर्णयन्त्यन्ये विद्यते दर्शनाविकः । उपायो मोक्षतत्त्वस्य परः सर्वज्ञभाषितः ॥४॥ अत्र समाधानवार्तामाह--अन्नापि मोक्षाभाववादे वर्णयन्त्यन्ये-मोक्षवादिनो जैना:विद्यते दर्शनादिका दर्शन-ज्ञान-चरित्ररूपः उपाय: प्राप्तिहेतुः, मोक्षतत्त्वस्य-द्रव्य इस कथन को अयुक्त बताने वाली तीसरी कारिका का प्रयं इस प्रकार है-'कर्म के हो स्वभाव बचिश्य से किसी कर्म को मोक्षोपाय-सम्पाविका परिणति कायाचिरक होती है' यह कथन युक्त नहीं है क्योंकि आप्त पुरुषों का कहना है कि कर्म को उस्कृष्ट स्थिति तथा 'प्रन्थिदेश की प्राप्ति से अवच्छिन्न अपकृष्ट स्थिति अनेक बार होती रही है अर्थात् कर्मस्थिति में कभी उत्कृष्टता और कभी अपकृष्टता होती रही है, ऐसी स्थिति में यदि अपकृष्ट स्थितिस्वभाववाले कर्म की परिणति को मोक्षोपाय का जनक माना जायगा तो अमव्य जीव को भी कम की उक्त परिणति सम्भव होने से उसे भी मोक्षोपाय का लाभ होते लगेगा क्योंकि अभव्यों को भी तीर्थकर आदि की विभूति के देखने से प्रन्थिदेश को अवाप्ति होने पर श्रुतसामायिक की प्राप्ति होना सुना जाता है। उक्त दोष के अतिरिक्त प्रस्तुत पक्ष में एक यह भी दोष है कि मोक्ष के दर्शन आदि उपाय यदि स्वभावजन्य होंगे तो मोक्ष पुरुष-प्रयत्न से साध्य न हो सकेगा। अतः प्रतवाद में मोक्षोपाय के अनुष्ठान ययर्थ्य का जो दोष प्रदशित किया गया है, वह इस पक्ष में भी परिहत न हो सकेगा। दूसरा दोष यह है कि सर्वप्रथम यदि निगुण को हो गुण की प्राप्ति मानी जायगी तो उत्तर गुणों के लिये भी पूर्व गुण की अपेक्षा न होने से गुणस्थानक को कल्पना ही समाप्त हो जायगी । तीसरा दोष यह है कि जनों को सर्वमुक्ति का सिद्धान्त मान्य नहीं है, अतः प्रत्येक प्रेक्षावान् पुरुष को अपनो मोक्ष योग्यता के विषय में शडा हो जाने से मोक्षोपाय के अर्जन में विवेकी पुरुषों की निष्प्रतिबन्ध प्रवृत्ति न हो सकेगी। यदि यह कहा जाय कि-'शम, बम, विषयभोग में अनासक्ति आदि मोक्षार्थी के चिन्हों से जिसे अपनी मोक्षयोग्यता के विषय में शङ्का न होगो, वरना श्रद्धा होगो, मोक्षोपाय के अर्जन में उसकी प्रवृत्ति होने में कोई बाधा नहीं होमो'-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि शम आदि से सम्पन्न होने के निश्चय के अनन्तर मोक्षोपाय में प्रवृत्ति होगी और प्रवृत्ति के अनन्तर ही शम आदि की सम्पन्नता होने पर उसका निश्चय होगा। इस प्रकार उक्त उत्तर अन्योन्याश्रय दोष से प्रस्त है, इस दोष के कारण हो "शम आदि से सम्पन्न होने से मोक्षयोग्यता होती है" यह कथन भी निरस्त हो जाता है, साथ ही इसे मानने पर भन्यस्वनामक जातिविशेष के अभ्युपगम का भी विरोध होता है । १. ग्रन्थि है अनादिसिद्ध राग-द्वेष की निबिड दुर्भद्य परिणतिरूप गांठ, जिसको अपूर्वकरण ( अध्यवसायबल) से जब भेदी जाय तव सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है । इस ग्रन्थिभेदन के पूर्व कर्मों की अन्तः कोटि-कोटि सागरापम वर्ष प्रमाण हो जाती है। यही प्रन्थिदेश है। किन्तु यह सभी को होने पर भी अब इसमें भी स्थितिहास करके प्रस्थिभेदन कोई विरल ही आत्मा कर पाती है। बाकी सबके सब जीव ग्रन्थिदेश तक आवार अध्यवसाय मलिन कर वापस अधिक स्थितिबन्ध करने में चले जाते है। २. मोक्ष प्राप्ति के लिए सदा ही अयोग्य । ३. तीर्थकर या जैनाचार्य की वाणी का श्रवण रटण। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 [ शास्त्रवार्त्ता स्व० ६ श्लो० ४ क्षेत्र - काल - भावभेदेन शुद्धात्मस्वरूपावस्थानरूपस्य परः- उत्कृष्टः सर्वज्ञभाषितः वीतरागभणितः, नासर्वज्ञभाषितः, अभाषितो वह । अत्र 'मोaavat' इति तच्चपदेनान्याभिमतमोक्षस्याभावादेव तदुपायः शशशृङ्गोपायतुल्य इति ध्वनितम्। तथाहि - 'समानाधिकरणदुःखप्रागभावाऽसह वृत्तिदुःखध्वंस एव मोक्ष: ' इति नैयायिकमतं न रमणीयम् अतीतदुःखद् वर्तमानदुःखस्यापि स्वत एव नाशादपुरुषार्थत्वप्रसङ्गात् । न च हेतुच्छेदं पुरुषव्यापारः प्रायश्चित्तवदिति वाच्यम्, तथा सति दुःखानुत्पादस्य दुःखसाधनध्वंसस्यैव वा प्रयोजनत्वप्रसङ्गाव | , कारिका में मोक्ष को तत्व शब्द से अभिहित कर तत्वपद के प्रयोग से यह सूचित किया गया है कि जनेतर दार्शनिकों ने जिस मोक्ष का वर्णन किया है वह असत् है, अतः उसका उपाय शशशृंग के उपाय के समान असम्भव है। उदाहरण के रूप में कल्पलता व्याख्याकार ने सर्वप्रथम नैयायिक सम्मत मोक्ष की समीक्षा की है। [ मोक्ष का उपाय ज्ञान-दर्शन- चारित्र - उत्तर पक्ष ] air कारिका में उक्त आरोप के समाधान की बात कहो गई है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है मोक्षाभाव की आपत्ति के संदर्भ में मोक्षवादी जनों का कहना है कि मोक्ष का उपाय श्रवश्य हैं और वह है दर्शन - ज्ञान तथा चारित्र, यह उपाय हो मोक्षतत्त्व वास्तव मोक्ष की प्राप्ति का उत्कट साघन है, और वास्तव मोक्ष द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव-भेद से शुद्ध आत्मस्वरूप में जीव का प्रस्थान है, मोक्षतत्त्व का उक्त उपाय उत्कृष्ट इसलिये है कि उसे वीतराग सर्वेज भगवान् ने प्रतिपादित किया है, किसी असर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित अथवा तो सर्वथा प्रप्रतिपादित नहीं है । [ नैयायिक अभिमत मोक्ष की समीक्षा ] fast का मत है कि जो दुःखध्वंस अपने समानाधिकरण दुःखप्रागभाव का सहवर्तीअसमानकालिक होता है वह दुःखध्वंस ही मोक्ष है। मोक्ष की इस परिभाषा के अनुसार जो दुःखध्वंस अन्तिम होता है, जिसके बाद उसके अधिकरण आत्मा में दूसरा दुःखध्वंस नहीं उत्पन्न होता वही मोक्ष है, क्योंकि अन्तिम दुःखध्वंस हो ऐसा होता है जो अपने समानाधिकरण पूर्ववर्ती दुखः प्रागभाव का सहवर्ती नहीं होता । किन्तु जो दुःखध्वंस अन्तिम नहीं होता, जिसके बाद उसके अधिकरण आत्मा में अन्य दुःखध्वंस की उत्पत्ति होने वाली है वह समानाधिकरण दुःखप्रागभाव का सहवर्ती होता है, क्योंकि उसके बाद दुःखध्वंस होने के लिये उसके बाव दुःख को उत्पत्ति भी प्रावश्यक होती है और वह तभी सम्भव हो सकती है, जब दुःखध्वंस के समय उसके अधिकरण आत्मा दुःखप्रागभाव विद्यमान हो । कल्पलताकार ने इस नैयायिकमत को यह कहकर अरमणीय बताया है कि जैसे अतीत दुःख पुरुष प्रयत्न के बिना ही नष्ट हुआ है वंसे ही वर्तमान दुःख भी पुरुष प्रयत्न के चिना ही नष्ट हो जायगा, अत: पुरुष प्रयत्न से साध्य न होने के कारण दुःखध्वंस सामान्य पुरुषार्थ भी नहीं हो सकता. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] न च चरमदुःखध्वंसेऽन्धय-व्यतिरेकाभ्यां तत्वज्ञानस्य प्रतियोगिवद् हेतुत्वम् , प्रतियोगिनमुत्पाद्य तेन तदुत्पादनात् , पुरुषार्थसाधनतया दुःख-तत्साधनयोरपि प्रवृत्तिदर्शनादिति वाच्यम् , चरमत्वस्यार्थसमाजसिद्धत्वेन कार्यतानवच्छेदकत्वात , अन्त्यदुःखे उपान्त्यदुःखस्यैव हेतुत्वेन तस्य तत्त्वज्ञानेनोत्पादयितुमशक्य न्याव , भोगेनैव कर्मणां नाशे नानाभवयोग्यकर्मणामेकभवे भोक्तुमशक्यत्वात् , तत्कर्मभोगस्य चाऽपूर्वकर्माजकत्वेनाऽनिर्मोक्षापातात् । न च तत्त्वज्ञानबलार्जितेन कायव्यूहेन तत्तत्कालकर्मभोगाद् नाऽनिर्मोक्ष इति सांप्रतम् , मनुजादिशरीरसत्त्वे शूकगदिशरीरोत्पादाऽयोगात् । देवादीनां तु क्रियशरीरादिकर्मोदयमहिम्नेव नानाशरीरश्रवणोपपत्तेरिति । फिर उसे मोक्षरूप चरम पुरुषार्थ मानने को कल्पना ही कैसे हो सकती है ? यदि यह कहा जाय कि"दुःख के उच्छेद में पुरुष-प्रयत्न की साक्षात् अपेक्षा न होने पर भी उसके उपपादक दु.खहेतु-उच्छेव में पुरुष-प्रयत्न को साक्षात् अपेक्षा होने से दुःखोच्छेद में भी दु:खहेतु-उच्छेवक द्वारा पुरुषप्रयत्न की अपेक्षा ठीक उसी प्रकार हो सकती है, जिस प्रकार पुरुषप्रयत्नापेक्ष प्रायश्चित्त के द्वारा प्रायश्चित्ताधीन पापनाश में पुरुषप्रयत्न की अपेक्षा होती है, अत: दुःखध्वस में पुरुषायस्व की अनुपपत्ति नहीं हो सकती"-तो यह कथन भी ठोक नहीं है, क्योंकि दुःखधंस यदि वलसाधनध्वंस के द्वारा पुरुषप्रयत्नसापेक्ष होगा तो वह पुरुष का प्रयोजन न हो सकेगा किन्तु बु.ख का अनुत्पाद अथवा दुःखसाधन का ध्वंस हो पुरुष का प्रयोजन होगा, क्योंकि जो पुरुष-प्रयत्न से साआत सम्पादित होता है वही पुरुष का प्रयोजन होता है । [ चरमदुःखध्वंसस्वरूप मोक्ष मानने में बाधा ] यदि यह कहा जाय कि-"चरम दुःख का ध्वंस हो मोक्ष है और वह ध्वंस तत्वज्ञान के होने पर उत्पन्न होता है तथा उसके न होने पर नहीं उत्पन्न होता, इस अवन्यष्यतिरेक से यह सिद्ध है कि तत्त्वज्ञाम उस ध्वंस का हेतु है, चरमदुःख-ध्वंस और तत्त्वज्ञान का यह कार्य-कारण भाव उक्त अन्वयव्यतिरेक से ठीक उसी प्रकार सिद्ध है जिस प्रकार घरमदुःख के होने पर उसका वास होता है और उसके न होने पर उसका ध्वंस नहीं होता, इस अन्वधाव्यतिरेक से चरमवुःखध्वंस और घरमःखस्वरूप प्रतियोगी का कार्य कारण भाष सिद्ध है। उक्त कार्य-कारण भाव के प्रामाणिक होने से यह मानना सर्वथा युक्तिसंगत है कि तत्त्वज्ञान चरमःख को उत्पन्न कर उसके नाश का उत्पादक होता है । यतः चरमवुःख और उसका जनक तत्त्वज्ञान चरमदुःखध्वंसरूप पुरुषार्थ का साधन है अतः उनके साधनार्थ पुरुष की प्रवृत्ति न्यायसंगत है क्योंकि जो दुःख और दुःख साधन पुरुषार्थ का साधक होता है उसमें पुरुष को प्रवृत्ति देखी जाती है जैसे ओदनार्थी पुरुष की दुःखबहुल पाकक्रिया में प्रवृत्ति सर्वविदित है।" किन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि दुःख का चरमत्व-अर्थसमाज अधीन है, जिस द.ख न्तर का साधन सम्भव नहीं होगा वह दुःखान्तर के साधनाभाव से ही चरम हो जायगा अतः चरमश्वको तत्वज्ञान का कार्यतावच्छेदक नहीं माना जा सकता. अतएव घरमदःख के उत्पाद द्वारा तत्त्वज्ञान में चरमदुखध्वंस के साधनस्व का समर्थन नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] [ शास्त्रवार्त्ता स्व० श्लो० ४ "दुःखेनात्यन्तविमुक्तश्चरति" इति श्रुतिस्वरसाद् दुःखात्यन्ताभाव एव मुक्तिः, दुःखसाधनध्वंस एव च स्त्रवृत्तिदुःखस्याऽत्यन्ताभावसंवन्धः स च साध्य एव ं इति तदेकदेशिमतमपि न सांप्रतम् ; दुःखसाधनध्वंसस्य दुःखात्यन्ताभाव संबन्धत्वे मानाभावात् । 'दुःखस्तोम एव मुक्तिः इत्यपि केषाञ्चित् तदेकदेशिन मतं वार्त्तम् ; स्तोमस्य कथमध्यसाध्यत्वात् । दूसरी बात यह है कि उपान्ध्य दुःख से ही अन्त्य दुःख की उत्पत्ति सम्भव होने से तत्त्वज्ञान से उसकी उत्पत्ति का समर्थन नहीं किया जा सकता। तीसरी बात यह है कि कर्म का नाश एक मात्र भोग से ही सम्पादित होता है अतः जो कर्म प्रनेक जन्मों में भोग्य है, उसका नाश उस एक जन्म में, जिसमें, तत्त्वज्ञान का उदय होता है, नहीं हो सकता। साथ ही उस कर्म के भोग से नये नये कर्मों की उत्पत्ति भी होगी जिनके भोग के लिये नये नये जन्मों की अपेक्षा होगी, अतः चरमदुःखध्वंस के प्रसम्भव होने से उसे मोक्ष मानने पर मोक्षाभाव की प्रसक्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि तत्त्वज्ञान के प्रभाव से एक काल में प्राप्त अनेक शरीरों से एक ही जन्म में समस्त कर्मों का फलभोग सम्भव होने से मोक्षश्भाव को प्रसक्ति नहीं हो सकती' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि मनुष्य आदि शरीर रहते शूकर आदि शरीर की उत्पत्ति नहीं हो सकती, देवता आदि को एक ही समय अनेक शरीर धारण को जो बात सुनी जाती है वह क्रिय शरीर श्रादि के प्रारम्भक कर्म के उदय के बल से होती है, मनुष्य में उक्त बल नहीं होता अतः मनुष्य को एक काल में विभिन्न शरीरों का धारक नहीं माना जा सकता । [ दुःखध्वंस या दुखात्यन्ताभावरूप मोक्ष- एकदेशी ] कुछ एकदेशी नैयायिकों का मत है कि-जीव दुःख से अत्यन्त विमुक्त होकर मोक्षोत्तर काल में अनुवर्तमान होता है, इस बात का प्रतिपादन करने वाली श्रुति के अनुसार दुःखों का अत्यन्ताभाव ही मुक्ति है और दुःखसाधनों का ध्वंस हो 'स्व' में विद्यमानदुःख के अत्यन्ताभाव का 'स्व' के साथ सम्बन्ध है और वह पुरुषप्रयत्न मे साध्य है, अतः दुःखात्यन्ताभाव के स्वरूपतः असाध्य होने पर भी सम्वन्धतः साध्य होने से उसमें पुरुषार्थत्व को अनुपपत्ति नहीं हो सकती, किन्तु यह मत भी समीचीन नहीं है क्योंकि 'दुःखसाधनों का ध्वंस खात्यन्ताभाव का सम्बन्ध है, इस बात में कोई प्रमाण नहीं है क्योंकि अत्यन्ताभाव का सर्वत्र स्वरूपसम्बन्ध हो युक्ति-सिद्ध है । कतिपय एकदेशी नैयायिकों का मत यह है कि 'दुःखध्वंस-समूह हो मोक्ष है । दुःखध्वंस समूह का अर्थ है एक जीव में जो-जो दुःखध्वंस होता है यह समग्र दुःखध्वंस, अतः कतिपय दुःखध्वंसों के समूह को लेकर संसारी जीव में मोक्ष की आपत्ति का उद्भावन नहीं किया जा सकता'- किन्तु यह मत भी तुच्छ प्रतीत होता है क्योंकि समग्र दुःखध्वंस में तत्वज्ञान के पूर्व उत्पन्न दुःखध्वंस का भी समावेश होने से समग्र दुःखध्यस तत्त्वज्ञान से साध्य नहीं हो सकता, अतः मोक्षार्थी के तत्त्वज्ञान का प्रयत्न निरर्थक होगा । * क्रियशरीर ऐसा शरीर जिससे विविध प्रकार की क्रिया ( संकोच विकासादि ) हा सकती है | काटने पर भी पुनः एकत्रित हो जाता है। देव और नारक को होता है । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा० क० टोका एवं हिन्दीविवेचन [c 'आनन्दमय परमात्मनि जीवात्मलयो मुक्तिः' इति त्रिदण्डिमतमपि न पेशलम् ; एकादशेन्द्रिय-सूक्ष्ममात्रात्रस्थितपश्चभूतात्मक लिङ्गशरीरापगमरूपलयस्य नामान्तरेण नामकर्मे क्षयरूपस्वादेव | यदि चोपाधिशरीरनाश औपाधिकजीवनाशो लयः, तदा तेन रूपेणाऽकाभ्यस्वादपुरुषार्थस्यात् । 'अनुपप्लवा चित्तसंततमुक्तिः' इति बौद्धबुद्धिरपि न सूक्ष्मा, संततेरवस्तुत्वेनाऽसाध्यस्वात् । न च संततिप्रतिक्षणानामेव पूर्वोत्तरभावेन हेतुहेतुमद्भावात् तत्साध्यत्वम्, संसारानुच्छेदप्रसङ्गात् सर्वज्ञज्ञानचरमक्षणस्यापि मुक्तज्ञानप्रथमक्षण हेतुत्वेन तत्संततिपतितत्यात् । अथ न हेतुफलभावमात्रादेक संततिव्यवस्था अपि तूपादान हेतुफलभावात् न च सर्वज्ञज्ञानस्य चरमण उपादानम् आलम्बनप्रत्ययो हि सः समनन्तरप्रत्ययश्वोपादानमिति चेत् ? न, तुल्यजातीयस्योपादानत्वे मुक्तचित्त सर्वज्ञज्ञानयोस्तुल्यजातीयतानपायात् सर्वज्ञज्ञान चरमक्षणस्वाद्यमुक्त चित्तानुपादानत्वे तस्यानुपादानस्यैवोत्पत्ते जांग गयप्रत्ययेऽप्युपादानानुमानोच्छेदाव अन्ययिद्रव्याभावे बद्ध-मुक्त व्यवस्थानुपपत्तेरिति । [ परमात्मा में आत्मा के लयस्वरूप मुक्ति - त्रिदण्ड ] त्रिदण्डी वेदान्तियों का मत है कि 'आनन्दमय परमात्मा में जीवात्मा का लय ही मुक्ति है । उनका आशय यह है कि परमात्मा ग्रानन्दमय है- आनन्द का सागर है, जीव उसका श्रंश होते हुये भी धनादिकाल से विविध दुःखों से पीड़ित है । अत: वह दुःखों से त्राण पाने के लिये श्रानन्द में निमग्न होने के आतुर है, किन्तु यह शरीर के भीतर बन्द है, अतः जैसे बोतल के भीतर बन्द जल बोतल को सरोवर में डाल देने पर भी सरोवर के मुक्त जलराशि में लीन नहीं हो पाता, उसी प्रकार शरीर में बन्द आनन्दमय परमात्मा का प्रानन्दांशरूप भी जीव परमात्मानन्द में लीन नहीं हो पाता । किन्तु जब वह शास्त्रोक्त उपायों द्वारा शरीर के बन्धन को तोड़ देता है, तब जैसे बोतल टूट जाने पर बोतल के भीतर का जल सरोवर के जल में लीन हो जाता है वैसे शरीरबन्धन के टूट जाने पर शरीर के भीतर जीव परमात्मा के आनन्दस्वरूप में लीन हो जाता है। इस प्रकार आनन्दमय परमात्मा में जीवात्मा का लय हो जीवात्मा का मुक्त होना है । किन्तु यह मत भी उचित नहीं है क्योंकि जीवात्मा के निजस्वरूप का लय तो सम्भव नहीं है अत पश्वज्ञानेन्द्रिय, पश्वकर्मेन्द्रिय, एक उभयेन्द्रिय मन और पञ्चतन्मात्रावों के रूप में अवस्थित पञ्श्वभूत इन सोलहों के गणरूप लिङ्ग शरीर को निवृत्ति को ही जीवात्मा का लय कहा जायगा और जब इस लय को मोक्ष कहा जायगा तो नामान्तर से नामकर्मों का क्षय ही मोक्ष के रूप में अभिहित होगा, प्रत जैन सम्मत मोक्ष से इसका मेव बताना वुष्कर होगा । यदि यह कहा जाए कि शरीरोपाधिक आत्मा ही जीव है अतः शरीररूप उपाधि के नाश से औपाधिक जीव का नाश होना ही जीवात्मा का लय है तो यह मो ठीक नहीं है, क्योंकि जीवनाश के रूप में जीवलय काम्य न होने से वह पुरुषार्थ न हो सकेगा । [ निरुपप्लव चित्तसन्तति मोक्ष-विज्ञानवादिबौद्ध ] ataria के एक विज्ञानवादी सम्प्रदाय का मत है कि उपप्लव - विषय से शून्य वित्त Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] [ शास्त्रवारी स्तश्लो०४ सन्तति-ज्ञान सन्तान ही मोक्ष है, इस मत का मर्म यह है कि ज्ञान हो सत्य वस्तु है, उससे भिन्न जो कुछ दीखता है वह सब अनादि वासना से कल्पित है, अतः ज्ञेय का प्रतिभास मिथ्या है । बौद्धमत में वरिणत रीति से साधना द्वारा प्रस्तुतस्व का ज्ञान हो जाने पर जेय अर्थ की कल्पक वासना का नाश होने से जान ज्ञेय के सम्बन्ध से शून्य हो जाता है। जो ज्ञानधारा ज्ञेय के साथ प्रवाहित होती थी यह अब ज्ञेयसम्पर्क से शून्य होकर विशुसज्ञानपारा के रूप में प्रवाहित होने लगती है, इस विशुद्ध जानधारा को ही 'अनुपालवा चित्तसन्तति' कहा जाता है । विज्ञानवादी बौद्ध के मत में यही मोक्ष है। व्याख्याकार यशोविजयजी ने यह कह कर इसे असंगत बताया है कि सन्तति कोई 'सद वस्तु न होने के कारण असाध्य है, अत: चित्तसन्तांत को माक्षरूप पुरुषार्थ मानना सम्मव नहीं है । पदि यह कहा जाय कि-'चित्तसन्तति मले चित्त से भिन्न कोई वरतु नहीं है किन्तु सन्तति के अन्तर्गत जो चित्तक्षण है, उनसे अभित्ररूप में उसका अस्तित्व तो है ही, प्रतः उन चित्तक्षणों में पूर्वोत्तरभाव के आधार पर परस्पर में हेतुहेतुमद्भाव होने से उन सभी में साध्यता होने के कारण उनसे अभिन्न जो उनको सन्तति है, उसमें भी साध्यता अपरिहार्य है, अतः असाध्य कहकर चित्तसन्तति को अपुरुषार्थ नहीं कहा जा सकता''- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यदि हेतुहेतुमद्धावापन्न अनुपालव चिस-क्षणों को मोक्ष कहा जायगा तो मोक्षकाल में संसार के अस्तित्व को आपसि होने से संसार के अनुच्छेव की प्रसक्ति होगी, क्योंकि सबंज्ञान का चरमक्षण यह मुक्तचित्त के आद्यक्षण का हेतु होता है अतः हेतु तथा हेतुमान् क्षणों का एक सन्तान होने से वे दोनों एक सन्तान के घटक हो जायेगे. फलसः मुक्तचित्त सन्तान में सर्वज्ञान के परमक्षणरूप सांसारिक वस्तु का समावेश हो जाने से उसे मोक्षस्वरूप मानना उचित न होगा। यदि इस दोष का परिहार यह कह कर किया जायगा कि-"जिन क्षणों में सामान्य हेतुहेतुम. द्भाव होता है, उन क्षणों का एक सन्तान नहीं होता, अपितु जिन क्षणों में उपादान-उपावेयभाव होता है उन क्षणों का हो एक सन्तान होता है, सर्वज्ञज्ञान का चरमक्षण आद्यमुक्तिचि आलम्बनात्मक कारण है, समनन्तर कारण नहीं है और जो जिसका समनन्तर कारण होता है वही उसका जपावान कारण होता है, अतः सर्वज्ञज्ञान के चरमक्षण और आध मुक्तचित्तक्षण में उपादानउपादेय भाव न होने से उन दोनों को एक सन्तान का घटक नहीं माना जा सकता, फलतः अनुपप्लव वित्तसन्तति को मोक्ष मानमे पर उसमें संसार का सम्बन्ध न होने से मोक्ष में संसार के अनुच्छेद को प्रसक्ति नहीं हो सकती। इस मत का आशय है कि-बौद्धमतानुसार मनुष्य को मुक्ति सर्वज्ञताप्राप्तिपूर्वक होती है। मनुष्म पहले सर्वज्ञ होता है बाद में मुक्त होता है । सबंज्ञशान-सर्वग्राही ज्ञान के चरम क्षण की निवृत्ति के साथ साथ अनुपप्लव बिससन्तति का प्रारम्भ होता है। सर्वज्ञज्ञान का चरमक्षण सन्ततिघटक प्रथम चित्त का पालम्बन कारण होता है। उसका कोई समनन्तरप्रत्यय-उपादान कारण नहीं होता, क्योंकि समनन्तर का अर्थ है "सजातीय-समानापोह्य, समानाधिकरण एक सन्तति घटक, प्रत्यवहित पर्यवर्ती और ऐसा कोई आद्य मुक्त चित्त के लिये सम्भव नहीं है, अतः वह बिना उपादान के ही १. बौद्धमत में यत् सत् सत् क्षणिकम्'-जो क्षणिक है वही सत् है, सन्तति तो क्षणों तक चलती धारा होने से क्षणिक-क्षणस्थायी नहीं, अतः सत् नहीं। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाक० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] [११ 'स्वातन्त्र्यं मुक्तिः' इत्यपरेषां मतमपि न क्षोदक्षमम् , तद् यदि कर्मनिवृत्तिरेव तदा सिद्धान्तसिन्धावेव निमञ्जनात् । यदि चैश्वर्य मेव तत् , तदाऽभिमानाधीनतया तस्य संसारविलसितत्वात् । 'प्रकृति-तद्विकारोपधानविलये पुरुषस्य स्वरूपेणावस्थानं मोक्षः' इति सांख्यमतमपि न निमलसंख्यासमुज्जम्भितम् , स्वरूपावस्थानस्य कूटस्थात्मरूपस्याऽसाध्यत्वात् , प्रकृत्यादिप्रक्रियाया प्रमाणाभावाच । उत्पन्न होता है । यतः उपादान-उपादेयभाधापन क्षणों का हो एक सन्तान होता है, प्रत: सर्वज्ञज्ञान के घरमक्षण पार पाय मुक्तचित का एक सन्तान न होने से मुक्तचित सन्तान में संसार का समावेश नहीं हो सकने से उसे मोक्ष मानने पर संसारानुच्छेव की आपत्ति नहीं हो सकती।"-- किन्तु यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि कार्य के तुल्यजातीय के हो उपादान होने का नियम होने पर भी सर्वज्ञान के घरमक्षण में आच मुक्तचित्त को उपादानता का परिहार नहीं हो सकता क्योंकि सर्वज्ञान का घरमक्षण और प्राद्य मुक्तचित्त दोनों ही ज्ञानात्मक होने से तुल्यजातीय हैं । दूसरी बात यह है कि यदि आद्य मुक्तचित्त उपादान कारण के बिना ही उत्पन्न होगा तो जागर आदि ज्ञान को भी निरुपादान उत्पत्ति सम्भव होने से उनके उपादानकारण के अनुमान का उच्छेद हो जायगा इसके साथ ही तीसरी बात यह है कि बौद्धमत में बन्ध-मोक्ष उमयकाल में किसी अन्ययी द्रव्य की सत्ता न होने से बद्धमुक्त की व्यवस्था -जओ बद्ध होता है वहीं मुक्त होता है, इस नियम की उपपत्ति न हो सकेगी। [मुक्ति स्वातन्त्र्यस्वरूप है ] ___ अन्य दार्शनिकों का मत है कि स्वातन्त्र्य ही मुक्ति है, संसारदशा में मनुष्य परतन्त्र होता है । 'सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मयशं सुखम्' इस न्याय के अनुसार संसारी मनुष्य अनादिकालिक पारतन्ध्य से पीड़ित है, दुःखी है, अत: शास्त्रोक्त साधनों द्वारा पारतन्त्र्य को दूर कर स्थातव्य प्राप्त करना ही मनुष्य को मुक्ति है।"-किन्तु व्याख्याकार के अनुसार यह मत नी विचार द्वारा उपपन्न नहीं होता, क्योंकि स्वातन्त्र्य का अर्थ यदि कर्म-निवृत्ति माना जायगा तो इस मत बिन्दु का जैन वर्शन के सिद्धान्तसिन्धु में ही प्रवेश हो जायगा क्योंकि जनवर्शन के सिद्धान्तानुसार समग्र कर्मों का क्षय हो मोक्ष है। यदि उक्त दोष के भय से कर्मनिवृत्ति को स्वातन्त्र्य न मानकर ऐश्वर्य को स्वातन्त्र्य माना जाय, और ऐश्वर्य की प्राप्ति को मोक्षप्राप्ति के रूप में वर्णित किया जाय, तो यह मो उचिस नहीं हो सकता क्योंकि-जीव में वास्तव ऐश्वयं न होने से आभिमानिक ही ऐश्वर्य मानना होगा और जब उसे ईश्वराभिमान होगा तब वह मुक्त कैसे हो सकेगा क्योंकि अभिमान संसार का ही एक विलास है, सांसारिकता का ही एक रूप है। [प्रकृति और उसके विकारों का विलय मुक्ति-सांख्य ] सांख्य दर्शन का मत है कि-"प्रकृति तथा उसके विकाररूप उपाधि का विलय होने पर पुरुष का अपने वास्तव स्वरूप से प्रवस्थान ही मोक्ष है। आशय यह है कि सांत्य दर्शन के अनुसार प्रकृति Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता स्त० ९ग्लो ४ 'अग्रिमचिनानुत्पादे पूर्वचित्तनिवृत्तिमु क्तिः' इत्यन्येषां मतमपि कुधासनाविलसितम् , अग्रिमचित्तानुत्पादम्य प्रागभावरूपस्याऽसाध्यत्वात् , चित्तनिवृत्तेरनुद्देश्यत्वाच्च । 'आत्महानं मुक्तिः' इति पापिष्ठ मतमपि पिष्टमेव, वीतरागजन्माऽदर्शनन्यायेन नित्यतया सिद्धस्यात्मनः सर्वथा हातुमशक्यत्वात् , आत्महानस्यानुद्देश्य त्वाच्च । और पुरुष ये दो ही कारणनिरपेक्ष अनादि तत्व हैं, इनका संयोग पानी परस्पर भेव का अविवेक= अज्ञान अनावि है, वही सत्व, रजस् और तमस इन गुणों से प्रभिन्नस्वरूपा प्रकृति के महत्तत्त्व, प्रकार, HER, स्पर्श, रूप, रस, गन्धनामक पांच तन्मात्र-सुक्ष्ममत, श्रोत्र, त्वक, चक्ष, रसन, प्राण नामक पांच शानेन्द्रिय; याक, पाणि, पाव, पायु = मलेन्द्रिय, उपस्थ=मून्द्रिय नामक पांच कमेन्द्रिय, उभयेन्द्रिय मन और आकाश, वायु, सेज, जल और पृथ्वी नामक पांच महाभूत इन तेईस विकारों को उत्पन्न करता है। प्रकृति के यह तेईस विकार तथा स्वयं प्रकृति और पुरुष ये पच्चीस सांस्यसमम्त तत्त्व हैं। प्रकृति और पुरुष में अविवेक होने से प्रकृति के प्रथम विकार महतत्तत्व और पुरुष में भी अधिक होता है।महतत्तत्त्व, सरव-अन्तःकरण आदि शब्दों से व्यपविष्ट होता है और यही कर्तृत्व तथा कर्तृत्वाधीन अन्य सभी धर्मों का आश्रय होता है। पुरुष में उसका अविवेक होने से पुरुष में उसके सभी धर्मों का प्रतिभास होता है, पुरुष में महत्त्तत्व के धर्मों का यह अविवेकमूलक प्रतिभास ही पुरुष का बन्धन है, इस बन्धन के कारण संसारदशा में पुरुष अपने निज रूप से अवस्थित न होकर महतत्तत्त्व के औपाधिकस्वरूप से अवस्थित होता है किन्तु जब प्रकृतिपुरुष के विवेक का उदय होने से उनके अविवेक की निवसि होती है तब प्रकृति और उसके विकाररूप उपाधि का विलय हो जाने से पुरुष औपाधिकरूप से असम्पृक्त होकर अपने वास्तव स्वरूप से अवस्थित हो जाता है । पुरुष का यह स्व-स्वरूपायस्थान ही उसका मोक्ष है।" ध्याल्याकार कहते हैं कि सांख्य का यह मत निर्मल संख्या विशुद्ध बुद्ध पर आधारित नहीं है, क्योंकि पुरुष का स्वस्वरूपावस्थान कूटस्थपुरुषरूप होने से असाध्य है और जो असाध्य है वह पुरुषार्थ नहीं हो सकता । दूसरी बात यह है कि प्रकृति, महत्तत्व आदि के सम्बन्ध में जो प्रक्रिया बताई गई, उसमें कोई प्रमाण नहीं है प्रतः अप्रामाणिक प्रक्रिया के आधार पर बन्ध और मोक्ष की कल्पना युक्तिसंगत नहीं हो सकती। [अग्रिमचित्तानुत्पादसहित पूर्वचित्तनाश मुक्ति-बौद्ध ] कतिपय बौद्धमनीषियों का मत है कि अग्निमचित्त के अनुत्पाद से विशिष्ट पूर्व चित्त को निवृत्ति ही मोक्ष है । कहने का प्राशय यह है कि. "चित्त ही अस्तिरूप में बन्धन है और वही नास्तिरूप में मोक्ष है।" पर ज्ञातव्य है कि सामान्य रूप से चित्तनिवृत्तिमात्र को मोक्ष नहीं माना जा सकता क्योंकि संसारवशा में भी नये नये चित्तों की उत्पत्ति के साथ पूर्व पूर्व वित्तों को निवृत्ति होती रहती है, प्रतः संसारदशा में होने वाली चित्तनिवृत्ति के द्वारा उस वैशा में भी मनुष्य में मुक्तत्व को प्रापलि होगी "अत: चित्तनिवृत्तिमात्र को मोक्ष न मानकर अग्रिमधित के अनुस्पाव से विशिष्ट पूर्वचित्तनियुक्ति को ही मोक्ष मानना न्यायसंगत होगा, ऐसा मानने पर संसारदशा में मोक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि उस दशा में अग्रिमचित्त का अनुत्पाद नहीं होता।"-व्याल्याकार कहते हैं कि यह Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] [ १३ 'नित्यनिरतिशयसुखाभिव्यक्तिम क्तिः' इति तौलातितमतमपि नातिचतुरस्रम् , एकान्ततः सुखस्य नित्यत्वे संसारदशायामपि तदभिव्यक्तिप्रमगाट, मुखमात्रस्य वमोचरसाक्षा कारजनकत्वनियमान, तज्ज्ञानस्याप्यभिव्यक्तिरूपस्य नित्यत्वात् , “नित्यं विज्ञानमानन्द ब्रह्म” इति श्रुत्या ज्ञान-सुख योर भेदबोधनात् । अनित्यज्ञानरूपतदभिव्यक्तेर्दोषाभावसाध्याया उपगमे तस्या नाशनियमेन मुक्तस्य पुनरावृत्तिप्रसङ्गात् । तदभिव्यक्तिप्रवाहस्य च शरीरादिहेत्रपेक्षा विनाऽनुपपत्तेः । उपपत्तों का एकस्या एवं तदभिव्यक्तेदोषाभावजन्यायाः, सुखस्य च तादशस्य तावदमवस्थानौचित्यात । मत मी कुवासनामूलक ही है । कारण यह है कि अग्रिमचित्त के अनुत्पाद का अर्थ है अग्रिचित्त का प्रागभाव, असः प्रागभाव प्रनादि होने से असाध्य होने के कारण प्रागमाव से घटित उक्त मोक्ष भी असाध्य हो जायगा । यदि किसी प्रकार चित्तोत्पादक के अभाव से चित्त की अनुत्पत्ति बता कर चित्तप्रागभाव में क्षमिक साध्यता यानी परिपात्यतारूप साध्यता को उपपत्ति की जाय, तो उक्त दोष का वारण हो जाने पर भी उसे पुरुषार्थ नहीं माना जा सकता क्योंकि वह पुरुषप्रवृत्ति का उद्देश्य नहीं है। 'आत्मा का अस्तित्व ही बन्धन है अत: आत्मा का हान हो यानी आस्मा का स्वरूपनाश ही मोक्ष है' यह अत्यन्त पापिष्ठ मत है। ध्यात्या के अनुसार यह मत भी मदित प्राय है क्योंकि वोतराग का जन्म नहीं देखा जाता किन्तु सराग का ही जन्म देखा जाता है, प्रतः आत्मा को नित्य मानना अनिवार्य है, और अब आत्मा नित्य है तब उसका हान कयमपि सम्भव नहीं हो सकता । दूसरी बात यह है कि आत्महान किसी पुरुष का उद्देश्य नहीं होता, अतः उसे पुरुषार्थ कहना कथमपि संगत नहीं हो सकता। [नित्यनिरतिशयसुख की अभिव्यक्ति मोक्ष-मीमांसक ] मीमांसादर्शन के सप्रदाय का मत है-कि "विषयेन्द्रिय सम्पर्फ से उत्पन्न होने वाले सुख से मिन्न भी सुख होता है जो नित्य और निरतिशय होता है, मिरतिशय का अर्थ है अतिशय से शून्य, जिससे अधिक दूसरा न हो, जो सर्वश्रेष्ट हो, ऐसे सुख को अभिव्यक्ति, ऐसे अनादि-अनन्त महत्तम सुख का प्रत्यक्ष अनुभव ही मुक्ति है।" मीमांसा दर्शन के कुमारील भट्टसम्प्रदाय का यह मत मो समोचोन नहीं है, क्योंकि मोक्षसुख यदि एकान्त नित्य होगा तो संसारक्शा में भी उसकी अभिव्यक्ति को प्रसक्ति होगी, इस प्रसक्ति के कई कारण हैं, जैसे पहला कारण यह है कि जितना भी सुख होता है वह सब अपने साक्षात्कार का जनक होता है, यह नियम है; मोक्ष सुख नित्य होने से यतः संसार वशा में भी है अतः उस यशा में भी उक्त नियम के अनुसार उसका साक्षात्कार होना अपरिहार्य है। दूसरा कारण यह है कि निस्य सुख को अभिव्यक्ति नित्यसुख के ज्ञानस्वरूप होने से नित्य है, क्योंकि 'ज्ञान और आनन्द से अभिन्न ब्रह्म निस्य है' इस तथ्य की प्रतिपाविका श्रुति से नित्य ब्रह्म के रूप में सुख और ज्ञान के प्रमेव का बोध होता है, अत: नित्य सुख से अभिन्न नित्यसुखज्ञानरूप अभिध्यक्ति की निस्यता के कारण संसारदशा में नित्य सुख की अभिव्यक्ति का होना अनिवार्य है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] [ शास्त्रयाता स्त० श्लो० ४ एतेन 'अविद्यानिवृत्ती विज्ञान-सुखात्मकः केवल आत्मैवापवर्गः' इति वेदान्तिमतमपि निरस्तम् , ज्ञानसुखात्मकब्रह्मणो नित्यत्वे मुक्त-संसारिणोरविशेषापातान् , अविद्याया असत्त्वेन नित्यनिवृत्तत्वाच्चेति दिग। यदि यह कहा जाय कि-"नित्य सुख को अभिव्यक्ति नित्यज्ञानरूप नहीं किन्तु अनित्यज्ञानरूप है और उसकी उत्पत्ति संसारजनक दोष के अभाव से होती है, प्रत: संसारवशा में संसारजनक दोष का प्रभाव न होने से उस दशा में नित्यसुख की अनित्यज्ञानात्मक अभिव्यक्ति की प्रापत्ति नहीं हो सकती"-तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि जो जन्य होता है उसका नाश अवश्य होता है इस नियम के अनुसार नित्यसुख के अनित्यज्ञानात्मक अभिव्यक्ति रूपा मुक्ति का नाश अनिवार्य होने से मुक्त के पुर्नजन्म की मापत्ति होगी । इसके उत्तर में यदि यह कहा जाय कि-'यह दोष नित्य सुख की अनित्यज्ञानात्मक एक अभिव्यक्ति को मुक्ति मानने पर ही हो सकता है, अभिव्यक्तिप्रवाह को मुक्ति मानने पर नहीं हो सकता तो-यह भी ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि अभिव्यक्ति प्रवाह को शरीर आदि हेतुधों की अपेक्षा होतो है प्रतः मोक्ष दशा में उन हेतुबों का अमाव होने से अभिव्यक्ति प्रवाह की उपपत्ति नहीं हो सकती, यदि लिटा चुस्न को अभिव्यक्ति का शरीर प्रावि से जन्म न मानकर केवल संसारजनक दोष के अभाव से हो जन्म मानकर उसके प्रवाह की उपपत्ति को जायगी तो प्रधाहोपपत्ति का प्रयास निरर्थक होगा और साथ ही सुख के नित्यत्त्व का अभ्युपगम भी अनावश्यक होगा क्योंकि संसारजनकदोषाभाष से सुख और सुखाभिव्यक्ति की उत्पत्ति मानकर एक हो सुख और एक ही सुखाभिव्यक्ति की स्थिति सुदीर्घ कालतक मानना उचित हो सकता है क्योंकि ऐसा मानने में कल्पनालाघव है। इस सन्दर्भ में यह बात ध्यान देने योग्य है कि सुख और सुख-ज्ञान आत्मा का जन्य विशेषगुण है और प्रात्मा के जन्य विशेषगुण की उत्पत्ति प्रात्मा के साथ शरीर आदि का सम्बन्ध होने पर हो होती है, अतः शरीर आदि के बिना केबल संसारजनकदोषाभावमात्र से सुख और सुखाभिव्यक्ति की उत्पत्ति नहीं मानो जा सकती, क्योंकि यदि सुख प्रादि को उत्पत्ति शारीर आदि के बिना भी सम्भव मानी जायगी तो संसार दशा में भी आत्मा के साथ शरीर प्रादि का सम्बन्ध अनावश्यक होगा क्योंकि जैसे मोक्ष सुख और उसका ज्ञान शरीर आदि के अभाव में भी केवल संसार-जनक दोषाभाष से उत्पन्न होगा, वैसे ही संसारकालिक सुखावि की भी उत्पत्ति शरीर आदि के बिना ही केवल संसारजनकदोषमात्र से मानी जा सकती है। [ अविद्या निवृत्त होने पर केवल आत्मस्वरूप मुक्ति-वेदान्ती ] वेदान्ती दार्शनिकों का मत है कि अविद्या को निवृत्ति होने पर ज्ञानसुखस्वरूप केवल आत्मा ही अपवर्ग-मोक्ष है ! उनके मत का स्पष्ट रूप यह है कि प्रात्मा ज्ञानस्वरूप और सुखस्वरूप है तथा एकान्त नित्य है, एकमात्र उस एक तत्त्व की ही पारमार्थिक सत्ता है। वह प्रनादिकाल से अविद्या से उपहित है। अविद्या का अर्थ है माया-प्रज्ञान, जो सत्व, रजस् और तमस इन तीन गुणों से अभिन्न है । वह न त्रिकालाबाध्यरूप में सद है और न शशशृंग आदि के समान काल मात्र से असम्बद्ध रूप में असत् है । अतः वह आत्मा के समान सद् रूप में, तथा शशशृङ्ग आदि के समान असद् रूप में Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० क० टीका एवं हिन्दीषिवेधन ] [ १५ 'पर' इत्यनेन ज्ञान- क्रिययोः समुचयेन मोक्षोपायत्वं सूचितम् । विवेचयिष्यते चात्र नयमतभेदविचारः स्वयमेव ग्रन्थकृतोपरिष्टात् । ये तु ज्ञानदुर्नयावलम्बिन औपनिषदाः 'ज्ञानमेव मोक्षोपायः, तच्च साक्षिणि कल्पितम्, साक्ष्यमनृतत्वाद् नास्त्येव साक्ष्येव तु परमार्थसद् इति विचाररूपम्, योगस्तु चित्तदोपनिराकरणेनान्यथासिद्धः' इति प्रतिजानते; तेषामुत्पन्नमात्र एव तत्त्वज्ञाने संसारोच्छेदापत्तिः । न च प्रारब्धस्याऽज्ञाननिवृत्तौ प्रतिबन्धकत्वाद् नायं दोष इति सांप्रतम् अज्ञाननिवर्तकस्वभावस्य तत्त्वज्ञानस्य निवृत्त प्रतिबन्धककृत विलम्बाऽयोगात् । न हि शुक्तितत्वज्ञानेन रजतभ्रमे redit प्रतिबन्धककृत विलम्बो दृश्यते । 'दृश्यत एव "पीतः शङ्खः" इत्यादौ वैत्यानुमित्यादावपि पित्तकृतः पीतत्वभ्रमनिवृत्तिविलम्ब' इति चेत् ? तथापि साक्षात्कारभ्रमनिवृत्ती तत्त्वसाक्षात्कारे सति प्रतिबन्धककृतो विलम्बो न दृश्यत एव । न च पराभिमतं भावरूपमज्ञानमेवास्ति इति किं तत्त्वज्ञानेन निवर्त्तनीयम् १ निर्वाच्य न होने से अनिर्वाच्य है । उस अविद्या के कारण हो आत्मा के नित्यज्ञान-सुखात्मक वास्तव स्वरूप का बोध न होकर उसके अवास्तव स्वरूप नामरूपाद्यात्मक जगत् का अथबोध होता है। इस प्रकार अविद्यात्मक उपाधि हो आत्मा का बन्धन है और इस बन्धन से हो यह सर्वविध अपकर्म का भाजन-पात्र बना है, जब कभी पुण्यपुञ्ज के परिपाक से सद्गुरु का सत्संगलाभ होकर उसको कृपापूर्वक वेदान्तोपदेश से उसे अपने वास्तव स्वरूप का बोध होगा तब प्रविद्या की निवृत्ति हो जाने से शानमुखात्मक केवल आत्मा ही अवस्थित रहेगा- आत्मा की यह स्थिति ही उसकी मोक्षकालिक स्थिति होगी । व्याख्याकार कहते हैं कि यह मत भो निरस्त हो जाता है क्योंकि ज्ञानसुखात्मक ब्रह्मस्वरूप आत्मा ही अब मोक्ष होगा तब मुक्त और संसारी में कोई मेद न हो सकेगा क्योंकि उक्त मोक्ष निश्य होने से संसारदशा में भी रहेगा अतः संसारी को मुक्त भिन्न कहना सम्भव न हो सकेगा। यदि यह कहा जाय कि - ' केवल उक्त आत्मा हो मोक्ष नहीं है किन्तु अविद्यानिवृत्तिकालिक उक्त आत्मा मोक्ष है । संसार दशा में अविद्या की निवृत्ति न होने से संसारो मुक्त नहीं कहा जा सकता' - तो यह से भी ठीक नहीं है क्योंकि श्रविद्या असत्-सत् से भिन्न होने के कारण नित्यनिवृत है । C मूल कारिका में जैनवर्शनोक्त मोक्षोपाय को पर सर्वोत्कृष्ट कहकर ज्ञान और किया के समुच्चय को मोक्ष का उपाय होने की सूचना दी गई है। इस सम्बन्ध में नयों के मतभेदों का विचार ग्रन्थकार आगे स्वयं प्रस्तुत करेंगे | [ ज्ञानमात्र मोक्षोपायवादी वेदान्ती का निरसन ] जो उपनिषद्-वेदान्त के अध्येता ज्ञानरूप दुर्भय का आश्रय लेने वाले हैं, मोक्षोपाय के सम्बन्ध में उन वेदान्ती का मत है कि "ज्ञान ही मोक्ष का उपाय है और ज्ञान साझी Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो०४ किश्न, प्रारुधस्य प्रतिबन्धकत्वं न कारणीभूनाऽभावप्रतियोगित्वम् , अभावस्य तुच्छत्वेन परः कारणत्वानभ्युपगमात्, किन्तु कार्यानुकूलशक्तिविघटकत्वम् । विघटनं च नाशः कुण्टनं वेत्यन्यदेतत् । न चैकस्यैव ज्ञानस्य मुक्तिपर्यन्तमयस्थानम् इत्यन्तिमतत्त्वज्ञान एव तच्छक्तिः कल्प्या, अनन्तशक्तिनाशकुण्ठनादिकल्पने गौरवान , अन्यथेदानींतनतत्त्वज्ञानेऽपि तत्कल्पनं दुर्निवारं स्यादिति गतं प्रारब्धप्रतिबन्धकत्वेन । इत्थमेव स्वीकारे च प्राच्यज्ञानवत प्राण्यकर्मणोऽप्यन्तिमतत्वज्ञानोपकारकतया समप्राधान्यमेव, आगमेऽप्यात्मदर्शनस्येय सम्यक्रियाया अपि मुक्तिहेतुत्वं सिद्धमेव । सूश्मेक्षणेन तत्र प्रयोजकत्वविश्रामोऽप्युभयत्र तुल्यः । अन्तिमज्ञानक्षण इवान्तिमपुरुषव्यापारक्षणेऽपि मुक्तिजननी शक्तिस्तुल्येति विवेकः । चैतन्य में कल्पित है और वह 'साक्षित्व मिथ्या होने से अस्तित्वशून्य है, केवल साक्षी हो परमार्थसत् सत्य वस्तु है' इस प्रकार के विधारस्वरूप है । इसी से मोक्ष की प्राप्ति होती है, योग का उपयोग चित्तदोष को दूर करने मात्र में है, मोक्ष के प्रति तो वह अन्यथासिद्ध है।"-इस मत में यह दोष है कि ज्ञानमात्र को मोक्ष का उपाय मानने पर तत्वज्ञान का उदय होते ही संसार के उच्छेव की आयत्ति होगी, फलतः जीवन्मुक्ति की उपपत्ति न हो सकने से शास्त्र-सम्प्रदाय की प्रामाणिकता सिब न हो सकेगी। यदि यह कहा जाय कि 'संसार का उच्छेद प्रजाननिवृत्ति से हो साध्य है और अज्ञान निवृत्ति में प्रारब्धकर्म प्रतिबाधक है अतः स्वज्ञान उत्पन्न हो जाने पर भो प्रारब्धवश अज्ञाननिवृत्ति का प्रतिबन्ध हो जाने से उच्छेदकारण का अभाव होने से तत्काल संसारोच्छेद की आपत्ति नहीं हो सकती'- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अज्ञान को निवृत्त करना तत्वज्ञान का स्वभाव है प्रत: तश्वज्ञान उत्पन्न हो जाने पर प्रतिबन्धक के कारण अज्ञाननिवृत्ति के होने में विलम्ब नहीं हो सकता, क्योंकि शुक्ति के तत्त्वज्ञान से शुक्ति में रजत भ्रम की निवृत्ति होने में प्रतिबन्धक अनित बिलम्ब नहीं देखा जाता। यदि यह कहा जाय कि-"श में पीतत्व भ्रम के बाद शङ्क में श्वेत्य का अनुमित्यात्मक तत्वज्ञान होने पर ज्ञान पित्तदोषरूप प्रतिबन्धक से शंख में पीतस्वभ्रम को निवृत्ति में बिलम्ब देखा जाता है, अत: आत्मतत्त्व का साक्षात्कार हो जाने पर भी प्रारब्धवश अज्ञाननिवृत्ति में बिलम्ब माना जा सकता हैं"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अनुमितिरूप परोक्ष तत्त्वज्ञान से भ्रमनिवृत्ति में प्रतिबन्धककृत बिलाब, शङ्ख में पीतस्वभ्रम के स्थल में देखा जाता है यह ठीक है। पर साक्षात्कारात्मक तत्त्वज्ञान से भ्रम की निवृत्ति में प्रतिबन्धककृत दिलम्ब कहीं नहीं देखा जाता, प्रतः आत्मविषयक अविद्या जो साक्षात्कारात्मक भ्रम के तुल्य है, आत्मा के साक्षात्कारात्मक तत्त्वज्ञान से उसकी निवृति में प्रारधरूप प्रतिबन्धक द्वारा बिलम्ब का अभ्युपगम नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसके अनुरूप कोई दृष्टान्त नहीं है । [प्रारब्धकर्म में अज्ञाननिधृत्तिप्रतिबन्धकत्व असंगत ] उक्त के अतिरिक्त यह भी ध्यान में रखने को बात है कि प्रारब्ध कर्म में अविद्यानिवृत्ति के प्रति मो प्रतिबन्धकता होगी वह कारणीभूताभावप्रतियोगित्व रूप नहीं हो सकती 1 अर्थात यह नहीं कहा Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [ १७ आ सकता कि प्रारब्धकर्म का प्रभाव अज्ञान निवृत्ति का कारण है अत: प्रारत्यकर्म उस प्रभाव का प्रतियोगी होने से अज्ञान निवृत्ति का प्रतिबन्धक कहा जाता है। क्योंकि परमत में अभाव तुन्छअसव होता है अतः वह किसी कार्य का कारण नहीं हो सकता, इस लिये प्रारब्धकम में जो प्रज्ञाननिवृत्ति को प्रतिबन्धकता होगी वह कार्यानुकल शक्ति के विघटकत्व रूप होगी, अर्थात् तत्वज्ञान में जो अज्ञान नितिका शक्ति है उसका विघटन-नाश किंवा कुण्ठन करने से प्रारम्भ कर्म अज्ञाननिवृत्ति का प्रतिबन्धक कहा जायगा और यह तभी सम्भव हो सकता है-जब मुक्ति पर्यन्त एक हो तत्त्वज्ञान का प्रस्तिश्व हो क्योंकि तभी उसमें विद्यमान अज्ञाननियतिका शक्ति का विघटन होने से प्रारम्धकर्म प्रतिबन्धक बन सकेगा । किन्तु ऐसा है नहीं, मुक्तिपर्यत एक ही तत्त्वज्ञान नहीं रहता, किन्तु तब तक अनेक तत्वज्ञान उत्पन्न हो जाते हैं, क्योंकि ऐसा न मानने पर तत्त्वज्ञान का प्रयास सम्भव न होने से उसमें दृढ़ता नहीं आ सकती, और पाब यहाा है तब सभी तत्वज्ञानों में प्रज्ञान नितिका शक्ति के होने में कोई प्रमागम होने से अन्तिम तत्त्वज्ञान में ही उसका अस्तित्व मानना उचित होगा क्योंकि पूर्वतत्त्वज्ञानों में उसे स्वीकार करने पर तत्त्वज्ञान के मेद से उसमें प्रानन्त्य तथा प्रारब्धकर्म द्वारा उसके अनन्त नाश किया कुण्ठन की कल्पना में महान् गौरव होगा और यदि इस गौरव की उपेक्षा कर सभी तत्वज्ञानों में उक्त शक्ति की कल्पना की जायगी तब संसारदशा में होने वाले शुक्ति आदि के अन्य तत्त्वज्ञानों में भी असत्यज्ञानरूप भ्रम एवं उसके उत्पादक शुक्तितत्त्वादि के अज्ञान को निवृत्त करने वाली शक्ति भी कल्पनीय होगो किन्तु इस शक्ति का विघटन प्रारब्धकम से नहीं होता, प्रत: प्रारब्धकर्म में प्रज्ञान निवृत्ति की प्रतिबन्धकता मानने का कोई औचित्य न होने से यह नितान्त निरस्त हो जाती है। [सम्यक् क्रिया भी मुक्ति का हेतु ] उक्त रीति से अन्तिम तत्त्वज्ञान में ही अज्ञाननितिका शक्ति का अभ्युपगम करने पर पूर्व के तत्वज्ञानों को अन्तिम तत्त्वज्ञान का उपकारक मान कर ही मुक्ति के प्रति उनकी उपयोगिता माननी होगी; और ऐसा मानने पर यह भी मानना निर्वाधरूप से सम्भव हो सकेगा कि जैसे पूर्व तत्वज्ञान आन्तिम तत्त्वज्ञान का उपकारक होने से मुक्ति में उपयोगी होते हैं, वैसे ही पूर्व कर्म भी अन्तिमकर्म का उपकारक हो मुक्ति में उपयोगी हो सकते हैं अतः ज्ञान-कर्म दोनों में समान प्रधानता होने से यह कहना संगत न होगा कि तत्वज्ञान हो मुक्ति का हेतु है, कर्म नहीं । इस कथन का आधार आगम भी है क्योंकि आगम में आत्मवर्शन के समान सम्यक् क्रिया को भी मुक्ति का हेतु बताया गया है। यदि सूक्ष्मता से विवेचन कर यह निष्कर्ष प्राप्त किया जाय कि पूर्वतत्त्वज्ञान मुक्ति के हेतु नहीं होते किन्तु प्रयोजक होते हैं, हेतु तो अन्तिम तत्त्वज्ञान हो होता है, तो यह निष्कर्ष ज्ञान और कर्म दोनों में समान रूप से प्राप्य हो सकता है क्योंकि कर्म के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि पूर्व कर्म मुक्ति के प्रयोजक होते हैं, हेतु नहीं, हेतु तो अन्तिम कर्म ही होता है। अन्ततः इस विषय का विवेचन करने पर यही निर्णय प्राप्त होता है कि अन्तिम तत्वज्ञानक्षण के समान अन्तिम पुरुष. व्यापारक्षण में भी मुक्तिनिका शक्ति विद्यमान है। * कल्पलता में 'अन्तिमतत्त्वज्ञानोपकारकतया' के स्थान में अन्तिम तत्वज्ञानाद्यपकार क.तया' पाठ उचित प्रतीत होता है, वैसा पाठ होने पर ही आदि शब्द से अन्तिम कर्म को ग्रहण कर उस में पूर्व कर्मों को उपकारक कहकर ज्ञान-कर्म के समप्राधान्य का प्रदर्शन उपपन्न हो सकेगा। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] [ शास्त्रया स्त०६ श्लो. ४ येऽपि पातञ्जला योगपदाभिधेयो सम्यक्रियामेव मोक्षहेतुत्वेनोपयन्ति, परमार्थभूतस्य चित्तस्याऽदर्शनेन साक्षिदर्शने निरोधातिरिक्तोपायाभावादितिः तेऽपि भ्रान्ताः, सर्वज्ञस्य चित्तदर्शनार्थ समाधिव्यापाराऽयोगात् , अन्यथा सर्वज्ञस्वभावपरित्यागादचेतनादविशेषापत्तेः । अथ निस्तरङ्गमहोदधिकल्पो ह्यात्मा, तत्तरंगकल्पाच महदादिपवनयोगतो वृत्तय इति तन्निराफरणेनैवात्मनः स्वरूपप्रतिष्ठेति चेत् १ न, आत्मनः प्राक् तदतत्स्वभावत्वयोरनुष्ठानयाद , विषयग्रहणपरिणामरूपाकारसंपृक्तज्ञानस्य मुक्तावप्यनपायाच । तस्माद् न चित्तदर्शनार्थ योगिनी समाधौ व्यापारः, किन्तु चित्तपृथक्करणार्थमेव । तत्र च क्रियाया इव ज्ञानस्यापि हेतुत्वमव्याहतमेव । केवलाभोगपूर्वक एव हि योगनिरोधव्यापार इति विभावनीयम् । [ योगात्मक क्रियामात्र मोक्षोपायवादी पातंजलमत समीक्षा ] मोगदर्शन के रचयिता पतञ्जलि के अनुपाधी विद्वानों का मत है क-"योगपत से प्रमिहित होने माली सम्यक क्रिया ही मोक्ष का हेतु है, ज्ञान नहीं। उनका मन्तव्य यह है कि चित्त और चैतन्य (पुरुष) दोनों वास्तव में एक दूसरे से अत्यन्तभिन्न हैं किन्तु अनादिकाल से दोनों परस्पर संयुक्त हैं। जनके परस्परभेद का अज्ञान ही उनका संयोग है। यह चित्तसंयोग ही चैतन्य का बन्धन है और यहो संसार का मूल है। मोक्षार्थो को इस संसार मूल को समाप्त कर मोक्ष प्राप्त करने के लिये साक्षी का वर्शन-यानी चित्त से असंयुक्त चैतन्य का दर्शन अपेक्षित है और वह परमार्थ चित्त-चैतन्य से असंयुक्त चित्त के दर्शन से हो सकता है, पर वह दर्शन है नहीं, अतः साक्षी के दर्शन का चित्तवृत्तिनिरोधरूप योग को छोड़ अन्य कोई उपाय नहीं है।" व्याख्याकार कहते हैं कि पातञ्जलों का यह मन्तव्य भ्रममूलक है, उनका अभिप्राय यह जान पड़ता है कि मोक्षार्थी सर्वज्ञ पहले होता है, मुक्त बाद में होता है। किन्तु सर्वज्ञता प्राप्त मोक्षार्थी को चित्तदर्शन के लिये समाधिव्यापार को प्रावश्यकता नहीं होती, और यदि सर्वज्ञ होने पर भी उसे चित्तदर्शन में सक्षम न माना जाएगा तो उसके स्वभाव का सब कुछ जान लेने को शक्ति का परित्याग होने से प्रचेतन प्रसर्वज्ञ से उसका भेव न हो सकेगा। यदि यह कहा जाय कि-"मात्मा निस्तरङ्ग महोवधि के समान है, जैसे वायु के सम्पर्क से माहोदधि में तरङगे उठती हैं बसे वायुकल्पमहत्तत्त्व आदि के योग से प्रात्मा में हो तरङ्ग जैसी अनेक त्तियां होती हैं, उन वृत्तियों का निराकरण होने पर हो आत्मा को अपने स्वरूप में प्रतिष्ठा होती है, अतः आस्मा के स्वरूपप्रतिष्ठानरूप मोक्ष के लिये उक्त आत्मवृत्तियों के निरोधार्थ योग क्रिया का अनुष्ठान आवश्यक है"-किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि आत्मा को सवृत्तिकस्वभाव माना जाय या चाहे निवंतिक स्वमाय माना जाय दोनों ही मान्यताओं में चित्तवृत्ति निरोष का व्यापार निरर्थक है, क्योंकि वृत्ति यदि आत्मा का स्वभाव होगा तो उसका किसी से परिहार नहीं हो सकता और यदि निर्षसिकता उसका स्वभाव होगा तो भी योगानुष्ठान व्यर्थ होगा, क्योंकि आत्मा के स्वभावत: नियंतिक होने के कारण योगानुष्ठान से निर्वतनीय का अभाव है। दूसरी बात यह है कि मुक्तिदशा में भी यत्ति का सर्वका अभाव नहीं होता क्योंकि उस दशा में भी प्रात्मा में ज्ञान होता है और वह Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० १० टीका एवं हिन्दीविषेचन ] [ १९ इत्थं च यदुक्तं वशिष्ठेन "द्वौ क्रमौ चित्तनाशस्य योगो ज्ञानं च राघव ।। योगश्चित्तनिरोधो हिं ज्ञानं सम्यगवेक्षणम् ॥ १॥" इति । तदपि ज्ञान-कर्मसमुच्चयमनुरुणद्धि । र अमराशिवाय उनीशे अधुसूबनेन-प्रथमः प्रकारः प्रपश्चसत्यत्ववादिनाम् , द्वितीयस्त्वद्वैतवादिनाम् इति । अत एवोक्तं तेनैव "असाध्यः कस्यचिद् योगः कस्यचिद् तत्त्वनिश्चयः ।। प्रकारौं द्वौ ततो देवो जगाद परमः शिवः ॥१॥" इति । तस वादद्वयस्य वास्तवत्वं शिवस्योभयपथभ्रान्तिजनकत्वेन प्रतारकता व्यञ्जयतीति न किञ्चिदेतत् । न बनेकान्ताश्रयणं विना नयमतभेदादिकं संगच्छत इति । ज्ञान विषयग्राही परिणाम स्वरूप प्राकार से सम्पृक्त होता है, अतः निविवाद है कि योगी को समाधि च्यापार की अपेक्षा चित्तदर्शन के लिये नहीं होती, क्योंकि यह उसे स्वभावत: सुलभ हो जाता है, अपेक्षा होती है उसकी चैतन्य से चित्त को पृथक् करने के लिये, और इस पृथक्-करण में जैसे क्रिया हेत होती है वैसे ही ज्ञान भो हेत होता है, क्योंकि सभ्य से चित्त के पृथक-करण का अर्थ है दोनों के भेव विषयक अहान का निराकरण, जिसके लिये दोनों का भेद-ज्ञान अवश्य अपेक्षित है। इस प्रसंग में यह बात अवधान योग्य है कि योगपद से वोध्य चित्तवृत्तिनिरोधात्मक व्यापार अवश्य केवल आभोग-चित्त की विशेष क्रिया से साध्य है, चित्त का पृथक्-करण नहीं, उसमें तो क्रिया के समान ज्ञान की अपेक्षा प्रावश्यक हो है । [ ज्ञान-कर्म समुच्चय से मोक्ष-यशिष्टाभिप्राय ] वसिष्ठ ने राम को सम्बोधित कर कहा है कि-"चित्तनाश के दो साधन हैं, योग और ज्ञान । योग का अर्थ है चित्तनिरोध, एवं ज्ञान का अर्थ है सम्यक अवेक्षण यथार्य दर्शन ।" इस कथन के सम्बन्ध में व्याख्याकार का कहना है कि यतः उक्त रीति से यह सिद्ध है कि-ज्ञान और कर्म दोनों मिलकर मुक्ति के हेतु है, अतः वसिष्ठ के इस कथन का तात्पर्य, ज्ञान और क्रम के समुच्चय को ही मुक्ति का हेतु बताने में है। मधुसुदन ने वसिष्ठ के इस कथन का जो यह प्राशय बताया है कि-चित्तनाश का प्रथम साधन प्रपश्च को सत्य मानने वालों के लिये है और द्वितीय साधन अद्वैत वेदान्तियों के लिये है, इसलिये उन्होंने हो कहा है कि किसी को योग असाध्य होता है, और किसी को तत्त्वज्ञान असाध्य होता है। इसी कारण से परम शिव ने दो साधनों का उपदेश दिया है। व्याख्याकार ने मधुसूदन के प्राशय वर्णन को यह कहकर असंगत बताया है कि यसिष्ठ के उक्त कथन का मधुसूदनोक्त आशय स्वीकार करने से प्रपञ्चसरस्ववाद और अद्वैतवाव इन दोनों यादों की सत्यता प्रतीत होती है. साथ ही यह भी प्रतीत Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. ] [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो०४ केचित्तु ज्ञान-कर्मणोस्तुल्य(व)वत् समुच्चयमपि स्वीकुर्वन्ति, तथा च भास्करीया:'तीर्थविशेपस्नान-यम-नियमादीनां तावद् निःश्रेयसकारणत्वं शब्दपलादेवावगम्यते । तत्र तत्त्वज्ञानव्यापारकत्वं न शाब्दम् , न वान्यथानुपपत्त्या, तत्वज्ञानस्यापि व्यवहितस्याऽष्टद्वारकत्वावश्यकत्वेऽत्राप्यदृष्टस्यैव द्वारत्वौचित्यात , ज्ञानिनामपि यमादारधिकारानपायाच । श्रुतिरपि "अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते, ततो भृय इव ते तमो यये विद्यायां रताः" तथा "विद्या चाविद्या च" इत्यादि । “तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय" इति तु तत्वज्ञानस्यापत्रसामग्रीनिवेशनियमपरम् , न तु वाक्यान्तरावधृतकारणव्युदासार्थम् । कर्मणां समुच्चयश्चात्र स्वस्वाश्रमविहितानां साधारणानां यमादीनाम् , असाधारणानामपि यज्ञादीनामीश्वराणबुद्धया विहितानामिति न यावत्कर्यसमुनयानुपपत्तिदोषः इति । तेऽपि बाह्याः परमार्थाऽवेदिनः, न हि कर्मणो ज्ञानस्य वाऽदृष्टद्वारा मोक्षजनकत्वमस्ति, कर्मद्रच्यरूपस्य तस्य संसाराजकत्वान् । द्रव्यरूपता च तस्य "चेतनस्य स्व-परज्ञस्य तदात्मनो हीनमातगर्भस्थानप्रवेशस्तत्संबद्धान्यनिमित्तः, अनन्यनेयत्वे सति तत्प्रवेशात् , मत्तस्याऽशुचिस्थानप्रवेशवत्'' इत्यादिना सिद्धा। होता है कि शिव वश्चक हैं क्योंकि उनके कयन से योग और ज्ञान दोनों मार्गों के विषय में भ्रम उत्पन्न हो सकता है क्योंकि अनेकान्तवाद का आश्रय लिये बिना नयाश्रित मतभेद आदि की संगति नहीं होती । अतः अनेकान्तवाद को न मानना और मतभेद से मार्गभेद बताना स्पष्ट वश्वना है। [ ज्ञान-कर्म तुल्यवत् समुच्चयबादी भास्करमत ] कुछ विद्वान ज्ञान और कम की तुल्यता के आधार पर उनके समुच्चय को भी मोक्ष का उपाय मानते हैं। ऐसे लोगों में भास्कर मतानुयायी विद्वानों का उल्लेख किया जा सकता है क्योंकि उनका कहना है कि "तीर्थ विशेष में स्नान, यम, नियम प्रादि कर्म मोक्ष के कारण हैं, यह बात शास्त्रों से ज्ञात होती है।" उनका यह भी कहना है कि इन कर्मों को तत्त्वज्ञान के द्वारा मोक्ष का सम्पादक नहीं माना जा सकता क्योंकि तत्त्वज्ञान को उन कर्मों का व्यापार मानने में शरद (आगम) अथवा अन्यथाऽनुपपत्ति कोई प्रमाण नहीं है। हो यह मानना अधित अवश्य है कि जैसे व्यवहित तत्वज्ञान प्रष्ट द्वारा मोक्ष का जनक होता है, वैसे ये कर्म भी प्रदृष्ट द्वारा ही मोक्ष के जनक होते हैं, क्योंकि इन कर्मों के सम्पन्न होने पर तत्काल ही मुक्ति नहीं प्राप्त होती। उनका यह भी कहना है कि यम, नियम आदि कर्मों में ज्ञानो भी अनधिकृत नहीं है. इस लिये भी यह ज्ञात होता है कि ज्ञान-कर्म का समुच्चय मोक्ष का जनक है। इस मत का समर्थन श्रुति भी करती है । (१) एक श्रुति का यह स्पष्ट उद्घोष है कि जो लोग केवल अविद्या-कर्म की उपासना करते हैं वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं और जो लोग विद्या में रत होते हैं, ज्ञान नात्र को ही उपासना करते हैं, वे और अधिक गहरे अन्धकार में प्रवेश करते हैं।' Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [ २१ (२) एक दूसरी श्रुति का यह उद्घोष है कि जो लोग विद्या और अविद्या-ज्ञान और कर्म दोनों को उपासना करते हैं वे अविधा-कर्म से मृत्यु-पाप को पार कर विद्या-ज्ञान से अमतत्व-मोक्ष प्राप्त करते हैं । (३) एक तीसरी श्रुति है, जिससे आपाततः यह ज्ञात होता है कि 'प्रात्मज्ञान से हो मृत्यु का अतिक्रमण हो सकता है, उसके लिये अन्य कोई मार्ग नहीं है, किन्तु सावधानी से उस ध्रुति के प्रथ का विचार करने पर उसका यह तात्पर्य विदित होता है कि 'मोक्ष की कारणसामग्री में प्रारमतत्त्वज्ञान का सनिवेश निवार्य है काफि कारमतस्पता: से घटिस सामग्री को छोड़ कोई अन्य मोक्षोपाय नहीं है।' जसका तात्पर्य अन्य श्रुति यावयों से अवगत अन्य मोक्षकारण के निषेष में कथमपि नहीं हो सकता, क्योंकि सभी श्रुतिवाक्य समानरूप से प्रमाण हैं । [ज्ञान के साथ कितने कर्म मोक्षजनक १] ज्ञान-कर्म के समुच्चय को मोक्षजनक मानने पर यह शङ्का हो सकती है कि-'ज्ञान के साथ समस्त कर्मों के समुच्चय को यदि मोक्षजनक माना जायगा तो किसी को भी मुक्ति न प्राप्त हो सकेगी क्योंकि समस्त कर्मों का अनुष्ठान किसी भी व्यक्ति के लिये सम्भव नहीं है और यदि जान के साथ कतिपय कमों के समुच्चय को मोक्षजनक माना जायगा तो यह भी सम्भव न हो सकेगा, क्योंकि किन कर्मों के समुच्चय को मोक्ष का जनक माना जाय और किन कर्मों के समुच्चय को न माना जाय, इसमें कोई विनिगमना यानी किसी एक पक्ष को निर्णायक युक्ति न मिल सकेगो, अतः ज्ञान-कर्म समुरुषय को मोक्ष जनक मानना ठीक नहीं है' किन्तु यह शङ्का उचित नहीं है, क्योंकि जो मोक्षार्थो जिस आश्रम में विधमान होगा, उसके मोक्ष में उस आश्रम के लिये विहित यम प्रादि साधारण कर्म तथा ईश्वरार्पण बुद्धि से किये गये यज्ञ आदि असाधारण फर्म और ज्ञान के समुच्चय को कारण मानने में कोई बाधा नहीं हो सकती। [ भास्कर मत की समीक्षा] व्याख्याकार कहते हैं कि उक्त रीति से ज्ञानकर्मसमुच्चय का समर्थन करने वाले विद्वान भी परमार्थ-वेत्ता न होने से बाह्य हैं आगमिक मर्यादा से दूर हैं, क्योंकि कर्म अथवा ज्ञान यह प्रष्ट द्वारा मोक्ष का अनक नहीं हो सकता, क्योंकि अदृष्ट-कर्म द्रव्यरूप होने से संसार का सम्पादक होता है। अदृष्ट द्रव्यस्वरूप है, यह बात अनुमान से सिद्ध है। अनुमान का प्रयोग इस प्रकार होता है-स्व और पर के ज्ञाता अदृष्टात्मक चेतन का, माता के होन गर्भस्थान में जो प्रवेश होता है, वह उससे सम्बद्ध अन्य निमित्त से होता है क्योंकि वह अनन्यनेय-पुरुषान्तर से अनाकृष्ट का प्रवेश है, जो अनन्यनेष-पुरुषान्तर से अनाकृष्ट का प्रवेश होता है, वह प्रवेशकर्ता से सम्बद्ध किसी अन्य निमित्त से होता है अंसे अशुचि स्थान में मत्त मनुष्य का प्रवेश अनन्यनेय (मनुष्यान्तर से अनेय) का प्रवेश होने से प्रवेशकर्ता मत्त मनुष्य से सम्बद्ध अन्य मादक द्रव्यरूप निमित्त से होता है। इस अनुमान से यह सिद्ध होता है कि किसी व्यक्ति का, माता के हीन गर्भ में जो प्रवेश होता है, यह उस व्यक्ति से सम्बद्ध अदृष्ट द्वारा होता है, ध्यक्ति और अदृष्ट का सम्बन्ध संयोग होता है, जो अदृष्ट को तव्य माने बिना सम्भव नहीं हो सकता। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] [ शास्त्रवास्ति० ६ श्लो०४ यत्त गृहान्तरानुप्रवेशवद् देहाद् देहान्तरानुप्रवेशस्याभिलाषपूर्वकत्वादनन्यथासिद्धो हेतुर्न द्रव्यविशेषसाधका, तदुक्तम् "दुःखे विपर्यासमतिस्तृष्णा वाऽवन्ध्य कारणम् । ___ जन्मितो गस्य ते न सानो जरा जन्माशियति ॥१॥" इति सौगताकूतम् । तदसत, प्रेत्यहीनशुन्पादिगर्भेऽभिलापाऽसंभवात् । एवं चात्मप्रवेशात् कर्मप्रदेशानां पृथक्करणरूपया निर्जरयैव व्यापारत्वं कर्मणो ज्ञानस्य वा, न तु कर्मणा, परेपामपि 'धर्मेण पापमपनुदति' इत्यायेतदर्थावेदकम् । येऽप्याहुरुदयनमतानुसारिणः- 'कर्मणा यावदनुकूलोपसंहारवण तत्वज्ञानमुपसंहृत्यैव मोक्षो जननीयः' इत्यावश्यकत्वात् तत्त्वज्ञानमेव कर्मणां द्वारम् । अनुमानमपि-'तीर्थविशेषस्नानादीनि तत्त्वज्ञानद्वारकाणि, मोक्षजनककमत्वात् , यमादिवत्' । न चात्र योगत्वमुपाधिः, "कथयति भगवानिहान्तकाले भवभयकातरस्तारकं प्रयोधम्" इत्यादिपुराणात , "रुद्रस्तारक व्याचष्टे" इत्यादिश्रुतेच तत्त्वज्ञानद्वारा मुक्तिजनके वाराणसीप्रायणादौ साध्याऽध्यापकत्वात् । तेषां च कर्मणां सत्त्वशुद्धिद्वारा तत्त्वज्ञानहेतुत्वम् । कार्यविशेषाच न व्यभिचारः । श्रुतिरपि तत्त्वज्ञानकर्मणोः कारणतामात्रं चोधर्यात, न तु तुल्यकक्षतया समुञ्चयम् , इति तेऽपि भ्रान्ताः, हिंसामिश्रितानां स्नानादीनामीश्वरार्पणयुद्धयादिना सत्वशुद्धिद्वारा तत्त्वज्ञानाऽहेतुत्वात ; अन्यथा ब्रह्महत्या-रयेनयागादीनामपि तद्बुद्धया क्रियमाणानां तथावप्रसङ्गात् , वाराणसीप्रायणादेरपि [द्रव्यात्मक अदृष्टसिद्धि में बाधक शंका का निरसन ] इस अनुमान के सम्बन्ध में बौद्धों का यह कहना है कि-"जसे एक से अन्य गृह में प्रवेश अनन्यनेय प्रवेश होते हुये भो अत्त्य गृह में प्रवेशाभिलाष से होता है न कि प्रवेशकर्ता से सम्बद्ध किसो नव्यान्तर रूप निमित्त से होता है उसी प्रकार एक वेह से देहान्तर में प्रवेश कर्ता के अभिलाष से हो उपपन्न हो सकता है, अतः अनन्यनेय प्रवेशरूप हेतु उक्त साध्य के बिना भी सिद्ध हो जाने के कारण व्य विशेष का साधक नहीं हो सकता।" इस कथन के समर्थन में व्यख्याकार ने एक बौद्ध-कारिका उद्धत की है, जिसका अर्थ यह है कि-'भ्रमात्मिका बुद्धि किया तृष्णा,-अनुदिन वर्धमान दिषग्राभिलाष-दुःख का अमोघ कारण है । यह दोनों जिस जन्मवात् प्राणी को नहीं होते वह पुर्नजन्म नहीं प्राप्त करता।'किन्तु व्याख्याकार की दृष्टि में यह बौद्धकथन प्रसंगत है क्योंकि होन योनि कुतिया आदि के गर्भ में प्राणी के प्रवेश को अभिलाषजन्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसे गर्भ में प्रवेश की अभिलाषा किसी प्राणी को नहीं हो सकती, प्रतः इस प्रवेश को प्रवेशकर्ता से सम्बद्ध अद्दष्टात्मक द्रव्यविशेष से जन्य मानना आवश्यक होने से उक्त हेतु द्रव्यविशेष का साधक होने में कोई बाधा नहीं है। मोक्षोपाय के सम्बन्ध में प्रस्तुत विचार का निष्कर्ष यह है कि कर्म किंवा ज्ञान से निर्जरा होती है। निर्जरा का अर्थ है आत्मप्रदेश से फर्मप्रदेश का पृथक्करण । इस निर्जा के द्वारा ही कर्म Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका एवं हिन्वीविवेचन ] [ २३ नियमतः सत्त्वशुद्धथभावात् , बहूनामपि तत्र म्रियमाणानां रौद्रध्यानादिलिङ्गोपलम्भात् , तत उपदेशेन ज्ञानकल्पने मानाभावात; अन्यथा तदुपदेशस्यान्येनापि संनिहितश्रोत्रेण श्रवणप्रसङ्गाव, तदेकरणोरगदेशे श्रावाचाम् । मौर शान मोक्ष का जनक होता है, न कि किसी अन्य कर्म द्वारा । 'मोक्षार्थी धर्म से पाप को नष्ट करता है' अन्य दार्शनिकों के ऐसे कथनों का भी यही आशय है, क्योंकि पाप का नाश, आत्मप्रवेश से निन्ध कमप्रदेश के पृथक्करण से अतिरिक्त नहीं है । [ कर्म से तत्त्वज्ञान द्वारा मोक्षलाभ-उदयनाचार्य ] उदयनमत के अनुयायी विद्वानों का कहना है कि-'कर्म मोक्ष के अनुकूल साधनों का सन्निधान सम्पन्न करता है. अतः वह मोक्षानकल तत्त्वज्ञान का सन्निधान करके ही मोक्ष का जनक हो सकता है, तो इस प्रकार मोक्ष से पूर्व जब तत्त्वज्ञान की उपस्थिति आवश्यक ही है तब उसी को कम का द्वार मानना युक्तिसंगत है।' इस बात के समर्थन में वे अनुमान प्रयोग भी करते हैं जैसे-'तीर्थ विशेष में स्नान प्रावि फर्म तत्वज्ञान द्वारा मोक्ष के जनक रहते हैं, क्योंकि वे मोक्षजनक कर्म है. जो कर्म मोक्षजनक होते हैं वे तत्वज्ञान द्वारा ही मोक्षजनक होते हैं, जैसे यम, नियम प्रभृति यौगिक कर्म।' इस अनुमान में योगत्व उपाधि नहीं हो सकता क्योंकि काशी मरण में तत्त्वज्ञान द्वारा मोक्षजनकत्वरूप 'साध्य है किन्तु योगस्व नहीं है अत: साध्य का अव्यापक होने से योगत्व साध्यव्यापकत्वे सति साधनाध्यापकत्व' इस उपाधिलक्षण से रहित है । 'काशी-मरण तत्वज्ञान द्वारा मोक्ष का जमक होता है। इस बात को सिद्ध करने के लिये व्याख्याकार ने पराभिमत दो प्रमाणभूत बचत उघृप्त किये हैं, जिनमें एक पुराण का वचन है जिसका अर्थ यह है कि-'काशी में मृत्यु के समय भव भय से पीड़ित प्राणी को भगवान् शंकर तारक मोक्षजनक तत्त्वज्ञान का उपदेश प्रदान करते हैं।' दूसरा वचन श्रुति वचन है, जो काशी-मरण के प्रसङ्ग में आया है। अत: उसका भी प्रसङ्ग-सङ्गत अर्थ यही है कि-'भगवान् रुद्र काशी में मरणासन्न मनुष्य को तारक तत्त्वज्ञान का उपदेश करते हैं।' इस सन्दर्भ में यह शङ्का उचित नहीं हो सकती कि-'स्तान आदि कर्मों से तत्त्वज्ञान का जन्म न होने से तत्वज्ञान उन कर्मों का द्वार नहीं हो सकता-क्योंकि स्नान आदि कर्म अन्तःकरण को शुद्धि द्वारा तत्त्वज्ञान के जनक होते हैं। यह भी शङ्का उचित नहीं हो सकती कि-'मोक्षजनक कर्मत्व मोक्ष के साक्षात् जनक कर्म में तत्त्वज्ञान द्वारा मोक्षजनकात्य का व्यभिचारी है, अत: उस हेतु से स्नान आदि कर्मों में तत्त्वज्ञान द्वारा मोक्षजनकरव को सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि ऐसा कोई कर्म है ही नहीं जो मोक्ष का साक्षाद जनक हो। उवयनमतानुयायियों का यह भी कहना है कि-'तत्त्वज्ञान और कर्म में मोक्षजनकताका प्रतिपादन करने वाली जो कोई श्रति प्राप्य है, वह उन दोनों में मोक्ष की कारणता का हो प्रतिपादन करती है, न कि उनके तुल्यकक्ष समुच्चय का भी प्रतिपावन करती है, प्रतः कोई प्रमाण न होने से भी मान-कर्म समुच्चय को मोक्ष का कारण नहीं माना जा सकता।' [उदयनाचार्य मत की समीक्षा ] च्यात्याकार कहते हैं कि उक्त मत को व्यक्त करने वाले उदयनानुयायी मी भ्रान्त हैं, क्योंकि Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] [ शास्त्रवातास्त लो०४ 'तत्त्वज्ञानप्रतिवन्धकादृष्टनाशककर्मणां मोक्षे जनयितव्ये तत्वज्ञानद्वारकत्ववत् तत्वज्ञानस्यापि मुक्तिप्रतिबन्धकप्रारब्धनाशकयोगिप्रयत्नविशेषकर्मद्वारकत्वसाभ्याश्च अन्तिमतत्त्वज्ञानमेव मुक्तिहेतुरिति न तत्र कर्मद्वारकत्वमिति चेत् १ तहिं अन्तिमकमैव तत्त्वज्ञान जनकमस्तु, इति का तत्र सत्वशुद्धिद्वारकत्वप्रतिज्ञा ? । अन्तिम कमव च मुक्तिहेतुः, न त्वत्र तत्वज्ञानद्वारकत्यमित्यपि च न दुर्वचम् । स्नान आदि कर्म जलस्थ जीव को हिंसा से मिश्रित है, अस: ईश्वरार्पण बुद्धि से विहित होने पर भी वे अन्तःकरण की शुद्धि द्वारा तत्वज्ञान के हेतु नहीं हो सकते; प्रौर यदि हिसामिश्रित होने पर भी ईश्वरार्पणबुद्धि से विहित होने के कारण स्नान आदि कर्म अन्त:करण के शोधक होकर तत्वज्ञान के जनक होंगे तो ईश्वरार्पणबुद्धि से ब्रह्महत्या, श्येनयाग ग्रादि का अनुष्ठान करने पर उनमें भी अन्त:क करण शधि द्वारा मोक्षजनकत्व की ग्रापत्ति होगी। काशी मरण मावि से भी नियमतः अन्तःकरण की शुद्धि होती है ऐसा नहीं है, क्योंकि काशी में मरने वाले अनेकों में रौनध्यान आदि लिङ्गको उपलब्धि होती है, अतः 'शंकर के उपवेश द्वारा काशी-मतों को तस्वज्ञान की प्राप्ति होतो है', यह मानने में कोई प्रमाण नहीं है । इसके अतिरिक्त यह भी एक बात है कि यदि यह कहा जायगा कि-'भगवान् शङ्कर काशी में मरणासन्न को तत्वज्ञान का उपदेश करते हैं तो यह भी सम्भव हो सकता है कि उस उपदेश को सन्निहित कोई अन्य व्यक्ति भी कभी सुन ले और उससे तत्त्वज्ञान प्राप्त कर काशी से बाहर मरने पर भी मुक्त हो सके, किन्तु यह बात उन्हें मान्य नहीं है । इस सम्भावना के निराकरणार्थ यदि यह कहा जाय कि- भगवान् शंकर काशी में मरणासन्न प्राणी को जो उपदेश देते हैं, वह केवल उसी के सुनने योग्य होता है तो इस कल्पना में श्रद्धा से अतिरिक्त कोई प्रमाण नहीं है और ओ बाप्त केवल किसी श्रद्धा पर निर्भर होतो है वह अन्य के लिये मान्य नहीं हो सकती। इस सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि यदि यह माना जायगा कि-'जो कर्म तत्वज्ञान के प्रतिबन्धक पापात्मक अदृष्ट के नाशक होते हैं, वे तत्त्वज्ञाम द्वारा मोक्ष के जनक होते हैं तो यह भी कहा 'जा सकेगा कि योगी के जिस प्रयत्नविशेष-साध्य कर्म से मुक्ति के प्रतिबन्धक प्रारब्ध कर्म का नाश होता है, तत्त्वज्ञान भी उस कर्म के द्वारा मुक्ति का जनक होता है। यदि यह कहा जाय कि-'पूर्व के तत्त्वज्ञान मोक्षजनक नहीं होते किन्तु अन्तिम तत्त्वज्ञान ही मोक्षजनक होता है अतः उसे कर्म द्वार की अपेक्षा सम्भव नहीं हो सकती'-तो कर्म के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि अन्तिम कर्म हो मोक्ष का जनक होता है अतः उसे किसी द्वार को अपेक्षा नहीं होती। फलतः यह प्रतिज्ञा निराधार है कि कर्म सत्त्वशुद्धि आदि द्वारा ही मोक्ष का जनक होता है। अत एव यह कहने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती कि अन्तिम कर्म हो मोक्ष का जनक होता है, उसे तत्त्वज्ञानरूप द्वार की अपेक्षा नहीं होती। रौद्रध्यान-- यह हिंसानुबन्धी-असत्यानुबन्धो स्तेयानुबन्धी-परिग्रहसंरक्षणानुबन्धी तीवसंक्लिष्ट ध्यानस्वरूप होता है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका एवं हिन्दीविवेचन J 'केवलज्ञानमतं त्रुता कि कर्मच्यापारकत्वव्यसनन । ति चेत् ! अर्नामोस, न हि व कर्मणामपि भावतश्चारित्ररूपेणानुवृत्तता न मः, उत्तरोत्तरविशुद्धयाऽविशुद्धपर्यायापगमेऽपि पर्यायसोनपगमात् । युक्तं चैतत् , इत्यमेव ज्ञान-मुक्त्यादावनुगतहेतुहेतुमद्भावादिव्यवहारोपपत्तः, बाधकर्मणां तदभिष्यञ्जकतयैवोपयोगात् , इदमेव भावतः सत्वशुद्धिः, कर्मापगमस्तु द्रव्यतः । तदाहुः-[ योगशाख ४-८० ] "यः कर्मपुद्गलादानच्छेदः स द्रव्यसंवरः । भवहेतुक्रियारयागः स पुनर्भावसंवरः॥ १॥" इति दिग् । एनेन-"न कर्मणा न प्रजया न धनेन नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय, नास्त्यकृतः कृतेन" कर्मणा वध्यते जन्तुविद्यया च विमुच्यते । तस्मात् कर्म न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः ॥१॥" इत्यादि श्रुति-स्मृतिशतेन कर्मणा निषेधात् , “तपमा कल्मषा हन्ति" इत्यादिना तत्त्वज्ञानोत्पनियनियन्धरिजनिवृत तारावाप्तिनिप्रदान, यागकारणताग्रहीतरकल्प्यनापूणोपजीव्यविरोधेन यागान्यथासिद्धयभावेऽपि प्रतिबन्धकाभावस्य कार्यमात्रकारणतायाः प्रागेवावधारणात् तेन कर्मणोऽन्यथासिद्धेः सुवचत्वात ; मङ्गल-कारीयोरिव वृष्टि-समाप्त्योन कर्मणां मुक्तिहेतुत्वम् , किन्तु ज्ञानस्यैव "ज्ञानादेव नु कैवल्यम्" "तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति" "तरति शोकमारमवित्" "ब्रह्मविदाप्नोति पर ब्रमेव भवति" इत्यादिश्रुति-स्मृतिशतस्वरसादनन्यथासिद्धत्वाच-इति नव्यमतमप्यपास्तम् । [ज्ञान-कर्मसमुश्चयवाद का समर्थन ] सिद्धान्ती जैन के प्रति यह प्रश्न हो सकता है कि जब वे मोक्षपर्यन्त केवलशान का प्रतुवर्तन मानते हैं तो ज्ञान को कर्मद्वारक मानने में उनकी आसक्ति क्यों है ? व्याख्याकार कहते हैं कि यह प्रश्न अज्ञानमूलक है, क्योंकि जैन का यह कहना नहीं है कि- केवलज्ञान मात्र का ही मोक्षपर्यन्त अनुवर्तन होता है. कर्मों का भावतः चारित्ररूप में भी अनुवर्तन नहीं होता', अपितु जैनों का कहना यह है कि चारित्र पालन से उत्तरोतर विशुद्धि द्वारा अशुद्ध पर्यायों को नियत्ति होने से शुद्ध पर्याय युक्त-कर्म का भी मनुवर्तन होता है। यही युक्त भी है. क्योंकि ऐसा मानने पर ही शान मुक्ति आदि में अनुगत हेतुहेतुमद्धाब प्रावि व्यवहारों की उत्पत्ति हो सकती है। प्रतः स्पष्ट है कि जैन मत में ज्ञान के समान भावकम का भी मोक्षपर्यन्त अनुवर्तन मान्य है, अमान्य केवल बाह्य कर्मों का अनुवर्तन है, क्योंकि उनका उपयोग मावकर्म को अभिव्यक्त करने मात्र में होता है, अन्तःकरण की शुद्धि भी यही है कि वह भावकर्म मात्र से युक्त हो जाता है, न कि यह कि वह कर्मों से सर्वथा पृथक हो जाता है क्योंकि कर्म का पृथक्करण द्रव्यरूप में ही होता है भावरूप में नहीं। भावरूप में कम Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो० ४ की निवृत्ति तो मोक्षकाल में ही होती है । कर्म त्याग का पृथक्करण योगशास्त्र में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है कि-फर्म पुद्गलों का अग्रहण दृष्यसंयर है और भवजनिका क्रिया का त्याग भाषसंबर है। [ज्ञानमात्र से मोक्ष-नव्यमत ] नव्य चिन्तकों का मत है कि कर्म मुक्ति का हेतु नहीं है किन्तु ज्ञान हो मुक्ति का हेतु है । उस मत के समर्थन में उनकी ओर से प्यास्थाकार ने कई शास्त्रवचन उद्धृत किये हैं, उनमें प्रथम तीन श्रुति वचन हैं, कम से उनका अर्थ इस प्रकार है - 'मोक्षार्थी पुरुषों ने कर्म, सन्तान अथवा धन से कभी भी अमृतत्व-मोक्ष को नहीं प्राप्त किया है किन्तु इन वस्तुओं के श्याग से उसे प्राप्त किया है।' 'तत्त्वज्ञान से अतिरिक्त मोक्ष का कोई मार्ग-उपाय नहीं है।' 'अकृत-नित्य मोक्ष, कृत-जन्य कर्म से नहीं प्राप्त होता।' श्रुति वचनों को उद्धृत करने के बाद व्याख्याकार ने एक स्मति वचन भी उधत किया है, जिसका अर्थ इस प्रकार है: 'जीव कर्म से बद्ध होता है और ज्ञान से मुक्त होता है, इसलिये तत्त्वद्रष्टा योमो कर्म नहीं करते।' इन वचनों से कर्म में मोक्षसाधनता का स्पष्ट निषेध किया गया है। एक शास्त्र-वचन और उपलब्ध होता है, जिसका अर्थ इस प्रकार है कि-मोक्षार्थी तप-कर्म विशेष) से पाप को नष्ट करता है । इस वचन से निस्सन्दिग्ध सूचना मिलती है कि कम तत्वज्ञान उत्पत्ति के प्रतिबन्धक पाप को नष्ट कर मोक्ष के प्रति प्रन्यथासिद्ध हो जाता है। इस वचन के विरुद्ध यह शङ्का हो सकती है कि-'जैसे याग स्वजन्य अपूर्व से स्वर्ग के प्रति अन्यथासिद्ध नहीं होता, वैसे ही कर्म भी स्वजन्य प्रतिबन्धकनिवृत्ति से अन्यथासिद्ध नहीं हो सकता'-किन्तु विचार करने पर यह शङ्का ठीक नहीं प्रतीत होती, क्योंकि अदृष्ट और प्रतिबन्धकनिवृत्ति में प्रातर है, जैसे अदृष्ट में स्वर्गकारणता यागनिष्ठ स्वर्गकारणता के अधीन है क्योंकि याग में शास्त्रप्राप्त स्वर्णकारणता को उपपत्ति के लिये ही अदृष्ट को याम के व्यापार रूप में स्वर्ग का कारण माना जाता है, ऐसी स्थिति में यदि प्रष्ट से याग को अन्यथासिद्ध मानकर याग में स्वगकारणता का परित्याग किया जायगा तो उपजीव्यविरोध होगा, जो उचित नहीं कहा जा सकता । किन्तु कर्म से जो पापनिवृत्ति होती है उसमें प्रतिबन्धकाभाव के रूप में तत्त्वज्ञान की अथषा मोक्ष को कारणता सिद्ध है। इस कारणता को सिद्धि कर्मनिष्ठ तत्त्वज्ञानादि की कारणता पर निर्भर नहीं है अतः पापनिवृत्ति को तत्त्वज्ञानादि का कारण· मानकर यदि कर्म में तत्त्वज्ञानादि की कारणता को प्रस्वीकार कर दिया जाय तो उपजीदय विरोध नहीं प्रसक्त हो सकता। अतः पापनिवृत्ति से अन्यथा सिद्ध हो जाने के कारण कर्म को तत्वज्ञानादि का कारण नहीं माना जा सकता, इसलिये प्रस्तुत विचार से यही निष्कर्ष प्राप्त होता है कि जैसे मङ्गल समाप्ति का और कारीरीयाग वृष्टि का कारण नहीं होता, उसी प्रकार कर्म भी मुक्ति का कारण नहीं हो सकता । फलतः यह निर्विवाद रूप से घोषित किया जा सकता है कि ज्ञान ही मुक्ति का हेतु है। झान से मोक्ष की उत्पत्ति के प्रतिपादक कई वचनों को भी व्याल्याकार ने उद्धृत किये हैं। उनमें पहले का अर्थ है कि-झान से ही कंवल्य-मोक्ष होता है। दूसरे का अर्थ है 'मोक्षार्थी पात्मज्ञान प्राप्त Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मा० १० टीका एवं हिन्वी विवेचन ] [ २७ प्रतिबन्धकामावस्यापि तुच्छरूपस्याऽसिद्धेः, भावशुद्धिरूपस्य च चारित्ररूपक्रियापर्यवसायित्वात् , ज्ञान-कमभ्यां द्वाभ्यामपि तत्र तत्र मुक्त्युत्पत्यभिधानाविशेषेऽप्येकत्रानन्यथासिद्धत्वपरित्यागेन नियतपूर्ववत्तित्वमात्रार्थादरस्यान्यत्राऽप्यविशेषात् , नियतपूर्ववर्तितावच्छेदकेन येन रूपेण कारणत्वं न व्यवाहियते तेन रूपेणान्यशासिदत्वस्य व्यवहारन येनेर निश्चयनयेनाप्यव्यवहितपूर्फवर्तितानवच्छेदकरूपेणान्यथासिद्धेरभ्युपगमादित्यन्यत्र विस्तरः । तस्माद् गुरुमनुमृतस्याऽशठभावस्य दर्शन-ज्ञान-त्रारित्राण्यैव परो मोक्षोपायः एकवैकल्येऽपि फलाऽसिद्धरिति व्यवस्थितम् । करके ही अतिमत्यु-मोक्ष को प्राप्त होता है। तीसरे वचन का अर्थ है कि-'प्रात्मानसम्पन्न पुरुष शोकसंसार को तर जाताहै।' चौथे बचन का अर्थ है कि-'ब्रह्मज्ञानी ब्रह्मभाव को प्राप्त करता है।' श्रुति-स्मृति के ऐसे सैकड़ों वचनों से यह सिद्ध है कि-'कर्म मोक्ष का कारण नहीं है किन्तु मोक्ष के प्रति अन्ययासिद्ध है। व्याख्याकार कहते हैं कि नव्यचिन्तकों का यह मत भो निरस्त है क्योंकि उक्त युक्तियों से कर्म में मोक्षकारणता सिद्ध होने से तदनुसार ही इन वचनों को ध्याख्या युक्तिसंगत हो सकती है। __ उक्त नव्य मत का निरसन करने के लिये ध्याख्याकार ने जो अन्य युक्तियां दी है, वे इस प्रकार हैं: [ नव्यमत-निरसक युक्तियां ] (१)प्रतिबन्धकामाव अभाव होने से तुच्छ है अतः उसे तत्वज्ञान आदि का कारण मानकर उससे कर्म को अन्यथासिद्ध नहीं किया जा सकता, जैनमत में दुरितनिवृत्ति कारण नहीं होती, किन्तु उसके स्थान में भावशुद्धि कारण होती है और भावशुद्धि चारित्ररूप एक क्रिया है, अतः उससे कर्म अन्यथासिद्ध नहीं हो सकता। (२) 'शान मोक्ष के प्रति अनन्यथासिद्ध होने से मोक्ष का कारण है और कर्म अन्यथासिद्ध होने से मोक्ष का कारण नहीं हैं, इस बात के विरुद्ध एक और युक्ति है, वह यह है कि जब अनेक वचनों द्वारा ज्ञान-कर्म दोनों से मुक्ति की उत्पत्ति का अभियान समानरूप से किया गया है तब उनमें से किसी एक में यदि अनन्ययासिद्धत्व का त्याग कर नियतपूर्ववति अर्थमात्र में कारणत्व का व्यवहार माना जायगा तो यह बात समानन्याय से अन्य में मो मामनी पड़ेगी, अतः उन दोनों में यह वैषम नहीं किया जा सकता कि कम मोक्ष का नियतपूर्ववतिमात्र है, अन्यथासिद्ध होने के नाते वह मोक्ष का कारण नहीं है, और ज्ञान मोक्ष का नियतपूर्ववर्ती होने के साथ साथ अनन्यथासिद्ध भी है अतः सह यह मोक्ष का कारण है । इस सम्बन्ध में यह बात अन्यत्र विस्तार से बताई गई है कि जैसे व्यवहार नय के आधार पर यह मान्य है कि जिस नियतपूर्वतितावच्छेवकरूप से जिसमें कारणत्वका म्यवहार नहीं होता, उस रूप में वह अन्यथासिद्ध होता है; उसी प्रकार निश्चयनय के आधार पर यह भी मान्य है कि जो रूप पव्यवाहित पूर्वतिता का अनवच्छेदक होता है, उस रूप से कार्य का नियत पूर्ववती भी अन्यथासिद्ध होता है, फलतः कम यदि मोक्ष के नियतपूर्वतितावच्छेकभावशुद्धित्वरूप F Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ 1 [ शास्त्रवार्ता स्त. ग्लो० ४ अत्र के वन दिगम्बरडिम्भास्तर्ककर्कशमिदं निगदन्ति । हन्त ! दन्तिन इबातिमदान्धा अशं गुरुमनादृतवन्तः ।१॥ चेत् त्रयं शिवयथः श्लथ एव प्रेक्ष्यतेऽध भवताममिलापः । पाससा घरमहानिमुना न अयं सितपटा घटयन्ति ॥२॥ तथाहि-रागाद्यपचयनिमित्तनैपॅन्थ्य विपक्षभूतत्त्वेन तदुपचयहेतुबस्त्रादिकग्रहणं विशिष्टशृङ्गारानुपक्ताङ्गनाङ्गसङ्गादिवत् कथं न मुक्तिप्रतिकूलम् । कथं न द्रव्यतः, क्षेत्रता, कालतः, भावतो वा कृतपरिग्रहप्रत्याख्यानस्य वस्त्रोपादाने न पञ्चममहावतभङ्गः । कथं चवं परद्रव्यरतिसाम्राज्ये स्वात्मप्रतिवन्धमात्र विधान्तश्रामण्यसद्धिः । कथं च न तस्करादिभ्यो खादे संगोपनानुसंधानेन संरक्षणानुबन्धिरौद्रध्यानावकाशः । कथं चैवमाचेलक्यपरीषहविजयः कृतः स्यात् ।। न हि सचेलकत्वमचेलकत्वं च न विरुद्धमिति । यदि च सचेलवमप्याचेलक्यमूलगुणावगुण्ठितश्रामण्यं न विरुन्ध्यात् , तदा कथं जिनेन्द्र-जिनकल्पिकादयः परमश्रमणा अचेला एव श्रते प्रसिद्धाः । असंगताऽथमेव हि ते वस्त्रादिकं परित्यक्तवन्तः, इति तद्विनेया अपि तल्लिङ्गानुकारिण एवोचिताः। ततो न सितपटा महाव्रतपरिणामवन्तः, तत्फलसाधका वा, वस्त्र-पात्रादिपरिग्रहयोगित्वात , महारम्भगृहस्थादिति चेत् ? बारित्रत्व से मोक्ष के कारण रूप में व्यवहुत न होने से मोक्ष के प्रति प्रन्यथा सिद्ध होगा तो मोक्ष से चिरपूर्वजात तत्त्वज्ञानों में विद्यमान होने से मोक्ष के अव्याहतपूर्वतिता के अनवच्छेदक तत्त्वज्ञानत्व रूप से मोक्ष का अव्यवहितपूर्वधर्ती अन्तिम तत्त्वज्ञान भी अन्यथासिद्ध होगा प्रत. सामान्य रूप से मात्र तत्त्वज्ञान को मोक्ष का कारण कह्ना संगत नहीं हो सकता। उक्त विचारों के निष्कर्षरूप में यह तथ्य उपलब्ध होता है कि गुरु का अनुसरण करने से जिसका शठ भाव समाप्त हो जाता है, दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये तीनों ही उसके मोक्ष के साधन, होते हैं, इनमें किसी एक का अभाव होने पर मोक्ष-फल की प्राप्ति नहीं होती। [ नग्नता का आग्रही दिगम्बर मत ] व्याख्याकार ने मोक्षोपाय के सम्बन्ध में श्वेताम्बर जैनों के प्रति दिगम्बर जैनों का प्राक्षेप अपने एक पद्य द्वारा प्रस्तुत किया है । पद्य का अर्थ इस प्रकार है अत्यन्त मदान्ध हाथी के समान, मजकुशकल्प गुरु का अनावर करने वाले विगम्बरी बकचे श्वेताम्बर वृक्षों के प्रति कठोर तकों से युक्त इस प्रकार की बात करते हैं कि यदि श्वेतवस्त्रधारी जैन मुनि वर्शन, ज्ञान, चरित्र इन तीनों को मोक्ष का मार्ग मानेंगे तो उन्हें मोक्ष की अपनी प्राकाङ्क्षा शिथिल कर बेनी होगी, क्योंकि वे वस्त्र परिधान कर अपरिग्रहरूप चारित्र से हीन हो जाते हैं, अतः वे मोक्ष के उक्त तीनों उपायों को कैसे संप्राप्त कर सकते हैं? ! Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [ २६ अन्न ब्रमःदिक्पटाः सितपटैः सह सिंहवारणा अपि रणाय न सजाः । दर्शयन्तु वदनानि कथं ही ! तेन ते परिंगलभिजलजाः ॥१॥ तथाहि-यत् तावद् रागद्यपचनिमित्तनैन्थ्यविषक्षभृतत्वेन तदुपचयहेतुत्वं वस्त्रादेरुक्तम् , तत्र नै ग्रन्थ्यं सर्वतो देशतो वोपात्तम् ? । आये अष्टविधकर्मसंवन्धरूपान्थात्यन्तिकाऽभावरूपस्य तस्य मुक्तेष्वेव संभवात कथं तस्य रागाद्यपचयहेतुता १ । न हि तदा रागादिकमेवास्ति, इति किं तेनापचेयम् ? इति विशेषणाऽसिद्धो हेतुः । द्वितीयेऽपि किं सम्यग्ज्ञानादि [दिगंबरों का निर्वस्त्र-निग्रन्थता का समर्थन ] विगम्बरों का कहना यह है कि निग्रन्थता-पूर्णप्रपरिग्रह रागादि के अपचय का साधन है और वस्त्र प्रादि का ग्रहण रागादि के उपचय का हेतु होने से उसका विरोधी है, अतः वह विशिष्ट प्रकार के शृङ्गारों से सजी अङ्गना के अद्धाश्लेष के समान मोक्ष के प्रतिकल क्यों नहीं होगा ? जैन साधु अध्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन चारों दृष्टि से परिग्रह के परित्याग का व्रत लेता है, फिर यदि वह वस्त्र ग्रहण करता है तो उसके अपरिग्रहरूप पञ्चम महावत का मन क्यों नहीं होगा ? और जब वस्त्र आदि पर द्रव्य में उसकी रति होगी तो उसका श्रमणभाव, जो अपने प्रात्मस्वरूप मात्र में विधान्त होने से सम्पन्न होता है, कैसे समृद्ध होगा? साधु जब वस्त्र रखेगा तब चोर आदि से उसकी रक्षा का भी उसे ध्यान रखना होगा, फिर ऐसी स्थिति में उसे संरक्षणानुबन्धी रौनध्यान का अवसर क्यों नहीं होगा? जब साधु वस्त्रधारण करेगा तब वह आचेलक्य परीषह का विजय वस्त्राभाव जन्य क्लेश को सहने का सामर्थ्य कसे प्राप्त कर सकेगा? क्योंकि-सचेलकत्व अचेलकत्व एक दूसरे से विरुद्ध नहीं है-यह बात नहीं है, अतः सचेलक-सवस्त्र होते हुये अचेलक-प्रवस्त्र नहीं हुप्रा जा सकता। यह भी विचारणीय है कि सचेलता-सवस्त्रता यदि अचेलता-निर्वस्त्रता के मूल गुण से मण्डित श्रमणभाव का विरोधी नहीं है तो शास्त्र में जिनेन्द्र, जिनकल्पिक प्रादि निर्वस्त्र परम श्रमणों का ही उल्लेख क्यों है ? कहना होगा कि निश्चय ही उन श्रमणों ने असङ्ग होने के लिये ही वस्त्रों का त्याग किया होगा, इसलिये उचित यही है कि परम श्रमणों ने वस्त्र आदि का त्याग कर जिस लिङ्गचिन्ह को अपनाया है, उनके शिष्य भी वस्त्र आदि का त्यागकर उन्ही चिह्नों को अपनायें । श्वेताम्बर साधु ऐसा नहीं करते अत: उनके सम्बन्ध में यह अनुमान निर्बाध रूप से सम्भव है कि 'श्वेताम्बर साधु महावतों के परिणाम से वञ्चित होते हैं किंवा महायतों के प्राप्य फल के साधक नहीं होते, क्योंकि वे वस्त्र, पात्र आदि परिग्रह से युक्त होते हैं, जैसे महान आरम्भों में लगे गृहस्थ । [ दिगम्बरमत का खण्डन ] ध्याख्याकार ने अपने एक पद्य द्वारा विगम्बरों के उक्त आक्षेप का उत्तर देने का उपक्रम किया है। पद्य का अर्थ इस प्रकार है:-दिगम्बर यद्यपि हाथी के समान बलवत्तर हैं तथापि वे श्वेताम्बर १. परमश्रमण-जिनकल्पिकादि । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] [ शास्त्रवार्ता स्त० ९ श्लो. ४ तारतम्येनोपचीयमानं भावनग्रंन्थ्य विवक्षितम् , आहोस्विद् वायवसाधभावरूपम् ?। आधे तयाभूतसम्पग्नानादिविपक्षत्वेन वस्त्रादिग्रहणस्याऽसिद्धेहतोविशेष्याऽसिद्धना। द्वितीये वस्त्राद्यभावस्य रागाद्यपचयनिमित्तताऽसिद्धे हे तोविशेषणाऽसिद्धता । न च वस्त्राधभावो रागाद्यपचयनिमित्तत्वेन सिद्ध एवेति वाच्यम् , अतिशयितरागवद्भिः पारापतादिभिव्यभिचारात् । न च 'पुरुषत्वे सति' इति विशेषणीयम् , वस्त्रविकलैरनार्यदेशोत्पन्नैव्यभिचारात् । न प 'आर्यदेशोत्पन्नपुरुषत्वे सति' इति विशेषणाद् न दोप इति वाच्यम्; तथाभूतकामुक पुरुषव्यभिचारात् । न च 'व्रतधारितथाभूतपुरुषत्वे सति' इति विशेषणाद् न दोपः, तथाभूतपाशुपतैर्व्यभिचारात् । न च 'जनशासनप्रतिपत्तिमत्तथाभृतपुरुषत्वे सति' इति विशेपणोपादानाद् न दोषः, उन्मसदिगम्बर व्यभिचारात् । न च "अनुन्मसत्वे सति' इत्यपि विशेषणीयम् ; मिथ्यात्वोपेतद्रव्यलिंगावलम्बिदिग्याससा व्यभिचारात् । न च सम्यग्दर्शनादिसमन्त्रितपुरुषत्वे सति वस्त्राऽभावो हेतुः, विशेषणस्यैव तत्र समर्थत्वेनाऽसमर्थविशेष्यत्वात् । किञ्च, वस्त्रादिधर्मोपकरणाभावे यतियोग्याहारविरह इव विशिष्टश्रुत-संहननविकलानामेतत्कालभाविपुरुषाणां विशिष्टशरीरस्थितेरेवाभावाद् न सम्यग्दर्शनादिसमन्वितत्वविशेषणोपपत्तिरिति विशेष्य सद्भाव एवं विशेषणसद्भावं बाधते । सिंहों के साथ युद्ध करने को तैयार नहीं होते, ऐसी स्थिति में ये मर्यादित रूप में अपना मुख कैसे दिखा सकते हैं ? अन्ततः उनको लज्जा शिथिल पड़ जाती है और वे निर्वस्त्र हो जाते हैं । दिगम्बरों ने श्वेताम्बरों में महात-परिणाम-शून्यता अथवा महावतफसासाघकता को सिद्ध करने के लिये वस्त्र, पात्र आदि के परिमहरूप हेतु का प्रयोग किया है। उसका प्रथ है,-रागाविअपचय के जनक नेनन्थ्य का विरोधी है रागावि-उपचय के जनक वस्त्रादि का परिग्रह। इसमें विरोधी पर्यन्त भाग विशेषण है और रागावि-उपचय के जनक वस्त्रादि का परिग्रह विशेष्य है। पाख्याकार ने इस हेतु को सबोष बताने के लिये विशेषण कुक्षि में प्रविष्ट निग्रंथता के सम्बन्ध में यह प्रश्न उठाया है कि निग्रन्यता से या अभिप्रेत है-सर्वाश निपन्यता अथवा अंशतः पानी अंशतः निर्गन्यता? इनमें प्रथम मान्य नहीं हो सकती, क्योंकि यह सर्वाश निर्ग्रन्थता अष्टविष कमों के सम्बन्ध का प्रत्यन्ताभावरूप होने से मुक्त जनों में ही रहती है, प्रतः वह रागादि के अपचय का हेतु नहीं हो सकतो, कारण, मुक्त में जब रागादि ही नहीं रहता तो फिर उस नियन्यता से किसे दूर किया जायगा ? फलतः उक्त हेतु विशेषणासिद्धि दोष से ग्रस्त हो जायगा। निग्रंन्यता का द्वितीयरूप भी मान्य नहीं हो सकता क्योंकि द्वितीय रूप अंशतः-देशतः निन्थता के सम्बन्ध में यह प्रश्न उठता है कि देशतः निर्ग्रन्थता का क्या अर्थ है ? (१) सम्यगज्ञान आधि के उपचय से समृद्ध होने वाली भाव निग्रन्थता!' अथवा (२) बाह्यवस्त्रादि का प्रभाव ?' १. नैर्ग्रन्थ्य-ग्रन्थि-रहितता यानी परिग्रह से रहितत्व । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० ६० टोका एवं हिन्दीविषेचन ] अथ वस्त्रादिपरिग्रहस्तृष्णापूर्वकः, तद्विषयग्रहण-मोचनादिप्रक्रमस्य तां विनानुपपत्तः । अत एव परप्राणव्यपरोपणस्याऽशुद्धोपयोगसद्भावा-ऽसद्भावाभ्यामनैकान्तिकच्छेदत्वेऽप्युपधेरशुद्धोपयोगेनैव परिग्रहसंभवादैकान्तिकच्छेदत्वमाम्नातम् ; तथा च प्रवचनसारकृत-[३-१९] अहवदि च ॥ यदि बंधो मदेऽध जीवेऽध कायचेट्टम्मि। बंधो धुवमुवधीदो इदि सवणा छडिआ सन्नं ।। १॥ इति । अत एव चैतद्व्याख्याताऽमरचन्द्रोऽप्याह-"न खलु वहिरङ्गसङ्गसद्भावे, तुपसद्धावे तण्डुइनमें प्रथम अर्थ को ग्रहण करने पर उक्त हेतु विशेष्यासिद्धि दोष से ग्रस्त होगा. क्योंकि गादि के अपचय में हेतुभूत सम्पगज्ञान आदि का विरोधी न होने से सम्यगज्ञानादि को विपक्षता वस्त्रादि ग्रहण में असिद्ध है। देशतः निर्ग्रन्थता का ब्राह्मवस्त्राभावरूप दूसरा अर्थ भी मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें रागादि के अपचय की हेतुता असिद्ध होने से हेतु विशेषणासिद्धि दोष से ग्रस्त होगा। 'वस्त्रादि के प्रभाव में रागादि के अपचय को हेतुता प्रसिद्ध ही है', ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि घस्त्रादिहोन कपोत आदि में प्रतिशय राग होने से बस्त्रादि के अभाव में रागादि के अपचय को कारणता में व्यभिचार है । वेशतः निर्ग्रन्थता का 'पुरुषत्वविशिष्ट वस्त्रादिकाभाव' अर्थ करके भी व्यभिचार का परिहार नहीं किया जा सकता क्योंकि अनार्यवेश में उत्पन्न वस्त्रादि-होन पुरुषों में भी रामादि का अपक्षय नहीं होता। आर्यदेशोत्पन्न पुरुषत्व का उक्त अर्थ के शरीर में प्रवेश करके भी व्यभिचार का वारण नहीं किया जा सकता, क्योंकि आर्यदेशोत्पन्न कामुक व्यक्ति वस्त्रहीन पुरुष होते हुये भी रागाविमान होते हैं । आर्यवेशोत्पन्न व्रतधारि पुरुषत्व विशेषण से भी व्यभिचार का निरास नहीं किया जा सकता, क्योंकि पाशुपत सम्प्रदाय के व्यक्ति आर्यवेशोत्पल व्रतधारी वस्त्रहीन होते हुए भी रागाविमान होते हैं, जनशासन को प्रमाण मानने वाले आर्यदेशोत्पन्न प्रतधारी पुरुष का विशेषण दल में प्रवेश करके भी व्यभिचार का निराकरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि उन्मत्त दिगम्बर उक्त प्रकार का पुरुष होने पर भी रागादिमान होते हैं । विशेषण को कुक्षि में अनुन्मत्तत्व का प्रवेश करने से भी व्यभिचार का परिहार नहीं हो सकता, क्योंकि मिथ्यात्य से युक्त व्यलिङ्गधारी दिगम्बर यथोक्त पुरुष होते हए भी रामाविमान होते हैं। सम्यगवर्शनादि से विशिष्ट वस्त्राद्यमाव को भी रागादि के अपचय का हेतु नहीं कहा जा सकता, क्योंकि 'सम्यगदर्शनादिरूप विशेषणा मात्र हो रागादि का अपचय उत्पन्न करने में समर्थ है, अतः हेतुगर्भ में वस्त्रायभान प्रवेश की प्रावश्यकता न होने से हेतु में असमर्थविशेष्यत्व को आपत्ति होगी। दूसरी बात यह है कि जैसे यति-योग्य आहार के प्रभाय में वर्तमान कालीन मनुष्यों में विशिष्ट श्रुत-संहनन (देहावययों को सुदृढ़ रचना) न होने से कार्यक्षम शरीर की स्थिति नहीं रहती, उसो प्रकार वस्त्रादि बाह्य धर्मोपकरणों के अभाव में भी अवयवों के समुचित संहनन न होने से कार्यक्षम शरीर की स्थिति नहीं रह पाती अतः वस्त्रादि के अभाव में सम्यग्जानादिरूप विशेषण को उपपत्ति १ भवति वा न भवति बन्धो मृतेज्य जीवेऽथ कायचेप्टायाम् । बन्धो ध्र वमुपधित इति श्रमणा छदिताः सर्वम् ।। १ ।। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] [ शास्त्रवार्ता स्स० ६ श्लो. ४ लगताऽशुद्धत्वस्येवाऽशुद्धोपयोगरूपस्यान्तरङ्गच्छेदस्य प्रतिषेध इति । तथा च तृष्णाप्रभववस्त्रग्रहणाभावः स्वकारणनित्तिमन्त नेपानपानमाजोनामादिलिगमभुतसम्यन्वानाद्युत्कप विधायकखात् कथं तद्भावबाधकत्वेनोपदिश्यते ?" इति चेत् ? न, साधूना वस्त्रादिग्रहणस्य प्राप्तेष्टवस्त्ववियोगाध्यबसाना-प्राप्ततदभिलाषलक्षणात ध्यानरूपतृष्णापूर्वकत्वाऽसिद्धः, कायकृतादान-निक्षेपादिचेष्टावत आहारग्रहणवद् श यथाविधि धर्मसाधनत्वमत्या साधुभिवस्त्रादिग्रहणात् । नहीं हो सकती, क्योंकि वस्त्रादिहोन दुर्वल मनुष्य द्वारा सम्यग्ज्ञानादि का उपार्जन सम्भव न होने से वस्त्रायभाषरूप विशेष्य का सद्भाव ही सम्यग्ज्ञानादिरूप विशेषण के सद्भाव का बाधक है। [ वस्त्रादिपरिग्रह में एकान्तिक छेद की आशंका ] यदि यह कहा जाय कि-'वस्त्रादि का परिग्रह तृष्णाजन्य है, क्योंकि तृष्णा के विना वस्त्रादि के ग्रहण मोचन आदि व्यापार की उपपत्ति नहीं हो सकती। परप्राण का हरण 'अशुद्ध उपयोग के सद्भाव-असद्भाव वोनों से सम्भावित होने के कारण यह प्रशुद्ध उपयोग यानो च्छेव (शुद्धोपयोगविरोधी) अनेकान्तिक है। किन्तु परिग्रह तृष्णाजन्य ही होने से उपधि-वस्त्रादि का परिग्रह अशुद्ध उपयोग-तृष्णारूप मलिनभाव से ही जन्य होने के कारण वह अशुद्ध उपयोगात्मक छेव ऐकान्तिक कहा गया है-अर्थात् परप्राणव्यपरोपण में अशुद्ध उपयोग ही हो ऐसा नियम नहीं है किंतु वस्त्रादिग्रहण में एकान्तम अशुद्ध उपयोग ही होने का नियम है। प्रवचनसार में मो यही बात एक कारिका द्वारा प्रतिपादित किया है-कारिका का अर्थ इस प्रकार है-"शरीर प्रवृत्ति से कोई जीव मरे वहां कम का बन्ध हो या न हो निश्चित नहीं है क्योंकि वीतराग की शरीर प्रवृति में कदाचिद जीवधात होने पर भी उन्हें रागादि न होने से कर्मबन्ध नहीं होता, और सराग को होता है। पर यह निश्चित है कि उपधि-वस्त्रादि परिग्रह से ( सृष्णागृहीत होने के कारण ) कर्म का बन्धन होता ही है, इसलिये श्रमणों ने सभी परिग्रहों का त्याग किया है।" तृष्णा-मूलक कार्य से बन्ध होने के कारण ही प्रवचनसार को प्रस्तुत कारिका के ध्याख्याता अमरचन्द्र ने भी कहा है कि-"जैसे तुष के रहते साल में अशुद्धता का प्रभाव नहीं होता उसी प्रकार बहिरङ्ग वस्सुवों के पास में रहते हुए अशुख-उपयोगरागाविमलिन भावयुक्त ज्ञानरूप अन्तरङ्गमछेद यानी अन्तरङ्ग अशुद्धि का भी अमाव नहीं होता। स्पष्ट है कि यतः वस्त्रग्रहण तृष्णाजन्य है अत: वस्त्रग्रहण का अभाव तृष्णारूप कारण के अभाव से हो हो सकता है। इसलिये जहां वस्त्रग्रहण का भाव होगा, यहां निश्चय ही रागादि के अमाव संपावनार्य रागादि के विरोधी सम्बगहानादि का उत्कर्ष होगा; अतः वस्त्रादिग्रहणाभाव को सम्यग ज्ञानादि के सद्भाव का वाधक कहना कसे संगस हो सकता है ?" [ऐकान्तिक छेद की आशंका का समाधान ] इस प्राक्षेपात्मक कथन के उत्तर में श्वेतांबरों का कहना है कि साधु के वस्त्रादि ग्रहण में १-अशुद्ध उपयोग-राग-द्वेषसहित शान २-उपधिपरिग्रह-वस्त्रपात्रादि का ग्रहण । ३-अन्तरङ्गच्छेद-अन्तरङ्गअशुद्धि । -- --. -..- - . Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या०० टीका एवं हिन्दीविश्वेचन ] [ ३३ इत्थं च परप्राणव्यपरोपणस्यानै कान्तिकच्छेदत्वेऽप्युपधेरै कान्तिकच्छेदत्वमणनं गाढाभिनिवेशगरलपानस्यैवोद्गारः, शुभोपयोगसंभविप्रमानादिव्यापारकधर्मोपकरणस्य शुद्धपिण्डपुष्टशरीरवत् त्रिकोटीपरिशुद्धाहारवद् वा नियमतः संयमोपकारकत्वादेर । 'शुभोपयोगोऽपि शुद्धोपयोगस्य च्छेद एव' इति निश्चयेऽभिनिविशमानस्य तु विना शैलेशीचरमसमयं मुक्त्यायसमयं वा न कुत्रापि संयमशुद्धिविश्रामः, शुभोपयोगे सति शुद्धीपयोगानश्काशवत् प्राच्यविशुद्धौ सत्यामप्युत्तरविशुद्धयनवकाशात् । न च शुद्धोपयोगरूपमेव चारित्रं सिद्धान्तितम् । किन्तु मूलगुणविषयस्थैर्यपरिणामरूपम् , तदुपकारित्वमेव च वस्त्रादेः, इति कथं नत्सद्भावे तच्छेदः ?! इत्थं च 'तुष पटाने लगडलाऽदिवा वस्त्रादिसद्भाव आत्मनोऽशुद्धिः-इत्यमरचन्द्रोक्तमपि प्रत्युक्तम् , तुप-वस्त्रादेरेकरीत्याऽविशुद्धत्वापादकत्वाऽसिद्धेः 'तुपस्यापि विलक्षणपक्तिविरोधित्वादिरूपाऽशुद्धिनियमाऽसिद्धिः, सतुषमुगादेः सिद्धिदर्शनात्' इत्यपि वदन्ति । तृष्णाजन्यस्व प्रसिद्ध है, क्योंकि प्राप्त इष्ट वस्तु के वियोग न होने की इच्छा को एवं अप्राप्त इष्ट वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा को मार्तध्यान कहा जाता है, यह आतध्यान ही तृष्णा है, यह साधु को नहीं होती, अत: उसका वस्त्रादि-ग्रहण तणा से नहीं होता; किन्तु शरीर से किये जाने वाले प्रहण-परित्यागरूप वेष्टा के समान तृष्णा मादि के बिना ही होता है । अथवा यों कहा जा सकता है कि साधु से आहार को धर्म-साधन समन कर ग्रहण करता है उसी प्रकार वस्त्रादि को धर्म-साधन समझ कर विधिपूर्वक उसे ग्रहण करता है, न कि तष्णा से ग्रहण करता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि परप्राणहरण को अनेकान्तिकच्छेद यानी अनेकान्तिक-संयमअशुद्धि कहकर उपधि को जो ऐकान्तिकच्छेद एकान्तेन संयमभशुद्धि कहा गया है, वह दिगम्बरस्य के गाद अमिनिवेशरूप विषपान का ही उद्गार है, क्योंकि वस्त्र आदि धर्मोपकरण 'शुभ उपयोग से होने होने वाले प्रमार्जन आदि व्यापार के द्वारा संयम की साधना में उसी प्रकार नियम से उपयोगी है, जैसे शुद्ध आहार से पुष्ट किया हुमा शरीर अथवा त्रिकोटिपरिशुद्ध आहार संयम की साधना में उपयुक्त होता है। 'शम उपयोग भी शद्ध उपयोग का छेद ही है.'-रस निश्चय में जिस मनुष्य को अभिनिवेश है उसको तो संयम शुद्धि का विश्राम यानी चरम सीमा 'शैलेशी अवस्था का अन्तिम समय अथवा मोक्ष का आद्य समय जब तक उपस्थित नहीं होता, तब तक नहीं होगा। क्योंकि जैसे शुभ उपयोग होने पर शुद्ध उपयोग का प्रभाव रहता है वैसे ही पूर्व विशुद्धि हो जाने पर भी उत्तर विशुद्धि का १. शभ उपयोग-प्रशस्त राग-सहचरित शम अध्यवसाय । २. प्रमाणन जीव रक्षार्थ मृदु औधिक रजोहरण से पूंज-प्रमाण लेना। ३. निकोटि परिशुद्ध करण-करावण- अनुमोदन तीनों रूप से हिसा दोषरहित । ४. संयम की अशुद्धि । ५. शैलेशी अवस्था-समस्त आत्म प्रदेशों (आत्म मूक्ष्मांशो) की निष्कम्प अवस्था । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] [ शास्त्रवार्ता स. ६ श्लो०४ स्यादेतद्-आहारस्य परिग्रहव्यवहार(राज)विषयत्वात् तद्विषयप्रवृत्तेस्तृ(त्रत)ष्णापूर्वकस्वेऽपि वस्त्रादेरतथात्वात् तद्विषयिणी प्रवृत्तिस्तृष्णापूर्विकैवेति । मैवम् , परिग्रहव्यवहारविषयप्रवृत्तित्वावच्छिन्नं प्रति तृष्णाया अहेतुत्वात् , अतादृशेऽपि तृणादौ शरीरानुरागार्थ प्रवृत्तेस्तृष्णामूलत्वेन व्यभिचारात , दुष्टप्रवृत्तित्वावच्छिन्न प्रत्येव तहेतुत्वात् । न च तथापि ग्रन्थव्यवहारविषयवस्त्रादिपरिग्रहे यतीनां निन्थत्वव्यवहारभङ्गा, विभूषादिचिह्नन मृच्छर्योपासत्वनिश्चय एव व्युत्पन्नानां ग्रन्थव्यवहारात , अव्युत्पन्नव्यवहारस्य चाऽप्रयोजकत्वात् । सर्वथा ग्रन्थत्वमग्रन्थत्वं च न वचनापि व्यवस्थितम् , कनक-कामिन्योरपि विषपातमबुद्धया धर्मान्तेवासिनीवुद्धथा च परिगृह्यमाणयोग्रन्थत्वाऽसिद्धः। प्रभाव रहता है दूसरी बात यह है कि चारित्र शुद्ध उपयोगरूप ही है, वैसा सिद्धान्त नहीं है किन्तु चारित्र मूलगुण में स्थैर्यपरिणामरूप है, और वस्त्र प्रादि उसमें उपकारक है, अतः यह कैसे हो सकता है कि शुभ उपयोग के सद्भाव में शुद्ध उपयोग का छेद हो जाय ? उक्त रोति से विचार करने पर अमरचन्द्र का यह कथन भी कि तुष के रहते हुए जैसे तण्डुल की अशुद्धि बनी रहता है, वैसे वस्त्र आदि के रहते प्रात्मा की अशुद्धि बनी रहती है-निरस्त हो जाता है क्योंकि तुष और वस्त्र प्रावि में एक रीति से अशुद्धिजनकता असिद्ध है । इससे अतिरिक्त, विद्वज्जनों का यह भी कहना है कि तुष में तुषावृत्त अन्नकण के विलक्षणपाकविरोधित्वरूप प्रशुद्धिजनकता का नियम मो असिद्ध है, क्योंकि तुषावृत्त होते हुये भी मूंग की दाल विलक्षण पाक को प्राप्त करती है । यदि यह कहा जाय कि-'पाहार को परिग्रह नहीं माना जाता अतः आहारग्रहण की प्रवृत्ति तषणा से अजन्य हो सकती है, किन्तु वस्त्र आदि को तो परिग्रह माना जाता है प्रतः वस्त्रादि ग्रहण की प्रवृत्ति तृष्णाजन्य ही हो सकती है'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि परिग्रह माने जाने वाले पदार्थ के ग्रहण में होने वाली प्रवृत्तिमात्र के प्रति तृष्णा कारण नहीं है-क्योंकि तृरण आदि के परिग्रहरूप न होने पर भी शरीर के अनुराग से उसमें मनुष्य की प्रवृत्ति होती है, अत: परिग्रह माने जाने वाले पवार्थ में होने वाली प्रवृत्ति के प्रति कृष्णा का अन्य व्यभिचार है। इसलिये तृष्णा परिग्रह माने जाने वाले पदार्थ को प्रवृत्ति सामान्य का कारण न होकर दुष्ट प्रवृत्ति का ही कारण हो सकती है, फलतः वस्त्रादि ग्रहण में साधु की प्रवृत्ति वुष्ट प्रवृत्ति न होने से उसमें तृष्णाजन्यस्व की सिद्धि नहीं हो सकती। [ वस्त्रादि के परिग्रह में ग्रन्थ व्यवहार असिद्ध ] यदि यह कहा जाय कि-'वस्त्रादि का परिग्रह उक्त रीति से तृष्णाजन्य भले न हो, पर ग्रन्थ. {बन्धजनस्व व्यवहार का विषय तो यह है हो, प्रतः वस्त्रादि का परिग्रह करने पर यतियों में निन्यस्व का जो व्यवहार होता है, उसका भङ्ग हो जायगा -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि मूषण रूप में वस्त्र आदि के धारण रूप चिल्ल को देख कर वस्त्र आदि में व्युत्पन्न पुरुष प्रन्थ का व्यवहार करते है, साधु के वस्त्र प्रादि में राग द्वारा ग्रहण किये जाने का निश्चय न हो सकने से व्युत्पन्न पुरुष उसको गन्ध के रूप में व्यवहत नहीं करते । हो, प्रत्युत्पन्न पुरुष, साधु द्वारा यहीत वस्त्र आदि में मो ग्रन्थ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका एवं हिन्वीयियेचन ] तदाह भाष्यकार:-[ वि. आ. भा. २५७२-३-४ ] *"आहारो व्व ण गंथो देहट्ठ ति विसघायणट्ठाए । कणगं पि तहा जुबई धम्मंतेवासिणी मित्ति ॥१॥ तम्हा किमस्थि वत्, गंथोऽगंथो व्य सव्वहा लोए । गंथोऽगंथो व्य मओ मुच्छममुच्छाइ णिच्छयओ ॥२॥ वत्थाई तेण जं जं संजमसाइणमराग-दोसस्स | तं तमपरिग्गहो श्चिय परिग्गही जं तदुवघाई॥३॥" इति । का ध्यवहार कर सकते हैं, पर वह व्यवहार साधु के निग्रंन्धता व्यवहार के भङ्ग का प्रयोजक नहीं हो सकता, क्योंकि साधु में निर्ग्रन्थता का व्यवहार व्युत्पन्न पुरुषों की दृष्टि से ही मान्य है । उक्त रोति से समाधान करने पर साषु के वस्त्रादि में प्रन्थत्व अथवा प्रग्रन्थस्य की निश्चित व्यवस्था न होने पर भी कोई दोष नहीं है क्योंकि सर्वथा ग्रन्थरूपता अथवा सर्वथा प्रपन्थरूपता किसी भी वस्तु में सिद्ध नहीं है, यहां तक कि कनक और कामिनी जो सामान्य रूप से सर्वथा अन्यात्मक प्रतीत होते हैं, उनमें भी विचार करने पर सर्वथा ग्रन्थरूपता नहीं सिद्ध होती, क्योंकि विष को दूर करने के लिये कनक का परिग्रह करने पर कनक ग्रन्थरूप नहीं होता, एवं कामिनी का भी धर्मपालने वाली अन्तेवासिनी के रूप में परिग्रहण करने पर वह भी प्रन्यरूप नहीं होती। उक्त अर्थ के समर्थन में व्याख्याकार ने भाष्यकार को तीन गायायें उद्धृत को हैं, उनका अर्थ कम से इस प्रकार है: जैसे देहधारणमात्र की दृष्टि से ग्रहण किया जाने वाला प्राहार 'ग्रन्थ' नहीं होता, उसी प्रकार विष निवारणार्य ग्रहण किया जाने वाला कनक मी 'ग्रन्थ नहीं होता, एवं धर्मपालन के लिये मन्तेवासिनी के रूप ग्रहण की आने वाली युवती भी ग्रन्य नहीं होती। इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि संसार को प्रमुक वस्तु सर्वथा ग्रन्यरूप है, और अमुक सर्वथा अग्रन्थरूप है ! सस्य यह है कि जो वस्तु मूर्छा राग से गुहीत होती है वह ग्रन्यरूप होती है और जो राग के बिना धर्म आदि प्रयोजनान्तर के लिये गृहीत होती है वह अग्रन्थरूप होती है। इसलिये जो वस्त्र आदि संयम का साधन होता है, रागद्वेषाविमूलक नहीं होता, वह स्वरूपतः 'न्य' होते हुये भी फलतः 'अग्नन्थ' होता है और जो संयम का विघातक होता है वह ग्रन्थरूप होता है। आहार इव न ग्रन्थो देहार्थ मिति विषघातनार्थतया । कनकमपि तथा युवति धर्मान्तेवासिनी ममेति ।।१।। तस्मात् किमस्ति वस्तु ग्रन्थोऽग्नन्थो वा सर्वथा लोके ? ग्रन्थोऽग्रन्थो वा मतो मूर्छा-मूर्छादि निश्चयतः ।। २ ।। वस्त्रादि तेन यद् यत् संयम साधनम राग-द्वेषस्य । तत्तदपरिग्रह एव परिग्रहो यत् तदुपघाती ॥ ३॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो. ४ एवं च 'वस्त्रादिकं ग्रन्थः, मू हेतुत्वात् , कनकादिवत्' इत्यनुमानमपि जाल्माना परेषां प्रतिक्षिप्तम् । प्रन्थत्वं यदि मृहेतुत्वम् , तदा हेतोः साध्याऽविशेषात् । यदि च ग्रन्थव्यवहारविषयत्वम् तदा व्यवहारस्य लौकिकस्योपादाने तृणादी व्यभिचारात् , अलौकिकस्य चोपादाने बाधात , दृष्टान्तस्य साध्यवैकल्याच्च । अथ क्रय-पितृमरण-प्रतिग्रहादिजन्यं स्वत्वं धन-वस्त्रादौ पर्याय विशेषरूपं विक्रयादिविनाश्यमवश्यमभ्युपेयम्, अन्यथा स्व-परविभागाभावे स्तेयाऽस्तेयादिव्यवस्थोसीदेत । न च स्वमूर्छाविषयत्वमेव स्वस्वम्, परकीयेऽपि स्वमुच्छाविषये दीयमाने प्रत्यवायाप्रसङ्गात् । न च क्रयाद्युपायविषयत्वं तत् , क्रयादीनामिच्छाविशेषरूपतया क्रीतादौ तद्विषयत्वसंभवेऽपि पितृमरणादेनिर्विषयरवेन पैतृकादौ तदनुपयत्तः, क्रयादेः स्वत्वगर्भवाच । न च शास्त्राऽनिषिद्ध [ वस्त्रादि में ग्रन्थत्वसाधक अनुमान का भंग ] जैन मुनियों द्वारा वस्त्र आदि के धारण का अनौचित्य बताने के लिये दिगम्बर जैन इस अनुमान का प्रयोग करते हैं कि "वस्त्र आदि ग्रन्थ है, क्योंकि वह मूर्छा=आसक्ति का कारण है, जैसे सूवर्ण प्रावि ।" व्याख्याकार इस अनुमान का प्रतिवाद करते हैं-उनका कहना है कि यह अनुमान दोषस्तरेक्योंकि अम्पत्वरूप साध्य का निर्दोष-निवचन नहीं हो सकता. जैसे अन्यत्व को यदि मुच्छहितत्वरूप माना जायगा तो हेतु और साध्य में कोई प्रन्तर न होने से सिर साधन अथवा स्वरूप असिद्धि वोष होगा। यदि उसे 'वस्त्रादि ग्रन्थ है। इस व्यवहार के प्राधार पर अन्यन्यवहार का विषयस्वरूप माना जायगा-तो यह ठीक न होगा, क्योंकि 'ग्रन्थपद के लौकिव्यवहार विषयत्व' को प्रन्थत्व मानने पर तृण आदि में व्यभिचार होगा क्योंकि तृण आदि मूच्र्छा का विषय होने पर भी ग्रम्पपद के लौकिक व्यवहार का विषय नहीं है । 'ग्रन्थपन के प्रलौकिक व्यवहार विषयत्व' को भी ग्रन्थत्व नहीं माना जा सकता क्योंकि शास्त्र में वस्त्र आदि का ग्रन्थ के रूप में अभिधान न होने से उसमें 'ग्रन्थपद के अलौकिक व्यवहारविषयत्वरूप' ग्रन्थत्वात्मक साध्य का बाध है। साथ ही यह भी दोष है कि सुवर्ण आदि का भी शास्त्रों में प्रन्यात्मना वर्णन न होने से दृष्टान्त में साध्य का अभाव होने के कारण हेतु में साध्य व्याप्ति का ज्ञान नहीं हो सकता । [ स्वत्वपर्याय से वस्त्रादि में परिग्रह की आपत्ति-दिगम्बर ] श्वेताम्बर जैन मुनियों द्वारा वस्त्र आदि के किये जाते पारण के विरोध में दिगम्बर जैनों द्वारा एक यह युक्ति दी जाती है कि वस्त्र आदि के धारण से अपरिग्रह व्रत की हानि होतो है क्योंकि वस्त्रादि के धारणार्थ जैन मुनि को वस्त्रादि का परिग्रह करना प्रावश्यक होता है । अन्यथा, वस्त्र आदि में अपना स्वत्व हये बिना उसका धारण सम्भव नहीं हो सकता क्योंकि अन्य व्यक्ति की वस्तु का सेवन मुनि के लिये वय है । कहने का प्राशय यह है कि धन, वस्त्र प्रादि में मनुष्य का जो स्वरय होता है, वह उन वस्तुवों का एक विशेष पर्याय है, जो क्रय, पितृमरण, प्रतिग्रह मावि से उत्पन्न होता है और विक्रय आदि से नष्ट होता है, इस स्वत्वपर्याय के द्वारा हो स्वकीय, परकीय का विभाग Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७ स्वा० क० टोका एवं हिन्दोविवेचन ] विनियोगोपाय योग्यत्वम् यावदुपायव्यतिरेके विनियोगे प्रत्यवायस्तावदन्यतमत्वं वा तत् प्रत्यवायप्रतिपादकस्य शास्त्रस्य "परस्वं नाददीत " इत्यादेः स्वत्वानवगमेऽप्रतीतेः । न च कचिद् विक्रयप्रागभावविशिष्टः क्रयविनाशः क्वचिद् दानादिप्रागभावविशिष्टः प्रतिग्रहवं सश्चेत्येवमननुगतं स्वत्वं वाच्यम्; अनुगतव्यवहारोच्छेदात, अतिरिक्तधर्मेण तावदनुगमे चातिरिक्तस्वत्वपर्यायस्यैव वक्तुमुचितत्वात् । तथा च स्वनिरूपितवत्ववच्त्वेनैव वस्त्रादेः कनकादिवद् ग्रन्थत्वं व्यवतिष्ठत इति चेत् ? न, होकर बौर्य, अचौर्य आदि की व्यवस्था होतो है । जैसे, जिस वस्तु में जिस व्यक्ति का स्वस्थ नहीं होता, अन्य का स्वस्थ होता है वह वस्तु परकीय होती है और परकीय वस्तु का ग्रहण धौर्य है, एवं जिस वस्तु में जिस व्यक्ति का स्वत्व होता है वह वस्तु उस व्यक्ति को स्वकीय होती है, स्वकीय वस्तु का प्रहण प्रचौर्य है। [ मूर्छाविपयत्व या याद्युपाय विषयत्वरूप स्वत्व अमान्य ] afa यह कहा जाय कि स्वश्व क्रय प्रावि से उत्पाद्य विषयत्य रूप है, अर्थात् जिस वस्तु में जिस व्यक्ति की मूर्च्छा व्यक्ति की स्वकीय वस्तु होती है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मनुष्य ने क्रय, वितृमरण, प्रतिग्रह आदि द्वारा नहीं प्राप्त किया है वस्तु भी उसकी स्वकीय वस्तु हो जायगी और उस वस्तु का अन्य मनुष्य को दान करने पर दान देने खाले को प्रत्यवाय की प्रसक्ति न होगी। यदि यह कहा जाय कि इस दोष के कारण स्वश्व को सूर्च्छा विषयत्वरूप मानना सम्भव न होने पर भी उसे क्रय आदि से अन्य पर्यायरूप मानने की आव reat नहीं है क्योंकि उसे क्रय प्रादि उपाय का विषयत्वरूप मान लेने में कोई बाधा नहीं है' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि क्रय और प्रतिग्रह आदि इच्छारूप है, जैसे यह वस्तु अमुक व्यक्ति का न होकर अमुक मूल्य से मेरी हो' यह इच्छा ही क्रम है, और 'यह वस्तु अमुक मूल्य ग्रहण से मेरी न होकर मूल्यदाता की हो' यह इच्छा विक्रय है एवं यह वस्तु दाता की इच्छा के अनुसार मेरी हो' यह इच्छा प्रतिग्रह है । ग्रतः क्रीत, प्रतिगृहीत आदि वस्तु क्रय, प्रतिग्रह आदि का विषय तो हो सकती है किन्तु पितृमरण निर्विषयक है, अतः पंक घन में पुत्र का जो स्वस्व होता है, उसे पितृमरणविषयत्वरूप नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त दूसरा वोष यह है कि स्वत्व आदि को क्रयादिविषयत्यरूप मानने पर अन्योन्याश्रय होगा। क्योंकि क्रय आदि के स्वरूप में स्वश्व का प्रवेश है, जैसे 'यह वस्तु अमुक व्यक्ति का न होकर मूल्य प्रदान से मेरी हो' इसका अर्थ है 'अमुक व्यक्ति के स्वस्य को निवृसि होकर मेरे स्वस्थ की उत्पति हो' इस प्रकार क्रय स्वश्व से घटित है, अतः स्वत्व को क्रयादिविषयरूप मानने पर स्वश्व के ज्ञान में क्रमावि ज्ञान की और क्रयादिज्ञान में स्वत्वज्ञान की अपेक्षा होने से न्याय स्पष्ट है । [ नये ढंग से स्वत्व के निर्वचन में भी अन्योन्याश्रय ] यदि यह कहा जाय कि स्वस्थ न पर्यायविशेष हैं, न मूर्च्छाविषयत्वरूप है और न ऋपादि कोई पर्याय नहीं है किन्तु मूर्च्छा प्रासक्ति होती है, वह वस्तु उस मानने पर जिस वस्तु को जिस किन्तु उसमें उसको मूर्च्छा है वह Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] [शास्त्रवार्ता स्त० श्लो०४ विषयत्वरूप है किन्तु विनियोग के ऐसे उपायों की योग्यता रूप है, जो शास्त्रों में निषिद्ध नहीं हैं, अथवा जिन उपायों के अभाव में वस्तु का विनियोग करने में प्रत्यवाय होता है, उन उपायों में से किसी अन्यतम उपाय को योग्यतारूप है'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यह स्वत्व भी अन्योन्याश्रयप्रस्त है, जैसे प्रथम स्वत्व के ज्ञान में अपेक्षित है 'विनियोग के अमुक उपाय शास्त्र निषिद्ध नहीं हैं। यह ज्ञान और इस कान में अपेक्षित हैं 'चौर्याविमिः परस्ट नादवीत='चोर्यादि से परकीय धन ग्रहण न करें-जैसे वाक्यों से होने वाले शास्त्र-निषिद्ध उपायरूप प्रतियोगी का ज्ञान । इसी प्रकार द्वितीय स्वत्व के ज्ञान से अपेक्षित है 'प्रमुक उपायों के अभाव में विनियोग करने से प्रत्यवाय होता है। यह जान और इस ज्ञान में अपेक्षित है 'परस्त्रं नावचीत' इत्यादि निषेधक वाक्यों का अर्थज्ञान और इन धाक्यों के अर्थज्ञान में अपेक्षित है इन वाक्यों में प्रविष्ट स्व शब्द के स्वत्वरूप अर्थ का ज्ञान, प्रतः स्वरष ज्ञान और उसके उपायभूत ज्ञान में परस्परसापेक्षता होने के कारण अन्योन्याश्रय स्पष्ट है । [विभिन्न प्रकार के स्वत्व-पक्ष में अनुगत व्यवहार अनुपपत्ति ] यदि यह कहा जाय कि-सब वस्तुबों में स्वत्व एकरूप नहीं है किन्तु विभिन्न साधनों से प्राप्त वस्तुषों में विभिन्नरूप है, जैसे क्रोत वस्तु में विक्रयप्राममावविशिष्ट क्रयनाशरूप है और प्रतिग्रहप्राप्त वस्तु में दानादिप्रागभावविशिष्ट प्रतिग्रहध्वंसरूप है। आशय यह है कि जो वस्तु क्रय से अजित की जाली है, जयकर्ता को उस वस्तु के विक्रय का अधिकार हो जाने से क्रयकर्ता द्वारा उस वस्तु के सम्भावित विक्रय का 'यह वस्तु मूल्यग्रहण से मेरो न होकर मूल्यवासा की हो इस इच्छारूप विक्रय का प्रागभाव रहता है तथा 'यह वस्तु मेरे द्वारा प्रदत्तमूल्य का ग्रहण करने से मूल्यग्रहोता को न होकर मेरे मूल्यदान से मेरी हो इस इच्छारूप क्रय का, विक्रयकर्ता द्वारा मूल्य ग्रहण होते ही नाश होने से क्रयनाश रहता है, इसलिये 'विक्रयप्रागभावविशिष्टकयनाश' ही स्वत्व है जो 'स्वप्रतियोगीचछाविषयस्व' सम्बन्ध से कोसवस्तु में रहता है । इसी प्रकार जो वस्तु प्रतिग्रह से प्रजित की जाती है, प्रतिग्रहकर्ता को उस वस्तु के दान आदि का अधिकार हो जाने से उस वस्तु में प्रतिग्रहकर्ता द्वारा सम्भावित वान प्राधि का 'यह वस्तु मेरी न होकर अमुक को हो' इस प्रकार को इच्छारूप दान आदि का प्रभाव रहता है तथा 'यह वस्तु दाता की इच्छा के अनुसार दाता की न होकर मेरी हो' इस इचछारूप प्रतिग्रह का उसके तीसरे क्षण में नाश होने से प्रतिग्रहध्यस रहता है, इसलिये 'दानादिप्रागभावविशिष्टप्रतिग्रहध्वंस' हो स्वत्व है, जो 'स्वप्रतियोगीच्छाविषयत्व' सम्बन्ध से प्रतिग्रहीत वस्तु में रहता है।-- किन्तु स्वत्व का यह रूप भी ठीक नहीं है क्योंकि इसे स्वीकार करने पर विभिन्न उपायों से प्राप्त होने वाली वस्तुओं में 'इ' मदीयं-यह मेरा है, इसमें मेरा 'स्वत्व' है इस प्रकार का जो ग्रनुगत ध्यवहार सर्वमान्य है, उसका उच्छेद हो जायमा और यदि किसी अतिरिक्त षम द्वारा विभिन्न प्रकार के स्वत्वों का अनुगमकर स्वत्व के अनुगत व्यवहार को उपपन्न करने की चेष्टा की जायगी तो उसकी अपेक्षा स्वरष को ही प्रतिरिक्त पर्यायविशेषरूप मान लेना उचित होगा, और इस प्रकार जब प्रतिरिक्त स्वत्व पर्याय की सिद्धि अनिवार्य है-तब जसे स्वनिरूपित स्वत्य सम्बन्ध से स्व सम्बन्धी होने से सुपर्ण आदि स्व का ग्रन्थ होता है वैसे हो उक्त सम्बन्ध से यति आदि के सम्बन्धी वस्त्र आदि को भी यति आदि का ग्रन्थ होना अनिवार्य है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : स्वा० क० टीका एवं हिन्दोविवेचन ] [ ३६ यतिप्रतिगृहीतवस्त्रादौ धर्म्य विनियोगयोग्यतारूपस्यातृष्णामूलस्य स्वाश्रयभिन्नाभिन्नस्य स्ववपर्यायस्य सत्वेऽपि ग्रन्थव्यवहार निषन्धनकृष्णा मूलप्रतिग्रहादिजन्य स्वत्व पर्यायाभावात् । अत एव 'स्वपरिभोग्यमिदं चत्रादि' इति यतीनां भाषा, न तु 'स्वमेवेदम्' इति । न चेदेवम्, आहारेणापि स्वीयेनैव साधपिकं प्रति दानाद्युपग्रहसंभवाद् धर्मलाभपूर्वकप्रतिग्रहेण तत्र स्वत्वोत्पत्तेश्व कथं नाहारस्यापि ग्रन्थत्वम् १ ! एतेन 'स्वाभेदग्रमवलोपनीतस्वत्वावयवस्त्रादिसत्त्वे कथमात्मस्वरूपभावना ?' इत्यप्यपास्तम्, स्वाभेद भ्रमस्य सम्यग्दर्शनेनैव नाशाद, अन्यथाऽऽहारकालेऽपि कथं सुसाधूनां तत्साम्राज्यम् १ | अथ संयतस्य सकलकालमेव सकलपुद्गलाहरणशून्यमात्मानमवबुध्यमानस्य सकलाशनतृष्णाशून्यतयाऽन्तरङ्गतपःस्वरूपानशनस्वभाव भावनासिद्धय एपणा दोषशून्यान्य मैक्ष्याचरणेऽपि साक्षादनाहारता तदुक्तं प्रवचनसारे *"जस्स अणसणमप्पा तं पितओ तपच्छिगा समणा । अण्णं भिक्खमणे सण मध ते समणा अणाहारा ।। १ ।। [३-२७ ] इति चेत् ? नन्वेवमस्य सर्वकालमेव सकलद्रव्य परिग्रह शून्यमात्मानमवबुध्यमानस्य सकल मूर्च्छारहिततयाऽन्तरङ्गतपःस्वरूपाऽपरिग्रहस्वभावभावनाप्रसिद्धये दोषशून्यपकरणं प्रतिsarso कुतो न साक्षादपरिग्रहता १ । | तृष्णाशून्य स्ववपर्याय अबाधक - श्वेताम्बर ] faraरों के इस आक्षेप के उसर में व्याख्याकार का कहना है कि यति प्रतिगृहीत वस्त्र आदि में जो यति का स्वस्वरूप पर्याय होता है यह स्वाश्रय वस्त्र आदि से भिन्नाभिन्न होता है, तृष्णामूलक [नहीं होता । तथा जो धर्मसम्मतविनियोगयोग्यतारूप होता है, वह 'ग्रन्थ' व्यवहार का साधक नहीं होता, किन्तु जो स्वश्व पर्याय तृष्णामूलक प्रतिग्रह से जन्य होता है वही 'ग्रन्थ' व्यवहार का मूल होता है, अतः यति द्वारा प्रतिगृहीत वस्त्र आदि यति के स्वस्थ का आश्रय होने पर भी यति का 'ग्रन्थ' नहीं हो सकता, इसीलिये अपने वस्त्र आदि में 'यह वस्त्रादि हमारा स्वभोग्य है' इस भाषा का प्रयोग करते हैं, 'यह हमारा स्व है हमारी सम्पत्ति है इस भाषा का प्रयोग नहीं करते । यदि पतियों के स्वश्व में अथतियों के स्वत्व से यह वैलक्षण्य नहीं माना जायगा तो दिगम्बर को यह प्रश्न है कि यति द्वारा सधर्मा यति को अपने बाहार का दान करने पर तथा श्रावक को धमलाभ का आशीर्वाद देकर आहार प्रतिग्रह करने से आहार में यति के स्वत्व की उत्पति होने से आहार भी यति का ग्रन्थ क्यों न होगा ? दिगम्बर जैनों का एक और आक्षेप है- वह यह कि जब यति वस्त्रादि धारण करेगा तो उसमें उसके धारक शरीर में स्वात्मा के अभेदभ्रम से यति का स्वस्व होगा अतः यति को वस्त्रादि* यस्यानशनमात्मा तदपि ततस्तत्प्रतीच्छकाः श्रमणाः । अन्यद् भैक्ष्यमनेषणमथ ते श्रमणा अनाहाराः ॥ १ ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवास्तिक ९ श्लो.४ । ये तु मूढाः संगिरन्ते-'असहिष्णोराहारकालेऽपि प्रमादसद्धावाद् न यथावदात्मभावना, वखादेस्तु सर्वदा संनिधाने सर्वदा प्रमादोदयाद् महदनिष्टम् इति-ते समयलेशमपि न शातचन्ता, प्रमसगुणस्थानबत्तिनामपि शुभयोग प्रतीत्यात्मानारम्भत्वादिप्रतिपादनात् , विधिना भुञानस्य प्रमादाभावात्, प्रमादोपलक्षिताध्यवसायविशेषस्येव प्रमत्तगुणस्थानपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वात् । शश्वद्वस्त्रादिसंनिधानेन प्रणादोदो शातिसं निहितेन कामेनापि नदुदये तदनुच्छेदप्रसङ्गात् । युक्त शरीर से भिन्न आत्मस्वरूप की भावना न हो सकेगी' किन्तु व्याख्याकार के कयनानुसार यह पाक्षेप भी निरस्त-प्राय है क्योंकि वस्त्रादियुक्त शरीर में स्वात्मा के अमेव-भ्रम का निरास आत्मा के सम्यग् वर्शन गुण से सम्पन्न हो जाता है। यदि ऐसा न माना जायगा तो यतियों का प्राहार ग्रहण सो दिगम्बरों को भी मान्य है. तो फिर आहार ग्रहण काल में श्रेष्ठ साधजनों को जो आत्मस्वरूपको उच्च भावनाएं होती है वह कैसे हो सकेगी क्योंकि आहार ग्रहण काल में आहार ग्रहोता शरीर में स्वात्मा के अभेद-श्रम से आहार में साधु का स्वस्थ होना अनिवार्य है। [आहार और वस्त्रादितुल्यरूप से अपरिग्रह ] आहार को प्रग्रन्थ सिद्ध करने के लिये दिगम्बर की ओर से यह कहा जा सकता है कि-संयमनिष्ठ यति तीनों काल अपने आपको परमार्थतः सभी पुद्गलों के आहरण से शून्य समझता है, उसे प्रशन-पान की कोई तृष्णा नहीं होतो, आत्मा के अनशन स्वभाव को मावना, जो एक अन्तरङ्ग तप है इस भावना की सिद्धि के लिये वह एषणावोषयुक्त आहार से भिन्न एषणादोष गुन्य आहार को ग्रहण करता है, अतः उसका आहार आपासत: आहार होने पर भी वस्तुत: अनाहार ही है। 'प्रवचनसार' में यही कहा गया है, जैसे 'अनशन जिसको आत्मा हो, प्रार्थनीय होने योग्य न होना जिसका स्वभाव हो, तथा एषणा बिना ही उपलब्ध हो सके, श्रमणयति ऐसे हो रुखे रसहोन भोजन के प्रतीच्छक-प्राहक होते हैं । एषणाहीन भोजन एषणायुक्त भोजन से भिन्न होता है. प्रतः उसे ग्रहण करने पाले श्रमणयति वास्तव में अनाहार होते हैं । इस कथन के प्रतिबन्दी उत्तर रूप में व्याख्याकार का कहना है कि प्राहार के सम्बन्ध में उक्त कथन के समान वस्त्रावि के सम्बन्ध में भी यह कथन हो सकता है कि संयमनिष्ठ पति समो समय अपने पापको सर प्रकार के व्रव्यों के परिग्रह से शून्य समझता है, अपरिग्रह यानी सर्वविध मूर्छा से शून्य होना यह यति का स्वभाष है, इस स्वभाव की भावना रूप अंतरंग तप की सिद्धि के लिये यति यदि वस्त्र प्रादि निर्दोष उपकरण का परिग्रह करता है तो उसका यह परिग्रह पाततः परिग्रह होने पर भी वस्तुतः अपरिग्रह क्यों नहीं हो सकता? [वस्त्रादि के धारण से प्रमाद की शंका का निरयन ] जो विगम्बरानुयायो मोहग्रस्त है, उनका यह कहना है कि-'यह बात ठीक है कि जो यति प्रसहिष्णु होता है, मुख को सहन नहीं कर सकता, आहारकाल में उससे प्रमाव यानी जोधरक्षा में असावधानी इत्यादि हो सकता है, किन्तु यति को वस्त्रादि ग्रहण की अनुमति होने पर उसे वस्त्रावि Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याक० टीका एवं हिन्वीविवेचन ] [ ४१ - एतेन 'शश्वत् परद्रव्यसंनिधाने तदर्शनादात्मदर्शनप्रतिरोधः' इत्यपि प्रलपितं निरस्तम् , कायेऽप्यस्य समानत्वात् । 'कायदर्शनं प्रतियोगिज्ञानीभूय ध्यायिनः स्वभिन्नत्वज्ञानोपकायेंवेति चेत् १ वस्त्रादिदर्शनमपि कि न तथा ? अपेक्षाकारणानां प्रधानकारणायत्तत्वात् , *"जे जत्तिा य हेऊ. भवस्स ते तचिया य मुक्खस्म" इति वचनप्रामाण्यात् । का सर्वदा सनिषान होगा, प्रप्तः वस्त्र आदि के रख-रखाव में उससे सभी समय प्रमाव होने की सम्भावना से उसका महान् अनिष्ट हो सकता है, अत: वस्त्रादिग्रहण यति के लिये सर्वथा अनुचित है। -इस कथन के उत्सर में व्याख्याकार का कहना है कि उक्त रोति से यति द्वारा वस्त्रादि ग्रहण का अनौचित्य बताने वालों को जैन सिद्धान्त के लेशमात्र का भी ज्ञान नहीं है, क्योंकि शास्त्रों में यह कहा गया है कि जो यति प्रमत्तगुणस्थान में विद्यमान होता है वह भी शुम योग को अपेक्षा अनारम्मो है ऐसा पागम में दिखाया गया है । दूसरी बात यह है कि जो विधिपूर्वक भोजन करता है उससे प्रभाद सम्भव भी नहीं है और तोसरी बात यह है कि प्रमाद 'प्रमत्सगुणस्थान पद' को प्रवृत्ति का निमित्त होता भी नहीं, किन्तु प्रमाव से उपलक्षित अध्यवसायविशेष ही उसका निमित्त होता है। कहने का आशय यह है कि उस यति को प्रमस्तगुणस्थानकवी नहीं कहा जाता-जिससे कोई प्रमाव बन जाय, अपि तु उसे कहा जाता है जो प्रमाद से उपलक्षित संयम के अध्यवसाय करे, प्रमादी होने पर भी ऐसी चेष्टा करे, जिससे जीवरक्षा प्रादि को बाघ न हो। यह कहना भी ठीक नहीं है कि वस्त्रादि सन्निधान होने से प्रभाव का उचय होगा, क्योंकि यदि यह सम्भव होगा तब तो वस्त्रादिसन्निधान से शरीरसन्निधान अत्यधिक सार्वकालिक होने से शरीर से भी प्रमाद का उदय अवश्य होगा और उस स्थिति में प्रमाव का कभी उफछेद ही न हो सकेगा। [ वस्त्रादि आत्मदर्शन के बाधक नहीं ] कुछ प्रतिवादियों का यह कहना है कि-'ग्रात्मा से भिन्न वस्त्र प्रावि का सर्वदा समिधान होने पर उसी का वर्शन होगा और उससे प्रात्मदर्शन में बाधा होगी'-किन्तु यह कथन नियुक्तिक होने से निरस्तप्राय प्रलाप मात्र है क्योंकि उक्त बात शरीर के सम्बन्ध में भी समान है । शरीर भी आत्मा से भिन्न है और सदा सन्निहित रहता है अतः उसके दर्शन से भी आत्मदर्शन का प्रतिरोध प्रसक्त हो सकता है। यदि यह कहा जाय कि-शरीर का दर्शन प्रतियोगिज्ञानस्वरूप होने से ध्यानस्थ आत्मा में शरीरभेदज्ञान का साधक ही होगा न कि बाधक, तो वस्त्रादि का दर्शन भी उसी प्रकार वस्त्रादि से भिन्न प्रारमदर्शन में साधक क्यों न होगा, जबकि संसार के जितने कारण होते हैं उतने ही मोक्ष के भी कारण होते हैं इस तथ्य के प्रतिपादक प्राप्तधन से यह प्रमाणित है कि अपेक्षा कारण (यानो सहकारी कारण) प्रधान कारण के अधीन होते हैं और जब यह बात प्रमाणित है तब यह भी निविबाबरूप से मान्य है कि जिन वस्तुओं के अभेद भ्रम से आत्मा को भव प्राप्ति होती है उन सभी वस्तुओं का भेद दर्शन आपना के मोमलाभ में अपेक्षित है, इस लिये धर्म के उपकरण वस्त्रादि और धर्म का साधन शरीर ये दोनों ही आत्मदर्शन के लिये समानरूप से उपादेय हैं। * ये यावन्तश्च हेतबो भवस्य ते तावन्तश्च मोक्षस्म । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ [ शास्त्रबार्ता स्त० ६ श्लो. ४ अथ तनुमहतामपि दुस्त्यजा ननु तदर्थमपीह जिक्रिया। इति ततो महतां न पथक्षतिर्भवति यदलतः सकला स्थितिः ॥ १ ॥ श्रुणु गुणान् वहतो सुकृतस्पृशा किमुपधेर्चत दुस्त्यजताऽपि न १ । अभिनिवेशमपास्य विमृश्यतामिदमुदीरितमुज्ज्वलभावतः ।। २ ॥ दीर्घदेहस्थितेदेतोराहारो दुस्त्यजो यथा । तथोपकरणं, धाष्टर्थ मुभयत्र समोक्तिकम् ॥ ३ ॥ झुत्पीडितातिध्यानस्य यथा बशनमौषधम् । तथा शीतादिभीतानामपि वस्त्रादिसेवनम् ॥ ४॥ 'कामिनी विग्हसंभवदृष्टध्यानसंततिमपासितुमेवम् । कामिनीमपि न किं कमनीयाँ स्वीकृरुध्वमिति चेत् ? सममेतत् ॥ ५ ॥ अन्यथा पलसुजो न कुतः स्युदिक्पटा उचितपिण्डभुजश्चेत् । प्रत्युत्त प्रकटतामसवृत्तेर्भावनं तत इहापि समानम् ॥ ६ ॥ सङ्गमङ्ग ! समवाप्य तरुण्याः कस्य नाम न मनः कलुपं स्यात् ।। निर्मलान्यपि जलानि न कि स्युः पङ्कसंकरवशाद् मलिनानि १ ॥ ७ ॥ व्याधयोऽरसवो विषयल्ल्योऽभूमिका अशनयोऽगगनोत्थाः । मूर्तिमत्य इव मारणविद्याः किं न ता निर्गादताः श्रुतवृद्धः १ ॥ ८ ॥ तस्माद् विहिताहारवद् विहितस्योपकरणस्यापि दुनिहति-शुभध्यानोत्पत्तिहेतुत्वाद् युक्तं यतीनां तत्परिशीलनम् । विधिश्चात्र-"तिहिं ठाणेहि यत्थं घरेज्जा, हिरिवत्तियं दुर्गछायत्तियं, परीसहबत्तियं" [ स्था० ३-३-१७१ ] । तथा-- [आहारवत् वस्त्रादिउपकरण दुस्त्यज ] व्याख्याकार ने आठ पद्यों द्वारा इस वर्धा का उपसंहार किया है । पद्यों का प्रर्ष कमश इस प्रकार है: दिगम्बरों को प्रोर से यदि यह कहा जाय कि-'शरीर महान मुनियों के लिये मी दुस्स्या है अतः शरीररक्षार्थ भोजन करना मुनियों को भी आवश्यक है। भोजन करने से महान् मुनियों को मार्गभ्रश का दोष नहीं हो सकता, क्योंकि धर्म और अध्यात्म की सम्पूर्ण स्थिति शरीर पर ही प्राश्रित है, और शरीर का अस्तित्व भोजन पर निर्भर है।'-इस कथन के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि उक्त बात कहने वालों को यह बात भी सुननी चाहिये कि जैसे महान् मुनियों को शरीर के विभिः स्थानैर्वस्यं धारयेत् , होप्रत्ययम् , जुगुप्साप्रत्ययम् , परीषहप्रत्ययम् । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टोका एवं हिन्वीविवेचन ] [ ४३ "ज पि बत्थं च पायं वा कंबलं पायपुछणं । तं पि संजमलज्जट्टा धारंति परिहरति अ॥१॥" इत्यादि । अत्र चाऽदग्धदहनन्यायेन यावदप्राप्तं तावद् विधेयम् , इति यस्त्रधरणस्य लोकत एवं प्राप्तत्वाद् ह्री-कुत्सा-परीपहनिमित्तं तद्ग्रहणं नियम्यते । तत्र च निमित्तत्रयमपि जिनकल्पाऽयोग्यानां निरतिशयानामधिकारिणामावश्यकम् , अथवा, हीपदार्थः संयमलज्जा, सैव मुख्य निमित्तम् , इतरत्तु द्वयं तदुपकारि निमित्तम् , तदुक्तं भाष्यकृता-[वि०आ०मा० २६०२-३] तुस्त्यज है, क्या बसे ही गुणवान् सुकृतो पुरुषों को वस्त्र प्रादि उपकरण दुस्त्यज नहीं है ? अत: उचित यह है कि किसी एक पक्ष का आग्रह त्याग कर पवित्र भाव से इस कथन पर विचार किया जाय । विचार करने से यह वस्तुस्थिति स्पष्ट हो जाती है कि जैसे धर्म साधनार्थ शरीर को दीर्घकाल तक सुरक्षित रखने के लिये पाहार दुस्त्या है, उसी प्रकार शरीर के रक्षार्थ वस्त्रादि उपकरण भी दुस्त्यज है। यदि यह कहा जाय कि- वस्त्रादि के बिना भी जीवन सम्भव होने से उसे दुस्त्यज बताना धष्टता है तो इस कथन के समान ही यह भी कहा जा सकता है कि आहार के बिना भी कुछ दिन तक जीवन सम्भव होने से आहार को भी दुस्त्यज कहना षष्टता है, क्योंकि 'जैसे क्षुधा से पीड़ित व्यक्ति के प्रातंध्यान का औषध भोजन है. वैसे ही शीत आदि से त्रस्त व्यक्ति के लिये वस्त्रादि का सेवन भी प्रौषध है। इसके प्रतिवाद में विम्बरों की ओर से यदि यह कहा जाय कि-"जैसे शीत आदि से त्रस्त व्यक्ति के लिये वस्त्रादि का सेवन उचित है । उसी प्रकार कामिनी के प्रभाव से उत्पन्न होने वाले दुष्टध्यान के प्रवाह को रोकने के लिये सुन्दरी तरुणी का सेवन भी यति के लिये उचित होना चाहिये-तो इसका उत्तर यह है कि ऐसी बात आहारग्रहणऔचित्य के विरोध में भी कही जा सकती है, जैसे यह कहा जा सकता है कि दिगम्बर जैसे विहित आहार ग्रहण करते हैं, वैसे वे मांस का प्राहार क्यों न ग्रहण करें, क्योंकि सामिष-निरामिष दोनों ही आहार समानरूप से शरीर के पोषक हैं। यदि यह कहा जाय कि-'मांसाहार से तामसवृत्ति का प्रकटन होता है तो यह बात तो कामिनी सेवन के सम्बन्ध में भी समान है। व्याख्याकार दिगम्बर को मित्र शब्द से सम्बोधित कर कहते हैं कि तरुणी के सम्पर्क से किस पुरुष का मन कलुषित नहीं हो सकता! क्योंकि स्पष्ट है कि निर्मल भी जल पडू के सम्पर्क से मलिन हो जाता है। क्या शास्त्रवलों ने स्त्रियों को स्वाद से अजन्य व्याधि, भूमि से अजन्य विषलता आकाश से अजन्य यच एवं शरीरधारिणी मारण विद्या नहीं बताया है ! ? उक्त विचार के अनुसार यह निर्विवाद सिद्ध है कि जैसे दुष्टभयान का विघातक और शुमध्यान का संपावक होने से यतियों के लिये शास्त्रविधान के अनुसार प्राहार का ग्रहण उचित है, उसी प्रकार शास्त्र विधान के प्रनुसार वस्त्रआदि उपकरणों का सेवन भी उचित है । उपकरणों के विधायक शास्त्रवचन का अर्थ यह है- यति को तीन स्थानों से यानी निमित्त से वस्त्रधारण करना चाहियेलज्जा के लिये, जुगुप्सानिवारण के लिये एवं दुस्सह शीत आदि से बचने के लिये। तथा, संयम और लज्जा के लिये जो भी वस्तु अपेक्षित होती है, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पर का प्रोग्छन आदि, यति उसका ग्रहण और त्याग करते हैं ।। 卐 यदपि वस्त्रं च पा वा कम्बलं पादप्रोञ्छनम् । तदपि संयमलज्जार्थ धारयन्ति परिहरंति च ।।५।। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] [ शास्त्रवाहित लो० ४ ।। "*विहियं सुए चिय जओ धरेज्ज तिहि कारणेहिं वत्थं ति । तेणं चिय तदवसं णिरतिसएणं धरेअव्वं ॥१॥ जिणकप्पाजोग्गाणं ही-कुच्छ-परीसहा जोऽवस्सं । ही लज्जं ति व सो संजमो तयत्थं विसेसेणं ॥ २ ॥" इति । यदि च नैमित्तिकत्वाद् वस्त्रादिग्रहणमयुक्तमित्युद्भाव्यते, तदाऽऽहारग्रहणमध्ययुक्तं स्यात्, तस्यापि नैमित्तिकत्वात् । तदुक्तं स्थानाङ्गे- छहिं ठाणेहि समणे णिग्गंथे आहारमाहारेमाणे गाइक्कमइ, तं जहा-वेअणवेयावच्चे, इरिअढाए अ संजमहाए तह पाणवत्तिआए, उदु गुप प्रभावितार" ! ०१०१० ] इति । [ वस्त्रधारण का विधान नियमरिधिरूप] इस सन्दर्भ में यह ज्ञातव्य है कि वस्त्रधारण की उक्त विधि अपूर्व विधि नहीं है, क्योंकि जैसे दम्ब का दाह न होकर अदग्ध का ही वाह होता है, से ही प्राप्त की विधि न होकर प्रप्राप्त की ही अपूर्व विधि होती है । वस्त्रधारण पत: अनेक निमित्त से लोकतः प्राप्त है, अतः शास्त्र द्वारा वस्त्र धारण का अपूर्व विधान न होकर लज्जा, कुत्सा और परोषहरूप केवल तीन निमित्तों से उसका नियमन होता है, अतएव वस्त्रधारण की उक्त विधि नियम विधि है। इस प्रसङ्ग में यह ध्यान रखना उचित है कि-'जिनकल्प' के लिये अयोग्य अतिशयशून्य अधिकारियों के लिये उक्त तीनों ही निमित्त अवश्यंभावि हैं। प्रथवा उक्त निमित्तों में' 'हो' का अर्थ है सयम यानी विशिष्ट लज्जा, यति के वस्त्रधारण में बही प्रधान निमित्त है, अन्य यो कुत्सा और परोषह 'ही' के सहकारी निमित्त हैं । इस बात को भाष्यकार ने भी कहा है, जैसे-तीन कारणों से शास्त्रविहित वस्त्र को धारण करना उचित है, अतः निरतिशय-सामान्य यति को उन कारणों से वस्त्रधारण करना चाहिये, क्योंकि जिनकल्प के अयोग्य मुनियों को लज्जा कुत्ता और परीषह अवश्य होते हैं । अथवा यति को विशेष रूप से 'ही' (लज्जा वश हो वस्त्रधारण करना प्रावश्यक है, क्योंकि 'ह्रीं' का अर्थ है लज्जा एवं संयम और वही यति के लिये मुख्य पालनीय है । यदि यह कहा जाय कि-'वस्त्रधारण निमित्तमूलक होने से अयुक्त है'-तो यह कयन प्राहारग्रहण के सम्बन्ध में भी सम्भव है क्योंकि वह भी निमित्तमूलक ही है। उसको निमित्तमूलकता सत्यानाङ्ग' सूत्र में कही गई हैं, जैसे-'श्रमण छ: निमित्तों से आहार का प्राहरण करने पर भी विहित प्रत एव यतो धारयेत् त्रिभिः कारणवस्त्रमिति । तेनैव तदवश्यं निरतिशयेन धारयितव्यम् ।। जिनकल्पाऽयोग्यानां हो-कुरसा-परीषदा यतोऽवश्यम् । होर्लज्जेति वा स संयमस्त दर्थ विशेषेण ।। २।। १. पभिः स्थानः श्रमणा निग्रन्था आहारमाहरन्तो नातिबामन्ति, तद्यथा-वेदन या वैयावृत्त्ये, ईर्थिम् , ___ संयमार्थम् , तथा प्राणवृत्त्यै, षष्ठं पुनधर्मचिन्तया। २. स्थानाङ्ग'-तृतीय क्रमांक का आगम शास्त्र । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका एवं हिन्दीविवेचन ] अथ ज्ञानादिपुष्टालम्बनेनाऽदुष्टाहारग्रहणे न दोषः, वस्त्रादेस्तु मलादिदिग्धस्य यूकादिसंमूर्छनानेकसत्त्वहेतुतया तग्रहणे तद्व्यापत्तरवश्यंभावात , तत्ग्रहणमपौष्टालम्यनिकत्वाद् न न्याय्यमिति चेत् ? न, आहारग्रहणेऽप्यस्य दोषस्य समानत्वात् । संभवन्त्येव धागन्तुकाः संमूच्छेनजाश्चानेकप्रकारास्तत्र जन्तवः, तत्परिभोगे चावश्यंभावी तेषां विनाशः, मुक्तस्य च कोष्ठगतस्य संसक्तिमत्त्वात् तदुत्सर्गेऽनेकहम्यादिव्यापत्तिरवश्यंभाविनीति । अथावधानेन तत्परिभोगादिकं विदधतो न सत्यव्यापत्तिः, व्यापत्तौ वा शुद्धाशयस्य तद्रक्षादौ यत्नवती गीताथेस्य ज्ञानादिपुष्टावलम्बनप्रवृत्तेरहिंसकत्वाद् न तद्ग्रहणमन्यायमिति चेत् ? तुल्यमिदमन्यत्र । अथ वस्त्रादेमलदिग्धस्य पालनेऽप्कायादिविनाशो चाकुशिकन्वं चाऽझालने च संसिक्तदोष इत्युभयतःपाशा रज्जुः, इति न ताहणं युक्तमिति चेत् ! आहारादिग्रहणेऽपि तुल्यमेतत् , तद्दिग्धस्याऽऽस्यादेः प्रक्षालनादपकायविनाशाद , अग्रक्षालने च प्रवचनोपघातादिति । प्रासुकोदकादिना यत्नतः प्रक्षालने दोषाभावोऽप्युभयत्र तुल्य इति । .- -.निग्रंथ रहते हैं, निर्ग्रन्थ को मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करते जिन छ: निमित्तों से यति को प्राहारप्रहण को सम्मति दी गई है, ये हैं वेदना, वैयावृत्य, ईर्या, संयम, प्राणरक्षा तथा धर्मचिन्तन । [ वस्त्रग्रहण में जीयोत्पत्ति आदि दोप का निरसन ] यदि यह कहा जाय कि-'ज्ञान प्रादि पुष्ट आलम्बन से निर्दोष आहार का ग्रहण होने से उसमें नैमित्तिकता प्रयुक्त अनौचित्य दोष नहीं है किन्तु वस्त्रादि ग्रहण में मनोनित्य दोष अनिवार्य है क्योंकि वस्त्रादि के मलिन होने पर उसमें यूका आदि अनेक मलप्रभव जीवों की उत्पत्ति होती है, वस्त्रादि को ग्रहण करने पर उन जीवों का नाश अवश्यम्भावी होता है अतः पुष्टालम्बन पर प्राश्रित न होने से वस्त्रादि ग्रहण न्यायसंगत नहीं हैं तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि यह वोष पाहार ग्रहण में भी विद्यमान है, क्योंकि प्रम्हार में प्रागन्तुक तथा 'सम्मूर्छनजन्य अनेक प्रकार के जीव होते हैं, आहार का सेवन करने पर उन जीवों का नाश अवश्य होता है। एवं परिभुक्त माहार कोष्ठ में पहुंचकर संसक्तिमान-जन्तुसंपृक्त हो जाता है, अतः उसका-त्याग करने पर मलत्याग के स्थान में विद्यमान कृमि आदि अनेक गोषों का विनाश भो अवश्य होता है। यदि यह कहा जाय कि-'सावधानी से आहार-सेवन तथा मलत्याग करने पर जीवों का नाश नहीं हो सकता और उत्तरोति से जीयों का नाश यदि सम्भव भी हो तब भी आहार ग्रहण अयुक्त .--.--- १. निग्रन्थ-क्रोधादि आत्मशत्रु को ग्रन्थ कहते हैं-उसके त्यागी को निग्रंथ । २. वेदना-क्षधा लगने ___ पर उस का शमन करने के लिये । ३. वैयावृत्त्य-गुरुदेव और अन्य वडिलों की सेवा-सुश्रुषा । ४. ई-चलते समय किसी भी सूक्ष्म जंतु का पादाक्रमण न हो ऐसी सावधानी । ५. सम्मुच्छिम-गर्भ के विना ही जिनकी उत्पत्ति हो ऐसी कुछ जीवसरिट । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] [ शास्त्रवार्ता स्त। ६ श्लो०४ शुद्धाहारादिव शुद्धोपकरणादनेकगुणसंभवस्तु निरपाय एव । तथाहि-समस्तरात्रिजागरणं कुर्वतां साधूना तुषारकणगणप्रवर्षिणिशीतकाले यतनया कल्पनावरणेन भवति स्वाध्यायनिर्वाहः । तथा, सचित्तपृथिवी-धूमिका-वृष्टिं-अवश्याय-रजः-प्रदीपतेजाप्रभृतीनां रक्षापि तैः कृता भवति तथा. मृताच्छादन-बहिनयनाधर्थ ग्लानप्राणोपकारार्थ च भरति वस्त्रस्योपयोगः; तथा संपातिमरजोरेणुप्रमार्जनाद्यर्थं मुखवस्त्रस्य, आदान-निक्षेपादिक्रियायां पूर्व प्रमार्जनार्थ लिङ्गार्थ च रजोहरणस्य, वाट्यादिनिमित्तबिक्रियावल्लिङ्गसंवरणाद्यर्थ च चोलपट्टपटलादेरिति । नहीं हो सकता क्योंकि आहारग्रहीता यति शुद्धाशय वाला होता है, जीवरक्षा के लिये यत्नशील रहता है तथा 'गीतार्थ होता है। अत: ज्ञान प्रादि पुष्ट आलम्बन पर आधारित होने से उसकी प्रवृत्ति अहिंसक होती है तो यह बात वस्त्रादि ग्रहण में भी समान है। यदि यह कहा जाय कि-"मलयुक्त वस्त्रादि का प्रक्षालन करने पर प्रकाय आदि जीवों का नाश होगा और यति को बाकुशिकता - (वस्त्र को विभूषा आदि दोष) को प्रसक्ति होगी और यति यदि वस्त्र मलित हो जाने पर उसका प्रक्षालन न कर उसे ही यथापूर्व धारण करता रहेगा तो संसक्तिदोष-यति के देहसंपर्क से वस्त्रगत मालिन्यजन्य जीवों के घातक होने का दोष प्रसक्त होगा। प्रतः मलिन वस्त्र को धोने एवं न घोने दोनों ही दशा में दोष होने से उभयथा बन्धन की प्रसक्ति होने के कारण यस्त्राविग्रहण अनुचित है"-तो यह दोष आहारग्रहण में मो समान है, क्योंकि पाहार से संसक्त मुख आदि का प्रक्षालन करने पर अप्काय जीवों के नाश की और प्रक्षालन न करने पर जूठेमुख प्रवचन की निंदा होने से प्रवचन-विनाश को आपत्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि-'जीवों का घात न हो ऐसी सावधानी के साथ जीवरहित (अचित्त) अल्प जल से मुखादि का प्रक्षालन करने पर उक्त दोष सम्भव न होने से आहार ग्रहण का औचित्य अक्षुण्ण हैं'-तो यह बात वस्त्रादिग्रहण के पक्ष में भी समान है। [ वस्त्रग्रहण के अनेक लाभ ] यह ज्ञातव्य है कि जैसे शुद्ध आहार में अनेक गुण होते हैं, वैसे ही शुद्ध उपकरण में भी अनेक गुण निधि रूप से विद्यमान हैं, जैसे हिमकणवर्षी शीतकाल में यतनापूर्वक वस्त्रावरण से समूची रात जागने वाले साधुवों के स्वाध्याय का निर्वाह होता है। वस्त्रावरण से सचित्त पृथिवी, धमिका, वृष्टि, अवश्याय, रज और प्रदीप के तेज आदि को रक्षा होती है एवं मृत के ऊपर माच्छादन तथा बहिर्गमन आदि में तथा गीत से मरणासन्न साधु को प्राण रक्षा में भी वस्त्रादि का उपयोग होता है, इसी प्रकार आकाश से गिरने वाले रजःकण धुली आदि के प्रमार्जन में मुखवस्त्र की; आदान, १. गीतार्थ मूत्र और उनके अर्थ को सद्गुरु के पास अच्छी तरह पढ़ा हुआ। २. अप्काय-जलद्रव्य को शरीररूप में परिणत कर के धारण करने वाले जीवसमूह। ३. यतना-जीवघात न हो ऐसी सावधानी। ४. सचित्तपृथिवी- पृथ्वी द्रव्य को दारीररूप में धारण करने वाले जीवसमूह । ५. धूमिका और अवश्याय-ये दोनों अप्कार के भेदविशेष है । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० ० टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [ ४७ पात्रग्रहणेऽप्यमी गुणाः; तथाहि-अनाभोगेन गृहीतानां संसक्तगोरसादीनां पात्रणव विधिना परिष्ठापनेन रक्षा कृता भवति, अन्यथा तु हस्त एव गृहीतास्ते कधीयेरन् ?, तथा, पात्रं बिना करपुटगृहीतसरसववस्तुबिन्दुभिरधःपातिभिः कुन्थु-कीटिकादिजन्तुसंघातनेन, गृहस्थभाजनपरिणः च भाजनभवनादिकामहोपनिनहे न चारित्रशुद्धिः, कथं वा पात्रमन्तरेजकत्र भुजिक्रियां हस्त एवं विदधतां करेण जलाऽगालने जलगताऽसंख्येयादिसत्त्वव्यापत्तितो महाव्रतधारणोपपत्तिा। न च प्रतिगृहमोदनस्य भिचामात्रस्योपभोगात , वस्त्रपूतोदकाङ्गीकरणाचायमदोषः, तथा प्रवृत्ती प्रवचनोपघातप्रसक्त्या बोधिबीजोच्छेदात् । न च गृहस्थाशससा पूतमप्युदकं निर्जन्तुकं सर्व संपद्यते, तज्जन्तूनां सूक्ष्मत्वाद् वस्त्रस्य बाधनत्वात् , गृहिणां तच्छोधनेऽतिशयप्रयत्नानुपपत्तेश्च । न च प्रासुकोदकस्योपभोगादयमदोषः, तत्रापि सत्त्वसंसक्तिसंभवात्, करप्रक्षिप्ते तस्मिन्नप्रत्युपेक्ष्य पानोमनयोस्तव्द्यापत्तिदोषस्याऽपरिहार्यत्वात , पात्रादिग्रहणे तु तत्प्रत्युपेक्षणस्य सुकरवाद् प्रतातिचारदोषानुपपत्तेः । न च त्रिवारोवृतोष्णोदकस्यैव परिभोगादयमदोषः, तथाभूतस्य प्रतिगृहं तत्कालोपस्थायिनस्तस्याप्राप्तः, प्राप्तावपि तस्य तृडपनोदाऽक्षमत्वात् , तयुक्तस्य चानुनमसंहननस्येदानींतनयतेरातध्यानानुच्छेदात् , तस्य च दुर्गतिनियन्धनत्वात्। निक्षेप प्रावि किया में पूर्व प्रमार्जन के लिये तथा संयम के चिन्ह के लिये रजोहरण की; और वायु आदि से जन्य विकारयुक्त लिङ्ग के संवरण के लिये 'घोलपट्ट की उपयोगिता है। [ पात्रधारण से अनेक लाभ ] पात्रग्रहण में भी बहुत गुण हैं, असे पात्र से ही विधि पूर्वक पारण करने से मनाभोगपूर्वक ग्रहण किये गये गोरस आदि संसक्त पदार्थों की रक्षा सम्पावित होती है, अन्यथा यदि वे पदार्थ हाथ में हो लिये जायेंगे और उनके धारण योग्य कोई पात्र न होगा तो उन्हें किस वस्तु में रखा जा सकेगा? । इसी प्रकार पात्र के प्रभाव में हाथ की अञ्जली में जब सरस द्रव वस्तु लो जायगी तो उसको बूदें नीचे गिरेंगी, अत: उनसे कुत्थ, कोट आदि जन्तुवों का नाश होगा। यदि वे वस्तुयें गहस्थ के पात्र में लो आयेगी तो उन पात्रों के प्रक्षालन, प्रत्यावर्तन आदि कई पश्चारकर्म करने होंगे। फिर इन सब के होते यति के चारित्र्य की शुद्धि कैसे रह सकेगी? एवं पात्र के अभाव में यति एक हाथ से ही भोजन करेगा और एक से ही जल ग्रहण करना होगा, अत: जल को न छानने से जलगत असंख्येय जीवों का नाश अवश्य होगा-फिर इस स्थिति में कर-भोजी एवं करपात्री यति द्वारा पहिसारूप व्रत का धारण कैसे सम्भव हो सकेगा ? यदि यह कहा जाय कि-प्रतिगृह में भिक्षामात्र ओदन और वस्त्रपूत जल ग्रहण करने से इस दोष की प्रसक्ति न होगी', तो यह ठीक नहीं है क्योंकि१. चोलापट्ट-साधु महात्मा को परिधान के लिये अधोवस्त्र । २. अनाभोग-अन्यमनस्कता अथवा अनवधान । ३. कुन्यु-सूक्ष्म जन्तु । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] [ शास्त्रबार्ता स्त० ९ श्लो. ४ न च तादिदुःखस्य तपोरूपत्वेनाश्रयणीयत्वादयमदोषः अनशनादेधितपस आन्तरतपउपचयहेतुत्वेनाश्रीयमाणत्वात् , अन्याग्भृतस्य चाऽतपस्त्वात् , *"सो य तवो कायचो जेण मणोऽमंगुलं ण चिंतेह" इत्याद्यागमप्रामाण्यात् । "बाह्य तपः परमदुश्चरमाचरचमाध्यात्मिकस्य तपसः परिवृहणार्थम् ।" इति स्तुतिकृताऽप्युक्तत्वाच्च । कथं वा पात्राभावे ग्लान-दुर्वलाद्य पथ्याद्यानयनादिनोपष्टम्भः १ कथं वाऽन्यस्य भक्तपानादिप्रदानानुपपन्या दानधर्मानुग्रहः १ कथं वाऽलब्धिमतामशक्तानां प्राघूर्णकानां च लब्धिमद्भिः शक्तर्वास्तव्य श्रोपकारानुपपत्त्या न समत्वम् । इति । यति इस प्रकार वहां पानी छानने को बैठेगा तो प्रवचन का उपघात होने से बोधिबोज का उच्छेद होगा। दूसरी बात यह है कि गृहस्थ के वस्त्र से छाना हुना भी जल पूर्णरूप से निर्जन्तुक नहीं हो सकता । साथ ही जलस्थ जन्तुयों के सूक्ष्म होने से गृहस्थ वस्त्र से उनका पीडन भी होगा, एवं गृहस्थ द्वारा जलशोधन का पूरा प्रयत्न मी न हो सकेगा । यह भी कहना उचित नहीं हो सकता कि अचित्त जल का सेवन करने से यह दोष नहीं होगा, क्योंकि प्रचित्त जल में भी जीव को संसक्ति हो सकती है और करस्थजल में संसक्तजीव का प्रत्एपेक्षण-निरीक्षण करके संशोधन न हो सकने से उस जल का पान तथा उज्झन-त्याग करने पर संसक्तजीव के नाश रूप दोष की अनिवार्य प्रसक्ति होगी, किन्तु पात्र आदि ग्रहण करने पर पात्रस्थ जल से संसक्त जीव का प्रत्युपेक्षण-निरीक्षण से संशोधन सुकर होने से अहिंसा व्रत के अतिकमण दोष की आपत्ति न होगी ।-'तोनबार उद्धर्तित (उबाला हुमा) उष्णोदक का ही सेवन करने से यह दोष नहीं होगा', यह कथन भी उचित नहीं हो सकता क्योंकि प्रतिगृह में उपस्थित होते ही यति को तत्काल उक्त प्रकार के जल की प्राप्ति हो जाय-ऐसा नियम नहीं हो सकता, और यदि ऐसा जल प्राप्त भी हो जाय तो उससे तृष्णा की निवृत्ति न हो सकेगी, फलतः, तृष्णायुक्त अपकृष्ट कायबल वाले आधुनिक यति के आत्तध्यान का उच्छेद न होगा, जिससे यति को दुर्गति की प्राप्ति अनिवार्य होगी। [ अभ्यन्तस्तप विरोधी बाह्यतप अग्राह्य ] यदि यह कहा जाय कि-'तृष्णामूलक दुःख तपोरूप होने से स्वीकार्य है अतः उक्त दोष नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अनशनआदि बाह्य तप आन्तर तप के उपचय कर हेतु होने से स्कीकार्य होता है किन्तु जो दुःख आन्तर तप के उपचय का हेतु नहीं होता वह तपोरुप न होने से स्वीकार्य नहीं हो सकता, जैसाकि-इस बात के प्रमाणभूत आगम का स्पष्ट उद्घोष है कि उस तप का अनुष्ठान करना चाहिये जिससे मन अमङ्गल चिन्तन न करे । इसका समर्थन स्तुतिकार से भी प्राप्त होता है क्योंकि उन्होंने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है कि आध्यात्मिक तप की अभिवृद्धि के लिये अत्यन्त दुष्कर बाह्यतप का अनुष्ठान करना चाहिये। यति के पात्र ग्रहण का विरोध करने वालों को यह भी सोचना चाहिये कि पात्र के अमात्र - तच्च तपः कर्तव्यं न ममोऽमङगलं न चिन्तयति। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा० का टीका एवं हिन्दीविवेचन ] एतेनैतत् निराकृतं यदुत्प्रेक्षितं परेण-"साक्षाद्वस्त्रग्रहणस्य न मुक्तिसाधनत्वम् , रत्नत्रयस्यैव साक्षात् तत्साधनत्वात नापि परम्परया. रत्नत्रयकारणत्वेन तद्ग्रहणस्य रत्नत्रयविरोधित्वात ; निष्परिग्रहत्वविरोधि सपरिवहमिति सकललोकप्रसिद्धम् , रूपज्ञानोत्पत्तेस्तम इव न च रत्नत्रयहेतुशरीरस्थितिकारणत्वेन वस्त्रादिग्रहणं परम्परया मुक्तिसाधनम, तदन्तरेणापि रत्नत्रयनिमित्तशरीरस्थितिसंभवात् इति"-आहारग्रहणेऽप्यस्य समानन्वेन प्रदर्शितत्वात् । विहिताहारग्रहणकर्मणः उत्तरगुणरूपतया तन्नान्तरीयकाऽऽज्ञाशुद्धभावविशेषस्यैव वा पारम्पर्येण मुक्तिहेतुत्वे तु वस्त्रादिग्रहणेऽप्येवं वक्तु' शक्यत्वात् । अत एव च 'साक्षात् पारम्पयेण या मुक्त्यनुपयोगि वस्त्रादिग्रहणं रागाद्युपचयहेतुः, तत् स्वीकुर्वन् यस्याभासो गृहस्थता नातिशेते' इत्याद्यपहस्तितमः प्रागमोक्तविधिना वस्त्रादिग्रहणस्य हिंसाद्यपायरक्षणनिमित्ततया मुक्तिमार्गसम्यग्ज्ञानाधुपबृहकत्वात तत्परित्यागस्य स्वाक्कालीयत्वापेक्षया तद्बाधकन्यात् । .---.- --- - --.-. .- ..-. में क्षीण, रुग्ण, दुर्बल आदि पति के लिये पथ्य आवि श्राहार के आनयन का कार्य कैसे होगा? एवं पात्र के प्रभाव में अन्य भोज्य, पेय आदि का प्रवान न हो सकने से दान कर्म का पालन कैसे होगा? तथा अर्याद विशिष्टपुण्यहोन, लरिषशून्य, प्रशक्त और अतिथियों का लधिसम्पन्न, समर्थ, आतिथेयों द्वारा उपकार न हो सकने से उनको परस्पर-समता क्यों न होगो ? यानी शक्त-अशक्त का कोई मेव ही न रहेगा। [ वस्त्रादि साक्षात्-परम्परया मुक्तिसाधक न होने की शंका का निरसन ] वस्त्रादिग्रहण के विरोध में दिगम्बरों का यह भी कहना है कि यति का वस्त्रग्रहण अनुचित है क्योंकि वह न मुक्ति का साक्षात् साधक है और न परम्परया साधक है । साक्षाव साधक इसलिये नहीं है कि शास्त्र में सम्यग्दर्शन, सम्यग ज्ञान और सम्याचारित्र इस रत्नत्रय को हो मुक्ति का साक्षात् साधन कहा कहा गया है। वस्त्रधारण परम्परया मुक्तिका साधक इस लिये नहीं है कि यह रत्नत्रय का सम्पादक नहीं है किन्तु विघटक है क्योंकि वस्त्रग्रहण परिग्रह है और रस्नत्रय अपरिग्रहरूप चारित्र्य से घटित है और परिग्रह-अपरिग्रह का उसी प्रकार सर्वविधित विरोध है, जिस प्रकार अधिकार रूपदर्शन की उत्पत्ति का । इस सम्वर्भ में यह भी कहना उचित नहीं हो सकता कि वस्त्रग्रहण रत्नत्रय के साधनभूत शरीर की स्थिति का साधन होने से मुक्ति का परम्परया साधन है, क्योंकि रत्नत्रय के साधन शरीर को स्थिति वस्त्रग्रहण के बिना भी सम्भव है। व्याख्याकार का कहना है कि वस्त्रग्रहण के विषय में दिगम्बरों का यह कथन भी संगत नहीं है, क्योंकि वस्त्रग्रहण के विरोध में कहो गई उक्त बात आहार-ग्रहण के विरोध में भो कहो जा सकती कहा जाय कि-"विहित आहारग्रहण किया यह उत्सरगुणरूप है जो व्याप्य है और उसका व्यापक शुखाहारग्रहणविषयक शुद्धभाष है। यह भाव प्राज्ञायिहित क्रियाविषयक होने से शुद्ध है। अत: आहारग्रहण किया अथवा तवन्तर्गतशुद्धभाव परम्परा से मुक्ति का साधन है ऐसा मानना पडेगा"तो यही बात वस्त्रादिग्रहण के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] [ शास्त्रवार्त्ता स्त० ६ इलो० ४ ततो विशेष्यसद्भावे 'सम्यग्ज्ञानाद्यन्त्रितत्वे सति' इति विशेषणमसिद्धम, सति चास्मिन् विशेष्यमसिद्धमिति व्यवस्थितम् । तत्र रागाद्यपचयनिमित्तता परव्यावणितस्वरूपनैर्ग्रन्ध्यस्य सिद्धा । अत एव न तद्विपञ्चभूतत्वेन वस्त्रादिप्रहस्य रागाद्युपचयं प्रति गमकत्वम्, तद्विरुद्वेन सम्यग्दर्शनाद्युपचयेन यथोक्तवस्त्रादिग्रहणस्य व्यासत्वेन तद्विरुद्धसाधकत्वात् । दृष्टान्तस्थापि परव्यावर्णितनैर्ग्रन्थ्यविपक्षभूतत्वाऽसिद्धेः साधनविकलता, न च यथोक्ताङ्गना संगमादिरप्युपसर्गसहिष्णोर्वैराग्यभावनात्रशीकृतचेतसो योगिनो रागाद्युपचय हेतुर्भरतेश्वरप्रभृतिषु तस्य तत्प्रक्षयहेतुत्वेन शास्त्रे श्रवणात् इति साध्यविकलतापि न च पक्षे हेतु सिद्धिरपि धर्मोपकरणन्वोषपत्तेरिति न किश्चिदेतत् । " अगर यह कहा आय कि- 'वस्त्रादिग्रहण साक्षात् अथवा परम्परा से मुक्ति की प्राप्ति में उपयोगी नहीं है, प्रत्युत उसमें विरोधी राग आदि के उपचय का हेतु है, इसलिये वस्त्रादि को ग्रहण करने वाला व्यक्ति यति नहीं किन्तु तदाभास होता है। ऐसे व्यक्ति में गृहस्थपन से कुछ विशेषता नहीं है। दिगम्बरों का यह कथन इसलिये निरस्तप्रायः है कि श्रागमोक्त विधि से वस्त्रादि का ग्रहण हिंसा प्रादि पापों से यति का रक्षण करने में निमित होने से मोक्षमार्गरूप सम्यग्ज्ञानादि का उपयहण करना है अतः वस्त्राविग्रहण मुक्ति का बाधक नहीं होता, प्रत्युत उसका त्याग हो इस युग में युक्ति मार्ग का बाधक होता है। [ दिगम्बर के मूल अनुमान में क्षतियां | उक्त रीति से वस्त्रग्रहण में सम्यग ज्ञान की अनुकूलता सिद्ध होने से यह बात व्यवस्थित हो जाती है कि सम्यग्जान आदि से विशिष्ट वस्त्राद्यभावरूप हेतु से रागादि के अपचय का साधन नहीं हो सकता, क्योंकि वस्त्राभावरूप विशेष्य के होने पर सम्यग्ज्ञानादिरूप विशेषण असिद्ध होगा और विशेषण के होने पर विशेष्य प्रसिद्ध होगा अतः दिगम्बरों द्वारा यणित वस्त्राभावस्वरूप "नन्थ्य" में रागादि के प्रपचय को निमित्तता महीं सिद्ध हो सकती और इसीलिये वस्त्राभावरूप नर्यथ्य का विपक्ष होने मात्र से वस्त्रादिग्रहण में रागादि के उपचय की भी गमकता नहीं हो सकती क्योंकि वस्त्रादिग्रहण रागादि के उपचय के विरोधी सम्यग् ज्ञानादि के उपचय का व्याप्य है अतः वह रागादि-उपचय के विरोधी रागादि प्रपञ्चय का ही साधक हो सकता है। तदुपरांत, प्रारम्भ में विगम्बरों ने जो यह अनुमान कहा था कि- "वस्त्रादिग्रहण मुक्ति का विरोधी है क्योंकि वह रागादि के अपचय में निमित्तसूत ( वस्त्राभावस्वरूप ) नैर्ग्रन्ध्य का विपक्षभूत है जैसे कि स्त्रीसंग " - इस अनुमान में दृष्टान्त में साधन साध्य दोनों का अभाव है । साघनशून्यता इसलिये कि स्त्रीसंग में दिगम्बर को अभिमत वस्त्राभावस्वरूप नैर्ग्रन्थ की विपक्षता प्रसिद्ध है। तथा साध्यशून्यता इसलिये कि विशिष्टशृङ्गार से अलंकृत स्त्रीयों का संग भी स्त्रीपरिषह को सहन करने वाले और हठ वैराग्यभावना से बासित चित्तवाले योगिपुरुषों के लिये रागावि की वृद्धि का हेतु नहीं होता। शास्त्र में कहा कि है भरत चक्रवर्ती श्रादि हजारों स्त्रीयों का संग करते थे फिर उन्हें रागादि की वृद्धि न हुयी, प्रत्युत रागादि का क्षय हुआ क्षीर प्ररिसाभुवन में उन्हें केवल्यज्ञान प्राप्त हुआ। तदुपरांत, वस्त्रादिग्रहण में ग्रन्थ्य Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाका टीका एवं हिन्वीविवेचन ] [५१ यपि 'कथं च द्रव्यता, क्षेत्रतः, कालता, भावतो वा कृतपरिग्रहप्रत्याख्यानस्य वस्त्रोपादाने न पश्चममहावतभङ्गः ?' इत्युक्तम् , तदपि मृ परित्यागे भावतः परिग्रहप्रत्याख्यानोपपत्तावपि द्रव्यतः परिग्रहप्रत्याख्यानभङ्गाभिप्रायेण अयुक्तश्चायमभिप्रायः, कायादिसत्त्वेऽपि तत्प्रत्याख्यानभङ्गप्रसङ्गात् । द्रव्यादिविकल्पैः 'से परिग्गहे चविहे पभने दबओ, खित्तओ, कालओ, मावओ इति सूत्रस्य 'सर्वद्रव्यादिविषयमृच्छत्यिाग एव कर्तव्य' इति परमार्थाद , द्रव्यादिपरिग्रहस्य नामादिपरिग्रहबदनात्मधर्मत्वेन प्रत्याख्यातुमशक्यत्वात् । तथा च भगवान् भाष्यकार:-[वि. आ. भा. ३०६३ ] “अपरिग्गडया सुत्ते ति जा य, मुच्छा परिग्गहोऽभिमओ। सबदव्येसु ण सा कायया सुत्तसम्भावो ॥ १॥ इति । विपक्षतारूप हेतु भी प्रसिद्ध है, क्योंकि पहले यह कह आये हैं कि वस्त्रादि धर्मोपकरणरूप होने से नंग्रन्थ्य के सहायक है. प्रतिकूल नहीं है । [ खग्रहण से पक्खाण का भंग नहीं] यति के वस्त्रग्रहण के विरोध में जो यह बात कही गई है कि-"यति द्रव्य, क्षेत्र, काल और माव से परिग्रह के प्रत्यास्यान का व्रत लेता है. अत: वस्त्रग्रहण करने पर अपरिग्रहरूप पांचवे महाबत का भङ्ग होगा उसके कहने का प्राशय यह है कि वस्त्र प्रादि में आसक्ति न होने से वस्त्रग्रहण करने पर भी यसि को भले भावपरिग्रह के प्रत्याख्यान में यद्यपि कोई बाधा न होती हो किन्तु वस्त्रगहण से उसके द्रव्यपरिग्रह के प्रत्यास्यान का तो भङ्ग होना अनिवार्य है । अतः यति का वस्त्रग्रहण अनुचित है। किन्तु यह आशय युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि वस्त्रग्रहण से द्रव्यपरिग्रह का प्रत्याख्यान यदि बाधित होगा तो शरीरधारण प्रावि से भो द्रव्यपरिग्रह के प्रत्यास्थान को बाधित होने को प्रसक्ति होगी, क्योंकि वस्त्र के समान पारीर भी एक प्रकार का व्रव्यपरिग्रह ही है, अतः परिग्रह का उल्लेख कर उसके प्रत्याख्यान की कत्तव्यता के प्रतिपादक सूत्र का यह अर्थ मानना होगा कि परिग्रह के भो भार भेव माने गये हैं-द्रव्यपरिग्रह, क्षेत्रपरिग्रह. कालपरिग्रह और मावपरिग्रह, इन सभी परिग्रहों का स्याग करना चाहिये, अर्थात द्रव्यासक्ति, क्षेत्रासक्ति. कालासक्ति और मावासक्ति का परित्याग करना चाहिये । सूत्र का यह परमार्थ मानने पर यति का वस्त्रग्रहण उसके अपरिग्रहवत का विघटक नहीं हो सकता, क्योंकि गृहीत वस्त्र में उसकी आसक्ति न होने से उसका आसक्तिपरित्यागात्मक अपरिग्रह अक्षुण्ण रहता है। दूसरी बात यह है कि द्रव्याविपरिग्रह नामादिपरिग्रह के समान प्रात्म धर्म नहीं है, प्रतः जैसे नामादि के परिप्रह का प्रत्याख्यान अशक्य है उसीप्रकार ब्यादि परिग्रह का भी प्रत्याख्यान १. अथ परिग्रहश्चतुविधःप्राप्त:-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतः भावतः । २. अपरिग्रहता सुत्र इति या च मूर्छा परिग्रहोऽभिमतः । सर्वद्रव्येषु न सा कर्तव्या सूत्रसद्भावः ॥ १॥ ३. विशेषावश्य केऽष्टमनिह्नवप्रकरणे गाथा ३१ । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ क्लो० ४ एतेन द्रव्य भावपरिणति मेदकन्यनापि परिग्रहाश्र केचिदपास्ता, अतिक्रमा-नाचारादिरूपयोश्वकर्षोत्कर्षयोर्मावाश्रमधर्मत्वादेव, तत्र चानाभोगाऽऽभोगादिरूपस्यात्मधर्मस्यैव विशिष्य नियामकत्वाद, द्रव्यादिपरिणतेः क्षेत्रादिपरिणतेरिव तत्र वक्तुमशक्यत्वात्, आत्माseverधर्म यो संक्रमात् 'द्रव्याश्रवसत्त्व आत्मन एव काचिद् द्रव्याश्रवपरिणतिः' इति परिभाषाया नि लत्वात्, अन्यथा द्रव्यहिंसादेरनैकान्तिकच्छेदाभिधानविरोधादित्यन्यत्र विस्तरः । , यदपि कथं चैवं परद्रव्य रतिसाम्राज्ये स्वात्मप्रतिषन्धमात्र विश्रान्तश्रामण्यसमृद्धिः १ इत्युक्तम्, तदप्ययुक्तम्, परद्रव्यसंनिधानमात्ररूपाया रते क्तावप्यनुच्छेदात्, अभिष्वङ्गरूपाया रतेस्तु धर्मोपकरणेऽभावात, अभिष्वङ्गविषयस्य सतः शरीरादेरप्यधर्मोपकरणत्वात् । न च शरीरेऽप्यप्रतिबद्धानां विदितवेद्यानां साधूनां वस्त्रादिषु 'ममेदम्' इत्यभिनिवेशः । तदुक्तं वाचकमुख्येन अशक्य है, क्योंकि संसार के आपावक श्रात्मवर्मो का ही त्याग मोक्ष के लिये आवश्यक होता है, किन्तु जो शरीरादि का धर्म है उसका त्याग उपादेय नहीं है और शरीर आदि के रहते वह शक्य मी नहीं है। भगवान् महाभाष्यकार ने इसी बात को इस रूप में कहा है कि- 'सूत्र में जो अपरिप्रहता बताई गई है, उसका आशय यह है कि परिग्रह का अर्थ है मूर्च्छा प्रासक्ति, समो द्रव्यों में उसका परित्याग करना चाहिये । [ द्रव्यादिपरिणति आत्मधर्म नहीं हैं ] कतिपय दिगम्बरों का कहना है कि परिग्रहरूप आस्रव की दो परिणतियां होती है द्रव्यास्मकपरिणति और मात्रात्मकपरिणति । यदि यति वस्त्र का परिग्रह करेगा तो यह परिग्रहरूप प्रालय की व्यात्मक परिणति से प्रतिबद्ध होगा जिस से उसके अपरिग्रहवत का भङ्ग अपरिहार्य है । इस कथन के विरोध में व्याख्याकार का कहना यह है कि झपकर्ष और उत्कर्ष दोनों भाषाश्रय के ही धर्म हैं । उनमें ' अपकर्ष अतिक्रमरूप है और उत्कर्ष अनाचाररूप है। उनके क्रमशः नियामक हैं'मनाभोग और आभोग, जो आत्मधर्म हैं। क्षेत्रादिपरिणति के समान द्रव्यादिपरिणति को भी आत्मधर्म नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह वस्तुतः धनात्मषमं है और अनात्मधमं का आत्मा में संक्रम क्रम-सम्बन्ध नहीं हो सकता । द्रव्याखव के होने पर 'द्रव्यावपरिणति म्रात्मा की ही होती है ऐसी दिगम्बरों की परिभाषा का कोई प्रमाणसम्मत आधार नहीं है, अन्यथा इसी के समान द्रव्यहिंसा को भी आत्मा की परिणति कहना सम्भव होने से उसे 'अलैकान्तिकच्छेव कहना असंगत हो जायगा । १. अपकर्ष अतिक्रमरूप है। अतिक्रम व्रत भंग की सन्मुखतारूप है । २. उत्कर्ष अनाचाररूप- व्रत का भङ्ग यह अनाचार है । ३. अनाभोग अनजानपन है । ४, आभोग जानबुझ अवस्था है । ५. द्रव्यास्वपरिणति बाह्य कर्मबंधनिमित्त की अवस्था । ६. द्रव्यहिंसा हिंसा परप्राणनाश । ७. अनेकातिच्छेद अन्तरंग संयम के छेद में विभाषा । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] “यदा तुरगः सत्स्वप्यारम्भ-विभूषणेवन भिषक्तः। तद्वदुपग्रहदानपि न सङ्गमुपयाति निम्रन्थः ॥ १ ॥" इति [अ० २० १४१] अवश्यं चैतदम्युपेयं परेणापि, अन्यथा शुक्लध्यानाग्निना कर्मेन्धनं भस्मसात् कुर्वतः परित्यक्ताशेपसङ्गस्य केनचित तदुपसर्गकरणबुद्धया मक्त्या वा वस्त्रादिनाऽऽवृतशरीरस्य परद्रव्यरतिप्रतियन्धान स्वात्ममात्रप्रतियन्धो न स्यात् । ___ अथ स्वयमात्तेन वस्त्रादिना परद्रव्यरतिनान्यथेति चेत् ? एतत् स्वयमादानस्य सृष्णानान्तरीयकत्वे शोभते, निरस्तं चैतदधस्तात् । अबोचाम चान्यत्र [ वस्त्रादिसंनिशन में आत्मरति अबाधित ] दिगम्बरों की ओर से जो यह कहा गया कि-'वस्त्रादि अनात्म तव्य में जब यति को प्रषिक रसि होगी तो स्वात्मा मात्र में उसका प्रतिबन्ध-उसकी निष्ठा न होने से उसके श्रमणधर्म का विकास न होगा-वह कथन भी भयुक्त है, क्योंकि अनात्म द्रव्य के सन्निधामरूप रति से यदि धमणधर्म को क्षति मानो जायगी तो वैसी रति तो मुक्ति में भी समाप्त नहीं होती प्रतः श्रमणधर्म की पूर्णसमृद्धि से सम्पन्न होनेवाली मुक्ति हो उपपन्न न हो सकेगी। अतः अमिष्वन यानी आसक्तिरूप रति को हो श्रमणधर्म की समडि का बाधक मानना होगा और ऐसी रति धर्म के उपकरण वस्त्रादि में नहीं होती प्रतः वस्त्रग्रहण से यति के श्रमणधर्म का विकास बाषित नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि'वस्त्राधिका सतत सनिधान होने से उसमें यति की अभिष्वनरूपा रति भी हो जाना सम्भावित है तो यह बात तो शरीर में भी हो सकती है, अतः शरीर भी धर्मोपकरण न होने से अनुपादेय होने लगेगा। यदि यह कहा जाम कि-'वस्त्र आदि में 'मम एवं-यह मेरा है इसप्रकार का अभिनिवेश होने से वह अमिष्वङ्ग का विषय बन सकता है तो यह कथन समीचीन नहीं हो सकता क्योंकि शरीर में भी. अनासक्त, एवं समस्त देश का कान प्राप्त कर लेने वाले साधुओं को वस्त्र आदि में उक्त अभिनिवेश नहीं होता, जैसे कि वाचकमुख्य में कहा है कि ___'जिस प्रकार अश्व अनेक आभरणों-भूषणों से सज्जित होने पर भी उनमें आसक्त नहीं होता उसीप्रकार निर्ग्रन्थ साषु वस्त्र आदि उपग्रहों यामी उपकरणों से युक्त होने पर भी उनमें आसक्त नहीं होला ।' बस्त्र आदि धारण करने पर भी उसमें आसक्त न होने से साधु के व्रत को हानि नहीं होतो यह बात दिगम्बरों को भी मामनी होगी, अन्यथा जो साधु समस्त सङ्ग का त्याग कर 'शुक्लध्यानरूप अग्नि से अपने कर्मरूप इन्धन को मस्म करने में संलग्न है उसके शरीर पर यदि कोई मस्सरी व्यक्ति उसको साधना में विघ्न उत्पन्न करने के विचार से अथवा मक्ति से प्रेरित हो वस्त्र आदि डाल ये तो उस वस्त्र आदि परद्रष्य में उसकी रति हो जाने से उसकी मो स्वात्ममात्रनिष्ठता का बाष होने लगेगा। १. शुक्लध्यान-शुभ ध्यान की उच्चतम कक्षा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो०४ "*परब्यम्मि पविती ण मोहजणिया व मोहजण्णा वा। जोगकया हु पवित्ती फलकंखा राग-दोसकया॥१॥" इति । [अ० म०प०२२] कथं च स्वोपात्तवसति-पुस्तकादौ न परद्रव्यरतिः १ । 'परस्वखाऽपरित्यागादिति चेत् ? कथमाहारादौन सा ! | 'आध्यात्मिकस्वत्वसंबन्धाभावादिति चेत् ? तुन्पमिदमन्यत्र । 'आहारादिकं कर्मभोगसामध्यसंपादितमिति न तत्र रतिरिति चेत् ? इदमप्यन्यत्र समानम् । वस्तुतो विपक्षभावनाप्रतिरुद्ध रतिमोहोदये नालम्बनमात्राव परद्रव्यरतिरिति विभावनीयम् । [स्वयं गृहीत द्रव्य में भी रति के अभाव का संभव ] यदि यह कहा जाय कि-अपनी इच्छा से ग्रहण किये हुये वस्त्र आदि से ही परदध्य में रति का उदय होता है, प्रकारान्तर से प्राप्त वस्त्र आदि से नहीं होता-तो यह बात स्वेच्छा से ग्रहोत उसी वस्त्र मावि में संगत हो सकती है जिसमें ग्रहीता की तृष्णा हो, किन्तु साधु द्वारा गृहीत घस्त्र माधि में उसको तृष्णा नहीं होतो, यह बात कही जा चुकी है। प्रतः स्वेच्छागृहात बस्त्र से साघु को परमध्य रति होने की सम्भावना नहीं को जा सकती। यह बात व्याख्याकारने अन्यत्र इस प्रकार कह रखी है कि पर द्रव्य में जो प्रवृति होती है वह केवल पर द्रव्यविषयक होने मात्र से न मोह का कारण ही होती और न मोह का कार्य ही होती है, किन्तु प्रवृत्ति मन-वचन-काया के योगों से जन्य होती है। और फलेच्छा राग से अथवा द्वेष से होती है । अतः फलाशंसारहित प्रवृत्ति मोह की जनक तथा मोहजन्य होती नहीं है। यह भी विचारणीय है कि यदि स्वेच्छापूर्वक प्रहरा हो वस्तु में पखव्यरति का जनक है तो स्वेच्छा से गहीत आवास-स्थल तथा पुस्तक प्रावि में साधु को परद्रव्यरति क्यों नहीं होती? यदि जन वस्तुओं में परकीयस्वत्व का त्याग न होने से उनमें परव्रध्यरति का अनुवय माना जायगा सब तो इस प्रश्न का उसन दुष्कर होगा कि आहार आदि में तो परकीयस्वत्व का त्याग हो जाता है, तो फिर स्वेच्छा से आहार ग्रहण करने पर साधु को परद्रव्यरति क्यों नहीं होती? यदि उत्तर में यह कहा जाय कि-'परद्रव्यरति का कारण है, ब्रव्य के साथ व्यक्ति का आध्यात्मिकस्वत्वसम्बन्ध, आहार आदि में साधु का यह सम्बन्ध न होने से उसमें उसे परद्रव्यरति का उवय नहीं होता'-तो यह बात वस्त्र आदि के विषय में भी कही जा सकती है। यदि यह कहा जाय कि-'कर्म में जो भोगजतिका शक्ति होती है उससे सम्पादित होने के कारण आहार में परद्रव्यरति नहीं होती'-तो यह बात वस्त्र आदि के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है क्योंकि वस्त्र आदि की प्राप्ति भी कर्मगत भोगजनक शक्ति से हो सम्पादित होती है। सच बात तो यह है कि साधु वस्त्र आदि जिन वस्तुओं को प्रहण करता है, उनमें वह विरक्ष क्रो-यह शरीर भो मेरा नहीं तो यह वस्त्र कसे मेरा हो सकता है ? दोनों मेरे से पर है-ऐसी अन्यत्व मावना करता है, यह विपक्ष भावना ही उस वस्तु में उसकी रात और मोह के उदय को बाधिका है, प्रतः आलम्बनमात्र से-अनुकलभावनाशून्य वस्तुमात्र से उसे पर द्रव्यरति का उक्य नहीं होता। परद्रव्ये प्रवृत्तिनं मोनिका वा मोहजन्या वा। योग कृता खलु प्रवृत्तिः फलकाङ्क्षा राग-द्वेषकृता ।। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० १० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] [ ५५ यदपि 'कथं वा न तस्करादिभ्यो वस्त्रादेः संगोपनानुसंधानेन संरक्षणानुबन्धिरौद्रध्यानावकाशः' इत्युक्तम् । तदपि न पेशलम् ; जल-ज्वलन-मलिम्लुच-वापदा-हि-विषकण्टकादिभ्यः संरक्षणानुबन्धस्थ शरीरेऽपि समानत्वात् । 'धर्मनिर्वाहाथैः शरीरसंरक्षणानुबन्धः प्रशस्त' इति चेत् १ इदमन्यत्रापि सुवचम् । तदाह भाष्यकार:-[वि. आ. भाष्य-३०५३ ] "सारक्खणाणुबंधो रोदज्माणं ति ते मई हुज्जा । तुलमिणं देहाइसु पसथमिह तं तहेहात्रि ।। १ ॥* इति । 'रौद्रध्यानं कथं प्रशस्ताऽप्रशस्तभेदेन द्विधा विभज्यते ? इति विमर्शपराहत्तस्त्विह गगनमेवालोकेत । 'संरक्षणानुबन्धे सार्थान्वेषणादिलिङ्गचौरादिभ्यो द्वेषः कथं प्रशस्तः स्यात ?' अयमपि वृथा व्यामोहः, 'हन्मि' इत्यादिसक्लेशप्रधानस्य तस्याऽप्रशस्तस्ये निवृत्त्यादिलिङ्गस्य तस्य प्रशस्तत्वात् , 'असंक्लेशेन चौरादिकं द्वेष्मि' इत्यनुभवात । रागः संक्लेशविशुद्धयङ्गनया द्विविधः, द्वेषस्तु संक्लेशकरूपतयेक एव' इति पुनरज्ञानमूला परिभाषा, मोशेच्छाया रागयोनित्वादिब संसारजिहासाया द्वेषयोनित्वात् । 'स्फटिके तापिच्छकुसुमोपरागस्थानीयस्य द्वेषस्याऽशुभैकरूपत्वाद कथं वैविध्यम् ?' इति चेत ? 'जपाकुसुमोपरागस्थानीयस्य रागस्यापि शुभैकरूपत्वात् कथं वैविध्यम् ?' इति पर्यनुयोगे किमुत्तरम् १ । उपाधिविशेषादुपधेयविशेषवदुद्देश्यादिविशेषात् परिणामविशेषस्तूभयत्र तुल्य इति दिग।। [संरक्षणानुन्धि रौद्रध्यान को अवकाश नहीं ] दिगम्बर की ओर से जो यह प्रश्न किया गया कि-'साधु यदि वस्त्र आदि रखेगा तो उसे उसकी रक्षा को चिन्ता करनी होगी अतः वस्त्रादि धारण के पक्ष में साधु को वस्त्रादि के संरक्षणार्थ किये जानेवाले प्रयास से रौद्रध्यान का अवसर क्यों नहीं होगा?' यह प्रश्न भी समीचीन नहीं है क्योंकि यह प्रश्न शरीर के सम्बन्ध में भी समान है क्योंकि पानी, आम, दानव, वन्यपशु, सांप, विष, कांटा प्रादि से शरीर की रक्षा का प्रयास दिगम्बर को भी करना पडता है, अतः वस्त्रादि के रक्षण को चिन्ता से मुक्त, किन्तु शरीर के रक्षण को चिन्ता से ग्रस्त, दिगम्बर को भी रौनध्यान से पीड़ित होना अपरिहार्य है। यदि यह कहा जाय कि-'शरीररक्षा का यत्न धर्मनिर्वाहफलक होने से रौबध्यान का आपावक नहीं हो सकता'-तो यह बात वस्त्रावि के सम्बन्ध में मो कही जा सकती है, जैसा कि भाष्यकारने कहा है-“संरक्षण का प्रयास रौद्रध्यान है' यदि दिगम्बर को यह मान्य हो तो यह बात वस्त्रादि के समान शरीर के सम्बन्ध में भी माननी होगी, एवं शरीररक्षा का प्रयास यदि प्रशस्त माना जायमा तो वस्त्रादिरक्षा के प्रयास को भी प्रशस्त मानना उचित होगा।" * संरक्षणानुबन्धो रौद्रध्यानमिति ते मतिर्भवेत् । तुल्यमिदं देहादिषु प्रशस्तमिह तत् तथेहापि ॥१॥ १. रोद्रध्यानान की उग्रतम कक्षा । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवास्ति लो०४ यदपि-'कथं चैवमाचेलक्यपरीपहविजयः कृतः स्यात १, न हि सचेलकत्वमषेलकत्वं च न विरुद्धम्' इत्युक्तम्-ताप तुच्छम् , यथा हि तीव्रक्षुद्वेदनोदयेऽप्येपणादिदोषदुष्टमाहारमगृतस्तदोपरहितमाहारमुपलभ्य विधिना क्षुद्वेदना प्रतिकुर्वतः क्षुत्परीषहविजयः, न तु सर्वथाऽऽहाराऽग्रहणेन, निरुपमधृति-संहननानां जिनानामपि तदजेतृत्वप्रसङ्गात् , तथा शीतादिवेदनाभिभूतेनापि दोषदुष्टोपधित्यागेन दोपरहितोपधिपरिभोगेन च तन्प्रतिकार आचेलक्यपरीषहविजयोपपत्तः, न तु सर्वथा तत्परित्यागेन । अथ क्षुद्वदनाप्रतिपक्षः परिणाम एव निश्चयतः क्षुत्परीपहविजय इति चेत् ? तर्हि शीतादिवेदनानिपक्षः परिणाम एव निश्चयत आचेलक्यपरीपहविजय इति तुल्यम् । आध्यात्मिकपरीपहविजयोपष्टम्भकत्वं चाहारोपकरणयोस्तुल्यमिति । तदिदमवदाम-[अ० म. परीक्षा-२७ ] ___ यह भी ज्ञातव्य है कि शरीररक्षा में रौद्रध्यान को प्रशस्त मानने वाले दिगम्बर से यदि यह प्रश्न किया जायगा कि रौद्रध्यान तो अप्रशस्त हो हो सकता है प्रशस्त-प्रशस्तरूप में उसके दो विमाग कैसे हो सकते हैं-तो इस प्रश्न के उत्तर को स्फत्ति न होने से विगम्बर को आकाश को पोर निहारने के अतिरिक्त और कुछ न सूझेगा । दिगम्बर की ओर से यदि यह कहा जाय कि-'वस्त्र आदि को रक्षा के प्रसङ्ग में चौर आदि से बचाव करने के लिये वस्त्रादि के ग्रहोता को सार्थ का अन्वेषण करना होता है जिस से यह ज्ञात होता है कि वस्त्राविग्रहीता को चोर से द्वेष है । फिर यह द्वेष कैसे प्रशस्त हो सकता है ?'-तो यह कथन भी एक निरर्थक व्यामोह हो है क्योंकि जिस द्वष में चोर का वध करने की भावना प्रधान होली है वह द्वेष जैसे अप्रशस्त होता है वैसे ही चोर की ओर से अपहरण होने की सम्भावना में चोर के प्रति जो द्वेष उदित होता है उसमें चोर का वध करने को माता न होने से वह प्रशस्त भी हो सकता है। ऐसा द्वेष, चार की कोई हानि करने की इच्छारूप संक्लेश न होने पर भी 'चोर के प्रति मुझे द्वेष है मनुष्य के इस अनुभव से भी प्रमाणित होता है । यदि यह कहा जाय कि-'विशुद्ध और संक्लेश दोनों का अङ्गभूत यानी हेतुभूत होने से राग तो प्रशस्त-अप्रशस्तभेद से दो प्रकार का हो सकता है पर द्वेष तो एकमात्र सक्लेशरूप हो होता है प्रत: उसका एक अप्रशस्त ही प्रकार हो सकता है तो यह कथन भी अज्ञानमूलक है क्योंकि जैसे मोक्ष को इन्छा रागजन्य होसी है वैसे ही संसारत्याग की इच्छा द्वेषजन्य होती है, तो फिर यह द्वेष संसारत्याग का निमित्त होने से प्रशस्त क्यों नहीं हो सकता? यदि यह प्रश्न किया जाय कि स्फटिकमणि में तापिच्छ पुष्प के रंग के समान द्वेषमात्र अशुभंकरूप ही होता है अत: उसके शुभ-अशुभ हो रूप कैसे हो सकते हैं ? तो ऐसा प्रश्न करनेवाले से यदि यह पूछा जाय कि स्फटिक में जपाकुसुम के रंग के समान राग भी शुभकरूप है अतः उसके शुभ अशुम दो रूप कैसे हो सकते हैं-सो वह इसका क्या उत्तर दे सकेगा ? यदि यह कहा जाय कि उपाधि के भेद से उपधेय भेद होने में कोई बाधा नहीं है तो वस्त्र और आहार दोनों में उद्देश्य आदि के भेव से परिणामभेव के सम्भव होने से दोनों । प्राहार और वस्त्र के ग्रहण के सम्बन्ध में विरुद्ध वो मत रखना उचित नहीं हो सकता । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० १० टोका एवं हिन्दीषियेचन ] " जड चेलभोगगेत्ता ण जियाचेलयपरीषहो गार। भुजतो अजिअखुहापरीसहो तो तुमं पत्तो ॥ १ ॥” इति । न च सचेलकत्वेऽचेलकत्वकार्थनिर्जराविघातकत्वलक्षणं नैश्चयिकमाचेलक्यविरोधित्वम् , न वा तद्व्यवहार विधातिवलक्षण व्यावहारिकमपि लोकविदितसंनिवेशपरित्यागेन जीर्ण-स्तोक _ [ क्षुधापरिषहजय की भाँति आवेलक्यपरिषहविजय ] विगम्बर की ओर से जो यह प्रश्न उठाया गया कि-'साधु यदि वस्त्र धारण करेगा तो वह 'आचेलक्यपरोषह पर विजय-निर्वस्त्र रहते हुये नानतास्वरूप क्लेश पर विजय कसे प्राप्त कर सकेगा?' यह प्रश्न भी निस्सार है क्योंकि जैसे भूख को तीववेदना होने पर 'एषणा आदि दोष से दषित आहार को न ग्रहण कर निर्दोष आहारस्वष्टव भिक्षा के अन्वेषण द्वारा शास्त्रविहितरीति से भूख को पीडा का प्रतीकार करने पर क्षत्परीषद के ऊपर विजय प्राप्त होता है, न कि माहार का सर्वथा परित्याग कर देने पर । यदि माहार के सबंधा त्याग को ही क्षधापरिषह का विजय मानेंगे तो अनुपम पेय और उत्कृष्ट संघयगबल से सम्पन्न तीर्थकर भी सर्वथा आहारत्यागी न होने से क्षत्परीषह के विजेता नहीं थे ऐसा मानने की आपत्ति होगी । वैसे शीत आदि की पीड़ा से पराभूत साधु मो दोषयुक्त वस्त्रादि उपकरण का त्याग कर निदध वस्त्रादि के सेवन से शीत पीडा का प्रतीकार कर नग्नतारूप आखेलक्यपरीषह का विजय प्राप्त कर सकते हैं, उसके लिये वस्त्र का सर्वथा परित्याग आवश्यक नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-भूख की पीडा का विरोधी परिणाम हो निश्चयनयानुसार क्षुत्परीषह विजय है-तो उसीके समान यह भी कहा जा सकता है कि शोत प्रावि की पीडा का विरोधो परिणाम हो याचेलक्य परीषह विजय है । यदि यह कहा कि-आध्यात्मिक यानी आत्महितकारी ऐसे परोषह विजय का साधन होने से प्राहार ग्रहण का औचित्य हो सकता है पर वस्त्रादि प्राध्यात्मिकविजय का साधन न होने से उसके ग्रहण में औचित्य नहीं हो सकता-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि आध्यात्मिकपरोषहविजय की साधनता आहार के समान धस्त्रादि में भी विद्यमान है जैसा कि व्याख्याकार ने अध्यात्ममतपरोक्षा ग्रन्थ में कहा है कि-'वस्त्र झा सेवन करने के कारण साधु यदि आवेलक्यपरीषह का विजेता नहीं हो सकता तो आहार का सेवन करने वाला साधु प्राहार सेवन करने के कारण क्षुत्परीषह का भी विजेता नहीं हो सकता'-उपर्युक्त युक्तियों सो स्पष्ट है कि-आहार तथा वस्त्रग्रहण दोनों में गुण-दोष समान होने से एक के औचित्य और दुसरे के अनौचित्य का स्थापन नहीं किया जा सकता। *यदि चेलभोगमात्रान जिताचेलकपरीषहः साधः। भजानो जितक्षत्परीषहस्ततस्तव प्राप्तः॥१॥ १. आचेलक्यपरिषह-नग्न रह कर जो कष्ट सहन करना पड़े। इस पर विजय यानी इसमें व्याकुल न होकर समभाव रखना। २. एषणादूषितआहार-एषणा यानी आहारादिपिंडरूप भिक्षा का ग्रहण, उस समय लगने वाले हिंसा नुमोदनादि दोष से दूषित आहार। ३. क्षुत्परीषह-भूख की पीडा का जो कष्ट सहन करना पड़े। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : I [ शास्त्रवार्त्ता स्त० ६ श्लो० ४ कुत्सितवस्त्रपरिभोगेन च सत्यपि वस्त्रे साधूनां कटीवस्त्रेण वेष्टितशिरसो जलावगाढपुरुषस्येवोपचारेणाऽचेलकत्वव्यवहारात्, निरुपचरितव्यवहारेण च स्कन्धाद् देवदूष्यापगमे भगवत्स्वेवाचेलकत्वव्यवस्थितेरिति । एतेन 'यदि सचेलत्वमपिं' [ पृ० २८ पं० १० ] इत्यादि निरस्तम् ; आचेलक्यस्य मूलगुणत्वाऽसिद्धेः, महाव्रतोपकारकत्वेन पिण्डविशुद्धयादिवत् तस्योत्तरगुणत्वात्, अन्यथोत्सूत्रोपहतेः, अव्यवस्थानाच्च । ५८ ] न जिनेन्द्र जिनकपिकादीनामपि सर्वधाऽबेलकत्वं सिद्धमस्ति, जिनकल्पिकादीनां सर्वदैव जघन्यतोऽप्युपधिद्वयस्य सद्भावात् जिनेन्द्राणामपि प्रवज्याप्रतिपत्तिसमये देवदृष्य [ सचेलकत्व आचेलक्य का विरोधी नहीं ] दिगम्बर ने सचेलकस्य सवस्त्रस्य में आवेलक्य = निर्वस्त्रता का जो विशेष बताया उसके विषय में यह ज्ञातव्य है कि सचलकत्व में प्रचेलकत्व का विशेष दो प्रकार का हो सकता है। एक निश्चयनयानुसारी और दूसरा व्यवहारनयानुसारी । इनमें पहला अचेलकरथ के कार्यभूत निर्जर। काविघातकस्वरूप है, किन्तु वह सचेलकत्व में नहीं हो सकता क्योंकि धर्म के उपकरणरूप में स्वरूपवस्त्र धारण करने पर भी उससे साधु को निर्जरा का विघात नहीं होता। दूसरा अचेलकरवव्यवहार का विघातकस्वरूप है, पर वह भी सचेलकत्व में संभव नहीं है, क्योंकि साधु लोकप्रसिद्ध सन्निवेशaafविन्यास का तो त्याग कर देता है और जीर्ण, स्वल्प और कुत्सिस वस्त्र का सेवन करता है। उतने वस्त्र के रहने पर भी उसमें प्रचेलकत्व निर्वस्त्रत्य का उपचरित-गौण व्यवहार उसी प्रकार होता है जैसे कटिवस्त्र को सिर में लपेटकर जल में प्रविष्ट मनुष्य में अचेलकरव का गौण व्यवहार होता है । हाँ, अनुपचरित व्यवहार से यदि मचेलकत्व की व्यवस्था जिज्ञासित हो तो वह तो किसी भी साधु में नहीं हो सकती केवल महावीर भगवान् में हो प्राप्त हो सकेगो क्योंकि स्कन्ध से बेवष्य वस्त्र के गिर जाने पर महावीर भगवान् में मी अचेलकत्व की उपपत्ति होती है। दिगम्बर की ओर से जो यह कहा गया कि - ' सचेलकत्व यदि अचेलकत्व रूप 'मूलगुण से संबद्ध श्रमणधर्म का विरोधी न हो तो जिनेन्द्र और जिनकल्पिक आदि उत्तम श्रमण अचेलक ही होते हैं - इस शास्त्रप्रसिद्ध सत्य की उपपत्ति कैसे होगी ? - यदि यह माना जाय कि वे प्रसङ्गता की सिद्धि के लिये निर्वस्त्र होते हैं तो उनके शिष्यों को भी उनके चिह्न का अनुकरण कर निर्वस्त्र होना ही उचित है' यह कथन मी ठोक नहीं है, क्योंकि आवेलक्य ( निर्वस्त्र होना) यह मूल गुण है, यह बात असिद्ध है, किन्तु सत्य यह है कि जैसे महाव्रत का उपकारक होने से आहारशुद्धि प्रादि उत्तरगुण है, वैसे हो निर्वस्त्रता भी उत्तरगुण है। यदि ऐसा न माना जायगा तो निर्वस्त्रता को उत्तरगुण दिखाने वाले सूत्र का उपघात यानी विरोध होगा, तथा मूलगुण और उत्तरगुण को सुनिश्चित व्यवस्था न हो सकेगी। १. मूलगुण-संयमधर्म के अंगभूत अतिआवश्यक पांच महाव्रतों का पालन | २. उत्तरगुण - पांच महाव्रतों की सुरक्षा के लिये आवश्यक भिक्षाशुद्धि आदि । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा० क० टीका एवं हिन्दीविवेचन ] ] इत्या वस्त्रग्रहणश्रवणात् ""सन्धे हि एगदूसेण णिगया जिणवरा चउन्त्रीसं" [ धागमत्रामाण्यात् । न चास्यान्यार्थत्वम्, आधारावङ्गेषु तैस्तैः सूर्भगवत्येकवस्त्रग्रहणस्य श्रामण्यप्रतिपत्तिसमये प्रतिपादितत्वात् । न चैवं तदा सर्ववस्त्र परित्याग वेदकः कश्चिदागमः श्रूयते । योऽपि ""बोसट्टचतदेहो विहरद्द गामाणुगामं तु" इत्यागमः, सोऽपि न श्रामण्यप्रतिपत्तिसमय माविभगवन्नग्नत्वावेदकः, किन्तु तदुत्तरकालं रागादिदोषविप्रमुक्तत्वं भगवत्या वेदयतीति । यस्त्विदानीं प्रमाणानुपपत्त्याद्युद्भावयन्ना चाराङ्गादिसद्भावमेव न स्वीकुरुते, सोऽतिवापः, स्त्रक्लृप्तशास्त्रमूलप्रवृत्तावन्धपरम्पराशङ्काया दुर्निवारत्यात्, ""जो मण नत्थि धम्मो ..." इत्यादिना महाप्रायश्चित्तापदेशात्, असंभाष्यत्वाच्च तस्य । ४२. [ ५६ [ तीर्थकरादि में भी पूर्ण आलक्य असिद्ध ] यह मी ज्ञातव्य है कि जिनेन्द्र और जिनकल्पिक आदि भी पूर्णरूप से निर्वस्त्र नहीं होते क्योंकि शास्त्रों से ज्ञात होता है कि जिनकल्पिक आदि को कम से कम दो उपधि रजोहरण और मुहपत्ती रखना सभी समय आवश्यक होते हैं और जिनेन्द्रों को प्रव्रज्या संन्यासग्रहण करने के समय देवेन्द्रप्रदत्त देववृष्य वस्त्र का ग्रहण होता है। इस बात को आगम यह कहकर प्रमाणित करता है कि- 'सनी बोसों जिनवरों ने 'देवदूष्य' नामक एक वस्त्र के साथ निर्गम-गृहत्याग किया।' प्रागम के इस कथन का कोई अन्य अर्थ नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्राचारादि भङ्गों में कई सूत्रों द्वारा बताया गया है कि श्रमणधर्म को स्वीकार करते समय भगवान् एकवस्त्र ग्रहण करते हैं। दूसरी ओर ऐसा कोई वागम उपलब्ध नहीं होता जिससे यह ज्ञात हो सके कि श्रमणधर्म को प्रतिपत्ति के समय सभी वस्त्रों का परित्याग कर दिया जाता है। एक आगम जो यह बताते उपलब्ध होता है कि 'जिन्होंने बेह का विसर्जन एवं त्याग किया है वे भगवान गांव-गांव विहार करते हैं उस आगम का भी यह अर्थ नहीं है कि श्रमणधर्म को स्वीकार करने के समय भगवान् नग्न होते हैं, अपितु उसका अर्थ यह है कि श्रमणधर्म को स्वीकार करने के उत्तरकाल में भगवान् बेहसंबन्धि रागावि समस्त दोषों से मुक्त हो जाते हैं। जो उक्ति इस समय प्रमाण को अनुपपत्ति अदि का उद्भावन कर प्राचाराङ्ग आदि आगमों का अस्तित्व ही नहीं मानता वह जैनसम्प्रदाय से अत्यन्त दूर है. क्योंकि दिगम्बर समाज को मान्य शास्त्रों के आधार पर धर्म तथा अध्यात्म के सम्बन्ध में जो विगम्बर जैन जनता की प्रवृत्ति होती है उसमें भी अन्धपरम्परा को शङ्का प्रतिवार्य है । तथा-'धर्म नहीं है' इत्यादि कहने वाले मनुष्य को समस्त जैन संघ से बाहर निकाल देना चाहिये इस शास्त्रोक्ति से वह आगमावलापी महाप्रायश्चित का पात्र है एवं धार्मिकजनों द्वारा वह सम्भाषण के लिये भी प्रयोग्य है । १. सर्वेऽप्येकदूष्येण निर्गता जिनवराश्चतुविशतिः । २. व्युत्सृष्टत्यक्तदेहो विहरति ग्रामानुग्रासं तु । ३. सो समणसंघबज्झो कायन्त्रो सब्दसघेणं ॥ इत्युत्तरार्द्धः । ४. जिनकल्पिक - किंचिदधिक नव पूर्वो का अध्ययन हो जाने के बाद कठोर निरपवाद संयम मार्ग का स्वीकार करने वाला जैन साधु । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] [शास्त्रवार्ता स्त०६इलो०४ इत्थं च तद्विनेया अपि तलिङ्गानुकारिण एवोचिताः' इत्यपि प्रत्युक्तम् , यादृशं गुरुलिम तादृशमेव शिष्यलिङ्गादिकम्' इति वदतां पिच्छिकादिपरिग्रहस्याऽन्याय्यत्वात , भगवता तदपरिग्रहात् । 'गुरुकृतमेष कर्माचरणीयम्' इति व्यामोहवता छद्मस्थावस्थायां भगवतोपदेशशिपदीक्षागुरुवचनानुपमहान् दिग्नामसामपि तदनुपग्रहापत्त्या स्वतीर्थोच्छेदापत्तेः । तस्माच्चतुरातुरेण तथा वैद्योपदिष्टमेव क्रियते, न तु तत्कृतमनुक्रियते, ध्याध्यनुच्छेदप्रसङ्गात् , तथा भव्येनापि धर्माधिकारिणा भगवदुक्त एव मागों यथाशक्त्याऽऽचरणीयः, न तु तचरित्रमा. चरणीयम् , चक्रवर्तिभोजनलुन्धविप्रवद् विपरीतप्रयोजनप्रसङ्गादिति विभावनीयम् । अवोचाम च*"वेज्जुबदिट्ठ ओसहमिव जिणकहियं हि तओ मग्गं।। सेवंतो होइ सुही इहरा विवरीयफलभागी" ॥१॥ इति । [अ० म०प०-३३] _ [ अनुकरण छोडो, आज्ञापालन करो] 'शास्त्र को सूचना के अनुसार जिनेन्द्र निर्वस्त्र होते हैं अत: उनके शिष्यों को भी उनका अनुसरण करके निर्वस्त्र होना ही उचित है-दिगम्बरों का यह कथन भी निरस्त हो जाता है क्योंकि'गुरु का जो लिङ्ग हो शिष्य का भी वही लिङ्ग होना चाहिए' ऐसा नियम मानने पर दिगम्बरों द्वारा मयूरपिच्छ प्रादि का धारण असंगत हो जायगा क्योंकि भगवान ने उसे धारण नहीं किया है। इस के अतिरिक्त दूसरा घोष यह है कि उक्त नियम के समान दिगम्बरों को यह नियम मानने का मी ठयामोह होगा कि जो कर्म गुरु करता है, वही कर्म शिष्य को भी करना चाहिये और इस व्यामोह का परिणाम यह होगा किजसे भगवान् ने छपस्य (अपूर्णज्ञान) अवस्था में घातोकम को उदय दशा में कोई उपदेश नहीं किया था. किसी शिष्य को चीक्षा नहीं दी थी. गुरुवचन का श्रवण नहीं किया था वैसे ही विगम्मर भी छास्य अवस्था में उक्त कार्य न करेगा, जिसके फलस्वरूप विगम्बरसम्प्रदाय का उच्छव हो जायगा । प्रसः उचित यह है कि जैसे बुद्धिमान रोगी वेद्य द्वारा निविष्ट कर्मों को ही करता है कि वेध द्वारा किये जानेवाले कर्मों का अनुकरण, क्योंकि उन कर्मों के करने से स्पाधिका उच्छेव नहीं हो सकता वैसे ही भव्य धर्माधिकारी को भगवान् द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर ही यथाशक्ति चलना चाहिये न कि उनके चरित्र का अनुकरण करना चाहिये अन्यथा उसे उसी प्रकार विपरीत परिणाम का पात्र होना पड़ेगा जिस प्रकार चक्रवर्ती राजा के भोजन-लोभी साह्मण को उस मोजन से विपरीत परिणाम का पान बनना पड़ा था। यह बात प्रध्यात्ममतपरीक्षा में इस प्रकार कही जा चुकी है कि 'भगवान् जिन द्वारा बताया मागं वैद्य से उपदिष्ट औषध के समान हितकर है, उस मार्ग पर चलनेवाला मनुष्य इष्ट फल को प्राप्त करता है और जो उससे विपरीत चलता है वह अनिष्ट प्राप्त करता है।' वैद्योपदिष्टमीपत्रमिव जिन थितं हितं ततो मार्गम् । सेवमानो भवति सुखीतरथा विपरीतफलभागी ।। १ ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टोका एवं हिन्दीविवेचन ] इत्यं च 'न सितपटा महाव्रतपरिणामवन्तः' इत्याधनुमाने हेत्वसिद्धिः मूर्छाऽभानेन परिग्रहयोगित्वाभावात् ""मुच्छा परिग्गहो वुत्तो" [द. वै० ] इति भगवचनात , वस्त्रादियोगित्वस्य श्रेण्यारूढे व्यभिचारित्वादिति स्मर्तव्यम् ।। इदं कपटनाटकं प्रकटमद्य वो दिक्पटा:! सभासु विदितं सतामिति किमत्र भूयः श्रमः !! इतो जयति शासनं जगति चार जैनेश्वरं सिताम्बरसमाश्रितं कृतधियां हितं शाश्वतम् ॥१॥ तत् सिद्धमेतत्--'गुरुवचनमनुसृतेषु चरणकरणपरायणेषु विदितनयेषु संसारभीरुषु सिताम्बरेश्वेर दर्शन-ज्ञान-चारित्र-संपत्तिरूपः परो मोक्षोपायः' इति ॥४॥ दर्शनमेषाभिष्टोतं यथार्थान् दर्शनपदपर्यायानाहमूलम्-दर्शनं मुक्तिबीजं च सम्यक्त्वं तत्ववेदनम् । दु:स्वान्तकृत्सुखारम्भः पर्यायास्तस्य कीर्तिताः॥५॥ [दिगम्बरमतनिरसन उपसंहार ] विगम्बरों ने खेताम्बरों के विरुद्ध जो यह अनुमान प्रयोग किया है कि-"वेताम्बर अपरिग्रह महानत का फल नहीं पा सकते क्योंकि वे घस्त्र, पात्र आदि परिग्रह से युक्त होते हैं जैसे महान आरम्म-समारम्भ में गृहस्थ"- वह भी ठीक नहीं है क्योंकि श्वेताम्बर साधुनों में मूी-बस्त्र पात्र आदि को प्रासक्ति,-न होने से उनमें परिग्रह का सम्बन्ध सिद्ध नहीं है, क्योंकि भगवान् के कथनानुसार वास्तव में मूर्छा हो परिग्रह है । अतः यह अनुमान पक्ष में हेतु के अमाषरूप स्वसिद्धि दोष से ग्रस्त है । क्षपकश्रेणी (मोहनीयक्षम के तीन प्रध्यवसाय में ) प्रारूद साधु वस्त्रावि के युक्त होने पर भी अपरिग्रह महाव्रत का फल प्राप्त करते हैं अतः वस्त्रावि सम्बन्धरूप हेतु में अपरिग्रह महावत के फलप्राप्तिरूप साध्य का व्यभिचार भी है। व्याख्याकार ने इस विचार का अपने एक पद्य द्वारा उपसंहार किया है । पद्य का अर्थ इस प्रकार है 'साधु को अपरिग्रह महानत का फल पाने के लिये वस्त्र का त्याग करना चाहिये इस पक्ष को सिस करमे का जो कपटनाटक दिगम्बरों द्वारा विद्वानों को समानों में खेला जाता रहा, प्राज उसका आवरणभङ्ग हो गया, यह सत्पुरुषों ने जान लिया, अतः इस विषय में और श्रम करना निरर्थक है, दिगम्बरों के माटक को कपटमयता प्रकट होने के फलस्वरूप जिनेश्वर का यह शासन, जिसका श्वेताम्बरों ने आशरा किया है, जो परिष्कृतद्धिवालों का शाश्वत हितकारी है, पूर्ण उत्कर्ष से उमा. सित होने लगा है। उक्त विचारों से यह निविवाद सिद्ध है कि ज्ञान, दर्शन, पारिश्यरूप मोक्ष का श्रेष्ठ साधन गुरुवचन का अनुसरण करने वाले, चारित्रपालन में निरन्तर तत्पर नयों के सम्यग वेसा, संसार से भोत रहने वाले श्वेताम्बरों को सुलभ हो सकता है। १. मूर्छा परिग्रहः उक्तः । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] [ शास्त्रवार्ता स्त. ६ श्लो. ५ दर्शनं-दृश्यतेऽनेन यथावस्थितमात्मतत्त्वमिति । मुक्तिषीच, चः समुच्चये, मुक्तः सकलकर्मनिवृत्तेः फलभूताया धर्मचिन्ताबकुरक्रमेण बीजं सत्प्रशंसादिलिङ्गमाघकारणम् ; तदाहुः-[ ] "चपनं धर्मवीजस्य सत्प्रशंसादि तद्गतम् । तच्चिन्ताधङ्करादि स्यात् फलसिद्धिस्तु निर्वृतिः ॥१॥ चिन्ता-सत्श्रुत्य-नुष्ठान-देवमानुषसंपदः । क्रमेणाधुर-सत्काण्ड-नाल-पुष्पसमा मता ॥२॥ फलं प्रधानमेवाहुनानुषङ्गिकमियपि । पलालादिपरित्यागात् कृषों धान्यादिवद् बुधाः ॥३॥ अत एव च मन्यन्ते तत्र भावितयुद्धयः । मोक्षमार्गक्रियामेका पर्यन्तफलदायिनीम ॥४॥ इति । सम्यक्त्वम् आत्मनः सम्यग्भावो मिथ्यात्वमलापगमात परमनिर्मलीमावलक्षणः । तत्यवेदनम् तचं जगलास हो गद्धीसलेलोशि । मुस्तान-प्रन्थिमेदाद् निविडकर्मजन्यसंसारदुखान्तकरम् । अत एव सुखारम्भः-सुखस्यारम्भो यस्मात् तत् । एते तस्यदर्शनस्य पर्यायाः-एकार्थप्रतिपादकाः शब्दाः, कीर्तिताः, सत्यपि योगे पङ्कजादिषदानां पनादाविद दर्शने नियतत्वादेतेषाम् । लक्षणं चास्य शमाभिव्यङ्ग्यः शुभात्मपरिणामः । तदाम्-"से य सम्मत्ते पसत्थसम्मत्तमोहणिजकम्माणुवेअणोवप्तम-खयसमुत्थे सुहे आयपरिणामे पण्णत्ते" इति । [पर्यायपदों से दर्शन की स्तवना] वर्शन का महत्त्व बताने के लिये इस पांचवी कारिका में दर्शनपद के यथार्थपर्यायों का उल्लेख किया गया है कारिका का अर्थ इस प्रकार है - 'दृश्यतेऽनेम=जिससे देखा जाय' इस व्युत्पत्ति के अनुसार आत्मतत्त्व' यथावस्थितरूप में जिससे ज्ञात हो वही दशन हैं क्योंकि उसीसे सब कुछ जाना जाता है। कारिकायत '' शब्द समुच्चयार्थक है, उससे यह सूचित होता है कि 'दर्शन' पद को तरह मुक्तिबीजादि सभी शाब सम्यस्य के पर्यायवाची है । मुक्ति का अर्थ है समस्तकों का क्षय, जो सम्पम् दर्शन का फल है, बीज का पर्व है प्रथमकारण, जो धर्मचिन्तादि अङ्कुर के क्रम से संबंधित होकर फल का निर्वाह होता है और सत्प्रशंसा आदि लिङ्गों से ज्ञात होता है। जैसा कि विद्वानों ने कहा है धर्मगतसत्प्रशंसा आदि (धर्म की भूरि-भूरि प्रशंसा, उसके उत्तमफल का वर्णन आदि) धर्म बोज का वपन है, धर्म का चिन्तन मावि अङ्कुर है, मोक्ष लाभ फलप्राप्ति है। ___ धर्म का चिन्तन, धर्म के विषय में अच्छी बातों का श्रवणा, धर्मकार्य का अनुष्ठाम. देवी और मानुषी सम्पत्ति क्रम से अङ्गुर, सुपुष्ट काण्ड, नाल और पुष्प के समान है। धर्म का एक ही मुख्यफल है मोक्ष, अन्य कोई आनुङ्गिक फल वास्तविक फल नहीं है। यह *तच्च सम्यक्त्वं प्रशस्तसम्यक्त्वमोहनीयकर्मागुवेदनोपशम क्षयसमुत्थः शुभ आत्मपरिणामः प्रज्ञप्तः। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टोका एवं हिन्दी विवेचन ] शमादयश्च पञ्च-'शमः, संवेगः, 'निवेदः, अनुकम्पा, "आस्तिक्यं चेति । तत्र शमा ऋराणामनन्तानुवन्धिना कषायाणामनुदया, सच प्रकृत्या, कषायपरिणतः कटुकफलावालोकनाद् वा भवति । तदुक्तम्- [श्रा०प्र० ५५ ] * पपईए, कम्माणं नाउणं चा विवागमसुहे ति । अवरद्धे वि न कुप्पइ उपसमओ सबकालं पि ॥ १ ॥ अन्ये तु 'क्रोधकण्ट्रविषयतृष्णोपशमः शमः' इत्याहुः। कृष्ण श्रेणिकादौ चैतदभावेऽपि न क्षतिः, लिगं विनापि लिङ्गिनो दर्शनात् । संज्वलनकषायोदयाद् वा कृष्णादीनां क्रोधकण्ट्रविषयवृष्णे । भवन्ति हि संज्वलना अपि केचन कषायास्तीवतयाऽनन्तानुबन्धिसदृशविपाकवन्त इति । संवेगो-मोक्षामिलापः, सम्यग्दृशाऽहमिन्द्रपर्यन्तसुखस्य दुःखानुषङ्गाद् दुःखतयैव पर्यालोचनाद । तदाह-[ श्रा० प्र० ५६ ] भर-विबुहेसरसुक्खं दुक्खं चिय भावओ अ मण्णतो । संवेगओ ण मुक्खं मोत्तणं किंचि पत्थेइ ॥ १॥" ठोक उसी प्रकार जैसे पलाल प्रावि को त्यागकर धान्य की प्राप्ति ही कृषि का फल होता है, अत एव परिष्कृतबुद्धि से सम्पन्न व्यक्ति पर्यन्तफल-मोक्षरूप परमफल को देने वाली दर्शनरूप क्रिया को मोक्ष का मार्ग मानते हैं। कारिका में आये 'सम्यक्त्व' पद का अर्थ है प्रात्मा का सम्यगभाव । सम्यग्भाव का अर्थ है मिथ्यात्वरूपमल की निसि होकर परमनल्य की प्राप्ति ! 'तत्त्ववेवत' का अर्थ है आत्मा को वह योग्यता जिससे भगवान् से उपदिष्ट तत्त्व पर श्रद्धा का उदय हो। 'दुःखान्तकृत्' का अर्थ है प्रन्थि का भेदन कर निबिड-हबद्ध कर्मों से उत्पन्न संसार दःख का नाशक । 'सुखारम्भ' का अर्थ है सुखजनक, जिससे सुख की उत्पत्ति हो। उक्त तत्तत् अर्थ के बोधक समी शब्द जैसे मुक्तिबोज, सम्यक्त्व, तत्त्ववेदन, दुःखान्तकृत और सुखारम्भ ये 'दर्शन' शन्द के पर्याय-दर्शनशम्द के प्रतिपाच अर्थ के प्रतिपादक माने गये हैं क्योंकि ये सभी शब्द यौगिक-प्रवयवलभ्य तत्तत विशिष्ट अर्थ के बोधक होते हये भी 'दर्शन' रूप अर्थ में जसीप्रकार नियत रूढ है जैसे एवज आदि शव पङ्कजन्य अर्थ में यौगिक होते हुये भो पद्म में नियत होते हैं । ___'दर्शन' का लक्षण है शम आदि से ध्यत होने वाला आत्मा का शुभ परिणाम, जिसके संवाची आर्षवधन का अर्थ है-वर्शन सम्यक्त्वरूप है जो प्रशस्त सम्यक्त्वमोहनीय नामक कर्म के अणुवों के वेदन या उपशम अथवा क्षय से उत्पन्न आत्मा का शुभ परिणाम कहा गया है। * प्रकृत्या, कर्मणां ज्ञात्वा वा विपाकमशुभमिति । अपराध्येऽपि न कुप्यत्युपशमतः सर्वकालमपि ।। १॥ नरविबुधेश्वरसौख्यं दुःखमेव भावतश्च मन्वानः । संवेगतो न मोक्षं मुक्त्वा किञ्चित् प्रार्थयते ।। १ ।। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो० ५ निर्वेदो भववैराग्यं दुःखदौर्गत्यगहने कारागारे वसतस्तद्दुःखप्रतिकाराऽशक्तावपि तद्दुःखद्वेषलक्षणम्, तत्कृतभच सुखेच्छाविच्छेदलक्षणं वा ममत्वराहित्यम् । तदुक्तम् [श्रा०प्र०५७] "" नारय-तिरिअ-नरा- उमरभवेसु निच्वेअओ वसह दुक्खं । aarपरलोअमग्गो ममत्तविसवेगरहिओ अ ॥ १ ॥" अन्ये तु संवेग - निवेदयोरर्थविपर्ययमाहुः - 'संवेगो =भव विरागः, निर्वेदो = मोक्षा मिलापः ' इति । अनुकम्पा दुःखितेष्वपक्षपातेन दुःखप्रहाणेच्छा, पक्षपाते तु करुणा स्वपुत्रादौ व्याघ्रादीनामध्यस्त्येव । सा च द्रव्यतो भावसथ भवति । द्रव्यतः सत्यां शक्तौ दुःखप्रतिकारेण, भावत आर्द्रहृदयत्वेन । तदाह - [ श्र० प्र०५८ ] 66%. "दरण पाणिणिवहं भीमे भवसायरम्मि दुक्खतं । असिओपं दुहा व सामत्थओ कुणइ || १ ||" 463 आस्तिकथं तच्चान्तरश्रवणेऽपि जिनोक्ततस्त्वविषये निराकाङ्क्षप्रतिपत्तिः । तदाह - [ श्रा०प्र०५६ ] 'मन तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहि पद्मतं । सुपरिणामोसम्मं कखावित्तिआरहिओ ॥ १ ॥ अपरे तु “मिश्रयाभिनिवेशोपशमः शमः, संवेगः - संसारभयम्, निर्वेदी- विपयेष्वनभिष्वङ्गः, अनुकम्पा = आत्मवत् सर्वसत्वेषु सुख-दुखयोः प्रिया-प्रियत्त्र-दर्शनेन परपीडापरिहारेच्छा, आस्तिक्यम्=मगवदुक्तसूक्ष्मातीन्द्रियमावेव संभावनाविपक्षः सद्भावपरिणामः" इत्याहुरिति मयं विभावनीयम् ॥ ५ ॥ [ सम्यग् दर्शन के अभित्र्यंजक शमादि लक्षण ] परिणाम के पाँच व्यञ्जक हैं- राम, संवेग, निवेंद्र, अनुकम्पा दर्शनरूप शुभ आत्मा के सम्यग और आस्तिक्य । शम का अर्थ है - अनन्त अनुबन्धवाले क्रूर कर्मों का अनुवय, यह शम प्रकृति यानी स्वभाव से अथवा कषायपरिणाम के कटुफल के अवलोकन से उत्पन्न होता है। जैसा कि कहा गया है। अपने कि प्रकृति से अथवा कर्मों के अशुभ परिणाम के ज्ञान से उपशम होता है, उपशय प्राप्त पुरुष अपराधी पर भी कभी कुपित नहीं होता । १. नारक - तिर्यग्वरा - उमरभवेषु निर्वेदतो वसति दुःखम् । अकृतपरलोकमार्गो ममत्व विषवंगरहितश्च ॥ १ ॥ २. दृष्ट्वा प्राणिनिवत् भीभे संसारसागरे दुःखायमानम् । अविशेषतोऽनुकम्पां द्विधापि सामर्थ्यतः करोति ।। १ ।। ३. मन्यते तदेव सत्यं निःशङ्कं यज्जिनैः प्रज्ञप्तम् । शुभपरिणामः सम्यवत्वं काङक्षादिविधातसिकारहितः ॥ १ ।। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० १० टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [६५ अन्य विद्वानों के अनुसार 'शम' का अर्थ है कोषजन्य कण्डू और विषयों की सृष्णा का उपशम । कृष्ण, धेणिक आदि वर्शनसम्पन्न पुरुषों में इस शम का अभाव होने पर भी कोई क्षति नहीं है क्योंकि लिग (ज्ञापक) में लिङ्गी (जाप्य) को व्याप्ति होती है न कि लिङ्गो में लिङ्गकी व्याप्ति होती है, अतः लिङ्ग के विना मलिङ्गी को बन हाल कृष्ण आदि से राम के विना भी दर्शन का अस्तिस्व सङ्गत हो सकने के कारण दर्शन को शमादि से अभिव्यङ्ग्य मानने में कोई क्षति नहीं है । अयवा यह भी कहा जा सकता है कि कृष्णा मादि में जो क्रोध कण्ड और विषयतृष्णा है वह संज्वलन कषाय के उदय से है क्योंकि कुछ कषाय संज्वलन रूप भी ऐसे होते हैं जो तीव्र होने के कारण प्रनन्तअनुबन्धवाले कषायों के परिणामों के समान परिणाम के जनक होते हैं। कहने का आसय यह है कि क्रोधकण्ड ओर विषयतृष्णा का आत्यन्तिक उपशम सर्वविध कषायों के अनुदय से होता है, कृष्ण आदि में क्रूर कषायों का अनुदय होने पर भी संज्वलन कषाय का उदय होने से कषाय सामान्य का अनुवय नहीं है। अतः उनमें क्रोधकण्डू और विषयतृष्णा का आत्यन्तिक अभाव नहीं है किन्तु इसके न होने पर भी शम और दर्शन के लिङ्गलिङ्गभाव में बाधा नहीं हो सकती क्योंकि ऋर कषायों के उदय से होनेवाली क्रोधकण्ड और विषयतृष्णा का उपशमरूप शम ही दर्शन का लिङ्ग है और वह संज्वलन कषाय के उदय से जन्य कोधक और विषयतृष्णा होने पर भी दर्शनसम्पन्न कृष्ण आवि में विद्यमान हो सकते हैं। ___संवेग का अर्थ है मोक्ष की इच्छा, इसका उक्य इन्द्रपद की प्राप्ति से होनेवाले सुखपर्यन्त सम्पूर्णसुख में बु खानुषङ्गमूलक दुःखरूपता के ज्ञान से होता है और यह ज्ञान सम्यग् दर्शन से प्राप्त होता है, जैसा कि कहा गया है-'जो पुरुष सामान्यमनुष्य के सुख से लेकर देवेन्द्र तक के सम्पूर्ण सुख को मावत: वःख ही मानता है, वह सवेग यानी मोक्षाभिलाष से मोक्ष को छोडकर अन्य किसी वस्तु की कामना नहीं करता। निर्वेद का अर्थ है संसार के प्रति बराग्य, वैराग्य का अर्थ है संसार के नियत सहमायो दुःख के प्रति द्वेष, यह संसार दुःख और दुर्गति से भरा कठोर कारागार है उसमें निवास करने वाला मनुष्य इसके दुःख का प्रतीकार करने में यपि समर्थ न हो फिर भी उसके प्रति उसे देष तो होता ही है, उसका यह दुःखद्वेष हो संसार के प्रति उसका वैराग्य है। बराग्य शब्दार्थ के सम्बन्ध में यदि यह विमर्श हो किवैराग्यशब्द को 'विगतो रागो यस्मात्स विरागः-तस्य भावः राग्यम्-जिससे राग निवृत्त हो गया हो वह विराग है और उसका असाधारणधर्म वैराग्य है' इस पुस्पति के अनुसार उसका अर्थ रागाभाव हो सकता है न कि भावात्मकद्वेष-तो वैराग्य के सम्बन्ध में यह कहना उचित होगा कि संसारदुःख के प्रति द्वेष वैराग्य नहीं है किन्तु उस वेष से सांसारिक सुख के प्रति इच्छा का जो विभव होता है तद्रूप जो संसार में ममत्व का प्रभाव है वही वैराग्य है । कहा भी गया है कि जिसे निव-संसार के प्रति बैराग्य है किन्तु परलोक का मार्ग अप्राप्त है वह ममतारूप विष के वेग से रहित होकर नारकीय, तिर्यक , मनुष्य और वेव योनियों में दुःख से दिन काटता है। १. संज्वलनकषाय । कषाय के चार प्रकार होते हैं -अनंतानुबन्धा, २-अप्रत्याख्यानीय, ३-प्रत्याख्यानावरण, ४-संज्वलन । यहां संज्वलन पद के उपलक्षण से अप्रत्याख्यानीय और प्रत्याख्यानावरण भी समझ लेना जरूरी है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्त्ता स्त० ६ श्लो० ६ यदुक्तम्- 'किं वा न सदा सर्वदेहिनाम्' इति, तदुत्तराभिधित्सयाऽऽह--- मूलम् - अनादिभव्यभावस्य तत्स्वभावस्वयोगतः । उत्कृष्टाथास्वतीतासु नथाकर्म स्थितिध्वलम् || ६ ॥ अनादिभव्यभावस्य तत्तज्जीवसंबन्धिनोऽनादेर्भव्यत्वस्य तत्स्वभावत्वयोगतः प्रकृ こ तिवैचिश्यात् । न चैतदसिद्धम्, इतरहेतूनामपि फलविशेषे योग्यता विशेषापेक्षणात् जात्यनुच्छेदेन गुणप्रकर्षा ( १ ) भावात, अशुद्धतायामपि जास्याज्जात्यरत्नयोरिव साम्याऽसिद्धेः, अन्यथा तीर्थं कृदन्त कृत्केच लिभावादिपार्यन्तिकफल विशेषानुपपत्तेः, परम्परा हेतु बोधिलाभादेरपि तत्फलस्वात् तत्रापि स्वभावभेदावश्यकत्वात्, 'एकत्र हेतौ स्वभावभेदो नान्यत्र' इत्यभ्युपगमे च हेतुस्वभावविप्रतिषेधात् नियतस्वभावकार्यानुदयप्रसङ्गाद् योग्यतामनपेक्ष्य सदाशिवानुग्रहादिना तत्त्वधर्मप्राप्त्यादिफलविशेषशेपगमे च सर्वसाम्यप्रसङ्गात् । 2 ६६ ] कतिपय अन्य विद्वानों ने सवेग और निर्वेद का संवेग का अर्थ है संसार के प्रति वंराग्य और निबंद का होगा कारण और निर्वेद होगा कार्य। दोनों ही मतों में उलटफेर है । + परस्पर विपरोत अर्थ किया है, उनके अनुसार अर्थ है मोक्षाभिलाष, प्रतः इस मत में संवेग कोई सात्त्विक अन्तर नहीं है केवल शब्दों का अनुकम्पा का अर्थ है बिना पक्षपात के दुःखो जीवमात्र के दुःख को दूर करने को इच्छा, पक्षपात से दुःख को दूर करने की इच्छा अनुकम्पारूप नहीं कहो जाती किन्तु ऐसी इच्छा सामान्य दया में परिगणित होती है जो अपने पुत्रावि के सम्बन्ध में व्याघ्र आदि हिंस्र पशुओं को भी होती है। अनुकम्पा के वो भेव हैं - द्रव्य अनुकम्पा और भाव अनुकम्पा, शक्ति के अनुसार दुःख का प्रतीकार करना द्रव्य अनुकम्पा है, दुःख प्रतीकार का सामर्थ्य न होने पर मी दुःखी प्राणी के प्रति आहृदय होना भाव अनुकम्पा है। कहा भी गया है कि भीषण संसारसागर में प्राणिवर्ग को दःख भोगते देखकर साधु पुरुष को निष्पक्ष भाव से सामर्थ्यानुसार दो प्रकार की प्रनुकम्पा होती है। आस्तिक्य का अर्थ है अन्योपदिष्ट तत्त्व को सुनकर भी (किसी लौकिक निमित्त के अभाव में भी ) 'जिन' द्वारा उपदिष्ट तत्त्व को ही निराकांक्ष भाव से स्वीकार करना। कहा भी गया है कि जिस पुरुष में शुभपरिणाम का उदय हो जाता है वह किसी अन्य फल की प्राकाङ्क्षा या विस्रोतसिका के बिना 'जिन' के उपदेश को ही असंदिग्ध सत्य और सम्यक् मानता है । दूसरे विद्वानों ने शम आदि की व्याख्या अन्य प्रकार से की है। उनके अनुसार 'शम' का अर्थ है मिथ्या श्रभिनिवेश-भूठे आग्रह का उपशम, 'संवेग' का अर्थ है संसार से त्रस्त होना, 'निर्वेद' का अर्थ है विषयों में अनासक्ति, 'अनुकम्पा' का अर्थ है अपने सुख-दुःख के समान समस्त प्राणियों के सुख-दुख को प्रिय तथा अप्रिय जानकर अन्य प्राणियों को किसी भी प्रकार की पोडा न करने की इच्छा, और 'अस्तिक्य' का अर्थ है भगवान् से उपदिष्ट सूक्ष्म श्रतीन्द्रिय भावों में असम्भावना का विरोधी सद्भावात्मक परिणाम । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याका टोका एवं हिन्वी विवेचन ] [ ६७ न चैवं सत्त्वानां प्राग विशेष मुक्तावपि विशेषः स्यादिति वाच्यम् , कृत्स्नकर्म कार्याया मुक्तेहेत्वविशेषेणाऽविशेषान् , दरिद्रेश्वरयोः प्राग विशेषेऽप्यविशिष्टायुःचयकार्यमरणाऽविशेषवदुपपत्तेः। तआतीयादेव हेतोस्तजातीयं कार्यमुत्पधत इति परमार्थः । तत्र मुक्तत्वग्रयोजिका सामान्यतोऽभव्यच्यावृत्ता जातिभव्य त्यमिति गीयते, प्रत्यात्म तथातथापरिणामितया सम्रपाचविशेषा च तथाभव्यत्वमिति सिद्धम् । [ मोक्षोपाय सभी को सुलभ क्यों नहीं ? ] प्रस्तुत स्तबक की प्रथम कारिका में जो यह शङ्का की गई है कि यदि मोक्ष के उपाय का अस्तित्व है तो उस उपाय से समस्त प्राणियों को मोक्ष की प्राप्ति क्यों नहीं होती?-छठी कारिका इसी शडा का समाधान करने के लिये प्रवृत्त है। इसका अर्थ यह है कि जो जीव योग्य होता है वही मोक्ष का उपाय प्राप्त कर पाता है. समस्त जीयों में योग्यता न होने से सबको मोक्षोपाय सलम न हो सकले के कारण सबको मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। जोय की इस योग्यता को 'मध्यरथ' कहा जाता है । यह मध्यस्व अनाति है, इस भव्यत्व के स्वमाय बनिन्य से जीव द्रध्यलिङ्गप्रादि के प्राप्तिक्रम से उत्कृष्ट मादि कर्मस्थितियों के अतीत होने पर मोक्ष के प्रथम कारणभूत दर्शन को प्राप्त करता है । व्याख्याकार ने 'भव्यत्व' की सिद्धि के लिये कुछ युक्तियाँ वसाई हैं, उनका कहना है कि मोक्षहेतुओं के लिये ही यह बात नहीं है कि वे जीव की (उपादानकारण को) भव्यत्यरूपयोग्यता को अपेक्षा से ही मोक्ष का जनक होता है; अपितु अन्य कार्य के हेतुत्रों का भी यही स्वभाव है कि ये उपादान की योग्यताधिशेष से ही फल विशेष के उत्पादक होते हैं, क्योंकि जाति के अनुच्छेद से ही गुणप्रकर्ष होता है । जिसबस्तु में विशेषजाति-विशेषयोग्यता होतो है वही गुणप्रकर्ष का पात्रमूस होने से कार्यविशेष की प्रयोजक होती है। ___भव्य अभव्य सभी जीव यद्यपि समानरूप से संसारी होते हैं फिर भी उनमें जातीय माम्य ठोक उसीप्रकार नहीं होता जैसे मिट्टी के अन्दर पडे हुये असली नकली रत्नों में समान मालिन्य होने पर भी जातीय साम्य नहीं होता, उनके मालिन्य में अन्तर न होने पर भी उनकी जाति में अन्तर होता ही है। यह निर्विवाद है कि यदि जीवों में जातिमूलक भेद न हो तो उनमें तीयकृत , अन्तकृत केवली आदि रूप में होनेवाले अन्तिम परिणामों में भी भेद न हो सकेगा, अर्थात योग्यता तारतम्य के प्रभाव में कोई तीर्थकर, कोई अन्तकृत और कोई सामान्य केशलो नहीं हो सकता । तीर्थकरमाव आदि का परम्परया हेतु होता है बोधिलाभ उत्कृष्ट उत्कृष्टतरादि सम्यक्त्व की प्राप्ति. यह प्राप्ति भी योग्यताविशेष का ही फल है. अत: जीवगत भग्यत्व भी विचित्रस्वभाव वाला होने का अभ्युपगम न्यायप्राप्त है। यदि यह कहा जाय कि किसो एफ हेतु में स्वभाव मेव आवश्यक होने पर भी अन्यहेतु में स्वभावभेद को सत्ता में कोई प्रमाण नहीं है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर कुछ हेतुनों में हेतुस्वभाव का भी प्रतिषेध सम्भव होने से उन हेतुनों से नियतस्वभावोपेत कार्य को उत्पत्ति न हो सकेगी। यदि योग्यता को अपेक्षा किये विना सदाशिव के अनुग्रह से तस्वधर्म की प्राप्ति आवि फलों की उत्पत्ति मानी जायगी तो जीवमात्र में समानता की आपत्ति होगी, क्योंकि शिवानुग्रह सभी जीवों को सुलभ हो सकता है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रबार्ता स्त० ९ श्लो०७ तथा अलं तेन तेन द्रव्यलिङ्गाधवाप्तिप्रकारेण उत्कृष्टाचासु-त्रिंशद्-विंशति-सप्ततिकोटाकोटीसागरोपममानासूत्कृष्टासु यथाप्रवृत्तिकरणाधीनग्रन्थ्यवाप्त्ययच्छिनासु प्रत्येकमेकसागरोपमकोटाकोट्यूनासु शेषाधिकोटाकोट्यन्तःस्थितिरूपासु च कर्मस्थितिषु-जानावरण-दर्शनावरण-वेदनीपा-ऽन्तराय-नाम-गोत्र-मोहनीयस्थितिषु अतीतासु-अतिक्रान्तासु सतीषु ॥६॥ किमित्याहमूलम् तदर्शनमवाप्नोति कर्मग्रन्धि सुदारुणम् | निर्भिय शुभभावेन कदाचिस्कश्चिदेव हि |७|| कदाचित तथाभव्यत्वपरिपाककाले, कश्चिदेव हि-अधिकृतो भव्यः, सुदारुण = दुभेदम् प्रन्थिदेशं प्राप्तानामपि तत्वावल्याद् बहूना गाढकर्मणां पुनरुत्कृष्टबन्धश्रवणात् , उक्तंहि [मुक्तदशा में कोई भेदभाव नहीं होता ] यदि यह कहा जाय कि 'मुक्ति के पूर्व जोवों में लक्षण्य मामने पर मुक्ति होने पर भी उनमें वलक्षण्य होगा' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि मुक्तिमात्र सम्पूर्ण कर्मों का हो काय है प्रतः हेतु में वलक्षण्य न होने से कार्य में वलक्षण्य नहीं हो सकता। कहने का आशय यह है कि मुक्ति सम्पूर्ण को का क्षयरूप है प्रतः उसमें सम्पूर्ण कर्म प्रतियोगिविषया हेतु हैं इसलिए सभी मुक्ति संपूर्ण को से हो साध्य होने से समानहेतुक है अत एव उसमें बैलक्षण्य को सम्भावना कथमपि नहीं हो सकती। प्रत्युत, जैसे निर्धन और धनपति में मत्यु के पूर्व बलक्षण्य होने पर भी आयुःकर्म के क्षयरूप अविशिष्ट कारण से होनेवाले उनके मरण में कोई लक्षण्य नहीं होता उसोप्रकार मुक्ति के पूर्व संसारी जीवों में बलक्षण्य होने पर भी उनकी मुक्ति में वैलक्षण्य नहीं हो सकता क्योंकि सभी जोयों की मुक्ति समानतक होती है। अतः सत्य यही है कि तत्तज्जातीय कारण से ही तसज्जातीय कार्य की उत्पत्ति होती है । मुक्ति को प्रयोजक है भव्यत्व जाति जो मुक्ति गमन योग्य सभी जीवों में रहती है और अभब्य जीवों में नहीं रहती। प्रत्येक भव्य जीव के भिन्न भिन्न परिणाम होते हैं और उन परिणामों से प्रत्येक जोय में लक्षण्य होता है इस बलक्षण्य के अनुरोष से प्रत्येक भध्य जीव में भिन्न भिन्न प्रकार का भष्पस्य सिद्ध होता हैउसीको तथामध्यस्व कहते हैं । भम्पत्य मुक्तियोग्य जीव मात्र में रहनेवाली एक व्यापक जाति है और सयाभव्यत्व विभिन्न भव्य जीवों में रहनेवाली अवान्तर जाति है ऐसा भी कह सकते हैं जैसे कि घटत्व पौर तद्घटस्व। भव्य जीव सम्यगदर्शनप्राप्ति के पूर्व अनन्तशः द्रव्यलिंग को प्रहण करता है। ऐसा करते परमयथाप्रवृशकरण के अध्यवसाय से प्रन्थिदेश को प्राप्त करते हुए जब मोहनीयकर्म की ७० कोटीकोटीसागरोपमप्रमित वीस्थिति, ज्ञानाबरणा-दर्शनावरण-वेवतीय और अंतराय की ३० कोटाकोटोसागरोपमप्रमित स्पिति और नाम-गोत्र कर्मयुगल को २० कोटाकोटीसागरोपमप्रमित स्पिति का ह्रास होकर सभी कर्मों की स्थिति एक कोटाकोटीसागरोपम से भी कुछ न्यून जय हो जाती है, (तभी उस प्रन्धि का भेवन करके कोई एक भव्य जीव सम्यगदर्शन को प्राप्त करता है, इतना प्रप्रिम कारिका के साथ सम्बन्ध है।) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या०० टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [ ६९ "ग्रन्थिदेशं तु संप्राप्ता रागादिप्रेरिताः पुनः । उत्कृष्टबन्धयोग्याः स्युश्चतुर्गतिंजुषोऽपि ते ॥१॥" अन्थि-काष्ठादेरिवात्मनः सुदृढकठिनपरिणामम् , उपतं हि गठि ति सुदुम्मेओ कक्खडघणरूढगूढगंठिन्छ । जीवस्स कम्मणिओ घणरागहोसपरिणामो ॥ १ ॥" [वि॰आ०मा० ११६२] शुभभावेन=परमवीर्योल्लासजनिताऽपूर्वकरणरूपेण, निर्मिध अतिक्रम्य,-अनिवृतिकरणादन्तरकरणे कृते सत्यग्रे वेदनीयस्य मिथ्यात्वस्य विरलीकरणादान्तमु हतिकं तत-आग्निरूपितस्वरूपम्, दर्शन-सम्यक्त्वम् अवाप्नोति । इदं च प्राथमिकमौपशमिफसम्यक्त्वमभिधीयते, मिध्यात्वस्यानन्तानुबन्धिनां च भस्मच्छमाग्निवदुपशमात् । तदुक्तम्५२उक्सामगसेढीमयस्स होइ उत्सामियं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुंजो अखवियमिच्छो लहड सम्म ॥१॥" इति [ वि० आ० मा० ५२६ ] ___ इदमेव हि प्रथमो मोक्षोपायः । उक्तं -[ "यमप्रशमजीवातु बीजं ज्ञान-चरित्रयोः । हेतुस्तपःश्रुतादीनां सदर्शनमुदीरितम् ॥ १॥" इति ।। [प्रथम सम्यग्दर्शन के प्रादुर्भाव की शेष प्रक्रिया ] ७वीं कारिका में यह बताया गया है कि कर्म को उत्कृष्ट प्रादि स्थितियों के अतीत होने पर क्या होता है । कारिका का अयं इस प्रकार है तथाभण्यस्व के परिपाक का समय आने पर कोई एक अधिकृत भष्यजीष दुर्भध कर्भग्रन्थि का शुभमाव से भेवन कर मोक्षोपयोगी वर्शन को प्राप्त करता है । जीव को कर्मप्रन्थि दुर्भध होती है। शास्त्रों में ऐसा सुना जाता है कि-'जीव प्रतिपदेश को प्राप्त होकर भी राम आदि की प्रेरणा से पुन: उस्कृष्ट बन्ध के योग्य होते हैं तथा नारक, तिर्यक, मनुष्य और देव इन चार योनियों में प्रावुत होते हैं। प्रन्थि का अर्थ है-प्रात्मा में राग-द्वेष का एक विशेष परिणाम जो काष्ट मादि के समान दृढ और कठोर होता है। कहा भी गया है कि-'मन्यिजीव का कर्मजन्य रागषात्मक दृढ परिणाम है ओ मस्यन्त दृढ तथा कठोर गूढ प्रन्थि के समान दुर्भेध होता है !' इस कर्मग्रन्थि का मेदन जीष के शुभ भाव से होता है। शुभमाव का अर्थ है अपूर्वकरण जो परमवीर्य के उल्लास से सम्पन्न होता है। कर्मग्रन्थि के मेवन से वशन-सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। १. अन्थिरिति सुदुर्भदः कर्कशवनरूहगूढनन्थिरिव । जीवस्य कर्मजनितो धनराग-देषपरिणामः ॥१॥ २. उपशमश्रेणिगतस्य भवत्यौपशमिकं तु सम्यक्त्वम् । यो वाऽकृतत्रिपुडजोऽक्षपितमिथ्यात्वो लभते सम्यक्त्वम् ।। ३. अपूर्वकर पा – अनादिसंसार में अभूतपूर्व शुभ अध्यवसाय । ४. परमवीर्यसमुल्लास - आत्महित का ओर प्रगति का भारी आंतरिक उल्लास । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता स्त०६ श्लो०७ इत्थं च यदुक्तम्- ' तथा चाऽपकृष्टस्थितिकादिस्वभावतः इत्यादि, तन्निरस्तम् ; यथाप्रवृत्तिकरणाद्यर्जितापकृष्टस्थितेर भव्यादिष्वपि संभवेऽप्यपूर्वकरणादिकृतान्यकर्म स्थितेरन्यत्रासंभवात् । यदपि 'किञ्च, एवं दर्शनादेः' इत्याद्युक्तम्, सवष्ययुक्तम्, अपूर्वकरणादिरूपप्रयत्नसाध्यत्वाद् दर्शनस्य, मोक्षतदुपाययोः पुरुषकृत्यसाध्यत्वाऽयोगात्, मल्लप्रति मल्लोषमयोजीवकर्मणोरेकशक्तिपराभवादन्यशक्त्युद्रकात प्राककर्म सामर्थ्याभिभूतत्वेऽपि तदा जीवपराक्रमप्राबल्यात् । यते चैतद्योगाचार्यैरपि विशिष्टाद्यकरणादीनां प्रवृत्त्यादिशब्दवाच्यतया " प्रवृत्ति पराक्रम - जयाऽऽनन्द-ऋतम्भरभेदः कर्मयोगः" इति श्रवणात् । प्रवृत्तिश्चरमयथाप्रवृत्तिकरण शुद्धिलक्षणा, पराक्रमेण - अपूर्व करणेनेत्यर्थः, जयः = प्रतिबन्धाभिभवोऽनिष्षृतिकरणमित्यर्थः, आनन्दः सम्यग्दर्शन लाभरुषः, ऋतम्भरः सम्यग्दर्शनपूर्वको देवतापूजनादिव्यापारः, प्रवृत्यादयो भेदा यस्य स तथा कर्मयोगः - क्रियालक्षणः, कर्मग्रहणमिच्छालक्षण प्रणिधानयोगव्यच्छेदमिति । ७०] ► सभ्यश्व का स्वरूप पहले बताया जा चुका है, वह 'आन्तर्मु हतिक होता है- अन्तर्मुहुर्तकाल तक स्थिर रहता है, वह अनिवृत्तिकरण से 'अन्तरकरण हो जाने पर वहां आगे के उत्तरकाल में datta former के विरलीकरण से यानी मिध्यात्वक मंदलिक शून्यावस्थाकाल से अदभूत होता है । इस सम्यक्त्व को प्रथमभावी औपशमिक सम्यक्त्व कहा जाता है, क्योंकि यह मस्मा अग्नि के समान मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी कर्मों के उपशम मात्र से सम्पादित होता है। कहा भी गया है कि- 'उपशमश्रेणि में गये जीव को प्रौपशमिक सम्यक्त्व होता है अथवा मिध्यात्व का क्षय न किया हो और उसके तीन पुंज-तीन अवस्था ( शुद्ध-अशुद्ध-अशुद्ध ) न की गयी हो उस दशा में पुरुष इस सम्यक्त्व का लाभ करता है।' यह सम्यक्त्व ही मोक्ष का प्रथम उपाय है। कहा भी गया है कि सदर्शम सभ्यवश्व, यम और प्रशम का प्राण है, ज्ञान और चारित्र का बीज है तथा तप, श्रुत प्रावि का कारण है । [ अपेक्षित कर्मस्थितिहास सर्व जीव में असम्भव ] तीसरी कारिका की व्याख्या में जो यह शङ्गा की गई थी कि अपकृट स्थिति वाले कर्म से यदि मोक्षोपाय के अनुकूल परिणाम प्राप्त करेगा तो अभव्यजीवों को मो मोक्षोपाय की प्राप्ति सम्भव हो जाएगी' वह शंका उक्त रूप से मोक्षोपाय की प्राप्यता का प्रतिपादन कर देने से निर्मूल हो जाती है, क्योंकि यथाप्रवृत्तकरण से अभव्य आविजीवों में कर्म की अपकृष्टस्थिति का सम्पादन हो जाने १. अन्तर्मुहूर्तिक एक मुहूर्त के अन्दर पूर्ण हो जाने वाला । २. अनिवृत्तिकरण पुन उग्र रागद्वेष की दशा में न गिरे ऐसा अध्यवसाय ३. अन्तरकरण - मिथ्यात्व की स्थिति को दो भाग में बांट कर बीच में मिथ्यात्र मोहनीयकर्म का एक भी कर्मदलिक न रहे ऐसी शुन्यावकाश अवस्था । ४. यथाप्रवृत्तकरण ग्रन्थिदेश प्रापक सामान्य अध्यवसाय | Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका एवं हिन्दीविवेचन ] यदप्युक्तम्-'अपि च, प्रथमं निगुणस्यैव सतो गुणावातावणेऽपि किं गुणापेक्षया ?' इति; रुपपि न सम्पुरम् , पूर्वगुजदलापेक्षयोत्तरोत्तरगुणोपचयसिद्धेः, उपादानोपचयं विनोपादेयानुपचयात । अत एवोत्कृष्ट स्थितेराप्रन्धिप्राप्ति पूजाभिलाषादिना 'भवतामपि शुश्रषादीनां न गुणत्वम् , पूर्वोत्तरभावेन गुणक्रमाननुप्रविष्टतया फल(राज)प्राप्तः, विषयविषाभिलापमुख्यहेतुलोकोत्तरभाषामृतास्वादरूपतथाक्षयोपशमवृद्धयाख्ययोग्यताकल्यान् । सत्यां च तत्त्वचिन्तायां प्रादुर्भवतामेतेषां प्रतिगुणमनन्तपायपरमाण्वपगमेन तत्वज्ञानफलयोगात तवतो गुणत्वम् , बाझाकृतिसाम्येऽपि फलभेदादुक्तविशेपोपपत्तेः । इष्यते चैतदन्यैरपि; तदाहायधूताचार्य:'नाऽप्रत्ययानुग्रहमन्तरेण तत्त्वसुश्रुषादयः, उदकपयोऽमृतकल्पज्ञानाऽजनकत्वाद , लोकसिद्धास्तु सुप्शनृपाख्यानगोचरा इवान्यार्था एव' इति।। पर भी अपूर्वकरण आदि से अभव्य में कर्म की अपेक्षित अल्पस्थिति का सम्पादन नहीं होता और वास्तव में अपूर्वकरणादिकृत अल्पस्थिति ही मोक्षोपाय की प्राप्ति में सहायक होती है । इसी सन्दर्भ में यह भी शङ्गा को गई थी कि-'दर्शन मादि मोक्षोपाय को स्वभावजन्य मानने पर वह पुरुषप्रयत्न से साध्य न हो सकेगा अतः पूर्वपक्षी की ओर से अ य दाशनिकों के प्रति मोक्षोपाय के लिये पुरुष प्रयत्न के वैफल्यापतिहप जिस दोष का उदभाबन किया जाता है उसका परिहार जैन के सिद्धान्त पक्ष में मो न हो सकेगा किन्तु यह शङ्का भी निराधार है क्योंकि मोक्ष का उपायभूत दर्शन, पुरुष के अपूर्वकरण आदि प्रयत्न से साधित होता है। अतः मोक्ष और मोक्षोपाय में पुरुष प्रयत्न को प्रसाध्यता नहीं है। प्रत्युत, जैसे मल्ल और प्रतिमल्ल में एक की शक्ति का ह्रास होने पर अन्य की शक्ति का उत्कर्ष होता है उसी प्रकार जीव और कर्म में एक की शक्ति का अपचय होने पर दूसरे को शक्ति का उपयय होना उचित हो है । दर्शन के उदय होने के पूर्व प्रचारमावर्शकाल में यद्यपि कम हो बलवान होता है किन्तु चरमावर्तकाल में जीव का पराक्रम ही कर्मशक्ति को अपेक्षा प्रबल हो जाता है। योगाचार्यों को भी यहो मान्य है क्योंकि शास्त्र में प्रवृत्ति आदि शब्दों से, बिशिष्ट आध करण आदि का ही प्रवण होता है, जैसा कि एक प्रामाणिक वचन इस तथ्य को स्पष्ट रूप से इस प्रकार प्रतिपादित करता है कि प्रवृत्ति, पराक्रम, जय, मानन्द और ऋतम्भर ये कर्मयोग के भेद हैं। यहाँ जैनदर्शन के अनुसार प्रवृति का अर्थ है अन्तिम यथाप्रवृत्त करण रूपा शुद्धि । पराक्रम का अर्थ है अपूर्वकरण, जय का अथ है प्रतिबन्ध का अभिमव जिसका तात्पर्य है अनिवृक्तिकरण, प्रानन्द का अर्थ है सम्यग दर्शन का लाभ और ऋतम्भर का अर्थ है सम्यग्दर्शन पूर्वक वेयपूजन प्रादि कर्म, ये सब कमयोग के भेद हैं । कर्मयोग का अर्थ है क्रियात्मक योग, प्रवृत्ति आदि को योगमात्र न कह कर कर्मयोग कहकर यह सूचित किया गया है कि इच्छात्मक प्रणिधानरूप योग को यहां बात नहीं है किन्तु किया योग की वात प्रस्तुत है । १. भवतां विद्यमानानाम् । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ 1 [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो०७ विषयतृडपहायब विज्ञप्त्याख्यसम्यग्दर्शनरूपं ज्ञानम् नान्यत् , अभक्ष्याऽस्पर्शनीयन्यायेनाऽज्ञानत्वात् । तत्र विचिदिपाख्या तत्वचिन्ता हेतुः, तत्र सुखाख्यः सानुबन्धः क्षयोपशमः, तत्र श्रद्धाख्या तत्त्वरूचिश्चक्षुगुणस्थानीया । तत्र चेहलोकादिभयप्रतिपक्षो धृत्याख्यश्चेतःस्वास्थ्यपरिणामः, इति सम्यग्दर्शनगुणस्य श्रद्धादिगुणवतैशवाप्तेर्न मोझोपायस्य प्रथमं निगुणेनैव सताऽवाप्तवं सिद्धमस्ति । श्रद्धादौ धृत्यादेविशिष्य हेतुत्वेऽपि धृत्याद्यनुगतविशिष्टगुणत्वाबच्छिन्नेऽपुनर्बन्धकयोग्यताया हेतुत्वाद् न व्यभिचारः। उक्तं च भगवद्गोपेन्द्रणापि-- 'निवृत्ताधिकारायां प्रकृती धृतिः श्रद्धा सुखा विविदिषा विज्ञप्तिरिति तत्त्वधर्मयोनयः, [ पूर्वपूर्वगुणसम्पदा से उत्तरोत्तर गुणवृद्धि ] इस सन्दर्भ में ही यह भी शडा की गई थी कि-जब पहले निर्गुण को ही गुण को प्राप्ति होती है, सब बाद में भी गुणप्राप्ति के लिये पूर्व गुण की अपेक्षा क्यों को जाय ?' किन्तु यह शङ्का भी समीचीन नहीं है क्योंकि पूर्व गुणों की अपेक्षा से ही उत्तर उत्तर गुणों को समृद्धि होती है, क्योंकि उपादान के उत्तरोत्तर उपचय के विना उपविय का उत्तरीसर उपचय नहीं होता। इसीलिये उत्कृष्टस्थिति से लेकर प्रन्थि देश की प्राप्ति तक पूजामिलाष प्रादि से होनेवाले शुश्रूषा आदि को गुण नहीं माना जाता, क्योंकि पूर्वोत्तरभाष के गुणक्रम से अनुप्रविष्ट न होने से उन से फल की प्राप्ति नहीं होती। उमसे फलप्राप्ति न होने का यह भी कारण है कि पूजाभिलाष आधि से शुश्रूषा आदि होने पर भी क्षयोपशमवृशि रूप फलोत्पादक योग्यता नहीं होती। इस योग्यता के न होने का कारण यह है कि विषय-विष की कामना को निवृत्त करने वाले लोकोत्तर भावरूप अमत का प्रास्वाद पूजामिलाषगभित शुश्रुषादि में नहीं होता। किन्तु जब तत्त्वचिन्ता-तत्त्वजिज्ञासा होने पर शुश्रुषा आदि होते हैं तब अनन्त पापपरमाणुओं की निवृत्ति होने से प्रतिगुण में तत्त्वज्ञानरूप फल का सम्बन्ध होता है, अत: तत्त्वचिन्तामूलक शुश्रूषा आदि तत्त्वत: गुणरूप होते हैं। यद्यपि पूजाभिलाष प्रावि से होनेवाले शुश्रषा आदि तथा तत्त्वचिन्ता से होनेवाले शुभषा आदि में बाह्याकार की दृष्टि से साम्य है तथापि फलभेद से उनमें अग्रणहपता एवं गुणरूपता मुलक भेद हो सकता है। यह बात अन्य f मान्य है ! जिसे अवधूताचार्य ने यह कह कर सूचित किया है कि-तत्वमूत शुश्रूषा आदि अप्रत्ययानुग्रह के बिना नहीं होते क्योंकि वे जल, दुग्ध, और अमृत के समान शोधक, पोषक तथा अमरत्वसम्पादक ज्ञान के जनक नहीं होते । अप्रत्ययानुग्रह का अर्थ है अप्रत्यय का साहाय्य उस का योगलम्य अर्थ है प्रत्ययत्व-कारणत्व का विरोधी ज्ञानावरणादिकों में विद्यमान आवरणकारणता का विरोधी होने से अप्रत्यय का अर्थ है कर्मों का क्षयोपशम । उसके प्रसन्निधान में सस्वशुश्रूषा आदि से तत्त्वज्ञान का उबंध नहीं होता, इसीलिये ऐसी तत्त्वशुभषा शास्त्रदृष्टि से गुणरूप नहीं हाती, किन्तु लोक दृष्टि में यह भी तत्वशुश्रूषा तो है ही अतः यह तत्त्वज्ञान जनक गुणरूप न होने पर भी पूजा आदि अन्य प्रयोजन का साधक ठीक उसी प्रकार होती है जैसे सुप्तनृप के आख्यान की शुश्रूषा नप को उसके ज्ञान के प्रभाव में नपानुग्रहरूप फल का जनक न होने पर भो नृपजनों की प्रीति सम्पादन द्वारा सामान्यप्रयोजन का साधक होती है । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [७३ नानिवृत्ताधिकारायां, भवन्तीनामपि तद्पताऽयोगात' इति । 'नच निश्चयत आधगुणावाप्तिरपि निगुणस्यैव, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरक्येन गुणाप्तिकाल एव गुणवत्वसिद्धः, हेतु-फलयोः पूर्वापरभावस्याऽतन्तगाद, भरमशाग एन लोपहिराहेरगपाल, दीर्घक्रियाकालभ्रान्तेयंत्रहारवासनानिमित्तत्वात् इत्यपि वदन्ति । [प्रथम सम्यग्दर्शन भी निगुण को प्राप्त नहीं होता ] विषयतृष्णा का निवर्तक ही विज्ञप्ति नामक सम्यग्दर्शनरूप ज्ञान है और जिससे विषयतृष्णा निवृत्त न हो वह मान नहीं, अज्ञान है, यह ठीक उसी प्रकार है जैसे क्षुधा का निवर्तक हो भक्ष्य और क्षुधा अनिवर्तक अभक्ष्य एवं अशुद्धि का निवर्तक हो स्पर्शनीय और अशुद्धि का अनिवर्तक ही अस्पर्शनोय होता है । तत्त्वचिन्ता, जिसका दूसरा नाम है विविदिषा-तत्वजिज्ञासा, वही दर्शनरूप ज्ञान का कारण है 1 तत्त्वचिन्ता का कारण है सानुबन्धक्षयोपशम, जिसको अध्यात्म शास्त्रीय अन्य संज्ञा है सुख । क्षयोपशम का कारण है तत्त्व विषयक रुचि जिसे श्रद्धा कहा जाता है और ओ चक्षु के निर्मलतादि गुण के जेसी होती है । तस्वरुचिका कारण है चित्त का स्वास्थ्यपरिणाम जिसे धुति कहा जाता है और जो ऐहलौकिक भय का विघटक है। इस प्रकार यह सिद्ध है कि सम्यगदर्शनरूप गुण श्रद्धा आदि गुणों से युक्त पुरुष को ही प्राप्त होता है, अत: यह कहना प्रसङ्गत है कि प्रथमतः निगुण को हो मोक्षोपाय की प्राप्ति होती है। 'अपुनबन्धकभावरूप योग्यता श्रद्धा आदि विशेष गुण का कारण न होकर श्रद्धा आदि में अनुगतषिशिष्टगुणत्व धर्म से अवच्छिन्न विशिष्ट गुणसामान्य का कारण है अत: अति प्रादि के अभाव में अपुनर्बन्धकयोग्यता से श्रद्धा आदि की उत्पत्ति न होने पर भी अन्वयष्यभिचार नहीं होता। ति धादि के अभाव में अनुपर्धन्धकयोग्यता मात्र से विशिष्टगुणसामान्य की उत्पत्ति न होने से विशिष्टगुणसामान्य के प्रति भी उसकी कारणता में व्यभिचार नहीं हो सकता क्योंकि सामान्य कार्य की उत्पत्ति में विशेषकार्योत्पादक की अपेक्षा होने से श्रद्धा आदि विशेष कार्य के उत्पादक अति आदि के प्रभाव में विशिष्टगुणसामान्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती, मतः अपुनबंधक भाष को, श्रद्धा आदि गुणविशेष के प्रति कारण न मानने से और विशिष्टगुणसामान्य का गुणविशेषकारण की अपेक्षा से ही उत्पादक मानने से विशिष्टगुण के प्रति उसकी कारणता में व्यभिचार को प्रसक्ति नहीं हो सकती। भगवान् गोपेन्द्र ने भी कहा है कि प्रकृति का अधिकार निवृत्त होने पर धृति, श्रद्धा, सुखा, विविदिषा और विज्ञप्ति तत्वधर्म के जनक होते हैं, किन्तु प्रकृति यदि निवृत्ताधिकार नहीं होती तो ये तत्त्वधर्म के जनक नहीं होते क्योंकि उस स्थिति में ये गुणरूप नहीं होते। ___ यह भी ज्ञातव्य है कि आद्यगुण को प्राप्ति भी निर्गुण को ही नहीं होती क्योंकि क्रियाकाल और निष्ठाकाल अर्थात् गुणप्राप्ति का प्रारम्भ काल और गुणप्राप्ति की सिद्धता के काल में ऐक्य होने से गुणप्राप्ति काल में ही गुणवत्ता की सिद्धि हो जाती है। हेतु और फल का पूढेसरभाव हेतु से १. अपुन बन्धकयोग्यता-उत्कृष्ट कर्मबंध जनक अध्यवमाय की सर्वथा निवृत्ति । २. गोपेन्द्र--एक सांख्य दार्शनिक । - --. -.-.-... Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो. ७ यदप्युपन्यस्तम्-'अपि च, सर्वमुक्तिसिद्धान्तो नास्ति जैनानाम'-इत्यिादि तदपि न मनोहरम् , अभव्यत्वरूपस्याऽयोग्यत्वस्य भव्या-ऽभव्यत्वशङ्कयैव निवृत्तेः, तस्यास्तद्व्याप्यत्वेन शास्त्रे बोधनाव ; तदुक्तमाचारटीकायाम्-'अभव्यस्य भव्याऽभव्यत्वशङ्काया एवाभावात्' इति । एतेन "सिद्धौ या संसार्यकस्वभावा एव केचिदात्मान इति स्थिते अहमेव यदि तथा स्या तदा मम विपरीतप्रयोजनं परिव्राजकत्व” इति शङ्कया न कश्चित् तदर्थं ब्रह्मचर्यादिदुःखमनुभवेत्" इत्युदयनोक्तं प्रत्युक्तम् । न च दीर्घतरसंसारस्थितिकन्वरूपाऽयोग्यत्त्वशङ्कयाऽपि प्रवृत्तिप्रतिरोधः, विषयसुखवैराग्य-यथाशक्तिप्रवृत्तिभ्यामेव तदभावव्याप्याऽऽसबसिद्धिकत्वनिश्चयात् , तयोरासन्नसिद्धिकत्व व्याप्यत्वेन शास्त्रे वोधात् तथा च श्रुतकेवलिवचनम् " आसत्रकालभवसिद्धिअस्स जीवस्स लक्खणं इणमो। विसयसुहेसु ण रजइ सवत्थामा उखमइ ।। १ ॥" प माला-२६० ] फलोत्पत्ति का प्रयोजफ नहीं होता क्योंकि अन्तिमक्षण में ही फलोपहित हेतु का अस्तित्व होता है । क्रियाकाल-किसी वस्तु को जन्म देनेवाली क्रिया-हेतु व्यापार का काल लम्बा होता है, यह बद्धि भ्रमरूप है जो इस प्रकार के व्यवहार से उत्पन्नवासनारूप निमित्त से उत्पन्न होती है, सत्य यह है कि हेतु अपने अन्तिम क्रियाकाल में ही वस्तु का उत्पादक होता है अतः कार्योस्पादक क्रिपा और कार्य जन्म में कालभेद नहीं होता । [ भव्यत्व की शंका से योग्यता का निर्णय ] उक्त सन्धर्भ में ही जो यह शङ्का की गई है कि-'जनों को सर्वमुक्ति का सिद्धान्त मान्य न होने से प्रतिव्यक्ति को अपनी मुक्ति में सन्देह होने के कारण मोक्षोपाय के अनुष्ठान में किसी मनुष्य की प्रवृत्ति न होगी'-यह माङ्का भी उचित नहीं है क्योंकि जिस व्यक्ति को अपने सम्बन्ध में भव्यत्व प्रभव्यत्व की शङ्का होगी, उसके भव्यत्वरूप योग्यता की सिद्धि इस शङ्का से हो सम्पन्न हो जायगी, क्योंकि शास्त्र में अभव्यत्व की शङ्काको भव्यत्व का व्याप्य कहा गया है। आचाग की टीका में कहा भी गया है कि अभव्य को 'मैं मध्य हूँ या अमव्य' ऐसी शङ्का हो नहीं होती। कुछ जीव एकमात्र संसारिस्वभाव ही होते हैं इस जैन सिद्धान्त के विरोध में उदयमाचार्य ने जो यह कहा है कि-'इस सिद्धान्त को मानने पर संन्यासग्रहण के लिये उत्सुक व्यक्ति को भी यह शङ्का हो सकती है कि कवाचित मैं भी वही हूँ जिसका सदा संसारी रहना ही स्वभाव है, अतः संन्यासग्रहण से मेरा जोबन सुखी होने की अपेक्षा दुःखमय हो हो सकता है, फलतः ब्रह्मचर्य आदि का क्लेश स्वीकार करने में किसी को भी प्रवृत्ति न हो सकेगी।'-किन्तु उक्त युक्ति से यह कथन भी निरस्त हो जाता है क्योंकि सदा संसारी रहना ही जिसका स्वभाव है उसे उक्त प्रकार को शङ्का ही नहीं हो सकती, वह तो सर्वदा संसार में हो आसक रहता है, उसे ऐसी शङ्का के लिये अवकाश ही कहाँ है ! ? ---- १. आसन्नकालभवसिद्धिकस्य जीवस्य लक्षणमिदं तु । विषयसुखेषु न रज्यति सर्वस्थाम्ना उद्यच्छते ॥१॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टोका एवं हिन्वीविवेचन ] [ ७५ न च तथाप्रवृत्तौ तच्छानिवृत्तिः, तस्यां च संपमायां प्रतिबन्धकाभावसाम्राज्यात् तथा प्रवृत्तिरित्यन्योन्याश्रय इति शङ्कनीयम् , पूर्वप्रवृत्तेः कोट्यस्मरणादिसिद्धसंशयाभावादेवोपपत्तेः, प्रवृत्तेरिव प्रवर्तमानजातीयत्वस्याप्यासन्नसिद्धिकत्वव्याप्यन्वाद् वा । वस्तुतः शमादिलिङ्गैरपुनबन्धकत्यरूपयोग्यतानिश्चयाद् न दोषः, अपुनन्धकतानियतभवव्यवधानज्ञानस्याऽप्रतिबंधकत्यात , तद्भाव स्थितिहेतुदुरितानां सत्प्रवृत्तिनाश्यत्वेन प्रत्युत नाशार्थिप्रवृत्तौ नाश्यनिश्चयीभृयानुगुणत्वात अनतिशयितशमादिना प्रत्युत्तरमनिशयितशमादिसंपत्तश्च नान्योन्याश्रयः । यत्तु 'शमादावपि संसारित्वेनैव स्वरूपयोग्य स्वाद मुक्तावपि संसारिस्वेन तत्त्वम्' इति गङ्गेशाकूतम् , तद् न पूतम् , नित्यज्ञानादिमद्भिन्नत्वरूपसंसारित्वापेक्षया भव्यत्वस्यैव लघूभृनस्य पौचिस्मा , समुस्मिनिरासाच । हमारी संसारस्थिति सम्भवतः अभी अत्यधिक दीर्घकाल तक रहने वाली है', मोक्षाऽयोग्यत्व की ऐसी डर से भी मोक्षोपाय के अनुष्ठान में प्रवृत्ति का प्रतिरोध नहीं हो सकता, क्योंकि विषयसुख के प्रति बैराग्य और यथाशक्ति प्रवृत्ति से सिद्धि को निकटता का निश्चय हो जाता है । सिद्धि की निकटता उक्त अयोग्यता के अभाव का व्याप्य है प्रतः सिद्धि की निकटता का निश्रय होने पर उक्त अयोग्यता के अभाव का निश्चय हो जाने से उक्त अयोग्यता की शङ्का ही नहीं हो सकती। विषयवैराग्य और यथाशक्ति प्रवृत्ति से सिद्धि को निकटता का निश्चय निर्वाधरूप से सम्पन्न हो सकता है, क्योंकि शास्त्र में उक्त दोनों को सिद्धि पद को निकटता का श्याप्य कहा गया है । इस बात में 'श्रुतफेवली का यह वचन साक्षी है कि जिस पुरुष को सिद्धि निकटकाल में होने वाली होती है उसका लक्षण यह होता है कि वह विषयसुख में आसक्त नहीं होता और अपनी शक्ति के अनुसार वह उधम किये बिना नहीं रहता। विषयवैराग्य व तदनुरूप प्रवृत्ति इन दोनों से सिद्धि की योग्यता निश्चित हो जाती है। यदि यह शङ्का की जाय कि-'शुभ कर्मों में यथाशक्ति प्रवृत्ति होने पर प्रयोग्यत्व शङ्का की निवतियोगी और अयोग्यस्य श डा को नियत्ति होने पर प्रतिबन्धकामाद के सम्रिधान से । प्रवृत्ति होगी अत: उक्त समाधान अन्योन्याश्रय दोष से ग्रस्त है।'-तो यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि उक्त अयोग्यता और उसका प्रभाव इस कोटिद्वय के स्मरणरूप कारण के अभाव आदि से अयोग्यत्व संशय की उत्पत्ति न होने से संशय के पूर्व प्रवृत्ति के होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि जैसे प्रवृति पासप्रसिद्धिकत्व का व्याप्य है उसीप्रकार प्रवर्तमानजातीयत्व भी प्रासप्रसिद्धिकत्व का व्याप्य है, अत: प्रवृत्ति न होने पर भी प्रवर्तमान अन्य पुरुष के सादृश्य निश्चय से अयोग्यत्व शङ्का की निवृत्ति होकर शुभकर्म में अपनी प्रवृति हो सकती है। इस समाधान में अन्योन्याश्रय की सम्भावना न होने से यह समाधान नि:शंक ग्राह्य है। [भवस्थितिकारक दुरित का ज्ञान उसके नाश में सहायक | सस्य लो यह है कि जिस पुरुष में शम आदि का प्रादुर्भाव होता है उसमें शम यादि सम्यक्त्व १. श्रुतकेवली-श्री धर्मदासगणिमहाराज। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता स्स० ६ श्लो०७ । किञ्च, सर्वमुक्तिसत्त्वेऽपि परस्य कथै पारित्रज्यादौ प्रवृत्तिः, स्वप्रयत्नं विनैव महाप्रलये भर्गप्रयत्नात् तदुपपत्तिसंभवात् ? ! शीघ्रमुक्त्ययं तत्प्रवृत्तौ चाऽकामेनापि पा रसायो गताः वच्छेदकं किश्चिद् वक्तव्यम् , तदेव चास्माकमपुनर्बन्धकत्वम् । अथात्मनैव मुक्ती स्वरूपयोम्यता, ईश्वरे विशेषसामग्र्यमावाश्च नातिप्रसङ्गः, शीघ्र मुक्तिहेतूपनिपाताच्च शीघ्रमुक्तिरिति शीघ्रमुक्तिस्वस्यार्थसिद्धत्वाद् न तत्स्वरूपयोग्यतावच्छेदकं किश्चित् कल्पनीयमिति न दोष इति चेत् ? न, उपादानस्वभावाऽविशेषेऽर्थसिद्धस्याप्युपादेयविशेषस्यानुपपत्तेः, अतिप्रसङ्गात् , 'कस्यचित् कदाचिदेव पारिव्रज्यादी प्रवृत्तिः" इति नियमस्य हेतुविशेष बिनाऽनिर्वाहाद ; 'अदृष्टविशेषस्तद्धेतुः' इत्युपगमेऽपि नामान्तरेणाऽपुनर्वन्धकत्वाङ्गीकारादिति सर्व मतदातम् ।। ७ 11 के लक्षण एवं अपुनर्बन्धकत्व के लिङ्गों से अपुनबंधकरवरूपयोग्यता का निश्चय हो जाता है अतः मोक्षोपाय के अनुष्ठान में प्रवृत्ति की अनुपपत्तिरूप दोष नहीं हो सकता। अगर कहें 'अनुपबन्धकता से नियत मघव्यवधान का ज्ञान होगा और वह प्रवृत्ति में प्रतिबन्धक होगी' तो यह ठीक नहीं, क्योंकि मोक्षोपाय के अनुष्ठान की प्रवृत्ति का यह प्रतिबन्धक नहीं होता, प्रत्युत उक्त मस्थिति के हेतुभूत पापकर्म सत्प्रवृत्ति से नाश्य होने के कारण नाश्य निश्चयों के विषय रूप होने से नाशार्यो की प्रवृत्ति के अनुकूल होता है। कहने का आशय यह है कि जिस पुरुष में उत्कृष्ट स्थिति का पुनर्बन्ध न करने की योग्यता होती है उसको भवस्थिति जिन दुरितों से तस्वस्थ रह सकती है वे दुरित उस पुरुष की सत्प्रवृत्ति से नाश्य होते हैं, प्रत: उनके नाश के लिये पुरुष को जो प्रवृत्ति अपेक्षित है उसमें उन रितों का निश्चय अनुकल है, क्योंकि नाश्य का निश्चय नाशार्थ प्रवृत्ति का कारण होता है । अत: उक्त योग्यतासम्पन्न पुरुष को यदि यह ज्ञान हो कि यह भवस्थिति के हेतु भूत दुरितों से भरा हुमा है तो मह ज्ञान उसकी मोक्षफल प्रवृत्ति में प्रतिबन्धक नहीं, अपितु साधक ही है। दूसरी बात यह है कि मोक्षोपायानुष्ठान में प्रति होने के पूर्व अतिशययुक्त शम आदि का अस्तित्व नहीं होता किन्तु अप्तिशय शून्य सामान्य शम प्रावि का अस्तित्व होता ही है । अत: उससे मोक्ष के उपाय जो अतिशययुक्त शम आधि, उनकी सिद्धि के लिये प्रवृत्ति हो सकती है और उस प्रवृत्ति के बाब अतिशययुक्त मोक्षोपयोगो शम आदि का सम्पादन हो सकता है। अतः सामान्य शम आदि और उससे साध्य प्रवृत्ति में परस्परापेक्षा न होने से अन्योन्याश्रयदोष नहीं हो सकता। इस सन्दर्भ में गोशोपाध्याय का कहना है कि-'जीव संसारी होने से ही शम आदि के स्वरूपयोग्य होता है। संसारी होने से ही उसे मोक्ष के लिये भी स्वरूपयोग्य मानना उचित है । इसलिये यह जैनमत समीचीन नहीं हो सकता कि संसारी सभी जीव मुक्ति के योग्य नहीं होते।'-किन्तु व्याख्याकार कहते हैं कि यह संगत नहीं है क्योंकि नित्यज्ञानाविद्भिन्नत्यात्मक संसारिस्वरूप से जीव को मोक्ष के लिये स्वरूपयोग्य मानने को अपेक्षा लघुभूत भव्यत्य जाति से मोक्ष के लिये स्वरूपयोग्य मानने में लाधव है। दूसरी बात यह है कि सर्वमुक्ति का युक्तिपूर्वक निरास कर दिया गया है अतः सर्वजीयसाधारणसंसारित्वरूप से मोक्षस्वरूपयोग्यता का अभ्युपगम संगत नहीं हो सकता। [सर्वजीवों को मुक्तियोग्य मानन में आपनि ] दूसरा दोष यह है कि यदि समस्त जीवों की मुक्ति मानी जायगी तो संन्यास आदि में प्रवृत्ति Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [७७ दर्शनावाप्तौ यत् स्यात् तदाहमूलम्-सति चास्मिन्नसौ धन्यः सम्यग्दर्शनसंयुप्तः । सत्यमगतामा मह सोचौ ॥८॥ सति चास्मिन्-दर्शने, असौ-तथाभब्यत्वभाजनं जनः, धन्यः लब्धचिन्तामणिदरिद्रवद् निष्ठितार्थत्वात् , सम्यग्दर्शनसंयुतः फलपर्यन्तहेयोपादेयविवेकवान, प्रतिज्ञातप्रवृष्यनिर्वहणे हि न सम्यक्त्वमिति समयविदः । तत्वषडानेन-श्रवणेच्छारूपसु'षोत्तरश्रोत्रोपयोगरूप'श्रवणोत्तरशास्त्रार्थमात्रोपादानरूप ग्रहणोत्तराऽविस्मरण रूपधारणोत्तरमोह-संदेह-त्रिपर्ययच्युदासअनावश्यक हो आयगी क्योंकि महाप्रलय में जीवप्रयत्न के बिना शिवप्रयत्न से ही सब की मुक्ति हो जायगी । यदि यह कहा जाय कि शीघ्रमुक्ति के लिये माक्षोपाय को प्राप्त करने की प्रवृत्ति आवश्यक है अतः संन्यास आदि में शीघ्रमुक्तिकामी को प्रवृत्ति में कोई बाधा नहीं हो सकती-तो उपादान में शोघ्रमुक्ति की स्वरूपयोग्यता का कोई नियामक पूर्वपक्षी को अनिच्छयापि स्वीकार करना आवश्यक होगा । फिर ऐसा जो नियामक माना जायगा वही सिद्धान्ती का अभिमत अपुनर्बन्धकत्व होगा। यदि यह कहा जाय कि-'मुक्ति की स्वरूपयोग्यता आत्मत्यरूप से ही होती है । ईश्वर में आत्मरूप से की स्वरूपयोग्यता होने पर भी मुक्ति के विशेषकारणों के अभाव से उसमें मुक्ति का अतिप्रसङ्ग नहीं हो सकता । शीघ्र मुक्ति की स्वरूपयोग्यता के (आत्मत्य से अन्य) किसी नियामक की कल्पना भी आवश्यक नहीं है क्योंकि मुक्तिहेतु के शीघ्र सन्निधान होने पर शीघ्रमुक्ति अर्थतः सिद्ध हो सकती है, उसके लिये किसी अतिरिक्त हेतु को कल्पना निष्प्रयोजन है, अत: अपुनर्बन्धकत्व का अभ्युपगम न करने पर भी कोई दोष नहीं है। किन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उपादान में स्वभावविशेष माने विना अर्थवश भी उपाययविशेष की सिद्धि नहीं होती, अन्यथा सूती तन्तुओं से रेशमी वस्त्र प्रादि की उत्पत्ति का अतिप्रसङ्ग हो सकता है। किसी व्यक्ति की किसी समयविशेष में ही संन्यास प्रावि में प्रवत्ति होती है, इस नियम का निर्वाह भी बिना हेतुविशेष के नहीं हो सकता । अष्टविशेष को उसका हेतु मानने पर नामान्तर से अपुनर्बन्धकत्व हो स्वोकृत हो जाता है, अतः स्पष्ट है कि अनादि मव्यय वश हो मुक्ति के साधनों को प्राप्त करने में जोष प्रवृत्त होता है। [सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के उत्तरोत्तर परिणाम ] ८वी कारिका में दर्शन का फल बताया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है. वर्शन प्राप्त कर तथाभब्यत्वस्वभावयुक्तजीव, चिन्तामणि पाने वाले दरिद्र के समान कृतार्थ बनकर धन्य हो जाता है, सम्यग् दर्शन से सम्पन्न हो जाता है, अर्थात फलोदय होने तक उससे हेय तथा उपादेय का विवेक बना रहता है । समय के वेत्ता=जैन सिद्धान्त के अभिज्ञों का कहना है कि प्रतिज्ञात प्रवृत्ति-हेयहानउपादेयोपादान का निर्वाह न करने पर सम्यक्त्व नहीं होता। अतः यह माना जाता है कि वर्शन का उदय होने पर मोक्षलाभ पर्यन्त हेय-उपादेय का विवेक विद्यमान रहने पर उसका सम्यक्त्व बना रहता है। सभ्यग् दर्शन से युक्त जोष को तस्वधद्धान का लाभ होता है। तत्त्ववद्धान का अर्थ है सत्त्व. विषयक अभिनिधेश-'यह वस्तु ऐसी ही है। ऐसा निश्चय । - - - - - - Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] ! शासवार्ता स्त० ६ श्लो०८ प्रधानज्ञानरूप विज्ञानोत्तरविनातार्थावलम्बनतथाविधक्तिकरूपो होत्तरप्रत्यवायसंभावनानिमित्तोक्तयुक्तिविरुद्धार्थच्यावर्तनात्मका पोहोत्तरेण विज्ञानोहा-पोहानुगमविशुद्धेन 'हमित्थमेव' इति निश्चयरूपेण तत्वाभिनिवेशेन: 'समारोपविघातकता चित्तकालुष्यापनायिना मिथ्यात्वमोहनीयादिक्षयोपशमजनितेन चेतःप्रसादेन' वाः पूतात्मा-पवित्राशयः, भवोदधौ-मिथ्यास्वागाधजले कपायपातालकलशसंक्रान्तबहलविपाकानिलवेगसमुच्छलकटुक.फलपरिणतिकल्लोले प्रदीप्तविषयतृष्णारूपवडवानलभीषणे नानाविधादिरतिरूपतिमि-तिमिङ्गिलग्रस्तक्षुद्रगुणमीन सानुबन्धपापकर्मरूपमहानधावर्त भग्नभव्यधर्मयानपात्रे दुःखशतगिरिग्रावपाते क्रन्ददनेकसत्वनचक्र संसारसमुद्रे न रमते, तत्त्वदर्शिस्वेन भवाऽपहुमानित्त्वात् । प्रागर्जित कमोंपनीते सुख-दुःखे भुजानस्यापि विषयतपरुच्यभावेन परमार्थतस्तदभोजित्वात् । उक्तं च समयसारकृताऽपि "'सेवंतो वि ण सेवइ, असेवमाणो वि सेवए कोई" इति । लौकिकैरप्युक्तम्-"आहता हि विषयेकतानता ज्ञानधीतमनसं न लिम्पति" इति ॥ ८ ॥ [ सुश्रूषा आदि क्रम से तत्त्वश्रद्धान का उदय ] यह निश्चय, विज्ञान-कह और अपोह का अनुगामी होने से विशुद्ध होता है, यानी अप्रामाण्यज्ञान से अनभिभूत होता है। इसके उदय का क्रम इस प्रकार है-सर्वप्रथम भव्यजीव को तत्व की शश्रषा तत्त्व को सुनने की इच्छा होती है। उसके बाद श्रवमेन्द्रियद्वारा श्रोत्रोपयोग-तत्त्व होता है । श्रषण के अनन्तर शास्त्रप्रतिपाथ तत्त्व का अवबोधरूप तत्त्वप्रण उत्पन्न होता है । तत्त्वग्रहण के बाद तत्त्वधारण-तत्व का अविस्मरण होता है । उसके पश्चात् तत्त्वविज्ञान की उत्पत्ति होतो है। तत्वविज्ञान उस तत्वज्ञान का नाम है जिससे तत्व के विषय में मोह. सन्देह और भ्रम का निरा. करण हो जाता है । तत्त्व विज्ञान के बाद ऊह होता है, कह का प्रर्थ है विज्ञात अर्थ के विषय मेंविज्ञात वस्तु को ऐसा मानना या अन्यथा मानना-क्या सम्भव हो सकता है' इसप्रकार के विमर्शरूप वितर्क । अह के अनन्तर अपोह होता है । यह अपोह, तत्व के पक्ष में प्रस्तुत की गई युक्तियों से विरुद्ध अत एव प्रत्ययाय को सम्भावना के निमित्तभूत अर्थ का व्यावर्तन निराकरण करता है। अब विज्ञान, ऊह और अपोह ठीक ठीक सम्पन्न हो जाते हैं तब उनके अनन्तर 'यह ऐसा हो है इस प्रकार ढनिश्चयरूप तत्वाभिनिवेश यानी पारमाथिक उक्त तत्वश्रद्धान का जन्म होता है । तत्त्वश्रद्धान का एक दूसरा भी अर्थ है चित्त का प्रसाव-चित्त का नमल्य, यह मिथ्यात्वमोहनीय आदि कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, जो तत्त्वविषय में प्रतिवादियों द्वारा उपस्थापित आरोपों को विधात करता है तथा वित्त के कालुष्य-मालिन्य को दूर करता है । ऐसे तत्त्वश्रद्धान से जीव को आत्मा पवित्र हो जाती है, अतः यह संसार सागर में नहीं रमता, आसक्त नहीं होता है । [संसार एक भीषण समुद्र । व्याख्याकार ने संसार को सागररूपता का बड़ा सुन्दर प्रतिपादन किया है। सचमुच ही १. सेवमानोऽपि न सेवते, असेवमानोऽपि सेवते कश्चित् । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] [ ७६ मूलम्–स पश्यत्यस्य यद्रूपं भावतो बुद्धिचक्षुषा । ___ सम्यक्शास्त्रानुसारेण रूपं नष्टाक्षिरोगवत् ॥ ९॥ सः-सम्यग्दृष्टिः, अस्य भयोदधेः, यद्रपंवर्णितस्वरूपं विषयतृतिमिरदोपादज्ञानिनाsदृश्यमानम् , शङ्खवत्यमिब कामलोपहतदृशा, पश्यति, तत्त्वतो यथावस्थितस्वरूपेण । केन ? इत्याह-सम्यागारमानुसारेण मारशिपाइनाहीतरागार वनकदत्तदृष्टितया, बुद्धिरेव मतिज्ञानावरणीयक्षयोपशमप्रसूता सद्ग्रन्थग्रहणपटुमधाख्यपरिणाम एव चक्षरनुपहतलोचनं तेन । पापश्रुतारज्ञाकारिणी खलु सम्यक्शास्त्रानुसारिणी बुद्धिः, प्रेक्षावदातुरस्योत्तमौषध इब नद्वतः सद्ग्रन्थ एव ग्रहणादरात् । तेन पापश्रुतजनितकुवासनानिद्रया व्यवधानाभावाद् मोहदोषोपहतेश्च पश्यति निरन्तरमेवैतद्वांस्तात्त्विकं संसाररूपम् । दृष्टान्तमाह-रूपं-शङ्खश्वैत्यादिकम् नष्टाक्षिरोगवत् गलितनयनगतपित्तादिदोषवत् । रोगनाशश्च रोगान्तरप्रतिरोधस्योपलक्षणम् , इत्यमेव निरन्तर रूपसम्यग्दर्शन सिद्धेः । स्यादेतदेकस्यैव बुद्धिगुणस्य कथं पूर्वदोषनाशकत्वम् , उत्तरदोषप्रतिबन्धकत्वं च १ । मैवम् , सामर्थ्य विशेषादुपपत्तैः; दृष्टं ह्ये कस्यैवोष्णस्पर्शस्य पूर्वशीतस्पर्शनाशकत्वम् माविशीतस्पोत्पत्तिप्रतिबन्धकत्वं चेति ॥ ६ ॥ यह संसार एक समुद्र है इसमें मिथ्यात्व का अथाह जल भरा है । कर्म के कटु फलपरिणाम की लहरें कषायरूपी पातालकलश में से सक्रान्त होनेवाले प्रभूतकर्मविपाकरूपी प्रबल वायु के वेग से इसमें निरन्तर उच्छलित होती रहती है। विषयतृष्णारूप प्रचण्डवडवानल ने इसे प्रत्यन्त भीषण बना रखा है। अनेकविध विरतिरूप तिमि-तिमिडल प्रादि महामत्स्य इसमें जीत के गुणरूपी क्षमत्स्यों को सदा कलित करते रहते हैं। सानुबन्ध पापकर्मरूपी महानदी के आवत्तों से भव्यधर्म का यान इसमें संबंध भग्न होता रहता है । दुःख के सैंकड़ों पर्वतीय पाषाणखण्डों के पतन से अनेकजीवसमूह इसमें अन. परत कन्वन करते रहते हैं। सम्यग् दर्शन से सम्पनजन तश्वी होने के कारण इसे भयावह मानकर इसमें प्रानन्दित नहीं होता, पूर्वाजित कों द्वारा उपस्थापित सुख दुःख का भोग यद्यपि वह करता है तथापि विषयतृष्णारूप हघि न होने से वास्तवदृष्टि से वह उन का भोग नहीं करता। 'समयसार' के रचयिता कुन्दकुदाचार्य ने भी इस कथन को यह कह कर प्रमाणित किया है कि-'खाद्यदृष्टि से विषयों के सेवन में लगा हआ भो मनुष्य विषयासक्ति न होने से वास्तव दृष्टि से विषयों का सेवन नहीं करता और कोई बाह्यदृष्टि से विषयों के सेवन से बहिर्मुख रहकर भी चित्तके विषयो होने से धास्तव दृष्टि से विषयों का सेवन करता है।' लौकिक पुरुषों ने भी कहा है कि जिस पुष का मन ज्ञान से निर्मल हो जाता है उसमें कदाचित एकतानता हो भी जाय तो भी उससे उसका मन मलिन नहीं होता ।।८।। [ सम्यग्दृष्टि को भवरवरूप का यथार्थ दर्शन ] हवीं कारिका में उस तत्त्वदर्शन का वर्णन है जिसके कारण सम्यग् दर्शन से सम्पन्न पुरुष Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] [ शास्त्रवार्त्ता स्व० श्लो० १० ततो यत्करोति तदाह मृलम् - तद् दृष्ट्वा चिन्तयत्येवं प्रशान्तेनान्तरात्मना । भावगर्भ यथाभावं परं संवेगमाश्रितः ||१०|| तत् = भवोदधिरूपम् दृष्ट्वा चिन्तयति एवं वक्ष्यमाणम्, प्रशान्तेन क्रोधाद्यनाकुलेन अन्तरात्मना, भावगर्भम् - भावनाभिमुखोपयोगसारम, यथाभावम् - यथार्थतत्त्वम् परम्= • संसार में प्रासक नहीं होता । कारिका का अर्थ इस प्रकार है संसार समुद्र का वर्णित स्वरूप जिसे विषय तृष्णारूप तिमिरदोष से ग्रस्त अज्ञानी मनुष्य ठीक उसी प्रकार बेख नहीं सकता जैसे कामला रोग से ग्रस्त वक्षुषाला मनुष्य शङ्ख के श्वेत्य को नहीं देख पाता, किन्तु सम्यग्दर्शन से युक्त पुरुष उसे उसके वास्तवरूप में देखता है क्योंकि उसे परमार्थ के उपदेष्टा वीतरागी भगवान के प्रवचनरूप सम्यक शास्त्र से एक विलक्षण दृष्टि प्राप्त होती है, यह दृष्टि है एक विशिष्ट बुद्धि जो मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से उत्पन्न एक विशेषपरिणाम है जिसे मेधा कहा जाता है। सद्ग्रन्थों के ग्रहण में पटु यह मेधा ही संसारसागर के उक्तरूप को देखनेवाला निष्प्रतिबन्ध नेत्र है। इस बुद्धि नेत्र से ही सम्यग् ब्रष्टा पुरुष संसार के उक्तरूप को देखता है। पापभुत यानी संसारभावपोषक ग्रसर्वज्ञ कथित शास्त्र की प्रथा धीर भगवान 'जिन' सर्वज्ञ के सम्यक् शास्त्र का अनुसरण करनेवाली यह बुद्धि जिसे प्राप्त होती है, वह जैसे प्रेक्षावान् रोगी उत्तम औषध को ही ग्रहण करता है उसी प्रकार आदरपूर्वक सत्प्रत्य को ही ग्रहण करता है । नेत्र के वित्ताविशेष का नाश एवं रोगान्तर की उत्पत्ति का प्रतिबन्ध रहने पर जैसे निर्दोष नेत्र वाली व्यक्ति शङ्ख में श्वेतरूप को ही देखता है [ रोगान्तर उत्पत्ति का अवरोध बना रहे तभी रूप का वास्तव दर्शन सिद्ध हो सकता है, अन्यथा नहीं ।] वैसे ही पाश्रुतसे उत्पन्न कुवासना की निद्रा काव्यवधान न होने पर तथा मोहदोष का नाश हो सभी उत्समबुद्धिनेत्र से सम्पन्न पुरुष संसार के तात्विक स्वरूप को सदा ही देखता है। कहने का आशय यह है कि जैसे शङ्खगत रूप के श्वेतश्वस्वरूप का यथार्थ दर्शन तभी होता है। जब नेत्र का पित्तदोष नष्ट हो जाता है तथा उसी जैसा कोई नया रोग नहीं उत्पन्न होता, उसी प्रकार संसार के उक्तरूप को वास्तविकता का सम्यग्दर्शन तभी होता है जब सम्यग्रद्रष्टा पुरुष का बद्धिगत मोह जैनशास्त्र के अध्ययन से दूर हो जाता है और जनेतर शास्त्रों की कुवासना नहीं होती, अत: संसार की वास्तविकता को समझने के लिये जनशास्त्र का श्रद्धापूर्वक अध्ययन और पापश्रतों का खण्डन दोनों अपेक्षित हैं । यदि यह शङ्का की जाय कि एक ही बुद्धि गुण पूर्वदोष नाशक और उत्तरदोष का प्रतिबन्धक दोनों कैसे हो सकता है तो यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि सामर्थ्यविशेष से दोनों हो बातें उपपन्न हो सकती हैं । यह कोई प्रपूर्व बात नहीं है क्योंकि एक ही उष्णस्पर्श से पूर्वशोतस्पर्श का नाश और भाषी शीतस्पर्श की उत्पत्ति का प्रतिबन्ध देखा जाता है || E [ संवेगगर्भित आत्मविचारणा ] भवसमुद्र के पूर्वोक्तस्वरूप को देखकर परमसंबेगारूढ सम्यग्दृष्टा अन्तरात्मा से क्रोधादिविकार रहित होकर भावनालक्षी उपयोग से गभित यथार्थतत्त्व का निम्नोक्तरीति से चिन्तन करता है Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था का टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [८१ उत्कृष्टं संवेगमाश्रितः । भवति हि शुष्काचर्वणप्रायादच्यात्मशास्रवणात् तद्रसतुल्यमर्थप्रहणम् , प्रीणयति चान्तरान्मानं तत् । ततश्च गुड-खण्ड-शर्करोपममृदुमध्याधिमाप्रसंवेगोत्पत्तिः सत्क्रियाऽऽदरादिलिङ्गा । संवेगमहोदधेनिस्यन्दभूतं च वक्ष्यमाणचिन्तनमिति विभावनीयम् ॥१०॥ यञ्चिन्तयति तदाहमूलम्-जन्ममृत्युजराव्याधि-रोगशाकाध्रुपद्रतः। क्लेशाय केवलं पुसामहो ! भीमो महोदधिः ॥ ११ ॥ जन्म-मातशरीरे संक्रमणम् मृत्युः आयुःक्षयः, जराम्चयोहानिः, व्याधिः क्षयादिः रोगः-ज्वरादिः, शोकः इष्टवियोगादिजन्य आक्रन्दाद्यभिव्यङ्ग्यः परिणामः, आदिना वधबन्धादिपरिग्रहः, एतैरुपद्रुतः, तत्स्थानामुपद्रुतत्वेऽपि तत्रोपद्रुतत्वमुपचयते, गिरिगतहणादीना दाहेनेर गिरौ दग्धत्वम् , 'अहो' इत्यपूर्वदर्शनजनिताश्चर्याथों निपातः भीमः अतिभयावहः, भवोदधिः संसारसमुद्रः, पुसां-पुरुषाणाम् , सकलप्राण्युपलक्षणमेतत् , क्लेशाय श्रात्य - न्तिकदुःखाय, न तु सुखलेशायापि । [ संवेगगर्भित आत्मविचारणा ] मयसमुद्र के पूर्वोक्तस्वरूप को देखकर परमसंवेगारुढ सम्यग्दृष्टा, अन्तरात्मा से कोषादिविकार रहित होकर भावनालक्षी उपयोग से अमित यथार्थतत्व का निम्नोत्तरीति से चिन्तन करता है। अध्यात्मशास्त्र का श्रवण सूखी ईख के चर्वण के समान है, उसका अर्थग्रहण ईख के रसग्रहण के समान अन्तरास्माका तर्पक होता है । ईख के रससे जैसे गुख, खांड और शक्कर की उत्पत्ति होती है पैसे हो अध्यात्मशास्त्र के प्रथज्ञान से मदु, मध्य, अधिमात्र संवेग की उत्पत्ति होती है जो शुभकर्मों के समावर से अवगत होती है । निम्नोक्त चिन्तन संवेगसमुद्र का निस्यन्व है, उसका एक मधुर प्रयाह है।।१०।। चिन्तन को ही दिखलाते हैं सम्यग्दर्शन प्राप्त पुरुष इसप्रकार चिन्तन करता है कि संसारसमुद्र प्रति भयङ्कर है, जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, रोग, शोक, वध, बन्ध मावि उपद्रवों से भरा है । यद्यपि ये सारे उपद्रव संसारस्थ जीवों के हैं तथापि इनका औपचारिक वर्णन संसार में भी होता है। यह वर्णन ठीक उसीप्रकार का है जैसे पर्वतब सृण आदि के वाह से पर्वत की ग्धता का वर्णन होता है । इन उपद्रवों में जन्म का अर्थ है माता के शरीर में भाषो सन्तान के रूप से जोव का प्रवेश। मृत्यु का अर्थ है जीव के आयु का क्षय । जरा का अर्थ है वय (जीवनकाल) का ह्रास । व्याधि का अर्थ है क्षय आदि, रोग का अर्थ है ज्वर आवि, शोक का अर्थ है इष्टवियोग आदि से होनेवाला चित्तपरिणाम जो इष्टवियुक्तजीच के वन आदि से व्यक्त होता है । वषका अर्थ है प्रस्त्रादि के प्रयोग से प्राणहानि । बन्ध का अर्थ है लौहगृखला आदि से बांधा आना । खेद है कि इन उपद्रयों से भरा यह भीषण संसार सम्पूर्ण प्राणियों को केवल क्लेश ही देता है, इसमें किसी को लेशमात्र भी सुख नहीं मिलता। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ इलो० ११ भवति हि नारकाणामत्रत्या विशयित शीतोष्णाद्यनन्तगुणशीतोष्णादिवेद्या क्षेत्रप्रत्यया भवस्वाभान्यात् महिष शृह्यादीनामिवोदीर्णातिमत्सराणां दन्तादन्ति नखानखि केशाकेशि-खड्गाखड्गि-कुन्ताकुन्ति-मुष्टामुष्टिन्दण्डादण्डिप्रबलग्रहारेण परस्परोदीरिता व्याधादिकृता मृगादीनामित्र संक्लिष्टसुरोदीरिताऽपि वेदना कुन्ताग्रोपर्यारोपण-कूटशाल्मलिवृक्षाघःस्थापन - संतप्तत्र पुपान - वैतरणीवाहनादिजनिता । न तेषां नेत्रनिमीलन समयमपि सुखमस्ति । को हि नाम तद्वेदनों विशिष्य विना सर्वज्ञं वक्तुमीष्टे ! न हि सा रसनासहस्रेणापि वक्तु पार्यते । तिरश्वामणि कशाऽङ्कुशा - ऽऽराप्रहार-बधबन्ध वृड्वानादिना भावजीवमनुपरतैव वेदना । मनुजानां तूक्त - प्रा । देवा अपि दिव्यभोगमुपस्थितपाताभिमुखं घाशुचिमात् गर्भप्रवेशं च पश्यन्तस्तथा खिद्यन्ति यथोपस्थितशूलारोपमयचौरोऽपि न खिद्यति । नापि तेषामीय - विषादादिना परस्परकलहोपरमोऽप्यस्ति । इति न चतसृणां गतीनामेकस्यामपि सुखविश्रामोऽस्ति । भणितं च श्रुतकेवलिना - [ उपदेशमाला - २७६ / २८७ ] ८२] [ नारक आदि चार गति में दुःख ही दुःख ] नारकीय जीवों को क्षेत्रस्वभावमूलक प्रनेकविध क्षेत्रवेदनाएँ होती हैं, जैसे इस लोक में जो प्रतिशय शीत-उष्ण प्रावि होता है उससे अनन्तगुणा अधिक शीत उष्ण आदि नरक में होता है जिस के अनुभव से असह्य वेदना होती है। महिष आदि सोंगवाले पशुओं को आपसी भिडन्त से जो वेदना होती है उसके समान तीव्रवेदना उत्कटमात्सर्य युक्त उन नारकीय जीवों को होती है, जैसे परस्पर में एकदूसरे को दांत से काटते हैं, नलों से खरोचते हैं, केश पकडकर खींचते हैं, खड्ग, कुन्त अस्त्रों, मुक्कों और दण्डों से प्रबल प्रहार करते हैं। व्याघ्र आदि से मृग प्रादि को जैसी वेदना होती है, संक्लेश युक्त परमाधामी देवताओं के द्वारा नारकीय जीवों को भी वैसे हो वेदना होती है। इसके अतिरिक्त कुन्त की धार पर चढने, विषवृक्ष शाल्मलिवृक्ष के नीचे ठहरने, पिघले हुये संतप्त लोह को पीने तथा तरणी नवी में बहने से नारकीय जीवों को दुःसह बेदना होती है। इन वेदनाओं से ग्रस्त ओथों को नेत्र पलक में जितना समय लगता है उतने बल्पतम समय में भी कोई सुख नहीं होता । नारकीय जीवों को जो बेदना होती है उसका विशेषवर्णन सर्वज्ञ को छोड़ दूसरा कौन कर सकता है, सहस्रों जिह्वा से भी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। तियंग योनि के अयों को मी कशा, अड़कुश, आरा के प्रहार, विभिन्न प्रकार से वघ एवं बन्धन तथा भूख प्यास आदि की बाधा से अनेक प्रकार की वेदना होती है जो उनके जीवन में कभी समाप्त नहीं होती। मनुष्यों की वेदना का वर्णन तो कर ही दिया गया है। देवता मी विव्यभोग की समाप्ति की निकटता तथा माता के अशुचि गर्भ मैं निकटभावी प्रवेश का विचार कर इतना अधिक खिन्न होते हैं जितना शूली पर चढाये जाने के भय से चोर भी नहीं होता । ईर्ष्या, विषाद आदि से होनेवाला उनका परस्पर कलह भी कभी समाप्त नहीं होता, इसप्रकार नारक, तिर्यक्, मनुष्य देव चारों योनियों में से किसी भी योनि में जोव को कमी सुखमय विश्राम नहीं प्राप्त होता । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० १० टोका एवं हिन्दीविवेचन ] 'नरएसु जाई अइकक्खडाई दुक्खाई परमतिक्खाई। को वाणे ताई जीवंतो वासफोडी वि १ ॥१॥ कक्खडदाई-सामलिअरिसवण--वेअरणि-पहरणसएहिं ! जा जायणा उ पात्रंति नारया तं अहम्मफलं ॥ २॥ तिरिया कसं-कुसा-ऽऽरानियाय--वह-पंध-मारणसएहिं । न वि इहई पावंता परस्थ जड़ णियमिआ हुँता ॥३॥ आजीवसंकिलेसो सुक्खं तुच्छ उवदवा बहुआ। पीपजण सिक्षण विर अमितासो अनाणुले ॥४॥ चारगणिरोह--वह-बंध-रोग-धणहरण--मरणवसणाई । मणसंतावो अयसो विग्गोवणया य माणुस्से ॥ ५ ॥ चितासंतावेहि य दारिद्दरुआहि दुप्पउत्ताहि । लक्ष्ण वि माणुस्सं मरंति केई सुणिधिन्ना ॥ ६॥ देवा वि देवलोए दिवाभरणाणुरं जिसरीरा ।। जं परिवर्डति तत्तो तं दुक्खं दारुणं तेर्सि || ७ ॥ तं सुरक्मिाण विभवं चिंतिय चवणं च देवलोगाओ। अइबलियं चिय जं न वि फुट्टा सयसकर हिअयं ।। ॥ १. नरकेषु यान्यतिकर्कशानि दुःखानि परमतीक्ष्णानि । को वर्णयति तानि जीवन वर्षकोटीरपि? ।। १॥ कर्कशदाह-शाल्मलिक-विषवन-वतरणी-प्रहरणशतः। या यातनाःप्राप्नुवन्ति नारकास्तदधर्मफलम् ।। २॥ तियंञ्चः कशाऽङ कुशा-रानिपात वध-बन्ध मारणशतः । नैवेह प्राप्स्यन् परत्र यदि नियमिता अभविष्यन् ।। ३ ॥ आजीविकासक्लेशः सौख्यं तुच्छमुपद्रवा बहवः । नाच जनसेवनापि चानिष्ट वासश्च मानुपये । ४ ।। चारकनिरोध-वध-बन्ध-रोग-धनहरण-मरणव्यसनानि । मनःसंतापोऽयशोविगोपना न मानृष्ये ।। ५ ।। चिन्तासंतापंश्च दारिद्रयम्भिप्रयुक्ताभिः । लब्ध्वापि मानुष्यं नियन्ते केचित् सुनिविण्णाः ।। ६ ।। देवा अपि देवलोके दिव्याभरणानुरस्जितशरीराः । यत् प्रतिपात ततस्तद् दुःख दारुणं तेषाम् ।। ७ ।। तं सरविमानविभवं चिन्तयित्वा चवनं च देवलोकात। अंतबलितमेव यद् नापि स्पुटति शतशर्करं हृदयम् ।। ८ ।। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] [ शास्त्रवार्ता स्त० ९ लो० ११ * ईसा-विसाय-मय-कोह-माय-लोहेहिं एवमाईहिं । देवा वि सममिभूआ तेसि कत्तो सुहं णाम ॥ ॥ न चेन्द्रोपेन्द्रादीनां पुण्यविपाककालोपस्थितभोगादिनापि निश्चयत्तः सुखमस्ति, व्याधिस्थानीयवृषितेन्द्रयप्रतिकारमात्रत्वात् , मधुलिसखड्गधारालेहनवद् दुःखानुषङ्गित्वात् , दुखकारणजातीयकर्मजन्यत्वाध । सुखाभिमानः खल्विह भत्रबहुमानपुरस्कारी, मूलमेप दुःखनिमितप्रवृत्ते तव्यमित्यतो भाविभद्रेणेति ॥ ११ ॥ [चारगति के दुख का वर्णन-उपदेशमाला ] इसी बात को श्रुतकेवलीश्रीधर्मदासगणीमहाराजने इस प्रकार कहा है कि-"जीव नरक में जिन प्रतिकठोर तपा अतितीक्ष्ण बुःखों का अनुभव करता है, कोटिवर्ष जीवित रहकर भी उनका वर्णन कौन कर सकता है ? (१) नरक में पड़े जीव तीव्रदाह, शाल्मलि के विषमय वन, वैतरणी नदी तपा नानाप्रकार के शतशत प्रहारों से जिन यातनामों को प्राप्त करते हैं ये सब उनके पूर्वकृत पापों का फल है (२) तिर्यगयोनि के जीव कशा अकुश, आरा के प्राधातों तथा वध, बन्ध आदि शतशत मरणसाधनों के भोग न होते, यदि पूर्वजन्म में धर्मनियन्त्रित रहे होते (३) । मनुष्य जीवन में मो अनेक संकट हैं जैसे जीविकार्जन का कष्ट, नगण्य सुख, अनेक प्रकार के उपद्रव, नोचजनों को सेवा, अनिष्टजनों का सहवास (४)। इनके अतिरिक्त मनुष्य जीवन के और भी अनेकों संकट हैं, जैसे जलबास, हत्या, बन्ध, रोग, धनहरण, मरणरूप व्यसन, मन सन्ताप, अपयश, निन्दा दादि (५) । जीव मनुष्ययोनि में जन्म पाकर भी दुष्कृसमूलक चिन्ता, सन्ताप, उत्कट दारिद्रय और रोग से अत्यन्त पीडित होकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं (६) देवलोक में देवताओं के शरीर यद्यपि प्रामरणों से भषित होते हैं तथापि उस लोक से उनका पतन भी होता है । इस पसन के भय से उन्हें वारुण दुःख की प्राप्ति होती है (७) । अपरिमित देववै. मष तथा देवलोक से पतन का चिन्तन कर देवताओं का हृदय जो शतखा हो टूट नहीं जाता वह एक प्राश्चर्य ही है (८)। अन्य जीवों के समान देवता भी ईा, विषाद, मद, मान, क्रोध आदि विकारों से भिभूत होते हैं, अतः उन्हें भी सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? (8) व्याख्याकार कहते हैं कि सामान्य देव आदि को सुख होने की बात तो दूर रही तत्वदृष्टि से देखा जाय तो इन्द्र, उपेन्द्र आदि को भी पुण्य के विपाककाल में उपस्थित भोग प्रादि से सुख होता नहीं, क्योंकि पुण्यफल का सभी भोग इन्द्रिय को अतृप्ति का प्रतीकार मात्र होने से एकप्रकार की ध्याषि ही है। मधुलिप्त तलवार को धार चाटने के समान दु.खप्रद हो है । एवं बुःखकारण के सजातीय कर्म से जन्य होने के कारण दुःखरूप ही है। मनुष्य को इस लोक में जो सुखाभिमान होता है वह के ईर्ष्या-विषाद-मद क्रोध-मान-लोभेरेवमादिभिः । देवा अपि समभिभूतास्तेषां कुतः सुखं नाम ? ।। ६ ।। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्या० का टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [ ८५ मदिन संसारे सवानिमित, तदा पुत्र सद्विश्रान्तिः ? इति चिन्तयमाह । अथवा, प्रागस्य साक्षाद् निर्वदाङ्गचिन्तनमुक्तम् । अथ तु साक्षात् संवेगाङ्ग तदाहमूलम्-सुखाय तु परं मोक्षो जन्मादिक्लेशवर्जितः । भयशक्त्या विनिर्मुको व्यावाधावर्जितः सदा ॥१२॥ सुखाय तु-सुखायैव परं केरलम् , अनाग्रिमपदत्रयेण सांसारिकसुखविपर्ययहेतुगर्भविशेषणत्रयमाइ-जन्माविक्लेशवर्जितः कदाचिदपि जन्मादिक्लेशैरस्पृष्टः, वेनेन्द्रियाद्यभावाद् न तत्प्रतिकारमात्रस्यम् , तथा भयशक्या-आगामिदुःखान्तरोपनिपातबीजभूतया स्वयोग्यतया विनिमुकत्यक्तः, तेन दुःखाननुषङ्गित्वमुक्तम् , तथा सदा-निरन्तरम् , व्यापाधावर्जितः औत्सुक्यरूपात्मस्वभान पाधाकलङ्कविकला, तेन दुःखकारणजातीयकर्माऽजन्यत्त्वमुक्तम् । संसार को अति महत्त्व देने के कारण ही होता है । निष्कर्ष यह है कि संसार को सारी प्रवृत्ति दुःख का कारण है अतः जिसका भद्र-आत्मकल्याण भावी निकट है, उसे सांसारिक प्रवृत्तिमात्र से सदा अस्त रहना चाहिये ॥११॥ [सुख का आविर्भाव एकमात्र मोक्ष में ] व्याख्याकारने १२ वो कारिका की अवतरणिका दो प्रकार से की है। एक यह कि संसार में सुख अब कहीं नहीं है तब जीव को विधाम कहाँ प्राप्त हो सकता है ? इस प्रश्नका उत्तर देने के लिये यह कारिका रची गई है। दूसरा यह कि पहले निर्वेद के साक्षात् प्रङ्ग के चिन्तन का प्रतिपादन किया गया है और अब संवेग के साक्षात् अङ्ग का प्रतिपादन करने के लिये यह कारिका प्रस्तुत की गई है कारिका का अर्थ इसप्रकार है-सुख का एकमात्र साधन केवल मोक्ष ही है, क्योंकि यह जन्म आदि के क्लेश से रहित है, भयोत्पादिका शक्ति से शून्य है तथा प्रात्मस्वभाव के बाधकवस्तु से सबा मसम्पक्त है । कारिका में मोक्ष का तीन विशेषणों से वर्णन किया गया है। सभी विशेषण सांसारिकसुखविपर्यय के हेतु से गभित हैं। पहला विशेषण है जम्माविक्लेशजित, इसका अर्थ है जन्म आवि के पलेशों से कदापि संस्पष्ट न होनेवाला, इस विशेषण से यह सूचित किया है कि मोक्षावस्था में इनिय प्राधि न होने से मोक्ष इन्द्रिय को अतृप्ति का प्रतीकार मात्र नहीं है। दूसरा विशेषण है भयशक्त्या विनिमुक्त, इसका अर्थ है भयशस्ति से शुन्य । भयशक्ति का अर्थ है जोष की वह योग्यता जो आगामी दुःखान्तर के प्रसव का बीज होती है। मोक्षकाल में जीव में यह नहीं रह जाती । इस विशेषण से यह सूचित किया गया है कि मोक्ष में दुःख का अनुषङ्ग नहीं होता। तीसरा विशेषण है सदा घ्यावाधावजित, इसका अर्थ है आस्मस्वभाव के बाधक औत्सुक्य के कलङ्क से निरन्तरमुक्त इससे यह सूचित किया गया है कि मोक्ष दुःखकारण के सजातीय कर्मों से जन्य नहीं है। आशय यह है कि आत्मा का स्वभाव है प्रोत्सुक्यबाघ(1) से निवृत्त शापात चिदानन्द, यह स्वभाव इन्द्रियसाहित देह आदि अपेक्षाकारण रूप प्रावरण से ठीक उसोप्रकार आच्छादित होता है जैसे चन्द्रमा Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ] [ शास्त्रवास्तिक ९ श्लो०१ आत्मनो हि गलितोत्सुक्यबाधात्मा शाश्वतश्चिदानन्दः स्वभावोऽस्ति । स च सेन्द्रियदेहाघपेक्षाकारणस्वरूपावरणेनाच्छाधते, शीतांशोरिवामृतमयप्रकाशस्वभावोऽभ्रेण, स्वाभाविकान्यथाभृतपरिणतिजननाद , अन्यथाऽऽवारकत्वानुपपत्तेः। सेन्द्रियदेहाद्यपगमे चाऽयत्नसिद्ध एवायमात्मना स्वभाव आविर्भवति, अप्रापगम इव शीतांशोः । उपलभ्यते च संसारदशायामपि समहामि-लेष्दुकामनाय विशिष्टभयानालस्थितम्य मुमुक्षोर्वैराग्यभावनया परमाहादानुभव उपायप्रवृत्तिक्लेशपरिपन्थीति तस्यैव भावनाक्शादुत्तरावस्थामासादयतः परमकाष्ठागतिः संमाव्यते । इति सिद्धो भुक्तावेव सुखविश्रामः, तदुपादानोपशमप्रभवसुखस्यापि तत्त्वतस्तद्रूपत्वात् । न ह्यु पादानोपादेययोरत्यन्तभेदो यौक्तिका तदिदमाहुद्धाः-[प्र. रति-२३८ ] __ "निर्जितमद-मदनानां वाक-काय-मनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशानामिहेव मोक्षः सुविहितानाम् ॥ १॥” इति । न चैवमन्यदपि सुखं मुक्तिसुखोपादानमस्त्विति कुचोद्यमाशङ्कनीयम्; तृषितसुखस्य तदुपादानत्वे मुक्तावपि उडनुवेधप्रसङ्गात् । अतो भिन्नजातीयमेव तात्विक सुखं मुक्तावृत्करप्राप्तमिति श्रद्धेयम् ॥ १२॥ का अमृतमयप्रकाशरूप स्वभाव मेघ से आच्छावित होता है । इन्द्रियसहित देह प्रावि से 'पारमा की स्वाभाविकपरिणति से अन्यथाभूत परिणति' का जनन होता है क्योंकि उसके बिना मह (इन्द्रियसहित बेहावि)मात्मा का आवारक नहीं हो सकता और जब सेन्द्रिय देह आदि को निवृत्ति होती है तब आवरण की निवृत्ति होती है तब आत्मा का अपना स्वभाव विना प्रयत्न ठीक उसी प्रकार प्रकट होता है अंसे मेघ के हटने पर चन्द्रमा का प्रकाशस्वभाव प्रकट होता है। यह देखा जाता है कि तृण-मणि पाषाणखंड और सुवर्ण में समष्टि रखनेवाले विशिष्ट ध्यानावस्था में विद्यमान मुमुक्षु को बराग्य की भावना से संसारदशा में भी परम मालाब का अनुभव होता है। और यह अनुभव उपायगोचर प्रवृत्ति से होनेवाले क्लेश का विरोधी होता है । ऐसे आह्नाव को प्राप्त व्यक्ति भावना द्वारा जब उसरोत्तर अवस्था में प्रवेश करता है तब उसे परमकाष्टा-सर्वोत्कृष्ट गति-अवस्था प्राप्त होतो है। इसप्रकार सिद्ध है कि जीव को सुखमय विधाम की प्राप्ति मोक्षावस्था में ही होती है । उपशमजन्य सुख मुक्ति का उपादान है अतः तत्त्वदृष्टि से वह सुख भुक्तिरूप है क्योंकि उपादान और उपादेय में अत्यन्त भेद युक्तिसंगत नहीं हो सकता। यही बात प्रशमरति में इसप्रकार कही है कि-'जो पुरुष मद और मन को जीत लेते हैं, वाणी, शरीर और मन के विकारों से रहित होते हैं, सभी लौकिक आकाक्षाओं से मुक्त होते हैं एवं शुभ कर्मों के सम्पादन से सुसंस्कृत होते हैं उन्हें इस जन्म में ही मोक्ष सुख का अनुभव होता है।' यदि यह शंका की जाय कि-'जैसे उपशम सुख मुक्तिसख का उपादान होता है वैसे अन्य सुख को मो मुक्ति का उपावाम होना चाहिये क्योंकि सभी मुखों की सुखरूपता में कोई अन्तर नहीं हैं तो यह ठीक नहीं है क्योंकि सतृष्ण सुख को मुक्ति का उपायान मानने पर मुक्ति में तृष्णा के भी Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या - टोका एवं हिन्दीविवेचन ] [१७ उपायचिन्तनमाह-- मूलम्-हेतुर्भवस्य हिंसादिदु:खायन्धयदर्शनात् । मुक्तेः पुनरहिंसादिया॑षाधाविनिवृत्तितः ॥१३॥ हेतु उपायः, भवस्य-संसारस्य, हिंसादिःहिंसा-ऽनृत-मिथ्यात्व-क्रोधादिः । कुतः १ इत्याइ-दुःखाद्यन्वयदर्शनात हिंसादिप्रवृत्ती विषयपिपासादिदुःखानुवन्धोपलम्मान , दुःखैकमो मतारे तारापीरित्याइ । मुपत्तेः पुमरहिंसादि: अहिंसा-सत्य-सम्यक्त्व-क्षान्त्यादिः हेतुः । कुतः १ इत्याह-व्याषाधाविनिवृत्तिता-अहिंसादिप्रवृत्ती विषयपिपासादिपीडानिवृत्तिरूपगुणानुपन्धोपलम्भात् , गुणैकमट्या मुक्ती तद्धेतृत्वौचित्यात् ।। १३ ।। एतच्चिन्तनफलमाहमूलम्-बुध्दवैध भवनैगुण्यं मुक्तेश्च गुणरूपताम् । तदर्थ चेष्टते नित्यं विशुद्धात्मा यथागमम् ।। १४ ॥ एवम्-उक्तरीत्या, भवस्य-संसारस्य, नैगुण्यं दोषकमयत्वम् , मुक्तेश्च गुणरूपतागुणकमयस्त्रम् बुध्न्वा, अशुद्धौदयिकादिभावत्वात् संसारस्य, मुक्तेश्च शुद्धसायिकादिभावरूपवाद , एतद्रोधश्च तदुपाययोधोपलक्षणम् । तदर्थ मुक्त्यर्थम् , चेष्टते=भव हेतुहिंसादिप्रतिषमनुषङ्ग को प्रसक्ति होगी, प्रतः यही बात मानने योग्य है कि तात्त्विक सुख विषयजन्य सुखों से बिलक्षण होता है और वही मुक्ति में उत्कर्ष प्राप्त कर लेता है ॥ १२ ॥ १३ वीं कारिका में मुक्ति के उपाय का प्रतिपादन किया गया है। कारिका का अर्थ इसप्रकार है-हिंसा, अन्त, मिम्यात्व, फोध आदि संसार का कारण है क्योंकि हिसा आदि को प्रवृत्ति में तृष्णा आदि से उत्पन्न दुःख के सम्बन्ध का अनुभव होता है। संसार एकमात्र दुःखमय है, अत: दुःखात्मक हिंसा आदि को हो संसार का कारण मानना उचित होता है। अहिंसा, सत्य, सम्यक्त्व, क्षमा आवि मुक्ति का हेतु है क्योंकि अहिंसा आदि की प्रवृत्ति में विषय की तष्णा आदि से उत्पन्न दुःख को निवृत्तिरूप गुण का उपलम्भ होता है । मुक्ति एकमात्र गुणमयी है अतः गुणमय अहिंसा आदि को उसका कारण मानना न्यायसंगत है ।। १३ ॥ [ भवनैगुण्यदर्शी को मोक्षार्थ निरन्तर उत्साह ] जिस पुरुष को आत्मा निमल होती है यह अशुद्ध औयिक (कर्मोदयजन्य) आदि भावों से भरे संसार को तथा उससे उपलक्षित हिसा आदि संसारोपाय को दुःखकमय, एव शुब्ब क्षायिक आदि भावों से भूषित मुक्ति को तथा उससे उपलक्षित अहिसा आदि मोक्षोपाय को गुणकमय समझकर संसार हेतुओं के प्रतिपक्षी हिसा प्रावि मोक्षोपायों को प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील होता है। क्योंकि क्षुधा से पीडित व्यक्ति को जैसे भोजन को इच्छा बराबर बनी रहती है उसीप्रकार मुमुक्ष Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८] [ शास्त्रवार्ता स्तक ६ श्लो० १४ क्षिष्वहिंसादिषु तदुपायेषु प्रवर्तते, नित्य-निरन्तरम् , क्षुधितस्य भोजनेच्छाया इव मुमुक्षोर्मोक्षेच्छाया अविच्छेदेन तदुत्साहस्य शाश्वतत्वात् अबोचाम च-सामाचारीपकरणे "खुहिअस्स जहा खणमवि विच्छिज्जइ णेव भोजणे इच्छा । __ एवं मोक्खट्ठीणं छिज्जइ इच्छा ण कन्जम्मि। १।" विशुद्धात्मा विवेकजलगलितानादरमलत्वात् यथागमम् आगमोक्तोत्सर्गाऽयवादादियोग्यधृतिशक्रयाद्यनतिक्रमेण । व्यवस्थित खन्वागमे-आतुरादेरपि पीडाद्यनुभवानिमित्तसंक्लेशाभावे आपश्यकयोगाऽपरिहाणौ च चिकित्साऽकरणादि, अन्यथा तु पुष्टालम्बनेन तत्करणादि, स्फोरयतोऽपि च मनोधृतिवलं कदाचिदत्यन्तभग्नकायशक्तिकस्य सतो यथाभणिताचरणसीदनेऽपि मुक्तकूटचर्यस्य शुद्धत्वमेवेति । यस्त्वपरिशीलितगुरुकुलबासोऽनालोच्यैवागमं स्वशक्तिमतिक्रम्यैव व्यापतो भवति स्वकृत्य साध्ये महति कार्ये, स तु संक्लेशोदयादविधिना शरीर पातयित्वाऽनेकभवेषु तदनुबन्धी प्राप्नुयादिति । स यथाक्रमं शक्त्याद्यनतिक्रम्येष प्रबतेत ॥ १४ ॥ को मोक्ष की इच्छा सहा बनी रहती है अत एव मोक्षोपाय को आत्मसात् करने में वह सदा सोत्साह रहता है। व्याख्याकारने स्वकृत समाचारीप्रकरण में भी यह कहा है कि जैसे भूखे आवमी को भोजन की इच्छा क्षणभर भी विच्छिन्न नहीं होती वैसे मोक्षार्थी को मोक्षोपाय के अर्जन को हाछा मी कभी शान्त नहीं होती। विवेक जल से जिस के चित्त का अनादर मल घुल जाता है वह व्यक्ति आगम में वणित उत्सर्ग अपवाद आदि तथा योग्य तिशक्ति प्रादि के अनुसार मोक्षोपाय की आराधना करने का यत्न करता है । आगम में यह व्यवस्था की गई है कि पीडा आदि के अनुमय में तो राग देषादि संक्लेश के न रहते पर एवं आवश्यक योगों को हानि होने पर निमार प्रादि को भी चिकित्सा कराने की कोई जहर नहीं होती। किन्तु अन्यस्थिति में पुष्टकारण का आलम्बन कर चिकित्सा करणीय होती है। इसीप्रकार यह भी व्यवस्था की गई है कि मन में धैर्य का बल रहने पर भी शरीरशक्ति का अत्यन्त क्षय होने की दशा में शास्त्रोक्त कम का सम्पावमन हो सके सब भी कपटाचार का परित्याग कर देने मात्र से शुद्धता होती है। किन्तु जिसे गुरुकुल के निवास का सौभाग्य नहीं प्राप्त रहता वह आगम का आलोचन किये बिना ही अपनी शक्ति का अतिक्रमण कर अपने प्रयत्न से असाध्यकार्य में व्याप्त होता है। अतः वह संक्लेशोट्यवश अविधि से शरीरस्याग कर अनेक जन्म तक उसकी परम्परा चलाने का वोष प्राप्त करता है। इसलिए उचित यह है कि शक्ति का अतिक्रमण न कर क्रम से हो मोक्षसाधनों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाय ।। १४ ।। ---- - * क्षुधितस्य यथा क्षणमपि विच्छिद्यते नैव भोजने इच्छा । एवं ममाथिनां छिद्यत इच्छा न कार्ये ।। १ ।। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टोका एक हिन्दीविवेचन ] इत्यमेवाज्ञाश्रद्धया तीवसंवेगादभ्यासाच क्लिष्टकर्मविगमात् तीव्रानुष्ठानयोग्यो भवति । अत एव प्रायः परिशीलितश्रावकातिमादिक्रमस्यैत्र सदा यतिधर्मेऽधिकारः, विशिष्य तु दुःपमायामित्यन्यत्रोक्तमित्यभिप्रेत्याहमृलम्-नुष्कर क्षुद्र सत्त्वानामनुष्ठानं करोत्यसौ। मुक्ती दृढानुरागत्वात्कामोव पनितान्तरे ॥ १५ ॥ असौ विशुद्धात्मा क्षुद्रसरवानां संसाराभिनन्दिनामपरमार्थदर्शिनां धर्मपराङ्मुखाना क्लीवानो कापुरुषाणाम् दुष्करम्-ऋतु मशक्यम् अनुष्ठानं=पूर्णाहिंसादिपालनाय परीपहादिजयरूप, विशिष्टनिर्जरायै भिक्षप्रतिमाद्यभिग्रहरूपं वा करोति । कुतः १ इत्याह मुक्ती दृढानुरागत्वात-पारमार्थिकाभिलाषभावान; अनीवस्त्वभिलाष आलस्याद्यपहतचित्तानां परमार्थतोऽभिलाष एवं न, अन्यथाप्रवृत्त्यादिसिद्धेरिति विभावनीयम् । निदर्शनं आह-कामीव तीवकामाविष्ट इव घनितान्तरे-अभिलषिततरुणीविशेषे । यथा हिं वनितान्तरेऽनुरक्तस्तदाप्तये प्रवर्तमानः शीतादि न गणयति तथा मुक्तावनुरक्तोऽपि तदाप्तये प्रवर्तमानो न तद् गणयति, उपायानुषङ्गिशैत्यादौ वलवद्वेषाभावेन बलवदमिष्टानुबन्धित्वज्ञानकुतप्रवृत्तिप्रतिघाताऽभावादिति निगर्वः ॥ १५ ॥ इस रीति से ही शास्त्राज्ञा पर श्रद्धा करने से, तीवसंवेग से और अभ्यास से क्लिष्ट कर्म का क्षय होने पर मनुष्य उग्रअनुष्ठान के योग्य होता है । इसीलिये यतिधर्म में विशेष कर इस दुःषमा काल में प्रायः उसो मनुष्य को यतिधर्म के पालन का अधिकार होता है जो श्रावक के प्रतिमादि कम [विशिस्टप्रकार के यम-नियमों का सम्पावन कर लेता है यह बात अन्यत्र कही गई है। १५ बी कारिका उसी अभिप्राय से कही गयी है, उसका अर्थ इसप्रकार है- जैसे कामी पुरुष किसी मई अनिता में अतिशय अनुरक्त होने पर उसके लिये अनेक दुष्कर कार्य करता है बसे विशुद्धचिसवाला पुरुष मोक्ष में दृढानुराग होने से क्षवजीवों द्वारा असाध्य कर्मों का अनुष्ठान करता है। क्षुद्र जीव ये हैं जो संसार का ही अभिनन्दन करते हैं, जो परमार्थदी नहीं होते, जो धर्मविमुख होते हैं. क्लीब और कापुरुष होते हैं । पूर्ण अहिंसा आदि का पालन करने के लिये परीषहों का जय, विशिष्टकोटि को निर्जरा को प्राप्ति के लिये मिक्ष प्रतिमा प्रादि के अभिग्रह इन क्षद जोवों के लिये अत्यन्त दुष्कर होते हैं। निर्मलमना मानव इन कर्मों को बड़े उत्साह से करता है, क्योंकि इन कर्मों से साध्य मोक्ष की उसे वास्तविक अभिलाषा होती है । जिन का बिस आलस्य आदि से आक्रान्त होता है उनका अतीव अभिलाष. वास्तव में अभिलाष ही नहीं है, क्योंकि उनकी प्रवृत्ति इन दृष्करकर्मों में न होकर अन्यथा होती है। तीन काम से प्राविष्ट पुरुष जिस अपूर्व सरुणी में प्रेमासक्त होता है उसको पाने के प्रयत्न में जैसे यह शीत जष्ण प्रादि से होने वाले क्लेश की चिन्ता नहीं करता वैसे मोक्ष प्राप्त करने की प्रबल इच्छा से युक्त पुरुष भी उसे प्राप्त करने के प्रयत्न में शोत उष्ण आदि से सम्भावित दुःख को चिन्ता नहीं करता। शोत, उग्ण प्राधि जिन टु खसाधनों का सन्निधान इष्ट प्राप्ति के उपायों का मियतसहमावो होता है उनमें Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो० १६ तस्यतस्तत्र चेतःपीडारूपानिष्टाननुवन्धित्वाद् दुष्करत्वमेव नास्तीति साधयन्नाहमूलम्-उपादेयविशेषस्य न यत्सम्यक्प्रसाधनम् । दुनोति चेतोऽनुष्ठानं तदुभावप्रतिवन्धतः ॥ १६ ॥ उपादेयविशेषस्य-सम्यगविदितोत्कृष्टगुणस्य चिन्तामणिरत्नादेः, यत्-यस्मात् सम्यक् प्रसाधनम् अव्यभिचायु पायभूतं रोहणाचलविषमप्रदेशपर्यटनादिकम् अनुष्ठानंकर्म कायोपतापजनकमपि, तावप्रतिवन्धता तस्मिन्नुपादेयविशेषेऽप्रतिबद्धेच्छाजनितादन्तराहादभावप्रतिबन्धात् चेतो न दुनोति, मानससुखसत्त्वे तदनुपमर्दैन मानसदुःखोत्पादाऽयोगाव । न च शारीरदुःखसचे मानससुखमपि विरुद्धम् , श्रमादिवतोऽप्यप्रतिहतफलेच्छस्थान्तहिरेकदेव सुख-दुखानुभवदर्शनात् । न चकदाभययोगक्रियाविरहा, अभिन्न विषये प्रयाणामपि योगाना क्रियायोगपधस्य दृष्टत्वात् , इष्टत्वाच, भनिन्कश्रुतप्रामाण्यात् । न च तदा विषयाभावादेव सुखा मनुष्य का तीवद्वष नहीं होता अत: उन से इण्टोपाय को प्राप्त करने की प्रवृत्ति का प्रतिरोध नहीं होता, क्योंकि प्रवृत्ति का प्रतिरोष बलवान् अनिष्ट को साधनता के ज्ञान से होता है और यह ज्ञान इप्टोपाय के नान्तरीयक अनिष्ट साधनों में नहीं होता ॥१५॥ १६ वीं कारिका में यह बताया गया है कि चित्तक्लेशरूप अनिष्ट का जनक न होने से परीषह सहन आदि वस्तुतः वृष्कर ही नहीं है । कारिका का प्रयं इस प्रकार है जो कम विशिष्ट उपादेय यस्तु का अव्यभिचरितसाधन होता है वह उपादेय वस्तु को प्राप्त करने की प्रबल इच्छा से होनेवाले मनोगत आनन्दात्मक भावरूप प्रतिबन्धक का सन्निधान होने से मनःक्लेश का जनक नहीं होता । आशय यह है कि चिन्तामणिरत्न, जिसका उत्कृष्ट गुण सम्यक प्रकार से ज्ञात है-विशिष्ट उपादेय माना जाता है। उसकी प्राप्ति के लिये रोहणाचल के गम प्रदेशों में उसका अन्वेषण करना पड़ता है। रत्न का अन्वेषणकार्य शरीर की दृष्टि से अत्यन्त कष्टप्रद है किन्त इस कार्य से मन को कोई पीडा नहीं होती क्योकि चिन्तामणि को प्राप्त करने की प्रब से एक विलक्षण मनःसुख उत्पन्न होता है । यह सुख हो उक्त कार्य से मनःपीडा की उत्पत्ति का विघटन कर देता है। क्योंकि मानस सुख को अभिमूत किये बिना मानसपीडा का उदय नहीं होता । 'शारीरिक बु ख के समय में मानससुख का अस्तित्व दुर्घट है' ऐसी शका नहीं की जा सकती क्योंकि श्रमिफ को श्रमजन्य दुःख और श्रम से प्राप्य अभीष्ट फल की इच्छा से उद्भूत सुख, दोनों का अनुभव एकसाथ होता है। एककाल में वो योगों की, काययोग और मनोयोग की क्रिया नहीं होती' यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि एकविषय में तीनों योगों की क्रिया का योगपद्य ‘एककालिकत्व' दृष्ट है और भङ्गिक' श्रुत. प्रामाण्य के अनुसार इष्ट मो है। १. भंगिकश्रुतप्रामाण्य-जिस श्रुत के अध्ययन में अनेक भंगो की गिनती करनी पड़ती है उस वक्त मनवचन और काया तोनों योग से भिन्न भिन्न क्रिया का अनुभव प्रमाणभूत माना जाता है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [ . भाषः, बाह्य रपि चतुर्विधस्य मुखस्य व्यवस्थापनात् । तथाहि-किञ्चिदाभ्यासिकं सुखम् यथा मृगयादिषु । किश्चिदाभिमानिकम् यथा चुम्बनादिषु, किश्चित् वैषयिकम् यथा सुरभिमधुरगौरगान्धारादिसंनिक ईदृशविषयसाक्षात्कारबत , साक्षात्कारजनकेशविषयसंनिकर्षस्य हेतुत्वेऽप्यविनिगमात् । किश्चिञ्च मानोरथिकम , यथा भाविपुत्रजन्माधुत्सवचिन्तनादितत्पद्यमानमिति । तदिह प्रकृतप्रवृत्ती श्रमादिखेदकालेऽपि मानसं मानोरथिकं सुखं न विरुद्धम् । इति कथं तत्साम्राज्ये ततश्वेत पीडा स्यात् ? इति सिद्धम् ।। १६ ।। साध्यमाहमूलम् --ततश्च दुष्करं सन्न सम्यगालोच्यते यदा। ___अतोऽन्यद दुष्करं न्यायावेयवस्तुप्रसाधकम् ॥ १७ ॥ ततश्च-तस्मात् कारणाच्च, तत्-भुक्त्यर्थमनुष्ठानम् , यदा सभ्यगालोच्यते तद्भावे मनः प्रतिवध्यते, सदान्तराहादोदयाचिन्तामणिरत्नार्थिप्रयत्नवद् दुष्करं न=चिसार्तिप्रदं न भवति । 'तदश्रद्धावज्ञादिपरिणामिनि चित्ते च दुष्करमेव तत , अन्तरालादाभावात्' इति सम्यक्प यदि यह कहा जाय कि-'इष्टवस्तु की प्राप्ति का प्रयास करते समय इष्ट विषय के उपस्थित न होने से उस समय सुख नहीं हो सकता' तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि बाह्यचिन्तकों ने भी चार प्रकार के सुख माने हैं जैसे शीकार आदि में अनुभव में आनेवाला प्राम्यासिक सुख, चुम्बन आधि में अनुभव में आनेवाला माभिमानिक सुख; सुरमिगन्ध मधुर रस, गौर रूप, गान्धार स्वर आदि के सन्निकर्ष में प्रतुमय में आनेवाला वैषयिक मुख जो चिनिगमना न होने से विषयसाक्षात्कार और साक्षाकारजनक विषय के सत्रिकर्ष दोनों का कार्य होता है, तथा भावी पुत्र के जन्मोत्सव आदि के भिन्तन आदि में अनुभूयमान मानोरथिक सुख । उक्तरोति से जब सुख के चार भेव हैं सब मोक्षोपाय को आराधना करने की प्रवृत्ति में श्रमादिजन्य शारीरिक वुःख के समय भी मानोरथिक मानस सुख होने में कोई विरोध नहीं हो सकता। अतः सिद्ध है कि उक्त प्रवृत्ति में जब मनःसुख प्रचुरमात्रा में विद्यमान है तब उससे मनः पीडा का होना असंभव है ।। १६ ॥ [मुक्ति की साधना वास्तव में दुष्कर नहीं ] . १७वों कारिका में मोक्षोपाय प्रापक कर्म की सुकरता का प्रतिपादन किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है-यदि सम्यक् आलोचन किया जाय तो मोक्ष के लिये अपेक्षित अनुष्ठान अभीष्ट का साधक होने के कारण दुष्कर नहीं होता। प्रत्युत्त उससे भिन्न अनुष्ठान ही अनिष्ट का साधक होने के कारण न्यायतः दुष्कर होता है । तात्पर्य यह है कि जैसे चिन्तामणि रत्न के इफक पुरुष को उसकी प्राप्ति की आशा से उत्पन्न आल्हाद के कारण उसकी प्राप्ति का प्रयत्न करने में कोई चित्तक्लेश नहीं होता, वैसे मोक्षसुख को प्राप्त करने के विश्वास से उत्पन्न मानसप्रमोद के कारण, उसके लिये किये जानेवाले अनुष्ठान से मोक्षार्थी को कोई मनःपष्ट नहीं होता। कोरिका में आलोचन के साथ सम्यक् पद का प्रयोग करके यह सूचित किया गया है कि जिस पुरुष के चित्त में मोक्ष के प्रति Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शास्त्रवार्ता स्त० एल०१८ । देन व्यज्यते । भणितं च ग्रन्थकृता ललितविस्तरायाम्-"प्रकृतिसुन्दरं चिन्तामणिरत्नकन्पं संवेगकाय चैतन , इति महाकल्याणविरोधि न चिन्तनीयम् , चिन्तामणिरत्नेऽपि सम्यरज्ञानगुण एव श्रद्धाद्याशयभावतोऽविधिविरहेण महाकल्याणसिद्धेः" इति विभावनीयम् । प्रत्युताऽतः मुक्त्यर्थानुष्ठानाव, अन्यत्-विपरीतानुष्ठानम् हेयवस्तुपसाधकम् आयत्या सुदुःसहविचित्रदुःखप्रदम् तदात्वेऽपि दुष्कर-चित्तातिप्रदं विवेकिन इति । अत एव प्राणात्ययेऽपि विषभक्षणमिव नाकार्यमाद्रियन्ते धीराः, अनिष्टफलावश्यंभावप्रतिसंधानजनितदुःखस्य प्रवृत्तिप्रतिवन्धकत्वादिति स्मर्तव्यम् ॥ १७॥ एतदेवानिष्टवियोगोत्तरफललोभाद् निदर्शनान्तरेण समर्थयनाहमूलम्-व्याधिग्रस्तो पयारोग्यलेशमास्वादयन बुधः। अष्टे पुराने धीरः सम्यक्पोत्या प्रवर्तते ॥ १८ ॥ व्याधिग्रस्तः विषमज्वरादिरोगपीडितः पुरुषः, यथा कुतश्चिदुपक्रमात ,आरोग्यलोशं= स्वल्पमपि नीरुम्भावम् , आस्वादयन्-अतिपिपासितजललवास्वादप्रायमनुभवन, बुधः-हिताअश्रद्धा अवज्ञा मादि परिणाम का उदय होता है उसे मोक्ष के विषय में आन्तरप्रीति न होने के कारण मोक्ष के लिये अपेक्षित अनुष्ठान उसके मनस्ताप का जनक होता है । मूल ग्रन्थकार ने 'ललितविस्तरा' में इस बात को इन शब्दों में कहा है कि-'संवेग का यह कार्य स्वभावत: मनोरम तथा चिन्तामणि रल के समान महात् फल का साधक है। इसके विषय में यह कभी नहीं सोचना चाहिये कि यह महाकल्याण का विरोधी है। किन्तु सवा सम्यक् आलोचन ही करना चाहिये। चिन्तामणि रश्न के विषय में भी सम्यक् ज्ञान ही गुण होता है, क्योंकि अन्यथा चिन्तन से उसके प्रति भी अवज्ञा प्रौर अनुत्साह का मनोभाव हो सकता है। इस में कोई सन्देह नहीं है कि संवेग कार्य के प्रति हृदय में घद्धा प्रादि का पवित्र आशय-पवित्र भाव होने पर अविधि का विरह होने से महाकल्याण की सिद्धि आवश्यक होती है।" विचार करने से सिद्ध यह होता है कि मोक्षार्थ अनुष्ठान दुष्कर नहीं होता किन्तु जो अनुष्ठान उसके विपरीत होता है वही बुष्कर होता है क्योंकि उसके परिणाममें वह विचित्र प्रकार के दुःख का जमक होने से उसी से चिस को पीडा पहुंचती है। विवेकी पुरुष का चित्त तो उस अनु. ष्ठान की कल्पना से ही प्रार्त हो उठता है। अत एव घोर पुरुष प्राणसंकट उपस्थित होने पर भी अकार्य करने में प्रवृत्त नहीं होते। किन्तु विषभक्षण के समान उसे स्याज्य समझते हैं। प्रकार्य से मावि में अनिष्टफल होने वाला है-इस ज्ञान से विवेकी पुरुष को दुःख होता है, उससे अकार्य में उसकी प्रवृत्ति का प्रतिबन्ध हो जाता है ।।१७॥ १८वी कारिका में एक अन्य दृष्टान्त द्वारा इस बात का समर्थन किया गया है कि-भविष्य में अनिष्ट निवृत्ति होने को आशा में कठिन कार्य भी दुष्कर नहीं होता। कारिका का अयं इस प्रकार है-- Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याक टीका एवं हिन्दीविवेचन ] . -- ऽहितज्ञः कष्टेऽपि-शरीरोपतापकारिण्यपि, उपक्रमे-ततकटुकौषधपानादौ निःशेषव्याधिघातनसमर्थे, धीरः अक्षोभ्यसत्त्वा, सम्यक्पोत्या उपायविषयदृढेच्छाप्रतिबन्धेन प्रवर्तते, भाव्यारोग्यस्वभावत्वात् ॥ १८॥ मूलम्-संसारव्याधिना प्रस्तस्तबज्ज्ञयो नरोसमः । शमारोग्यलयं प्राप्य भाषतस्तदुपक्रमे ॥ १९॥ दार्शन्तिफयोजनामाह संसारव्याधिना संसाररोगेण प्रस्तः पीडितः नरोत्तमः आसमभव्या, तज्ज्ञेयः प्रवृत्ति प्रतीत्य। किं कृत्वा, क्व च ? इत्याह-शमारोग्यलवम्अपूर्वकरणाद्यपक्रमजनितमिथ्यात्वाऽनन्तानुबन्धिकषायोपशमजनितं शमारोग्यस्य लेशम् प्राप्य, भावतः फलाभिष्वङ्गात् तदुपफमे-अशेषसंसारख्याध्यौषधभूते तीत्रानुष्ठाने ॥ १६ ॥ मूलम्-प्रवर्तमान एवं च यथाशक्ति स्थिराशयः । शुद्धं चारित्रमासाद्य केवलं लभते क्रमात् ॥ २० ॥ अतितीव्र प्यास से पीडित मनुष्य को जलके कुछ बुद मिल जाने पर जिस प्रसन्नता का मनुभव होता है, विषमज्वर प्रादि रोगों से ग्रस्त मनुष्य को भी किसी रोगापहारी उपचार से अति स्वल्प भी प्रारोग्य मिलने पर उसी प्रसन्नता का अनुभव होता है । अत: अपने हिताहित को समझने पाला धीर पुरुष पूर्ण मारोग्य की प्राप्ति के लिये ऐसे औषधि के भी सेवन में बड़े हर्ष से प्रवृत्त होता है जो तापप्रव, कटु तथा तत्काल शरीर के लिये कष्टप्रद होती है। वह ऐसा इसलियेकरता है कि वह पूर्ण आरोग्य प्राप्त करना चाहता है। प्रतः उसका जो भी उपाय हो उसे स्वाधीन करने की प्रबल इच्छा से वह प्रतिबद्ध होता है ।।१८।। १९वीं कारिका में वाष्टान्तिक-पानी दृष्टान्तद्वारा समर्थनयोग्य-संसार से त्रस्त पुरुष में, उक्त दृष्टान्त ज्वरादि प्रस्त रोगी की योजना, यतायी गई है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है संसार रोग से अपने को पीडित समझने वाला उत्तम मनुष्य जो आसन्न मध्य अर्थात निकट में मुक्ति पाने के लिये योग्य होता है उसे प्रवृत्ति के विषय में उक्त रोगी के सदृश समझना चाहिये। कहने का अभिप्राय यह है कि जैसे विषमज्वर प्रादि से ग्रस्त मनुष्य किसी सामान्य उपाय से अल्पमात्रा में आरोग्य का अनुभव होने पर पूर्ण प्रारोग्य के कठिन उपायों में मी सहर्ष प्रवृत्त होता है उसीप्रकार संसाररोग से प्रस्त मुमुक्ष पुरुष अपूर्वकरण आदि पूर्वोक्त उपाप से मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी कवाय का प्रशम होने पर शमहप यत्किचिव आरोग्य का अनुभव कर लेने पर संसारनिवृत्तिरूप पूर्ण आरोग्य प्राप्त करने के लिये समग्र संसार व्याधि के औषयरूप तोवतप प्राधि के अनुष्ठान में सहर्ष प्रवृत्त होता है ।।१६।। [शुद्धचारित्र-ध्यानारोहणादिक्रम से केवलज्ञान ) २०वीं कारिका में मोक्षार्थी के तोत्रानुष्ठान का फल बताया गया है. कारिका का अर्थ इस प्रकार है-उक्तरीति से मोक्षराग से प्रतिबद्ध स्थिरचित्तवाला मनुष्य, जिसका प्रशस्त परिणाम अशुभ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो० २० एवं च-उक्तेन प्रकारेण मुक्तौ रागप्रतिबन्धात् , यथाशक्ति-स्वशक्त्यनुसारेण प्रवर्तमानः, स्थिराशय दुर्लेश्याऽक्षोभ्यप्रशस्तपरिणाम:, शुद्ध' निर्मलम् चारित्रमासाद्य, क्रमात् ध्यानारोहपरिपाटीत केवल लभते। तथाहि-लेश्याविशुद्धया भावनाहेतुकसाम्यहेतु करागद्वेषजयेन वा कृतमनाशुद्धिमैत्री प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यपवित्रितचित्तो, भावितात्मा, पर्वतगुहाजीर्णोद्यान-शून्यागारादौ मनुष्यापातविकलेऽवकाशे मनोविक्षेपनिमित्तशून्ये सत्त्वोपघातरहित उचिते शिलातलादौ यथासमाधानं विहितपर्यायासनः; "जोगाण समाहाणं जह होइ तहा पयइअव्वं" इति वचनात् , मन्दमन्दप्राणापानप्रचारः, अतिप्राणनिरोधे चेतसो व्याकुलत्वेनैकाग्रतानुपपत्तेः, "ऊसासंग णिरु भइ" इत्यादिवचनप्रामाण्यात, निरुद्धलोचनादिकरणप्रचारो, हृदि ललाटे मस्तकेऽन्यत्र वा यथापरिचयं मनोवृत्तिं प्रणिधाय प्रसन्नवदनः पूर्वाभिमुख उदङ्मुखो (वा) ध्यायति धन्यम् । तत्र वामाध्यात्मिकमावानां याथात्म्यं धर्मस्तस्मादनपेतं धय॑म् । तञ्च द्विविधम्-वाद्यम् , आध्यात्मिकं च । तत्र सूत्राऽर्थपर्यावर्तन-दृढव्रतता-शीलानुराग-निभृतकायवागच्यापारादिरूपं बाह्यम् । आध्यात्मिकं चात्मनः स्वसंवेदनग्राह्यम् , अन्येषामनुमेयम् । तच्च तत्त्वार्थसंग्रहादौ संक्षेपतश्चतुर्विधमुक्तम् । अन्यत्र दशविधम् , अपायोपाय-जीवाजीच-विपाकविराग-भव-संस्थाना-ऽऽशा-हेतुविचयभेदात् । लेण्यानों से अवरुद्ध नहीं होता, अपनी शक्ति के अनुसार मोक्ष के लिये अपेक्षित तीवानुष्ठान में प्रवृत्त होता है जिसके फलस्वरूप वह निर्मल चारित्र को प्राप्त कर ध्यानारोहण के क्रम से केवलज्ञान प्राप्त करता है। कहने का प्राशय यह है कि लेश्या की विशुद्धि से केवल प्रथवा भावनामूलक साम्य से अजित रागद्वेषजय द्वारा जिसका मन शुद्ध हो जाता है, एवं मंत्री, प्रमोद, करुणा तथा माध्यस्थ्य की भावना से जिसका चित्त पवित्र हो जाता है. तथा उत्तम संस्कारों से जिसका अन्त करण भावित= वासित बन जाता है ऐसा मनुष्य पर्यत की गुफा, प्राचीनवाटिका अथवा शन्यमन्दिर आदि में, ऐसे समय जब मनुष्य के प्रवेश की संभावना नहीं होती, किसी ऐसे उचित पाषाणशीना पर जहाँ मन के विक्षेप का कोई निमित्त नहीं होता तथा सत्य का कोई उपधात नहीं होता, योगसोधना के योग्य किसी भी पर्यकादि आसन लगाकर बैठ जाता है । कोई भी आसन इस लिये कि मन वचन और काया जिस प्रकार से समाहित बने रहें उस प्रकार से ही प्रयत्न करना चाहिये । सथा प्राण के अत्यन्त निरोध से व्याकुल हो जाने के कारण चित्त की एकाग्रता का प्रतिबन्ध न हो इस विचार से अपने प्राण तथा अपान वायु का मन्द-मन्व संचार करता है और धीरे धीरे नेत्र आदि अन्य करणों की गति कर अवरोध कर हृदय, ललाट, मस्तक अथवा किसी अन्य स्थान में अपनी जानकारी के अनुसार अपनी मनोवृत्ति को केन्द्रित कर देता है तथा पूर्वदिशा की या उत्तर दिशा को संमुख प्रसन्नयनन होकर धर्म्य ध्यान का प्रभ्यास करता है। धर्ना का अर्थ है जो धर्मविरुद्ध न हो, धर्मसंगत हो, और धर्म का इस सन्दर्भ में १. योगानो समाधानं यथा भवति तथा प्रतितव्यम् । २. उच्छ्वास न निरुन्ध्यात् । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टोका एवं हिन्दोविवेचन ] [ ९५ १ तत्रापाये विघयो-विचारो यस्मिंस्तदपायविचयम् , एवमन्यत्रापि योज्यम् । 'दुष्टानां मनो-वाक्-क्रायव्यापारविशेषणामपायः कथं नु नाम मे स्यात् । यदशात् प्राप्तेऽपि सौराज्ये भिक्षायै बालिश इव स्वायत्तेऽपि मोक्ष भवाय प्रान्तमानस्मि । इत्येवंभूतः संकल्पप्रबन्धः, दोषपरिवर्जनपरिणतेः कुशलप्रवृत्तित्त्वावपायविचयम् । २ तेषामेव कुशलानां स्वीकरणमुपाया, 'स कथं नु मे स्यात् , यतो भवति मोहपिशाचादास्मरक्षा? इति संकल्पप्रबन्ध उपायविषयम् । ३ असंख्येयप्रदेशात्मक-साकाराऽनाकारोपयोगित्वाऽ*नादित्व-कृतकर्मफलोपभोगित्वादिजीवस्वरूपानुचिन्तनं स्वात्ममात्रप्रतिबन्धौपयिक जीवविचयम् । प्रर्थ है बाह्य और प्राध्यात्मिक भावों का यथावस्थित स्वरूप । तात्पर्य यह है कि बाह्य और आध्या. स्मिक मावों के वास्तविकस्वरूप के अनुरूप जो ध्यान है वही धर्म्य है । धम्यं के वो मेव हैं बाह्य और आध्यात्मिक । सन्त्रार्थ का पर्यावर्तन यानी पुनः पुनः अनुशीलन करना, व्रतों में दृढ बना रहना, शीलप्रेम, शरीर वाणी और मन का प्रक्षामभित व्यापार आदि सब बाह्य धर्म्य ध्यानरूप है । आध्यास्मिक धर्म्य का अर्थ है प्रारमधर्म का ध्यान जो सौर्फ स्वानुमववेद्य होता है, दूसरों को सीर्फ अनुमानसे ही उसका पता लगता है । 'तत्त्वार्थस्नत्र' प्रावि में आध्यात्मिक धयं का संक्षेप से प्रसिद्ध धार मेव बताये गये हैं। अन्य ग्रन्थों में दश भेद भी बताये गये है जैसे अपायविषय, उपायविचय, जोवविधय, अजीवविचय, दिपाकविचय, विरागविचय, मवविचय, संस्थानविक्य, आज्ञा विषय और हेतुविचय । (१) अपायविचय: जिस में अपाय के सम्बन्ध में विचय-विचार हो उसे अपायविचय कहा जाता है। उपायविचघ आदि का भी इसी तरह समासविप्रह करके व्याख्या करनी चाहिये। हमारे मन, वचन और शरीर के उम दुष्ट व्यापारों को निवृत्ति कैसे हो? जिन के कारण ही मोक्ष अपने अधीन होते हुए भी उसकी उपेक्षाकर हम संसार के लिये, सांसारिक वैभव के लिये ही चारों ओर चक्कर लगाते हैं। हमारी दशा ठीक उस मूर्ख मनुष्य की दशा जैसी है जो एक सुन्दर समृद्ध राज्य पाकर भी भीख मांगता फिरता है । मन आदि के इन दष्ट पापारों को निवृत्त करने के लिये ऐसी सतत संकल्प परम्परा ही अपाय विचय है क्योंकि दोषपरिवर्जन के रूप में परिणत होने से कुशल प्रवृतिरूप है। (२) उपाचत्रिचय: मन, वचन और शरीर के कुशल व्यापारों को प्रङ्गीकार करने का नाम है उपाय । ये उपाय हमें किसप्रकार सुलभ हो, जिस से मोह पिशाच से हमारी रक्षा हो सके इसप्रकार की सतत संकल्प परम्पराही उपाविचय है, क्योंकि इसमें उपायों का विचार अन्तभूत है। (३) जीवविचयः जीव असंख्येयप्रदेशस्वरूप है । साकार अनाकार भेद से उसके दो उपयोग हैं । वह अनादि तथा * प्रत्यन्तरे 'दिस्वकृ' । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रमा स्स. एलो. २० ४ धर्मा-ऽधर्मा-ऽऽकाश-काल-पुद्गलानां गति-स्थित्य-ऽवगाइना-वर्तना-ग्रहणगुणानामनन्तपर्यायात्मकानामजीवानामनुचिन्तनं शोका-ऽऽतकनिदानदेहात्माद्यभेदभ्रमापनोदक्षममजीपति चयम्। ५ मुलोचरप्रकृतिभेदभिन्नस्य पुद्गलात्मकस्य कर्मणो मधुरकटुफलस्थाऽऽ-ऽर्हतः संपदमा अनारकविपदमेकातपत्रसाम्राज्यग्रसरस्य विपाकचिन्तनं कर्मफलामिलाप मुख्यविधायि विपाकविचयम् । ६ "कुत्सितमिदं शरीरं शुक्रशोणितसमुद्भुतमशुचिभृतं वारूणीघटोपममशुचिपरिणामि च यत्र क्षिप्तमात्राण्येव मिष्टामान्यपि विष्ठासाद् भवन्ति, मूत्रसाच्चामृतान्यपि । तथाऽनित्यमपरित्राणं च न खलु समुपस्थिते यमातङ्क पिता, माता, आता, स्वसा, स्नुषा, तनयो वा पातुमीष्टे । तथा, गलदशुचिनच्छिद्रतयाऽशुचि, नात्र किश्चित् कमनीयतरमस्ति । किंपाकफलोपमोगोपमा विपाककटवः प्रकृत्या भङ्गुराः पराधीनाः संतोषामृतास्वादपरिपन्थिनः सद्भिनिंग अपने किये कर्मों के फलों का भोक्ता है, जीवस्वरूप के ऐसे अनुचिन्तन से चिन्तक स्कात्म मात्र में प्रतिबद्ध हो जाता है, जीवविषयक विचार के अन्तर्भूत होने से इस अनुचिन्तन को जोवविषय कहा जाता है। (४) अजीवविषय: धर्म, अधर्म, माकाश, काल और पुदगल ये अजीब हैं । इन में धर्म का गुण है गतिसहाय, मधर्म का गुण है स्थितिसहाय, आकाश का गुण है अवगाहना. काल का गुण है वर्तना और पुद्गल का गुण है ग्रहण । समी अजीव अनन्त पर्यायरूप हैं। मजीवों के इस अनुचिन्तन से शोक और भय के हेतु बेहात्मक्यबुद्धि का परिहार होता है। अजीवविषयक विचार के अन्तर्भाव के कारण इसे अजीवविषय कहा जाता है। (५) विपाकविचय: कर्म पुद्गल रूप है । मल प्रकृति-उत्तरप्रकृति के भेव से यह मुख्यतया द्विविध है -मधुर, कटु आदि अनेक उनके फल है। अहंत पद की समद्धि से लेकर नारकीय जोवन तक इसका साम्राज्य फैला है। इसके विपाक-फलप्रद उदय का अनुचिन्तन कर्मफल को कामना का निवर्तक है। इस अनु. चिन्तन में विपाकविषयकविचार का समावेश होने से इसे विषाकधिचय कहा जाता है। (६) विरागविचयः हमारा यह शरीर अत्यन्तजुगुप्सापात्र है। शुक्र और शोणित से इसको उत्पत्ति होती है। यह अपवित्र वस्तुओं से भरा है, मघट के समान इस का परिणाम अशुचि है । मधुर से मधुर अन्न इसमें पडकर विष्ठा बन जाता है, अमृत मी मूत्र बन जाता है। यह प्रनित्य और असुरक्षित है, मृत्यु का मय उपस्थित होने पर पिता, माता, भाई, बहन, पतोहू, पुत्र कोई इसकी रक्षा नहीं कर पाता। गलते Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका एवं हिन्दीविषेचन ) दिता विषयाः, तदुद्भवं च सुखं लालापातनाद् बालानां दुग्धास्वादसुखवदपारमार्थिकमिति नात्राssस्था विवेकिनां युक्ता । विरतिरेवातः श्रेयस्कारिणी । प्रज्वलितज्वलनकल्पो ायं गृहनिवासः, यत्र दारुदाहं दहन्ति विषयस्निग्धानीन्द्रियाणि प्रसरति च धूमधारेवाज्ञानपरम्परा, धर्ममेव एव तद्विध्यापनाय पडुरिति तत्रैव प्रयत्न उचित" इत्यादि रागहेतुविरोधानुचिन्तनं साक्षादेव समुल्लसितपरमानन्दास्वादं वैराग्यविश्वयम् । ( ૨૭ ७ प्रेत्यस्व कृतकर्मफलोपभोगार्थं प्रादुर्भावः तत्र चारघट्टघटीयन्त्रवद् मृत्र- पुरीषा ऽन्त्रम यदुर्गन्धिजठर कोटरादिष्वजनमावर्तमानस्य स्वकृत भोक्तुर्जन्तोर्न कश्चित् सहाय इत्यादि भवर्सक्रान्तिपर्यालोचनं सत्प्रवृत्तिहेतुभर निर्वेदनिदानं भवचिचयम् । ८ अधोवेनासनसमः, मध्ये झल्लरीनिभः, अग्रे सुरजसंनिभो लोकश्चतुर्दशरज्ज्वात्मक इत्यादि संस्थानानुचिन्तनं विषयान्तरसंचारविरोधि संस्थानविवयम् | हुये नव छिद्रों से युक्त होने से यह प्रशुचि है। इसमें कुछ भी सुंदर नहीं है। विषयों के सम्बन्ध में सत्पुरुषों का कहना है कि विषयों का उपभोग किम्पाक फल के उपयोग के समान परिणाम में कटू, स्वभावतः नम्वर, पराधीन और सन्तोषामृत के आस्वाद के विशेषी होते हैं। उनसे उत्पन्न सुख ला गिरने से बच्चों को प्राप्त होनेवाले दुग्धास्वाद के सुख के समान मिथ्या है। अतः विषयसुख में विवेकी पुरुषों की कोई प्रास्था नहीं होती । विषयविरक्ति हो श्रंपस का साधन होती है । गृह में निवास जलती आग के समान दाहक होता है, जिस में विषयस्नेह से सिक्त इन्द्रियां मनुष्य को तलसिक्त काष्ठ के समान वग्ध करती हैं और धूमधारा के समान अज्ञान परम्परा का प्रसार होता है । धर्ममेघ हो इस आग को शांत करने में समर्थ होता है । रागहेतु के विरोध का यह अनुचिन्तन साक्षात् परमानन्द के ही प्रास्वाद को समुल्लसित करता है। वैराग्यविषयक विचार के प्रनुप्रवेश से इस अनुचिन्तन को विरागविचय कहा जाता है । (७) भवविचयः - पूर्वकृत कर्मों के उपभोग के लिये मृत्यु के बाद मनुष्य का नया जन्म होता हैं। कुएं से पानी निकालने के लिये जो घटीयन्त्र घडों का यन्त्र बनता है उसे अरघट्ट- अरहरू कहा जाता है उसमें बंधे घडे, जैसे कु के भीतर और बाहर निरन्तर चक्कर लगाते रहते हैं वैसे हो जीव मो सूत्र मल तथा आंतों के दुध से भरे पेट के कोटरों में निरन्तर चक्कर लगाते रहते हैं, कर्मों के फलभोग में दूसरा कोई उनका सहायक नहीं होता। संसार के संक्रमण का यह पर्यालोचन सत् प्रवृत्ति के हेतुभूत भवनिर्वेद का जनक होता है। इसमें भवविचार की बहुलता होने से इसे भवविच्य कहा जाता है । (c) संस्थानविचयः - लोक नीचे की ओर बेंत के आसन के समान आकार वाला है, मध्य में झल्लरो के समान आकारवाला है और उपर सुरक्ष के समान आकारवाला है तथा असंख्य कोटाकोटोयोजन प्रमाण एक रज्जु ऐसा १४ रज्जु प्रमाण वह ऊपर-नीचे आयल संस्थान लोक के आकार का यह अनुचिन्तन Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ] [ शास्त्रवास्ति . लो. २० हेतूदाहरणादिसद्भावेऽपि चुद्धथतिशयविकलैः परलोक बन्ध-मोक्ष-धर्मा-ऽधर्मादिभावेवतीन्द्रियत्वादत्यन्तदुःखमोघेष्वाप्तप्रामाण्यात् तद्विषयं तद्वचनं नानृतमित्यनुचिन्तनं सकलप्रवृत्तिजीवातुश्रद्धासंतत्यविच्छेदकरमाशाविषयम् । १० आगमविषयविप्रतिपचौ तर्कानुसारिबुद्धेः पुंसः स्याद्वादप्ररूपकागमस्य कषच्छेदतापशुद्धितः समाश्रयणीयत्वगुणानुचिन्तनं विशिष्टश्रद्धाभिवृद्धिकरं हेतुविषयम् । ___ तदेवंविधधर्मध्यानरूपसंवरमाहात्म्याद निर्जीर्णबहुकर्मणः पीत-पय-सितलेश्याबलाघानवतोऽप्रमत्तसंयतस्य कषायदोषमलापगमात् शुचित्वं भवति । ततः चरमशरीरः परमशुक्ललेश्याकृतापूर्वस्थितिरसघात-गुणश्रेणि-गुणसंक्रम-स्थितिबन्धादिक्रमो चक्रामुपशमश्रेणी विहाय ऋज्यों क्षपका प्रतिपक्ष आय शुक्लाव्यानं ध्यायति पृथक्त्ववितर्कसपोचाराख्यम् । तत्र पृथ त्वं नानात्वम् , वितर्कः श्रुतज्ञानम् , तच पूर्वगतमन्यद् वा न तु पूर्वगतमेव, माषतुप मरुअन्य विषयों के संचार का विरोषी है, संस्थानविषयक विचार को प्रधानता से इसे संस्थानविषय कहा जाता है। (९) आशाविषय: हेत. उदाहरण मावि हेतु होते हये भी उत्कृष्ट बुद्धि रहित पुरुषों को परलोक, बन्ध, मोक्ष, धर्म, अधर्म आदि अतीन्द्रिय भावों का बोध अत्यन्त दुर्लभ होता है। आप्त पुरुष प्रमाण होने से इन वस्तुओं के विषय में जन का वचन मिथ्या नहीं हो सकता, इन वस्तुओं के ऐसे अनुचिन्तन से सम्पूर्ण सत्प्रवृत्ति के प्राणभूत श्रसासम्सान की अविच्छिन्नता बनी रहती है, आज्ञा यानी आप्तोपदेश के विचार का अन्तर्भाव होने से इस प्रमुश्चिन्तन को आज्ञाविचय कहा जाता है। (१०) हेतुविचयः मागम से प्रतिपाद्य विषयों के सम्बन्ध में बमत्य होने पर तर्फयुक्त बुद्धि से कषण, छेवन तापम-ऊहापोहवितर्कमय परीक्षण द्वारा स्याद्वाद शास्त्र की शुद्धता का परीक्षण करके बुद्धिमान पुरुष को उसी का आश्रय लेना चाहिये। इसप्रकार के अधिनसन से स्यादवादशास्त्र में विशिष्ट घया को अभिवृद्धि होती है, इसमें स्यादवाव -प्रागम की शुद्धताबोधकहेतु के विचार का समावेश होने से इसे हेतुविषय कहा जाता है। [धर्मध्यान से शुक्लध्यान की ओर ] उक्तप्रकार के धर्मध्यानरूप संवर के प्रभाव से बहुत से कर्मों की निर्जरा हो जाती है। पीत पप, सितलेश्या प्रबल हो जाती है। संयम पालन में प्रमाद नहीं होने पाता, कवायदोषरूपी मल की १. मुक्ति के उद्देश से जिस शास्त्र में अनुकुल विधि-निषेध बताये गये हो वह शास्त्र कषशुद्धि वाला है। विधि-निषेध का योगक्षेम करने वाली क्रिया आचार का प्रतिपादक शास्त्र छेदशद्धिवाला है। किसी एक अंग से नहीं किन्तु सर्वांग से वस्तु का निरूपण करने वाला शास्त्र तापशुद्धि वाला है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० क० टीका एवं हिग्दीविवेचन ] [ ९९ देव्यादौ व्यभिचारात् । बीचारोऽर्थं व्यञ्जन- योगसंक्रान्तिः तथाहि अयमेकं द्रव्यपरमाणु भावपरमाणु ं वाऽवलम्ब्योत्पाद-स्थिति-भङ्गादीन् पर्यायांश्चिन्तयनर्थपर्यायात् व्यञ्जने, व्यञ्जनाद वाऽर्थे, मनोयोगात् काययोगे बाग्योगे वा काययोगाद् मनोयोगे वाम्योगे वा, बाग्योगाद् मनोयोगे काययोगे वा संक्रामतीति । न चैघमर्थ- व्यञ्जनयोर्योगान्तरेषु संक्रमणात् कथं मनःस्थैर्यम्, तदभावाच कथं ध्यानत्वम् ? इत्याशङ्कनीयम्, एकद्रव्यविषयत्वेन मनःस्थैर्यसंभवात् ध्यानत्याऽविरोधात् । न चान्यद्रव्यचिन्तानन्तरितत्वरूप चिन्तास्थय पपसाब पि योगान्तरानन्तरितत्वरूपयोगस्थैर्यानुपपत्तिरिति शङ्कनीयम्, तदभावेऽपि ध्यान नियतप्रयत्नदादर्थस्य मात्रदृष्टिपरिस्पन्दामाबाद्यभिव्यङ्ग्ग्यातिशयरूपस्यानपायात् उक्तविशेषस्य च द्वितीय भेदनियतत्वादिति । तदिदं केषाश्विदेकयोगभाजां मंगिकतं पठतां च योगत्रयमाजामपि न विरुध्यत इति । , , निवृत्ति हो जाती है फलतः ध्यानकर्ता पवित्र हो जाता है । उसके बाद अन्तिम शरीर प्राप्त होने पर परमशुक्ललेश्या द्वारा अपूर्वस्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रम, अपूर्व स्थितिबन्ध आदि क्रम से प्रगति करता हुआ ध्यानकर्ता पुरुष उपशम की वक्त श्रेणी को त्यागकर क्षपक की ऋजु श्रेणी में पहुंचता है और वहां पृथक्त्ववितर्क सविचार नामक प्रथम शुक्ल ध्यान में अवस्थित होता है । पृथक्त्व का अर्थ है नानाश्थ, वितर्क का अर्थ है श्रुतज्ञान, वह चाहे १४ पूर्वगत भी हो सकता है मौर fear भी हो सकता है किन्तु पूर्वगत ही होने का नियम नहीं है क्योंकि माघतुष, मरुदेषी आदि में पूर्वगत सज्ञान का अभाव था । विचार का अर्थ है अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय का मिथः संक्रमण और मन वचन काया का संक्रमण । आशय यह है कि ध्यानकर्ता किसी एक द्रव्यपरमाणु अथवा भाषपरमाणु के उत्पत्ति, स्थिति, नाश आदि पर्यायों का चिन्तन करते हुये अर्थपर्याय से व्यञ्जनपर्याय में अथवा व्यञ्जनपर्याय से अर्थपर्याय में, किवा मनोयोग से काययोग या वाग्योग में, काययोग से मनोयोग या वाग्योग में अथवा वाग्योग से मनोयोग या काययोग में संक्रमण करता है । यदि यह शंका की जायगी कि 'यदि मनोयोग का इस प्रकार अर्थ और व्यञ्जन पर्यायों में अन्ययोगों में संक्रमण मानने पर मन में स्थिरता कंसे होगी और मन में स्थिरता न होने पर ध्यान कैसे होगा ? " - तो यह उचित नहीं है, क्योंकि एकद्रव्य के विषय में मन के स्थिर होने से उसकी ध्यानरूपता में कोई बाधा नहीं हो सकती । इस पर भी यदि यह शंका की जाय कि एकद्रव्य की चिन्ता में अन्य द्रव्य की चिन्ता का व्यवधान राहित्यरूप स्थैर्य होने पर भी योगान्तर के व्यवधानराहित्यरूप योगस्थ्य की सिद्धि तो अनुपपत्र ही रहेगी' तो यह शङ्का ठीक नहीं है क्योंकि योगस्थैर्य के अभाव में भी ध्यानत्य के व्याप्य प्रयत्नहृता का, जो शरीर एवं दृष्टि की निष्क्रियता से श्रवगम्यमान अतिशयरूप है, अमाय नहीं होता, ध्यान का जो योगस्ययरूप विशेष बताया गया है वह आद्यशुक्लध्यान में नियत न होकर ध्यान के दूसरे मेव में नियत है अतः योगस्थैर्य न होने पर भी चितास्थैर्यमात्र से आद्यशुवलध्यान की उपपत्ति हो सकती है । फलत: कतिपय पुरुषों को एकयोगमात्र से, तथा भङ्गिकश्रुत पढनेवाले पुरुषों को तीनों योगों से प्राथध्यान होने में कोई विरोध नहीं होता । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.] [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो. २१ ततोऽसावासन्नकल्याणः समुत्खातप्रचुरापायो द्वितीयं शुक्लध्यानमवलम्बत एकत्त्रवितर्कस(अ)विचाराख्यम् । इदं च कपरमाण्वादावेकमेव पर्यायमालम्ब्यत्वेनादायाऽऽहितान्यतरैकयोगबलमाश्रितव्यतिरिक्ताशेषार्थ-व्यञ्जनयोगसंक्रमविषयचिन्ताविक्षेपरहितमत्यन्तमेकाग्रम् , आद्यशुषलेऽथ-व्यञ्जनयोगेषु यथासंक्रमक्रम' निवृत्त्यभ्यासाद् , अत्र सर्वविषयेभ्यो व्यावाणुमात्रे मनसो धरणात् , मात्रिकेण मन्त्रबलात् सर्वागतस्य विषस्य दंशदेशे धरणवत् । सुकरं हि ततस्तदपनयनमिति । अत्र खलु ज्ञान-दशेन-चारित्राण्येकीमा प्रकर्ष च यान्ति, बोध-श्रद्धाना-ऽनाश्रवरूपत्वात् , फलाभिमुखत्वात् , वीतरागमाराच । ततोऽस्मात् परमनिर्जरारूपाद् घासिकर्मचतुष्टयक्षये परमशुक्लध्यानद्वयस्याग्रं प्राप्यवाद् ध्यानान्तरे वर्तमानः केवली भवति कृतकृत्यः सकलसुरनिकायनायकपूजितचरणाम्भोज इति ॥ २० ॥ ततः किमित्याहमूलम्-ततः स सर्वविद् भूत्वा भवोपग्राहिकर्मणः । ज्ञानयोगात क्षयं कृत्वा मोक्षं प्राप्नोति शाश्वतम् ॥ २१ ॥ [प्रथम शुक्लध्यान द्वितीय शुक्लभयान पर ] जब मनुष्य पाद्यध्यान में परिनिष्ठित हो जाता है तब उसका कल्याण मोक्षलाभ सनिहित हो जाता है। बहुतर अपाय-उच्छिन्न हो जाते हैं और तब वह द्वितीय शुक्ल ध्यान का अवलम्बन लेता है। जिसे एकत्व वितर्क अविचार कहा जाता है। एकपरमाणु का एक ही पर्याय इस ध्यान का मालम्बन होता है। इसमें मन-वचन-काय तीन योगों में किसी एक के ही बल का आधान होता है। यहां जिस योगबल से जिस एक द्रव्य के जिस पर्याय का आलम्बन किया गया है उससे अन्य योग, अर्थ और व्यंजन में संक्रान्ति नहीं होती और इस ध्यान में अन्य विषयों की चिन्ता का विक्षेप भी नहीं होता इसलिये इसमें पुरी एकाग्रता होती है । आशशुक्लध्यान में प्रथं व्यजन और योग में संक्रम क्रम से निवृत्ति का अभ्यास हो जाने के कारण यहाँ सभी विषयों में व्यावृत्त होकर मन एक अणुमात्र में धारित होता है। एक अणुमात्र में धारित मन की उस अणु से निवृत्ति उतनी ही सरल होती है जितनी सर्प आदि से से मनुष्य को उस विष की वंशदेश में केन्द्रित होने पर निवृत्ति सरल होती है जिसे मन्त्रवध मन्त्र द्वारा सम्पूर्ण शरीर से खींचकर से हुए स्थान मात्र में स्थापित कर लेता है। द्वितीय शुक्लध्यान में ज्ञान, वर्शन और चारित्र क्रम से बोध, श्रद्धान तथा अनावरूप होने से, फलोन्मुख होने से, एवं वीतरागभाव प्रकट हो जाने से एकीमाव और उत्कर्ष को प्राप्त करते हैं । उसके पश्चाद इस परमनिर्जरारूप द्वितीय शुक्लध्यान से घाती चार कमों का क्षय होने पर, दो परम शुक्ल ध्यानों की प्राप्ति कालान्तर में होने वाली है अतः दो ध्यान युगल के अन्तर यानी ध्यानान्तर में विद्यमान मुनि केवली-केवलज्ञानसम्पन्न और कृतकृत्य हो जाता है । सम्पूर्ण देवसमूह के नायक इन्द्र उसक चरणकमल की पूजा करने लगते हैं ।। २० ।। १. प्रत्यन्तरे 'क्रम। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० क० टोका एवं हिन्दीविवेचन ] [१०१ ततः केवललामोत्तरम् , सा=महात्मा, सर्वविद् भूत्वा केवलीभूय,-'भूत्वा घटस्तिष्ठति' इत्यादाविवोत्पत्यनन्तरं निष्ठा-इति व्यवहारनयाभिप्रायादित्थमुक्तिः, भवोपग्राहिकर्मणः-जात्यपेक्षयकवचनम् , भवोपग्राहिणां वेदनीय ऽऽयुर्नाम-गोत्राणाम् , ज्ञानयोगात् समुद्घात-चरमशुक्लद्वयध्यानरूपायस्थाविशिष्टज्ञानरूपादेव योगात , क्षयं कृत्वा आत्मनः पृथग्भावं विधाय, शाश्वतम् अपुनरावृत्तनित्यम् , मोक्षं महानन्दं प्राप्नोति । तथाहि-अयं खलु भगवान् क्षायिकज्ञान-दर्शन-चारित्र-वीर्यातिशयसंपत्समन्धितो जघन्यतोऽन्तमुहूर्तम् , उत्कर्षतश्च देशोनपूर्वकोटिं भवोपग्राहिकर्मवशाद विहरन् यदाऽन्तमु हूर्तपरिशेषायुष्कस्तत्तुल्यस्थितिकनाम--गोत्र-वेदनीयश्च भवति तदा मनो-वाग्-यादरकाययोगनिरोधादुपगतसूक्ष्मकाययोगस्तृतीयं सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति शुक्लध्यानमध्यास्ते । तथाहि-प्रथमं बादरकाययोगेन चादरौ वाङ्मनसयोगी निरुणद्धि । ततः अश्मकाययोगेन यादरकाययोग निरुणाद्ध सति तस्मिन् सूक्ष्मयोगस्य निरोधुमशक्यत्वात् । न हि धावन वेपथु वास्यतीति । ततश्च सर्वचादरयोगनिरोधानन्तरं सूक्ष्मेण काययोगेन सूक्ष्मौ वाङ्मनसयोगी निरुणद्धीति । यदा स्वन्तमुहूर्तायुष्काधिकतरस्थितिशेषकर्मत्रयो भवत्यसौ, तदा तत्समीकरणाय स्थितिघात-रसघाताद्यर्थे समुद्घातं करोति । तदुक्तम् [ सर्वकर्मक्षय की अन्तिम प्रक्रिया ] २१वौं कारिका में केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद की स्थिति का वर्णन है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-मोक्षार्थी महात्मा केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद सर्वश बन कर मन में पकड कर रखने वाले कर्मों का ज्ञानयोग द्वारा नाश कर के शाश्वत-नित्य मोक्ष को प्राप्त करता है । 'मोक्षार्थी केवलशान का लाभ पाकर सर्वज होता है।' यह कथन प्रापाततः यद्यपि प्रसंगत लगता है क्योंकि एक ही वस्तु में पूर्वापरभाव की संगति नहीं होती तथापि व्यवहार नय से उत्पत्ति और स्थिति में भेद की कल्पना कर जैसे 'भूत्या घटस्तिष्ठति-घट उत्पन्न होकर स्थित होता है-इस व्यवहार का समर्थन किया जाता है, वंसे हो केवलज्ञान के उदय और केवलीभाव से स्थिति में भेद की कल्पना कर व्यवहार नय से उक्त कथन का भी समर्थन किये जाने में कोई बाधा नहीं हो सकती । भवोपग्राही कर्म का एकवचनान्त निर्देश जाति की अपेक्षा से किया गया है अतः एकवचनान्त कर्मशब्द से किसी एक कर्मव्यक्ति का ग्रहण न होकर भयोपग्रह के कारणभूत कर्म के सजातीय सभी कर्मों का ग्रहण होता है । वे कम चार जाति के हैं, वेदनीय कर्म, आयु कर्म. नामकर्म और गोत्रकर्म । इन कर्मों का क्षय उस ज्ञान से होता है जो अन्तिम शुक्लध्यानद्वयरूप समुद्घात की अवस्था में पहुंचकर योगस्वरूप हो जाता है । ज्ञानयोग से कर्मों का जो क्षय होता है वह आत्मा से उनका पृथग्भावरूप है न कि उनका प्रात्यन्तिकस्वरूपनाशरूप, इस कर्मक्षय से शाश्वत मोक्ष की प्राप्ति होती है। शाश्वत मोक्ष का अ नित्य निरतिशय आनन्द । मोक्ष नित्य होता है क्योंकि मुक्त को पुनरावृत्ति पुनर्जन्मप्राप्ति नहीं होती। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो० २१ "यस्य पुनः केवलिनः कर्म भवत्यायुपोऽतिरिक्ततरम् ।। स समुद्धातं भगवानथ गच्छति तत्समीकतुम् ॥१॥" सम्यग्-अपुनविन, उत्-प्राबल्येन हननं समुद्यातः-शरीराद् बहिर्जीवप्रदेशाना निःसारणम् । अयं चात्र क्रमः-प्रथमसमये स्वदेहतुल्यविष्कम्भमूर्ध्वमधश्चायतं लोकान्तमामिनं जीवप्रदेशसंघातं दण्डाकारं केवली करोति, द्वितीयसमये तु तमेव दण्डं पूर्वापरदिग्द्वयप्रसारणात पावतो लोकान्तगामिनं कपाटमिव कपाटं करोति, तृतीयसमये तु तदेव कपाटं दक्षिणोत्तरदिग्द्वयप्रसारणाद् मन्थानमिव मन्थानं करोति लोकान्तप्रापिणमेव । एवं च लोकस्य प्रायो बहु बात यह है कि मोक्षार्थी जब क्षायिक ज्ञान, दर्शन, चारित्र और बीर्यातिशय को सम्पत्ति से युक्त होकर भवधारक कर्म के प्रभाव से कम से कम 'अन्तमुहत्तं तथा अधिकाधिक किचिद् न्यून पूर्वकोटि यष तक विहार करता है तथा अब उसका प्रायुःकर्म समानस्थिति वाले नाम, गोत्र तथा येवतीय कर्मों के साथ अन्समुहूत्तमात्र ही शेष रह जाता है तब वह मन याक तथा 'बादरकाय योग के निरोब द्वारा गुमम काययोग में राख हो कर सामाफियापतिपाति नाम के तृतीय शुक्लध्यान में प्रवेश करता है। पहले वह बावरकाय योग से बाबरवाग्योग तथा मनोयोग का निरोध करता है। उसके बाद सूक्ष्म काययोग से बादरकाययोग का निरोध करता है, क्योंकि बादरखागयोग के रहते सूक्ष्मकाययोग का निरोष ठीक उसीप्रकार शक्य नहीं होता जैसे दौड़ते समय कम्प का निरोध शक्य नहीं होता । सम्पूर्ण बादरयोग का निरोध करने के पश्चात् केवली सूक्ष्मकाय योग के द्वारा सूक्ष्म वाग्योग और सूक्ष्ममनोयोग का निरोध करता है । अन्तमुहत्तं प्रायु शेष रहने पर जब उसके शेष तीन कर्मों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल सक होती है तब उन कम के समीकरण के लिये स्थितिघात और रसघात आदि के निमित्त केवली समुद्घात करता है । समुवघात का अर्थ है-जोध के प्रवेशों का शरीर से इसप्रकार का बहिःप्रसारण जिससे कर्मों का अपनर्माबरूप से प्रबलधात हो जाय । इस तथ्य को एक कारिका में प्रकट किया गया है उसका अर्थ इसप्रकार है जिस केवली के कर्म आयुः कर्म से अधिक काल तक स्थायी होता है वह उन कर्मों का समीकरण करने के लिये समुद्घातक्रिया करता है। समुद्धात शब्द का यौगिक अर्थ है-जीव प्रदेशों का शरीर से इस प्रकार का बहिःप्रसारण जिससे कर्मों का अपुनर्भावरूप से प्रबलघात हो जाय। [समुद्घात की सविस्तर प्रक्रिया इस क्रिया का क्रम इसप्रकार है-केवली सर्वप्रथम जीव के प्रवेश समूह को दण्ड के आकार में परिवत्तित करता है। वह घण्टु लोकान्त तक लम्बा होता है, उपर और नीचे की ओर उसका विस्तार होता है । उसको रचना-स्थलता केवली के देह की स्थूलता के समान होती है । दूसरे समय दण्डाकार जोव प्रदेशों को कपाट (विशाल फलक) के आकार में परित्तित करता है, उसका फैलाव १. अन्तमुहूर्त-घटिकाद्वयान्तर्गत काल को अन्तमुहर्त कहते हैं। २. किंचिद् न्यूनपूर्वकोटि-१ पूर्व =७०५६० x १० वर्ष । ३. बादरकाययोग-काया के स्थूल व्यापार बादर काययोग है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० क० टीका एवं हिन्वीविवेचन ] [ १०३ I पूरितं भवति । चतुर्थसमये त्वनुश्रेणिगमनाद् मन्थान्तराण्यपूरितानि सह लोकनिष्कुटैः पूरयति । ततश्च सकलो लोको जीवप्रदेशैः पूरितो भवति । लोकपूरणश्रवणादेव हि परेषामात्मवित्ववादः समुद्भूतः, तथा चार्थवादः - विश्वतश्वशुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतः पात्" इत्यादि । वदा चासो भवति समीकृतभवोपग्राहिकर्मा, विरलीकृतार्द्रशाटिकादिज्ञातेन क्षिप्रं तच्छोपोपपत्तेः । ततः पश्चमसमये मन्थान्तराणि जीव प्रदेशरूपाणि सकर्मकाणि संकोचयति । षष्ठे समये मन्धानमुपसंहरति, घनतरसंकोचाद। सप्तमे समये कपाटमुपसंहरति, दण्डात्मनि संकोचात् । अष्टसमये दण्डमुपसंहृत्य शरीरस्थ एव भवतीति । समुद्घातकाले च मनोत्राम्योगव्यापारप्रयोजनाभावात् काययोगस्यैव केवलस्य व्यापारः । तत्रापि प्रथमाऽष्टमसमपयोरौदारिकका यप्राधान्यादौदारिककाययोग एच, द्वितीय - षष्ठ- सप्तमेषु पुनरौदारिकाद् बहिर्गमनात् कार्मणीयैपरिस्पन्दादौदारिक- कार्मणमिश्रः, तृतीय- चतुर्थ--पञ्चमे - वदारिकाद् बहिर्वहुतर प्रदेशव्यापारादसहायकार्मणयोग एव । परित्यक्तसमुद्घातच कारणचशाद योगत्रयमपि व्यापारयति यथाऽनुत्तरसुरपृष्टौ मनोयोगं सत्यं वाऽसत्यामृषं वा प्रयुङ्क्तेः पूर्व और पश्चिम दो विशाओं में होता है, जो दोनों ओर लोकान्त तक लम्बा होता है। तीसरे समय वह उस कपाट को मन्थनदण्ड के रूप में परिवर्तित करता है, इसका फैलाव दक्षिण और उत्तर इन यो विशाओं में होता है, वह भी लोकान्स तक लम्बा होता है। इस क्रिया से लोक का प्रायः बहुमाग जीव के प्रदेशों से आक्रान्त हो जाता है। चौबे समय अनुश्रेणी गमन से मन्धनदण्ड के जो अन्तराल जीव प्रदेशों से अनाकान्त थे उन्हें केवलो लोकनिष्कुट पर्यन्त जीव प्रवेश से पूर्ण करता है, फलतः सम्पूर्ण लोक जीव के प्रदेशों से भर जाता है । जीव द्वारा सम्पूर्णलोक की इस पूर्ति के आधार पर ही न्यापर्वशेषिक दर्शन के आत्मविशुत्ववाय का उद्भव हुआ है। जैसे कि जीव द्वारा सम्पूर्ण लोक की इस पूर्ति का समर्थन एक are अर्थवाव वाक्य द्वारा किया गया है जिसका अर्थ इसप्रकार है- जोस का नेत्र, जोस का मुख, जीस का बाहु और जीस का पैर समूचे विश्व में फैला हुआ है। उत्तरीति से समुद्घात क्रिया द्वारा जब केवली के संसारपावक कर्मों का समीकरण हो जाता है तब उन कर्मों की निवृत्त बडी शीघ्रता से ठीक उसीप्रकार होती है, जिसप्रकार पूरे विस्तार में फैलाई हुई गोली साडी आदि की आता की निवृत्ति बडी शीघ्रता से होती है। पांचवें समय में केवली जीवप्रवेशरूप मानदण्ड के अन्तराल को कर्मों के साथ संकुचित करता है। छठे समय में अत्यन्त घन संकोच के द्वारा मन्थनava को संक्षिप्त करके कपाट करता है। सातवे समय में कपाट का संकोच कर के दण्डाकार बनाता है और आठवे समय में दण्डाकार को भी संक्षिप्त कर केवली समस्त जीवप्रदेशों के साथ अपने वर्तमान शरीर में अवस्थित हो जाता है । [ समुद्घात में योगव्यापार ] समुद्धात क्रिया के समय मनोयोग और बाग्योग के व्यापार का कोई प्रयोजन न होने से केवल काययोग का हो व्यापार होता हैं, उस अवधि में उसके पहले और आठवें समय में औदारिक Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] [ शास्त्रवार्ता स्त० ९ श्लो० २१ एवमामन्त्रणा काम्योगमपि, काययोगमपि फलकप्रत्यर्पणादाविति । ततोऽन्तम् हतेन योगं निरुन्धानस्तृतीयं शुक्लध्यानभेदं परिसमापयति । ततः स्वात्मनैव काययोगमचिन्त्यवीय प्रभाबाद् निरुन्ध्य समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्तिसंज्ञं चतुर्थ शुक्लध्यानभेदं ध्यायति । अमनस्कत्वात् कथं केवलिनो ध्यानम् इति पर्यनुयोग एवं प्रत्यभिदधति - 'यथा कुलालचक्रे भ्रमणनिमित्तदण्डाद्यभावेऽपि पूर्वाभ्यासाद् भ्रमणम्, तथा मनःप्रभृतिसर्वयोगोपरमेऽप्ययोगिनो भ्यानं भवति । तथा, यद्यपि द्रव्यतो योगा न सन्ति तथापि जीवोपयोगरूपभावमनः सद्भावादयोगिनो ध्यानम् । यद्वा, ध्यानकार्यस्य कर्मनिर्जरणस्य हेतुत्वात् ध्यानं तदुच्यते, यथा पुत्रकार्यादपुत्रोऽपि पुत्र उच्यत इति । अथवा, हर्यादिशब्दवद् ध्यानशब्दस्य नानार्थस्वाद् ध्यानं तत् ; राधादि-'ध्ये चिल्लायाम्' 'खो' 'ये अयोगित्वे' वदन्ति हि "निपाताश्चोपसर्गाश्च धातवश्चेति ते त्रयः । अनेकार्थाः स्मृता लोके पाठस्तेषां निदर्शनम् ॥ १ ॥ " इति । जिनागमाद्वाऽयोगिनो ध्यानम् इति । + काय की प्रधानता होने से प्रौवारिक काययोग का ही व्यापार होता है। दूसरे, छठे और सातवें में औदारिककाय से कुछ जीवप्रदेशों का बहिर्गमन होता है और वहाँ कार्मणशरीरवीर्य का परिस्पन्द होता है, इसलिए उन समयों में औदारिक और कार्मणशरीरों का मिश्र व्यापार होता है। तीसरे, चौधे और पव समय में जीव के बहुतर प्रदेशों का व्यापार औवारिकशरीर के बाहर होता है। उस समय कार्मणशरीर श्रीदारिकशरीर से असहकृत हो जाता है। समुद्धात पूर्ण हो जाने पर स्वदेहावस्थिल केवली कारणवश काययोग, मनोयोग और बाग्योग इन तीनों योगों को व्यापार युक्त बनाता है। जैसे- श्रनुत्तर देवताओं के प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत होने पर केवली सत्य अथवा असत्य-अमृषा मनोयोग का प्रयोग करता है । आमन्त्रण आदि में वाग्योग का प्रयोग करता है और पीठफलकादि के प्रत्यर्पण आदि में काययोग का प्रयोग करता है। इन सब के अनन्तर केवली अन्तर्मुहूर्त समय में योग का पूर्णतया मिरोध कर शुक्लध्यान को तीसरी अवस्था को समाप्त करता है उसके बाद अपने अचिन्तय वीर्य के प्रभाव से स्वयं ही काययोग का निरोध कर शुक्लध्यान की चौथी अवस्था को प्राप्त करता है जिसे जैनशास्त्र में समुच्छित क्रियाअनिवृत्तिनाम से व्यवहृत किया गया है। केवली के ध्यान के विषय में यह प्रश्न हो सकता है कि केवलो तो अमनस्क होता है, फिर उसके द्वारा ध्यान कैसे सम्भव हो सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में जन विद्वानों का यह कहता है कि जैसे भ्रमण के निमित्त दण्ड प्रादि का सम्पर्क न रह जाने पर भो दण्ड द्वारा वेग से चालित कुलालचक्क में पूर्वाभ्यासवश भ्रमण होता है उसीप्रकार मन आदि समस्तयोगों की निवृत्ति हो जाने पर भी योगमुक्त केवली द्वारा ध्यानक्रिया भी हो सकती है। कहने का आशय यह है कि शुक्लध्यान का चौथी अवस्था में केवली को काय, वाक् और मनोयोग यद्यपि द्रव्यतः नहीं होते तथापि जीवोपयोगस्वरूप भाव मन उस समय भी होता है। अतः द्रव्यरूप में केवली के योगमुक्त होने पर भी भावरूप में योगयुक्त होने से वह ध्यान क्रिया का सम्पादन कर सकता है । अथवा उक्त प्रश्न के उत्तर में यह भी कहा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [ १०५ अत्र प्रथमो हेतुः कारणोपपत्चये, पूर्वसंस्काररूपहेत्वनपायाव, द्वितीयो लक्षणोपपत्तये, भावमनःस्थैर्यरूपलक्षणोपपत्तेः, तृतीयो व्यवहारोपपत्तये, चतुर्थः शब्दार्थोपपत्तये, पश्चमश्च प्रमाणोपपत्चय इति द्रष्टव्यम् । वस्तुतः सुदृढप्रयत्नव्यापार-विद्यमानयोगनिरोधान्यतरत्वमनुगतं पानलक्षणम् : सुध्दत्वं च जातिपिशेषः, तेन न समुद्घातादापतिव्याप्तिः, तथा च भाष्यकार: ''सुदढप्पयत्तवावारणं णिरोहो व विज्जमाणाणं | झाणं करणाण मयं ण य चित्तगिरोहमेत्तागं ॥१॥" [वि. आ. भा० ३०७१ ] विपश्चितमेतदन्यत्र। जा सकता है कि शुक्ल ध्यान की बौथो अवस्था ध्यान के कर्मनिभरणहप कार्य का सम्पादन करती है। अतः ध्यान का कार्य सम्पादन करने से उसे ध्यान कहा जाता है यह कथन लोकध्या के सर्वथा अनुरूप है क्योंकि लोक में अपुत्र को भी पुत्र का कार्य करने के कारण पुत्र कहा जाता है। अपवा उक्त प्रश्न के उत्तर में यह भी कहा जा सकता है कि ध्यान शब्द हरि आदि शब्द के समान अनेकार्थक है। अतः शुक्लध्यान को सौयो अवस्था मनःसाध्य चिन्तनरूप न होने पर भी ध्यान शाम्ब से अभिहित हो सकती है । ध्यान शम्द के अनेक प्रर्थ होते हैं यह बात धात्वयं के निरूपण के प्रसंग में बतायी गई है। जैसे 'ध्ये चिन्तायाम्' के अनुसार ध्यान चिन्तमरूप है । 'ध्ये काययोगनिरोधे' के अनुसार ध्यान काययोग का निरोषरूप है। और ध्ये अयोगित्वे के अनुसार ध्यान योगाभावरूप है। विद्वानों ने कहा भी है कि 'मिपात, उपसर्ग और धातु ये तीनों अनेकार्थक माने गये हैं । विभिन्न अयों में उनका प्रयोग उनकी अनेकार्थकता का साक्षी है।' अथवा उक्त प्रश्न के उत्तर में यह भी कहा जा सकता है कि केवली मनोयोग से मुक्त होने पर भी उसके ध्यान का होना या उसके द्वारा ध्यान का सम्पावन जैनागम से प्रमाणिसासका आशय यह है कि मनोयोगाविसे यक्त व्यक्ति के ध्यान में मनोयोग केवली के ध्यान में योगाभाव कारण है । दूसरो कारणता में, केवलो के ध्यान में योगामात्र कारण हैइस कारणता में केवलो के ध्यान का प्रतिपादक जैनागम हो प्रमाण है । [ अयोगि केवलिदशा में ध्यानसाधक हेतु पंचक का तात्पर्य ] प्रमनस्क होने पर भी केवली का ध्यान सम्भव है, इस बात की उपपत्ति में उपर ओ पांच हेतु बताये गये इनमें जो पहला हेतु है पूर्वाभ्यास, यह केवली के ध्यान का उपपादक है। इससे सूचित किया गया है कि केवली के ध्यान का कारण उपपन्न है और यह है पूर्वाग्यास । आशय यह है कि केवली होने के पूर्व मोक्षार्थी को जो ध्यान का अभ्यास होता है उससे ध्यान का संस्कार बन जाता है, और उसका अनुवर्तन केवली हो जाने पर भी होता रहता है । अत: केवली के ध्यान में कोई बाधा नहीं होती। दूसरा जो हेतु है-द्रव्यमम का अभाव होने पर भी जोरोपयोगरूप भावमन का अस्तित्व, इस १. सुनुप्रयत्नब्यापारणं निरोधो वा विद्यमानानाम् । ध्यानं करणानां मतं न च चित्तनिरोधमात्रकम् ।।३।। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो० २१ ततयशुपत मेदेव सकलामयविष्टियानाकर पेन भवोपग्राहीणि कर्माणि समन्ताद् भस्मसात्कृत्यौदारिक-तैजस कामेणानि शरीराणीह त्यक्त्वा प्रदेशान्तराणि चाऽस्पृशन् ऋज्या श्रेण्यकेन समयेन याति सिद्धिक्षेनं साकारोपयोगोपयुक्तः। धर्मास्तिकायोपग्रहामावाद नोवं गच्छसि, गौरवाभावाश्च नाधो गच्छति, योगायोगविंगमाच नाधो गच्छति । उध्वं गतिस्तु तस्य १ गौरवप्रतिपक्षभूतलाघवपरिणामाद् धूमस्येव; २ यद्धा संगरिरहेण, तथाविधपरिणामत्वात अष्टमृतिकालेपत्रिलिप्तजलधिनिमग्नक्रमापनीतमृत्तिकालेपजलतलमध्योचंगामितथाविधालामुफलस्येव ३ बन्धनस्य कमलक्षणस्य विरहात् तथापरिणतेः कोशबन्धनविमुक्तैरण्डफलवत् ४ यदा, बहरूज़ज्वलनस्वभाववदात्मन ऊध्वगतिस्वभावत्वादिति ॥ २१ ।। हेतु से यह सूचित किया गया है कि केवलो को किया ध्यान के लक्षण से परिगहीत है । क्योंकि मन की स्थिरता को ही ध्यान कहा जाता है और केवली दशा में द्रव्यमन का उच्चछेद हो जाने पर भो भावमन को स्थिरता बनी रहती है। तीसरा जो हेतु है ध्यान के कार्य कर्मनिर्भरण को जनकप्ता, इस हेतु से केवली की क्रिया में ध्यानराम्द के व्यवहार के प्रौचित्य का समर्थन किया गया है। आशय यह है कि कर्म निर्जरण का जनक होने से ही केवली के ध्यान को ध्यान शम्ब से सम्बोधित किया जाता है । अतः केवलो को जो किया कमनिर्जरण का जनक है उसे मी ध्यान शब्द से व्यवहृत करना सर्वथा उचित ही हैं। चौथा जो हेतु है ध्यान शन्द की अनेकार्थकता उसका आशय यह है कि 'ध्यान' शम्ब के जो अनेक हैं उनमें केवली को मनोनिरपेक्ष क्रिया भी एक अर्थ है। इस हेतु से यह सूचित किया गया है कि केवलीको मनोनिरपेक्ष ध्यानसदृश क्रिया भी ध्यानशब्द का अर्थ है। पास ओ हेतु है जिनागम-जैनशास्त्र, जिस में प्रयोगो केवलो के ध्यान का वर्णन है, इस हेतु से, केवली के ध्यान में प्रमाण का प्रदर्शन किया गया है। ध्यान के सम्बन्ध में वास्तविकता यह है कि उसका अनुगत लक्षण भी है, जो केवली तथा अन्य लोगों की ध्यानतुल्य क्रियाओं में समन्वित होता है । वह है सुदृढ प्रयत्न से जन्य व्यापार अथवा विद्यमान योगों के निरोध आशय यह है कि सुदृढ प्रयश्न से चित्तको किसी वस्तु में व्यापारित जित करमा तथा विद्यमान योगों का-अनियन्त्रित रूप से संसार के विभिन्न विषयों को ओर दौडनेवालो इन्द्रियआदि का निरोध, इन दोनों में किसी एक को ध्यान कहा जा सकता है। केवली होने के पूर्व साधक या मोक्षार्थो का जो ध्यान होता है, वह सुदृद्ध प्रयत्न से चित्त का व्यापारण-मालम्बन विशेष में नियोजनरूप होता है, और केवलो हो जाने पर जो ध्यान होता है-वह विद्यमान योगों फा निरोधरूप होता है । इसप्रकार उक्त दोनों में से किसी एकरूप होना. ध्यान का यह लक्षण केवली और प्रकवली सभी के ध्यान में समन्धित हो जाता है। प्रयत्न में जो सुस्तत्व विशेषण दिया गया है यह प्रयत्नत्व की व्याप्य एक जाति है । जिस प्रयत्म से समुद्घास होता है उसप्रयत्नमें यह जाति नहीं रहती, अतः समुद्घात में ध्यान के उक्त लक्षण की प्रतिध्यारित नहीं होती। क्योंकि वह सुदृढ प्रयत्न से चित्त का व्यापारण अथवा विद्यमान योगों का निरोष, इन दोनों से भिन्न होता है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I हमा० क० टीका एवं हिस्वीविवेचन ] [ १०७ यदुक्तं - "ज्ञानयोगात् क्षयं कृत्वा" इत्यादि तत्र "ज्ञानयोगस्तपः शुद्धम् " [स्त. १-२१] इत्यादिप्रागुक्तग्रन्थस्यैकवाक्यतानिरूपणं प्रतिजानीते 1 मूलम् - 'ज्ञानयोगस्तपः शुद्धमित्यादि यदुदीरितम् । ऐपण भावार्थस्तस्यायमभिधीयते ॥ २२ ॥ ‘ज्ञानयोगस्तपः शुद्धम्' [स्त॰ १-२१] इत्यादि यदुदीरितं पूर्वमुपन्यासग्रन्थे, ऐदंपर्येण = एकवाक्यतया भावार्थ:-फलीभूतोऽर्थः, तस्याऽयं बुद्धिप्रत्यक्षः, अभिधीयते = सांप्रतं निरूप्यते ॥ २२ ॥ ध्यान का यह लक्षण कपोलकल्पित नहीं है किन्तु अभियुक्त सम्मत है, क्योंकि माध्यकारने मो एकगाथा में इसी लक्षण का निर्देश किया है। गाथा का अर्थ इसप्रकार है ( सुदृढप्रयत्नव्यापारणं निरोधो वा विद्यमानानाम् । ध्यानं करणानां मतं, न च चित्तनिरोधमात्रकम् ) सुदृद प्रयत्न से व्यापारण- चित्त का विषयविशेष में नियोजन का विमान का विशेष (आणिक उत्थान के विरोधी विषयों से इन्द्रिय) आदि का प्रत्यावर्त्तन ध्यान है, केवल चित्त का निशेधमात्र ध्यान नहीं है।' इस विषय का विस्तृत प्रतिपादन अन्यग्रन्थों में भी किया गया है । [ शुक्लध्यान की चतुर्थ अवस्था और सिद्धि ] चौथी अवस्था के शुक्लध्यान में प्रवेश हो जाने पर केवलो उस ध्यान से संसार - सम्पादक समो कर्मों को भस्म कर देता है क्योंकि वह ध्यान सम्पूर्ण संसाररूपी जंगल को जलाकर भस्म कर देने वाले श्रग्नि के समान होता है। जब शुक्लध्यान से केवल) के सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं, तब वह औदारिक, तंजस और कार्मण सभी शरीरों का त्याग कर अन्य किसी आकाश प्रदेश का स्पर्श न करते हुए किसी कालव्यवधान के बिना ही सोधे मार्ग से सिद्धिक्षेत्र मुक्त पुरुषों के विश्राम स्थल की यात्रा करता है, उस समय वह साकार उपयोग ( ज्ञानोपयोग ) में अवस्थित होता है । L धर्मास्तिकाय का सविधान न होने से मुक्त आत्मा सिद्धिक्षेत्र के ऊपर नहीं जाता है, गुरुत्व न होने से तथा काय आदि योग का सम्बन्ध न होने से नीचे भी नहीं जाता । शंका हो सकती है कि मुक्त प्रात्मा कायादि योग का सम्बन्ध न होने से जैसे नीचे नहीं जाता, बसे हो कश्यादि के अभाव में उसे ऊपर मो नहीं जाना चाहिए। इसका उत्तर यह है कि अयंगति के लिए कायादियोग का सम्बन्ध अपेक्षित नहीं होता किन्तु अधोगति के कारण मूत गुरुत्व के विरोधी लाघवरूप परिणाम की अपेक्षा होती है । अतः जैसे धूम उक्त लाघवरूप परिणामवश ऊपर की ओर जाता है, वैसे मुक्त आत्मा मी लाघवरूप परिणाम से ऊपर की ओर ही गतिशील होता है । अव यह भी कहा जा सकता है कि गुरुद्रव्य का संयोग न होने से उक्त परिणामण मुक्त आत्मा की ऊर्ध्वगति होती है। मुक्त आत्मा की यह ऊर्ध्वगति ठीक उसी प्रकार होती है. जैसे चारों ओर मिट्टी का लेप कर जलाशय में डाले गये जल में डूबे लौको के सूखे फल तुमडी को जलाशय की सलेटी से उस समय ऊर्ध्वगति होती है, जब जल के सम्पर्क से धीरे-धीरे उसपर लिपटी हुई ससूखी मिट्टी घुल जाने पर उसे नीचे ले जानेवाले गुरुद्रव्य का उसमें संसर्ग नहीं रह जाता। अथवा यह कहा Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] [ शास्त्रवार्ता हत० २ श्लो० २३ मूलम् - ज्ञानयोगस्य योगीन्द्रः पराकाष्ठा प्रकीर्तिता । शैलेशी संज्ञितं स्थैर्य ततो मुक्तिरसंशयम् ॥ २३ ॥ तथाहि, ज्ञानयोगस्य-शुद्धतपोरूपस्य, पराकाष्ठा - उत्कृष्टा कोटिः प्रकीर्तिता, शैलेशोसंज्ञितं - शैलेशो मेरुस्तद्वभिश्वलावस्था, शैलेशः शीलेशी वा भगवांस्तस्येयमन्यशीलशान्यवस्थातिशायिन्यवस्था शैलेशी, सैव संज्ञा यौगिकी समाख्या जाता यस्य तत्, स्थैर्यम् = निवृतियत्नरूपं परमवीर्यम् । न चैवमयं न ज्ञानयोग इति शङ्ककनीयम्; ज्ञानस्यावस्थारूपस्वात् शैलेश्याः, पाकरक्तताया इव घटस्य । ततः - शैलेस्यां काष्ठा प्राप्ताज्ज्ञानयोगात, असंशयं ह्रस्वपञ्चाक्षरोहिरणमात्रकालेन मुक्तिर्भवति ॥ २३ ॥ जा सकता है कि कर्मरूप बन्धन का प्रभाव होने पर लाधधपरिणामवश मुक्त आत्मा की ऊर्ध्वगति ठीक उसी प्रकार होती है, जैसे बाह्य छिलके का बन्धन नष्ट होने पर एरण्डबीज को गति होती है । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि जैसे ऊपर की ओर गतिशील होने के स्वभाव के कारण अग्निज्वाला की ऊर्ध्वगति होती है, उसी प्रकार ऊर्ध्वगतिशील स्वभाव होने के कारण मुक्त आत्मा की मी ऊर्ध्वगति होती है । [ शुद्ध तप स्त्ररूप ज्ञानयोग से मुक्ति ] प्रथम स्तबक की इक्कोस कारिका में जो कहा गया था कि परलोक सुख आदि की इच्छा न रख कर जो तप किया जाता है, ज्ञान धौर संयम से परिपुष्ट वह तप ही ज्ञानयोग है और वही मोक्ष का साधक है- नवें स्तबक की इक्कीसवीं कारिका में ज्ञान और तप की एकता में उबासीन रह कर यह कहा गया है कि केवली ज्ञानयोग से संसार-सम्पादक कर्मों का क्षय कर के मोक्ष प्राप्त करता है । श्रतः आपाततः इन दोनों ग्रन्थों में भिन्नार्थता प्रतीत होती है। इसलिए उन दोनों में एकवाक्यता बताने का उपक्रम प्रस्तुत कारिका में किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है- शुद्ध तप ज्ञानयोग है और वह मोक्ष का साधक है यह बात उपन्यास ग्रन्थ अवतरणप्रत्य में जो पहले कही गयी है उसका froकृष्ट अर्थ एकवाक्यता द्वारा अब बताया जायगा ||२२|| योगीन्द्रों ने शुद्धतपरूप ज्ञानयोग की उत्कृष्ट कोटि को शंलेशी नाम से अभिहित किया है । शैलेशी का अर्थ है शैलों के राजा सुमेरु के समान निवल अवस्था । अथवा 'शोलेश एव शैलेश': - इस व्युत्पत्ति से शैलेश का अर्थ है-शील का स्वामी शीलसम्पन्न भगवान् प्रौर शैलेशी का का अर्थ है अन्य सभी शोलावस्थाओं को टक्कर मारने वाली भगवान् को शीलावस्था । शैलेशी संज्ञा उस स्थर्य का, जो निवृत्तियत्नरूप है और जिसे परमत्रीयं कहा जाता है, 'यौगिकनाम' है। यदि यह शंका को आय कि 'शैलेशी शब्द से अभिहित यह स्थिरावस्था ज्ञानयोगरूप नहीं है, अतः उसे ज्ञानयोग की पराकाष्ठा कहना श्रसङ्गत है' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि शैलेशी उसीप्रकार ज्ञान की अवस्था है जैसे पाकजन्य रक्तता घट को । इस शैलेशी अवस्था में परमोत्कर्ष को प्राप्त ज्ञानयोग से ठीक उसमे ही काल में मुक्ति होती है जिसने काल में पांच हस्व अक्षरों का उच्चारण सम्पन्न होता है। शैलेश अवस्था के ज्ञान से इतने शीघ्र मुक्ति होने में कोई सन्देह नहीं है ।। २३ ।। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० ० टीका एवं हिन्दोविवेचन ] | 100 तस्य धर्मत्वादि साधयस्पष्ट धर्मस्तच्चेतिमूलम्-धर्मस्तवात्मधर्मस्वान्मुक्तिदः शुद्धिसाधनात् । अक्षयोप्रतिपातिस्वारसदा मुक्तौ तथास्थिते ॥२४॥ तव शैलेशीसंज्ञितं स्थैर्य च धर्म: आरमधर्मस्वात-आत्मस्वभावत्वाद, शुद्धज्ञानवत् । मुक्तिका निर्वाणप्रदः स च धर्मः शुद्धिसाधनात-परमनिर्जरोत्पादनात ; तथा अक्षयः= शाश्वतः अप्रतिपातिवात अनश्वरत्वात् , अनश्वरत्वं च सदा-नित्यम् मुक्ती तथास्थितेः-मुक्तस्य स्थिरभावेनावस्थानात् , स्थैर्यनिवृतावस्थैर्यस्य पुनरुन्मअनापत्तेः ॥ २४ ॥ न चैतदनार्षमित्याह चारित्रेतिमूलम्—चारित्रपरिणामस्य निवृत्तिनं च सर्वथा । सिड उक्तो यतः शास्ने 'न चारित्री न चेतरः ॥ २५ ॥ चारित्रपरिणामस्य शैलेश्यवस्थाभाविनो विशिष्टस्थैर्यस्य, निवृत्तिः नाशः नव-नैव, सर्वथा स्थैर्यरूपेणापि, किन्तु कथश्चित्कर्मापगमनस्वभावत्वेन । कथमेतदेवम् १ इत्याह-सिद्ध उक्तो यतः शास्त्रे-प्रवचने प्रज्ञापनादौ न चारित्री न चेतराम्नाप्यचारित्री सिद्ध णो धरित्ती, णो अधरित्ती" इति वचनप्रामाण्यात् ॥ २५॥ २४ घों कारिका में शैलेशी शम्ब से अभिहित स्थर्य को धर्मरूप सिद्ध किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-शैलेशी संज्ञा से ध्यवहृत स्थर्य धर्म है क्योंकि वह आत्मा का स्वभाव है, जो आत्मा का स्वभाव होता है वह धर्म होता है जैसे- शुद्धज्ञान । यह शैलेशो अवस्थारूप धर्म मोक्ष का जनक है, क्योंकि यह धर्म शुद्धि-परमनिर्जरा-संसारापादक समस्त कर्मों के क्षय, का जनक है। यह धर्म कभी सोग नहीं होता क्योंकि यह स्वरूपतः अप्रतिपातीअनश्वर है । अनश्वर होने के कारण ही यह सर्वदा अवस्थित रहता है, इसका प्रभाव नहीं होता क्योंकि मुक्तिकाल में मुक्त प्रात्मा स्थिरभाव से अवस्थित रहता है। यदि इस शैलेशी संज्ञक स्थर्य की निवृत्ति होगी तो मुक्त आत्मा क अस्थय - मोक्षावस्था से पतन को प्रापति होगी। ऐसा न हो इसीलिए इस अवस्था को अनश्वर और नित्य माना जाता ह॥ २४ ॥ पूर्व कारिका में शैलेशी अवस्था को जो अनश्वरता बतायी गई है प्रस्तुत २५वीं कारिका से उसमें अनार्षत्व को संका का निरास किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-शंलेशी अवस्था में आरमा को जो विशिष्ट स्थिरता प्राप्त होती है, उसे चारित्र का विशेष परिणाम कहा जाता है। उसका सर्वथा यानी स्थर्य रूप से भी नाश नहीं होता किन्तु कर्म निवृत्ति स्वभाव रूप से कश्चिद नाश होता है । यह कैसे सम्भव है, यह बात कारिका के उत्सराध में यह कहकर बतायी गयी है कि प्रज्ञापनासूत्रमादि शास्त्र में यह कहा गया है कि मुक्तात्मा में न चारित्र होता है और न अचारित्र १. सिद्धो नो चारित्री, नो अचारित्रः। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] [ शास्त्रवार्ता स्तक ६ श्लो. २६ मुक्तौ चारित्राऽनिवृत्तिमेव निदर्शनेन द्रढयितुमाहमूलम् - न चावस्थानिवृत्येह निवृत्तिस्तस्य युज्यते । समयातिकमे यबत् सिद्धभावस्य तन वै ॥२६॥ न गाणशानिलगा कर्मा पायाशाया निवृत्तिस्तस्य-स्थैर्यपरिणामस्य पुज्यते, इह-मुक्तो । किंवत् ? इत्याह-समयातिकमे प्रथमसमयातिक्रान्तौ यबस् यथा सिद्धभावस्य-सिद्धत्वस्य तत्र-मुक्ती, वैनिश्चितम् । यथा हि सिद्धत्वं प्रथमसमयादिनिवृत्तितया नाशशीलं द्वितीयसमयादिभावितया चोत्पत्तिशीलमपि सिद्धत्वस्वरूपेण साधनन्तमेव, सथा स्थैर्यमपि कर्मापगमनस्वमारत्वेन नश्वरमुत्तरस्वभावेन चोत्पत्तिशीलमपि स्थैर्यस्वरूपेण साधनन्तमविरुद्धमिति भावः। होता है। इस शास्त्रवचन रूप प्रमाण से यह स्पष्ट है कि यतः मुक्ति चारित्र का ही परिणाम है और परिणाम और परिणामी में मेव नहीं होता अतः मुक्तारमा में प्रचारित्र नहीं है। चारित्र इसलिए नहीं है कि मुक्तिरूप चारित्रपरिणाम चारित्र के फल का जनक नहीं है क्योंकि मुक्ति हो चारित्र का मन्तिम फल है। उस प्रमाण से यह भी सिद्ध है कि मुक्तात्मा का स्थैर्य, स्थैर्यरूप से निवृत्त नहीं होता क्योंकि उससे और कोई फलान्तर न होने से उसको अपने स्वरूप से निवृत्ति नहीं हो सकती। कारण, किसी कार्य के जनन से ही वस्त के पर्यरूप को निति होती है, और उसी प्रमाण से यह मी सिद्ध है कि कमनिवृत्तिस्वभावस्वरूप से इसको निवृत्ति हो जाती है, क्योंकि वह कर्मनिवृत्ति अपवर्गस्वरूप मुक्ति एक भावात्मक वस्तु है और कर्मनिवृत्तिस्वभावरूप चारित्र परिणाम, अमावात्मक बस्तु है। अत: मुक्ति की भावरूपता की उपपत्ति के लिए अमावस्वभावता की निवृत्ति मानना आवश्यक है ।। २५ ॥ [मुक्ति में स्थिरतारूप की अनियत्ति ] २६वों कारिका में दृष्टान्त द्वारा इस तथ्य का दृढतापूर्वक प्रतिपादन किया गया है कि मुक्ति में बारित्र की नित्ति नहीं होतो। कारिका का अर्थ इसप्रकार है-प्रात्मा को कर्मनिवृत्ति-अवस्था की निवृत्ति होने पर भी मोक्ष में स्थैर्य परिणाम की निवृत्ति नहीं होती। यह तथ्य सिद्धत्व के दृष्टान्त से अवगत किया जा सकता है। सिद्धस्व मुरु प्रारमा का एक परिणाम है जिसके बारे में यह निश्चय है कि प्रथमसमयविशिष्ट सिद्धभाव के निचत्त हो जाने पर भी उसके अपने सिद्धस्वस्वरूप को निवृत्ति महीं होती । कहने का आशय यह है कि जिस समय सिद्धत्व का लाभ होता है, उसी समय सिद्धत्व की सामग्नी से पूर्व समय को - प्रसिद्धत्वसमय को निवृत्ति भी होती है। अतः समान समय में समान सामग्री से सम्पन्न होने के कारण सिद्धत्व और असिद्धस्य समय की नियत्ति में अभेद होता है। फलतः सिद्धत्व के दो रूप होते हैं-एक उसका अपना स्वरूप सिद्धत्व प्रौर दूसरा "प्रथमसमय = असिद्धत्व समय का निबत्तित्य" इन दोनों रूपों से अतिरिक्त भी उसका एक रूप है वह द्वितीय तृतीय आदि उत्तर समयों में अनुषसमानत्व । इन तीनों रूपों में प्रथम समय निवृत्तिस्व रूप से वह (सिद्धत्य) नश्वर होता है क्योंकि प्रथम समय, असिद्धत्व समय की निवत्ति और सिद्धव की उत्पत्ति Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] 'नन्वेवं स्थैर्यभावेन साधनन्तस्वसिद्धावपि चारित्रमावेन न तथात्वसिद्धिः । न हि स्थैर्यमेव चारित्रम् , प्राक् शैलेश्यास्तदभावात , किन्तु योगस्थैर्य तत् । तच्च करणालम्बनसत्प्रवृत्त्यऽसमिटत्यन्यसरपरिणामरूपं शैलेश्यामपि स्वरूपसत्करणे काये स्थित्त्वैव सूचमकाययोगनिरोधात् परमचारित्रोपपत्तिा, सिद्भिगमनसमये च शरीरत्यागात् तदालम्बनचारित्रस्वभावापगमः, दंडापगमे तदालम्बनदंडित्वस्वभावापगमवदुपपत्तेः । द्रव्यरूपेणाऽन्वयं तु न वारयामः। न चैवं योगपरिणामरूपत्वात् केरलिनचारित्रस्यौदायकत्वं स्यात् , लेश्यावदिति वाच्यम् , नामकर्मोदयसध्यपेक्षत्वेऽपि तस्य मोहक्षयप्रधानहेतुकत्वेन क्षायिकत्वेनैव व्यपदेशात् , इन्द्रियपर्याप्त्युदयजन्येऽपीन्द्रिये प्रधानक्षयोपशमहेतुकारवेन क्षायोपशमिकत्वेनैव व्यपदेशवत । अत एव न कर्मकृतभावत्वेन तस्य धमत्वानुपपत्तिः, क्षायिकत्वेन तदुपपत्तेः । नचैवं स्वरूपत आश्रवत्वमप्यस्य शकुनीयम् , योगस्य तथास्वेऽपि योगनिर्गतपरिणामरूपस्य तस्याऽतथात्वात् । के समय से अभिन्न है । अत: उस समय के निवृत्त होने से, उससे अभिन्न प्रसिद्धत्वसमयनिवृत्ति को भी निवृत्ति होना न्यायप्राप्त है। वित्तीय प्रावि समयों में अनुवर्तमानस्वरूप से सिद्धत्व उत्पत्तिशील होता है और अपने सिसत्यरूप से सावि एवं अनन्स होतात सिहस्व की इस स्थिति के समान ही मुक्त आस्मा के स्थर्यपरिणाम की भी स्थिति है। क्योंकि वह भी कर्मापगमत्व=कर्मनिवृत्ति स्वभाव से नश्वर, उत्तर समय में अनुवर्तमानस्य स्वमाव से उत्पत्तिशील और स्पैर्यत्व रूप से साबि और अनन्त है । स्थर्य को सादि और अनन्त कहने का आशय यह है कि मोक्षकाल में आत्मा का स्पैयं उत्पन होता है, और उत्तर काल में सदा अनुवर्तमान होने से उसका अन्त नहीं होता । [मोक्ष में चारित्र का असंभव-एकनयमत ] यदि यह कहा जाय कि "स्थर्य रूप से स्थर्य में सावित्व और अनन्तत्व की सिद्धि होने पर चारित्रत्यरूप से सादिअनन्तत्व की सिद्धि न होने से मोक्ष में चारित्र की अनियति नहीं सिब हो सकती । स्पर्य ही चारित्र नहीं है, क्योंकि शंलेशी के पूर्व स्थर्य नहीं होता; किन्तु योगस्थय चारित्र है। योगस्थर्य का अर्थ है योग,-अर्थात् काय, वाणी और मनरूप करणों द्वारा सत्कार्यों में प्रवृति अथवा असत्कार्यों से निवृत्तिरूप मारमा,-का परिणाम, शैलेशी अवस्था में योग द्वारा सत्कार्यप्रवृत्ति यद्यपि नहीं होती, पर असत्कार्यनिवृत्ति होती है। अतः शैलेशो अवस्था में उक्त अन्यतर परिणाम रूप योगस्पैर्य विद्य. मान है। क्योंकि स्वरूपसत जो करण काया उस में स्थित होकर ही सूक्ष्मकाय का निरोष होने से परमचारित्र की सिद्धि होती है। किन्तु मुक्तारमा जब सिद्धिक्षेत्र को यात्रा प्रारम्भ करता है, तब वर्तमान शरीर का त्याग होने से उसके द्वारा सम्पन्न होने वाले स्थर्यपरिणामरूप चारित्र स्वभाष १. इतः 'सिद्धानां चारित्रं कथं सुश्रद्धानम्' ? (पृ. १२३ ) इत्यन्तः सिद्धाऽचारित्रवादिपक्षः । क यह चर्चा बहुत ही लम्बी है । एकनयमत का निरूपण भी सुविस्तृत है । वाचकवर्ग बराबर ध्यान से पढेगे तभी समझ सकेंगे। --- - - - -..- .. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] (शास्त्रवास्तिक ६ ग्लो. २६ अपि च, प्राक्तनं चारित्रमेवोत्कृष्यमाणं शायोपशमिकादिभावं परित्यज्य क्षायिकमावेन परिणमते, न तु निर्मलीभवस्वामिय प्रागवस्थितस्वरूपात प्रच्यवते. संज्ञान्तरोपनिबन्धस्य तत्त्यागाऽनियतत्वात् । प्राक्तनं च तद् मूलगुणविषययोगस्थैर्यमेव शुभवीर्यरूपं दृष्टम् , वज्रस्थानीयस्य तस्य ज्वलनजनितोपतापरूपोत्तरगुणाऽस्थिरभावमूर्तिकातिचारादिना भङ्गाऽयोगात ; इस्थमेव चक्रजडानां चण्डानां च चण्डरूद्रप्रभृतीनां तदुपपत्ते न तु शुद्धोपयोगरूपम् आत्मस्थैर्यरूपं वा, तदोक्तातिरिक्तसदसिद्धेः, उपयोगरूपत्वे चारित्रस्य जिनानामुपयोगत्रयादिप्रसरत्या व्यवस्थाविप्लवाच । शुभवीयरूपं च तत् करणनिमित्तकप्रवाहपतितपरिणामरूपत्वाद् निमित्तेन सहैव नश्यति । को निवृत्ति ठीक उसीप्रकार होती है, जैसे दण्ड का अभाव होने पर दण्डमूलक दण्डिरवस्वभाव की निवृत्ति होती है। हो, यह मान सकते हैं कि उत्तरोत्तरकाल में पूर्वपूर्वकालसापेक्षस्वभाव की ही निवृत्ति होती है, उसके द्रध्यस्वरूप की निवृत्ति नहीं होती। अतः वृध्यस्वरूप से चारित्र का सम्बन्ध भावी सम्पूर्ण समय में बना रहे तो उसका हम इनकार नहीं करते। पवि इस पर कहा जाय कि-'केवली का चारित्र मदि योगपरिणामरूप होगा तो 'लेश्या के समाम औवयिक हो जायगा -तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि 'इन्द्रियपर्याप्ति नामकर्म के उदय से जम्म होने पर भी प्रधानतया ज्ञानावरण के क्षयोपशम से जन्म होने के कारण जसे इन्द्रिय को "मायोपशमिकही कहा जाता है, वैसे ही केवली का चारित्र भी कम के उदय से जन्म होने पर भी प्रधानतया मोहक्षय से जन्य होने के कारण क्षायिक ही कहा जाना उचित है । प्रधान हेतु के अनुसार कार्य व्यवहार के औचित्य के कारण ही केवली के चारित्र को कर्मजन्यभाष के रूप में उसका धर्म न मानकर कर्मक्षयजन्यमावरूप में हो उसका धर्म माना जाता है। 'योगपरिणामरूप होने से केवली पारित्र में आश्रवरूपता' की भी शंका नहीं की जा सकती, क्योंकि योग के माधवरूप होने पर भी केवली का चारित्र योगवारक मात्मपरिणामरूप होने से वह मानवरूप नहीं हो सकता। [चायोपशमिक चारित्र का क्षायिकभाव में रूपान्तर ] इस सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि मो चारित्र पहले रहता है वही अब उत्कर्ष को प्राप्त करने लगता है तब क्षायोपशमिकमावि भाव का त्याग करके क्षायिकभाष से परिणत हो जाता है। धोने के बाव शुद्ध होने वाले वस्त्र के समान अपने पूर्वरूप से वह च्युत नहीं होता। क्षायिक' इस नई संझा १. लेश्या-जीव के शुभाशुभाध्यवसाय को लेश्या कहते हैं-उसके छ प्रकार हैं। २. औदयिक-कर्म के उदय से प्रगट होने वाले भावों को औदयिक कहते हैं। ३. इन्द्रियपर्याप्ति नाम कर्म-इन्द्रिययोग्य पुद्गलों को इन्द्रियरूप से परिणत करने की शक्ति का संपादक कर्म । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] [ ११३ I न चैवं केवलज्ञानस्यापि शरीरनिमित्तकत्वात् तत्राशेन सह नाशप्रसङ्गः तथा च जैनमतस्य बाह्यमतादविशेषः स्यादिति शङ्कनीयम्, तत्रापेक्षामात्रेण शरीरस्य हेतुत्वेऽप्यालम्बनतयाऽहेतुत्वात् । हृष्यते हिं काययोगनिरोधाख्यकायव्यापारोत्कर्मप्रयुक्तोत्कर्षभागित्वं चारित्रे केलिन न तु ज्ञान इति । 'निरोधो न कायव्यापार' इति चेत् ? न, संयोगादिवत् तस्य दूव्याभयत्वात् ; अन्यथा 'कायस्य निरोधः' इति संबन्धाऽयोगात् । ' चायिकत्वे कथं चारित्रस्यो - तरकालं हेत्वन्तरापेक्ष उत्कर्षः ९' इति चेत् ? उदमुभय समाधेयम् । 'मोहक्षयाद् दोषापगमेन स्वरूपशुद्धितारतम्य विश्रान्तावपि परमनिर्जरारूपफले योगानां प्रतिबन्धकत्वात् तदपगमलक्षणोस्कर्षो व्यवहाराद् न विरुध्यते निश्चयतस्तु ऋते कालाद् न तत्रान्यप्रतिबन्धः तत्प्रतिबन्धश्च तच्चतोऽप्रतिबन्धः तथापरिणामोपयोगित्वात् तस्येति न विरोध' इति चेत् १ इदमप्युभयमते तुल्यम् । तस्माज्ज्ञानाऽनाशेऽपि शरीरेण सह चारित्रनाशोऽवश्यमभ्युपेयः । को प्राप्त करने के कारण उसके पूर्वरूप के स्थान को कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि पूर्वसंज्ञा से भिन्न संज्ञा की प्राप्ति में पूर्वरूप के त्याग का कोई नियम नहीं है। पूर्वकाल का चारित्र 'मूलगुण के विषय में योगरूप है जिसे शुभवरूप माना गया है। यह वारित्र वज्रा के समान दय होता है अतः जैसे आग के ताप से वज्र का गलन नहीं होता मात्र तपन हो होता है वैसे उत्तरगुण के सम्बन्ध में योग की अस्थिरताप अतिचार (दोष) आदि होता है किन्तु चारित्र का भङ्ग नहीं होता। अतिचार अदि से प्राक्तन चारित्र का मङ्गन होने से हो 'दक जड और चण्ड ( उग्रकोपनशील स्वभाववाले आचार्य चण्डरुद्र आदि में मो चारित्र को उपपत्ति होती है। पूर्वकालीनचारित्र शुद्ध उपयोगरूप अथवा आत्मरूप नहीं होता क्योंकि पूर्वकाल में मूलगुणविषयक योगस्वयं से अतिरिक्त चारित्र का अस्तित्व असिद्ध है और दूसरा कारण यह है कि यदि पूर्वकालीन चारित्र को उपयोगरूप माना जायगा सो जिनभाष ईश्वरभाव को प्राप्त पुरुषों में ज्ञान दर्शन और चारित्र के तीन उपयोग भावि की आपति होने से प्रवस्थाभेद से उपयोगमेव की व्यवस्था का लोप हो जायगा । शुभवोर्यरूपचारित्र यतः मनवचन कायरूप करणमूलकपरिणाम प्रवाह अन्तर्गत एक परिणाम होता है अतः कायादि करणरूप निमित का नाश होने पर उसका भी नाश हो जाता है। (प्रतः मुक्ति में चारित्र नहीं हो सकता । ) [ शरीरपात के साथ ज्ञानविनाश- आप िका परिहार ] aft यह शंका की जाय कि जैसे चारित्र कायाधिकरणमूलक होने से कायादि का नाश होने १. मूलगुणविषय योगस्थैर्य - ऐसा योगस्थैर्य जिससे पाँच महाव्रतस्वरूप मूलगुण सुरक्षित रहते हैं । २. उत्तरगुणविषययोगस्थर्यरूप अतिचार- अतिचार यानी दोष, योगों में अल्पांश अस्थिरता होने पर पशुद्धि आदि उत्तरगुणों में जो क्षति आती है वह अतिचाररूप है। ३. वक्रजड-जो लोग अल्पज्ञ होने पर भी ज्ञानीजन के उपदेश का सरल हृदय से स्वीकार नहीं करते उन्हें जड़ और वक्र कहते हैं । ४. चण्डरुद्र - एक जैन आचार्य जिसे बात बात में बहुत ही गुस्सा आ जाता था । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] [ शास्त्रमा स्त० ९ श्लो० २६ किश्च शुभवरूपत्वाचारित्रस्य कथमवीर्यार्णा सिद्धानां तत्सद्भावः सुश्रद्धानः १ न च सिद्धानामवीर्यत्वमसिद्धम् - " तत्थ णं जे ते असंसारसमावण्णा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं अवीरिया" इति प्रज्ञप्ति [१-७२ ] वचनात् । न च सुकरणचीर्याभावादवीर्याः सिद्धा इति व्याख्येयम् महान मन्त्रे- 'सिद्धा लद्भिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं अवीरिया' इति सूत्रकम्पनप्रसङ्गात् यथा “तस्थ णं जे ते सेलेसीपडिवमया ते णं लद्विवीरिएणं सवीरिआ, करणवीरिएणं अभीरिआ" इति । किश्व - [ वि. आ. भा. ३०८७ ] " तरसोद या मव्वत्तं च विविए समयं । सम्मत्त - नाण- दंसण-सुद्द - सिद्धताई मोत्तूणं ॥ १ ॥ " पर पूर्वकालीन चारित्र का नाश होता है इसे ही ज्ञान शरीरजन्य होने से शरीर का नाश होने पर केवलज्ञान का भी नाश हो जाना चाहिये और यदि ऐसा माना जायगा तो बौद्धावि बाह्य मतों से जगमल का भेद न हो सकेगा तो यह शङ्का ठीक नहीं है क्योंकि केवलज्ञान की उत्पत्ति में शरीर अपेक्षाकारण सहकारीकारण है, किन्तु आलम्बनकारण प्रधान कारण नहीं है और प्रालम्बनकारण के नाश से ही कार्य का नाश होता है न कि अपेक्षाकारण के नाश से। अतः शरीर के नाश से केवलज्ञान के नाश की आपत्ति नहीं हो सकती । = शरीर केवलज्ञान का अपेक्षाकारण है प्रालम्बनकारण नहीं है इसीलिये काययोग के निशेषरूप कायव्यापार के उत्कर्ष से केवली के चारित्र का ही उत्कर्ष माना जाता है ज्ञान का नहीं । 'काययोग का निरोष कायव्यापाररूप नहीं है' यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि संयोग अदि के समान उभाषित होने से कायनिरोध कायाधित भी है प्रतः उसे कायव्यापाररूप होने में कोई बाधा नहीं हो सकती । कायनिरोध को कायाश्रित मानना आवश्यक भी है अन्यथा काया के साथ उसका सम्बन्ध म होने पर 'कायस्य निरोधः काया का निरोध' ऐसा निरोध के साथ काया के सम्बन्ध का व्यवहार न हो सकेगा । यदि यह प्रश्न किया जाय कि यदि आलम्बनकारण के सत्य-असत्त्व आदि के अनुसार ही कार्य का सत्त्व असत्त्व आदि होता है तो चारित्र तो क्षायिक है फिर उत्तरकाल में कायनिशेषरूप अन्य हेतु से यानी आलम्बनमिन हेतु से उसका उत्कर्ष कैसे होगा ?' तो इस प्रश्न के समाधान का भार कार्य के सत्त्व असत्त्व आदि को केवल आलम्बनहेतु के सत्त्व असत्त्व पर निर्भर माननेवाले एवं अन्यथा माननेवाले दोनों वादियों के लिये समान है। यदि यह कहा जाय कि 'मोह के क्षय से दोषों की निवृत्ति हो जाने पर स्वरूप शुद्धि के तारतम्य की समाप्ति हो जाने पर की 'परमनिर्जरा=संसारापावक समग्र कर्मों के आत्यन्तिकक्षय' में योग के प्रतिबन्धक होने से योगनिवृत्ति से चारित्र का उत्कर्ष होने में व्यवहारनय को दृष्टि से विशेष नहीं है । निश्चयतय की दृष्टि से मी काल के अतिरिक्त किसो प्रत्य से प्रतिबन्ध संभव नहीं है और कालकृतप्रतिबन्ध तात्त्विकद्दष्टि से कोई प्रतिबन्ध नहीं है क्योंकि वह चारित्र परिणाम के उत्कर्ष में उपयोगी हो होता है। घतः क्षायिक होने पर भी अन्य हेतु से चारित्र का उत्कर्ष होने में कोई विरोध नहीं है तो यह भी चारित्र को औयिक और क्षायिक माननेवाले दोनों के लिये समान है । अतः शरीरनाश से ज्ञान का नाश न होने पर भी चारित्र का नाश मानना आवश्यकहै । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० क० टोका एवं हिन्वीणिवेचन ] इति विशेषावश्यक चारित्रवीर्ययोनिवृत्तिरादुक्तैव । सूत्रेऽपि "औपशमिकादिभव्यत्वाऽभावाचान्यत्र केवलसम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शनसिद्धत्वेभ्यः" [ त० पू०१०-४ ] इत्यत्र । अत्र हि औपशमिकमायोपमिकौदयिकभावानां दर्शन झान-गत्यादीनां, पारिणामिकभावस्य च भव्यत्वस्य (निवृत्त), 'अन्यत्र केवल.' इत्यादिना चानन्तज्ञान-दर्शन-सम्यक्त्वानामनियमधानात एकविशेषनिषेधस्प तदितरविशेषाभ्यनुशाफलत्वाद् दानादिलब्धि-चारित्ररूपस्य च क्षायिकभावस्य निवृसिर्लभ्यत इति । सिद्धत्वमेव च भावतः सुखामात विषक्षयान सुखानिारयनुपग्रहः सुखसिद्धत्वयोनितिश्चानुत्पचिरूषा प्रतिषिध्यत इति नाऽप्रसक्तप्रतिषेधः । अत एव च "सम्मत्त-चरिचाई साइ-संतो अ उपसमिओ अ । दाणाइलद्धिपणगं चरणं पिय खाओ भावो ॥१॥" [वि. भा. २०७८ ] इति ग्रन्थेन दानादिलब्धिपश्चक-चारित्ररूपस्य घायिकभावस्य स्फुटमौपशमिकसम्यक्त्वचारित्रभाववद सादिसान्तत्वं भाष्यकृतोक्तम् । [[वीर्यरहित सिद्धों को चारित्र कैसे १] इस प्रसंग में यह मी विचारणीय है कि चारित्र शुद्धवीर्यरूप होने से बीयहीन सिडों में उसके मस्तित्व का प्रभ्युपगम कैसे किया जा सकता है ? 1 सिख आस्मा में वीर्य अभाव असिब है यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि 'प्राप्ति' में (व्याख्याप्राप्ति सूत्र में कहा गया है कि-'जो प्रसंसारी अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं वे सिद्ध होते हैं और सिद्ध अवीर्य होते हैं। यदि यह कहा जाय कि-'सित में सर्वथा बोर्य का प्रभाव बताने में प्रज्ञप्ति' का तात्पर्य नहीं है किन्तु करणवीर्य काममाष बताने में है-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि सिद्धों में 'लन्धिवीर्य मानने पर 'शैलेशी अवस्था में पहुंचे हुये लब्धिवीर्य से सबीर्य और करणबीर्य से वीर्य होते हैं। इस आशय के सूत्र के समान प्राप्ति के उक्त वचन को 'सिद्ध लब्धियोर्य से सपोर्य होते हैं और करणवीर्य से अबीर्य होते हैं। इस प्राशय के सूत्ररूप में कल्पना की आपत्ति होगी। दूसरी बात यह है कि “विशेषावश्यक भाष्य' में सिद्धों में वीर्य की निवृति और चारित्र का न होना शब्दतः नहीं किन्तु अर्थतः कह मो दिया गया है। क्योंकि उसमें यह स्पष्ट निर्देश है कि सम्पवस्व ज्ञान, दर्शन, सुख और सिद्धस्व को छोड़कर सिद्ध के औषयिक आदि भावों और भव्यत्वको निवृत्ति एकसाथ ही होती है। 'तस्वार्थाधिगम' के दशवें अध्याय के चौथे सूत्र में भी यह कहा गया है कि सिवात्मा में सम्यक्त्व, जान, दर्शन और सिद्धत्व से अतिरिक्त औपमिक आदि भाषों मोर भव्यत्य का अभाव होता है । उस सूत्र के उत्तरभाग में बर्शन, ज्ञान, गहि आदि औषमिक.भायोपशामक, औवयिकभावों की तथा पारिणामिक भावरूप मध्यस्व की निवृति एवं अनन्त ज्ञान, शंन और सम्यक्त्व को अनिवृत्ति का निर्देश किया गया है। यह न्यायप्राप्त है कि एक विशेष के निषेष से अन्य विशेष का अभ्युपगम १. लब्धिवीर्य ---गुप्त यानी अप्रगट शक्तिरूप वीर्य। २. करणवीर्य प्रगट शक्तिरूप वोयं । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] [ शास्त्रमा स्तश्लो० २६ न चावस्थानाशेन शाश्वतस्यापि चारित्रस्य सादिसान्तस्वमुपपद्यते, भवस्थत्वावस्थानाशेन केवलज्ञानस्यापि तवप्रसङ्गात् केवलभावेन केवलस्य शाश्वतत्ववादिनाऽप्यवस्थाविशेषनियतनाशोत्पादोपगमाव; अन्यथा वैलक्षण्याऽसिद्धः। तथा च सम्मतिकार:-[वि. काण्डे ] ''जे संघयणाईआ भवत्थकेयलिविसेसपज्जाया। ते सिज्झमाणसमए ण होति विगयं तो होइ ॥१॥ 'सिद्धत्तणेण य पुणो उप्पण्णो एस अस्थपजाओ। केवलमावं तु पहुच केवलं दाइ सुत्ते ॥२॥" [सम्मति २/३५-३६] फलित होता है । अतः सम्यक्त्व प्रावि को निवृत्ति के निषेष सेवालाविलन्धि आदि चारित्ररूप क्षायिकभाव की निवृत्ति का होना ज्ञाप्त होता है। . सूत्र में यद्यपि सम्वतः सुख की निवृति का निषेध नहीं है किन्तु सिद्धत्वशब्द से भावतः मुखरूप सिद्धत्व की निवृत्ति का निषेध है। अतः सुख की अनिवृत्ति का प्रसंग्रह नहीं हो सकता । सुखरूप सिद्धत्व को निवृत्ति के प्रसक्त न होने से उसको निवृत्ति के निषेध को प्रप्रसत का प्रतिषेध कह कर प्रसंगत नहीं बताया जा सकता। क्योंकि सिद्ध परुष में शरीर प्रावि निमित्त के अभाष से सख और सिद्धत्व की अनुपपत्तिका लिगति प्रसता है ! बातः कमी मिति का निक्षेत्र अप्रसक्त का प्रतिषेध नहीं है। सूत्र में सम्यक्त्व आदि को निवृत्ति के निषेध से दानादिलम्धिरूप क्षायिकमाव को निवृत्ति का कारण ही भाष्यकारने कहा है कि जैसे औपशमिक सम्यक्त्व और चारित्रसादि एवं सान्त है वैसे हो दानादिलब्धिरूप क्षायिक धारिष भी सादि एवं शान्त है ।। [शाश्वत चारित्र में सादि-सान्तत्व की अनुपपत्ति ] . यदि यह कहा जाय कि-'अवस्थानाश से शाश्वतचारित्र में भी सादित्व और सान्तत्व की उपपत्ति की जा सकती है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अवस्थानाश से शाश्वतचारित्र को सादि सान्त मानने पर भवस्थस्थ अवस्था के नाश से केवलज्ञाम का भी नाश होने से उसमें मो सादि-सान्तत्व को मापत्ति होगी क्योंकि जो केवलज्ञान को केवलमाव से शाश्वत मानते हैं वे भी अवस्था विशेष के नाशउत्पाद से केवलज्ञान का भी नाश-उत्पाद मानते ही हैं। दूसरी बात यह है कि यदि अवस्थानाश से चारित्र को सादि-सान्त कह कर उसको सर्वथा निवृत्ति नहीं मानेंगे तो सिद्धदशा में केवलज्ञान और चारित्र में जो सुत्रसिद्ध विलक्षणता है वह विलक्षणता न हो सकेगी। सम्मतिकार ने इस बात को इन शब्दो में कहा है कि-'सिद्धि प्राप्त होने पर मवस्थकेवली के संहनन प्रादि विशेषपर्याय नई सिद्धि को प्राप्ति से उन पर्यायों से कुछ अभेदभावापन्न केवलज्ञान का भी विगम हो जाता है । सिद्धस्वरूप से केवलज्ञानाख्य अर्थपर्याय उत्पन्न होता है । सूत्र में केवलभाव यानी सत्ता को लेकर केवलज्ञान को अपर्यवलित कहा गया है। १. ये संहननादिका भवस्थकेवलिविशेषपर्यायाः । ते सिध्यमानसमये न भवन्ति विगतं ततो भवति ।।१।। २. सिद्धत्वेन च पुनरुत्पन्न एषोऽर्थपर्यायः । केवलभावं तु प्रतीत्य केवलं दर्शितं सूत्रे ।।२।। ३, दानादिलब्धिः --दान-मोग-उपभोग-लाभ वीर्य ये पांच लब्धि । लामोने केक Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [ ११७ -...-. . - - - अथ चरणदानादिलब्धीनां विकारिणीनामेव सदानीमुपक्षयः, अविकारिणीनां तु सुतरां संभवः, विकारिंगुणोपक्षयेऽविकारिगुणप्रादुर्भावनियमादिति चेत् ? किमिदं विकारित्वं ? शरीराद्यपाया अस्तमानत्वं पा, शानियतापक्षोत्पांकित्व वा, फलावच्छिन्नत्वं वा १ । नाधा, केवलज्ञानादेरपि तथाभावप्रसङ्गाद । न द्वितीयः, तन्नाशनियतनाशप्रतियोगित्वस्यैवेत्थं प्रसङ्गात् । नापि कृतीयः, फलानवच्छिमतदुत्पत्ती मानाभारात , चारित्रस्य फलावच्छिन्नत्यनियमात् । अथोत्तरफलानच्छिन्नत्वमविकारित्वम् , तच्चोत्पत्युत्तरसमयावच्छेदेन फलाभारवश्वम्। तेन नोत्तरफलसिद्धथसिद्धिभ्यां व्याघातः । मानं च चारित्रस्थ तथात्वे रत्नत्रयसाम्राज्यस्य मोक्षसामग्रीयोक्त्यन्यथानुपपत्तिरेवः केवलोत्पत्तिसमये काष्ठाप्राप्तयोनि-दर्शनयोरुत्पादेऽपि चारित्रस्य तथाभूतस्यानुत्पादादेव मोक्षविलम्यात; यथा खल्यचौरोऽपि चौरसंसर्गितया 'चौरः' इति व्यपदिश्यते तथा तत्वतश्चारित्राऽप्रतिपन्धित्वेऽपि तत्प्रतिपन्थिमोहसाहचर्याद् योगाना तथा व्यपदिश्यमानानां प्रतिवन्धकानामपगमादुत्पन्नेन परमयथाख्यातचारित्रेण सामग्रीसंपत्त्या [ अविकारि चारित्रगुण के ऊपर तीन विकल्प ] प्रस्तुत विषय में यह शङ्का हो सकती है कि-'दानादिलब्धि और चारित्रहप जो विकारो गुण होते हैं उन्हीं का सिद्धिदशा में नाश होता है किन्तु जो अविकारी गुण होते हैं उनका अस्तित्व तो उस दशा में भी अनिवार्य है क्योंकि विकारीगुण का नाश होने पर अविकारीगुण की उत्पत्ति का नियम है।' इस शङ्का के सम्बन्ध में यह प्रश्न है कि विकारित्व क्या है ? (१) शरीर आदि की अपेक्षा से प्रवर्त्तमान होना अथवा (२) अपनी उत्पत्ति में नियम से शरीर को अपेक्षा करता, किंवा (३) फलयुक्त होना ? इनमें प्रथम पक्ष स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि उसे विकारित्व मानने पर शरीर को अपेक्षा से प्रवत्तमान होने के कारण केवलज्ञान भो विकारी हो जायगा फलतः सिद्धिदशा में उसके भी नाश की प्रापत्ति होगी। दूसरा भी स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि उसे विकारित्व मानने पर शरीर का नाश होने पर नियत शरीरापेक्षोत्पत्तिक का नियमतः नाश भी होने की प्रापत्ति होने से उक्त दोष तदवस्थ रहेगा, क्योंकि आद्य केवलज्ञान भी नियत शरीरापेक्षोत्पत्तिक है अत: शरीर नाश के साथ उसका नाश भी भी नियमतः हो जायेगा। तीसरा भो स्वीकार्य नहीं हो सकता, क्योंकि तीसरे विकारित्व मानने पर चारित्रमात्र में फलसम्बन्ध का नियम होने से फलहीन चारित्र को उत्पत्ति में कोई प्रमाण न होने के कारण अधिकारी चारित्र को कल्पना हो नहीं की जा सकेगी। [ अविकारित्वरूप चारित्र के उपपादन का नव्य प्रयास ] यदि यह कहा जाय कि-'विकारित्व उत्तरफलावच्छिन्नत्वरूप है और उसका अमाव है अविकारित्व । उत्तरफलावच्छिन्नत्व के अभाव का अर्थ है उत्तरकाल में फलाभाववत्त्व, प्रतः उत्तरफलाच्छिन्नस्वाभाव को अधिकारिस्वरूप मानने पर दोष नहीं हो सकता कि-"सिद्धि दशा के चारित्र का उत्तरफल यत्रि सिद्ध है तो उसमें उत्तरफलावच्छिन्नत्वाभावरूप अविकारित्व का ध्याघात होगा और यदि उत्तरफल सिद्ध नहीं है तो भी व्याघात होगा. क्योंकि जब उत्तर फल है ही नहीं तो उत्सरफलाव Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] [ शास्त्रवास्तिक ६ श्लो० २६ मोचोत्पः, गणान्यातलोनैन नप पशजल वान विभागव्याघात इति चेत् १ न, तपरतो योगानां चरित्राप्रतिपन्थित्वेन तदपगमे परमयथाख्यातचारित्रानुत्पत्तेः, उत्पत्ती का यथाख्यासात्तस्य मतिज्ञानादेः केवलज्ञानस्येव विजातीयत्वेन विभागव्याघातात् । ज्ञान-क्रिययोनयमेदादन्तक्रियाद्वारा शैलेश्यामवस्थामेदाद् वा मोक्षजनकत्वोपपत्रः सर्वसंवरस्याप्यर्थसिद्धत्वात् , तदर्थ हेतु भेदकल्पनानौचित्यात् । शायिकस्यापि सतः शैलेश्यर्वाचीनधारित्रपरिणामस्य निवस्युपगमे चारित्रस्व सामान्यतः सादिसान्तत्वप्रतिपादकवचनेषु चारित्रपदस्य परमयथाख्यातातिरिक्तचारित्रपरत्वस्याऽन्याय्यस्वाच्चेति दिग् । चिछनत्वरूप प्रतियोगी के असिद्ध होने से उसका अभाव मी सिम नहीं हो सकता क्योंकि जगत में अलीकप्रतियोगिक अभाव नहीं हो सकता, असिद्ध प्रतियोगी का अभाव अमान्य है।"-यह दोष सभी होता अगर उत्तरकाल में फलामाद रूप अविकारित्व न मान कर उत्तरफलावच्छिन्नस्थ के अमाव को प्रविकारित्व माना जाता। .. चारित्र उत्तरकाल में फलशून्य होता है, इस बात में यदि प्रमाण पूछा जाय तो उसका उत्तर यही है कि तत्त्वार्थ सूत्र में शाम, वर्शन, चारित्र इन तीन रत्नों की उत्कृष्ट समष्टि को जो मोक्ष का जनक कहा गया है, उस कथन की अन्यथानुपपत्ति ही उस में प्रमाण है। कहने का आशय यह है कि परिचारित्र सर्वदा उत्तरकाल में किसी मोक्षातिरिक्त लौकिक फल से युक्त ही होगा तो वह मोक्ष का जनक ही न हो सकेगा, अत: उसे मोभजनक कहना उपपन्न न हो सकेगा, प्रतः सिद्धिदशा में पारित्र को उत्तरफल से शून्य मानना आवश्यक है। यदि यह कहा जाय कि-बारित्र मोक्ष का जनक नहीं है किन्तु केवलमान और दर्शन ही मोक्ष के जनक है'-तो यह उचित नहीं हो सकता क्योंकि केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय धरम सस्कर्ष को प्राप्त ज्ञान और दर्शन के होने पर भी चरमोत्कर्षप्राप्त चारित्र को उत्पत्ति न होने तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, जब कि प्रतिबन्धक काय आदि योगों निरुद्ध हो जाने पर ययाख्यात नामक सर्वोत्कृष्ट चारित्र की उत्पत्ति होने पर मोक्षसामग्री का सानिधान होने से मोक्ष की प्राप्ति होती है । तात्विक दृष्टि से योग यपि चारित्र का प्रतिबन्धक नहीं है किन्तु जैसे अघोर भी चोर के सम्पर्क से चोर कहा जाता है वैसे हो चारित्र के तस्वत: अप्रतिबन्धक भी योग चारित्र के प्रतिबन्धकमोह का वशमगुणस्थान पर्यन्त सहचारी होने से प्रतिबन्धक कहे जाते हैं। मोक्ष के जनक सर्वोत्कृष्ट परमचारित्र का यथास्यातस्वरूप से चारित्र के पांचवे भेद में मन्तर्भाव होने के कारण चारित्र के पश्चधा दिमाग का ध्याघात भी नहीं हो सकता। इस प्रकार यह शङ्का मिषिरूप से उत्पन्न हो सकती है कि सिद्धि दशा में विकारो चारित्र का प्रभाव होने पर भी मविकारी चारित्र का अस्तित्व हो सकता है। [चारित्र उपपादक नव्यमत का निरसन ] किन्तु एकनयमत की दृष्टि में उक्त समर्थन ठीक नहीं मचता क्योंकि सिद्धि वशा में जिस अधिकारी याख्यात परमचारित्र के अस्तित्व को सम्भावना की जाती है, तस्वदृष्टि से योग के चारित्रका प्रतिबन्धक न होने से योग का अभाव होने से उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकसी और यदि Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा... टोका एक हिन्दीविवेचन j [११९ नन्वेवं चारित्रं क्रियारूपं पर्यवसायम् , श्रूयते चाऽक्रियायाः सिद्धिगमनपर्यवसानफलत्वम् ; तथा चार्षम्-'सा भंते ! अकिरिया किंफला १ गोयमा ! सिद्धिगमणपज्जवसाणफला पत्ता" इति कथं न विरोधः १ इति चेत् ! न, अन्तक्रियाया एवैजनादिव्यापाराऽमावेनाऽक्रियात्वेन, चरमकर्मत्वेन च "झान-क्रियाभ्यां मोक्षः" इत्यादौ क्रियात्वेनोक्तरविरोधात् । अथ सिद्धिगमनसमये चारित्रनाशोपगमे चारित्रस्य मोक्षहेतुत्वं न घटेत, कार्यकालेऽसता कायस्योत्पादयितुमशक्यत्वात् , कार्यानुकृतान्वय-व्यतिरेकिंस्वाभावात् । न प कार्याव्यवहितपूर्ववृत्तित्वमेव कारणत्वम् , न तु तत्र कार्यकालवृत्तित्वमपि निविशते, मानाभावात, गौरवात् , प्रागभावादीनामकारणत्वप्रसगाच्चेति न दोष इति वाच्यम् , तथापि निश्चयनयानुपस्कारात्, तेन कार्यकालसंबद्धस्यैव हेतोर्जनकत्वाभ्युपगमाद । इति चेत् ? न, परिशुद्धनिश्चयनयेन शैले उत्पत्ति हो मी जाय तो यथाख्यात प्रादि पांच से विजातीय ही होगा, असे मतिज्ञानावि से केबलबान विजातीय ही होता है अतः उसके द्वारा चारित्र के पश्चषाविभाग का व्याघात अनिवार्य होगा। इस सन्दर्भ में जो यह बात कही गई कि-'केवल ज्ञान की उत्पत्ति के समय परमोत्कर्ष प्राप्त शान पोर वर्शन केहोने पर भी मोक्ष की प्राप्ति न होने के कारण केवलकान के। चरमोत्कृष्ट चारित्र का उबय मानना आवश्यक है-वह भी ठीक नहीं है क्योंकि नयमेव से अथवा अन्तक्रिया के द्वारा शैलेशोदशा में अबस्थामेव से ज्ञान और क्रिया को मोक्षजनक मानने से केवलज्ञान के उत्पन्न होते ही मोक्षप्राप्ति न होने में कोई आपत्ति नहीं है । सिद्धि वश में सर्वसंबर की उपपत्ति के लिये भी उक्त चारित्र की कल्पना अनावश्यक है क्योंकि सिद्धि प्राप्त होने पर वह अर्थतः सिद्ध हो जाता है, उसके लिये किसी हेतुविशेष की कल्पना अनुचित है। दूसरी बात यह है कि शैलेशोअवस्था के पूर्वकालिक क्षायिक चारित्र की निवृत्ति का जब भाप स्वीकार करते हैं और परमचारित्र को सिद्धि दशा में मानते हैं तो सामान्यरूप से चारित्र मात्र को सादि और सान्त बतानेवाले मो शास्त्रवचन उपलब्ध होते हैं उनमें चारित्रपद को यथाल्यातनामक परमचारित्र से अतिरिक्त पारित्र परक मानना पडेगा, यह न्यायसंगत नहीं है । [ अक्रिया से मोक्ष सूचक वचन की संगति ] यदि यह कहा जाय कि-'चारित्र के सम्बन्ध में किये गये उक्त विचार से पारित्र क्रियारूप हो जाता है और शास्त्रों में मुक्त प्रात्मा के सिद्धिक्षेत्रगमन को अकिया का घरमफल बताया गया है जैसा कि 'सा णं भंते"इस ऋषिवचन से उक्त प्रश्नोत्तर से स्पष्ट है । गौतमने भगवान से प्रश्न किया है कि 'भगवन् ! अक्रिया का क्या फल है ?' भगवान ने गौतम को उत्तर दिया है कि 'गौतम, इसका मन्तिम फल है आत्मा का मुक्त होकर सिदिक्षेत्र में गमन करना। प्रब अगर कहा आए कि चारित्र १. सा भगवन् ! अक्रिया किंफला ? । गौतम ! सिद्धिगमनपर्यवसानफला प्रज्ञप्ता ! Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० । [शास्त्रवास्ति लो० २६ शीचरमसमय एव मोक्षोत्पत्यभ्युपगमाव , तदा चारित्रस्यामपायात् । इह बोदि त्यक्त्वा तत्र गरवा सिध्यति' इत्यत्र निश्चयेन बोंदित्यागसमये, व्यवहारेण च तत्र गतिसमये मोक्षोत्पादस्याभ्युपगमात् । न च तदा चारित्रस्य विगच्छत्त्वाद् विगतत्वेनाऽसत्त्वात् कार्योत्पत्तिविरोषः, तदा मोक्षस्याप्युत्पद्यमानत्वेनोत्पत्रित्वादविरोधाद, एकदा चारित्रनाश-मोचोत्पादयोः परभवप्रथमसमये प्राग्देहपरिशाटनीचरदेहसंघातनयोरिखोपपतः सदागम:-[ वि०मा० ३३२२] "जम्हा विगच्छमाणं विगयं, उप्पज्जमाणमुप्पण्ण । तो परमवाइसमए मोक्खादाणाण | विरोहो ॥१॥" इति । को क्रियारूप मानने में बारित्र को प्रक्रिया बतानेवाले बचनों से विरोष अनिवार्य है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि एकही भन्स किया एजन (कम्पन प्रादि व्यापार का प्रभाव होने से अक्रिया कही जाती है मतः उसे अक्रियास्वरूप से मोक्षकारक कहने में, तथा 'ज्ञाननियाभ्यां मोक्ष:'-शाम और क्रिया से मोल होता है इत्यादि वचनों में उसी अन्त क्रिया अन्तिम क्रियारूप होने से क्रियास्वरूप से मोक्षजनक कहने में कोई विरोध नहीं हो सकता। [निश्चयनय से चारित्र में मोक्षहेतुत्व का समर्थन ] उक्त बात मा पर यह शक हो साफ-सिभि को यात्रा के समय चारित्र का नाशमाना जायगा सो चारित्र मोक्ष का हेतुन हो सकेगा क्योंकि जो कार्यकाल में विद्यमान होता है यह कार्य का उत्पादक नहीं हो सकता क्योंकि उसके अभाव में कार्य का जन्म होने पर कार्य द्वारा उसके मन्वय और व्यतिरेक का अनुसरण नहीं होगा। यदि यह कहा जाय कि-'कार्य के अव्यवहिसपूर्वक्षम में विद्यमान होना ही कारणता है, उसके स्वरूप में कार्यकाल में भी विद्यमान होने का सनिवेश नहीं है क्योंकि कारणता के स्वरूप में उसके सनिवेश में कोई प्रमाण नहीं है प्रत्युत गौरव है, और प्रागमाव आदि को कारणसा के लोप का भय भी है क्योंकि कार्य का प्रागमाव कार्य के जन्म. काल में कभी नहीं रहता-सो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर निश्चय नय को अन्याय होगा क्योंकि निश्चयनय के अनुसार क्रियाकाल और निष्ठाकाल एक होने से कारणक्षण में ही कार्योस्पति शक्य है अर्थात कार्यकाल में विद्यमान हेतु ही कार्य का जनक होता है' । तात्पर्य, मुक्तिकाल में भी चारित्र की सत्ता माननी पड़ेगी'-किन्तु यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि परिशुद्धनिश्रय नय के अनुसार तो शैलेशी के अन्तिम समय में ही मोक्ष की उत्पत्ति होती है और उस समय चारित्र का अभाव नहीं होता। क्योंकि वह बोविं त्यक्त्वा तत्र गत्वा सिदयतिः केवली इस लोक में बोदि (शरीर) का स्याग कर और लोकान्त में पहुंच कर सिद्ध होता है इस वचन में निश्चय नय के अनुसार बोखित्याग के समय ही मोक्ष की उत्पत्ति मानी गई है और व्यवहार नय के अनुसार सिद्धि गति में जाते समय मोक्ष की उत्पत्ति मानी गई है। शैलेशी के अन्तिम समय में चारित्र बिगमनाशक्रिया में विद्यमान होने से विगतमोजाता हैमतःप्रसव हो जाने से कार्य की उत्पत्ति असंगत है', यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उस समय [१. यस्माद् विगच्छद् विगतम् , उत्पद्यमानमुत्पन्नम् । ततः परभवादिसमये मोक्षाऽऽदानयोन विरोध: ।१।] Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या०० टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [ १२१ अथाऽचारित्रस्य सतः सिद्धस्य चारित्रावरणकर्मणः पुनर्बन्धप्रसङ्ग इति चेत् ? न, अविरतिप्रत्ययवाद सस्य, योगादिसामग्रीसव्यपेपरवाच । न च चारित्राभाव एवाविरतिरिति सिद्धानामविरतत्वव्यपदेशप्रसङ्ग इति वाच्यम् ; निर्जराजनकविरतिपरिणामवदविरतिपरिणामस्य विचित्रकर्मबन्धजनकस्य स्वतन्त्रत्वात् , तस्य विरतिप्रागभावास्कन्दितत्वेऽपि तथाविधविरतिध्वंसानास्कन्दितत्वात् । अत एव 'सिद्धो नोचरित्री नोअचरित्री' इत्यागमः संगच्छते, चारित्रामावाद् 'नोचारित्री' इति, अविरत्यभावाच 'नोअचारित्री' इत्युक्तेरुपपत्तेः, 'अचारित्री' इत्पत्र ननो विरुद्धार्थत्वात् । अत एव भव्यत्वाभाव-मव्यत्वविरुद्धामन्यत्वाभावाभ्यां 'नोमव्यत्वनोअभव्यत्वमपि तस्य तत्र तत्रोक्तम् । यदि च चारित्रावस्थाभावादेव नोचारित्रत्व-नोअचारित्रत्वं सिद्धस्योच्यते, तदा ज्ञानावस्थाभावाद् नोज्ञानिव-नोअज्ञानित्वमपि तस्य प्रतिपाद्यमानं न विरुध्येत ! मोक्ष मो उत्पद्यमान होने से उत्पन्न हो ही जाता है अत: चारित्र को विगति के समय में मोक्ष को उत्पत्ति मान लेने परजसंगशि यह है कोक से दूसरे के प्रथम समय में पूर्ववेह का परिशाटन और उत्तरदेह का संघात दोनों को एकसाथ उपपत्ति होती है वैसे एककाल में चारित्रनाश और मोक्ष की उत्पत्ति दोनों की उपपत्ति हो सकती है जैसा कि-'जम्हा विगच्छमाणं' इस प्रागम में कहा गया है-'यतः विमतिक्रिया में विद्यमान विगत होता है और उत्पद्यमान उत्पन्न होता है अतः परभव-जन्मातर के समय पूर्वशरीरपरिशाट और वेहान्तरोत्पत्ति के एककाल होने में कोई विरोष नहीं है ।' तात्पर्य, मुक्तिवशा में चारित्र को अनृवृत्ति मानने को आवश्यकता नहीं है । [ चारित्र का अभाव मानने पर कोई आपत्ति नहीं ] यदि यह शङ्का हो कि-'सिद्ध में चारित्र का अभाव मानने पर चारित्रमोहनीय कर्म से उसके पुनर्जन्ष की आपत्ति होगी-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि पुनर्बन्ध प्रविरति से तथा योग आदि सामग्री की अपेक्षा से होता है, सिथ में अविरति एवं योगादि का अमाप होता है अत: उसके पुनर्बन्ध को त नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाय कि-'चारित्र का अमावही अविरति है, सिद्धों में विरतिपरिणाम-चारित्रपरिणाम न होने से अविरति विद्यमान है, तात्पर्य-उनके पारिवाभाव में अधिरतिपरिणामस्व का सार्थक व्यपदेश हो सकता है. अतः अविरतिरूप में व्यपविष्ट चारित्राभाव से पुनर्बन्ध की आपसि तस्वस्थ है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि असे निर्जराजनक विरतिपरिणाम निर्जरा के जनन में स्वतन्त्र होता है वैसे ही विचित्रकर्मबन्ध का जनक प्रविरतिपरिणाम भी कर्मबन्ध के जनन में स्वतन्त्र होता है, क्योंकि वह विरति के प्रागभाव से विशिष्ट होने पर भी विरति के प्रपुनमविरुप ध्वंस से विशिष्ट नहीं होता। यदि यह विरति के ध्वंस से विशिष्ट होकर कर्मबन्ध का जनक होता तो आगन्तुक विरतिध्वस का मुखापेक्षी होने से स्वतन्त्र न होता । विरति प्रागभाव से विशिष्ट विरतिध्वंस को जनक मानने पर उसके स्वासन्य को हानि नहीं हो सकती पोंकि विरतिप्रागभाव अनावि होने से उसका सन्निधान पहले से प्राप्त रहता है, फलत: चारित्राभाव में अविरति का व्यपवेश करके पुनबन्ध को आपत्ति का प्रदान नहीं हो सकता। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२. [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो० २६ अपि च, अनार्ष सिद्धानां चारित्रकल्पनम् , "इहभविए भंते ! चरित्ते, परभविए चरित्ते, तदुभयमविए चरित्ते १ । गोयमा ! इहभविए चरित्ते, णो परभविए चरित्ते, णो तदुभयभविए चरित्त" इति प्रश्न-निर्वचनप्रबन्धेन 'चारित्रपरिणाममादायैव प्रेत्य देवलोकेषु मुक्ती वा नोत्पाद' इत्यभिप्रायेण भगवता चारित्रस्थाऽपारभक्कियोदेशार : जना मारित्रस्य जीवलक्षणत्याभिधानाद् ( न १) मुक्तावपि तदनुवृत्तिः शङ्कनीया, तपःप्रभृतेरप्यनुधृत्तिप्रसङ्गात् 'लक्ष्यतेऽनुमाप्यतेऽनेनेति लक्षणं लिङ्गम्' इत्यर्थेऽविरोधाच्च, लिङ्गाभावे लिङ्ग्यभावनियमाभावाद । न च पहिलेक्षणाभावेऽप्यान्तरलक्षणसवाद् नेलेमण्यमपि तस्येत्थमापद्यते, इति विभावनीयम् । न च "आया सामाइए आया सामाइअस्स अत्थे" इति सूत्रादात्मरूपतया चारित्रशक्तिमुक्तावप्यनुवतिष्यत इति व्यग्रभावो विधेयः, अष्टस्त्रयात्मसु चारित्रात्मनोऽन्ए-बहुत्वाधिकारे सर्वेस्तोकत्वाभिधानात् । तथा च प्रज्ञप्ति:-सव्वत्थोवाओ चरित्तायाओ, नाणायाओ सिद्ध में धारित्र और अधिरतिपरिणाम दोनों में से एक भी नहीं होता इसी लिये सिद्धो नो चारित्री नो प्रचारित्री-सिद्ध चारित्रयुक्त भी नहीं होता और अचारित्रयुक्त भी नहीं होता'- इस प्रागम की संगती होती है । क्योंकि चारित्र के अभाव से 'नो चारित्री' और अविरति परिणाम के प्रभाव से 'नो अबारित्री' इन दोनों कथनों की उपपत्ति हो सकती है । 'नो अचारित्रो' इस उक्ति में चारित्री शम्ब के पूर्व 'अ' के रूप में जो न पद लगा है उसका अर्थ है 'विरोधी' अत: 'नो प्रचारित्रो' का अर्थ है चारित्रविरोषी से शून्य. सिद्धि चारित्र के विरोधी अविरतिपरिणाम से शून्य होती है। प्रस्तुत प्रकरण में 'न' पब का विरोधी अर्थ होने से ही भव्यत्वाभाव और भव्यत्व के विरोधी अभय्यत्व का अभाव, इन दोनों अभावों के तात्पर्य से शास्त्र में तत्तत स्थान में सिद्ध को 'नो भव्य' तथा 'नो अभध्य' दोनों कहा गया गया है। यदि चारित्रअवस्था के सद्भाध से ही सिद्ध को 'नो चारित्री' और 'नो अचारित्री' कहा जायगा और नो चारिश्री' की उपपत्ति विकारी चारित्र के वंस से तथा नो अचारित्रों' की चारित्रप्रागभाव के निषेध से की जायगी तो केवली में ज्ञानावस्था के सदभाव से उक्तरीति से सिद्ध को यदि 'नो ज्ञानी' 'नो अज्ञानो' कहा जाय तो उसमें भी कोई विरोध होने की आपत्ति न होगी, क्योंकि मतिज्ञानादि के अभाव को लेकर 'नो ज्ञानी' और अज्ञान के अभाव को लेकर 'नो अज्ञानी' दोनों की उपपत्ति हो सकती थी। १. इहभविकं भगवन् ! चारित्रम् , परभविक चारित्रम् तदुभयभविक चारित्रम् ? । गौतम ! इह भविक चारित्रम् , नो परमविर्क चारित्रम् , नो सदुभयभविक चारित्रम् । २ आत्मा सामायिकम् , आस्मा सामायिकस्यार्थ । ३. सर्वस्तोकाश्चारित्रात्मानः, ज्ञानात्मानोऽनन्तगुणाः, कषायात्मानोऽनन्त गुणाः योगात्मानो विशेषाधिका:, वोर्यात्मानो विशेषाधिकाः, उपयोग द्रव्य-दर्शनात्मानस्त्रयोऽपि तुल्या विशेषाधिकाः । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टीका एवं हिन्दीविधेधन ] अणंतगुणाओ, कसा(या)याओ अणंतगुणाओ, जोगायाओ विसेसाहिआओ, वीरिआ(या)ओ विसेसाहिआओ, उबओग-दचिय-दसणाया तिणि वि तुला विसेसाहिआओ"। उक्तश्चायमेवार्थो विविच्य वृद्धः-[ ] "'कोडीसहस्सपुहुतं जईणं तो थोविआओ चरणाया । नाणाया अणंतगुणा पडुच्च सिद्धे अ सिद्धाउ ॥ १॥ हुँति कसायायाओऽणंतगुणा जेण ते सरागाणं । जोगाया भणिआओ अजोगियज्जाण तो अहिआ ॥२॥ जं सेलेसिगयाण वि लद्धि-चीरिअं तो समहिआओ। उवओग-दविअ-दसण सम्वजिआणं तओ अहिआ॥३॥" इति । तस्मात् सिद्धानां चारित्रं कथं सुश्रद्धानम् ? इति चेत् ? [सिद्धात्मा में चारित्रकल्पना आगमबाह्य ] यह भी ज्ञातव्य है कि सिद्ध प्रात्माओं में चारित्र के अस्तित्व की कल्पना पूर्व ऋषियों को मान्यता के विरुद्ध है. क्योंकि मरण के बाद देवलोक में तथा मुक्ति में चारित्रपरिणाम को उत्पत्ति नहीं होतो, इस अभिप्राय से ही भगवान ने चारित्र को अपारभविक-परभव से असम्बद्ध बताया है। बात यह है कि-'एकबार गौतम ने भगवान से पूछा कि भगवान् धारित्र ऐहभविक है, अथवा परभविक है अथवा उभयधिक है ? भगवान ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा,-गौतम [ चारित्र केवल इहभधिक है, परभविक नहीं है, उभयमविक भी नहीं है।' इहमधिक का अर्थ है जिसकी उत्पत्ति और स्थिति केवल इस भव में ही हो, परमविक का अर्थ है जिसकी उत्पत्ति इहमव में हो और स्थिति परमव में भी हो, और उभयविक का अर्थ है इस भव प्रौर परभव उभय में जिसकी उत्पत्ति-स्थिति हो । यदि यह कहा जाय कि-'णाणं च सणं चेय.........."इस गाथा के अनुसार चारित्र जीव का लक्षण है अतः जीव के साथ मोक्ष में भी उसका अनुवर्तन अनिवार्य है तो यह ठीक नहीं है-क्योंकि लक्ष्य के साथ लक्षण का सतत सम्बन्ध मानने पर मोक्ष में तप आदि के भी अनुवर्तन का प्रसंग होगा क्योंकि तप आदि को भी गाणं च..... इस गाथा में जीव का लक्षण माना गया है। दूसरी बात यह है कि चारित्र को जो जीव का लक्षण कहा गया है उसका तात्पर्य चारित्र को जीव का लिङ्ग बताने में १. कोटिसहपृथक्त्वं यतीनां ततः स्तोकाश्चरणात्मानः । ज्ञानात्मानोऽनन्तगुणाः प्रतीत्य सिद्धांश्च सिद्धास्तु ।।१॥ भवन्ति कषायात्मानोऽनन्तगुणा येन ते सांगाणाम् । योगात्मानो भणिता अयोगिवर्जानां ततोऽधिकाः ।। २ ।। यत् शलेणींगतानामपि लब्धिवीर्य ततः समधिकाः । उपयोग-द्रव्य-दर्शनानि सर्वजीवानां ततोऽधिका।।३।। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] [शास्त्रवास्ति० श्लो० २६ है क्योंकि-'लक्ष्यते अनुमाप्यते अनेनेति लक्षणम्-जिससे जो वस्तु लक्षित-अनुमित होती है उसे लक्षण कहा जाता है-इस व्युत्पत्ति के अनुसार लक्षण शब्द बहाँ लिङ्ग का बोधक है और चारित्र जीव का जब लिङ्ग है तब जीव के साथ उसके सतत अनुवर्तन का प्रश्न नहीं ऊठता क्योंकि-'लिङ्ग न होने पर लिङ्गो का भी न होना' इस प्रकार को लिङ्गी में लिङ्ग को व्यतिरेकस्याप्ति सिद्ध नहीं है । लक्षण की लिङ्गरूप में व्याख्या कर देने पर कभी जीव सर्वथा निलक्षण भी हो जायगा', यह शङ्का भी नहीं की जा सकती क्योंकि बाह्यलक्षण का अभाव होने पर भी उपयोगरूप आन्तरलक्षम जोब के साथ सदा अनुवर्तमान रहता है अतः उसके निर्लक्षण की आपत्ति नहीं हो सकती । [ चारित्रात्मा की साल्पसंख्या से चरित्राभाव की मुक्ति में सिद्धि ] विपक्षी को इस बात की भी व्यग्रता नहीं होनी चाहि कि प्रारमा को सामायिक तथा सामायिक का अर्थ बतानेवाले सूत्र के अनुसार चारित्रशक्ति के आत्मरूप होने से उस रूप से मुक्ति में मी उसके अनुवतंन की आपत्ति होगी क्योंकि आत्मा के आठ भेव बताकर उसके अल्पस्व, बहत्व मादि का प्रतिपादन जिस प्रकरण में किया गया है उसमें चारित्रात्मा को सर्वअल्प कहा गया है, उसको सल्पिता तभी उपपन्न हो सकती है जब चारित्र का मुक्ति में अनुवर्तन न माना जाय । आठ प्रकार के बास्माओं को परस्पर विलक्षणता 'प्रप्ति' अन्य में इसप्रकार बताई गई है कि चारित्रात्मा सर्वस्तोक होते हैं, ज्ञानास्मा उनसे अनन्तगुण होते हैं, कषायारमा उनसे मी अनन्तगुण होते हैं। योगारमा उन से कुछ विशेषाधिक होते हैं, उपयोगारमा, प्रव्यात्मा और दर्शनात्मा ये तीनों परस्पर में समाम तथा योगात्मा से विशेषाधिक होते हैं। इस बात को विद्यावृद्धों ने विवेकपूर्वक इस प्रकार अधिकस्पष्टता से प्रतिपादित किया है कि-'चारित्रपरों की संख्या सहस्रकोटिपृथक्त्व (२००० कोड से १००० कोड परिमित) होती है। अत: चरित्रात्मा सब से हतोक-अपकृष्ट होते हैं । उनसे ज्ञातात्मा सियों की अपेक्षा मन. सगुण सिद्ध होते हैं। रागवानों की वृद्धि से कषायात्मा अनन्तगुण होते हैं अयोगिजित योगारमा कुछ अधिक होते हैं । शैलेशी अवस्था में पहचे आत्माओं में भी लग्धिवीर्य होता है उसके कारण वीर्यास्मा उनसे समषिक होते हैं। उपयोग द्रव्य और दर्शन सब जीवों में होते हैं अतः वे सर्वाधिक होते हैं।' उक्त कारण से सिद्धों में चारित्र फंसे स्वीकार्य हो सकता है ? !(एकदेशीमत का प्रतिपादन सम्पूणे] [ एकदेशीमत समक्ष दूसरे पक्ष का निवेदन ] 'मुक्ति में चारित्र नहीं है। ऐसे एकवेशीमत के सम्बन्ध में विद्वानों का यह कहना है कि वीर्य ही चारित्र है जो अन्तरंग अशुभयोग की नियुत्तिरूप है, बाह्यप्रवृत्ति से मात्र उसकी प्रभिव्यक्ति होती है । अहिंसादि मूलगुण के विषय में प्रशस्त व्यापाररूप स्थैर्य के समय भी हिंसादिविरोधी हिंसावि से नियत्तिरूप स्थैर्य होने में कोई ध्याघात नहीं होता। वही स्थैर्य उत्कर्ष को प्राप्त करता हुमा शैलेशी अवस्था में परमनिवसि रूप हो जाता है और स्थैर्य परिणाम के रूप में मोक्ष दशा में मो अनुवर्तमान होता है । यदि यह प्रश्न किया जाय कि- उक्त स्थैर्य बाह्य विषयों की गुप्तिरूप है और मुक्ति में केवल प्रारमस्वभाव का हो साम्राज्य होता है । प्रतः मुक्ति में उक्तस्थर्य का अनुवर्तन कैसे हो सकता है ?' Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाका टोका एवं हिन्दीविचम ] [ १२५ अन्न वदन्ति-अन्तरशुभयोगनिवृत्तिरूपं वीर्यमेव पारित्रम् , बहिष्प्रवृत्तिस्तु तदभिव्यजिका । मूलगुणविषयसद्वयापाररूपस्थैर्यसमये च तत्प्रतिपक्षनिवृत्तिरूपं स्थैयमव्याहतमेव । तच्चोत्कृष्यमाणं शैलेश्यां परमनिवृत्तिरूपं भवत् स्थैर्यपरिणामेन मुक्तावनुवर्तते । न च बाह्यालम्बनगुतिरूपतया तस्य कथं केवलात्मस्वभावसाम्राज्यरूपायां मुक्तावनुवृत्तिः इति वाच्यम् । अर्वाग्दशायां समितिगुप्त्युभयरूपस्यापि योगनिरोधगुप्त्येकरूपतयोत्कर्षवच्छैलेशीचरमसमये स्थिरात्ममात्रपरिणामरूपतयोत्कर्षसंभवात् । अत एष स्वभावसमवस्थानं सिद्धानां चारित्रमित्यपि निरवद्यम् । न च वीर्याभावात् सिद्धानां चारित्राभावा, तदसिद्धः, अनन्तज्ञान-दर्शन-वीर्यचारित्र-सुखस्वभावत्वात् तेषाम् । “'सिद्धा णं अवीरिआ" इति सूत्रं तु सकरणवीर्याभावाभिप्रायादेव व्याख्येयम् । स्वरूपसत्करणस्याप्यभावे न तत्र शैलेशीवद् भजना, मूलसूत्रभङ्ग्यभाशत् , विचित्रत्वाच सूत्रगतेः । न च क्षायिकभावस्य नाशो युक्तः, क्षायिकसामान्य एवं नाशाऽप्रतियोगिस्वनियमात् । अत एव नास्य शरीरनाशकनाश्यत्वम् , शारीरचलचयोपचयभावेऽप्यान्तरवीयरूपचारित्रचयो. तो इसका उत्तर यह है कि जैसे प्राथमिक अवस्था में चारित्र समिति और गुप्ति इन दोनों रूपों से होने पर भी उत्तरकाल में एकमात्र योगनिरोधात्मक पति के रूप में उसका उत्कर्ष होता है उसी प्रकार शैलेशी के अन्तिम समय में स्थिर आत्मा के परिणामरूप में भी उसका उत्कर्ष हो सकता है। इसीलिये यह माम्यता भी निर्दोष सिद्ध होती है कि स्वभाव में सम्यक् प्रवस्थान ही सिद्ध आत्मामों का चारित्र है। सिख आत्माओं में वीर्य के अभाव से चारित्रामाव को कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि सिद्ध आस्मानों का स्वभाव अनन्तलान, दर्शन, वीर्य, चारित्र और सुखस्वरूप होता है, प्रतः बनमें बोर्याभाव सिद्ध है। "सिद्ध आत्मा अबीर्य होते हैं। इस बात के प्रतिपायक पूर्वोक्त व्यास्याप्रज्ञप्ति सूत्र का तात्पर्य वीर्यसामान्य के अभाव में नहीं है किन्तु करणयुक्तवीर्य के अभाव में है। अतः सिद्धप्रात्माओं में घीर्य का अस्तित्व स्वीकार करने में उक्त सूत्र का विरोष सिद्ध नहीं हो सकता । करण का स्वरूप से भी समाव मानने पर शैलेशी के समान उसमें माना यानी विकल्प का आपावन ठीक नहीं है क्योंकि मूल सूत्र की ऐसी भङ्गीपरिपाटी नहीं है, तथा सूत्र को गति विचित्र होती है । [क्षायिकभाव की अविनश्वरता ] क्षायिकभाव का नाश मुक्तिसंगत भी नहीं है। क्योंकि क्षायिकभाव मात्र में अनश्वरता का नियम है। इसीलिये पारित्र शरीर के नाशक से भी नाश्य नहीं होता । कारण शारीरिक बलका उत्कर्ष और अपकर्ष होने पर मो आन्तरवीर्यरूपचारित्र का उत्कर्ष अथवा अपकर्ष नहीं होता, इसलिए चारित्र देहनाश से नियतनाश का प्रतियोगी सिद्ध नहीं होता तथा चारित्र के जिस उत्कर्ष से फलविशेष १. सिद्धा अवीर्याः। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो० २६ पचयाभावात् तस्य तमाशनियतनाशप्रतियोगित्वाऽभावात् फलविशेषौपयिकोत्कर्षस्य शरीराधुक्तरसात्, अन्यथाविव। न प चरित्रस्य प्रतिज्ञाविपयीकृत कालनाशनाश्यत्वात् कथं यावज्जीवतावधिक प्रतिज्ञाविषयस्य तस्य मुक्तावनुवृत्तिः ? इति शङ्कनीयम् परभवानुबन्ध्यविरतिपरिणामादेव चारित्रनाशसंभवे तत्सहभूतस्य प्रतिज्ञाविषयीकृतकालनाशस्यान्यथासिद्धत्वेन तन्नाशकत्वायोगात् ; अन्यथा सम्यक्त्वप्रतिज्ञाविषयीभूतकालनाशात् परभवे सम्यक्त्वस्याप्यनुवृत्तिर्न स्थात् । 'सम्यक्त्वाभिव्यञ्जकस्याचारविशेषस्यैवासावसति प्रतिबन्धे कालः प्रतिज्ञायत' इति चेत् १ तर्हि चारित्राभिव्यञ्जकस्याप्याचारविशेषस्यैव कालः प्रतिज्ञायत इति तुल्यम् । देवादिभये स्वाभाव्यात् तत्सामग्री विघटनाच्च न तदनुवृत्तिः, मोक्षे तु क्षायिकत्वेन तत्सामग्री विघटनाऽयोगादेव तदनुवृत्तिरिति विशेष इति । } 1 न च कर्मक्षपणफलाभावाद् मुक्तौ चारित्राभाव इति युक्तम एवं सति ज्ञानस्याप्यभावप्रसङ्गात् । 'व्यवहारतो घटमुत्पाद्य स्थितस्य दण्डस्येव निश्चयतस्तु हेतुफलभावापन्त्रपूर्वापरक्षणश्रेणीभूतस्य तथातथा परिणतस्वभावसमवस्थानफलो परतस्य वा न निष्फलत्वमिति समावानस्याप्युभयत्र तुल्यत्वात् । सादिसान्तत्वं चैतन्मते नास्त्येव दानादिलब्धि चारित्राणाम् । उक्तं च विशेषावश्यकवृत्तावपि - " अन्ये तु दानादिलब्धिपञ्चकं चारित्रं च सिद्धस्याऽपी की निष्पत्ति होती है वह शरीरप्रयुक्त नहीं होता, यदि उसे भी शरीरप्रयुक्त माना जाय तो संसारी श्रात्मा में भी उक्त उत्कर्ष की आपत्ति होगी। यदि यह शङ्का की जाय कि जिस कालतक ( मृत्युकाल तक ) चारित्र पालन को प्रतिज्ञा होती है उस काल के नाश से चारित्र का नाश होना अनिवार्य है अतः याबद्जीवन पालनीय रूप प्रतिज्ञात चारित्र की जीवनोत्तर मोक्षकाल में अनुवृत्ति कैसे हो सकती है ?' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि वास्तव में तो परभव ( जन्मान्तर) के अनुबन्धी अविरति परिणाम से ही चारित्र का नाश होने वाला है अतः उसके साथ होने वाला प्रतिज्ञाकाल का नाश चारित्रनाश के प्रति अन्यथासिद्ध हो जाने से चारित्रनाश का जनक हो नहीं हो सकता। यदि प्रतिज्ञातकाल के नाश से चारित्र का नाश माना जायगा तो सम्यक्त्वोच्चारण के काल में सम्यक्त्व के लिये ( मृत्युपर्यन्स) प्रतिज्ञातकाल के नाश से परभय में सम्यक्त्व का अनुवर्तन भी न हो सकेगा । यदि यह कहा जाय कि 'सभ्यवत्य ग्रहण करते समय प्रतिबन्धक के प्रभाव में सम्यक्त्व के व्यञ्जक श्राचारविशेष के लिये ही काल की प्रतिज्ञा की जाती है, सम्यक्त्व के काल की प्रतिज्ञा नहीं की आती, अतः उक्त दोष नहीं हो सकता तो यह बात चारित्र के सम्बन्ध में भी समान है, क्योंकि उसके सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि चारित्र के अभिव्यञ्जक आधारविशेष के लिये ही काल की प्रतिज्ञा की जाती है, चारित्र के काल की प्रतिज्ञा नहीं को जाती । देवाविभाव में भव के स्वभाव के कारण और चारित्र को सामग्री का विघटन होने के कारण चारित्र का अनुवर्तन नहीं होता यह ठीक है किन्तु मोक्ष क्षायिक होने से चारित्रसामग्री का विघटन न होने के कारण चारित्र का अनुवर्तन हो सकता है, भव की अपेक्षा मोक्ष का यही वैशिष्ट्य है । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] [ १२७ कछन्ति, तदावरणस्य तत्राप्यभावात , आवरणाऽभावेऽपि च तदसत्त्वे क्षीणमोहादिष्वपि तदसवग्रसङ्गात् । ततस्तन्मतेन चारित्रादीनां सिद्धयवस्थायामपि सद्भावेनाऽपर्यवसितत्वादेकस्मिन् द्वितीयभङ्ग एव क्षायिको भावः, न शेषेषु त्रिषु" इति । ___ न चैवं प्रन्थकृतस्तदा चारित्रनिवृत्तिसमर्थनमनतिप्रयोजनमिति शङ्कनीयम् , क्वचिदभिहितायाश्चारित्रस्य निवृत्तेानादिसाधारण्याः परमनिवृत्तिप्रत्ययायाः कर्मापनयस्वभावप्रत्ययस्वेनैव लक्षण्योषपादनस्य प्रयोजनत्वात् । अत एव चेशज्ञानादिनिवृत्यभावाद् नोचारित्रित्व [ फलाभाव से चारित्राभाव की सिद्धि अशक्य ] यदि यह कहा जाय कि-'चारित्रामाव का फल है कर्मनिवत्ति, मोक्ष दशा में कर्म और कर्मनिवृत्ति, दोनों के न होने से फल का असंभव है, अत: उस समय चारित्र का कोई फल न होने से धारित्र का अभाव मानना ही उचित है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यदि चारित्र का फल न होने मात्र से मोक्ष में चारित्र का प्रमाय माना जायगा तो मोक्ष में ज्ञान का भी कोई फल न होने से जानाभाव की आपत्ति होगी। वास्तव में तो घट उत्पन्न होने के बाद विद्यमान दण्ड की निष्फलता जे व्यवहारसम्मत नहीं है वसे ही मुक्ति में भी चारित्र को निष्फलता सम्मत नहीं है । एवं निश्चयनय के मत में पार्ष, कारण तथा कार्यरूप पूर्वोसरक्षणों का समूहरूप माना जाता है इसलिये मुस्तावस्था में उत्तरोत्तरक्षणवर्ती चारित्र ही पूर्वपूर्वक्षण के चारित्र का फल है । अथवा उस मत में पदार्थ तत्तद् रूप में परिणतस्वभाव से अवस्थितिरूप फल से उपरत (युक्त) होने के कारण भी चारित्र को निष्फलता निश्रयानुमत नहीं होती । तात्पर्य, मोक्ष में व्यवहारनय या निश्चयनय से ज्ञान को निष्फलता न होने से ज्ञानामाव की भी आपत्ति नहीं हो सकती-ऐसा समाधान चारित्र के पक्ष में भी सावकाश है। . इस मत में दान आदि को लब्धि और चारित्र का सादि-सान्तत्व भी सम्मत नहीं है अतः मोक्ष में चारित्र का अभाव मान्य नहीं है। "विशेषावश्यकमाध्यत्ति' में भी यह कहा गया है कि "भन्य विद्वान मुक्त पुरुष में भी दानादि पांचलब्धि और चारित्र का अस्तित्व मानते हैं क्योंकि मुक्त में चारित्र के आवरण का अभाव होता है। यदि आवरण का अभाव होने पर भी प्रावरणीय का असत्व माना जायगा तो जिनका मोहादि क्षीण हो चुका है उनमें यानी १२-१३ गुणस्थानक में भी चारित्र के प्रसत्त्व की आपत्ति होगो । प्रतः आवरण के प्रभाव में आवरणीय के ध्रुव सत्त्व माननेवाले मत में मोक्ष अवस्था में पारित्र प्रादि के भी अस्तित्व की सिद्धि होने से द्वितीयभङ्ग मात्र में यानी सावि-अनन्तभंग में ही क्षायिकभाव सिद्ध होगा, शेष तीन भङ्गों में अर्थात् सादिसान्तादि तीन भंगो में वह नहीं सिद्ध होगा।" [ चारित्र और ज्ञान में बैलक्षण्य का उपपादन ] यदि यह शङ्का को जाय कि-'उक्त रीति से मोक्षदशा में चारित्र का अस्तित्व मानने पर अन्यकार (भाष्यकार) के द्वारा चारिश्रनिवृत्ति के समर्थन का कोई प्रयोजन सिद्ध न हो सकेगा'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वहाँ (भाज्यप्रन्थ में) चारित्र भौर ज्ञान में बैलक्षण्य का उपपादन ही चारित्र. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ इलो० २६ नोअचारित्रित्ववद् नोज्ञा नित्व - नोअज्ञानित्वादिकं तत्र न व्यवहियते कर्मापगमनस्वभावेन चारित्रदेशाभाववत् प्रकाशादिस्वभावेन ज्ञानादिदेशाभावाऽयोगात् । न च ज्ञानस्यापि कर्मापनयनस्वभावत्वेन निवृत्तिरस्त्येवेति वाक्यम्; प्रकाशानाश्र व व्यापारभेदन येनोक्तव्यवहाराऽविरोधात् । "नोचारित्री० ' इत्यत्र क्रियारूपदेशस्यैव निषेधः" इत्यन्ये । अपारभविकत्वमपि तस्य क्रियारूपस्यैवोक्तम्, 'मोचों न भवः' इत्यभिप्रायाद् वा, मोक्षे तत्कृतफलोपकाराभावादवग्दशावदनुपयोगाद् वा । अवोचाम च - [ अ०म० प० १३४ ] "जं पु तं इहभदियं तं किरियारूवमेव णायव्वं । अहवा भवो ण मोक्खो णो तम्मि भषे हिअं अहवा || १ || " निवृत्ति के समर्थन का प्रयोजन है। कहने का आशय यह है कि चारित्र कर्मनिवृति का साधन है, साध्य साधन में कथचिद् अभेद होने से चारित्र कर्मनिवृत्तिरूप होता है अतः कर्मनिवृत्तित्वरूप से चारित्र को निवृत्ति होती है किन्तु अपने निजस्वरूप से निवृति नहीं होती । किन्तु ज्ञान की यह स्थिति नहीं है क्योंकि ज्ञान का फल है परमनिवृत्ति और वह निवर्तमान नहीं होती अतः ज्ञान को परमनिवृतित्वरूप से भी निवृत्ति नहीं होती । ज्ञान आदि को निवृत्ति न होने से हो सिद्ध आत्मा में 'नोचारित्री tuerrot' के समान 'नोज्ञानी तथा नोअज्ञानी' का व्यवहार नहीं होता क्योंकि कर्मनिवृत्तिरूप अपने कार्य के स्वभाव से चारित्र का जैसे अंशत: अभाव होता है उसप्रकार प्रकाशादिरूप अपने कार्य के स्वभाव से ज्ञानादि का अंशतः अभाव नहीं होता । यवि यह कहा जाय कि 'कर्मनिवृत्ति से चारित्र का कार्य है और उसके तबभिन्न स्वभाव से चारित्र की निवसि होती है उसीप्रकार कर्मनिवृति ज्ञान का भी कार्य है अत: उसके तदभिन्नस्वभाव से ज्ञान की भी निवृत्ति होती ही है। अतः चारित्र और ज्ञान के सम्बन्ध में उक्त प्रकार से व्यवहार और प्रव्यवहार का औचित्य नहीं हो सकता' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रकाश और अनाथवरूप व्यापार का भेद होने से उक्तब्यवहार में कोई विरोध नहीं है। कहने का बाशय यह है कि कर्म की निवृत्ति में शान प्रकाशापेक्ष है और चारित्र अनाश्रवापेक्ष है। अतः अनाश्रवापेक्ष कर्मनिवृत्ति स्वभाव से चारित्र को निवृत्ति होने से सिद्ध आत्मा में 'नोचारित्र' और 'नोप्रचारित्री' का व्यवहार हो सकता है किन्तु प्रकाशापेक्ष फर्मनिवृति स्वभाव से ज्ञान की निवृत्ति न होने के कारण 'नोशानी' और 'नोअज्ञानी' का व्यवहार नहीं हो सकता । धन्य विद्वानों का कहना है कि नोचारित्री कहने से क्रियारूप देश का ही निषेध होता है चारित्र के समग्ररूप का निषेध नहीं होता । चारित्र को जो परभव से असम्बद्ध कहा गया है वह afts के क्रियारूपवेश के सम्बन्ध में ही है । अथवा मोक्ष यह भवरूप नहीं है इस अभिप्राय से अथवा मोक्ष में चारित्र का कोई फलात्मक उपकार न होने से किंवा मोक्ष के पूर्वकाल के समान मोक्षकाल में उसका उपयोग न होने से उसे परभव से असम्बद्ध कहा गया है। यह बात अध्यात्ममतपरीक्षा १. यत् पुनस्तदिभविक तत् क्रियारूपमेव ज्ञातव्यम् । अथवा भवो न मोक्षो नो सस्मिन् भवे हितमथवा ॥ १॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ¿ स्वा० क० टीका एवं हिन्दोविवेचन ] [ १२९ एवं च स्वाभाविकात्मलक्षणत्वादप्यनन्तज्ञानवदनन्तचारित्रं सिद्धानां निर्वाधमेव, क्षायोपशमिकतपः प्रभृतिलक्षणानां तदाऽमवदेशी वकिल । यत्तु प्रज्ञप्तौ चारित्रात्मानः सर्व स्तोकत्वमुक्तम्, तत्र चारित्रं क्रियारूपमेव विवक्षितम्, अन्यथा कोटिसहस्रपृथक्त्वसंख्योपादानं कथम् भावचारित्रस्यान्येष्वपि संभवात् १, ""जस्सचरिचाया तस्य जोगाया नियमा" इति वाचनान्तरे चारित्रस्य प्रत्युपेत्तणादिव्यापाररूपस्य विवक्षावश्यकत्वाच । ननु यदि सिद्धानां चारित्रमिष्यते तदा ध्यानमप्येष्टव्यम्, समुच्छिमक्रियानिवृत्तिरूपशुक्लभेदस्य मुक्तायनुवृत्तेः सुवचत्वात, 'विद्यमानकरणनिरोधपर्यन्तत्वाद् ध्यानव्यवहारस्य तत्पर्यन्त एव ध्यानसद्भावः चेत्, तर्हि चारित्रसद्भावोऽपि तत्पर्यन्त एवास्तु, तत्पर्यन्तमेव चारित्रव्यवहारादिति चेत् १ न, चारित्रावस्थाविशेषरूपस्य ध्यानस्य तथाऽभावेऽपि चरित्रस्यापायात् । न हि श्यामत्वादिस्वावस्थाभावेऽपि 'घटो नास्ति' इति वक्तु ं शक्यते । 'स्वभावसमवस्थानरूपं ध्यानमपि मुक्तावक्षतम्' इत्यपर इति । अधिकं परीक्षायाम् । को एक गाथा में इसप्रकार स्पष्ट की गई है कि 'चारित्र को जो केवल इहभविक इस भवमात्र से सम्बद्ध माना जाता है यह चारित्र के क्रियात्मकरूप से ही सम्बद्ध है। अथवा मोक्ष भवरूप नहीं है किया उसमें चारित्र का कोई प्रयोजन नहीं है - इस अभिप्राय पर आश्रित है। इसप्रकार आत्मा का स्वाभाविक रूप होने से सिद्ध आत्माओं में अनन्तज्ञान के समान अनन्तचारित्र भी निर्वाषसिद्ध है, पद्यपि सिद्ध आत्माओं में क्षायोपशमिक मावान्तगंत तप आदि लक्षणों का अनुवर्तन नहीं होता तथापि क्षायिक भावान्तर्गत तप प्रादि लक्षणों का अनुवर्तन माना जा सकता है । [ सर्वाल्पसंख्याबोधक वचन क्रियात्मक चारित्र के लिये ] व्याख्या प्रशति शास्त्र में चारित्रीआत्माओं को जो सर्व अल्प कहा गया है वह क्रियारूप चारित्र की दृष्टि से कहा गया है क्योंकि यदि ऐसा न माना जायगा तो उसमें कोटिसहस्रपथ (२००० से १००० कोड) संख्या का कथन असंगत होगा, क्योंकि भावचारित्र तो प्रत्यों में (अन्य में भी विद्यमान है। सदुपरांत 'को चारित्रात्मा होता है वह योगात्मा भी होता है, यह नियम है।' इस आशय के बोधक प्रत्यबाधना में तो प्रत्युपेक्षण-पडिलेहण आदि व्यापाररूप वारित्र को farer fha fair aलेगा नहीं। यदि यह शङ्का हो कि "सिद्ध आत्मा में चारित्र का अस्तित्व मानने पर ध्यान का भी अस्तित्व मानना होगा क्योंकि समुच्छिन्न क्रियाऽनिवृत्तिरूप चतुर्थ शुक्लध्यान का अनुवर्तन मोक्षकाल में भी सुखच हो सकता है। यदि कहें कि 'ध्यानव्यवहार विद्यमान करणों के निरोषतक ही सीमित होता है अतः वहीं तक यदि ध्यान का अस्तित्व माना जायगा तो चारित्र का भी अस्तित्व वहीं तक मानना उचित होगा, क्योंकि चारित्र का व्यवहार भी वहीं तक होता है, प्रतः सिद्ध आत्मा में चारित्र मानने पर उसी के समान ध्यान को भी द्वापत्ति अनिवार्य है" - तो यह १. यस्य चारित्रात्मा तस्य योगात्मा नियमात् । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] [ शास्त्रमा स्त. ६ श्लो० २७ इदं तु ध्येयम्-सिद्धानां चारित्राभावमतेऽयि प्रकृते नानुपपत्तिः, ज्ञानयोगाधिकारात ज्ञाननयप्राधान्येन ज्ञानचास्त्रियोरभेदाश्रयणात ; ज्ञानावस्थारूपस्यैव स्थैर्याख्यचारित्रपरिणामस्याऽक्षयत्वोपपादनात् । एतदुपपादनार्थमेव शुद्धनयाभिप्रायक'नोचरित्रित्व-नोअचरित्रित्व'वचनानुसरणादिति गम्भीरधिया परिभावनीयम् ।। २६ ॥ फलितमाहमूलम्-ज्ञानयोगादतो मुक्तिरिति सम्यग्व्यवस्थितम्। तन्त्रान्तरानुरोधेन गीतं चेत्थं न दोषकृत् ॥ २७ ॥ अतः उक्तन्यापात् , 'ज्ञानयोगाद् मुक्तिः' इति एतदुपन्यस्तम् सम्यक प्रमाणाऽविरोधेन व्यवस्थितम् । ननु कथं सम्पगियं व्यवस्था, "ज्ञान-क्रियाभ्यां मुक्तिः" इति तन्त्रव्यवस्थानात ? अत आह-तन्त्रान्तरानुरोधेन च-वेदान्तवादिमतानुरोधेन च इत्यम्-उक्तरीत्या, गीतम् उक्तम् न दोषकृतम्न स्वतन्त्रक्षतिदोषावहम् , अनेकनयमये स्वतन्त्रं यथाप्रयोजनमेकनयप्राधान्यादरस्याप्यदुष्टत्वादिति भावः। ठीक नहीं है क्योंकि ध्यान चारित्र की एक विशेष अवस्था है, अत: उस अवस्था के अभाव में भी चारित्रका अस्तित्व हो सकता है। अवस्थारूप ध्यान के प्रभाव से चारित्र का अमाव ठीक उसी प्रकार नहीं माना जा सकता जैसे घट को श्यामत्व प्रादि की अवस्था के अभाव में भी घट का प्रभाव नहीं होता । अन्य विद्वानों का कहना है कि अपने स्वभाव से आरमा का अवस्यानरूप ध्यान भी मुक्ति प्रवस्या में अक्षुण्ण रहता है। इस सम्बन्ध में अधिक जानकारी अध्यात्ममतपरीक्षा में प्राप्त की जा सकती है। ज्ञानयोग से मुक्ति- इस प्रकरण में यह जातव्य है कि सिद्ध आत्मा में चारित्र का प्रभाव मानने पर भी वर्तमान सन्दर्भ में कोई अनुपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि यह सन्दर्भ मुख्यरूप से ज्ञानयोग के सम्बन्ध में है, शान नय की प्रधानता से ज्ञान और चारित्र में अमेव होता है, ज्ञान को अवस्थारूप स्थेयनामक चारित्र परिणाम है उसी की अनश्वरता का उपपाचन यही करना अभिप्रेत है और उसके उपपादन के लिये ही शुद्ध नय के अभिप्राय से सिद्ध आत्मा को 'नो चारित्री' 'नो अबारित्रो' रूप में व्यवहृत किया जाता है-यह विषय गम्भीर बुद्धि से विमर्श योग्य है ।। २६ ।। [ज्ञानयोग से मुक्ति यह बात वेदान्तमत की अपेक्षा से ] २७वों कारिका में पूरे स्तबक में किये गए विचार का फलितार्य बताया गया है। कारिका का अर्थ इसप्रकार है-उक्त न्याय से 'ज्ञानयोग से मुक्ति होती है' यह पक्ष प्रमाणविरुद्ध न होने से समोचोन रूप से समर्पित हो जाता है । यद्यपि उक्त पक्ष के समर्थन को समीचीन कहना आपाततः असंगत प्रतीत होता है क्योंकि उसमें शान और क्रिया दोनों द्वारा मुक्ति होती हैइस पक्ष के प्रतिपादक जनशास्त्र का विरोध होता है, तथापि विचार करने पर शास्त्रविरोष की प्रसक्ति न होने से उक्त पक्ष के समर्थन को समीचीन कहने में कोई बाधा नहीं है। यह तथ्य कारिका के उत्तरार्ध में यह कहते हुये प्रतिपादित किया गया है कि शास्त्रान्तर-वेदान्तशास्त्र के अभिमत के Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [ १३१ । योगाचार्यमतानुरोधे पुनरिच्छा-शास्त्र-सामर्थ्ययोगा इष्यन्ते। तत्र ज्ञातागमस्यापि प्रमादिनः कालादिवैकल्येन चैत्यवन्दनाद्यनुष्ठानमिच्छाप्राधान्यादिच्छायोगः । यथाशक्ति तीव्रश्रद्धया कालाधवैकल्येन तदनुष्ठानं च यथाशास्त्रमाचारात् शास्त्रयोगः | शास्त्रदर्शितोपाये शास्त्रदर्शितदिशाऽधिकतरवीर्यमुल्लासयतो मार्गानुसारिप्रकृष्टोहरूपस्वसंवेदनेन जाताधिक विवेकस्यानुष्ठानं सामर्थ्य योगः। न हि शास्त्रादेव मोचोपायः कात्स्न्यनावगम्यते, तीम्ररुचेः श्रवणमात्रादेव मोक्षोपायलामे योगाभ्यासवैयर्थ्यप्रसङ्गात् ; उपायविशेषलाभार्थमेव तत्परिशीलनस्य सप्रयोजनत्वात् । न घायमझातो लभ्यते । न च प्रत्यात्मशृङ्गाहिकया तबोधनाय शास्त्रं व्याप्रियते । न चैवमत्र शास्त्रवैयथ्यम् दिग्दर्शकस्यात् , इति सिद्धमस्य शास्त्रातिक्रान्तविषयत्वम् । अनुसार उक्त पक्ष का किया गया समर्थन जनशास्त्रविरोधप्रसक्तिरूपदोष का आपायक नहीं है क्योंकि जनशास्त्र अनेक नयों से घटित है. अतःप्रयोजनानसार किसी एक नय को प्रधानता प्रदान करने में कोई दोष नहीं है। [इच्छायोग-शास्त्रयोग-सामर्थ्ययोग ] योगाचार्य के प्रभिप्राय के अनुसार इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्य योग ये सोन योग मोक्षसाधन के रूप में अमीष्ट हैं। जिस पुरुष को आगमशास्त्र का ज्ञान होता है वह भी अनुष्ठान योग्य काल आदि की सापेक्षता के बिना ही प्रमादी होकर चैत्यवन्धन आदि का अनुष्ठान करता है। इच्छानुसारिता ही यहाँ प्रधान होने से इसे इच्छायोग कहा गया है । अनुष्ठान के लिये उचित काल प्रादि को सापेक्ष रह कर शास्त्र में तीन श्रद्धा के कारण शास्त्रानुसार जो यथाशक्ति मोक्षोपाय का अनुष्ठान किया जाता है उसमें शास्त्रोक्त आचार को प्रधामता होने से उसे शास्त्रयोग शब्द से मोक्ष का साधन कहा जाता है । मोक्षार्थी जब शास्त्र में वणित मोक्षोपाय को स्वायत्त करने हेतु शास्त्रसूचित दिशा में अधिकतर उत्साहका अवलम्बन करता है और शास्त्रोक्त मार्ग के अनुसार प्रकृष्ट ऊह रूप स्वसंवेदन द्वारा अतिशय विवेक से सम्पन्न होकर मोक्षोपाय का अनुष्ठान करता है तब वह मोक्षोपाय का समर्थ प्रतष्ठाता होता है। उसका यह अनुष्ठान सामर्थ्ययोग शब्द से मोक्ष का साधन कहा जाता है। [सामर्थ्ययोग के बिना केवल शास्त्रमोध अपूर्ण ] मोक्षोपाय का पूर्ण ज्ञान केवल शास्त्र से ही नहीं होता क्योंकि तीवरुचिसम्पन्न व्यक्ति को सीर्फ शास्त्र के श्रवणमात्र से ही मोक्षोपाय का लाभ हो जाने पर योगाभ्यास व्यर्थ होने की आपत्ति होगी । आशय यह है कि मोक्ष के उपायविशेष को आत्मसात करने के लिये ही योगाभ्यास की सार्थकता होती है, प्रतः यवि शास्त्र से ही मोक्षोपाय को पूर्ण अवगति हो जायगी तो योगाभ्यास का कोई प्रयोजन नहीं रह जायेगा। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ 1 [ शास्त्रवास्ति श्लो० २७ स चायं द्विविधः-धर्मसंन्यासः, योगसंन्यासश्च । तत्र धर्मसंन्यासस्तात्त्विका पपकश्रेणियोगिनो द्वितीयाऽपूर्वकरणे भवति, क्षायोपशमिकानां क्षान्त्यादिधर्माणां तदा निवृत्तः, क्षायिकाणामेव विशुद्धानां प्रादुर्भावात् । अतालिकम्तु प्रव्रज्याकालेऽपि भवति सापद्यप्रवृतिलक्षणधर्म(सं)न्यासादिति समयविदः । द्वितीयस्त्वायोज्यकरणेन योगनिरोधाश्च शैलेश्या कायादिकर्मरूपाणां योगाना (सं)न्यासात् । अयं खल्वयोगोऽपि मोक्षयोजनात् परमो योग उच्यत इति । ___तदाहुः--[ योग० ६० स० श्लो० ३-११] कर्तुमिच्छोः श्रुतार्थस्य ज्ञानिनोऽपि प्रमादिनः । विकलो धर्मयोगो यः स इच्छायोग उच्यते ॥३॥ शास्त्रयोगस्त्विह ज्ञेयो यथाशक्त्यप्रमादिनः । श्राद्धस्य तीव्रबोधेन पचसा विकलस्तथा ॥ ४॥ शास्त्रसंदर्शितोपायस्तदतिक्रान्तगोचरः । शकन्युरोकाद् विशेषेण सामाख्योऽयमुत्तमः ॥ ५॥ सिद्धयाख्यपदसंप्राप्तिहेतुभेदा न तच्चतः । शास्त्रादेवावगम्यन्ते सर्वथेवेह योगिभिः ॥ ६॥ सर्वथा तत्परिच्छेदात् साक्षात्कारित्वयोगतः। तत्सर्वज्ञत्वसंसिद्धस्तदा सिद्धिपदाप्तितः ॥ ७॥ योगाभ्यास से प्राध्य मोक्षोपाय भी अज्ञात होने पर उपलब्ध नहीं होता क्योंकि अज्ञात के लाभ के लिये कोई प्रयत्न शक्य नहीं होता। शास्त्र मोक्षोपाय का पद्यपि शापक होता है किन्तु शगप्राहिका प्रणाली से अर्थात प्रालिस्विक-प्रतिव्यक्तिरूप से सबको उसका बोष नहीं कराता । पर इतने से हो मोक्षोपाय के प्रतिपादन के सम्बन्ध में शास्त्र को निरपंकता भी नहीं हो सकती क्योंकि मोक्षोपाय का दिग्दर्शन शास्त्र से ही होता है ! इसप्रकार यह सिस है कि मोक्षोपाय समग्ररूप से शास्त्र नहीं है किन्तु उस से भी परे है। 1 [धर्मसंन्यास और योगसंन्यास ] सामर्थ्ययोग रूप मोक्षोपाय के दो भेद हैं-धर्मसंन्यास और योगसंन्यास । तात्त्विक धर्मसंन्यास अपकश्रेणी के आरोहक को द्वितीय अपूर्षकरण में यानी आठवे गुणस्थानक में होता है, क्योंकि उसमें क्षमा आदि क्षायोपशमिक धर्मों को निवृत्ति होकर विशुद्ध क्षायिक आदि धर्मों का प्रादुर्भावप्रारम्भ हो जाता है । अतास्विकधर्मसंन्यास तो प्रवज्या-संन्यासग्रहणकाल में भी होता है क्योंकि उस समय सावध= सबोष-प्रवृत्ति रूप धर्म का त्याग हो जाता है। पोगसंन्यास रूप सामथ्ययोग आयोज्यकरण करके योगमिरोष करने के बाद शैलेशी अवस्था में १४ वे गुणस्थानक में कार्य मावि से साध्य क्रियाप्रवृत्तिरूप समो योगों के त्याग से सम्पन्न होता है, यह योगसंन्यास कायादि योग से रहित होने पर भी झटिति मोक्ष का योग-सम्बन्ध कराने से परमयोग कहा जाता है। [ योगदृष्टिसमुच्चय ग्रन्थ में इच्छादि तीन योग] उक्त विषय को श्रीहरिभद्रसूरिमहाराज ने इस रूप में कहा है जो कोई भी धर्मयोग साधने को तीन अभिलाषावाला हो, साथ में उस योगसंबंधि आगम का उसने श्रवण किया हो, और ज्ञाता भी बना हो, फिर भी जो (निद्रा-विकथादि) प्रमावाला हो। उसका विकल धर्मानुष्ठान इच्छायोग कहा जाता है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या टोका एवं हिन्दीविवेचन ] [१३३ न चैतदेवं यत्तस्मात् प्रातिभज्ञानसंगतः । सामर्थ्य योगोऽवाच्योऽस्ति सर्वज्ञत्वादिसाघनम् ।। ८ ।। द्विधाऽयं धर्मसंन्यास-योगसंन्याससंशितः । क्षायोपशमिझा धर्मा योगाः कायादिकर्म तु ॥६॥ द्वितीयापूर्वकरणे प्रथमस्ताविको भवेत् । आयोज्यकरणावं द्वितीय इति तद्विदः ॥ १० ॥ अतस्त्वयोगो योगानां योगः पर उदाहृतः । मोक्षयोजनभावेन सरसंन्यासलक्षणः ॥११॥” इति । ततो ज्ञान-क्रियायोगयोरुभयोरप्युपपत्तिः स्व-तन्त्र इति सर्वमवदाततरम् ।। २७ ।। यः साक्षात्कृतमोक्षसाधनविधिस्तीवं तपस्तप्तगन्, यःकमाण्यपनीतवान् परिणमन्संज्ञानयोगाशयः । नित्यज्ञान-चरित्र-दर्शन-सुखं मोक्षं च यो लब्धवान् , अस्माकं शरणं स एव भगवान स्वप्नेऽथवा जागरे ॥१॥ जो पुरुष शास्त्र में (उत्कट) श्रद्धावान्-यथाशक्ति प्रमावहीन, व तोच बोध से सम्पन्न होता है उसका कालादि से अधिकल जो धर्मानुष्ठान होता है उसे शास्त्रयोग माना जाता है ।॥४॥ जिस पुरुष को; शास्त्र र मोकोपाय का दर्शन-अधबोध प्राप्त है, शक्ति के विशेष उद्रेक से शास्त्र से अगोचर विषय में जो उसका अनुष्ठान होता है उसे सामग्रंयोग कहा जाता है, यह इच्छायोग और शास्त्रयोग से श्रेष्ठ होता है ॥५॥ सिद्धि यानी मोक्ष पद, को प्राप्ति के समग्र साधन योगियों को केवल शास्त्र से हो सम्पूर्ण और तात्त्विकरूप में प्रात नहीं होते ।।६।। सिद्धि के उपायों का शास्त्र से ही पदि समग्ररूप से ज्ञान हो जाय तब समग्र पदार्थों के साक्षास्कार का योग हो जाने से सर्वज्ञता को सिद्धि होने द्वारा सिशिपव-मोक्षपद की प्राप्ति भी हो जाय ॥७॥ किन्तु यतः समग्र और तास्तिकरूप से मोक्षोपाय का परिज्ञाम केवल शास्त्र से ही नहीं होता है अत एव (यह सिद्ध है कि) उसमें प्रातिमज्ञान से विशिष्ट सामर्थ्ययोग अपेक्षित है व यह वर्णनातीत होता है, यह योग ही सर्वज्ञता आदि का साधक होता है ॥ ८ ॥ यह सामर्थ्ययोग धर्मसंन्यास और योगसंन्यास भेद से दो प्रकार का होता है। (संन्यास के विषय भूत) धर्म करके यहाँ क्षायोपामिक धर्म एवं योग करफे यहाँ कायादि साध्य कर्म ग्राह्य है ।।६।। द्वितीय प्रपूर्वकरण होने पर पहला तात्विकधर्मसंन्यास होता है एवं अयोज्यकरण के प्रनन्तर दूसरा योगसंन्यास होता है ।। १० ॥ अतः सर्व (घोग) संन्यास स्वरूप प्रयोग यह मोक्ष के साथ योग कराने वाला होने से समी योगो में श्रेष्ठयोग है ॥ १३ ॥ उक्त रीति से यह अत्यन्त स्पष्ट है कि जन शास्त्र में मोक्ष साधन के रूप में ज्ञानयोग और क्रियायोग दोनों की उपपति हो सकती है ।। ५७ ।। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] [ शास्त्रदाता स्त० ९ लो० २७ यस्यासन गुरवोऽत्र जीतस्जियाः प्राज्ञा प्रकृष्टाशयाः, भ्राजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः । . प्रेम्णां यस्य च सम पद्मविजयो जातः सुधीः सोदरः, तेन न्यायविशारदेन रचिते न्यायेऽत्र देया मतिः ॥ २ ॥ व्याख्याकारने इस स्तधक की व्याख्या का उपसंहार करते हुए इन शब्दों में भगवान् के शरण हो याचना की है कि जिसने मोक्ष साधन को विधिका साक्षात्कार किया है, मोक्षलाभ के लिये तीन तप किया है, समग्र संसारापावक कर्मों को भस्म कर डाला है, जिसका हृदय संज्ञानयोग में परिणत हो गया है और जिसने ज्ञान, चारित्र, वर्शन एवं सुखात्मक नियमोक्ष प्राप्त कर लिया है वह भगवान् निद्रा और जागरण में हमारे रक्षम है : १ यस्यासन् गुरवो इस श्लोक का विवेचन प्रथम स्तबक में आ गया है । इति पण्डित श्रीपाविजयसोदर न्यायविशारद पण्डित श्रीयशो. विजयविरचितायां स्याद्वादकल्पलतानाम्यां शास्त्रबार्तासमुच्चयटीकायर्या ॥ नवमः स्तषकः ॥ ज Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० १० टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [ १३५ ६/७ स्तबक १-शुद्धिपत्रकम् पृष्ठापंक्ति असुद्ध शुद्ध पृष्ठ/पंक्ति अशुद्ध १/३ करूपता कल्पलता २४/२५ है तो यह है"-तो यह नोट:-कारिका में. २५/२५ उत्पपति उपपत्ति समीक्षा की है । ये चार पंक्ति १८वों २६/३३ . व्याख्याकारने पूर्वपक्षीने पंक्ति के बाद समझना। ३५/२० के रूप में -हेतुफल ३८/२३ प्रभाव प्रापमाव ९/१६ भी जीव जीव भी तथा अर्थात् तथा ११/१२ सर्वज्ञान सर्वशज्ञान ५२/२४ क्रम-सम्बन्ध सम्बन्ध १२/१० समस्त सम्मत | २९ हिंसा-हिंसा हिंसा /२० बुद्ध बुद्धि ५६/२१ विशुद्धि "अतः अतः अवस्था अवस्था का आपादान १५/२४ सद से भिन्न = सत् से भिन्न' |७३/१६ अनुपबन्ध अपुनर्बन्ध १६/२२ पर ज्ञान ८७/८ गुगेकटयां गुणैकमयां १९/११ .विषयग्राही विषयग्रहण [ 80/ त्रयाणणा त्रयाणा १६. "योगपद से....... "योगपब से बोध्य ६४/१७ विशुद्धि से केवल विशुद्धि से आवश्यक हो है" योगतिरोधस्वरूप | १०७/१ कृत्वा" कृत्वा" (९-२१) इस पंक्ति के बदले क्रिया अवश्यमेव । ११ इन्द्रिय) ग्रादि का इन्द्रिय आवि का) केवलज्ञानपूर्वक ही होती है । अतः १०९/२१ आत्माक मास्मा में : ज्ञान-क्रिया दोनों के योग से हो मुक्ति १०९/२७ स्यमास्य स्वभावस्व साध्य है" ऐसा पड़े। ११०/१७ अपवर्ग अपगम २०/५ यये विद्यायां ये विद्यायां । १११/३ रूपं रूपम २१/२६ अदृष्टात्मक जव्यात्मक |१२०/२७ त्या=कर त्याग कर म: Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शास्त्रवार्ता स्त० श्लो. जैन दर्शन का अनमोल जवाहर ! गहन एवं तात्त्विक दार्शनिक चर्धाओं का भण्डार !! सम्मतितर्कप्रकरण (खण्ड १) मूलका-श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरि महाराज, व्यालयाकार-तर्कपञ्चानन श्री अभयदेव सूरि महाराज मार्गवर्शक-न्यायविशारद आचार्य श्री विजयभुवनभानुसुरोश्वरजी; विवरणकार-विद्ववर्य मुनिश्री जयसुन्दर विजयजी; पहली बार यह ग्रन्थ ( प्रथम खण्ड ) हिन्दी विवेचन के साथ मुद्रित हुआ है। जैन एवं जैनेतर छहों दर्शनों के सिद्धान्तों की इस ग्रन्थ में गहराई से चर्चा एवं समीक्षा की गई है। मूल ग्रन्थकार, व्याख्याकार दोनों महर्षि जैन शासन के अप्रतिम विद्वान् एवं कुशल ताकिक थे। अन्य-अन्य एकान्तवादी दर्शनों का निरसन करके इस ग्रन्थ में सुप्रसिद्ध स्थाद्वाद-अनेकान्त वाद के सिद्धान्त की प्रतिष्ठा की गई है। प्रत्येक जैन के लिए गौरव लेने योग्य और हर दार्शनिक विद्वान के लिए अभ्यास करने जैसा मननीय ग्रन्थ है। चिरकाल से दुर्लभ यह ग्रन्थ हिन्दी विवेचन सहित मुद्रित होने से अध्येता वर्ग के लिए अत्यन्त उपकारक बनेगा । आज ही आप की प्रति मंगवा लीजिए। क्राउन ८ पेजी-६६० पृष्ठः सुन्दर मुद्रण; प्रथम स्वण्डा कीमत ८०-०० रुपये ___ न्याविशारद आचार्य श्रीविजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज की प्रेरणा से प्रकाशित संस्कृत प्राकृत व हिन्दी ग्रंथ उपलब्ध हैं। ललितविस्तरा ( हिन्वी विवेचन ) १२-०० ध्यान शतक ( ॥ ॥ ) जैनधर्म का परिचय महासती मवनरेखा ५-०० गणधरवाद ३-०० आहार-शुद्धि प्रकाश नय-रहस्य ( हिन्दी-विवेचन) २५-०० शास्त्रवार्ता समुच्चय १ से ८ स्तबक (छह जिल्दों में ) १४१-०० हारिभ योग मारती (हरिभद्रसूरि विरचित योगविशिका, योगशतक, ___ योगदृष्टिसमुच्चय और योगविदु. (चार सटीक ग्रन्थ-समुद्र) २०-०० उत्तराध्ययन सूत्र ( भावविजय टीका) ७५-०० उत्तराध्ययन सूत्र ( नेमिचन्द्रसूरि टीका ) धर्मरत्नप्रकरण ( सटीक ) १२-०० गुणस्थानकमारोह-षशिवषत्रिशिका ( सटीक) १२-०० विशेषावश्यक भाष्य माग १, २ १५०-०० प्राधिस्थान-दिव्यदर्शन साप्ताहिक; ६८ गुलाब पाडी बंबई-४००००४ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1: ॥ अहंम् ॥ हिन्दीविवेचनालंकृत स्याद्वादकल्पलताव्याख्याविभूषित शास्त्रवार्त्तासमुच्चय [ दशमस्तबकः ] Fo [ व्याख्याकारकृतमंगलाचरणम् ] यज्ज्ञानोज्ज्वलदर्पणे प्रतिफलत्येतञ्जगद् यत्वदां - भोजे नम्रसुपर्वनाथमुकुटश्रेण्या मरालायितम् । वाणी सर्वशरीरिवाक्परिणता यस्याङ्गपूर्वार्थस्दोषा न स्म समाश्रयन्ति यमिमं श्रीवर्धमानं स्तुमः ॥ १ ॥ ( वर्धमान - पार्श्वजिन - वाग्देवता स्तुति ) जिसके ज्ञानरूपी निर्मल दर्पण में यह जगत् प्रतिबिम्बित होता है, जिस के चरणकमल में प्रणत देवेन्द्र के मुकुटों की माला हंसो का आचरण करती है, जिस की बाजी समस्त देहधारियों की वाणी में परिणत होती है तथा अङ्ग और पूर्व के अर्थों का प्रसव करती है, जिसे दोष कभी आश्रय नहीं कर पाते उस श्रीवर्धमान की हम स्तुति करते हैं । फणिपतिफण रत्नप्रान्तसंक्रान्तमूर्तिर्युगपदिव दिधक्षुः स्पष्टमष्टापि बन्धान् । जगति विधृतरूपो दित्सुरष्टाथ सिद्धीर्दलयतु जिनभास्वानष्टधाकष्टधाराम् || २ || सर्पराज के फणवर्ती रत्नों के प्रान्तभाग में संक्रान्त प्रतिबिम्ब के कारण ऐसा लगता है मानों कि जो आठों बन्धों को एक साथ ही असन्दिग्धरूप से दग्ध करने को इच्छुक हैं, एवं आठों सिद्धियों को देने के लिए तत्पर है-इसी लिये मानों कि जगत में आट शरीर धारण न किया हो, वे पार्श्वजिनरूपी सूर्य कष्ट की धारा का दलन करें । लब्धोदयायां हृदये यस्यां प्रक्षीयते तमः । पुण्यप्रारभारलभ्यां तां कलां कामप्युपास्महे ॥ ३ ॥ हृदय में जिस कला के उदय होने पर अन्धकार का क्षय हो जाता है, पुण्यपुञ्ज से प्राप्य उस अवर्णनीय ऐसी कोई कला (ऍकार ) की हम उपासना करते हैं । ननु 'सर्वज्ञस्य ज्ञानयोगेन कर्मक्षयाद् मुक्तिः' इत्युक्तं न युक्तम्, सर्वज्ञस्यैवाभावात्इति वार्तान्तरमुत्थापयति १ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] मूलम् -3 - अत्राप्यभिदधत्यन्ये सर्वज्ञो नैव विद्यते । तयाभावादिति न्यायानुसारिणः ॥ १ ॥ [ शाखार्त्ता० १०/१-२ अत्रापि निरूपितसम्यगुपायक्रमे मोक्षवादेऽपि अभिदधति वदन्ति अन्ये मीमांसकाः यदुत 'सर्वज्ञो नैव विद्यते । कुतः ? इत्याह तद् ग्राहकप्रमाभावात् = सर्वज्ञसाधक - प्रमाणाभावात् । 'इति' प्रतिज्ञा तहेतुसमाप्त्यर्थः । किभूता अन्ये ? इत्याह न्यायानुसारिण: = वक्ष्यमाणत त्रिमात्रपराः ।। १ ।। [ सर्वज्ञसिद्धिविरोधी पूर्वपक्षवार्त्ता ] 'ज्ञानयोग से कर्मक्षय द्वारा सर्वेश की मुक्ति होती है' ऐसा 'जन विज्ञानों का कथन सज्ञ का अभाव होने से युक्तिसंगत नहीं है इस पराभिमत विषय को आध कारिका में प्रस्तुत किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है - यद्यपि मोक्षप्राप्ति के उपायों का सम्यक् प्रतिपादन कर के मोक्षवाद को सुप्रतिष्ठित कर दिया गया है, तथापि मीमांसक आदि अन्य विद्वान् अग्रिम तर्कों में आग्रहग्रस्त होकर मोक्षवाद की पूर्वोक्त स्थापना के प्रतिपक्ष में खड़े होकर यह कहते हैं कि सर्वज्ञ की सत्ता नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञ का साधक कोई प्रमाण नहीं है। कारिका में आये 'इति' शब्द द्वारा यह सूचित किया गया है कि लर्षज्ञसाधक प्रमाण कर अभाव सर्वज्ञ कं अभाव का साधन करने में पूर्णतया समर्थ है, उसके लिए अन्य हेतु की अपेक्षा नहीं है || १ || तग्राहकप्रमाणसामान्याभावे तद्विशेषाभावं हेतुं विवेचयन्नाह मूलम् - प्रत्यक्षेण प्रमाणेन सर्वज्ञो नैव गृह्यते । लिङ्गमप्यविनाभावि तेन किञ्चित् न दृश्यते ॥ २ ॥ प्रत्यक्षेण प्रमाणेन नैव सर्वज्ञो गृह्यते, तद्धि प्रतिनियतासन्नरूप दिगोचरचारित्वेन परसंतानवतिसंवेदनमात्रेऽप्यशक्तम्, किं पुनरनन्तातीतानागत- वर्तमान- सूक्ष्मान्तरितादिस्वभाव सकलपदार्थसाक्षात्कारिसंवेदनविशिष्टस्याऽसतः पुरुषविशेषस्य परिच्छेदे !! इति । लिंगमपि किचित् तेन सर्वज्ञेन सह अविनाभावि = निश्चितप्रतिबन्धम् न दृश्यते । नहि तदग्रहे तत्सत्त्वेन सह हेतोः प्रतिबन्धः पक्षधर्मत्वं वा तस्य निश्चतुं शक्यत इति । किञ्च सर्वज्ञोऽनुमानाद विशेषेण साध्यः अविशेषेण वा । आद्ये व्यभिचारः । द्वितीये स्वामीप्सितात्सर्वज्ञाऽसिद्धिः । न च सर्वे पदार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वात्, अन्यादिवत्' इति हेतोः सर्वसिद्धिः, सकलपदार्थसाक्षात्कार्येकज्ञानप्रत्यक्षत्वस्य साध्यत्वे दृष्टान्तस्य साध्यवैकल्यात् । प्रतिनियतविषयानेकज्ञाने प्रत्यक्षत्वस्य साध्यत्वे च बाधः सिद्धसाधनं वा । एवं प्रमेयत्वतावपि विकल्प्य दोषो भाव्यः । न च सामान्योपग्रहाद् दोषोद्धारः अतिविलक्षणव्यवत्योरेकसामान्याऽसिद्धेः, अन्यथा ऽतिप्रसङ्गादिति ॥ २ ॥ C 2 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या, क, टीका-हिन्दी विवेसन [प्रत्यक्ष और अनुमान से सर्वज्ञसिद्धि असंभव ] __ सर्वज्ञाभाष के साधनार्थ प्रस्तुत किये गये प्रमाणसामान्याभाष के समर्थन के लिये नितीय कारिका में प्रमाणविशेषाभावरूप हेतु का विधेशन किया गश है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है प्रत्यक्षममाण से सर्वज्ञ की सिद्धि कथमपि नहीं हो सकती, क्योंकि यह स्व. भावत: सम्बन्ध में आये हुए रूपादि प्रतिनियत विषयों में ही प्रवृत्त होता है । अतः अन्य सन्तान में विद्यमान संवेदनमान को भी ग्रहण करने में पद असमर्थ है और जब उस की यह स्थिति है तष अतीत-अनागत-वर्तमान सूक्ष्म-व्ययहित आदि अनन्त स्वभाव से युक्त सम्पूर्ण पदार्थों के प्रत्यक्षानुभव से विशिष्ट असत्पुरुषविशेष को प्रहण करने में घातले समर्थ हो सकता है? अनुमान से भी सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि ऐसा कोई लिङ्ग देखने में नहीं आता जिस में सर्वज्ञ का अविमाभाष यानी सर्वक की व्यानि गृहीत हो सके। साथ ही यह भी निर्विवाद है कि सर्वज्ञ की सिद्धि न होने से सर्वज्ञसाध्यक अथवा सर्वपक्षक कोई भी अनुमान नहीं हो सकता, क्योंकि प्रथम अनुमान के लिये हेतु में अपेक्षित साध्य-व्यासि का निर्णय नहीं हो सकता, और दूसरे अनुमान के लिये, अपेक्षित हेतु में पक्षमता का निक्षय नहीं हो सकता | [किसी भी प्रकार अनुमान से सर्वज्ञसिद्धि अशक्य ] दूसरी बात यह है कि अनुमान से सर्वज्ञ का साधन करने का प्रयास दो रूपों में ही किया जा सकता है । एक यह कि सर्वज्ञ का विशेषरूप से साधम किया माय । जैसे-इसमकार अनुमान किया जाय कि 'अर्हत् सर्वज्ञ हैं क्योंकि सिर हैं, जो सर्वज्ञ नहीं होता पद सिद्ध नहीं होता जैसे संसारी मानव' | दूसरा यह कि सर्व का 'अविशेषसामान्य रूप से साधन किया जाय, जैसे इसप्रकार अनुमान किया जाग कि 'प्रत्यक्षत्व सर्व विषयकत्व का समानाधिकरण है क्योंकि वह अनुमिस्यादि में अवृत्ति तथा ज्ञानत्व की व्याप्यजाति है, मी सर्वविषयकत्व का समानाधिकरण नहीं होता यह उक्त जातिरूप नहीं होता, जैसे अनुमितियादि और घटत्वादि जाति । उक्त दोनों अनुमानो में प्रथम में व्यभिचार है क्योंकि सिद्धत्व हेतु अन्य वादियों को मान्य अलर्वशासिद्ध में सर्वशरथ का व्यभिचारी है। दूसरे अनुमान में अर्थान्तरदोष है क्योंकि अहंत से भिनपुरुष के ज्ञान में, असे कि मैयायिकाभिमत ईश्वर के ज्ञान में, प्रत्यक्षत्व में सर्वविषयकत्व का समानाभिकरण्य मान लेने से उक्त अनुमान के संपन्न हो जाने पर अनाभिमत सर्वज्ञ 'अईस्' की सिद्धि नहीं हो सकती। " सब पदार्थ किसी पुरुष के प्रत्यक्षज्ञान के विषय है क्योकि प्रमेय हैं, जो अमेय होता है वह किसी पुरुष के प्रत्यक्ष का विषय होता है। जैसे अग्नि आदि", इल अनुमान से भी सर्वश की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थों के साक्षात्कर्ता किसी पक पुरुष के प्रत्यक्षज्ञान विषयस्थ को साध्य करने पर दृष्टान्त में साध्य का अभाष दोगा क्योंकि अग्नि आदि रशाम्त उक्त प्रकार के किसी पकपुरुष के प्रत्यक्षज्ञान के विषय नहीं है क्योंकि उक्त साध्य मप्रसित है। सस्तुतः इस दोष के प्रदर्शन का तात्पर्य साध्याऽप्रसिद्धि के प्रदर्शन में है। यदि प्रतिनियतविषयक Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शासवार्ता १०/२ प्रत्यक्षात्मक अनेक मान पियकाष का सब कि शायगा तो बाध होगा क्योंकि कोई पदार्थ अनेक प्रत्यक्षात्मक ज्ञान का विषय नहीं होता किन्तु एक पक पदार्थ पक्क पक प्रत्यक्षकान का ही विषय होता है । यदि इस बाध दोष का वारणा यह कह कर किया जाय कि 'पदार्थों में किसी एक काल में किसी पकपुरुष के प्रत्यक्ष ज्ञान का विषयत्व न होने पर भी कालभेव और पुरुषभेव से उन में अनेक प्रत्यक्षात्मक ज्ञान का विषयत्व विद्यमान होने से बाध नहीं हो सकता'-तो साध्य की ऐसी व्याख्या करने पर सिद्धसाधन होगा क्योंकि सभी पदार्थ में उक्त रीति से व्याख्यात साध्य सिद्ध है। [प्रमेयत्व हेतु में असिद्धि आदि दोष ] प्रमेयत्व हेतु में भी विकल्पपूर्वक विचार करने पर दोष की प्रसक्ति अनिवार्य है, जैसे-प्रमेयत्व का अर्थ यदि प्रत्यक्षविषयत्व किया जाय तो सर्वसिद्धि के पूर्व सब पदार्थों में प्रत्यक्षविषयस्य का ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि सभी पदार्थों में किसी एक व्यक्ति के प्रत्यक्ष की विषयता सिद्ध नहीं है, क्योंकि सब पदार्थो में अतीन्द्रिय पदार्थ भी अन्तर्भूत है। और यदि अनुमितिप्रमाविषयत्वरूप प्रमेयत्व को हेतु किया जायगा तो जिस पदार्थ का सदा प्रत्यक्ष ही होता हैं मनुमिति नहीं होती जैसे मनुष्य का अपना हाथ-पैर एवं शाकगम्य स्वर्गनरक आदि, उस में हेतु का अभाव होने से भागासिद्धि होगी। यदि प्रमात्वसामान्य से प्रत्यक्ष-अनुमिति-शाम्दयोध आदि का संग्रह कर के उस दोषों का उद्धार करने का प्रयास किया जाय तो यह भी संभव नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष-अनुमिति आदि में अत्यन्त लक्षण्य होने से मन में एक सामान्य तत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । यदि अस्यम्त विलक्षण मों में भी सामान्य की सिद्धि मानी जायगी तो घट-पट आदि में एक सामान्य की सिद्धि का अतिप्रसंग होगा । यदि यह कहा जाय कि-'घर-पर आदि में पृथिवीरव प्रख्यत्व आदि जैसे पक जाति रहती है पर्ष प्रत्यक्ष, अनुमिति आदि में जैसे शामत्व-गुणत्व आदि एक जाति रहती है उसी प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमिति आदि में एक प्रभावजाति भी रह सकती है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अत्यन्त विलक्षण व्यक्तियों में एक सामान्य म हो सकने की जो बात कही गई है वह ऐसी जातियों के सम्बन्ध में है जो जाति कार्यमात्रवृति होती है। पृथिवीरव, द्रव्यत्व पधं झामत्व गुणत्व आदि जातियों कार्यमात्रवृत्ति जातियों नहीं हैं अत: घे जातियाँ अस्यम्त विलक्षण व्यक्तियों में रह सकती हैं किन्तु प्रमावसाति कार्यमात्रवृत्ति है, अतः उसे जाति मानने पर वह घटत्यादि जातियों के समान अत्यन्त विलक्षणव्यक्तियों में नहीं रह सकती है। अस एव इन्द्रिय, लिङ्ग आदि विलक्षण कारणों से उत्पन्न होने वाले प्रत्यक्ष-अनुमिति आदि का प्रमात्वरूप से संग्रह कर के भी प्रमेयस्थ हेतु का समर्थन नहीं किया जा सकता । इस के अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि प्रमात्व 'तद्धविशेष्यकत्वे सति तत्प्रकारत्व'रूप होने से प्रकार विशेष और धर्मविशेष से घटित होने के कारण अननुगत है अतः उस में किसी पक के द्वारा हेतु के शरीर में प्रभा का प्रवेश करने पर भागासिद्धि होगी और सभी प्रमाओं का हेसु के शरीर में प्रवेश करने पर हेतु का स्वरूप यावत्प्रमाविषयत्व में पर्यषसित होगा, अतः स्वरूपासिद्धि होगी क्योंकि यावत्प्रमाविषयत्व किसी पदार्थ में नहीं रहता ॥२॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] मूलम्:-न चागमेन, यदसौ विध्यादिप्रतिपादकः । ___ अप्रत्यक्षत्वतो नैवोपमानेनापि गम्यते ।।३।। ___न चागमेन 'सर्वतो गृपते' इत्यनुपङ्गः । यत् यस्मात् असौ-आगमः विध्यादिप्रतिपादकः विधिनिषेधवोधकः । अयं :-- अनित्यादामाद नमितिः याः, नियाद या ! | नायः, अन्योन्याश्रयात् ; सर्वज्ञसिद्धी हि कृत्रिमस्यागमस्य तत्प्रणीतत्वेन प्रामाण्यसिद्धिः, तसिद्धौ च ततस्तस्सिद्धिः । न चाऽसर्बज्ञप्रणीत आगमः प्रमाणं युज्यते, अन्यथा स्ववचनादेव सरिसद्धिः स्यादिति । नापि द्वितीयः, नित्यस्यागमस्य कार्य पवार्थे प्रामाण्यव्यवस्थापनेन सर्वज्ञप्रतिपादने तस्याऽप्रमाणत्वात् , यश्च हिरण्यगर्भ प्रकृत्य-'स सर्ववित् स लोकचित्' इत्यादिरागमः, तस्यापि कर्मार्थवादप्रधानत्वेन सफलज्ञविधायकत्वानुपपत्तेः । नापि सफलज्ञस्यानुवादकोऽसौ, पूर्वमन्यैः प्रमाणैरवोधितस्य तस्यानुवदितुमशक्यत्वादिति भावः । अप्रत्यक्षस्वतः कारणात् , नेवोपमानेनापि गम्यते सर्वज्ञः, तस्य सादृश्यविषयत्वात् , सादृश्याश्रयदर्शननान्तरीयकत्वाच्च; पदवाच्यत्यविषयकस्बे च तस्यानोपयोग एव दूरे ।। ३ ।। [ आगमप्रमाण से सर्वशसिद्धि अशक्य ] ___ आगम-शाम से भी सर्घश की सिद्रि नहीं हो सकती क्योंकि आगम विधि और निषेध का ही बोधक होता है । अतः सर्वज्ञ विधि-निषेधात्मक न होने से आगम से गृहीत नहीं हो सकता । साथ ही यह भी विचारणीय है कि सर्वज्ञ की सिद्धि अनित्य आगम से होगी या नित्य मागम से ? (१) इन में प्रथम पन अन्योन्याश्रय होने से ग्राह्य नहीं हो सकता, क्योंकि सर्व सिद्ध होने पर अनित्य आगम में, सईझ प्रणीत होने से प्रामाण्य की सिद्धि होगी और प्रामाण्य की सिद्धि हो जाने पर ही आगम से सर्वश की सिद्धि होगी, अतः अनित्य भागम से सर्वज्ञ की सिद्धि मानने में अन्योन्याश्रय स्पष्ट है। असर्वश प्रणीत आगम को भी सर्वश की सिद्धि में प्रमाण मानना युक्तिसंगत नहीं हो सकता, क्योंकि यदि अन्य असर्वश का घचन सर्वक्ष का साधक होगा तो वादी के वचन से भी उस की सिद्धि हो जाने की प्रसक्ति होगी। (२) मित्यागम से सर्वज्ञ की सिद्रि होती है यह द्वितीय पक्ष भी ग्राश नहीं हो सकता क्योंकि नित्य आगम (वेद तो कर्तव्य अर्थ में ही प्रमाण होता है-इस तथ्य का व्यवस्थापन हो चकने से सर्वश के प्रतिपादन में वह प्रमाण नहीं हो सकता। हिरण्यगर्भ के अधिकार में स सर्ववित् : लोकबित् वह सर्वश है वह लोकश है, ' इस प्रकारका जो आगम (वेद) उपलब्ध होता है वह भी आगमप्रतिपाद्य कर्म का अर्थवादरूप है अतः यह भी सर्वश का साधक नहीं हो सकता । उक्त आगम सर्वश का अनुवादक भी नहीं हो सकता क्योंकि अन्य प्रमाणों से सर्वज्ञ अज्ञात है, अत: उस का अनुवाद असम्भव है 1 [ उपमानप्रमाण से सर्वसिद्धि का असम्भव ] उपमान प्रमाण से भी सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि सर्वक अप्रत्यक्ष है Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शानवाता० १०/ और उपमान प्रत्यक्षयोग्य अर्थ के सम्बन्ध में ही प्रवृत्त होता है। दूसरी बात यह है कि उपमान सादृश्य और सारश्य के आश्रयभूत पदार्थ के दर्शन का अविनामावी होता है जेसे मीमांसक मतानुसार अरण्य में पहुंचे हुए ग्रामीण पुरुष को गवय में गोसारश्य का दर्शन होने पर ग्रामस्थित गौ में गवयसादृश्य का प्रहण उपमान प्रमाण से होता है। नैयायिक मतानुसार भी उपमान प्रमाण से सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि नैयायिकों के मत में उपमान प्रमाण पदवाच्यत्व का ही ग्राहक होता है, जैसे अपने ग्राम में अरण्यागत पुरुष के वाक्य से 'गोसदृशो गवयगोलश गवयपदद्वाच्य है यह जानकर, अरण्य में गये प्रामीण पुरुप को गवय में गोसारश्य का दर्शन होने पर 'गोसटश गवयपदधाच्य है' इस पूर्वज्ञात वाक्यार्थ के स्मरण से 'गषय: गश्यपदधाच्य:गवय गषयपदयाच्य है' इसप्रकार गधय में गचयपदवाच्यत्य का ग्रहण उपमान प्रमाण मारा उपपन्न होता है । इसप्रकार जब मीमांसक के अनुसार उपमान प्रमाण का विषय सादृश्य है और न्याय मत के अनुसार उस का विश्व पदधाच्यत्व है तब उन दोनों से भिन्न सर्वश में उस का उपयोग बढे दूर की बात है । फलत; उपमान से भी सर्वज्ञ की सिद्धि असंभव है ॥ ६ ॥ मूलम्-नार्थापत्यापि सर्वोऽर्थस्तं विनाऽप्युपपद्यते । प्रमाणपश्चकाऽवृत्तेस्तत्राऽभावप्रमाणता ॥ ४ ॥ अर्थापत्त्यापि न सर्वज्ञो गृह्यते, यतः सर्वोऽर्थः=धर्मदेशनादि तं विनापि सर्वज्ञं विनापि उपपद्यते बुद्धादीनां स्वघ्नोपलब्धार्थोपदेशतुश्यस्य व्यामोहपूर्वकस्य, मन्वादीनां च सामाध्ययनसमासादितव्युत्पत्तिविशेषाऽऽकलितनिखिलवेदार्थानां सम्यग्ज्ञानपूर्वकस्योपदेशस्योपपत्तेः । तदिदमुक्त भट्टेन *" सर्वज्ञो दृश्यते तावद् नेदानीमस्मदादिभिः । दृष्टो न चैकदेशोऽस्ति लिवा योऽनुमापयेत् ॥ १ ॥ न चागम विधिः कश्चिद् नित्यः सर्वज्ञबोधकः । न च मन्त्रार्थवादानां तात्पर्यमवकरप्यते ।। २ ॥ तथान्यार्थप्रघानेस्तैस्तदस्तित्व विधीयते । न चानुवदितुं शक्यः पूर्वमन्यरबोधितः ॥ ३ ॥ अनादिरागमस्यार्थो न च सर्वज्ञ आदिमान् । कृत्रिमेण स्वसत्येन स कथं प्रतिपाद्यते ! ॥ ४ ॥ अथ तवचनेनैव सर्वज्ञोऽज्ञैः प्रतीयते । प्रकल्प्येत कर्थ सिद्धिरन्योन्याश्रययोस्तयोः ? ।। ५ ॥ सर्वज्ञोक्ततया वाक्यं सत्यं तेन तदस्तिता । कथं तदुभयं सिद्धयेत् सिद्धमूलान्तराहते ? |॥ ६ ॥ असर्वज्ञ-प्रणीतातु वचनाद् मूलवजितात् । सर्वज्ञमवगच्छन्तः स्ववाक्यात् किं न जानते ! ॥ ७ ॥ सर्वज्ञसदृशं कश्चिद् यदि पश्येम संप्रति ! उपमानेन सर्वज्ञं जानीयाम ततो वयम् ॥ ८ ॥ उपदेशो हि बुद्धादेधर्माऽधर्मादिगोचरः । अन्यथा नोपपद्येत सार्वयं यदि नो भवेत् ॥ ९ ॥ बुद्धादयो ह्यवेद * श्लोकात्तिके १-१-२ श्लोक ११७ तः, नत्त्व संग्रहे च ३१८५ तः दृष्टम्याः श्लोका इमे । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका हिन्दी विवेचन ] ज्ञास्तेषां वेदादसंभवः । उपदेशः कृतोऽतस्तामोहादेव केवलात् ॥ १० ॥ ये तु मन्यादयः सिद्धाः प्राधान्येन त्रयींविदाम् । त्रयीविंदाश्रितग्रन्थास्ते वेदप्रभवोक्तयः ॥११॥” इति । [ अर्थापत्तिप्रमाण से सर्वज्ञसिद्धि का असम्भव ] विवेचन:-अर्थापति प्रमाण से भी सर्बका की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि धर्मापदेश आदि कार्य क्ष वि उपपन्न हो जाता है। जैसे वुद्ध आदि का उपदेश स्वप्न में उपलब्ध अर्थ के उपदेश के समान है जिसकी उपपत्ति व्यामोह से होती है । मनु आदि का उपदेश मम्यक् ज्ञान से उत्पन्न होता है क्योंकि उन्हो ने सांगवेद के अध्ययन द्वारा विशेष व्युत्पत्ति अर्जित कर सम्पूर्ण वेदार्थ का अयोथ मान कर लिया है। जैसा कि कुमारिल भट्ट ने कहा है इस समय हम लोगों को सर्वज्ञ का दर्शन नहीं होता अतः प्रत्यक्ष प्रमाण से हम लोगो को सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं हो सकती। उत्त के किसी ऐसे पक देश का भी दर्शन हमें नहीं होता जो लिन के रूप में उस का अनुमान करा सके । अतः अनुमानप्रमाण से भी उस की सिद्धि नहीं हो सकती ॥१॥ वेद का कोई नित्यविधि भाग भी सर्वज्ञ का श्रोधक नहीं हैं, उस के भन्त्रवाद और अर्थवाद के भी तात्पर्य की कल्पना सर्यज्ञ के अस्तित्व में नहीं हो सकती ॥२॥ मन्त्र और अर्थवाद अन्यार्थप्रधान हैं, अत: कार्यरूप अभ्य अर्थ के अस्तित्व में ही उन का तात्पर्य माना जाता है। वेदों से सर्पज्ञ का अनुवाद भी नहीं माना जा सकता क्योंकि अन्य प्रमाणों से वह पूर्वबोधित नहीं है ॥७॥ उक्त रीति से जब अनादि अथवा सादि सर्वश का नित्य आगम से प्रतिपादन नहीं होता तो कृत्रिम असल्य आगम से उस का प्रतिपादन कैसे हो सकता हैं ॥ ४॥ सर्वश के वचनरुप आगम से भी अज्ञजनों को सर्वज्ञ का श्रोध नहीं हो सकता । अन्योन्याशित होने से आगम और सर्वज्ञ की सिद्धि की कल्पना कैसे संभव हो सकती है? ॥ ५ ॥ ___ सर्वज्ञ से उक्त होने के कारण वेदवाक्य की सत्यता और वेदवाक्य से सर्वज्ञ की अस्तिता-ये दोनों बातें किसी अन्य प्रामाणिक मूल के अभाव में कैसे सिद्ध हो सकती हैं? ॥ ६ ॥ असर्वज्ञरचित प्रमाणहीम आगम से जिन को सर्वज्ञ की सिद्धि मान्य है ये अपने वाक्य से ही उस. का अधबोध क्यों नहीं प्राम करते ? क्योंकि अन्य असर्यक्ष और सर्वज्ञ के साधनार्थ प्रवृत असर्वज्ञा-दोनी के वचनों में साम्य है, क्योंकि दोनों ही प्रमाणहीन हैं ॥ ७ ॥ यदि इस समय हमें सर्वज्ञ के सदृश कोई दीख पडता तो उस के सारश्य से हम उपमानप्रमाण द्वारा वास्तत्र सबंश को जान सकते. पर ऐसा नहीं है. अतः उपमान प्रमाण से भी उस की सिद्धि असंभव है ॥ ८ ॥ __ युद्ध आदि ने धर्म-अधर्म आदि का उपदेश किया है, यदि च सर्वज्ञ न हो तो उन के उक्त उपदेश की उपपत्ति नहीं हो सकती- यह नहीं कहा जा सकता ॥ ९ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ <] [ शात्रवार्ता १०/४ बुद्ध आदि वेदज्ञ नहीं है अत एव वेद द्वारा उन का उपदेश संभव नहीं है:उन्हों ने केवल व्यामोह से ही उपदेश किया है | १० || वजयी के जननेवालों में मनु आदि प्रधान माने जाते हैं, उन के ग्रन्थ वेदश्य के शाम पर आश्रित है, उन के सारे वचन वेदमूलक हैं ॥। ११ ॥ फलितमाह-प्रमाणपथकाऽवृत्तेः = पञ्चानामपि प्रमाणानां विधिप्राहिणामप्रवृत्तेः तत्र = सर्वज्ञे, अभावप्रमाणता=अभावप्रमाणात् सर्वज्ञाभावनिश्चय एवेति भावः । उक्तं च- (लो. वा. अभाव.) " प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते । वस्तुसत्ता ववोधार्थं तत्राभावप्रमाणता ॥ १ ॥ " इति । न चाभावस्य पृथक्प्रमाणत्वमसिद्धम्, अभावग्राहिणस्तस्य पार्थक्यावश्यकत्वात् । न हीन्द्रि येणाभावज्ञानं जनयितुं शक्यम्, भावांशेनैवेन्द्रियस्य संयोगात् । न च धर्म्यभेदाद् भावांशेन सहा भाषाशास्याभेदे सतीन्द्रियसंयोगोपपत्तिः, अभिन्ने धर्मिणि रूप-रसयोरिव भावा-भावांशयो - रन्योन्यं भेदात् । तदुक्तम्- ( श्लो. वा. अभाव ० १८ - १९ ) "न तावदिन्द्रियेणैषा नास्तीत्युत्पाद्यते मतिः । भावांशेनैव संयोगो योग्यत्वादिन्द्रियस्य हि ॥१॥ ननु भावादभिनत्वात् संप्रयोगोऽस्ति तेन च । न अत्यन्तमभेदोऽस्ति रूपादिवदिहापि नः ॥ २ ॥ * [ सर्वज्ञ अभावप्रमाण का विषय ] विवेचन :- प्रस्तुत चौथी कारिका के उत्तरार्ध में सर्वज्ञविषयक पूर्वोक्त विचारों का फलितार्थ बताया गया है जिस का अभिप्राय यह है कि यतः सर्वक्ष में भाव पदार्थों के ग्राहक प्रत्यक्ष आदि पांचों प्रमाणों की प्रवृत्ति नहीं होती अतः सर्वश की सिद्धि न होकर अभावप्रमाण से सर्वक्ष का अभाव ही सिद्ध होता है। कहा भी गया है कि भाषात्मक वस्तु की सत्ता के अघोषक प्रत्यक्ष आदि पाँचों प्रमाण जिस वस्तु में नहीं प्रवृत्त होते उस में माण की प्रवृत्ति से उस वस्तु के अभाव की सिद्धि होती है । [ अभावग्राहक स्वतंत्र प्रमाण की सिद्धि ] यदि यह कहा जाय कि 'अभाव नामक पृथक् प्रमाण असिद्ध है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अभाय के ग्रहण के लिये अभाव प्रमाण को पृथक मानना आवश्यक है, क्योंकि इन्द्रिय से अभाव का बोध नहीं हो सकता, यतः इन्द्रिय द्वारा अपने सम्बद्ध अर्थ का ही बोध होता है और उस का सम्बन्ध भावाश के ही साथ होता है। यदि यह कहा जाय कि- 'धर्म और धर्मी में अभेद होने से धर्मी के भागांश के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होने पर उस के अभाव के साथ भी इन्द्रिय का सम्बन्ध हो सकता है क्योंकि अभा वांश भावांश से अभिधर्मी से अभिन्न होने के कारण भावां से भी अभिन्न होता है'तो यह ठीक नहीं है क्योंकि धर्मी के अभिन्न होने पर भी जैसे उन के रूप रस आदि धर्मों में भेद होता है उसीप्रकार अभिन्न धर्मी के भावांश और अभावांश धर्मों में भी परस्पर भेद होता हैं। कहा भी गया है कि 'भूतले घटो नास्ति भृतल में घड़ा नहीं है इसप्रकार की बुद्धि इन्द्रिय से नहीं उत्पन्न हो सकती क्योंकि योग्य होने से भायांश के साथ ही इन्द्रिय का लम्ब होता हैं ॥ १ ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] ___ न चैवं तदभावज्ञानमनुमानम्, लिङ्गाभावात् तदुक्तम्- “ न चाप्यस्यानुमानत्वं लिङ्गाभावात् प्रतीयते । भाषांशो ननु लिम स्यात्तदानीमजिक्षणात् ।। १ ।। अभावाबगतेर्जन्म भावांशे हाजिघृक्षिते । तस्मिन् प्रतीयमाने तु नाभाचे जायते मतिः ॥२ ।। न चप तस्य धर्मस्व पदवत् प्रतिपद्यते " इति । [.हो. वा. भाग. २...-११ ततो 'नास्ति' इति ज्ञान फले प्रतियोगिग्रहणपरिणामाभावरूपम्, हानादिबुद्धिरूपे च फलेऽन्यवस्तुज्ञानरूपमभावाख्यं प्रमाणमेष्टव्यम् । तदुक्तम् - " प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः प्रमाणाभाव उच्यते । सात्मनोऽपरिणामो वा विज्ञानं वाऽन्यवस्तुनि ॥ १ ।। " इति । [ श्लो. बा. अगाव. ११ ! एक घर्मा के भावात्मक धर्म में अभिन्न होने के कारण अभावात्मक धर्म के साथ भी इन्द्रिय का सम्बन्ध हो सकता है। ऐसा नहीं माना जा सकता क्योंकि एक धर्मी में विद्यमान का रस आदि के समान एक धर्मी में विद्यमान भाव और अभाव में भी अत्यन्त अभेद नहीं होता ।।२।। वग्राहकप्रमाण अनुमानात्म अनुमान से भी अभाव का ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि अभाव का ग्राहक कोई लिङ्ग नहीं है । कहा भी है कि अभाषज्ञान को अनुमितिरूप नहीं माना जा सकता क्योंकि अभाय का कोई लिङ्ग नहीं होता । भावांश भी अभाव का लिङ्ग नहीं हो सकता क्योंकि अमान्य ज्ञान के समय भाषांश के अभिशासित होने से भावांश अज्ञात रहता है ॥ १॥ भाषांश के अजिशासित होने से भाषांश के अज्ञान काल में जो अभाव ज्ञान का जन्म होता है यह भारांश लिङ्गक नहीं हो मकता, क्योंकि ज्ञात ही लिङ्ग होता है और भावांश की अब प्रतीनि होगी तब अभाव की बुद्धि नष्टीं हो सकती ॥२॥ भाषांश अभाव का धर्म नहीं है अतः पद. जैसे अर्थ का धर्म न होने से अर्थ का अनुः मापक लिङ्ग नहीं होता उसीप्रकार भावांश भी अभाध का निऋयिधया बोधक नहीं हो सकता। [अभावप्रमाण के दो प्रकार ] उक्त रीति से प्रमाणान्तर से अभाय का ग्रहण संभव न होने से उस के ग्रहणार्थ अतिरिक्त प्रमाण मानना आवश्यक है, इस प्रमाण के दो फल हो मकते हैं, पक, अभाव का ग्रहग और दूसरा हान-उपेक्षा आदि की बुद्धि । प्रथम फल में आत्मा के प्रतियोगिज्ञानरूप परिणाम का अभाव ही प्रमाण होता है और दूसरे फल में अन्य वस्तुज्ञान ही अभावप्रमाण होता है। अन्य बस्तान को अभावप्रमाण मानने का आशय यह है कि म वस्तु में हान या उपेक्षा की बुद्धि होती है जिस वस्तु में उसे इष्टभेद या साधनस्वाभाव का ज्ञान होता है । यह ज्ञान क्रमशः भेद पयं अत्यन्ताभावविषयक होने से अभावप्रमाण में परिगणित होता है क्योंकि उस का किसी अन्य प्रमाण में अन्तर्भाध नहीं है और उस में प्रमाण का बुद्धिरूप कार्य उत्पन्न होता है। अभावप्रमाण के ये दोनों रूप निम्न प्रकार में बताये गये हैं Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शानवा० १० न चैवमभावज्ञाने इन्द्रियान्वय-व्यतिरेकानुविधानं न स्यादिति शनीयम् , तस्याधिकरणग्रहणोपक्षीणत्वात् , अधिकरणग्रहण-प्रतियोगिस्मरणयोस्तन हेतुत्वात् । तदुक्तम्- "गृहीत्व! वस्तुसदभावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया ।। श्लो. वा, अ, २८० ॥" इति । न चाधिकरणज्ञानम्य हेतुत्वेऽन्धस्यापि त्वगिन्द्रियोपनीते घटादौ नीलाद्यभावग्रहः स्यादिति वाच्यम् । प्रतियोगिग्राहकेन्द्रियजन्याधिकरणज्ञानस्य तथास्वात् । न चैवं त्वगिन्द्रियोपनीते वायौ झपाभावप्रतीत्यनुदयप्रसङ्गः, रूपानुपलम्भेन तदभावानुमानात् । न च हेतोरपि दुर्घहत्त्वम् , उपलभस्य तवातीन्द्रियत्या तदभावस्याज्ञातानुपलब्ध्यगम्यतया, ज्ञातानुपलब्धिगम्यत्वेऽनवस्थानात् , प्राकट्याभावस्यापि रूपाभावतुल्यतया तेन तदनुमानाऽयोगात्; काय-वाग्व्यवहारामावेऽप्युपेक्षाज्ञानसत्त्वाद् व्यवहाराभावेनापि तस्याननुमेयत्वादिति वाच्यम् , मनोजन्यवायुज्ञानसत्त्वात् , प्राकट्याभावेन मनोग्राह्येण रूपानुपरमानुमानसंभवात् । 'वायौ रूपाभावं पश्यामि' इति धीस्तु भ्रान्तव । अथानुपलम्मे विशेषाभावाचक्षुषाऽभावग्रह आलोको हेतुन तु त्वचेति युतः । इति चेत् ! सत्यम् , चक्षुरादाविवालोकादेरप्यधिकरणज्ञानविशेष एवोपयोगात . अभावज्ञानेऽनुफ्लम्भविशेषकृतविशेषामात्रेडधिकरणज्ञानविशेषोपपप्यत्तः । अत एब 'वटाभाव पश्यामि' इत्यप्यविगानं समर्थितम् . 'पश्यामि' इति विघयताविशेषे संनिकर्षदोपविशेषादिवदधिकरणज्ञानविशेषस्यापि नियामकत्वात् । न चवं गौरवम् , अभावज्ञान आलोकादिहेतुत्वाऽकल्पनलाघवात् । प्रत्यक्ष आदि की अनुत्पत्ति को प्रमाणाभाव कहा जाता है । यह प्रतियोगिज्ञानरूप आत्मपरिणाम के अभावरूप होता है, अथवा अन्य वस्तुविषयक झानरूप होता है ।।१।। यदि यह शङ्का की जाय कि- अभावज्ञान को इन्द्रियान्य न मानने पर उस के द्वारा इन्द्रिय क. अन्वयव्यतिरेक का अनकरण नहीं होना चाहिए, किन्तु अनुकरण होता है अत: उसे इन्द्रियजन्य मानना आवश्यक है-तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि अभावज्ञान नियम से किसी अधिकरणमें ही होता है । अत एय अधिकरणग्रहण के लिये अभावज्ञान भी इन्द्रिय के अन्यय व्यतिरेक का अनुकरण करता है किन्तु इस अनुकरण से अभायज्ञान में इन्द्रियजन्यत्व की सिद्धि नहीं हो मकती, क्योंकि इन्द्रिय अभावाधिकरण के अवषोध को उत्पन्न कर ऋतार्थ हो जाती है अतः अभावज्ञान में अधिकरण ज्ञान और प्रतियोगिस्मरण ही हेतु होता है इन्द्रिय नहीं । शोकार्तिक में कहा भी है कि वस्तु-अधिकरण के अस्तित्व का ज्ञान और प्रतियोगी के स्मरण से अभाव प्रमाण सहन मन द्वारा अभाव था। ग्रहण होता है, उस में इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं होती ।। १ ।। [अधिकरणज्ञान को हेतु मानने में आपत्ति का निवारण ] यदि यह कहा जाय कि-' अभावज्ञान में अधिकरणशान को कारण मानने पर अन्धे को भी त्वगिन्द्रिय से गृहीत घटादि में नीलादि के अभावग्रह की आपसि होगी क्योंकि उसे अधिकरण का सार्शनशान, नीलादिरूप प्रतियोगी का झान और भीलादि की अनुपलब्धिरूप अभावप्रमाण मिद्यमान है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रतियोगी के ग्राहक इन्द्रिय से Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका हिन्दीविवेचन ] होनेवाला अधिकरण ज्ञान ही अभावज्ञान का कारण होता है, बगिन्द्रिय नीलादिरूप प्रतियोगी का ग्राहक नहीं है अतः यगिन्द्रियजन्य अधिकरणशान में अभावज्ञान की आपत्ति नहीं हो सकती । यदि यह कहा जाय कि गोमा मानने पर अगिन्द्रिय से गृहीम वायु में रूपाभाव की प्रतीति की उत्पनि न हो सकेगी-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि रूप की अनुपलग्धि मे रूपा. भान की आनुमानिक प्रतीति में कोई बाधा नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-'रूपानुपलब्धि रूप हेतु का शान दुःशक है क्योंकि भट्टमीमांसक के मत में ज्ञान के अतीन्द्रिय होने से उस का अभाव अशात अनुपलब्धि में ही गम्य होगा । यदि शात अनुपलब्धि से गम्य मानेंगे तो अनवस्था होगी, क्योंकि उपटम्ममाघ अतीन्द्रिय होने से सभी अनुपलब्धि को अनुमानयन ही मानना होगा । प्राकटय - शातता के अभाव से भी उपटम्भाभाव का अनुमान नहीं हो मकता, क्योंकि वह भी रूणभाव के तुल्य है। अतः जैसे त्वमिन्द्रिय से सात वायु में रूपाभाव की प्रतीति नहीं होती उत्सीप्रकार उम में प्राकट्याभाव की भी प्रतीति नहीं हो सकती । प्राकन्याभाव से उपलम्भाभाव का अनुमान नहीं हो सकता । कारण, अनुमान अज्ञातलिङ्गक नहीं होता । एवं जिस वस्तु का कायिक और याचिक व्यवहार नहीं होता उस का भी उपेक्षात्मक ज्ञान होता है अतः व्यवहागभाव में उपलम्भाभाव का अनुमान नहीं हो सकता । अतः वायु में रूपानुलब्धि से रूपाभाव की आनुमानिक प्रतीति का समर्थन नहीं हो सकता.' ___ तो यह कथन टोक नहीं है क्योंकि प्राकट्य-ज्ञातता मनावद्य है अतः मन में गृहीत वायु में 'वायौ रूपं न शातम्' इसप्रकार रूपशातता के मानस अभावज्ञान में रूपानुलब्धि का अनुमान होकर उस से वायु में रूपाभाय की आनुमानिक प्रतीति का समर्थन हो सकता है । वाय में रूपाभाव को अनामित मानने पर यह शा नहीं की जा सकती कि-यायौ रूपाभावं पश्यामि-बाय में रूपाभाव को देखता है. सरकार रूपाभावप्रतीनि की चालषस्वरूप में वृद्धि नहीं हो सकती-क्योंकि यह बुद्धि चाचपन्य अंश में भ्रम है. अत: दोषषश रूपाभाव की अनुमिति का चाचपत्वरूप से ग्रहण हो मकता है । [आलोक की हेतुता और अहेतुता की उपपनि ] यदि यह प्रश्न किया जाय कि-"अनुपलम्भ में कोई लक्षण्य न होने में चश्च के व्यापार के अनन्तर होनेवाले अभावज्ञान में आलोक हेतु होता है. और स्वगिन्द्रियव्यापार के अनन्तर होनेवाले अभायज्ञान में आलोक हेतु नहीं होता. यह व्यवस्था की होगी : क्योंकि अभावज्ञान अब प्रतियोगी के अनुपलम्भरूप अभावप्रमाण से ही होता है तब अभावज्ञान को उत्पन्न काने में अनुपलम्भ को आलोक की अपेक्षा कभी नहीं होनी चाहिये अथवा सदा होनी चाहिए ।"-तो इस प्रश्न का उतर यह दिया जा सकता है कि अभायज्ञानस्थल, में अश्वगादि के समान आलोक आदि का भी उपयोग अधिकरण के ज्ञान में ही होता है. मीधे अभावज्ञान में नहीं होता । फिर भी यदि यह प्रश्न हो कि-'चक्षु के व्यापार के अनन्तर होनेवाले अभारशान तथा स्वगिन्द्रिय के व्यापार के अनन्तर होनेवाले अभावशान में अभावांश के ग्रहण में आलोक की अपेक्षा नहीं है तो चापच्यापार के अनन्तर होनेवाले अभावज्ञान में आलोक की अपेक्षा होती है और स्त्राचव्यापार के अनन्तर होनेवाले अभावज्ञान में लोक की अपेक्षा नहीं होती, ऐसा क्यों ? तो इस का उत्तर यह है कि दोनों अमावज्ञानों में अनुपलम्भ के लक्षण्य से वैलक्षण्य न होने पर भी अधिकरण शान के चलक्षण्य मे वेलक्षण्य होता है। अतः Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ [शानघार्ता० १०/४ न चाऽज्ञातकरणकत्वादभावज्ञानमपरोक्षमित्यप्याशङ्कनीयम्, क्वचिज्ज्ञाताया एवानुपलब्ध करणत्वात् । तथाहि-यत्र गृहाद् निर्गतश्चैत्रस्तत्र कि मैत्र आसीत् । इति केनापि पृष्टः क्षणं ध्यात्वा वदति-'नासीत् तत्र मैत्रः' इति । तत्र प्राग्नास्तिताबुद्धौ ज्ञातैव सा करणम् । न हीय स्मृतिः, गृहसनिकर्षकाले मैत्राऽस्मरणेन तदभावाननुमवात् । नापि प्रत्यक्षम्, गृहाऽ संनिकऽपि जायमानत्वादिति । 'प्रकृताभावज्ञानं मावभूतकरणसचिवमनोजन्यम् , बहिविषयकालौकिकेतरज्ञानत्वात्' इति चाप्रयोजकम् । यह कलाना की जाती है कि अधिकरणांश के चाक्षुष ज्ञान से होनेवाले अभाव ज्ञान में आलोक कारण होता है और अधिकरण के त्याच ज्ञान से होनेवाले अभावकान में आलोक कारण नहीं होता। उक्त हेतु से ही 'घटाभावं पश्यामि' इस ज्ञान का भी समर्थन हो जाता है क्योंकि जैसे 'घा पश्यामि इत्यादि स्थल में घट के माथ चश्च का सन्निकर्ष घटज्ञान में नियामक होना है. तथा. शुकि में रजतस्त्र को विषय करनेवाली 'इदं रजतम्' इत्यादि प्रतीति के स्थल में शुक्ति में रजतत्वग्राहक दोषविशेष रजतज्ञान में चाचपन्यभान का नियामक होता है, उसीप्रकार घटाभावं पश्यामि' इत्यादि स्थल में अधिकरण का चाक्षुषक्षान घटाभाषज्ञान के चाच. पत्वभान का नियामक होता है। यदि यह कहा जाय कि इस प्रकार उक्तकारणता और निया. मकता की कलाना में गौरव होगा' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अभाघज्ञान में आलोक आदि को कारण न मानने से इस पक्ष में स्पष्ट लाघय है ।। [अभावप्रमाण में अपरोक्षता की आपत्ति का निवारण] यदि यह शङ्का की जाय कि 'अभावशान को अभावप्रमाणजन्य मानने पर अज्ञातकरणक होने से उस में अपरोक्षत्व की आपत्ति होगी तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कहीं कहीं पर ज्ञात ही अनुपलब्धि अभावज्ञान का करण होती है । अतः 'जो प्रमाण सर्वत्र अज्ञात ही होकर प्रमा का करण होता है उस प्रमाण से जन्य ज्ञान ही अपरोक्ष होता है। इसप्रकार की व्यवस्था कर देने से, जो अभावशान अज्ञातअनुपलब्धिकरणक होता है उस में अपरोक्षत्व की आपत्ति नहीं हो सकती । ज्ञात अनुपलब्धि अभाषज्ञान का करण कहां होती है-इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जच घर से बाहर निकले हुये चैत्र से कोई व्यक्ति. यह पूछता है कि क्या वहाँ मैत्र था? तो चैत्र थोडा ध्यान देकर उत्सर देता है कि मैत्र बहां नहीं था । इस उत्तर के लिये गृह में मंत्र के पूर्वास्तित्व के अभाव का जो ज्ञान ध्यानद्वारा चैत्र को होता है उस में मैत्रशस्तित्व की ज्ञात अनुपलब्धि द्वी करण है क्योंकि चैत्र का उक्त ज्ञान स्मरणरूप नहीं है, यतः गृह में अवस्थित रहने के समय मैत्र का स्मरण न होने से चैत्र को मैनाभाव का अनुभव नहीं होता और जब उस समय मैत्राभाव का अनुभव नहीं होता तो गृह से बाहर आने पर उस की स्मृति कैसे हो सकती है? चैत्र के उस कान को प्रत्यक्षरूप भी नहीं माना जा सकता क्योंकि गृह के साथ सन्निकर्ष न होने पर भी यह उत्पन्न है ।। 'चत्र का उक्त मैत्राभावज्ञान भावभूतकरणसहकृत । से जन्य है क्योकि अलौकिक ज्ञान से भिन्न हिविषयक ज्ञान है', इस अनमान में भी चैत्र के उक्त मैत्रामावज्ञान में प्रत्यक्षत्व की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि इस हेतु में उक्त साध्य के व्याप्तिज्ञान का प्रयोजक कोई तर्क नहीं है। अत: यह सिद्ध है कि गृह से बाहर Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ २३ अथ यद् तत्प्रतियोगिमाहकं तत् तदभावग्राहकम्, यथाऽनुमानादिकम् भवति चेन्द्रियमपि प्रतियोगिग्राहकम्, अतस्तदभावग्राहकमिति चेत् ? न वाच्यतामाहकोपमाने व्यभिचारात् । न च वाच्यतातिरिक्तं प्रतियोगिनो विशेषणं देयम्, तथापि प्रतियोगियाहकत्वस्य तदभावग्राहकस्येऽतन्त्रत्वात्, अनन्यथासिद्धत्वस्योपाधित्वाच्च । न च व्यापारेणाधिकरण प्रत्यक्षेण, इन्द्रियस्य संयोगादिनेव नान्यथासिद्धत्वमिति वाच्यम् । अभावज्ञान इन्द्रियजन्यत्वसिद्धौ तद्घटितैतद्व्यापारत्वसिद्धिः, सिद्धौ च तत्सिद्धिरित्यन्योन्याश्रयात् । न चाभावभ्रमे दुष्टकरणजन्यत्वावश्यकत्वादिन्द्रिय एव पित्तादिना दुष्टसाया उपपत्तेरभावभ्रमकरणत्वाभावप्रमाकरणत्वमर्पन्द्रियस्यैवेत्याशङ्कनीयम् दोष साहित्यरूपदुष्टताया अनुपलब्धावपि संभवात् । अथाधिकरणविशिष्टाभावधीर्मेन्द्रियजा, अभाववत्वात्; नानुपलब्धिकरणिका, भावधीत्वातू नोमयजन्या, प्रमाणयोर्विरोधात् अविरोधे सांकर्यात्। इतीन्द्रियमेव विशिष्टमहि स्वीकार्यम् । न च प्राणोपनीतसौरभेण चन्दनस्येवानुपलब्धिगृहीतेनाभावेन मृतस्यापि चक्षुषैव ग्रहः, विशेषण भूताभावग्राहकतयाऽनुपलब्धेः स्वीकारादिति वाच्यम्, तथापि प्रतियोगिविशिष्टा भावग्रहस्यानुपलब्ध्या संभवादिति चेत् न, अनुपलव्धिजन्य एच विशिष्टज्ञाने ज्ञानोपनीतयोरधिकरण- प्रतियोगिनोविशेष्यतया विशेषणतया च मावमहसामग्री महिम्ना भानादिति दिग् ! तदेवमभावप्रमाणात् सर्वज्ञाभाव एव सिद्ध्यतीति सिद्धम् । " निकलने के बाद चैत्र को गृह में जो मैत्राभाव का ज्ञान होता है वह गृह में तत्कालीन मैधातुपलब्धि के ज्ञान से ही होता है, इसलिये अनुपलब्धि के ज्ञान होकर भी अभावज्ञान का करण होने से उक्त व्यवस्था के अनुसार अनुपलब्धिकरणक किमी भी अभावज्ञान में अपरोक्षत्व की प्रसक्ति नहीं हो सकती । [ इन्द्रिय में अभावग्राहकता के अनुमान का निराकरण ] यदि यह कहा जाय कि जो जिस प्रतियोगी का ग्राहक होता है वह उस के अभाव का भी ग्राहक होता है । जैसे- धूमलिक से अनुमान द्वारा अनि का शाम होता है । उसी प्रकार इन्धनाभाव से अनुमान द्वारा अनि के अभाव का भी शान होता है । तो जैसे अनुमान आदि से प्रतियोगी और उस के अभाव दोनों का ज्ञान होता है उसीप्रकार इन्द्रिय भी प्रतियोगी का ग्राहक होने से उमी से प्रतियोगी के अभाव का भी ग्रहण होना चाहिये तो ratक नहीं है क्योंकि 'जो प्रतियोगी का ग्राहक होता है वह उस के अभाव का ग्राहक होता है इस व्यामि का पदवाच्यता के ग्राहक और परवान्यत्वाभाव के अग्राहक उपमान प्रमाण में व्यभिचार है । यदि प्रतियोगी में पदवाच्यताभिनत्व विशेषण देकर व्यभिचार का वारण किया जाय तो भी उक्त व्यामि नहीं बन सकती, क्योंकि प्रतियोगी ग्राहकता में अभावग्राहकता की व्याप्ति के ज्ञान का प्रतिबन्ध करनेवाली व्यभिचार शङ्का होगी तो उस का निवर्त्तक कोई तर्क नहीं है । निरुपाधिकत्व तर्क की भी संभावना नहीं की जा सकती, क्योंकि धर्मी के शान से इन्द्रिय अन्यथासिद्ध होने से, इन्द्रियरूप पक्ष में प्रतियोगिग्राहकत्वरूप साधन का अध्यापक होने से तथा अनुमान आदि में अभावग्राहकतारूपसाध्य का व्यापक होने से 'ममन्यथासिद्धत्व' उपाधि है । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] [साबार्ता १० यदि यः कसा जार शि.अभाचाधिकरणाम धर्मी का इन्द्रियजन्यज्ञान-यह तो इन्द्रिय का व्यापार हैं । अत: उस से इन्द्रिय को अन्यथासिद्ध नहीं मान सकते; क्योंकि व्यापार से व्यापारी अन्यथासिन्द नहीं होता; अन्यथा संयोग आदि सन्निकर्ष से प्रतियोगीप्रत्यक्ष के प्रति भी इन्द्रिय अन्यथासिद्ध हो जायभी'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अभावधान में इन्द्रियजन्यत्व सिद्ध होने पर ही अधिकरण शान में इन्द्रियजम्यत्वं ससि इन्द्रियजन्याभावज्ञानमनकायस्प व्यापारत्व की सिद्धि हो सकती है । अत: अभावशान में इन्द्रियजन्यन्त्र की सिद्धि के लिप. अधिकरणप्रत्यक्ष में इन्द्रियव्यापारत्व की सिद्धि की अपेक्षा होने में एवं इस सिद्धि में अभावशान में इन्द्रिय जन्यत्वसिद्धि की अपेक्षा होने से अन्योन्याश्रय स्पष्ट है । फलत: अधिकरणप्रत्यक्ष को व्यापार मान कर, 'उस से इन्द्रिय अन्यथामिद्ध नहीं हो सकती' यह कहकर इन्द्रिय में अनन्यथासिद्धत्व को स्थापित कर के उसे साधन का अव्यापक बताते हुये, उस के उपाधित्व का परिहार करने का प्रयास सफल नहीं हो सकता । यदि यह शङ्का की जाय कि-'अभावभ्रम दुष्टकरण में जन्य होता है और पित्त आदि रोग से जन्य दोष इन्द्रियरूप करण में ही उपपन्न होता है अतः इन्द्रिय को अभावभ्रम का करण मानना आवश्यक होने से उसे अभाव प्रभा का भी करण मानना न्यायप्राप्त है। कारण, जिस दोषयुक्त करण से जिम वस्तु का ग्रहण होता है दोष के अभाव में उस करण से ही उस वस्तु की प्रमा भी होती है-यह सर्वसामान्य न्याय है'-तो यह शङ्का ठीक नहीं हैं क्योंकि जैसे इन्द्रिय में दोषसाहित्यरूप दुष्टता होती है पैसे यह अनुपलब्धि में भी हो सकती है अत: यह पक्ष भी उचित है कि दुष्ट अनुपलब्धि से अभाव का भ्रम होता है और दोष में असन्निहित अनुपलब्धि से अभाव की प्रमा होती है । [अभावज्ञान इन्द्रियजन्य होने की दीर्घ आशंका] गदि यह आशंका की जाय कि-'भृतले बटो नास्तिम्भूतल में घटाभाष है। इस प्रकार जो अधिकरणविशिष्ट अभाव की बुद्धि होती है उस को आप के मत में इन्द्रियजन्य नहीं माना जा सकता क्योकि वह बुद्धि अभावविषयक है और अनुपलब्धिप्रमाणवादी के मन में इन्द्रिय मे अभाविषयक बुद्धि नहीं होती । उक्तबुद्धि को अनुपस्धिरूप करण से भी जन्य नहीं माना जा सकता क्योंकि वह अधिकरणरूप भाव पदार्थ को विषय करती है और सिद्धान्त यह है कि अनुपलब्धि अभावुद्धि का ही करण होती है, भावुद्धि का नहीं । उक्त बुद्धि को इन्द्रिय और अनपलधि उभय से भी जन्य नहीं माना जा सकता कि दो प्रमाणों में विरोध होने प्राणों में एक अद्धि का जन्म नहीं हो सकता । और यदिदो प्रमाणों में विरोध न मान कर दोनों से एकधुद्धि की उत्पत्ति मानी जायगी तो दो प्रमाणों के जन्यतावच्छेदक दो जातियों में सांकर्य हो जायगा, क्योकि पकैकममाणमा प्रजन्य बुद्धियों में ये जातियो परस्पर अभाव की समानाधिकरण होगी और प्रमाणयजन्य एकबुद्ध में दोनों का समानाधिकरण्य भी होगा । अत: इन्द्रिय को ही अधिकरणविशिष्ट अभावज्ञान का जनक मानना उचित है क्योंकि अनुपलब्धि का प्रामाण्य विप्रतिपत्तिग्रस्त है और इन्द्रिय का प्रामाण्य भावपदार्थों के सम्बन्ध में निर्णीत है। यदि बीच में यह कहा जाय कि जैसे घ्राण द्वारा ज्ञात सौरभ से विशिष्ट चन्दन की 'सुरभि चन्दनम्' अथवा 'चन्द ने सौरभम' इसप्रकार की चाक्षुष उपलब्धि होती है वैसे ही अनुपलब्धि से गृहीत अभाव से विशिष्ट भृतल की भी चाक्षुष उपलब्धि हो सकती है क्योंकि उस उपलब्धि में विशेषणभूत अभाव का ग्रहण अनुपलब्धि प्रमाण से सम्पन्न हो जाता है तो Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा. क. टीका हिन्दी विवेचन ] [ १५ एवं 'विप्रतिपन्न प्रत्यक्षं यदि सूक्ष्माद्यर्थमाहकं स्यात्, प्रत्यक्षं न स्यात्' इत्यादि प्रसङ्गसाधनमपि द्रष्टव्यम् । न च गृत्रादीनां चक्षुरादिज्ञानेऽपूर्वदशित्वाद्यतिशयदर्शनाद् नराणामपि प्रज्ञा-मेघादिभिस्तदर्शनात् कस्यचिदतीन्द्रियार्थं द्रष्टुत्वेनाप्यतिशयः स्यादिति संभावनीयम्, गुनादीनामपि स्वविषय एव रूपादों चक्षुरादेदूरदशित्वादिविशेषदर्शनात् विषयपरित्यागेन रूपादौ श्रोत्रादिवृत्तेरतिशयस्याऽदर्शनात् सर्वज्ञे चक्षुरावविषयसूक्ष्मा द्यर्थद्रष्टुत्वाऽसिद्धेः । प्रज्ञा-मेघादिभिरपि नराणां स्तोकस्तोकान्तरत्वेनैवातिशयदर्शनाद् विषयान्तरे प्रकर्षपर्यन्तं च तददर्शनादुक्ताऽसिद्धेः । तदुक्तम् — (लो. वा. चो. ११४, त. संग्रहे ३३८६ ) 1 यत्राप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलङ्घनात् । दूर- सूक्ष्मादिदृष्टौ स्याद्, न रूपे श्रोत्रवृत्तिता ॥ १ ॥ " येऽपि सातिशया द्वष्टाः प्रज्ञा- मेधादिभिर्नराः । स्तोकस्तोकान्तरत्वेन न त्वती यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त रीति से अभाव विशिष्ट अधिकरणज्ञान की उपपत्ति होने पर भी प्रतियोगिविशिष्ट अभाषज्ञान की उपपत्ति अनुपलब्धि द्वारा संभव नहीं है क्योंकि अनुपलब्धि से अभाव के विशेषणरूप में भागत्मक प्रतियोगि का ग्रहण नहीं हो सकता, अत: इन्द्रिय को दी अधिकरणविशिष्ट प्रतियोगिषिशेषित अभाष का ग्राहक मानना आवश्यक होने से अभाव ग्रहण के लिये अनुपलब्धिप्रमाण का अभ्युपगम अनावश्यक हो जाता है। किन्तु यह आशंका ठीक नहीं है, क्योंकि 'भृतले वटो नास्ति' इस अधिकरणविशिष्ट अभावज्ञान की अनुपलब्धिजन्य मानने पर भी उस में ज्ञान द्वारा उपनीत अधिकरण और प्रतियोगी का अभाव के विशेषणरूप में उपनायक शानरूपभावग्राहक सामग्री के बल से मान हो सकता है । इसप्रकार उक्त विचारों से यह सिद्ध है कि सर्वेश की अनुपलब्धिरूप अभाव प्रमाण से सर्वश का अभाव ही सिद्ध होता है न कि सर्व सिद्ध होता है क्योंकि उस का साधक कोई प्रमाण नहीं है । [ प्रत्यक्ष से सूक्ष्म - दूरवर्ती वस्तु का ग्रहण अशक्य ] यह भी ज्ञातव्य है कि सर्वश के ज्ञान को यदि सूक्ष्म-दूरवर्ती आदि अर्थ - का प्रत्यक्षरूप ग्राहक माना जायगा तो यह आपत्ति हो सकती है कि विवादग्रस्त प्रत्यक्ष यदि सुक्ष्मादि अर्थ का ग्राहक होगा तो प्रत्यक्षात्मक न हो सकेगा क्योंकि अनुमानादिजन्य ज्ञानों में सूक्ष्मादि अर्थ की ग्राहकता में प्रत्यक्षत्वाभाव की व्याप्ति सिद्ध है । यदि यह कहा जाय कि 'गीध आदि को चक्षु आदि से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान में 'अपूर्वदर्शित्व' आदि अतिशय देखा जाता है: एवं मनुष्यों के ज्ञान में भी रक्षा, मेधा आदि के द्वारा अपूर्वदशित्व आदि अतिशय देखा जाता है । इसलिये किसी पुरुष के ज्ञान में अतीन्द्रियार्थशित्वरूप अतिशय की संभावना की जा सकती है और जिस पुरुष के ज्ञान में अतिशय होगा वह सर्वश ही हो सकता है । इस प्रकार इस युक्ति से भी सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध हैं तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि गीध आदि के भी चच आदि में जो दूरदर्शित्व आदि अतिशय देखा जाता है, वह चक्षु के विषय 'रूप' आदि में ही सीमित है, क्योंकि अपने विषय का परित्याग कर रूप आदि अन्य विषयों के सम्बन्ध में श्रोत्र आदि में अतिशयं नहीं देखा जाता, अतः सर्वश में चक्षु आदि के अयोग्य सूक्ष्म, व्यवहित आदि अर्थ का दर्शनरूप अतिशय असिद्ध है । प्रज्ञा, मेधा आदि से मनुष्यों में जो अतिशय Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] [ शास्त्रवार्ता. १०/४ न्द्रियदर्शनात् ॥ २ ॥ प्राज्ञोऽपि हि नरः सूक्ष्मानर्थान् द्रष्टुं क्षमोऽपि सन् । स्वजातीरनतिक्राम नतिशेते परान् नरान् ॥ ३ ॥ एकशास्त्रविचारेषु दृश्यतेऽतिशयो महात् । न च शास्त्रान्तरज्ञान तन्मात्रेणैव लभ्यते ॥ ४ ॥ ज्ञात्वा व्याकरणं दूरंबुद्धिः शब्दाऽपशब्दयोः । प्रकृष्यते न नक्षत्र - तिथि - अह्णनिर्णये ॥ ५ ॥ ज्योतिर्विच प्रकृष्टोऽपि चन्द्रार्क-ग्रहणादिषु । न भवत्यादिशब्दानां साधुत्वं ज्ञातुमर्हति ।। ६ ।। तथा वेदेतिहासादिज्ञानातिशयवानपि । न स्वर्गदेवता - पूर्वप्रत्यक्षीकरणे क्षमः || ७ || दशहस्तान्तरं व्योम्ति यो नामोत्प्लुत्य गच्छति । न योजनम सौ गन्तुं शक्तोऽभ्यासशतैरपि ।। ८ ।। " [त संग्रहे ३१५९तः ३१६७ मध्ये ] कथं च धर्मादिमाहिज्ञानस्योत्पत्तिः । ' अभ्यासादिति चेत् न, अक्षाणां रूपादादेव प्रवृत्तेः, अनुमानस्यापि धर्मादावव्यापारात् । आगमप्रभवस्यापि ज्ञानस्याभ्यासे तस्य सर्वज्ञप्रणीतस्यैवाश्रये चक्रकप्रसङ्गात्, अस्पष्टज्ञानस्याभ्यासशतेनापि स्पष्टताया अयोगाच्च । होने की बात कही गई है यह अल्प, अल्पतर आदि रूप में सत्तदिन्द्रियायोग्य पार्थ के ही सम्बन्ध में है । कहने का आशय यह है कि प्रज्ञा, मेधा आदि का उत्कर्ष जिस मनुष्य में होता है वह उस के बल से चक्षु आदि द्वारा चक्षु आदि के योग्य विषयों के सूक्ष्म सूक्ष्मतर आदि रूपों को भी देख लेता है किन्तु विषयान्तर यानी चक्षु आदि के अयोग्य विषयों के प्रकृष्टरूप को भी चक्षु आदि से नहीं देख पाता, अतः किसी भी पुरुष में अतीन्द्रियार्थदर्शितत्त्वरूप की सिद्धि नहीं हो सकती । श्लोकवार्त्तिक आदि में कहा भी है कि जिस इन्द्रिय में जो अतिशय देखा जाता है उस में वह अतिशय उस इन्द्रिय से योग्य अर्थ का अतिक्रमण न करके ही मान्य होता है। जैसे दूर, सूक्ष्म आदि पक्ष योग्य पदार्थों का ही सातिशय चक्षु से दर्शन होता है । चक्षु से अयोग्य का नहीं । प्रक्षेत्र में कितना भी अतिशय क्यों न हो, वह रूप को नहीं देख सकता ॥ १ ॥ प्रा, मेधा आदि द्वारा जो मनुष्य अतिशययुक्त देखे जाते हैं वे भी तत्तद् इन्द्रिय से तत्तद् इन्द्रिय योग्य सूक्ष्म, सूक्ष्मतर वस्तु के दर्शन से ही अतिशय युक्त माने जाते हैं अतीन्द्रिय अर्थ के दर्शन से नहीं, क्योंकि इन्द्रिय से इन्द्रियातिक्रान्त विषय का दर्शन नहीं होता ॥ २ ॥ प्राज्ञ और सूक्ष्म अर्थों को देखने में समर्थ भी मनुष्य तत्तद् इन्द्रिय योग्य पदार्थों के स्वजातीय पदार्थों का अतिक्रमण न करते हुये भी अन्य पुरुषों से अतिशयित - उत्कृष्ट होता है न कि तत्तद् इन्द्रिय से अयोग्य पदार्थों के भी दर्शन से अन्यापेक्षया उत्कृष्ट होता है ॥ ३ ॥ कशास्त्र के विचारों में जिस पुरुष में महान् अतिशय देखा जाता है वह उतने मात्र से ही अन्य शास्त्रों का भी शान नहीं प्राप्त कर लेगा || ४ || व्याकरणशास्त्र का अध्ययन कर शब्द, अपशब्द के विषय में जिस की बुद्धि बहुत दूर तक पहुँचती है वह भी व्याकरण में ही प्रकृष्ट होता है । नक्षत्र, तिथि और ग्रहण के निर्णय में प्रकृष्ट नहीं होता ॥ ५ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] अथ दृश्यत् एव कामशोकायुपप्तचेतसामस्पष्टस्यापि ज्ञानस्य स्पष्टत्वम् । उक्त च'काम-शोक-भयोन्माद-रोग-शोकाग्रुपद्वैताः । अभृतानपि पश्यन्ति पुरतोऽवस्थितानिव ।।१॥' इति । तद्वदेतदपि स्यादिति चेत् ? न, तद्रदेवास्याप्याप्लुतत्वप्रसवतेः । अथागमजं ज्ञानमेयाभ्यासात् साक्षात्कारीभवतीति नाङ्गीकारः, किन्तु तदभ्यासात् श्रवणादिक्रमेण तदुत्पत्तिरिति न दोष इति चेत् ? न, परोक्षादपरोक्षोत्पत्त्यदर्शनात् , श्रवणादेः प्रत्यक्षप्रमाकरणत्वेन प्रत्यक्षप्रमाणत्वप्रसङ्गाच्च । अपि च, सर्वज्ञज्ञानेनकक्षण एव समस्तार्थग्रहण उत्तरकालं तस्याऽकिञ्चित्वप्रसङ्गः । ___ चन्द्रसूर्य के ग्रहण आदि में प्रकृष्ट भी ज्योतिषी 'भवति' आदि शब्दों का साधुत्थ नहीं बता सकता १६ : घेद में वर्णित इतिहास आदि के भतिशय ज्ञान से सम्पन्न भी पुरुष स्वर्ग, देवता और अपूर्व का प्रत्यक्ष करने में समर्थ नहीं होता ॥ ७॥ जो पुरुष कूद कर दश हाथ तक ही उपर झाने में समर्थ होता है वह सैंकडो बार अभ्यास करके भी एक फूद फर योजन की दूरी तक नहीं जा सकता है ॥ ८ ॥ [धर्म-अधर्म आदि का ज्ञान प्रत्यक्षादि से असम्भव ] यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि धर्म, अधर्म आदि को ग्रहण करनेवाले ज्ञान की उत्पत्ति मनुष्य को कैसे हो सकती है ? अभ्यास द्वारा इन्द्रिय से उस की उपपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि इन्द्रियों की रूप आदि विषयों में ही प्रवृत्ति होती हैं। अनुमान से भी उस की उपपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि यह धर्म आदि विषयों में नहीं पहुँच पाता। आगमान्य ज्ञान के अभ्यास से भी उस की उपपत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि सयभरचित आगम का आश्रय लेने पर चक्रक दोष की प्रसक्ति अनियाय है क्योंकि आगमाभ्यास से धर्मादि शान में सर्वशप्रणीत आगम की अपेक्षा और उस आगम के लिये सर्यक्ष की अपेक्षा और सर्वशता के लिये आगमाधीन धर्मादि ज्ञान की अपेक्षा है। दूसरी बात यह है कि आगम से धर्मादि का जो ज्ञान होगा यह परीक्ष होने से अस्पष्ट होगा, अतः शतशः अभ्यास से भी उस में स्पष्टता नहीं आ सकती है, अतः धर्मादि का स्पद शान संभव नहीं है । [ सर्ववस्तुविषयक स्पष्ट ज्ञान का असम्भव ] यदि यह कहा जाय कि 'जिन मनुष्यों का चित्त काम, शोक आदि से आक्रान्त होता है उन को अस्पष्ट-परोक्ष ज्ञान में भी स्पष्टता देखी जाती है, कहा भी है कि-काम, क्रोध, भय, उन्माद, रोग, शोक आदि से आक्रान्त मनुष्य, जो उत्पन भी नहीं हैं उन्हें भी अपने समक्ष अवस्थित जैसा देखते हैं, तो जैसे उन मनुष्यों का अस्पष्ट भी शान स्पष्ट होता है उसी प्रकार धर्म आदि का आगमजन्य अस्पष्ट शान भी स्पष्ट हो सकता है'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि धर्मादिज्ञान को कामादिग्रस्त मनुष्यों के ज्ञान के समान अस्पष्ट मानने पर उन्हीं के समान धर्मादि के शाता पुरुष में कामादि से ग्रस्त होने की आपत्ति होगी । यदि यह कहा जाय कि-'आगमजन्य ज्ञान ही अभ्यास से साक्षात्कार रूप हो जाता है। • Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] [ शास्त्रवार्ता० १०/४ किच, परसंतानवसिरागादिसाक्षात्करणादस्य रागादिमत्त्वमपि स्यात् । अपि च, अतीतकालाद्याकलितस्य वस्तुनो विद्यमानतया तेन प्रतिसंधाने भान्तत्वापत्तिः, अन्यथा च तज्ञानस्य प्रत्यक्षतानुषपत्तिः, अवर्तमानविषयत्वात् । अपि च, वस्तुनः प्रागभावध्वंसयोस्तस्य युगपद् मानाद् युगपजातमृतव्यपदेशापत्तिः । किञ्च, सर्वज्ञकालेऽपि सर्वज्ञो(ऽसर्व:) न ज्ञातुं पार्यत इति कथं तद्वाक्यविश्वासः । इति बहुसर्वज्ञकल्पनापत्तिः । तदुक्तम्- (श्लो. वा. चो, सू. १३४-३५-३६) " सर्वज्ञोऽयमिति तत् तत्कालेऽपि बुमुत्सुभिः । तम्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितर्गम्यते कथम् ! ॥१॥ कल्पनीयाश्च सर्वज्ञा भवेयुबहवस्तव । य एव स्यादसर्वज्ञः स सर्वज्ञं न बुध्यते ।।२।। सर्वज्ञो नाबबुद्धश्च येनैव, स्याद् न तं प्रति । तवाक्यानां प्रमाणत्वं मूलाज्ञानेऽन्यवाक्यवत् ॥३॥" इति । यह अभिमत नहीं है किन्तु अभिमत यह है कि आगमजन्य ज्ञान के अभ्यास से श्रवण, मनन आदि के क्रम से आगमप्रतिपाद्य धर्म आदि पदार्थों के प्रत्यक्ष ज्ञान की उत्पत्ति होती है। अतः उक्त दोष नहीं हो सकता-तां यह भी ठीक नहीं. क्योंकि परोक्षवान से अपरोक्षशान की उत्पत्ति नहीं दी जाती और नसरी बात यह है कि श्रवण, मनन आदि को धर्म आदि प्रत्यक्ष प्रमा का करण मानने पर उन में प्रत्यक्ष प्रमाणत्व की आपत्ति होगी । साथ ही यह भी शातव्य है कि सर्वश के ज्ञान में एकक्षण में ही समस्त पदार्थ का ग्रहण हो जाने से उत्तरकाल में किमी ज्ञातव्य अर्थ अघशेष न रहने से सर्वन सर्वथा अन्न हो जायगा । इस के अतिरिक्त यह भी दोष प्रसक्त हो सकता है कि यदि अन्य सन्तान में अन्य मनुष्य में विद्यमान राग आदि का साक्षात्कार यदि मर्वज्ञ को होगा तो मर्वश में गगादि की भी प्रसति होगी क्योंकि रागादि और उस के साक्षात्कार में सामानाधिकरण्य का नियम है । घुसरा दोष यह भी है कि अतीत, अनागत काल से सम्बद्ध वस्तु का विधमानतया शान मानने पर सर्वश में प्रान्तत्व की आपसि होगी और यदि उन वस्तुओं का वर्तमानत्यरूप से शान न होकर अतीतत्व आदि रूप से ही शान होगा तो सर्वज्ञ का होनेवाला उन वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्षात्मक न हो सकेगा, क्योंकि प्रत्यक्ष धर्तमानविषयक ही होता है और सर्यक्ष का उक्त वस्तुओं का ज्ञान वर्तमानविषयक नहीं है। इन सब दोषों के अतिरिक्त एक यह भी दोप है कि सर्यश को वस्तु के प्रागभात्र और ध्वंस दोनों का एक काल में भान न होने से वस्तु में एक काल में ही 'उत्पन्न और मृत' होने के व्यवहार की आपत्ति होगी। माथ ही साथ यह भी दोष है कि सर्वश के अस्तित्वकाल में भी असर्वज्ञ मनुष्यों को सर्वज्ञ का सर्वशत्वरूप में शान न हो सकेगा क्योंकि सर्वशत्य का ज्ञान सर्घशानाधीन है अतः सर्वज्ञ के वाक्य में असर्धन को विश्वास कैसे होगा? अत पप इस संकट के परिहार के लिये अनेक सर्वज्ञों की कल्पना करनी होगी। कहा भी है सर्वज्ञ के अस्तित्वकाल में भी जिन्नासुओं को यह पुरुष सर्घज्ञ है' यह शान कैसे हो सकेगा क्योंकि सर्वशता के ज्ञान में सर्वविषयक शान और उस के विषयों का ज्ञान अपेक्षित है, जो जिज्ञासुओं में नहीं है ॥ १ ॥ सर्वज्ञ का ज्ञान प्राप्त करने के लिये सर्वज्ञ के अस्तित्ववादी को अनेक सर्वक्षों की कल्पना करमी होगी फिर भी जो कोई व्यक्ति असर्वज्ञ होगा उसे सच का बोध न हो सकेगा ॥ २ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विधचन ] किञ्च, नित्यसमाधानसंभवे विकल्पाभावाद् कथं सर्वज्ञस्य वचनम् ? । वचने वा विकल्पसंभवात् समाधानविरोधाद् न समाहितत्वं स्यात् । समाधिर्हि चित्तवृत्तिनिरोधः, विकल्पश्च चित्तवृत्तिरिति । अपिच, रागाद्या वरणाभावे परेण सार्वश्यं वाच्यम् , रजोनीहाराद्यावराणापाये वृक्षादिवर्शनस्येव रागाद्यावरणरूपविज्ञानाऽवेशद्यहेत्वपाये सर्वज्ञज्ञानस्य विशदताऽभिमानात् । तथा च रागाधमावे कथं तस्य वचनादि, पतिसामान्य हटाया पद्धवान ! १ च रागादीनामावरणत्वमपि प्रसिद्धम् , कुञ्यादीनामेव झावारकत्वप्रसिद्धिः, इति कथं तदपगमे सर्वसाक्षात्कारादयः ? इति दिग ।। ४ ।। सर्वज्ञाभावे धर्माऽधर्मव्यवस्थामेव सम्धगुपपादयितुमाहधर्माधर्मव्यवस्था तु वेदाख्यादागमास्किल । अपौरुषेयोऽसौ यस्माद्धेतुदोषविवर्जितः ॥ ५ ।। जिस पुरुष को सर्व का शान न होगा, उस पुरुष के प्रति उस के वाक्य ठीक उसी प्रकार प्रमाण म हो सकेंगे जैसे मुलभूत प्रमाण का शान न होने से अन्य पुरुष के घाव प्रमाण नहीं होते ॥ ३ ॥ [समाधिमन्नावस्था में बचनप्रयोग अशक्य ] यह भी विचारणीय है कि यदि मर्वश सर्वदा समाधिमग्न होगा तो उसे विकल्प विषयान्तर का ज्ञान न होने से यह बाक्यप्रयोग न कर सकेगा और यदि घास्यप्रयोग करेगा तो उस के लिए विकल्प आवश्यक होने से समाधि का भंग हो जाने से वह समाधिमग्न न रह जायगा, क्योंकि समाधि चित्तवृशियोंका निशोधरूप है और विकल्प चित्तवृत्तिरूप है । दूसरी बात यह है कि राग आदि आवरणों का अभाव होने पर ही जैनों को सर्वशता मान्य है, एवं जैसे धूलि, कुहरा आदि आवरण का अभाव होने पर वृक्ष आदि का दर्शन होता है उसीप्रकार विज्ञान की अविशदता-अस्पष्टता के हेतुभूत गगादि आवरणों का अभाव होने पर सर्वस के शान में विशदता-स्पष्टता अभिमत है। किंतु इसप्रकार सर्वश में जब रागादि का अभाव होगा तो याक्यप्रयोग में उम की प्रवृत्ति कैसे होगी? क्योंकि प्रवृत्ति मात्र के प्रति इच्छा कारण होली है। यह भी ज्ञातव्य है कि राग आदि में आवरणत्न प्रसिद्ध नहीं है किन्तु भित्ति आदि में ही प्रसिद्ध है अतः रागादि की नियुभि होने पर समस्त वस्तुओं के साक्षात्कार की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? इस सम्बन्ध में अब तक जो कुछ कहा गया वह प्रस्तुत विषय में दिग्दर्शनमात्र हैलेवेतमात्र है || ४ ॥ [धर्म-अधर्म की व्यवस्था वेदमूलक ] सर्वत्र के अभाव में धर्म अधर्म की व्यवस्था का सम्यक उपपादन करने के लिये पांचधी कारिका प्रस्तुत की गई है। इस का अर्थ इसप्रकार है धर्म-अधर्म की व्यवस्था का अर्थ है 'याग आदि धर्म का साधन है' इस ज्ञान से होनेवाली यागादिविषयकप्रवृत्ति और ब्रह्महत्या आदि अधर्म का साधन है' इस शान से होनेवाली ब्रह्मइत्यादि कर्मों से निवृत्ति । इस व्यवस्था की उपपत्ति 'वेद' नाम से प्रसिद्ध आगम से Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शास्त्रवार्ता १०५ धर्माऽधर्मव्यवस्था तु='यागादि धर्मसाधनम् , अमहत्याद्यधर्मसाधनम्' इत्यादिज्ञानजन्यप्रवृत्तिनिवृत्यादिरूपा तु, वेदाख्यादागमात् . 'किल' इति सत्ये. 'घटत एव' इति शेषः । ननु वेदस्यापि सर्वज्ञप्रणीतस्यैवोक्त व्यवस्था निवन्धनत्वात् सर्वज्ञमूलवेयं व्यवस्थेत्यत आह-असौ वेदारख्य आगमः, यस्मात् पौरुषेयः नित्यः हेतुदोषविवर्जितः चक्षुर्गतभ्रम-प्रमादविपलिप्सा-फरणापाटवादिदोषविकल इत्यर्थः । नक्षा - लता मागत्माम् युक्ता वेदमूला धर्माऽधर्मादिव्यवस्था । अथाऽप्रमायामिव उपपन्न होती है । उसी से याग आदि की धर्मसाधनता का ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य यागादि के अनुष्ठान में प्रवृत्त होता है । एवं उमी से ब्रह्महत्या आदि में अधर्मसाधनता का ज्ञान प्राप्त कर ब्रह्महत्या आदि कर्मों से निवृत्त होता है । इस प्रकार घेद से ही धर्म-अधर्म की व्यवस्था की उपपत्ति हो जाने से उन के लिये सर्वन की कल्पना अनावश्यक है। [नित्य वेद में दोषों का असम्भव ] यदि यह कहा जाय कि-'वेद भी मर्धश पुरुष द्वारा रचित होने से ही धर्माधर्म की व्यवस्था का आधार बन सकता है, इसलिये वेदमूलक व्यवस्था भी सर्वशमूलक ही है'-ती उस का उत्तर यह है कि बंद किसी पुरुष द्वारा रचित नहीं है वह नित्य है अतः उस की वाक्यरचना अर्थशान पूर्वक नहीं है । इसलिये जैसे वक्ता को यदि भ्रम हो तो उस का वचन भ्रममूलक होने से भ्रम उत्पन्न कर सकता है । एवं धक्ता यदि प्रमादी हो तो यह प्रमादवश वस्तु का अन्यथा प्रतिपादन कर सकता है अतः उस के बचन से भी विपरीत शान का उदय हो सकता है, यदि वक्ता में विप्रलिप्सा-इसरों की वञ्चना करने की इच्छा हो तो वह भी वस्तु को गलत ढंग से प्रस्तुत कर सकता है. अतः उस के वचन से भी मिथ्याशान की संभा. यना हो सकती है। यदि वक्ता के करण-बागिन्द्रिय में अपटुता हो जिस से शब्दों का उच्चारण वह ठीक तरह से न कर मके तो उस के द्वारा उचारित शब्द से भी भ्रम की उत्पत्ति हो सकती है। किन्तु जिस वाक्य का कोई वक्ता नहीं है, जो अनादि है, उस में इन दोशै की संभावना न होने से तजन्य वोध में भ्रमत्य की संभावना नहीं हो सकती, क्योंकि नित्य होने से वेद स्वतःप्रमाण हैं उस के प्रामाण्य में वका के ज्ञान के प्रामाण्य की अपेक्षा नहीं है। अतः सर्वश के अभाव में भी वेद द्वारा धर्म अधर्म आदि की व्यवस्था हो सकती है। कारिका में चित हेतुदीषों का प्रतिपादन करते हुये भ्रम, प्रमाद, आदि को चक्षुगत कहा गया है । आपाततः यह कथन अग्गत प्रतीत होता है क्योंकि भ्रम आदि, विभिन्न मतों के अनुसार अन्तःकरणगत तथा आन्मगत होते है, चक्षुगत नहीं होते, किन्तु विचार करने से ग्रहां असंगति नहीं प्रतीत होती, क्योंकि व्याख्या में श्रमपद के पूर्व में प्रयुक्त चक्षुर्गत का सम्बन्ध भ्रम के साथ नहीं है किन्तु अग्रिम दोष शब्द के माथ है । इसलिये चक्षुर्मतभ्रम इत्यादि वाक्य का अर्थ है चक्षुर्गत दोष और भ्रम, प्रमाद आदि दोषो से रहित, चक्षुर्गत दोष उम याक्यों में होता है जो दोषयुक्त चक्षु से देग्वे गये अर्थ का प्रतिपादन करने के लिये प्रयुक्त होते हैं, चक्षु उपलक्षश है अतः अन्य इन्द्रियों के दोष से भी वाक्य में दोप आ सकता है। [अप्रमा की तरह प्रमा के भी अतिरिक्त हेतु की आपादक शंका का निवारण] सर्व निरपेक्षधेद से धर्म, अधर्भ की व्यवस्था के विरोध में यह कहा जा सकता है कि- “ जिस Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ २२ प्रमायामपि ज्ञानसामान्यहेत्वतिरिक्तहेत्वपेक्षणाद् नेतद् युक्तमिति चेत् ? न, अप्रमायां दोषाऽपेक्षणात्, प्रमायां तदभावापेक्षणेऽविरोधाद् । 'विशेषादर्शनाद्यभावभूतदोषाभावस्य भावभूतस्य प्रमायामधिकस्थापेक्षणीयत्वाद् विरोध एवेति चेत् न, तथापि शब्दे विप्रलिप्सादिदोषाणां भावभूतत्वात् समष्ट्या प्रमायां तदभावमात्राधीनायां वक्तृगुणानपेक्षणात् । अथाप्तोक्तत्वनिश्चयस्य शाब्दबोधसामान्ये हेतुत्वाद वेदे तदभावात् कथं ततः शाब्दबोधः ? इति चेत् ? न, अनाप्तोक्तत्वशङ्काया एव शाब्दसामान्यविरोधिन्या व्युदासार्थमान्तोक्तत्वनिश्वयापेक्षणान् वेदे तु नित्यतया निर्दोषत्वेनैव तच्छड़काव्युदासात् । 'नित्यत्वमेव कथं वर्णरूपस्य वेदस्य ?' इति चेत् ? सत्यम्, चर्णानां नित्यत्वात्, अन्यथा 1 प्रकार अमा-श्रम की उत्पत्ति में ज्ञानसामान्य के हेतु से अतिरिक्त हेतु की अपेक्षा होती है उसी प्रकार प्रमा की उत्पत्ति में भी शामसामान्य के हेतु से अतिरिक्त हेतु की अपेक्षा आवश्यक है । अन्यथा यदि प्रमा की उत्पत्ति शानसामान्य के हेतु से ही होगी तो अप्रमा की उत्पत्ति के समय ज्ञानसामान्य के हेतुओंका नियतसन्निधान होने से अप्रामा में भी प्रभात्य की आपत्ति होगी, क्योंकि व भी अतिरिक्त हेतु सहित ज्ञानसामान्य के हेतुओं से उत्पन्न होती है | अतः अप्रमा में प्रमात्व की आपति का परिहार करने के लिये प्रमा के ज्ञानसामान्य हेतुओं से अतिरिक्त भी हेतु मानना आवश्यक है। इस स्थिति में वेद को सर्व रचित माने विना वेद से प्रमात्मक ज्ञान का उदय नहीं हो सकता। क्योंकि वेदजन्य प्रमा शाब्दबोधात्मक प्रमा है। शाब्दबोधात्मक प्रम में वक्ता का वाक्यार्थ विषयक यथार्थज्ञान अपेक्षित होता है। " किन्तु यह कथन ठीक नहीं है; क्योंकि अप्रमा की उत्पत्ति में दोष की अपेक्षा होती है इसीलिये प्रमा की उत्पत्ति में दोषाभाष की अपेक्षा मान देंगे, फिर भी प्रभा को ज्ञानसामान्य के हेतु से अतिरिक्त किसी भावात्मक हेतु से जन्य न मानने से अप्रमा में प्रत्य की आपत्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार वक्तृदोषाभाव से ही वेदजन्य ज्ञान में प्रमात्य की उपपत्ति संभव होने सर्व वेदवक्ता होनेकी कल्पना अनावश्यक है। [ विशेष दर्शनाभाव से प्रमा में अतिरिक्त हेतु की सिद्धि ] यदि यह कहा जाय कि विशेषदर्शनाभावरूप अभावात्मक दोष का अभाव विशेष दर्शनात्मक यानी भावस्वरूप होता है और वह प्रमा की उत्पत्ति में अपेक्षित होता है क्योंकि दूर से दिखायी पडनेवाले ऊचे द्रव्य में स्थाणु के चक्र कोटर आदि अथवा पुरुष के कर-चरण आदि विशेष का दर्शन न होने से ही उस में स्थाशुत्व अथवा पुरुषस्य का सन्देह अथवा भ्रम उत्पन्न होना है, अत एव उस सन्देह और भ्रमका उत्पादक विशेषदर्शनाभावरूप दोष ही है किन्तु जब स्थाणु या पुरुष के विशेष धर्म का दर्शन हो जाता है तब विशेषदर्शनाभावरूप होप के विशेष दर्शनात्मक अभाव से स्थाणुत्व और पुरुषत्व की प्रमा उत्पन्न होती है। इसलिये यह कहना कि प्रमा में अभाषात्मक दोषाभाव की ही अपेक्षा होती है, ज्ञान सामान्य हेतुओं से भिन्न एवं अभावात्मक दोषाभाव से भिन्न प्रमा का कोई हेतु नहीं होता यह कथन विरुद्ध है - " तो यह ठीक नहीं है क्योंकि शब्द में विमलला आदि भावभूत ही दोष होते हैं अतपत्र उन दोषों के अभावमात्र से वेदजन्यप्रमा की उपपत्ति हो सकती है, अत: उस में वाक्यार्थविषयक यथार्थज्ञानरूप वक्तृ गुण की अपेक्षा न होने से वेद को सर्वश रचित मानने की आवश्यकता नहीं है । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] [शास्त्रत्रा० १०५ परार्थवाक्योच्चारणान्यथानुपपत्तेः। अवगतसंगतिको हि शब्दः स्वार्थ प्रतिपादयति, नान्यथा, अगृहीतसंकेतस्य पुसः शब्दादर्थप्रतीत्यदर्शनात् । संगत्यवगमश्च प्रमाणत्रयसंपायः; तटस्थेन प्रत्यक्षेण शब्दार्थप्रत्ययात्; अनुमानेन प्रयोज्यवृद्धीयगवादिविषयप्रतिपत्त्यवगमात् तत्प्रतीत्यन्यथानुपपत्त्या च गबादिशब्दानां गवादौ शक्तिकल्पनात् । इत्थंभूतश्चाय संगत्यवगमो न सकृद्राक्यप्रयोगात् संभवति, [वैदिक प्रमा के लिये आप्तोक्तत्व का निश्चय अनावश्यक ] ___ यदि यह कहा जाय कि - 'अनाप्त वाक्य से शाब्दी प्रमा की आपत्ति के परिहारार्थ शानदप्रमा में 'शब्द में आलोकसत्व निश्चय' को कारण मानना आवश्यक है। अतः वेदजन्य प्रमा की उपपत्ति के लिये घेद में भी आप्सोक्तत्व का निश्चय अपेक्षित है। अनान्त पुरुष को यह निश्चय तभी हो सकता है जब वेद को सर्वशकथित माना जाय, इसप्रकार वैदिक प्रमा के लिये सर्वज्ञ की कल्पना आवश्यक है। व्याख्यामें इस बातको यह कहते हुये प्रस्तुत किया है कि वाक्य में आप्तोक्तत्व का निश्चय शाब्दबोध सामान्य का कारण है। वेद आप्तोक्त नहीं है अतः उत्त में आप्तोनात हा निभय न होने दो बेदाणसषेयत्व पक्षमें वेद से शादषोध की उत्पत्ति न होगी। आशय यह है कि वाक्य में यदि आप्तोक्तत्व का संशय अथवा आप्तोपतत्वाभाष का निश्चय हो जाता है तब शाब्दबोध की उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु जब वाक्य में प्राप्तीक्तत्व का संशय अथवा आप्तोक्तत्वाभाय का निश्चय नहीं रहता तभी शाब्दबोध की उत्पत्ति होती है। इसपकार अन्वयध्यतिरेक द्वाग यह सिद्ध होता है कि शाब्दयोधसामान्य में आप्सोक्तत्व का निश्मय कारण है, अत: यह कहना न्यायप्राप्त है कि बंद को अबक्क मानने पर वेद में आपलाक्तत्व का निश्चय न होने से वेद से शाब्दबोध का उदय नहीं हो सकता - " फिन्तु यह आक्षेपात्मक कथन टीक नहीं है क्योंकि अनामोक्तत्पशङ्का ही शाब्दबोधसामान्य की प्रतिबन्धक होती है और यह शङ्का लौकिकवाक्य में ही संभव हो सकती है. अत एवं उस शङ्का के परिहार के लिये लौकिकवाक्य में ही आतीक्तत्वनिश्चय की अपेक्षा उचित है। वेद तो नित्य यं निषि है अतः उस में अनातोक्तत्व शङ्का का संभव न होने से वेदजन्य शाब्दबोध के लिये बेद में आप्तोक्तत्व निश्चय की अपेक्षा नहीं है। वेद में तो उक्त शङ्का का परिहार नित्यत्य और निदोषत्व से ही सुकर है। 1 [वर्णात्मक वेद में नित्यत्व का उपपादन] "वर्णरूप घेद नित्य कैसे हो सकता है। इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वर्ण यतः नित्य है अत: तत्स्वरूपवेद भी नित्य है क्योंकि यदि वर्ण को नित्य नहीं माना जायगा तो अन्य पुरुषों को अर्थबोध कराने के लिये वाक्य का उच्चारण न हो सकेगा | आशय यह है कि शब्द में जब अर्थ की संगति ज्ञात हो जाती है तभी शब्द अर्थ का बोधक होता है, अन्यथा नहीं होता क्योंकि जिस पुरुष को शब्द का संकेतग्रह नहीं रहता उस पुरुष को शब्द से अर्थयोध नहीं होता, अर्थ में शब्द का संगतिआत्मक सम्बन्ध तीन प्रमाणों से ज्ञात होता है। प्रत्यक्ष अनुमान और अन्यथासुपपत्ति । इन में प्रत्यक्ष, शब्द और अर्थ के सम्बन्ध में तटस्थ रहकर पल शब्द और अर्थका बोध उत्पन्न करता है। शब्द और अर्थरूप दोनों सम्बन्धियों का ज्ञान हो जाने पर उनके सम्बन्ध का मानस बोध हो जाता है। उक्त रीतिसे शब्दार्थसम्बन्ध परम्परया प्रत्यक्षगम्य होने से शम्दार्थसम्बन्धज्ञान को प्रत्यक्षमूलक कहा जाता है। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याः क, टीका-हिन्दी विधचन ] [२३ भूयः प्रयोगादेवाऽऽवापोद्वापाभ्यामेव शक्तिनिश्चयात् । न चास्थिरस्य पुनः पुनरुचारणं संभवतीति सिद्धं तनित्यत्वम् । तदुक्तम् - " दर्शनस्य परार्थत्वाद् नित्यः शब्दः " इति । अथ पुनः पुनरुच्चरिताच्छन्दात् सादृश्यादेव प्रतीतिः, न तु नित्यत्वादिति चेत् ? न सादृश्यस्याऽतन्त्रत्वात् , अगृहीतसंकेतादर्थाऽप्रतीते; 'य एवं संबन्धग्रहणसमये गृहीतः शब्दः स एवायम्' इति प्रत्यभिज्ञानाच्च । न च नित्यत्वे शब्दस्य सर्वदा सपिलब्धिप्रसङ्गः, परेषां शब्दोत्पादकानामेव विजातीयवायुसंयोगादीनामम्माभिः शब्दव्यञ्जकत्वेनोपगमात् । न च शब्दनित्यत्वे चैत्रादेः स्वीयमैत्रशुकादीयककारादिप्रत्यक्षे चैत्रादिकावन्छिन्ना विजातीयवायुसंयोगा हेतवो वाच्या इत्यतिगौरवम्, अनित्यत्वपक्षे तु विजातीयवायुसंयोगावच्छेदकतया तथैव विजातीयककारादौ हेतुस्तत्पुरुषीयनिखिलशब्दप्रत्यक्षे तत्पुरुषीयकवाँच्छन्नसमचाय इति लाघवमिति वाच्यम् ; नित्यत्वपक्षेऽपि विजातीयककारादिप्रत्यक्षेऽवच्छेदकतया विजातीयसंयोगस्य तत्तत्कविच्छिन्नप्रत्यक्षे च तचकर्णस्य हेतुत्वे गौरवाभावात् । स्यावच्छेदकश्रोत्रसंयुक्तमन प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसंबन्धन विजातीयपवनस्य हेतुत्ये तत्तकर्णानां प्रयोजक वृद्ध से प्रयुक्त 'गामानय' इस प्राक्यको सुनकर प्रयोज्य वृद्धकी गौआगयन में प्रवृत्ति होती है यह प्रवृत्ति प्रयोज्यवृद्ध के गौमानयन व्यापार से अनुमित होती है। प्रवृत्ति के शात हो जाने पर उसके कारण का अनुमान होता है। उसका कारण है प्रयोजक वृद्धके वाक्य से प्रयोज्यवृद्ध को होनेवाला गौ-आनयन में कर्तव्यता का शान। इस ज्ञान के अनुमित हो जाने पर प्रयोज्यवृद्ध के गामानय' इस वाक्य में गोआनयन में कर्तव्यता बोध की जनकता का अनुमान हो जाता है। इस के अनन्तर आनय पद के साथ द्वितीयान्त गोपद के सन्निधान असग्निधान रूप आयाए उहाष से गोआदिपद में गौआदि अर्थ के संकेत का आनुमानिक शान होता है। इसप्रकार प्रयोजकवृद्ध के वाक्य श्रवण के अनन्तर प्रयोज्य वृद्ध के गौआनयम व्यापार से अतिरिक्त सभी विषयों का अनुमान द्वारा बोध होकर शब्दार्थसम्बन्ध का आनुमानिक ज्ञान होने से शब्दार्थ के संगतिआत्मक सम्बन्धको अनुमानवेद्य कहा जाता है। सभी शब्दों से सब अाँका बोध नहीं होता है किन्तु नियत शब्दोंसे ही नियत अर्थों का बोध होता है, यह बोध शब्द के साथ अर्थ का सम्बन्ध माने विना अनुपपन्न है, क्योंकि शब्द को असम्बद्ध अर्थका बोधक मानने पर सब शब्दों से सब अथों के बोध की आपत्ति का परिहार नहीं हो सकता। इस प्रकार नियत शब्द से नियत अर्थबोधकी अन्यथानुपपति रहने से गौआदि अर्थ में गौआदि शब्दों के शक्ति सम्बन्ध कार शान होने से शब्दार्थ सम्बन्ध को अन्यथानुपपत्तिप्रमाणवेध माना जाता है । उक्त रीति से होने वाला शब्दार्थ के संगतिआत्मक सम्बन्ध का बोध वाक्य के एक बार प्रयोग से नहीं हो सकता किन्तु वाक्य के अधिकाधिक प्रयोग से ही हो सकता है। और वाक्य घटक तत्त शब्दों में नत्तदर्थक शक्तिसम्बन्ध का निश्चय तत्तदू शब्द के साथ तत्तदर्थबोध के आवापउद्याप अन्षयव्य तिरेक से ही हो सकता है। ऐसी स्थिति में वर्ण को नित्य मानना आवश्यक है क्योंकि वर्ण को अमित्य और अस्थिर मानने पर वर्णसमूहरूप पाक्य भी अनित्य और अस्थिर होगा अतः उसका पुन: पुन: उच्चारण नहीं हो सकता, फलतः वाक्य का अधिकाधिक प्रयोग न हो सकने से शब्दार्थ का सम्बन्धग्रह नहीं हो सकता। कहा भी गया है कि Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] [शास्त्रवार्ता १० पृथगहेतुत्वेन प्रत्युत लाघवात् । न च तथाप्यनित्यत्वपक्षे कप्रत्यक्षवाद्यपेक्षया कस्वादेरेव जन्यतावच्छेदकत्वे लाघवम् , नित्यत्वपक्षेऽपि लोकिकशि कितना का था । न च कोलाहलादौ कत्वादेरग्रहे ऽयीदवशब्दत्वादिना ककारादिप्रत्यक्षात् तत्तत्यकारक-ककारादिप्रत्यक्षे पृथग्घेतुस्त्रे गोरखम्, ककारादिनिष्ठगुण स्वादि-खकारभेदादिप्रत्यक्षे तथात्वे चातिगौरवमिति दर्शन मनुष्य का अर्थधोध' शब्द द्वारा परार्थ होता है इसलिये शब्द को निस्य मानना आवश्यक है क्योंकि शब्द को अनित्य मानने पर वाक्य का बार बार प्रयोग न हो सकने के कारण शब्दाथे के सम्बन्ध का शान न होने से शब्द द्वारा अपने अर्थबोध का पर पुरुषों में सम्प्रेषण नहीं हो सकता। [सदृश शब्द से बार बार उन्चारण की उपपत्ति अनुचित ] यदि यह कहा जाय कि - ' एक ही शहद का बार बार उञ्चारण नहीं होता किन्नु एक शरदका पक ही बार उच्चारण होता है। एक बार उच्चारित शब्द के सदृश अन्यान्य शब्दोंके उच्चारण को ही प्रथमोशरित शब्द का पुन: पुनः उच्चारण कहा जाता है। इसप्रकार के पुन: पुनः शब्दोच्चारण से ही शब्दार्थ का मम्बन्धग्रह हो सकता है. उस के लिये पक शब्द व्यक्ति के पुनः पुनः उशारण की आवश्यकता नहीं है। अत: उक्तयुक्ति से शब्द की नित्यता का साधन नहीं हो सकता-' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि शब्द से अर्थबोध में सारश्य अप्रयोजक है। जिस शन में जिम अर्थ का संकेतग्रह होगा उस शब्द से ही उस अर्थ का बोध हो सकता है किन्नु जिस शब्द में अर्थ का संकेत ग्रह नहीं है उस में गृहीनसंकेतक शब्दका सादृश्य होने पर भी उस से अर्थबोध नहीं हो सकता । जैसे किसी शाम्राज्ञ मनुष्य का, शास्त्रज्ञानशून्य मनुष्यान्तर में पर्याप्त सारश्य होने पर भी उस से शास्त्रज्ञमनुष्य के शास्त्राध्यापनरूप कार्य का सम्पादन नहीं होता। इसलिए एकाकार एक ही शब्द की सार्वत्रिकता और मादिकता आवश्यक होने से तदर्थ शब्द को नित्य मानना आवश्यक है। इस के अतिरिक्त. प्रत्यभिज्ञारूप प्रत्यक्ष प्रमाण से भी शब्द का नित्यत्व सिद्ध होता है। जैसे. यह सर्वविदित है कि किसी शब्द में किसी अर्थ के सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त करने के बाद मनुष्य जब उस शब्द को पुनः सुनता है तब उसे यह प्रत्यभिज्ञा होती है कि सम्बन्धज्ञान के समय जिस शब्द में अर्थ का सम्बन्ध ज्ञान हुआ था-यह बही शब्द है।' ___ यदि शब्द निन्य न हो तो लम्बन्धज्ञान के समय जो शब्द ज्ञात हुआ था वह अब तक नहीं रह सकता, अत: इस समय सुनाई देने वाले शब्द में उस शब्द के ऐक्य की प्रत्यभिज्ञा यथार्थ नहीं हो सकती किन्नु है यह यथार्थ, क्योंकि उतरकाल में इस का बाध नहीं होता, अतः इस प्रमात्मक प्रत्यभिशा के अनुरोध से शब्द के नित्यत्व की सिद्धि अनिवार्य है। [शब्द के नित्यत्वपक्ष में सर्वदा सर्वोपलब्धि प्रसंग का निराकरण ] यदि यह कहा जाय कि- 'शब्द' के नित्य होने पर सब शादों के सर्वदा श्रावण-प्रत्यक्ष की आपति होगी-' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि शब्द अनित्यत्ववादी के मत में विजातीय वायुसंयोग आदि जो शब्द के उत्पादक माने जाते है, - शब्द नित्यस्ववादी के मत में वे ही सब शब्द के व्यञ्जक होते है, अत: शब्दव्यञ्जकों का सर्वदा सन्निधान न होने से शब्द के सर्वदा प्रत्यक्ष की आपति नहीं हो सकती । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] शब्द अनिस्यतावादी यह कहता है कि शब्द नित्यत्वपक्ष में अपने तथा मैत्र, शुक आदि के, ककार आदि वर्गों के प्रत्यक्ष में क्षेत्र आदि के कर्ण में विजातीयवायुसंयोग को हेतु मानना होगा । अन्यथा यदि कार्यदल में चैत्र आदि का निवेश न करेंगे तो मैत्र आदि के कणं मे मैत्र-शुक आदि के ककार आदि के व्यनक विजातीयवायुसंयोग होने पर चैत्रादि से अन्य दूरस्थ मनुष्यों को भी उस्त. ककारादि के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। एवं कारणदल में चशविकर्ण का निवेश न करने पर पुरुषान्तर के कण में ककारादि के व्यनक विजातीय वायुसंयोग होने पर चैत्रादि को ककारादि के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी । अतः शदनित्यत्व पक्षमें शब्द और विजातीय वायुमंयोग आदि में व्यङ्गध-व्यनकभाव की कल्पना करने में अत्यन्त गौरव है। शब्द के अनित्यत्वपक्ष में इसप्रकार का गौरव नहीं है, क्योंकि उस मत में, अबच्छेदकता सम्बन्ध से विजातीय ककार मादि में विजातीय वायु संयोग, अपच्छेदकता सम्बन्ध से कारण होता है, एवं तत्पुरुषीय निखिल शब्द के प्रत्यक्ष में तत्पुरुषीय कछिनसमवाय हेतु होता है, इसलिये लाघव है। कहने का आशय यह है कि शभनित्यन्ववाद में क-गल आदि वर्ण सर्वत्र सर्वदा एक ही है, उस की अभिव्यक्ति क्षेत्र, मैत्र, शुक भादि किसी से भी होने पर उस में कोई विलक्षणता नहीं होती क्योंकि नित्य और एक होने से उस में बैजात्य संभव नहीं है। किन्तु विभिन्न व्यक्तियों से अभिव्यजित एक ही वर्ण का श्रोता को विलक्षण प्रत्यक्ष होता है। इस की उपपति के लिये पत्र के अपने कार के प्रत्यक्ष में चत्रकर्णाधम्रेधाविजातीयषायुसंयोग, मैत्रीयककार के प्रत्यक्ष में दूसरा विजातीय वायुसंयोग और शुक आदि के ककार के प्रत्यक्ष में अन्य विजातीय पायुसंयोग को कारण मानना होगा। इस प्रकार विभिन्न व्यक्तियों में अभिव्यभित पक ही कवर्ण के प्रत्यक्ष में विभिन्न विजातीयवायुसंयोगों को कारण मानना होगा पत्र पक श्रोता को जो ककारादि का प्रत्यक्षरूप कार्य होता है उस में विभिन्न उचारणकर्ताओं का सनिवेश करना होगा। जैसे, चित्रगत चैत्रीयककार प्रत्यक्ष, नगत मैत्रीयककार प्रत्यक्ष, चैत्रगत शुकादीयककारप्रत्यक्ष में विभिन्न विजातीय वायुसंयोगों को कारण मानना होगा। इस प्रकार कार्यदल में ककारादि में विभिन्न उच्चारण कर्ताओं के निवेश करने से प्रति श्रोता को होनेवाले कषण के प्रत्यक्ष को लेकर अनन्त गुरुतर कार्यकारणभाष की कल्पना होने से अपार गौरव है। किन्तु, शब्दाऽनित्यत्वपक्ष में विभिन्न उच्चारण कर्ताओं के ककारादि में सहज लक्षण्य होता है, अतः उन के मत में अवमछदकता सम्बन्ध से विजातीय ककारादि कार्य के प्रति अवच्छेदकता सम्बन्ध से विजातीय संयोग की कारणता होती है। इस कार्यकारणभाव के गर्भ में उच्चारणकर्ता का विशेषरूप में निवेश नहीं होता। अतएव इस कार्यकारणभाव में उत्पाघ विजातीय ककारादि और उत्पादक विजातीय वायुसंयोगादि के कार्यकारणभाव में, उत्पाद्य और उत्पादक के वेजात्यभेद स ही भेद होता है। उच्चारण कर्ता के भेद म भेद नहीं होता। श्रोता को जो ककारादि का विलक्षण प्रत्यक्ष होता है घड विषयभूत ककार आदि के बैजान्य से ही सम्पन्न हो जाता है। अत: उस के लिये विजातीय कारण की कल्पना की आवश्यकता नहीं होती, किन्तु सामान्यत: शब्दनिष्ठविषयता सम्बन्ध से तापुरुषीयप्रत्यक्ष के प्रति, सत्पुरूषीय कर्णायचंद्रघसमवाय को. प्रतियोगित्य सम्बन्ध से कारण मान लेने से काम चल जाता है क्योंकि जो भी शब्द तत्पुरुषीय कर्णावच्छेदेन उत्पन्न होगा उस में तत्पुरुषीय कर्णावच्छिन्न समवाय, प्रतियोगित्वसम्बन्ध से रहेगा और उस शब्द में उत्पादकाधीन जो वैज्ञात्य होगा उस जात्य रूप से उस शब्द का तत्पुरुष को प्रत्यक्ष हो जायगा। अत: शब्दाऽनित्यत्व पक्ष में उच्चारण कर्ता के भेद से और विजातीय वायुसंयोग मावि के भेद से Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (शाखवार्ता० १०/६ न तो शब्द और वायुसंयोग के कार्यकारणभाव में गौरव है और न तत्पुरुषीयशम्दप्रत्यक्ष एवं तत्पुरुषीय काविच्छिन्न समशय के कार्यकारणभाव में गौरव है। अतः इस पक्ष में शब्द नित्यत्वपक्ष की अपेक्षा लाघध स्पष्ट है। [शब्द नित्यस्वपक्ष में गौरव का परिहार] व्याख्या के अनुसार, उक्त गौरव-लाधव के विचन के आधार पर शब्दामित्यत्ववादी के | समर्थन उचित नहीं प्रतीत होता, क्योंकि नित्यत्वपक्ष में भी ककारादि के विजातीय प्रत्यक्ष में अवच्छेदकता सम्बन्ध से विजातीयसंयोग को और तसत्काछिन्म प्रत्यक्ष में तत्तत्कर्ण को कारण मान लेने से गौरव नहीं होगा। प्रथम कार्यकारणभाव में कार्यता और कारणता दोनों अवच्छेदकता सम्बन्ध से अभिमत है। दूसरे कार्यकारणभाष में कार्यता का अवच्छेदक सम्बन्ध है अवच्छेदकता, और कारणता का अपरछदक सबन्ध हे तादात्म्य । दुसरी बात यह है कि दूसरे कार्यकारणभाव को मानने की आवश्यकता नहीं है किन्तु एक यही कायकारणभाष मानना उचित है कि अवच्छेदकला सम्बन्ध से ककारादि के विजातीप प्रत्यक्ष में स्वावच्छेदक श्रोत्रसंयुक्त मन:प्रतियागिक विजातीय संयोगसम्बन्ध से विजातीय पवन का विजातीय पवनसंयोग कारण है। आशय यह है कि यजातीयपवन के यजातीय संयोग सम्बन्ध से चैत्र के कण्ट से ककार अभिव्यक्त होगा तजातीय पषन के तजातीयसंयोग की श्रोता के मनः संयुक्तकर्ण में उत्पत्ति होने पर श्रोता को चषकण्ठाभिव्यक्त ककार का प्रत्यक्ष होता है। व्याल्या में विजातीयपवनसंयोग को जिस सम्बन्ध से कारण कहा गया है, उस सम्बन्ध में स्व-पद से श्रोता के श्रोत्रपठेदन उत्पन्न होनेवाला विजातीयपवनसंयोग विधक्षित है। उस का अवच्छेदक है प्रोत्र, उस से संयुक्त है मन, उस मन का विजातीयसंयोग है आत्मा और मनका संयोग, वह श्रोतृभूत आत्मा में रहता है अतः उस सम्बन्ध से विजातीय पवन संयोग भी आत्मा में रहता है इसलिये विजातीयपवनसंयोग ककारादि के विजातीय प्रत्यक्ष में कारण है। इस कायकारणभावको स्वीकार करने पर तत्तत्कर्ण को तत्तत्कर्णावच्छिन्न प्रत्यक्ष के प्रति कारण म मानने से शयनित्यत्वपक्ष में गौरथाभात्र ही नहीं, किन्तु शम्दानित्यत्वपक्ष की अपेक्षा लाघव भी है। यदि यह कहा जाय कि 'शब्दशनित्यत्वपक्ष में कविषयकप्रत्यक्षत्व आदि की अपेक्षा कत्य आदि को थायुकण्ठादिअभिघात का कार्यतावच्छेदक मागने में लाघव है' तो यह ठीक नहीं है क्योकि शब्द नित्यत्वपक्ष में भी लौकिकवियितासम्बन्ध से कत्यादि ही उक्त अभिघात का जन्यतावच्छेदक है। ___ यदि यह कहा जाय कि-'कोलाहल आदि के समय कत्व आदि का ज्ञान न होने पर भी इदनव-शब्दत्व आदि रूप से ककारादि का प्रत्यक्ष होता है । अत: इयत्व-शब्दस्वादि रूप से ककारादि प्रत्यक्ष में पृथक कारण की कल्पना में गौरव होगा और ककार आदि का गुणत्व आदि एवं खकार भेद आदि रूप से भी प्रत्यक्ष होता है इसलिये तत्तत्रूप से ककारादि के प्रत्यक्ष में भी पृथक कारण की कल्पना आवश्यक होने से अत्यन्त गौरव होगा | शब्दानित्यत्वपक्ष में यह दोष नहीं है क्योंकि उक्त अभिघात से ककार आदि की उत्पत्ति कत्वादि रूप से ही होती है न कि उन सभी रूपों से, जिन रूपों से उस का प्रत्यक्ष होता है। अतः इस मत में कत्वादि को ही Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] षाच्यम् ; कोलाहले कत्वादिवारणाय दोषाभावानां कत्वादिप्रत्यक्षे हेतुत्वमपेक्ष्योक्तसंबन्धेन कत्वादेर्विजातीयनिमित्तपवनसंयोगजन्यतावच्छेदकत्वस्यैवौचित्यात् निमित्तपवना -ऽऽकाशादेः समवायेन शब्दत्वस्य जन्यतावच्छेदकत्वापेक्षया कण्ठाद्यभिघातस्य निमित्तपवन संयोगोपक्षीणत्वात् तस्यैवोक्तसंबन्धेन शवत्वस्य जन्यतावच्छेदकत्वौचित्यात् तावतेव कोलाहलमस्यक्षस्य सुष्टत्वात् । न चैवमुच्चार्यमा णयावद्वर्णविषयत्वाऽनियमे तत्कृत कोलाहलतारतम्यप्रत्ययानुपपत्तिः, व्यञ्जकतारतम्यस्यैव तत्रारोपात् । अस्तु वा स्वाश्रयविषयितया कत्वादिकं तथा, अनन्त शब्दोत्पत्ति - नाशादिकल्पनातो लघुत्वात् शुकादिककाराचैव वा विषयितया तथा तदीयश्रावणसम (वा) य-सदीय श्रावणविशेषणत्वयोस्तदीयसमवेत प्रत्यक्षसमवेतनिष्ठाभावप्रत्यक्षयोः कारणत्वाच्च न शब्दत्वादिप्रत्यक्षातिप्रस इति दिग् ॥ ५ ॥ 7 [ २७ उक्त अभिघात का जन्यतावच्छेदक मानने से इस पक्ष में गौरव नहीं है तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि कोहल में कत्वादि रूप से ककारादि के प्रत्यक्ष की आपत्ति के वारणार्थ कम्यादि प्रकारक प्रत्यक्ष में दोषाभावको कारण मानने की अपेक्षा उक्तसम्बन्ध-लौकिक विषयता सम्बन्ध से कत्वादि को ही परमतानुसार ककारादि के निमित्तभूत विजातीयसंयोग का जन्यताबच्छेदक मानना ही उचित है । एवं शब्दस्व को निमित एवन तथा आकाश आदि समवाय सम्बन्ध से जन्यतावच्छेदक मानने की अपेक्षा लौकिक विषयिता सम्बन्ध से शब्दत्व को विजातीय पवन संयोग का जन्यता बच्छेदक मानना उचित है। कण्ठादि का अभिघात निमित्तभूतपवन के विजातीय संयोग से अभिभूत हो जाता है इसलिये कोलाहल में कत्वादिमकारक प्रत्यक्ष नहीं होता क्योंकि कत्वादि प्रकारक प्रत्यक्ष में कण्ठावि अभियान प्रयोजक होता है, किन्तु शब्दस्वरूप से कोलाहल का प्रत्यक्ष उपपन्न हो सकता है क्योंकि वह प्रत्यक्ष केवल शब्दत्वनकारक होता है और लौकिक विषयिता सम्बन्ध से निमितभूत पवन के विजातीय संयोग का ही जन्यतावच्छेदक होता है । शब्दत्वप्रकारक प्रत्यक्ष में कण्डादिअभिघात प्रयोजक नहीं होता । इसप्रकार स्पष्ट है कि कोणद्दल प्रत्यक्ष स्थल में भी शब्दानित्यत्व पक्ष की अपेक्षा शब्द नित्यत्व पक्ष में लाघव है क्योंकि शब्दानित्यत्वपक्ष में कोलाहल स्थल में शब्दावच्छिन्न की उत्पत्ति और शब्दत्वप्रकारक कोलाहल प्रत्यक्ष की उत्पत्ति माननी होती है किन्तु शब्दनित्यत्यपक्ष में शब्दस्यावच्छिन्न की उत्पत्ति नहीं माननी पडती है। केवल शब्दत्वरूप से कोलाहल प्रत्यक्ष की ही उत्पत्ति माननी होती है । [ कोलाहल में तरतमताप्रतीति की अनुपपत्ति का परिहार ] यदि यह कहा जाय कि - "कोलाहल प्रत्यक्ष को यदि उच्चार्यमाण समस्तवर्णविश्यक न माना जायगा तो वर्णेप्रत्यक्ष द्वारा कोलाहल में तारतम्यप्रतीति की उपपत्ति न होगी । आशय यह है कि कोलाहल मात्र का एकरूप से ही प्रत्यक्ष नहीं होता किन्तु अमुक स्थान में कोलाहल हो रहा है, अब पहले से अधिक कोलाहल है और अब बहुत बडा कोलाहल है।' इस प्रकार लघु-ह-बृहत्तर रूप में कोलाहल का प्रत्यक्ष होता है। यह प्रत्यक्ष तभी उपपन्न हो सकता है जब कोलाहल के प्रत्यक्ष को उच्चार्यमाण समस्त वर्णविवयक माना जाय, दबु कोलाहल का प्रत्यक्ष जितने वर्णों को विषय करेगा बृहत प्रत्यक्ष उससे अधिक वर्णों को विषय करेगा और बृहत्तरप्रत्यक्ष उस से भी अधिक वर्णों को विषय करेगा। यह इसलिए होता है कि जब कम Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] [शाखा० १०५ लोग पक साथ बोलते हैं तब लघु कोलाहल होता है और जब पहले से अधिक लोग बोलने लगते हैं तब बृहत् कोलाहल होता है और जब उस से भी अधिक लोग बोलने लगते हैं तब वृहत्तर कोलाहल होता है। किन्तु विनित्यत्वपक्ष में वर्ण की उत्पत्ति न होने से पत्र केवल शब्दत्वरूप से ही कोलाहल का प्रत्यक्ष माने जाने के कारण उक्त तारतभ्यप्रतीति की उपपनि अशक्य है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कोलाहन में विजातीय पधनसंयोगरूप व्यञ्जकों में न्यूनाधिक्यरूप तारतम्य होता है उस तारतम्य का ही कोलाहल में आरोप मानने से विभिन्न रूप से कोलाहल प्रत्यक्ष की उपपति शम्दनित्यत्वपक्ष में भी हो सकती है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि शब्दनित्यत्वपक्ष में भी कोलाहल के समय ककार आदि वर्गों का प्रत्यक्ष होता है अत एत्र वर्णी के न्यूनाधिक्य के अनुसार कोलाहल में तारतम्य की प्रतीनि हो सकती है। यह बात स्वाप्रयनिरूपित लौकिकविषयिता सम्बन्ध से कत्वादि को विजातीय पवनमयोग का जन्यताबन्दक मानने से उपपन्न हो सकती है। अतः अनन्त शब्दों की उत्पसि एवं नाश आदि की कल्पना जो शब्दानित्यत्व पक्ष में होती है, शब्यनित्यत्वपक्ष में उस कल्पना न होने से लावध सुस्पष्ट है। [विषयिता सम्बन्ध से शुकादि का कादिवर्ण जन्यतावच्छेदक] अथवा यह भी कहा जा सकता है कि शुकादि का ककार आदि ही लौकिकवियिता सम्बन्ध से विजातीयपवनसंयोग का जन्यतावच्छेदक है, ऐसा मानने पर भी शब्दनित्यत्वपक्ष में कोई गौरव नहीं हो सकता क्योंकि शब्दनित्यस्थपक्ष में ककारादि वर्ण एक ही है। शुकादि के ककारादिप्रत्यक्ष में मनुष्य आदि के ककार आदि प्रत्यक्ष की अपेक्षा जो विलक्षणता है, और मनुष्यों में भी एक के ककारादि प्रत्यक्ष में अन्य के ककारादिप्रत्यक्ष की अपेक्षा (सभी प्रत्यक्षों में एक ही ककार व्यक्ति का भान होने पर भी) जो विलक्षणता प्रतीत होती है वह व्यञ्जकों की विलक्षणता से होती है। कोलाहल में ककारादि वर्गों का स्वरूपतः प्रत्यक्ष होता है उन में कत्व, शरदत्व आदि किसी धर्म का विशेषणकप में भान नहीं होता, कोलाहल के समय सुने जाते धर्गों में क्रत्व शम्वत्वादि का प्रत्यक्ष अथवा पक वर्ण में अन्य वर्ण के भेद का अथवा अन्य वर्ण के धर्माभाव का प्रत्यक्ष इसलिए नहीं होता कि उस समय उन प्रत्यक्षों का कारण विधमान नहीं होता। तत्पुरुष को होनेवाले शब्दात्मक समवेत के श्रावणप्रत्यक्ष में तत्पुरुष के श्रावणप्रत्यक्षविषय का समवाय कारण है। पर्व तत्पुरुष को होनेवाले शब्दनिष्ठ अभाव के श्रावण प्रत्यक्ष में तत्पुरुष के श्रायणप्रत्यक्षविषय की विशेषणता कारण है। (यह अर्थ प्रसङ्ग के अनुरोध से 'प्रत्यक्ष' शब्द को श्रावणप्रत्यक्षपरक और 'समवेतनिष्ठाभाव' पद में 'समवेत' शब्द को शब्दार्थक मानने पर लब्ध होता है। इस कार्यकारणभाष की कल्पना के फलस्वरूप ककार आदि का अषण न होने की दशा में ककार आदि में शब्दत्व के श्रावण प्रत्यक्ष की तथा खकारादिभेद के श्रावणप्रत्यक्ष की आपत्ति का परिहार हो जाता है, क्योंकि ककार आदि का श्रवण न होने पर शब्दत्व आदि में तत्पुरुषीय श्रावणप्रत्यक्ष के विश्य का समयाय न रहेगा एवं खकारादिभेद में उस की विशेषणता न रहेगी क्योंकि उक्त कारण की कुक्षि में श्रावणत्व और श्रायणप्रत्यक्षविषयत्व विशेषणरूप से प्रविष्ट है। शुक आदि द्वारा व्यक्त किये जानेवाले ककार आदि को विषयिता सम्बन्ध से विजातीयवायुसंयोग का जन्यतावच्छेदक मानने पर ककार मादि के प्रत्यक्ष में विजातीयसंयोगजन्यता Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन] उक्तमेवार्थ तदभियुक्तोक्त्यनुवादेन द्रढयति - आह चालोकवद्वदे सर्वसाधारणे सति । धर्माऽधर्मपरिज्ञाता किमर्थं कल्प्यते नरः ॥६॥ आह च कुमाग्लिादिः -आलोकवत्-चाक्षुषहेतुप्रकाशवत् , वेदे सर्वसाधारण मतिः नित्यनिर्दोषतया प्रतिसर्यप्रभातृ तुल्यप्रमाजनके सति धर्माऽधर्मपरिज्ञाता धर्माधर्मसाक्षात्कर्ता नरः =मनुष्यः, किमर्थं कल्प्यते ? –चोदनैव हि धर्माऽधर्माववगमयन्ती प्रवृत्तिनिवृत्त्यादिव्यवहार स्वर्गाऽपवर्गादिफलं च जनयति, इति किमजागलस्तनायमानेन सर्वज्ञेन ? । 'चोदनापामाण्यार्थ सर्वज्ञः करुयत' इति चेन ? न, उपजीव्यत्वेन महाजनपरिग्रहस्यैव तत्प्रामा प्यन्यवस्था पकन्वादिति भावः ॥६॥ का लाभ होता है जो शब्दनित्यता पक्ष में अभीष्ट है। कोलाहलस्थल में ककार आदि के व्यञ्जक विजातीयवायुमेयोग न होने से ककार आदि का श्रावणप्रत्यक्ष नहीं होता। अतः शब्दत्व आदि में श्रायणप्रत्यक्षविषय का समवाय न होने से, पवं खकारादि भेद में श्रावण प्रत्यक्षविषय की विशेषणता न होने से, उक्त कार्यकारणभाव का अभ्युपगम करने पर कोलाहलस्थल में शब्दत्व आदि पवं सकारादिभेद के प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो पाती। अतः शब्दनित्यत्ववादी की ओर से यह कहा जा सकता है कि कोलाहल के समय न शब्द का श्रावण होता है और न उसके परस्परभेद का श्रावण होता है और न उनकी जाति का ही श्रावण होता है किन्तु कान में वर्ण को अभिव्यक्त करने में असमर्थ ध्वनियों को केवल सनसनाहट होती है। कण के अवयवों में उनका आघात मात्र होता है। उस समय मनुष्य को जो यह अनुभव होता है कि कोलाहल सुन पड रहा है यह कोलाहल स्वरूप अव्यक्त शइसमष्टि में श्रावणत्व का भ्रम है क्योंकि घस्वतः उस समय बों का भ्रषण नहीं होता। [ वेदप्रामाण्य के लिये सर्वज्ञकर्ता अनावश्यक ] प्रस्तुत छठी कारिका में बेदाऽपौरुषेयत्ववादी विद्वत्समाज के मान्यपुरुष की उक्ति का अनुवाद कर वेदापौरुषेयस्यपक्ष को हर किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है कुमारिल आदिने कहा है कि जैसे हानुषप्रत्यक्ष के हेतुभूत प्रकाश सर्वसुलभ होने से चाक्षुप प्रत्यक्ष के लिये आरोक से अतिरिक्त तत्सदृश अन्य हेतु की अपेक्षा नहीं होती उसी. प्रकार नित्य निर्दोष होने से सभी प्रमाताओं में समानरूप से प्रमा उत्पन्न करने वाले घेद के रहते धर्म-अधर्म के साक्षात्कर्ता किसी पुरुष की आवश्यकता नहीं है। अतः उसकी कल्पना क्यों की जाय ? आशय यह है कि चोदना थानी वैद के विधिभाग से ही धर्म-अधर्म का शान, धर्मानुष्ठान में प्रवृत्ति और अधर्मानुष्ठान से निवृत्ति आदि व्यवहार पर्व स्वर्ग-मोक्ष आदि फल की उपपत्ति हो सकती है अतः बकरी के गले में झुलनेवाले स्तन के समान निरर्थक सर्वेश की कल्पना क्यों की जाय? यदि यह कहा जाय कि-चोदना वेद के बिधिभाग के प्रामाण्य के लिये सर्वन की कल्पना आवश्यक है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि महाजनों पयं बहुसंख्यक विवेकी पुरुषों द्वारा वेदों का परिग्रह सर्वज्ञकल्पना का उपजीष्य है अतः उसी से वेद के प्रामाण्य का निर्णय संभव होने से तदर्थ सर्वश की कल्पना मिरर्थक है । आशय यह है कि-वेद को सर्वशप्रणीत मानने Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] [ शात्रवार्ता० १०/७ यथा वेदाद् धर्माधर्मपरिज्ञानं सिध्यति तथाह इटा पूर्णादिभेदोऽस्मात् सर्वलोकप्रतिष्ठितः । व्यवहारप्रसिद्धैव यथैव दिवसादयः ॥ ७॥ इष्टा-पूर्णादिभेदः अस्मात्-वेदात् सर्वलोकप्रतिष्ठितः = सर्वजनसिद्धः । ननु सर्गादाविष्टा - पूर्वादिभेदधर्मस्य कथं सिद्धि:, सर्वज्ञाभाव आदिसंप्रदायाऽप्रवृत्तेः ? इत्यत आह-व्यवहारप्रसिद्धचैव यवद्दारस्यानुष्ठानस्य प्रकृष्टाऽनादिपरम्परा प्रयोज्या या सिद्धिस्तयैव तथा च सर्ग-प्रलयाभावात् प्रवाह चिच्छेदाभावाद नाथसंप्रदायाऽप्रवृत्तिरिति भावः । कथं व्यवहारोऽनादिः इत्यत्र निदर्शनमाह-यथैव दिवसादयः यथा दिवसादयो दिवसादिपूर्वका एव दृश्यन्ते तथा व्यवहा रोऽपि व्यवहारपूर्वक इति भावः ॥७॥ का आधार महाजनों द्वारा वेदों का परिग्रह ही है क्योंकि यदि वेद महाजनों से परिगृहीत न होता तो वेद को सर्वशप्रणीत मानने की आवश्यकता न होती । अतः उचित यही है कि महाजन परिक्ष के आधार पर ही देश का समाय्य स्वीकार किया जाय न कि महाजन परिषद के आधार पर कल्पित सर्वेश की रचना होने के नाते उस का प्रामाण्य स्वीकार किया जाय || ६ || [ सृष्टि का प्रारम्भ और अन्त असंगत है ] off काfरका में वेद से धर्म-अधर्म के ज्ञान की सिद्धि का प्रकार बताया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है--- स्पर्त आदि धर्मभेद वेद से होता है यह सर्वविदित है । सर्वश न मानने पर आध सम्प्रदाय का प्रवर्तन अशक्य होने से सर्गसृष्टि के प्रारम्भ में इष्टापूर्त आदि विभिन्न धर्म की सिद्धि कैसे हो सकती है - इस प्रश्न का समाधान कारिका के उत्तरार्द्ध में यह कह कर किया गया है कि इटा आदि धर्मभेद का अनुष्ठानरूप व्यवहार अनादिमान्य परम्परा से सिद्ध है । इस परम्परा से ही उत्तरोत्तर लोगों की स्वर्गादि फल के उद्देश से वेदोक्त धर्मों के अनुष्धान में प्रवृत्ति होती है । संसार की सृष्टि पयं प्रलय नहीं होता, इस का प्रवाह अधि for है। ऐसा कोई समय संभव नहीं है जब वेदों के अध्ययन अध्यापन और वैदिक धर्मों के अनुष्ठान की परम्परा विश्व में कहीं न होती हो । संसार के सम्बन्ध में इस प्रामाणिक मान्यता की स्थिति में सम्प्रदाय के प्रारम्भ का प्रश्न ही नहीं उठता, अतः अथ सम्प्रदाय की प्रवृत्ति को अशक्य बता कर वैदिक धर्मों के अनुष्ठान परम्परा की अनुपपत्ति का प्रश्न नहीं उठाया जा सकता । वेदमूलक धर्मानुष्ठानरूप व्यवहार की अनादिता बताने के लिये दिवस आदिके अनुष्ठान का दृष्टान्त दिया गया है । इस दृष्टान्त से यह अनायास ही अवगत किया जा सकता है कि जैसे दिन दिनपूर्वक ही होता है, एवं रात्रि रात्रिपूर्वक ही होती है, कोई दिन या कोई रात्रि सर्वप्रथम नहीं होती उसीप्रकार वैदिक व्यवहार भी व्यवहार पूर्वक ही होता है, कोई व्यवहार सर्वप्रथम नहीं होता । अतः सर्वश का अभाव होने पर भी वैदिक व्यवहार की अनादि परम्परा के वेद द्वारा गृहीत इष्टापूर्त आदि धर्मों के अनुष्ठान की उपपत्ति में कोई बाधा नहीं है ||७|| Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विधेचन] ऋत्विग्भिमन्त्रसंस्कार ह्मणानां समक्षतः । अन्तर्वद्या तु बहत्तमिधं तदभिधीयते ॥८॥ बापी-कूप-तडागानि देवतायतनानि च । अन्नप्रदानमित्येतत्पूर्तमित्यभिधीयते ॥५॥ अतोऽपि शुक्लं यत् वृत्तं निरीहस्य महात्मनः । ध्यानादि मोक्षफलदं श्रेयस्तदभिधीयते ॥१०॥ सादिस्वरूपनाइ-लिभिः- प्रलमानशहा में; मन्त्रसंस्कारैः पूतं सद् यद् ब्राह्मणानां समक्षतः प्रकृतप्रतिग्रहीत्रतिरिक्तब्राह्मणानां प्रत्यक्षम्, अन्तर्वेद्यां वेदीमध्य एव दत्त हिरण्यादि, सदिष्टमभिधीयते ।। ८॥ तथा वापी-कूप-तडागानि च पुनः देवताऽऽयतनानि लोकसिद्धानि, तथा अन्नप्रदान भोजनदानम् , इत्येतत् सबै 'पूर्तम्' इत्यभिधीयते, मोगफलत्वात् ॥ ९॥ तथा—अतोऽपि इष्टा-पूर्तात् , शुक्लं-शुद्धमित्यर्थः, यद् वृत्तम् आचरितम् निरीहस्यनिःस्पृहस्य, महात्मनः योगिनः, किं तत् ? इत्याह ध्यानादि । किभूतम् ? इत्याह-मोक्षफलदम्अपवर्गरूपफलप्रदम्, तत् श्रेयोऽभिधीयते, श्रेयोहेतुत्वात् । एवमिष्टम् , पूर्तम् , श्रेयश्चेति त्रिधा कर्मव्यवस्था वेदादेवेत्युपपादितम् ॥१०॥ [इष्टा-पूर्तादि कर्मों का स्वरूप ] आठवीं कारिका में इट का परिचय दिया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है यममान और याशिक यज्ञ के अनुष्ठापक, मन्त्रमूलक संस्कारों से परिपूत जिस वस्तु का प्रतिमाहीता से अतिरिक्त ब्राह्मणों के समक्ष वेदी के मध्य में दान करते हैं ऐसी सुवर्ण आदि वस्तु को इष्ट कहा जाता है। वस्तुतः सन्दर्भागत इष्ट शब्द यज् धातु से भाव में क्त प्रत्यय से बना है, भाव प्रत्यय का प्रकृत्यर्थ से अतिरिक कोई अर्थ नहीं होता अतः यन् धातु का अर्थ ही इष्ट शब्द से बोध्य है और यज् धातु का अर्थ है देवपूजन, यजन, संगतिकरण और दान । यज् धातु से बोधित ये कर्म जब यजमान और याक्षिकों द्वारा वैदिक मन्त्रों के माध्यम से सुघणं आदि संस्कृत व्यों से सम्पादित होते हैं तो ये ही कर्म 'पष्ट' कहे जाते हैं। अत: इष्ट शब्द का इस सन्दर्भ में अभिप्रेत अर्थ है-वेदसाध्ययम || नवीं कारिका में 'पूर्त' का परिचय दिया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है बाव, कूप और तालाब एवं देवमन्दिर आदि सर्वजन उपयोगी पदार्थ पवं सत्पात्रों को शास्त्रोक्त रीति से अन्नदान, इन सब को पूरी कहा जाता है। इन का विधिविधाम धर्मशास्त्र और पुराणों से विदित होता है। इसीलिये वापी आदि का निर्माण एवं अन्नदान को पूर्त कहा जाता है। इन्हें पुर्त इमीलिए कहा जाता है कि इन से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है ॥९॥ दशवीं कारिका में इष्ट और प्रत्तं दोनों से श्रेष्ठ धर्म का प्रतिपादन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है निःस्पृह महात्मा द्वारा की जानेवाली ध्यान आदि क्रिया इष्टं और पूर्व से भी श्रेष्ठ है। यह क्रिया मोक्षरूप सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ की साधक होती है। परमपुरुषार्थरूप श्रेय की साधक होने Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] व्यवस्थान्तरमपि तत एवोपपादयन्नाह - वर्णाश्रमव्यवस्थापि तत्प्रभवैव हि । अतीन्द्रियार्थद्रष्ट्रा तन्नास्ति किञ्चित्प्रयोजनम् ॥११॥ अत्रापि ब्रुव केचिदित्थं सर्वज्ञवादिनः । प्रमाणपञ्चकावृत्तिः कथं तत्रोपपद्यते ? ||१२|| एवं वर्णानां ब्राह्मण -- - क्षत्रिय वैश्य - शूद्राणां आश्रमाणां च गृहि ब्रह्मचारि - वानप्रस्थ-संन्यासिलक्षणानां व्यवस्थापि सर्वा = लोकविदिता, हि = निश्चितम् तत्प्रभचैव वेदमूलैब, वेदादि नोपवीतादिना विशेष बन्ध्याचल व वाहण्यादिनिर्णयात् ब्राह्मण्यादिनां कर्मविशेषेऽविकारनिर्णयाचेति भावः । ततः किम्? इत्याह- अतीन्द्रियार्थद्रष्ट्रा = अतीन्द्रियार्थदर्शिना पुंसा, नास्ति प्रयोजनं किञ्चित्, तत्साध्यस्य परलोकादिसाधनस्य वेदादेव सिद्धेः । मुक्तिश्च न सार्वश्यगर्भा, दुःखनिवृत्तिरूपाया नित्यनिरतिशय सुखाभिव्यक्तिरूपायास्तस्यास्तद्गर्भत्वादिति निगर्वः ॥११॥ इत्थमापति जैमिनिशिध्ये नास्तिकत्वमिह यत्खलु गूढम् । दर्शयन्ति तदने कसमक्षं वेदनेपुणपटापगमेन ॥ १ ॥ [ शात्रवार्ता० १०/११-१२ 1 से इस क्रिया को श्रेय कहा जाता है। इस प्रकार इष्ट, पूर्व और श्रेय इस त्रिविध कर्म की वेद से ही होती है। उस के लिये किसी सर्वज्ञ का अस्तित्व मानना अनावश्यक है ||१०|| [ वेद से ही वर्णाश्रमादि की व्यवस्था ] ग्यारह कारिका में यह बताया गया है कि धार्मिक और सामाजिक अन्य व्यवस्थायें भी वेद से ही उपपत्र होती हैं। कारिका का अर्थ इस प्रकार है ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र वर्णों की और ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इन आश्रमों की लोक-प्रसिद्ध सारी व्यवस्था निश्चितरूप से वेदमूलक ही है, जैसे वेद आदि का अध्ययन-अध्यापन उपवीत सूत्र, शिखा आदि निह्न, सन्ध्या तथा 'यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह' रूप षट् कर्म आदि के आचरण से ब्राह्मणत्व का निर्णय होता है । एवं क्षत्रिय आदि के शास्त्रोक्त चित्र आदि से क्षत्रिय आदि का निश्रय होता है, तथा कर्म विशेष में ब्राह्मण आदि के अधिकार आदि का निर्णय होता है । इसलिये अतीन्द्रिय अर्थों के किसी सश की कल्पना का प्रयोजन नहीं है। क्योंकि सर्वश द्वारा परलोक आदि के जिन साधनों की सिद्धि अपेक्षित है उन की सिद्धि अपौरुषेय वेद से ही हो जाती हैं। मुक्ति भी सर्वज्ञता से घटित नहीं हैं किन्तु दुःखनिवृत्तिरूप अथवा नित्य निरतिशय सुख की अभिव्यक्ति स्वरूप है उस में सर्वज्ञता का अन्तर्भाव नहीं है ||११|| व्याख्याकारने बारदर्षी कारिका के अभिप्राय को अपने एक पथ के द्वारा संकेतित । जिस का आशय यह है कि किया " उक्त रीति से जैमिनी के शिष्यों में प्रच्छन्न रूपसे नास्तिकता प्रसत होती हैं । सर्वसत्तावादी विद्वान उस नास्तिकता को अनेक लोगों के समक्ष उन की वेदनिपुणता के पट का अपसारण कर के प्रदर्शित करते हैं । " Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. दीका-हिन्दी विवेचन ) अत्रापि-मीमांसकानां सर्वज्ञाभावचादेऽपि समुपस्थिते ब्रुवते केचित् सर्वज्ञवादिनो जैनाः इत्यम् एव, यदुत-प्रमाणपञ्चकाऽवृत्ति प्रमाणपश्चकाविषयत्वम् कथं तत्र सर्वज्ञे अभावप्रमाणोस्थापकम् उपपद्यते ! नैथोपपद्यत इति भावः ।।१२।। सर्वार्थविषयं तच्चत्प्रत्यक्षं तनिषेधकृन् । अभावः कथमेतस्य, न चेदत्राप्यदः समम् १ ॥१३॥ तथाहि-यत् तावदुक्तम् प्रत्यक्षेण....(श्लो. २) इत्यादि, तन्=प्रक्रान्तम् तन्निषेधकृत= सर्वज्ञनिषेधकारि प्रत्यक्ष, चेत् यदि सर्वार्थविषय=विश्वगोचरम्, तदा एतस्य सर्वज्ञस्य अभावः कथम् ! विश्वगोचरज्ञानाश्रयस्यैव सर्वज्ञत्वात् । न चेत् तत् प्रत्यक्ष सर्वार्थविषयम्, अत्रापि बारहवीं कारिका का अर्थ इस प्रकार है मीमांसकों द्वारा सर्वज्ञाभाववाद प्रस्तुत होने पर, सर्वश्रवादी जनों का यह कहना है कि सर्च को प्रमाणपञ्चक का अविषय बताकर उस के निषेध को सिद्ध करने के लिये अभावप्रमाण का उत्थापन कैसे संभव हो सकता है। विचार करने पर यह कथमपि संभव प्रतीत नहीं होता परशा [प्रत्यक्ष के अभाव से सर्वज्ञाभावकी सिद्धि अशक्य ] १३वीं कारिका में इस बात का प्रतिपादन किया गया है कि प्रत्यक्ष सर्वश-मिद्धि में पाधक नहीं हो सकता है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है__सर्वश का निषेध करनेवाला प्रत्यक्ष यदि मर्याविषयक होगा मो सर्वज्ञ का अभाव नहीं सिद्ध हो सकता क्योंकि सर्वविषयक प्रत्यक्ष ही मशता है और उसे मान लेने पर उस के आश्रयभूत सर्वज्ञ की सिद्धि अपरिहार्य है। और यदि प्रत्यक्ष सर्वार्थविषयक न होगा तो इस पक्ष में भी सर्वज्ञ का अभात्र निन्द्र नहीं हो सकता क्योंकि प्रत्यक्ष में सर्यग्राहित्य का नियम न होने पर, प्रत्यक्ष का विषय न होने पर भी मर्य का अभ्युपगम सम्भव हो सकता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष के सर्वार्थविषयकस्य और सर्वार्थविषयकत्याभात्र दोनों पक्षों में सशाभाग के साधन की अशक्यता तुल्य है। ___ यचपि पूर्वकारिका में सर्वशाभाव को सिद्ध करने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण का उपन्यास नहीं किया गया है अत: इस कारिका में, प्रत्यक्ष प्रमाण में सर्वज्ञ के अभाव की साधकता का निराकरण आपाततः उचित नहीं प्रतीत होता, किन्तु घास्तव में यह अनुचित नहीं है क्योंकि प्रत्यक्षाभाय से सर्वज्ञाभाय का साधन करने से ही यह प्रश्न उपस्थित होता हैं कि क्या प्रत्यक्ष सर्व विषयक होता है अर्थात् जो कुछ है उस सच का प्रत्यक्ष होता ही है ? यदि पंसा हो तभी यह निष्कर्षे निकल सकता है कि जिस का प्रत्यक्ष नहीं है वह असत् है। किन्तु यदि सा माना जायगा कि प्रत्यक्ष सर्व विषयक होता है तब तो उस प्रत्यन का जो अप्रिय होगा वही सर्वश हो जायगा, अत: सर्वज्ञाभाव की सिद्धि नहीं हो सकेगी। और यदि मर्यविषयक प्रत्यक्ष का अस्तित्व स्वीकार न किया जायगा तो इस का अर्थ होगा कि अप्रत्यक्ष यस्तु की भी सत्ता होती है अतः अप्रत्यक्ष संबंध का निराकरण प्रत्यक्षाभाष द्वाग न हो सकेगा, क्योंकि विद्यमान अर्थ का भी अतिवरत्छ आदि दोष से प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहण नहीं होता। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शास्त्रवार्ताः स्त. १०/१३ एतत्पशेऽपि अदः अभावः कथमेतस्य इति समम् , प्रत्यक्षेण सतोऽप्यर्थस्यातिदूरस्वादिनाऽग्रहणात् तदभावासिद्धेः अन्यथा धर्मादरप्यभावप्रसङ्गात् । अनिष्टं चैतद् भीमांसकस्यास्तिकताभिमानिनः । चाकिस्तु वराकोऽतीन्द्रियमात्रीच्छेदमिच्छन्ननुपलब्धिमात्रादर्थाभावं साधयन् स्वगृहाद् निर्गतः स्वगृहे पुत्रादीनामप्यभावमबगरछेत् । — अधिकरणासंनिकर्षाद् न तदवगम' इति चेत् । नीतीन्द्रियाश्रयस्याप्यसनिकर्षे तदभावाऽसिद्धेहतं चार्वाकमतम् , अधिकरणज्ञानमात्रादतीन्द्रियाभावसिद्धौ च प्रकृतेऽप्यधिकरणस्मृतिसत्त्वात् तदापत्तिः । तदुपलम्भकस्वभावेनानुपलब्धेस्तदभावसाधकरवं त्वसंभवदुक्तिकम् , स्वभावविरोधादिति न किञ्चिदेतत् । तदेवं प्रत्यक्षं न बाधकमित्युक्तम् ।।१३।। यवि प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहण न होने से ही प्रमाणान्तर सिद्ध वस्तु का प्रभाष माना जायगा तो धर्म-अधर्भ आदि का भी अभाव हो जायगा और यह बात आस्तिकाभिमानी मीमांसकों की इष्ट नहीं है। [चार्वाकमत का निराकरण] अतीन्द्रिय वस्तु मात्र का उच्छेद करने के उद्देश से, अनुपलब्धि प्रत्यक्षाभाव मात्र से अर्थाभाव को सिद्ध करनेवाले विचारे चार्वाक को क्या कहा जाय, मत्र कि अपने घर से बाहर निकलने के बाद अपने पुत्रादि का प्रत्यक्ष न होने से अपने घर में अपने पुशदि का अभाव सिद्ध हो जाने की आपत्ति से वह पीडित है। __यदि यह कहा जाय कि-'घर से बाहर रहने के समय गृहरूप अधिकरण के साथ इन्द्रिय. सन्निकर्ष न होने से गृह में पुत्रादि के अभावसिद्धि की आपत्ति नहीं हो सकती, अत: तत्मयुक्तपीडा का उसे कोई भय नहीं हैं' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर अतीन्द्रियपदार्थ के आश्रय का सन्निकर्ष न होने से अतिन्द्रिय पदार्थ के अभाव की सिद्धि न होने के कारण चार्वाक का मत ही व्याहत हो जाता हैं । यदि अधिकरण के ज्ञान मात्र मे अतीन्द्रिय के अभाव की सिद्धि की जायगी तो अपने गृह से दूरस्थचार्वाक को गृहरूप अधिकरण की स्मृतिरूप शान से गृह में अपने पुत्रादि के अभाव की सिद्धि का प्रसङ्ग अपरिहार्य होगा। यदि यह कहा जाय कि-' तदुपलम्भकस्वभाव से अर्थात् जिस स्वभाव से जो वस्तु उपलम्भ योग्य होती है उस स्वभाव से उस वस्तु की अनुपलब्धि उत्त वस्तु के अभाष की साधक होती है, अतः उक्त आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि पुत्रादि का स्वभाव है इन्द्रियसनिकृष्ट होने पर उपलब्ध होना. अतः इन्द्रियसनिकृष्ट होने पर भी यदि पुत्रादि की उपलब्धि न हो तभी पुत्रादि के अभाव की सिद्रि हो सकती है, किन्तु चार्वाक के गृह से दूर रहने के समय इन्द्रियसनिकृष्ट होते हुये भी पुत्रादि की अनुपलब्धि नहीं है'-किन्तु यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि जिस स्वभाव से जो उपलब्धियोग्य होती है उसी स्वभाव से उस वस्तु की अनुपलब्धि द्वारा उस के अभाव की सिद्धि मानना असंभव है. क्योंकि उपलम्भकस्वभाव और अनुपलम्भकस्वभाव दोनों में विरोध है। अतः जिस स्वभाव से जो उपलब्धियोग्य है उस स्वभाव से उसकी अनुपलब्धि हो ही नहीं सकती। जैसे Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन अनुमानं तु तत्साधकमेवेत्याहधर्मादयोऽपि चाध्यक्षा ज्ञेयभावाद् घटादिवत् । कस्यचित् सर्व एवेति नानुमानं न विद्यते ||१४|| धर्मादयोऽपि च-ये परस्य चोदनागन्याः स्वतन्त्रसिद्धा वाऽजीवकार्यविशेषास्ते धर्मिणः, 'अध्यक्षा' इति साभ्यो धर्मः, ज्ञेयभावादिति हेतुः ज्ञेयत्वादित्यर्थः, घटादिवदिति दृष्टान्तः | साध्यहेतुविकल्पकृतदोषस्तु प्रसिद्धानुमानेऽपि तुल्यः । तथाहि-यदि पर्वतीयो वहिः साध्यते तदा साध्यविकलो दृष्टान्तः, अथ महानसीयस्तदा बाधः । एवं धूमे ऽपि यदि पर्वतीयो हेतुस्तदाऽनन्वयः, यदि च महानसीयस्तदाऽसिद्धता । सामान्योपग्रहोऽप्यतिविलक्षणव्यक्त्योरसंमवीति । यदि च बहनुमाने घटादि का स्वभाव है इन्द्रियसभिकृष्ट अधिकरण में इन्द्रियनिकृष्ट होने पर उपलब्ध होना, किन्तु इस स्वभाव से उस का अनुपदम्भ नहीं हो सकता, क्योंकि जब वह इन्द्रिय. सनिकृष्ट होगा तो उस समय उस का उपलम्भ ही होगा, अनुपलम्भ नहीं होगा। इस प्रकार इस कारिका में उक्त रीति से प्रत्यक्ष में सर्वज्ञसिद्धि में वाधकता की मसंभाव्यता बताई गई ||१३|| [ सर्वज्ञ का साधक अनुमानप्रयोग] १८वीं कारिका में यह बताया गया है कि अनुमान प्रमाण मर्यशसिद्धि में बाधक नहीं है किन्तु साधक ही है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है___अनुमान से भी सर्वज्ञ की सिद्धि होती है। अनुमानप्रयोग इस प्रकार हो सकता है कि मीमांसकमत में वेद के विधिवाक्य से ज्ञात होने वाले अथधा स्वतन्त्र-अन्यमतानुसार वेद के बिना ही सिम होनेवाले अजीयकार्य विशेषरूप धर्म आदि पदार्थ प्रत्यश्नग्रास है क्योंकि संय है-ज्ञानविषय है. जो झय होता है वह प्रत्यक्षबाध होता है-जसे घट आदि। यदि इस अनुमान के विरोध में साध्य और हेतु का विकल्प प्रस्तुत कर इस प्रकार के दोष प्रदर्शित किये जाय कि-" उक्त अनुमान द्वारा धर्म आदि में जिस प्रत्यक्षणाचत्व की सिद्धि करनी हैं बह ६म लोगों के प्रत्यक्षग्राह्यत्वरूप है अथवा 'हमलोगों से भिन्न अतीन्द्रिय द्रष्टा पुरुष के प्रत्यक्ष में माद्यत्वरूप है। इन में प्रथम को साध्य करने पर बाथ होगा क्योंकि हम लोगों को धर्म का प्रत्यक्ष नहीं होता । एवं दूसरे को साध्य करने पर साध्याऽमसिद्धि होगी क्योंकि उक्तविध प्रत्यक्ष असिद्ध है। साध्य क. समान हेतु के सम्बन्ध में भी विकल्प हो सकता है। जैसे झेयत्यशब्द से प्रत्यक्षझान विषयत्वरूप हेनु विवक्षित है अथवा परोक्षशानविषयत्वरूप हेतु विधक्षित है। प्रथम में, पक्ष में हेतु के अभावरूप स्वरूपासिद्धि और दूसरे में अप्रयोजकत्व दोष है।" [बाधादि दोषों का निराकरण ] किन्तु इस प्रकार का दोषोद्भाबन उचित नहीं है क्योंकि इस प्रकार का दोषोभावन में भी संभव होने से अनुमानमात्र का उच्छेद हो जायगा । जैसे-धमहेत्र मे पर्वत में अग्नि का अनुमान प्रसिद्ध अनुमान है। इस में भी इस प्रकार दोषोदभावन हो सकता है कि इस अनुमान में यदि पर्वतीय अग्नि को साध्य किया जायगा तो पाकशालारूप रष्टान्त में साध्यबैकल्य होने से हेतु में साध्य का न्याप्तिग्रह न हो सकेगा और यदि पाकशालीय अग्नि को साध्य किया जायगा तो पर्वतरूप पक्ष में साध्य का बाध होगा | इसी प्रकार हेतु के सम्बन्ध पतिर Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शासवार्ता० स० १०/१४ . : पक्ष दृष्टान्त-हेतु-साध्यव्यक्त्योरत्यन्तवलक्षण्याननुभवात् सामान्योपग्रहेणैव दोषोद्धारः, व्याप्सिबलात् सामान्यसिद्धावपि पक्षधर्मताबलाद् नियतविशेषसिद्धेरित्युपगम्यते, तदा प्रकृतेऽपि तुल्यम् । न चात्राsप्रयोजकत्वम् , विपक्षबाधकताभावादिति वाच्यम् , 'ज्ञानं साश्रयम् , गुणत्वात्, रूपादिवत् इत्यादाविव बाधकाभावे निरुपाधिसहचाररूपस्यैव सर्कस्य सत्त्वात् , अन्यथेशानुमानसहस्रोच्छेदात् । यदि चात्र गुणाऽऽश्रययोः कार्यकारणभाव एव परम्परया तर्कः, तदा प्रकृतेऽपि धर्माधध्यक्षज्ञानयोः स एवाश्रीयताम् , विना सर्वज्ञं धर्माद्यपरिज्ञानस्यान्यतो व्यवस्थापयिष्यमाणत्वात् । में भी विकल्पमूलक दोष होगा। जेसे-पर्वतीय भ्रूम को हेतु करने पर अन्यय दृष्टान्त में हेतु का अभाव होने से व्याप्तिज्ञान की अनुपपत्ति होगी और पाकशाला के धूम को हेतु करने पर पक्ष में हेतु की असिद्धि होगी। समस्त अग्नि और समस्त धूम का सामान्यरूप से ग्रहण करके भी उक्तवोप का परिहार संभघ नहीं होता क्योकि विभिन्न अग्नि एवं विभिन्न धूम दोनों अत्यन्स बिलक्षण हैं और अत्यन्त विलक्षण व्यक्तियों का कोई अनतिप्रसक्त सामान्यधर्म नहीं होता। यदि यह कहा जाय कि-"पर्वत में पाकशाला के दृष्टान्त के द्वारा जब धूम से अग्नि का अनुमान किया जाता है तब उस में उक्तरीति से दोष नहीं हो सकता क्योंकि उस अनुमान से सम्बद्ध पश, दृष्टान्त, हेतु और साध्य व्यक्तियों में अत्यन्त वैलक्षण्य का अनुभव नहीं होता। अतः पर्वतत्वरूप सामान्यधर्म से सभी पर्वतों को पक्षरूप से, पवं सभी पाकशाला को पाकशा. लात्वरूप सामाग्यधर्म से दृष्टान्तरूप से प्रस्तुत किया जा सकता है। एव मभी अग्नि को अग्नित्वरूप सामान्यधर्म से साध्यरूप में और सभी धूम को धूमत्वरूप सामान्यधर्म से हेतुरूप में ग्रहण कर उक्त दोषों का परिहार किया जा सकता है। व्याप्तिबल से सामान्यरूप से ही साध्य की सिद्धि होने पर भी पक्षधर्मताबल से पर्वत में पर्वतीयअग्निरूप विशेषसाध्य की सिद्धि हो सकती है। कहने का आशय यह है कि उक्त अनुमान में अग्नित्वरूप सामान्य धर्म से अग्नि को साध्य करने पर पाकाशाला में पर्वतीयअग्नि का अभाव होने पर भी अग्नि सामान्य का अभाष न होने से दृष्टान्त में साध्यवैकल्य नहीं हो सकता, एवं पर्वत में पाकशालीय अग्नित्वावच्छिन्न का अभाव होने पर भी अग्नि सामान्य का अभाष न होने मे बाध नहीं हो सकता। एवं धूमत्वरूप सामान्य धर्म से धूम को हैतु करने पर पाकशाला में पर्वतीय श्रुम का अभाष होने पर भी धूमसामान्य का अभाव न होने से पाकशाला दृशान्त में साधनधैकल्य नहीं हो सकता । पर्व पर्वत में पाकशालीय धूमाभाव के होने पर भी धूमसामान्य का अभाव न होने से पक्ष में हेतु की अमिद्धि भी नहीं हो सकती । धूमसामान्य से अग्निसामान्य का अनुमान करने पर यह भी शङ्का नहीं हो सकती कि-'पर्वत में अनुमान द्वारा अग्निसामान्य की सिद्धि होने पर भी पर्वतीयअग्नि की सिद्धि कैसे हो सकती है?' क्योंकि अग्निसामान्य के अनुमापक द्वारा पर्वत में पवतीयअग्नि से भिन्न अग्नि के बाधज्ञानरूप पक्षधर्मता के बल से पर्वत में पर्वतीयमग्नि की सिद्धि निधि है।" तो हम भी कह सकते है कि जिस ढंग से प्रसिद्ध अनुमान में साध्य और हेतु के यिकला मे संभावित दोषों का निराकरण किया जाता है उस ढंग से धर्म भादि में प्रत्यक्षत्व साधक अनमान में भी साध्य-हेन के विकल्प से संभावित दोगेका परिहार किया जा सकता है। अर्थात् यह कहा जा सकता है कि प्रत्यक्षत्वरूप सामान्य धर्म से घटित प्रत्यक्षविषयत्य को Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [३७ ईशप्रत्यक्षाश्रयं परिशेषयन्नाह-कस्थचिदिति, अस्मंदादीनां बुद्धादीनां च छद्मस्थत्वात् , दृष्टेष्टविरुद्धभाषित्वाच्चाईत्येव धर्मादिसाक्षात्कर्तृत्वविश्रामादिति भावः । तेन न साध्याऽसिद्धिः, इष्टाऽसिद्धिर्चा, साध्यकोटौ विशिण्याऽनिवेशात् , परिशेषस्य विशेषपर्यवसायित्वाञ्चेति दृष्टव्यम् । सर्वज्ञवादिभिरपि कश्चित् सर्वज्ञः कतिपयेष्टार्थवेद्येवाभ्युपगम्यते न तु विश्वदृष्टा, यदुक्तम्-(प्र.वा.१।३३) "सर्व पश्यतु बा, मा वा, तत्वमिष्टं तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः कोपयुज्यते ? ॥१॥" तथा "सर्व पश्यतु वा, मा वा, इष्टमर्थ तु पश्यतु । प्रमाणं दूरदर्शी चेदेतान् गृध्रान् प्रपूजय ॥१॥” इति । (द. प्र. वा. १।३५) साध्य और ज्ञानस्वरूए सामान्यधर्म से घटित ज्ञानविषयत्व को हेतु करने से उक्त दोष नहीं हो सकते। यदि यह कहा जाय कि प्रत्यक्षाय के साधनाथं प्रयक्त क्षेयत्यहेत अप्रयोजक है क्योंकि आदि झेय होते हये भी अप्रत्यक्ष लो' इस विपरीत पक्ष का बाधक कोई तर्क नहीं है। तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे ज्ञान के आश्रयरूप में आत्मा को सिद्ध करने के लिये प्रयुक्त-शान न्याश्रित है क्योंकि मूल्याश्रित रूप आदि के समान गुण है'-स अनुमान में ज्ञान में द्रव्याश्रितत्व का जाधकोने से गुपयरे व्रत्याश्रितत्र का निरुवाधिक सहचार ही तर्क होता है उसी प्रकार प्रस्तुत अनुमान में भी धर्म आदि में प्रत्यक्षत्वबाधप्रामाणिक न होने से झेयत्व में प्रत्यक्षत्व का निरूपाधिक सहमार ही तर्क हो सकता है । यदि निरुपाधिक सहचाररूप तर्क की उपेक्षा की जायगी तो पेसे हजारों अनुमानों का उच्छेद हो जायगा । ___ यदि यह कहा जाय कि 'गुणत्व से न्याश्रितत्य के अनुमान के लिए गुणत्व में द्रव्यानितस्थ का जो व्याप्तिान अपेक्षित है उस में गुण और आश्रय का कार्यकारणभाव ही परम्परया तर्क है। आशय यह है कि गुण यदि द्रव्याश्रित न होगा तो द्रव्यजन्य नहीं हो सकता इस लिप गुण में द्रव्यानितन्य आवश्यक होने से गुण में द्रव्याश्रितत्व की विरोधी व्यभिचारशङ्का निवृन हो जायगी तो ऐसा कथन ज्ञेयत्वहेतु से धर्मादि के प्रत्यक्षत्वानुमान के सम्बन्ध में भी सम्भव है। जैसे यह कहा जा सकता है कि यदि धर्म आदि का द्रष्टा कोई सर्थश न होगा तो धर्म आदि का भी ज्ञान नहीं हो सकता है, यह बान अन्य हेतु से आगे सिद्ध की जाने वाली हैं। । [सर्वग्राहि प्रत्यक्ष के आश्रयरूप में सर्वज्ञ की प्रसिद्धि ] २४ थीं कारिका के उत्तरार्ध में जैनसम्मत सर्वज्ञ के साधक परिशेषानुमान का मंकेत किया गया है। जिस का आशय यह है कि-धर्म आदि पदार्थं किसी पुरुष को प्रत्यक्ष से सिद्ध है। किसी पुरुष' से तात्पर्य है सामान्य जीव से एवं युद्ध आदि से भिन्न पुरुष । कहने का तात्पर्य यह है कि उक्त अनुमान से धर्म आदि सब पदार्थों का ग्राहक प्रत्यक्ष सिद्ध हो जाने पर यह प्रत्यक्ष किमी पुरुषविशेप में आश्रित है क्योंकि वह शान है। इस अनुमान मे उक्त प्रत्यक्ष पुरुषाधित होकर सिद्ध होता है, वह प्रत्यक्ष विशिष्ट कोटि का होने से सामान्य Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] [ शानथार्ता० स्त १०/१५ तदभिहितनिरासपूर्वकस्वाभिमतसिद्ध्यर्थ पक्षविशेषणमाह-सर्व एवेति । न चैवं घटादेः पक्षप्रविष्टत्वे सपक्षत्वानुपपत्तिः, तदप्रविष्टत्वे च ‘सर्व एव ' इत्यसिद्धमिति वाच्यम् ; पक्षप्रविष्टत्वेऽपि निश्चितसाध्यधर्मत्वेन सपक्षत्वाऽविरोधात् , तत्र गौरवेण पक्षातिरिक्तत्वानिवेशात् । न च तथाप्यंशतः सिद्धसाधनम् , पक्षसामान्ये साध्यासिद्ध्या तस्यादोषत्वादिति दिग् । वस्तुतस्तत्वत एकार्थदर्शनमपि सर्वदर्शनाविनामात्रि, तदुक्तम्-"'जे पगं जाणइ से सव्वं जाणइ" [आचारांग०] इत्यादि । एतदनुसारिभिः पूर्वाचार्यरस्यायमर्थः प्रत्यज्ञायि-[ "एको भाबस्तत्त्वतो येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा एको भावस्तत्त्वतस्तेन दृष्टः ॥१॥" इति । न चैतदयुक्तम् , एकस्यापि पदार्थस्यानुगत-व्यावृत्तधर्मद्वारेण सर्वपदार्थसंबन्धिस्वभावत्वाद, तदवेदने तत्त्वतोऽधिकृतवस्त्ववेदनात् । केवलमभिमानमात्रमेव लोकानां तत्र 'तत्त्वतो दृष्टोऽयमर्थः' इति । जीवों में पत्रं वुद्ध मादि विशेष जीवों में भी आश्रित नहीं हो सकता क्योंकि सामान्य जीय और बुद्ध आदि छद्मस्थ है-ज्ञानावरणीय कर्मों से ग्रस्त हैं तथा प्रमाणसिद्ध एवं इष्ट अर्थ' से विरुद्ध अर्थ के उपदेशक हैं। इसलिए जो छवास्थ नहीं है एवं प्रमाणासिद्ध, और इष्टविरुद्ध अर्थ का उपदेशक नहीं हैं ऐसे 'अहत्' नामक पुरुष विशेष की ही धर्म आदि के साक्षात् शातारूप में सिद्धि हो सकती है। [कुछ कुछ वस्तु के ज्ञान से सर्वज्ञता-वादी का अभिप्राय ] कुछ सर्वशतावादी ऐसे हैं जो सर्यक्ष को इष्ट समस्तपदार्थों का ही ज्ञाता मानते हैं, विश्वस्रष्टा नहीं मानते। धर्मकीर्ति आदि विद्वानों ने कहा भी है कि सर्वज्ञपुरुष सब वस्तुओं का प्रत्यक्ष करें अथवा न करे किन्तु समस्त इष्ट पदार्थों का प्रत्यक्ष करता ही है। उसे इष्ट अनिष्ट सब का शाता मानने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि विश्व में कितने कीटे हैं। ऐसे उसके शान का कोई प्रयोजन नहीं है। यह भी कहा है कि सयज्ञपुरुष सब वस्तुओं का प्रत्यक्ष करे या न करे, इष्ट पदार्थ का तो प्रत्यक्ष करता ही हैं। उस को प्रमाण मानने के लिये उसे दूरदर्शी होना आवश्यक नहीं है, क्योंकि यदि दूरदर्शिता ही प्रमाण मानने का आधार होगी तो दूरदर्शी गीध आदि पक्षी भी प्रमाणरूप से पूजनीय हो जायेंगे। [कुछ कुछ वस्तु के ज्ञान से सर्वज्ञता अनुपपन्न ] कुछ सर्वशवादियों के इस अभिमत का निरासन करते हुये अपने अभिमत की सिद्धि के लिये १४ वी कारिका के उत्तरार्ध में 'सर्व पद का प्रयोग कर यह सूचित किया गया है कि ज्ञेयत्वहेतु से प्रत्यक्षविषयत्व के अनुमान में सद्य पदार्थ पक्ष है । यदि यह कहा जाय कि सभी पदार्थ को पक्ष मानने पर घट आदि का पक्ष में प्रवेश हो जाने से उन में सपक्षत्व की अनुपपत्ति होगी और यदि पक्ष में उन का प्रवेश न किया जायगा तो 'सब पदार्थ पक्ष है' यह कहना असंगत १ य एक जानाति स सर्व जानाति । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क, टीका-हिन्दी विवेचन ] ___अथ सम्बन्धिस्वभावता पदार्थस्य स्वरूपमेव न भवति, यत् केवलं प्रत्यक्षप्रतीतं संनिहितवस्तुमात्रं स एव वस्तुस्वभावः, संबन्धिता तु तत्र पदार्थान्तरप्रतिसंधानमवितया परिकल्पितेव । "निष्पत्तेरपराधीनमपि कार्य स्वहेतुना । संबध्यते कल्पनया किमकाय कथन ? ॥१॥" होगा।' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि घट आदि का पक्ष में प्रवेश होने पर भी उन में सपक्षत्व की अनुपपमि नहीं होगी क्योंकि सपक्ष के लक्षण में गौरव के कारण पक्षभिन्नत्व का निवेश न कर जिस में साध्य का निश्चय हो वह साक्ष होता है केवल इतना ही सपा का रक्षण मान्य है और यह लक्षण पक्षप्रविष्ट घटादि में भी है क्योंकि उस में प्रत्यक्षत्वरूप साध्य का निश्चय है। घट आदि पक्ष में अन्तभंत होने पर उन में प्रत्यक्षत्य के प्रथमतः सिद्द होने से अंशत: सिद्धसाधन की आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि सकर पक्ष में माध्यसिद्धि न होने के कारण सकल पक्ष में प्रत्यक्षत्व का अनुमान करने में अंशत: सिद्धसाधन दोष नहीं हो सकता कारण, सकल पक्ष में साध्य का निश्चय ही सकल पक्ष में साध्यानुमिति का विरोधी होता है। एक पदार्थ के परिपूर्ण ज्ञान से सवज्ञता] सब बात तो यह है कि एक पदार्थ का स्वतः पूर्णरूप से दर्शन भी सभी पदार्थों के दर्शन चिना नहीं होता. अन: पक पदार्थ के दर्शन से सब पदार्थों का दर्शन अनुमानगोचर है। पकपदार्थ के दर्शन में समस्त पदार्थ के दर्शन का अविनाभाव जैनशास भाचागंगके एकवचन से सिद्ध है। यह वचन है 'जे पगं जाण से सवं जाणाजी एक पदार्थ को जानता है वह समनपदार्थ को जानता है।' इस बञ्चन का अनुसरण करनेवाले जन सम्प्रदाय के पूर्वाधार्याने इस वचन के अर्थ को इस प्रकार निश्रित किया है कि-'मिस पुरुपने एकभाव-पदार्थ को पूर्णरूप से देख लिया-प्रत्यक्ष कर लिया उसने मब पदार्थों को देख लिया-प्रत्यक्ष कर लिया। एवं जिसने सब भावों को समग्ररूप से देख लिया उमीने एकभाव को तत्वत:=पूर्णरूप से प्रत्यक्ष किया।' - व्याख्याकार कहते हैं कि यह बात युक्तियुक्त भी है क्योंकि एकपदार्थ अनुगत और व्यावृत्त-स्वाधिन एवं स्थानाश्रित धर्म द्वारा समस्त पदार्थों का सम्बन्धी होता है। 'सब पदार्थों का सम्बन्धी होना' प्रत्येक पदार्थ का स्वभाव है, अतः सब पदार्थों के कान के विना सब पदार्थों से सम्बद्ध स्वभाव के रूप में किसी पक पदार्थ का भी ज्ञान नहो सकता सब पदार्थों को बिना जाने किसी एकपदार्थ को देख कर जो लोक में यह व्यवहार प्रचलित है कि इस पदार्थ को मैंने ततः देख लिया' यह केवल शवमात्र है, उसका कोई अर्थ नहीं है क्योंकि सब पदार्थों को जाने बिना किसी प्रकपदार्थ का तस्वतः दर्शन असंभव है । [सम्बन्धिस्वभावता पदार्थ का स्वरूप नहीं है-शंका] यदि यह कहा जाय कि- सम्बन्धिस्वभावता पदार्थ का स्वरूप नहीं होता किन्तु जी सस्तु जिस पदार्थ में प्रत्यक्ष प्रतीत होती है पधं सन्निहित यानी उस में विद्यमान होती है केवल घही वस्तु उस पदार्थ का स्वभाव होती है। सम्बन्धिता ऐसी नहीं है क्योंकि वह अन्य पदार्थ के शान से गृहीत होती है, अतः वह पदार्थ में कल्पित होती है, उसको म्यभान नहीं कह सकते । विद्वानों ने इस यात को इस प्रकार कहा है कि-कार्य अपराधीन होते हुये भी अपने हेतु से निष्पन्न होने के कारण कल्पना द्वारा केवल उसी से सम्बद्ध होता है। अत: जो जिस का कार्य नहीं है वह कल्पना द्वारा भी उस से कैसे सम्बद्ध हो सकता है? आशय यह है कि Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवात० स्त० १०/१४ , इति चेत् ? अयुक्तमेतत् इत्थं कल्पनायां स्वरूपमात्र संवेदना दंद्वैत पर्यवसाने व्यवहारोच्छेदात्, तद्भिया बहिष्पदार्थाभ्युपगमे च तन्त्रियतसर्व संबन्धिताया अप्यवश्याभ्युपेयत्वात् अन्यथा नियतस्वरूपासिद्धेः । न चातिरिक्तैव सर्वसंबन्धिता न तु स्वाऽपृथग्भूतेति वाच्यम् अत्यन्तभेदे संबन्धाऽभावात, भावे वाऽनवस्थानात् । तथा च तत्पदार्थपरिज्ञान तस्य विशेषणभूता सर्वसंबन्धितापि ज्ञातैव, केवलमस्मदादिज्ञाने तद्विपयत्वमनुमीयते । अनुमेयं नभ्यासदशा यामि तर पदार्थ संबन्धित्वम्, अभ्यासदशायां तु यत्र क्षयोपशमलक्षणोऽभ्यासस्तद ( ( 21 )ग्न्यादिजन्यत्वरूपमम्न्यादिसंबन्धित्वं धूमादेः प्रत्यक्षतोऽपि प्रतीयते । इत्थं च 'विश्व कस्यचित् घटसाक्षात्कारविषयः, घटसंबन्धिस्वभावात्, एतदभूतलवत्' इत्यनुमानमपि सर्वज्ञे सर्वपदाक्षितं द्रष्टव्यम् । विपयता च विषयांशे स्पष्टताख्याऽभिमता, तेन नास्मदादिना सिद्धसाधनम् अर्थान्तरं वा । न चात्र घटसाक्षात्कारनियतसाक्षात्कारसामग्रीक ૨૦ जिन वस्तुओं से किसी कार्य की उत्पत्ति होती है उन वस्तुओं के साथ तो कार्य के सम्बन्ध की कल्पना आवश्यक है क्योंकि असभ्य वस्तुओं से कार्य की उत्पत्ति मानने पर सब वस्तुओं से सब कार्यों की उत्पत्ति का प्रसंग हो सकता है। किन्तु जो पदार्थ जिस का कार्य नहीं है उस के साथ उसके सम्बन्ध की कल्पना नियुक्तिक है। अतः सर्वेपदार्थसम्बन्धि किसी पदार्थ का स्वभाव नहीं हो सकती क्योंकि पदार्थ को सर्वपदार्थसम्बन्धी मानने में कोई युक्ति नहीं है-" [शंका का प्रत्युत्तर ] तो यह कथन असंगत है, क्योंकि पदार्थ के सम्बन्ध में ऐसी कल्पना करने पर पदार्थ के स्वरूप मात्र का ही प्रत्यक्ष होगा क्योंकि पदार्थ के स्वरूप से अतिरिक्त उसका और कोई स्वभाव सिद्ध नहीं होता । फलतः अद्वैतमात्र में प्रदार्थ का पर्यवसान हो जाने से लोकव्यवहार का उच्छेद हो जायगा, क्योंकि उस की उपपत्ति पदार्थों के परस्परभेद पर ही निर्भर है। यदि व्यवहार लोप के भय से प्राथपदार्थ की सत्ता स्वीकार की जायगी तो बाह्यत्य से उस की नियतसर्वसम्बन्धिता भी अवश्य स्वीकार करनी होगी क्योंकि उसके बिना वास्तु के नियत स्वरूप की सिद्धि नहीं हो सकती । कहने का आशय यह है कि जो भी बाह्य वस्तु होती है यह किसी न किसी रूप में अभ्य समस्त पदार्थों से सम्बद्ध होती है। जैसे एक घट, दण्ड-चक आदि से जभ्य होने से, उन से सम्बद्ध होना है। जलाहरण आदि प्रयोजनों का साधक होने से उन प्रयोजनों से सम्बद्ध होता है । अपना उपयोग करने वाले पुरुषों के सुखादि का साधक होने से उन पुरुषों से भी सम्बद्ध होता । और जिन पदार्थों के साथ इसप्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है उन पदार्थो सेवि होने के कारण बैलक्षण्य द्वारा उन सब पदार्थों से भी सम्बद्ध होता है। इसप्रकार usपदार्थ का नियतस्त्ररूप सिद्ध होता है । सर्वसम्बन्धिता भी प्रत्येक वस्तु के अस्तित्व के साथ नियम होने से प्रत्येक वस्तु की अस्तिता उस की सम्बन्धिता की अनुमापक हो जाती है। [ सर्वसम्बन्धिता यह पदार्थ से सर्वथा अतिरिक्त नहीं है ] यदि यह कहा जाय कि ' उकरीति से पदार्थ में सर्वसम्बन्धिता की सिद्धि भले हो, किन्तु पदार्थ से अतिरिक्त ही होती है। पदार्थ से अथभूत यानी 'पदार्थ के स्वरूप में अनुमि Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [४१ .. ....nintent नहीं होती, अत: पदार्थस्वरूप के लक्षण में उस के दर्शन की अपेक्षा न होने से एक के दर्शन से सर्वदर्शन की सिद्धि नहीं हो सकती-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि सर्यसम्वन्धिता को पदार्थ से अत्यन्तभिन्न मानने पर पदार्थ के साथ उस का सम्बन्ध नहीं हो सकता क्योंकि अत्यनामिन पदार्थों में घमा बमः . असे पदार्थ में उसके स्वरूप से बाहि त सर्वसम्बन्धिता का सम्बन्ध होगा उसी प्रकार उस सम्बन्ध का भी सम्बन्ध और उस का भी सम्बन्ध स्वीकार करना होगा, फलतः सम्बन्धकरुपना में अनवस्था की प्रक्ति होगी । इसलिये किसी पदार्थ का परिशान होने पर उस के विशेषणभृत सर्वसम्बन्धिता का भी परिज्ञान होता ही है यह मानना पडेगा । इस प्रकार सर्वज्ञ के ज्ञान में प्रत्येक पदार्थ में सर्वसम्वन्धिता का ग्राहकत्व सिद्ध है। केवल अन्य मनुष्यों के ज्ञान में सर्वसम्बन्धिताविषयकन्ध की मिद्धि में अनुमान अपेक्षणीय है। यह अनुमान भी केवल अनभ्यासदशा में ही अपेक्षित है, अभ्यासदशा में नहीं, क्योंकि जिस वस्तु का अभ्यास होता है वह वस्तु प्रत्यक्ष से गृहीत हो जाती है क्योंकि प्रत्यक्षयोग्यता वस्तुमात्र में होती है। कर्मों के आवरण के नाते प्रत्येक वस्तु का प्रत्यक्ष नहीं होता, किन्तु जब किसी वस्तु का अभ्यास होता है-उपाय द्वारा उस वस्तु के कर्मावरण का क्षयोपशम हो जाता है-तब उस वस्तु का प्रत्यक्ष होने लगता है। जैसे धूम में अग्निआदिजन्यत्यरूप अग्नि आदि सम्बन्धित्व, अपने प्रत्यक्ष के विरोधी कर्माधरण का क्षयोपशमरूप अभ्यास हो जाने पर भ्रम में प्रत्यक्षगृहीत होता है, भ्रम में उसके अनुमान की अपेक्षा नहीं होती। [सर्वज्ञसाधक अनुमान ] इस प्रकार कारिका में प्रदर्शित सर्यशानुमान में पक्ष को 'सर्व' पदार्थ से विशेषित कर देने से सर्वशसाधक भनुमान का यह स्वरूप निखरता है कि 'विश्व किसी पुरुष के घटग्राहकसाक्षात्कार का विषय है, क्योंकि घटसम्बन्धिधरूप स्वभाव से युक्त है। जो जिस पदार्थ के सम्बन्धित स्वभाव से युक्त होता है यह उस वस्तु के साक्षात्कार का विषय होता है। जैसे घटसम्बन्धित्यस्षभाय से युक्त भूतल, घट को विपय करनेवाले घटबद्भवलम-भृतल घटसम्यन्धी है' इस साक्षात्कार का विषय होता है। विश्व, घट में विद्यमान व्यावृत्ति भेद का प्रतियोगी है अतः घनिष्ठभेवप्रतियोगित्यरूप घटसम्बन्धित्व विश्व में विद्यमान है, अत: जैसे घटसम्बन्धी भृतल घटसाक्षात्कार का विषय होता है उसी प्रकार घटसम्बन्धी विश्व को भी घटसाक्षात्कार का विषय होना आवश्यक है। इस अनुमान में, विश्व में जो घटसाक्षात्कार की विषयता माध्य हैं वह विष यता स्पष्टतारूप अभिमत है क्योंकि विषयतासामान्य को साध्य मानने पर सिद्धसाधन होगा, वह इस प्रकार कि सामान्य मनुष्य को भी घटसाक्षात्कार में घटसम्बन्धी विश्व का अस्पष्ट भान होता है, क्योंकि जब घट के साथ विश्व का सम्बन्ध है तो घट का भान होने पर तत्सम्बन्धि विश्व का कुछ भान होना स्वाभाविक है। और जिन के मत में घटसाक्षात्कार में विश्व का अस्पष्ट शन नहीं होता उन के मत में सिद्धसाधन न होने पर भी अर्थान्तर का होना अपरिहार्य है क्योंकि घटसाक्षात्कार में विश्व का अस्पष्ट भान मान लेने पर उक्त अनुमान की सफलता हो जाने पर भी उस के द्वारा विश्व के स्पष्टद्रष्टा सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं हो सकती। अतः उक्त अनुमान में साध्यकुक्षि में स्पष्टतारूपविषयता का ही निवेश आवश्यक है। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] [शास्त्रपार्ताः स्तः १०/१५ स्वमुपाधिः, अभ्यासेन घटसाक्षात्कारविषयायां दण्डजन्यतया दण्डसंबन्धितायां व्यभिचारेण साध्याव्यापकत्वात् । एवमस्मदादीनां घटसाक्षात्कारो विश्वसंबन्धितांदशे दोषप्रतिबद्धः, तद्ग्राहित्वे सति तद्धर्माप्राहित्वात् , श्वैत्याग्राहिशङ्खप्रत्यक्षवत् । न चात्र दृष्टान्ते साध्यवैकल्यम्, शङ्खप्रत्यक्षस्य श्वेत्यांशे दोषाऽप्रतिबद्भूत्वात् , श्वेत्याभावज्ञानेनैव श्वेत्यज्ञानानुदयात् , श्वैत्याभावग्रहजनकदोषस्य श्वैत्यज्ञानप्रतिबन्धकत्ये विनश्यदबस्थदोषेण यत्र श्वेत्याभावग्रहो जनितस्तत्र श्वेत्याभावज्ञानोत्पत्त्यनन्तरं श्वैत्यज्ञानोपत्तिप्रसङ्गादिति वाच्यम् । तदा बाह्यदोषापगमेऽप्यान्तरदोषानपगमात् आन्तरदोषापगमस्य कार्यकोन्नयत्वात्, इतरहेतूनां तदपगम एवं व्यापारात्, तस्य च दोषस्य क्वचित् पित्तादिवदेवपगमात् ; सिध्यति सर्वज्ञः । तदिदमाह-इति हेतोः नानुमानं न विद्यते-किन्तु विद्यत एव सर्वझेऽनुमानम् ॥१४॥ [ हेतु में उपाधि की शंका का निरसन ] ___ इस अनुमान के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता कि-"घटसाक्षात्कार में उसी पदार्थ का भान होता है जिस के साक्षात्कार की सामग्री, घटसाक्षात्कार की सामग्री के साथ नियम से उपस्थित होती है । अतः 'घटसाक्षात्कारसामग्री नियतसाक्षात्कारसामग्रीकत्व' उपाधि है क्योंकि यह घटसाक्षात्कारप्रिंषयत्नरूप सादर की व्यापक है और जिस पदार्थ के साक्षात्कार की सामग्री घटसाक्षात्कार की सामग्री के साथ नियम से नहीं उपस्थित होती एस घटसम्बन्धी पदार्थ में घटसम्बन्धिस्वभावत्वरूप माधन की अव्यापक है"। क्योंकि वट के दण्डजन्य होने से घट में दण्डसम्बन्धिता होती है और वह अपने साक्षात्कार के लिये अन्य सामग्री का सनिधान न होने पर भी अभ्यासवश घटसाक्षात्कार का विषय होती है, अत: घटसाक्षात्कारमामग्रीनियतसामग्रीकल्वरूप उपाधि घटनिष्ठदण्डसम्बन्धिता में घटसाक्षात्कारविपयत्व रूप साध्य की अध्यापक है, व्यापक नहीं है। [किसी एक घटसाक्षात्कार में विश्वविषयकत्व की सिद्धि ] इस अनुमान के सम्बन्ध में यह शङ्का कि-'घटसम्वधिस्त्र भारता से विश्व में घटसाक्षा. कारविषयता का साधन नहीं हो सकता, क्योंकि सामान्य मनुष्य का जो घटसाक्षात्कार सिद्ध है उस की स्पष्टताख्यविषयता विश्व में नहीं है और यदि प्रसिद्ध, घटसाक्षात्कार से अन्यसाक्षात्कार की विषयता का साधन किया जायगा तो साध्याप्रसिद्धि होगी'।-नहीं की जा मकती, क्योंकि उक्त अनुमान में किसी विशेष घटसाक्षात्कार का साध्यक्षि में प्रवेश नहीं है किन्तु बरसाक्षात्कार सामान्य का प्रवेश है। अतः सामान्य मनुष्य के घटसाक्षात्कार में दोषषश विश्व का भान न होने पर भी दोषमुक किसी पुरुष के साक्षात्कार में विश्व का स्पट भान भभव होने से उन अनुमान में कोई बाधा नहीं है। सामान्य मनुष्य के घटनाक्षात्कार में विश्व का अस्पष्ट भान दोषवश नहीं होता यह बात अनुमान से सिद्ध है। अनुमान का प्रयोग इस प्रकार है कि- सामान्य मनुप्यों का घटसाक्षात्कार विश्वसम्बन्धिता अंश में दोष से प्रतिबद्ध है क्योंकि घट का ग्राहक होने पर भी उस के विश्वसम्बन्धिलारूप धर्म का ग्राहक नहीं है । जो साक्षात्कार जिम वस्तु का ग्राहक होते हुये भी उन के जिस धर्म का ग्राहक नहीं होता उस धर्माश में वह दोष से प्रतिबद्ध होता है जैसेश्वतरूप को ग्रहण न करने वाला शंखः पीत:-शंख पीला है' यह साक्षात्कार शंख का ग्राहक । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -thennantimu s " . .. . .. . स्वा. क. टीका-हिन्दीषिवेचन । __ आगमादाप तसिद्धिरित्याहआगमादपि तसिद्धिर्थदसौ चोदनाफलम् । प्रामाण्यं च स्वतस्तस्य नित्यत्वं च श्रुतेरिख ।।१५।। होते हुये भी शंख के श्वतता धर्म का ग्राहक न होने से श्वेत्ता अंश में पीतदोष से प्रति यस होता है। ['शंखः पीनः' इस दृष्टान्त में साध्यशून्यता की शंका ] यदि यह कहा जाय कि- शंखः पीत:-ग्नि पीला है। इस प्रत्यक्षरूप दृष्टान्स में साध्य का अभाव है क्योंकि श्वेतता के अभाव का ज्ञान होने से दी श्वेततामान का प्रतिबन्ध हो जाने के कारण उस में श्वेतताअंश में दोषप्रतिबद्धता अमिङ्ग है। कहने का आशय यह है किशिखः पीतः' इस प्रत्यक्ष के पूर्व 'शंखः न श्वेतः' इस प्रकार शस्त्र में प्रवेतता के अभाव का शान होता है। वह शान ही शस्त्र में प्रवत्यशान का प्रतिबन्धक होता है। पीतन्त्रग्रह का जनक दोष उस का प्रतिबन्धक नहीं होता, वह तो पीतत्वज्ञान के समान वेतता के अभाष के शान को उत्पन्न करता है। यदि उस दोष को ही चेतताशान का प्रतिबन्धक माना जायगा तो जब घिनश्यदयस्थ (नाशाभिमुम) दोष से गामी अपने नाश के अव्यवहितपूर्वक्षण में विद्यमान दोष से, प्रधेतता के अमात्र का ज्ञान होगा तो उसके साथ ही दोष का नाश हो जाने से प्रवेतता के अभात्र शान के अनन्तर श्वेताशान की उत्पत्ति की आपत्ति होगी, अतः प्रधेतताज्ञान के प्रति श्वेतता के अभावशान को प्रतिबन्धक मानना आवश्यक होने से जिस दशा में दोष और श्वेतता के अभाव का ज्ञान दोनों विद्यमान है उम दशा में भी श्वेतता के अभावशान को ही श्वेतताज्ञान का प्रतिबन्धक मानना उचित है।' [शंका का प्रत्युत्तर] तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जहाँ विनश्यदवस्थयोष से प्रचेतता के अभाव का शान होता है वहाँ भ्रतता के अभाव के शान के उत्पत्तिकाल में घिनश्यदधस्थ बाह्यदोष का नाश हो जाने पर भी आन्तरदोष का नाश नहीं होता, क्योंकि आन्तरदोष का नाश केवल, कार्य से ही अनुमित होता है और वहाँ आन्तरदोष के नाश का कोई कार्य प्रात नहीं होता। दूसरी बात यह है कि जिन हेतृओं से शादोष की निवृत्ति होती है उन हेतुओं से अन्तरदोष की निवृत्ति नहीं होती क्योंकि वे हेतु बाह्यदोष के नाश के लिए ही सक्रिय होते हैं आन्तबदोष के नाश के लिये नहीं। अतः सामान्य मनुष्य के घटसाक्षात्कार में विश्व के स्पष्ट मान का विरोधी आन्तरदोष, पित्त आदि दोर के ममान, जिम पुरूप में नष्ट हो जाता है उस पुरुष के घटसाक्षात्कार में विश्व का स्पष्ट भान होने में, वह पुरुष उक्त अनुमान द्वारा मश सिद्ध होता है। इसी बात को कारिका में इति नानुमानं न विद्यते' इम भाग से निपेधप्लम्स से कहा गया है। जिस का अर्थ यह है किसर्वज्ञ साधक अनुमान नहीं है यह बात नहीं किन्तु मयंश साधक उक्त अनुमान अक्षुण्ण है ।।१५।। [आगमप्रमाण से सर्वज्ञसिद्धि] १५ श्रीं कारिका में यह बताया गया है कि आगम (जैनागम) से भी सर्वज्ञ की सिद्धि हो सकती है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रषार्त्ताः स्त० १०/१५ आगमादपि तत्सिद्धिः=सर्वज्ञसिद्धिः यत् = यस्मात् असौ = सर्वज्ञः, चोदना फलम् = विष्युद्देश्यः, 'स्वर्ग - केबलार्थिना तपः कर्तव्यम् इत्यादि तपःप्रभृतिकर्मविधीनां स्वर्गेश इव केवलांशेऽपि फले प्रामाण्यात् । अथवा चोदना फलम् = चोदनैकवाक्यागमबोधित इत्यर्थः तथा च "स्वर्गकामो यजेत" इत्यादिविध्येकवाक्यतया "यन्त्र दुःखेन संभिलम्" इत्यादेखि "आत्मानं पश्येत्" इत्यादिविध्येकवाक्यतया 'स सर्वज्ञ....' इत्यादेरपि स्वार्थे प्रामाप्यमविरुद्धमिति भावः । समर्थयिष्यते चाविशेषेण सर्वेषामेवार्थवादानां प्रामाण्यमिति मा त्वरिष्ठाः । श्रुतितुल्यत्वमस्य व्यवस्थापयति - प्रामाण्यं च तस्य सर्वज्ञस्य स्वतः = स्वातिरिक्तानपेक्षीत्पत्तिकत्वात् नित्यत्वं च दोषश्रयाविर्भूतत्वात् श्रुतेखि वेदस्येव । इदमभ्युच्चयेनोक्तम् । वस्तुत उत्पतौ सर्वत्र परत एव प्रामाण्यम् । प्रमाणं चात्र - 'प्रामाण्यं ज्ञानहेत्वतिरिक्तहेत्व ४४ ] > आगम से भी सर्व की सिद्धि हो सकती हैं क्योंकि सर्वेश चोदना का फल है, अर्थात् विधिवाक्य का उद्देश्य है। तात्पर्य, संदेश होने के उद्देश्य से कर्मविशेष का विधान है, जैसे 'स्वर्ग केवलार्थिना तपः कर्त्तव्यम' इत्यादि विधिवाक्य स्वर्ग और कैवल्य= सर्वेक्षता चाहनेवाले मनुष्य के लिये तप आदि कर्मों का विधान करते हैं। ये वाक्य जैसे स्वर्ग अंश में प्रमाण हैं। उसी प्रकार केवल- सर्वश अंश में भी प्रमाण है। अथवा कारिका में आयें ' चोदनाफल्म ' शब्द का अर्थ है - विधिवाक्य के साथ पकवाक्यतापत्र शाख से बोधित। इस अर्थ के अनुसार कारिका के पूर्वार्ध का यह अर्थ फलित होता है कि विधिवाक्य के साथ घकवाक्यतापत्र आगमवचन से बोध्य होने के कारण, आगम से भी सर्व सिद्ध है । आशय यह है कि जैसे- 'स्वर्गकामो यजेत - स्वर्ग का इच्छुक पुरुष यश करें। इस विधि वाक्य के साथ पकवाक्यता होने से "पन्न दुःखेन संभिन्नं न च ग्रस्तमनन्तरम् अभिलाषोपनीतं च तत्सुखं रूपःपदास्पदम् ॥ अर्थ :- जो सुख, दुःख से मिश्रित नहीं है, परिणाम में भी दुःख से अनुषिद्ध नहीं है एवं इच्छामात्र से अनायास प्राप्त होता है वह सुख स्वर्गपद का प्रतिपाद्य है " यह वाक्य, विधिवाक्य में आये स्वर्गपद के उक्त अर्थ में प्रमाण है-उसी प्रकार 'आत्मानं पश्येत्=आत्मा का दर्शन करे इस विधिवाक्य के साथ पकवापता होने से 'स सर्वज्ञः स सर्वविद्' इत्यादि. वचन विधिवाक्य में आये आत्मशब्द से विवक्षित सर्वशरूप स्वप्रतिपाद्य अर्थ में प्रमाण है । अतः विधिवाक्य के समान सिद्धार्थक वाक्य को भी प्रमाण मानने में कोई विरोध नहीं है। • सभी अर्थवादवाक्य निर्विशेष-समान होने से प्रमाण होते हैं इस बात का समर्थन यथासमय आगे किया जायगा. उस के लिये अभी त्वरा दिखाना उचित नहीं है । कारिका उत्तरार्ध में सर्वश वेद की समानता बताई गई है। उस का आशय यह है कि मीमांसकमत में जैसे वेद स्वतः प्रमाण और नित्य है उसी प्रकार जैन मत में सर्वश भी स्वत प्रमाण और नित्य है । स्वतः प्रमाण इसलिये है कि, जिस की उत्पत्ति किसी अतिरिक हेतु की अपेक्षा से होती है उस से वह भिन्न है। नित्य इसलिये है कि, ज्ञानावरण कर्मरूप शेष के क्षय होने से उस का आविर्भाव होता है, उत्पत्ति नहीं होती । सशर्व में प्रामाण्य और नित्यत्व अभ्युच्चय से कहा गया है । अभ्युच्चय से कहने का एक अर्थ यह है कि प्रामाण्य और नित्यत्व दोनों को सर्वक्ष में अस्तित्वरूप एक क्रिया से अन्वय बताया गया है। यह कथन अभ्युच्चय कथन है क्योंकि एक क्रिया से दो पदार्थों के सम्बन्धपतिपादन को अभ्युच्चय कहा जाता है । अथत्रा, अभ्युश्चय यानी अभ्युपगमवाद से कथन | Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .. . . . . . . .. . . स्था. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ ४५ धीनम् , ज्ञानत्वे सति का चान, आगाप्यसहि नि । यदि पुनः rj ज्ञानसामान्यहेतुमात्राधीनं भवेत् तदाऽप्रमापि प्रमा स्यात् । न खलु तत्र ज्ञानसामान्यहेतुर्न विद्यते, तदनुत्पत्रिप्रसङ्गात् । अथ तत्र ज्ञानहेतुसंभवेऽप्यतिरिक्तदोषानुप्रवेशादप्रामाण्यमिति चेत् ? तहि दोषाभावमधिकमासाद्य प्रामाण्यमुपजायते, निग्रमेन तदपेक्षणात् । 'भावहेतुमधिकं नापेक्षते प्रामाण्यमिति चेत् ? न, विशेषादर्शनाधमावस्य प्रत्यक्षे, अनुमाने च विपर्यासादिदोपाभावातिरिक्तस्य नियमगुणस्यांपेक्षणात् । अन्यथा 'शब्दो नित्यः, प्रमेयत्वात्' इत्यादौ प्रमानुमितिप्रसङ्गात् । 'अस्त्वन्यत्र तथा, शब्दे तु विप्रलिप्सादिदोषाभावे वक्तृगुणापेक्षा प्रामाण्यस्य नास्तीति चेत् ? अवद्यमेतत्, वक्तूगुणाभावे तत्राऽपामाण्यस्य वक्तृदोषापेक्षा नास्तीति विपर्ययस्यापि सुवचत्वात् । 'अप्रामाण्यं प्रसि दोषाणामन्वय-व्यतिरेको स्तः [ उत्पत्ति में प्रामाण्य परतः] सच बात यह है कि उत्पत्ति में सर्वत्र प्रामाण्य परप्रयुक्त ही होता है अर्थात् प्रमा की उत्पत्ति सर्वत्र शानसामान्य के हेतु से अतिरिक हेतु द्वारा ही होती है और यह बात अनुमान प्रमाण द्वाग सिद्ध है; अनुमान का प्रयोग इस प्रकार है प्रामाण्य प्रमा, ज्ञानसामान्य के हेतु से अतिरिक्त हेतु द्वारा जन्य है क्योंकि यह ज्ञानात्मक कार्य हैं, जो ज्ञानात्मक कार्य होता है वह सब ज्ञानसामान्य के हेतु से अतिरिक हेतृ द्वाग उत्पन्न होता है, जैसे अप्रमारूप ज्ञानात्मक कार्य ज्ञानसामान्य के हेतु से अतिरिन. दोपरूप हेतु से उत्पन्न होता है। यदि प्रमा शानसामान्य के हेतुओं मे ही उत्पन्न होगी तो अममा भी प्रमा हो जायगी क्योंकि यह भी मानसामान्य के हेतुओं से तो उत्पन्न होती ही है। यदि शान सामान्य के हेतुओं से उस की उत्पत्ति न होगी तो उस की अनुत्पत्ति का प्रसंग होगा, क्योंकि अममा एक विशेषशान है, सामान्य ज्ञान के हेतुओं के अभाव में उस की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि विशेष कार्य की उत्पत्ति में सामान्य कार्य की सामग्री अपेक्षित होती है। [प्रामाण्य में अतिरिक्त हेतुओं की आवश्यकता] यदि यह कहा जाय कि-'अप्रमास्थल में शानसामान्य के हेतुओं की उपस्थिति होने पर भी उतने मात्र से ही अप्रमा की उत्पत्ति नहीं होती किन्तु ज्ञानसामान्य की सामग्री में अतिरिक दोष का प्रवेश होने से अपमा की उत्पत्ति होती है तो ऐसी बात प्रमा के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। जैसे, यह कहा जा सकता है कि प्रमा की भी उत्पत्ति ज्ञानसामान्य के हेतुओं से अतिरिक्त दोषाभाव का सन्निधान होने पर ही होती है, क्योंकि प्रमा की उत्पत्ति में दोषाभाव का सन्निधान सदा अपेक्षित होता है। यदि अप्रमा और प्रमा में यह अन्तर बसाया जाय कि- अप्रमा की उत्पत्ति में मानसामान्य के हेतु से अतिरिक्त दोषरूप भावात्मक' हेतु की अपेक्षा होती है किन्तु प्रमा में किसी अतिरिक्त भाषात्मक हेतु की अपेक्षा नहीं होती तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रत्यक्षप्रमा में विशेषदर्शनाभायरूप दोष का (विशेषदर्शनस्त्ररूप) अभाष अपेक्षित होता है जो भावात्मक है। एन अनुमानप्रमा में यिपर्यास-हेतु में साध्यव्याप्ति पर्व पश्नधर्मता के भ्रमआदिरूप दोष के अभाव से अतिरिक्त हेतु में साध्यग्याप्ति के यथार्थशानरूप गुण की अपेक्षा होती है। अनुमानप्रमा में यदि व्याप्तिप्रमारूप गुण की अपेक्षा न मानी जायगी तो प्रमेयत्व हेतु से शब्द में नित्यत्व की प्रमात्मक अनुमिति की आपत्ति होगी। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] { शासधार्ताः स्त० १०/१५. इति चेत् ! प्रामाण्यं प्रति गुणानामपि कि न तौ । 'अननुगतानां गुणानां प्रमासामान्ये न हेतुत्वमिति चेत् ? अननुगतानां दोषाणामप्रमासामान्येऽपि न हेतुत्वमिति तुल्यम् । 'आवद्विशेषेऽतिरिक्तहेत्यपेक्षत्वम् यद्विशेये.... इत्यादि न्यायोऽपि चोभयत्र तुल्यः । 'न तुल्यः, शङ्खश्वेत्यादिप्रमाविशेषे पित्ताभावाद्यतिरिक्तगुणादर्शनादिति चेत् ! न, अदर्शनेऽपि तत्र सम्यगुपयोगादिरूपगुणकरुपनात्, अन्यथा देहाऽऽत्मामेदभ्रमेऽपि सम्यगदर्शनरूपगुणाभावातिरिक्तदोषाऽदर्शनाद् मिथ्याज्ञानवासनारूपं दोषकल्पनं न स्यादिति द्रष्टव्यम् । वस्तुतो दृश्यत एवेत्रिी गित्तादिशोपवार सादिको गुणोऽपि ! न च नैर्मल्यमिन्द्रियस्वरुपमे ब, दोषेऽप्येवं सुवचत्वात् , जातमात्रस्याप्युभयरु.पदर्शनात् , अनुभवभेवस्तूभयत्र परिणतिभेदे तुल्य इति दिक । [शब्द के प्रामाण्य में भी गुणों की अपेक्षा ] यदि यह कहा जाय कि-'अन्यत्र जैसा भी होता हो-होने दो, किन्तु शब्द में उगने की इच्छा आदि दोष न होने पर प्रमा की उत्पत्ति हो सकती है। उस में वक्ता के वाक्यार्थविषयक यथार्थशानरूप गुण की अपेक्षा नहीं होती'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वक्तृगुण के अभाव में भी अप्रमा की उत्पत्ति हो सकती है, उस में वक्ता का दोष अपेक्षित नहीं हैं' इस प्रकार विपरीतपक्ष का भी उपन्यास संभव होने से अपौरुषेय शब्द, प्रमाण हाने के बदले अप्रमाण हो जायगा। यदि यह कहा जाय कि- अप्रमा में दोषों के अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधान है अतः दोष के अभाव में केवल वक्तृगुण के अभाव से अप्रमा की उत्पत्ति नहीं हो सकती'-तो ऐमी बात प्रमा के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। मे यह कहा जा सकता है कि प्रमा में गुणों के अन्वयव्यतिरेक का अनुविधान है अतः गुण के अभाव में केवल दोपाभाव में प्रमा की उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि यह कहा जाय कि-'गुण अननुगत है अतः वे प्रमासामान्य के हेतु नहीं बन सकते'तो प्रेमी यात दोषों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है । जैसे यह कहा जा सकता है कि दोष अननुगत नहीं हैं अतः वे अप्रमासामान्य के कारण नहीं हो सकते । यदि इस न्याय की शरण ली जाय कि-'जिस के किसी एक विशेष में अतिरिक्त हेतु की अपेक्षा होती है उस के सभी विशेषों में अतिरिक्त हेतु की अपेक्षा होती है। अतः ज्ञान के अप्रमात्मक प्रत्यक्षरूपविशप में दोप की अपेक्षा होने पर ज्ञान के सभी अपमारूप विशेष में दोष की अपेक्षा होने से दोष के अभाव में केवल धक्तगुणाभाव से अप्रमा की उत्पनि नहीं हो सकती'-तो प्रमा के सम्बन्ध में भी इस न्याय का अवलम्बन किया जा सकता है. अर्थात यह कहा जा सकता है कि ज्ञान के प्रत्यक्षममारूप विशेष में गुण की अपेक्षा होने से ज्ञान के सभी प्रमारूप विशेषों में उक्तत्थाय से गुण की अपेक्षा होगी अत: गुण के अभाव में केवल दोषाभाव से अपौरुषेय शब्द से शाब्दप्रमा की उत्पत्ति नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाय कि- उक्तन्याय अप्रमा और प्रमा दोनों के सम्बन्ध में समान नहीं है, क्योंकि शंख में श्वैत्यवंतता आदि की प्रमा में पित्ताभाषादि से भिन्न किसी गुण की अपेक्षा नहीं देखी जानी-तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि उक्त प्रमा में किसी बासगुण का दर्शन न होने पर भी उस के कारणरूप में सम्यक उपयोग (सावधानता) आदि आत्मगतगुण की कल्पना की Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] इत्थं च “अस्तु पौरुषेयविषयेयं व्यवस्था, अपौरुषेये तु दोपनिवृत्त्येव प्रामाण्यम् " इत्यपहस्तितम् , गुणनिवृत्त्याऽभामाश्यस्यापि संभवात् । 'तस्याऽपामाज्यं प्रति सामर्थ्य नोपलब्धमिति चेत् ! दोपनिवृत्तेः प्रामाण्य प्रति क्व सामर्थ्यमुपलब्धम् । लोकवशादिति चेत् ! तदितरत्रापि तुश्यम् । 'लोकवचसामग्रामाण्ये दोषा एव कारणम् , गुणनिवृत्तस्त्वसामर्थ्यमिति चेन् ? प्रामाण्यं प्रति गुणेष्वपि तव्यमेतत । 'गणानां दोपोत्सारणप्रयुक्तः संनिधिोरिति चेत् ? दोषाणामपि गुणोत्सारणप्रयुक्तोऽसावित्यस्तु । अथवं वेदानामपौरुषेयतया गुण-दोषयोरुभयोरप्यभावे तद्धे तुकयोः प्रामाण्याजाती है। यदि ऐसा न माना जायगा तो देह में जो आत्मा का अभेद भ्रम होता है उस में भी सम्यकदर्शनरूप गुण के अभाय से अतिरिक्त दोष का दर्शन न होने के कारण उस के कारणरूप में मिथ्याशान जन्य वासनारूप दोष की कल्पना न हो सकेगी। [इन्द्रिय में भी दोष की तरह गुण की सत्ता भी वास्तविक ] सत्य बात यह है कि इन्द्रिय में जैसे पित्तादिदोष होता है उसी प्रकार नर्मल्य आदि गुण भी होता है अतः यह कहना की शंख में श्वैत्य की प्रमा पित्त दोष के अभाव से ही उत्पन्न हो जाती है उस में गुण अपेक्षित नहीं होता' ठीक नहीं है। यदि यह कहा जाय कि नर्मल्य इन्द्रिय का गुण नहीं है किन्तु इन्द्रियस्त्ररूप ही है' तो यह बात भी ठीक नहीं है, क्योंकि यह बात दोष के विषय में भी कही जा सकती है। जैसे यह कहा जा सकता है कि पित्त भी इन्द्रिय का दोष नहीं किन्तु इन्द्रिय स्वरूप ही है क्योंकि जैसे उत्पन्न होते ही इन्द्रिय में नमल्य देखा जाता है, वैसे ही उत्पन्न होते ही इन्द्रिय में पित्तदोष भी देखा जाता है अर्थात् जैसे इन्द्रियाँ जन्म से ही निर्मल होती है, वैसे ही अनेकों की इन्द्रियाँ जन्म से ही सदोष भी होती हैं। यदि यह कहा जाय कि ' उत्पन्नमात्र इन्द्रिय में नल्य का अनुभव होता है किन्तु दोष का अनुभव नहीं होता' तो यह बात भी दोष और गुण दोनों में परिणतिभेद की स्थिति में समान हैं । अर्थात् इन्द्रिय की निर्मल इन्द्रियरूप में परिणति होने पर जैसे इन्द्रिय के नमल्य का अनुभव होता है उसी प्रकार इन्द्रिय की सदोष इन्द्रियरूप में परिणति होने पर इन्द्रियदोष का भी अनुभव होता है। अथवा परिणतिभेद का यह भो अर्थ हो सकता है कि जैसे वस्तु के यथार्थदर्शनस्वरूप इन्द्रिय की परिणति यानी इन्द्रिय का कार्य होने पर इन्द्रिय का नेमल्य अयगत होता है उसी प्रकार वस्तु के अयथार्थ बोधरूप इन्द्रिय की परिणति होने पर इन्द्रियदोष भी अवगत होता है। [अपौरुषेय वाक्य में अप्रामाण्य की आपत्ति उक्त रीति से विचार करने पर यह कथन कि-'पोकषेय वाक्य में तो बक्ता के गुण से प्रामाण्य की व्यवस्था होती है किन्तु अपौरुषेय वाक्य में दोषाभाष से ही प्रामाण्य होता है - निरस्त हो जाता है क्योंकि अपौरुषेय वाक्य में दोपनिवृत्ति से जैसे प्रामाण्य का संभव है वैसे ही गुणनिवृत्ति से अप्रामाण्य भी संभव हो सकता है। यदि यह कहा जाय कि- गुनिवृत्ति अप्रामाण्य के सम्पादन में समर्थ है यह कहीं उपलब्ध नहीं है तो यह भी कहा जा सकता है कि दोषनिवृत्ति प्रामाण्य के प्लम्पादन में समर्थ है यह कहाँ उपलब्ध है ? यदि इस के उत्तर में लोकव्यवहार में उस की उपलब्धि बतायी जाय तो ऐसा उत्तर गुणनिवृति में अप्रामाण्य सम्पादन के सामर्थ्य के विषय में भी दिया जा सकता है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] [ शासवार्ताः स्त०१०! १५ ऽपामा प्रययोरभावाद् निःस्वभावत्वं स्यादिति चेत् ! पामर ! हन्त । एवं मिथ्यामतिर्सनिपातग्रस्तमात्मानमुपालभस्व, यदमीपामकर्तृकत्वं प्रलपसि | करिष्यामोऽत्र निपुणं चिकित्साम् । ततो यथाक्रम द्वेषाभावस्य रागाभावस्य चाऽचिनामावेऽपि यथा प्रवृत्तिनिवृत्तिप्रयत्नयो राग-द्वेषयोरेव हेतुत्वं तथा दोषाभावस्य गुणाभावस्य चाचिनाभावेऽपि प्रामाण्य-प्रामाण्ययोर्गुणदोषयोरेच हेतुत्वम् ' इति वदन्ति । इत्थं च सर्वज्ञपमायां सम्यग्दर्शनादिगुणापेक्षणादुत्पत्तौ परतस्त्वम्, ज्ञप्तौ तु सर्वज्ञज्ञानप्रामाण्यस्य स्वाश्रयेणैव ग्रहणात् स्वतस्त्वमेव । यदि यह कहा जाय कि-लौकिकवाक्य के अमामाण्य में दोष ही कारण होते हैं। गुणमिवृत्ति उस के प्रति असमर्थ है' तो यह बात भी प्रामाण्य के प्रति गुणों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। अर्थात् यह कहा जा सकता है कि प्रामाण्य के प्रति गुण ही कारण है। दोषनिवृत्ति प्रामाण्यसम्पादन में असमर्थ है। __यहिं यह कहा जाग कि-'गुणों का सन्निधान दोषनिवृत्ति से ही होता है अत: गुण का उपजीव्य होने से दोपनिवृत्ति ही प्रामाण्य की सम्पादक होती है तो यह बात दोष के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। अर्थात् यह कहा जा सकता है कि दोर्षों का सनिधान भी गुणा. भावमूलक होता है अतः दोषसन्निधान का उपजीव्य होने से गुणाभाव ही अप्रामाण्य कर सम्पादक होता है। [अपौरुषेय वेद में निःस्वभावता की आपत्ति] यदि यह आशंका हो कि- वेद को अपौरुषेय मानने पर उस में गुणदोष दोनों का ही अभाव होगा अतः गुणहेतुक प्रामाण्य और दोषहेतुक अप्रामाण्य दोनों के न होने से वेद निःस्वभाष हो जायगा क्योंकि ज्ञान के विषय में शब्द के उक्त दो ही स्त्रभाव होने हैं'-तो इस के सम्बन्ध में व्याख्याकार का कहना है कि उक्त प्रश्न को प्रस्तुत करनेवाला व्यक्ति पामर है, पवं मिथ्याशानरूप सन्निपात से ग्रस्त हैं। अतः उसे इस आशंका का साहस करने के लिये अपने आप को ही उपालम्भ देना चाहिए, क्योंकि वह स्वयं आगम अकर्तृक होने का प्रलाप करता है। व्याख्याकार का कहना है कि उस का यह प्रलाप जिम मिथ्याक्षानरूप. सन्निपान के कारण है उमकी चिकित्सा वे निपुणता से कर देंगे। प्रस्तुत विचार कर उपसंहार करते हुये व्याख्याकार ने विद्वानों के इस कथन का उल्लेख किया है कि जैसे प्रवृत्ति में द्वेषाभाव का एवं निवृत्ति में रागाभाय का अविनाभाव होने पर भी प्रवृत्ति के प्रति रोपाभाघ कारण नहीं होता किन्तु राग ही कारण होता है एवं निवृत्ति में रागाभाय कार नहीं होता किन्तु स ही कारण होता है उसीप्रकार प्रामाण्य में दोषाभाय का पयं अप्रामाण्य में गुणाभाय का अविनाभाव होने पर भी प्रामाण्य के प्रति गुण ही कारण होता है दोषाभाच कारण नहीं होता, पवं अप्रामाण्य के प्रति दोष ही कारण होता है गुणाभाष कारण नहीं होता। उक्त रीति से विचार करने पर यह सिद्ध होता है कि सर्यक्ष की प्रमा में सम्यगदर्शन आदि गुण की अपेक्षा होने से उसकी उत्पत्ति तो परतः अर्थात् ज्ञानसामान्य के हेतु से अति. रिक्त हेतु से होती है किन्तु प्रमात्यरूप से उस की शान्ति स्वतः होती है क्योकि सर्वश के मान में विद्यमान प्रामाण्य, अपने आश्रयभूत सर्वज्ञशान से ही गृहीत होता है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दीविवेचन] [४९ अत्र प्रामाण्यज्ञप्तौ स्वतस्व-परतस्त्वयोर्वादिनां विप्रतिपत्तिः । तत्र 'प्रामाण्यं स्वाश्रयेणेव गृह्यते' इति प्राभाकराः; 'स्वानुव्यवसायिना' इति मुरारिमिश्राः; 'स्वजन्यज्ञाततालिङ्गकानुमित्या' इति भाटाः । इत्थं च स्वतस्त्ववादिनामामा प्याऽग्राहक-यावज्ञानग्राहकसामनीग्राह्यत्वमभिमतम् , परतस्त्ववादिनां तु नवम् । तत्र ज्ञानस्याऽस्वसंविदितत्वस्य ज्ञाततायाश्च निरासाद मिश्रमतं भट्टमतं चासंभवदुक्तिकम् । [प्रभाकर-मिश्र-भट्ट के मत में स्वतः प्रामाण्य का स्वरूप ] प्रामाण्यज्ञान के स्वतस्त्व-परतत्व के सम्बन्ध में धादियों में मतभेद है। मीमामा के सभी प्रस्थानों में प्रामाण्य की ज्ञप्ति में यधपि स्वतस्य ही माना गया है तथापि उन प्रधानों द्वाग स्वीकृत स्वतस्त्व के स्वरूप में पर्याप्त भिन्नता है। जैसे प्रभाकर प्रस्थान के अनुयायी विद्वानों का कहना है कि प्रामाण्य अपने आश्रयभून शाम से ही गृहीत होता है। मुरारिमिश्र द्वाग प्रतिस्थापित प्रस्थान के अनुगामी विद्वानों का कहना है कि प्रामाण्य अपने आश्रयभूतान के अनुव्यवसाय से गृहीत होता है। तथा कुमारिलभद्र द्वारा प्रतिष्ठापित प्रस्थान के अनुसरणकर्ता विद्वानों का कहना है कि प्रामाण्य अपने अामत हारनामानित होनेवाली स्वाश्रयज्ञान की अनुमिति से गृहीत होता है । तीनों प्रस्थानों के इस विविध स्वतस्त्व को एक शम्न संदर्भ से अभिहित किया जाता है वह शब्द है 'अप्रामाण्याऽग्राहक यावज्ज्ञानग्राहक सामग्रीयाद्यत्व'-इस का अर्थ यह है कि___अप्रामाण्य को ग्रहण न करनेवाली और ज्ञान को ग्रहण करनेवाली जितनी सामग्री होती है उन सभी सामग्रियों से गृहीत होना । इस के अनुसार सभी मीमांसकों का यह मत विदित होता है कि 'जिस शान का ग्रहण उस शान के अप्रामाण्य को ग्रहण न करनेवाली जितनी सामग्रियों से उत्पन्न होता है उस ज्ञान का प्रामाण्य भी उन सभी सामग्रियों से गृहीत होता प्रभाकर और मिश्र के मत्त में लक्षण संगति] प्रभाकर के मत में शान स्वप्रकाश है, उन के मत में ज्ञान की उत्पादक सामग्रो ही ज्ञान की ग्राहक एवं प्रामाण्य की ग्राहक सामग्री है, अतः उसी से झान का प्रामाण्य गृहीत होता है । इसलिये उन के मत में ज्ञानमात्र “अहमिदं घस्नु प्रमिणोमिन्में इस वस्तु की प्रमा का आश्रय हूँ" इसी आकार में ही उत्पन्न होता है। प्रभाकर का यह मत शान त्रिपुटीवाद के. नाम से प्रसिद्ध है। जिस का अर्थ यह है कि प्रत्येक शान; १. शाता, २ विषय और ३ प्रमान्यरूप से अपने ज्ञानस्वरूप इन तीनों को विषय करता है। मुरारि मिश्र के मत में ज्ञान का ग्रहण, ज्ञान का मानसप्रत्यक्षरूप अनुव्यवसाय शान से होता है । अत पय उनकै मत में ज्ञान के मानसप्रत्यक्ष की सामग्री ही अप्रामाण्य की अग्राहक पयं प्रामाण्य की ग्राहक होती है। उस सामग्री ले ही ज्ञान गतप्रामाण्य का ग्रहण होने से उत्स के मत में ज्ञान का अनुव्यवसाय · अहमिदं प्रमिणोमि' इस रूप में ही उत्पन्न होता है । शान तो इदम् अमुकम् वस्तु यह अमुक वस्तु है-इस रूप में ही उत्पन्न होता है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] [ शास्त्रवार्ता० स्त० १०/१५ "ज्ञानधर्मत्वाज्ज्ञानप्रामाण्य स्वत एवं गृह्यताम् ; अन्यथा ज्ञानत्वस्याप्यग्रहप्रसन्मात् । न च प्रामाण्यमयोग्यम्, तद्वति तत्प्रकारकस्वरूपस्य तस्य योग्यत्वात्, प्रकारतादेनिरूपत्वात्" इति प्रभाकरमतमपि न रमणीयम् ; स्वधर्मस्यापि सर्वस्य स्वेनाऽग्रहात् ; अन्यथा सार्वश्यप्रसन्नात् । यदि च प्रामाण्य स्वत एव गृह्यत तदा ज्ञानप्रामाण्यसंशयो न स्यात् , ज्ञानाग्रहे धर्मिज्ञानाभावात् , तद्महे च प्रामाण्यनिश्चयात्, निश्चिते संशयायोगात् । न च निश्चिते ऽपि प्रामाण्ये प्रामाणाऽप्रमाणसाधारणज्ञानत्वदर्शनादेतदुदय इति सांप्रतम् , साधक बाधकप्रमाणाभावमवध्य समानधर्म [भट्ट के मत में स्वतः प्रामाण्य लक्षण संगति] भट्ट के मन में ज्ञान अतीन्द्रिय है, वह न स्वप्रकाश है और न अनुष्यवसायवेध है किन्तु उस के द्वारा विमय में उत्पन्न शातता नामक धर्म से वेध होता है जिसे प्राकटय और संवित्ति शब्द में भी अभिहित किया जाता है।वह प्रत्यक्ष क्योंकि घशादि के साथ-इन्द्रिय सन्निकर्ष होने के बाद घटी हातमप्रकार वासमा के प्रत्यक्ष का होना सर्वविदित है। प्रत्यक्षसिद्ध शातप्ता से ज्ञान की अनुमिति होती है अत: उन के मत में शातता रूप ज्ञानानुमिति की सामग्री ही अपामाण्य की अग्राहक है और ज्ञान की ग्राहक सामग्री है। उस ही ज्ञानगतप्रामाण्य गृहीत होता है। इसलिये उन के मत में ये शातता स्वसमानविशेष्यकस्वसमानप्रकारकशान मन्या शाततात्यात् , अन्यशाततावत यह शातता यदविशेष्यक यत्प्रकारक रूप में ज्ञात होती है, तविशेष्यक समकारक ज्ञान से जन्य है क्योंकि शाततारूप है, जो शातता यविशेष्यक यत्प्रकारकरूप में गृहीत होती है वह तविशेष्यक तत्प्रकारकशान से जन्य होती है जैसे ज्ञानातर की अनुमापिका अन्य शातता । अथवा 'अहम् अमुकविशेष्यकामुकप्रकारकशानवान् अमुकविशेष्यकामुकप्रकारकशाततावत्वात् अकमुविशेष्यक अमुकप्रकारक ज्ञान का आश्रय हूँ क्योंकि अमुकविशष्यक अमुकप्रकारक शातता के प्रत्यक्ष से साध्य उम के व्यवहार का कर्ता हूँ' इस अनुमिति की सामग्री ही अप्रामाण्य की अग्राहक और ज्ञान की ग्राहक सामग्री है। इस सामग्री से ही अनमेय शान में विद्यमान प्रामाण्य का ग्रहण होता है। अतः उक्त मेति में ज्ञान का झानत्वरूप से भान न होकर प्रमान्वरूप से भान होता है। अस एव पहली अनुमिति का आकार 'इयं शातता स्वसमान विशेष्यक-स्वसमानप्रकारक प्रमाजन्या' और दुसरी अनुमिति का आकार 'अहम् अमुकविशेष्यक-अमुकप्रकारक-प्रमावान् ' इस प्रकार होता है। उक्त चर्चा के अनुसार मीमांसा के उक्त तीनों प्रस्थानों की ओर से यह पक्ष प्रस्तुत होता है कि प्रामाण्य, 'अप्रामाण्य की अग्राहक, ज्ञान की ग्राहक यावत् सामना' से ग्राम है और परतस्त्ववादी नैयायिक की ओर से उक्त पक्ष के विपरीत यह पक्ष प्रस्तुत होता है कि प्रामाण्य. अप्रामाण्य के अग्राहक और ज्ञान के ग्राहक यावत सामग्री से प्राय नहीं है। उन का आशय यह है कि उत्पन्नशान का अनुञ्ययसाय तो होता है, किश्त अनुव्यवसाय से गृहीत श्रान में प्रामाण्य-अप्रामाण्य का संशय होने पर उस शान से उत्पन्न प्रवृत्ति के साफल्यबेफल्य से अनुमान द्वारा प्रामाण्य अथवा अप्रामाण्य का ग्रहण होता है, अत: उन के मत में प्रामाण्य' की क्षप्ति में स्वतम्त्व नहीं होता किन्तु परतस्त्व होता है। ___मीमांसा के उक्त तीनों मतों में, मिश्र और भट्ट मत के समर्थन की असंभाव्यता अनायास विदित हो जाती है, क्योंकि ज्ञान में स्थसंविदितत्वरूप स्वप्रकाशव' का अभाव जो मिश्र अनुमि Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ ५१ को मान्य है, एवं भट्ट की विषय में जो शानजन्य ज्ञानता अभिमत है, उन दोनों का निगस युक्तिसिद्ध है । [ प्रभाकर के मत का निरसन ] प्रभाकर का मत है कि प्रामाण्य ज्ञान का धर्म है इसलिये उस का स्वतः ग्रहण होता है । यदि ज्ञान का धर्म होते हुये भी उस का स्वतः ज्ञान नहीं होगा तो ज्ञान के दूसरे धर्म ज्ञानव का भी स्वतः ग्रहण नहीं होगा । फलस्वरूप ज्ञान अज्ञेय हो जायगा । यदि यह कहा जाय कि ज्ञानत्व प्रत्यक्षयोग्य है अतः ज्ञान के प्रण के साथ ही ज्ञानन्व का ग्रहण हो सकता है, किन्तु प्रामाण्य का पहण नहीं हो सकता क्योंकि प्रामाण्य अयोग्य हैं:तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रामाण्य 'तद्वति तत्प्रकारकत्व रूप है। उसका अर्थ है निष्ठ विशेष्यतानिरूपिततन्निष्टप्रकारताकत्व । उस के शरीर में विशेष्य और विशेषणभूत पदार्थ, उन का सम्बन्ध एवं विशेष्यता, प्रकारता और संसर्गता का प्रवेश है। इन में विशेष्यता, प्रकारता और संसगंता ज्ञानरूप है और ज्ञान योग्य होने से उस से अभिन्न ये विशेषताएँ भी योग्य हैं | तथा उक्त प्रामाण्य के स्वरूप में प्रविष्ट विशेष्य, विशेषण और उन दोनों का संसर्ग ये पदार्थ भी योग्य हैं। अतः प्रामाण्य के शरीर में किसी अयोग्य का अन्तर्भाव न होने से प्रामाण्य को अयोग्य नहीं कहा जा सकता, वह अपने पूर्णस्वरूप से योग्य है । अत: उस का स्वतः ग्रहण ही न्याययुक्त है 1 किन्तु व्याख्याकार की दृष्टि में प्रभाकर का यह मत समीचीन नहीं क्योंकि सभी स्वधर्म का स्व से ग्रहण नहीं होता । यदि सभी स्वधर्म का स्त्र से ग्रहण माना जायगा, तो प्रत्येक ज्ञान में साक्ष्य सर्वप्राहिता की आपत्ति होगी। कहने का आशय यह है कि जो कोई ज्ञान उत्पन्न होता है उस के स्वगत धर्मों में समूचा विश्व आ जाता है क्योंकि विश्व की बहुत भी वस्तुएँ ज्ञान का अनुवृत्त धर्म होती है जो ज्ञान में आश्रित होती हैं और उन से भिन्न विश्व की समस्त वस्तुएँ उस ज्ञान का व्यावृत्त धर्म होती हैं। इस प्रकार अनुवृत्त-व्यावृत्त रूप से सारा विश्व प्रत्येक ज्ञान का धर्म होता है। अतः यदि अपने को अपने समस्त धर्मों का ग्राहक माना जायगा तो प्रत्येक ज्ञान में सर्वग्राहकता की प्रति होगी । [ स्वतः प्रामाण्य मत में संशय की अनुपपत्ति ] के साथ दूसरी बात यह है किं प्रामाण्य का यदि स्वतः ग्रहण होगा अर्थात् ज्ञान के ग्रहण ही प्रामाण्य का ग्रहण होगा तो ज्ञान में प्रामाण्यसंशय न हो सकेगा, क्योंकि ज्ञान की अग्रह दशा में ज्ञानरूप धर्मी का ही ज्ञान न होने से उस में प्रामाण्य का संशय न हो सकेगा क्योंकि संशय में धर्म का ज्ञान कारण होता है और ज्ञान का ज्ञान होने पर उस के साथ ही प्रामाण्य का निश्रय हो जाने से प्रामाण्य का संशय न हो सकेगा, क्योंकि संशय में समानधर्मिक समानप्रकारक निश्चय प्रतिबन्धक होने से निश्चित अंश में संशय का उदय नहीं होता । यदि यह कहा जाय कि-' ज्ञान में प्रामाण्य का निश्रय होने पर भी प्रमाण अप्रमाण दोनों में विद्यमान ज्ञानत्वरूप साधारणधर्म के दर्शन से प्रामाण्य के संशय का उदय हो सकता है' - ती यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि साधकप्रमाण एवं बाधकप्रमाण के अभाव की उपेक्षा कर यदि साधारणधर्म के दर्शनमात्र से ही संशय की उत्पत्ति मानी जायगी ती संशय का कभी उच्छेष ही नहीं होगा क्योंकि प्रमिशान और साधारणधर्मदर्शनप्रयुक्त कोटिइय का ज्ञान प्रत्येक ज्ञान की उत्पत्ति दशा में अनिवार्यरूप से सन्निहित रहेगा। जैसे, पुरोवर्त्तिधर्मी का ज्ञान तथा पुरोयर्ती में स्थाणुत्व और स्थाणुत्वाभाव के समानाधिकरण ऊर्ध्वत्व धर्म का दर्शन होने पर, Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रया"० स्त० १०/१५ दर्शनादेव संशयोदये तदनच्छेदप्रसकात् । अथ निश्चितेऽपि प्रामाण्ये दोषात् तत्संशयः तस्योत्तेजक्रस्थानीयत्वादिति चेत् ? किमर्थमेषा कल्पना ? । 'प्रामाण्यग्रहहेतुसमाजोपनिपातान्यथानुपपत्त'रिति चेत् ! न, स्वाऽमाकाश्ये प्रकाश्यवटितसंबन्धेनावृत्तित्वादिरूपे प्रमेयाव्यभिचारित्वलक्षणे प्रामाण्ये विषयांशेऽभ्यासाबक्षयोपशमव्यङ्ग्यत्वादनभ्यासत्शायां प्रामाण्यग्रहसामग्यसिद्धेः। यत्र च स्वाशे प्रामाण्यग्रहसामग्री स्वजनकक्षयोपशमसामग्रचन्तर्गता तत्र भवत्येव सदा प्रामाण्यग्रहः; अत एवं स्वाशे न क्वापि प्रामाणाऽपमाणविभागः; किन्तु विपयांश एव । तदुक्तम्--[ ___"भावप्रमेया पेक्षायां प्रमाणाभासनिहवः । बहिष्प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते ॥१॥ इति पुगोवर्ती में स्थाणु और स्थाणु घाभाव के मंशय उत्पन्न होने के बाद, जब स्थाणु अधया स्थाणुभिन्नपदार्थ के विशेषधर्म का दर्शन होता है तव पुरोघर्ती में स्थाणुत्व या स्थाणुत्वाभाव का निश्चय हो जाता है। उस समय भी मिशान और एक कोटि का निश्चय तथा अन्य कोटि का मानसज्ञान सन्निहित रहता है। क्योंकि अयं स्थाणुः' यह निश्चय धर्मिज्ञान और स्थाणुत्वशान. रूप है जो द्वितीयक्षण तक रहता है एवं उक्त निश्चय स्थाणुत्वरूपप्रतियोगि के ज्ञानस्वरूप होने से द्वितीयक्षण में स्थाणुल्वाभाव का स्मरण अथवा मानसशान हो सकता है। अतः उक्त निश्चय के द्वितीयक्षण में स्थाणुल्त्र और स्थाणुन्याभाव के संशय की सामग्री अक्षुण्ण हो जाती है, क्योंकि साधकप्रमाण और बाधकप्रमाण के अभाव-निश्चय को संशय का कारण न मानने से उस समय संशय के किसी कारण का अभाष नहीं रहता, फलतः एककोटिनिश्चय के तीसरे क्षण में मंशय की उत्पत्ति अनिवार्य हो सकती है। यह तो हुई शानान्य धर्मी में प्रामाण्याति. रिमधर्म के मंशयानुच्छेद की आपत्ति की बात । ठीक इसी प्रकार ज्ञान में प्रामाण्य मंशय के अनुच्छेद की आपत्ति होगी क्योकि झान में प्रामाण्य, अप्रामाण्यरूर दोनों कोटियों के साधारण धर्मशान से कोटिय की उपस्थिति होने से प्रामाण्य अथवा अप्रामाण्य के निश्चयकाल में भी संशय की सामग्री का सन्निधान हो सकेगा । [प्रामाण्य निश्चय होने पर भी संशय होने की उपपत्ति--आशंका ] यदि यह कहा जाय कि-प्रामाण्य का निश्चय होने पर भी दोष से प्रामाण्य-अप्रामाण्य का मंशय हो सकता है क्योंकि दोष उत्तेजक के रूप में संशयोत्पत्ति का प्रयोजक हो सकता है । आशय यह है कि___तदभावप्रकारकबुद्धि में दोषाभावविशिष्टतत्प्रकार कनिश्चय, एवं नत्प्रकारकबुद्धि में दोराभात्रविशिष्ट तदभावप्रकारकनिश्चय को प्रतिबन्धक मानने पर, तत् और तदभात्र दोनों में किसी एक का निश्चय रहने पर दूसरे की बुद्धि उस दशा में हो सकती है जब दूसरे के भासक दोप का सन्निधान हो । अतः अप्रामाण्य के भासक दोष के विद्यमान रहने पर प्रामाण्यनिश्चय होने पर भी अप्रामाण्यप्रकारफ संशय हो सकता है। उस रीति से प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव की कल्पना अत्यावश्यक है। क्योंकि शानग्राहकसामपी के समय प्रामाण्यग्रह के भी सम्पूर्ण हेतुओं का सन्निधान हो जाता है। और इस सन्निधान के अनन्तर ज्ञान में प्रामाण्य और अप्रामाण्य का संशय भी होता है। इन दोनों बातों की उपपत्ति तभी हो सकती है जब ज्ञानग्रह के साथ शान में प्रामाण्यनिश्चय की उत्पत्ति मानी Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ ५३ जाय और अप्रामाण्यग्रह के प्रति प्रामाण्यनिश्चय की प्रतिबन्धकता में अप्रामाण्यभासक दोष को उत्तेजक माना जाय, क्योंकि ज्ञानग्रह के समय प्रामाण्यनिश्चय की उत्पत्ति न मानने पर उस के पूर्व प्रामाण्यग्रह के सम्पूर्ण हेतुओं के सन्निधान की उपपत्ति न होगी और अप्रामाण्यग्रह के प्रति प्रामाण्यनिश्चय की प्रतिबन्धकता में दोष को उत्तेजक न मानने पर ज्ञानग्रह के समय प्रामाण्यनिश्रय की उत्पत्ति होने पर उस के अनन्तर ज्ञान में प्रामाण्य- अप्रामाण्य का मंशय उपपन्न न होगा | [ अभ्यास के विना ग्रामाण्य निश्चय का अभाव - उत्तर ] तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रमेय का अध्यभिचारित्व प्रामाण्य है। ज्ञान में प्रमेय का अव्यभिचारित्व प्रकारतायच्छेदक सम्बन्ध से प्रमेयाभाव के अधिकरण में प्रमेयनिष्ठ प्रकारता निरूपित स्वीय विशेष्यता सम्बन्ध से अवृत्तित्व रूप है। इस की कुक्षि में प्रविष्ट प्रमेयाभावाधिकरण स्वप्रकाश्य नहीं है और इस की कुक्षि में प्रविष्ट प्रमेयनिष्ठप्रकारता निरूपित स्त्रीय विशेष्यता रूप सम्बन्ध ज्ञानस्वरूप होने से स्वप्रकाश्य प्रकारताविशेष्यता पवं ज्ञानात्मक स्त्र से घटित है । जैसे " इदं रजतम' यह प्रमात्मक शान रजतत्वरूप प्रमेय का अभ्यभिचारी है, क्योंकि रजतत्व निप्रकारता के अवच्छेद की भूतसमप्राय सम्बन्ध से रजसत्य के अभाव का अधिकरण जो शुति है जो किं इदं रजतम' इस ज्ञान से अप्रकाश्य है, उसमें पिता सम्बन्ध से वह ज्ञान अवृत्ति है । उस ज्ञान में विश्रमान उक्तप्रमात्व के शरीर में 'अस्त्रप्रकाश्य' शुक्ति का प्रवेश है और उस की कुक्षि में प्रविष्ट सम्बन्ध में प्रकारता विशेष्यता पत्र उक्त प्रमशानात्मक स्व का प्रवेश है। इस प्रामाण्य के कलेवर जो रजतत्वादि विषय प्रविष्ट हैं उस अंश में यह प्रामाण्य अभ्यासरूप क्षयोपशम से व्यय होता है । अतः अनभ्यास दशा में प्रामाण्यग्रह की सामग्री का सन्निधान नहीं हो सकता क्योंकि प्रामाण्य के शरीर में प्रविष्ट fueria का व्यञ्जक अभ्यासरूप क्षयोपशम अनभ्यास दशा में नहीं रहता । कहने का अभिप्राय यह है कि ज्ञानग्रह के समय प्रामाण्यनिश्चय तभी होता है जब प्रामाण्य के शरीर में प्रविष्ट विषयों का अभ्यासरूप क्षयोपशम विद्यमान रहता है और जब वह विद्यमान होता है तब ज्ञानग्रह के समय प्रामाण्यनिश्रय हो जाने से उस के अनन्तर अप्रामाण्य संशय की उत्पत्ति नहीं होती । अप्रामाण्य संशय की उत्पत्ति तभी होती हैं जब प्रामाण्य की कुक्षि में प्रविष्ट विषय का अभ्यासरूप क्षयोपशम नहीं होता और जब वह क्षयोपशम नहीं होता तब ज्ञानग्रहकाल में प्रामाण्य का निश्चय नहीं होता । अतः प्रामाण्यनिश्रय के रहते अप्रामाण्यसंशय की उत्पत्ति प्रामाणिक न होने से उस की उपपत्ति के लिये अप्रामाण्यग्रह के प्रति प्रामाण्यनिश्चय की प्रतिबन्धकता में दोष को उत्तेजक मानना अनावश्यक है। इस विचार से प्रामाण्य के स्वतस्तव परतस्त्व के सम्बन्ध में जैन दर्शन की यह दृष्टि स्पष्ट होती है कि प्रामाण्य की शप्ति में प्रकान्तरूप से मीमांसकों के समान न स्वतस्त्व ही है और न नैयायिकों के समान परतस्त्व दी है क्योंकि अभ्यस्त अर्थ को ग्रहण करनेवाले ज्ञान का प्रामाण्य स्वतोप्राय है और अनभ्यस्त अर्थ के ज्ञान का प्रामाण्य परतोग्राम है । इसीलिये जैनदर्शन की यह महनीय मान्यता है कि जहां ज्ञानांश में प्रामाण्य की ग्राहिका सामग्री, ज्ञान के उत्पादक क्षयोपशम की सामग्री में अन्तःप्रविष्ट होती है वहाँ ज्ञानग्रह के साथ स्थांश में प्रामाण्यग्रह सदा होता ही है. इसीलिये कहीं भी ज्ञानांश में प्रमाण- अप्रमाण Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] [शास्त्रबार्ता० स्त० १०/१५ नैयायिकनये तु स्यादप्ययं दोषः, पुरोवर्तिविशेष्यत्वस्य रजतत्वादिप्रकारत्वस्य चानुव्यवसायप्राह्यत्वाभ्युपगमात् , पुरोवर्तिन इदंत्वेन रजतत्वादिनाप्युपनयवशात् भानसंभवात् , विशेष्यत्वादेरनुपस्थितस्याऽप्रकारस्वेऽपि विशेप्यतया रजतादिमत्त्वे सति पकारितया रजतत्वादिमत्त्वस्य प्रामाण्यस्य सुग्रहत्वात् । न चेदंत्ववैशिष्ट्यं पुरोब तिनि न भासत इति वाच्यम् विशेप्यतायां पुरोवर्तिनः स्वरूपतो भानानुपपत्तेः, तादृशविशेषणज्ञानाभावात् , समानाकारविषयक ज्ञानस्यैवोपनायकत्वात् ; यद्विशेष्यकयत्प्रकारकज्ञानत्वावच्छेदेन प्रामाण्यसंशयस्त धर्मविशिष्टं तत्प्रकारक एव संशय इति नियमात्, प्रकृते प्रामाण्यसंशयोत्तरं 'रजतमिदं नवा' 'द्रव्यं रजतं नवा' इत्याद्यनियमापोहेन 'इदं रजतं नवा' इत्येवका विभाग नहीं होता किन्नु विषयांश में ही प्रमाण-अप्रमाण का विभाग होता है । कहा भी गया है कि 'भावात्मक प्रमेय (ज्ञानांश) की अपेक्षा से प्रमाणाभास का अपलाप होता हैं और बानप्रमेय की अपेक्षा से प्रमाण पवं प्रमाणाभास दोनों होते हैं।' इस कथन में भावात्मक प्रमेय का तात्पर्य शान में है और बाह्यप्रमेय का तात्पर्य मानभिन्न रजतादि में है। इस कथन का सारांश यह है कि शान स्वांश में सदा प्रमाण ही होता है, कभी अप्रमाण नहीं होता, और विषयांशा में कमी प्रमाण और कभी अप्रमाण होता है। [नैयायिक के मत में संशयानुत्पत्ति का दोष] नैयायिक के मत में ज्ञान में प्रामाण्यसंशय की अनुत्पत्तिरूप दोष संभव है क्योंकि उन के मत में पुरोवर्ती रजत में रजप्तत्व का ज्ञान होने पर उस शान के अनुव्यवसाय से उस शान में विद्यमान प्रामाण्य का ग्रहण हो सकता है, क्योंकि पुरोवर्ती में जो जतत्वज्ञान होता है उस में विद्यमान प्रामाण्य 'पुरोतिरजतविशेष्यक रजतत्त्वप्रकारकज्ञानत्य 'रूप है। इस की कुक्षि में प्रविष्ट विशेप्यता, प्रकारता और ज्ञानत्व तीनों न्यायमतानुसार अनुव्यवसाय से प्राय है और पुरोयी वस्तु दिव और रजतत्यरूप से उपनय सन्निकर्ष से वेध है. पयं रजतत्व स्वरूपन: उपनयवेध है। कहने का आशय यह है कि पुरोत्री में रजतत्वज्ञान का अनुव्यवसाय से एरोवतिरजतविशेष्यक रजतत्वप्रकारक ज्ञानत्यरूप से ग्रहण करता है । उस में विशेष्यता, प्रकारता और ज्ञानत्व का लौकिक ज्ञान होता है तथा पुरोवर्तिरजत का एवं रजतत्य का उपनीत भान होता है। इस प्रकार न्यायमत में ज्ञानगतप्रामाण्य, बान के अनुव्यवसाय से ही विदित होता है । अतः असुव्यवसित कान में प्रामाण्य का संशय नहीं हो सकता। प्रामाण्यज्ञान में विशेष्यतादि का ज्ञान सम्बन्धरूप से] यद्यपि यह प्रश्न हो सकता है कि-'प्रामाण्य की कुक्षि में विशेष्यता एवं प्रकारता प्रकाररूप से प्रविष्ट होती है अतः प्रामाण्यज्ञान में प्रामाण्यघटक प्रकारता और विशेष्यता का प्रकार रूप में ही भान होना आवश्यक है। किन्तु यह ज्ञान के अनुव्यवसाय में संभव नहीं है क्योकि तत्प्रकारकबुद्धि मे तद विषयक ज्ञान के कारण होने से प्रकारता-विशेष्यता को प्रकाररूप में ग्रहण करनेवाले कान के पूर्व प्रकारता-विशेष्यता का शान अपेक्षित है, जो शान के जन्म काल में नहीं रहता अतः ज्ञानग्रहकाल में प्रामाण्य ग्रह कैसे संभष हो सकता है ?'किन्तु इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि रजतषिशेव्यक Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन रमतत्वप्रकारकशान में विद्यमान प्रामाण्य, विशेष्यतासम्बन्ध से रजतवत् में प्रकारिता सम्बन्ध से रजतत्यवत्वाप है। अत: प्रामाण्य के शरीर में विशेष्यता-प्रकारता का प्रकाररूप से प्रधश न होकर सम्बन्ध रूप से प्रवेश है । इसलिये प्रामाण्य के ज्ञान में विशेष्यता और प्रकारता का सम्बन्धरूप से ही भान होता है । अतः उस भान से पूर्व विशेष्यता और प्रकारता का शान अपेक्षित नहीं है, क्योंकि तत्संसर्गक शान में तविषयकमान कारण न होने से अनुपस्थित अर्थ का भी संसर्गरूप में भान हो सकता है । अत पच जानजामकाल में विशेष्यता और प्रकारता का ज्ञान न रहने पर भी नसर्गरूप में उन दोनों से घटित उक्त प्रामाण्य का, शान के अनुव्यवसाय में भान होना सुकर है। इस आपत्ति के परिहारार्थं नयायिक की ओर से यदि यह कहा जाय कि-'पुरोतिरजतविशेष्यक रजतप्रकारकज्ञान के अनुव्यवसाय में पुरोवर्ती में दन्य शिष्य का भान नहीं होता है किम्मु पुरोवर्ती का विशेष्यता अंश में वृत्तिस्य सम्बन्ध अथवा ज्ञानांश में विशेष्यता सम्बन्ध से पुरोवर्ती का स्वरूपतः भान होता है जब कि प्रामाण्य के शरीर में पुरोध स्वरूपतः प्रविष्ट न होकर इदन्त्यरूप से प्रषिष्ट होता है । अत: ज्ञान के अनुव्यवसाय में प्रामाण्य का भान न होने से उस के अनन्तरज्ञान में प्रामाण्यमंशय की उत्पत्ति में कोई बाधा नहीं है'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि विशेष्यता में वृत्तित्व सम्बन्ध से अथवा शान में विशेष्यता सम्बन्ध से पुरोघर्ती का स्वरूपतः भान नहीं हो सकता, क्योकि पुरोतिविषयक ज्ञान के जन्मकाल में विशेषणभूत पुरीवर्ती का म्यरूपतः ज्ञान नहीं है। इदन्त्वरूप से पुरोघर्ती के ज्ञान द्वारा स्वरूपतः पुरोघरी का उपनयज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि समानाकारविषयक ज्ञान ही उपनायक होता है। आशय यह है कि एक ही विषय का कभी स्वरूपतः ज्ञान होता है और कभी किसी धर्म द्वारा ज्ञान होता है। जैसे पुरोधी में रजतत्व का कभी इदं रजतम्' इस प्रकार स्वरूपात: ज्ञान होता है और कभी इजातिमत् इस आकार में जातित्वरूप से होता है । अतः ऐसे द्विविध ज्ञानों की व्यवस्थित उत्पत्ति के लिये यह कार्यकारणभाष माना जाता है कि स्वरूपतः तत्प्रकारकबुद्धि में स्वरूपतः नविषयकशान पर्व तत्तद्धर्मविविएतत्पकारकवुद्धि में तत्तद्रमविशिष्ट तविषयकशान कारण होता है । अतः स्वरूपतः पुरोत्तिविषयक ज्ञान न होने से परोयत्तित्वविशिष्ट में रजतत्वज्ञान का अनव्यवसाय विशेष्यता अंश में अथवा ज्ञानांश में स्वरूपतः पुरोतिप्रकारक नहीं हो सकता । दूसरी बात यह है कि यद्वमविशिष्टविशेष्यक यत्प्रकारकशान सामान्य में प्रामाण्य का संशय होता है, उस से तकर्मविशिष्ट में तत्प्रकारक ही संशय की उत्पत्ति होती है यह नियम है। पुरीबत्तों में रजतत्व को ग्रहण करनेवाले ज्ञान में प्रामाण्यसंशय के अनन्तर 'रजतमिद नवा इस प्रकार रजतत्वविशिष्ट में इदन्त्य का मंशय पथं 'द्रव्य रजतं न घाइस प्रकार द्रलयस्वविशि में रजतन्य का संशय न होकर इद रजतं न वा, इस प्रकार इन रजतत्व का संशय होता है। अत: विभिन्नप्रकारक मंशयों की अनियमित उत्पत्ति का निधकर एकविध नियमित मंशय की उत्पत्ति के लिये जिस संशय में जिस रूप से धर्मी का भान होता है उस के पूर्य उसरूप में ही धर्मी का ज्ञान आवश्यक है। अतः इदं रजतम्' इस शान में प्रामाण्यमंशय के अनन्तर होनेवाले 'इदं रजतं न बा' इस मंशय के लिये 'इदन्यविशिष्ट में रजतत्वप्रकारक' ज्ञानसामान्य में प्रामाण्यसंशय अपेक्षित है और उस संशय के कारणीभूत अनुव्यवसायात्मक धर्मिशान में भी इदन्वरूप से ही धर्मी का भान अपेक्षित है। अत: अनु Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शास्त्रबार्ताः स्त० १०.१५ संशयार्थमिदंत्वेन धर्मिभानावश्यकत्वाच्च । अथ विधेयताशालिनः स्वातन्त्र्येण वैशिष्टयज्ञानेऽनुव्यवसायसामग्या असामर्थ्य करप्यते, व्यवसायस्यैव वा प्रतिबन्धकत्वम् , तद्वद्विशेष्यकतोषस्थितेरुत्तेजकत्वाच्च तत्सत्वे प्रामाण्यमह इति चेत् ? नैतत् कमनीय, गौरवात्, व्यवसायनाशोत्तरं तद्महप्रसङ्गाच्च । अभ्यासस्य प्रामाण्याश्रयज्ञाने प्रामाण्यमणपरिणामहेतुत्वस्यैव कल्पयितुं युक्तत्वात् । न चेदेवम् , स्वप्रकाशवादोपदर्शितदिशा व्यवसायस्यैव क्षणिकत्वाद् नानुव्यवसायेन ग्रह्णमिति कैव कथा प्रामाप्योपस्थितिव्यवहिसस्य तस्य ? इति परिमावनीयम् । - - - - व्यवसाय में पुरोवती का स्वरूपतः भान मानकर अनुव्यवसायात्मक विषयीभूत शान में प्रामाण्यमंशय के उपपादन का प्रयास क्लेश मात्र है । [सामग्री के असामर्थ्य या व्यवसाय के प्रतिबन्धकत्व की शंका ] यदि यह कहा जाय कि अनुम्यवसाय की सामग्री विधेय के स्वतंत्र रूप से होनेवाल सम्बन्धज्ञान में असमर्थ होती है । इसलिये अनुव्यवसाय से प्रामाण्य का ग्रहण नहीं हो सकता। आशय यह है कि अनन्यनसाय आत्मा में छानवशिश्य को विषय करता है इसन्टिये वह ज्ञान में विधेयरूप से प्रमात्य को ग्रहण नहीं कर सकता । वह इसलिय कि ज्ञान में विधेयरूप से प्रमात्व को ग्रहण करनेवाले ज्ञान का आकार 'अमुकविशेष्यकम अमुकप्रकारकशानं प्रमा-अमुक में अमुक का ज्ञान प्रमा है'-३स प्रकार होता है, उस में झान मुख्य विशेष्य होता है जब कि अनुव्यवसाय आत्ममुख्यविशेष्यक ज्ञानप्रकारक होता है, जिस का आकार 'असममुकविशेष्यकामुकप्रकारकशानवान' मैं अमुक में अमुक के वानवाला हूँ' इस प्रकार होता है। अनुव्यवसाय की सामग्री इस दूसरे आकार के ज्ञान को उत्पन्न करने में समर्थ होती है, पहले आकार के शान की उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होती। अत: अतुव्यवसाय को विधेयरूप में विषयक नहीं माना जा सकता, क्योंकि उस में ज्ञान विशेषण है. जब कि विधेय का भान विशेषण में नहीं किन्तु मुख्य विशेष्य में ही होता है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि व्यवसाय स्वयं स्त्र में प्रामाण्यज्ञान का प्रतिबन्धक होता है। अतपय उस का अनुव्यवसाय प्रामाण्य विषयक नहीं हो सकता, क्योंकि अनुव्यवसाय व्यवसाय के रहते ही उत्पन्न होता है । जब कभी व्यवसाय के द्वितीयक्षण में प्रामाण्य की कुक्षि में प्रविष्ट तदवदविशेष्यकत्व की उपस्थिति हो जाती है अथवा व्यवसायकाल में किंवा व्यवसाय के अश्यरहितपूर्वक्षण में तद्वदविशेष्यकाव की उपस्थिति हो जाती है, सब व्यवसाय के तृतीय क्षण में अथवा व्यवसाय के द्वितीयक्षण में व्यवसाय में प्रामाण्यग्रह होता है इसलिये प्रामाण्य ग्रह के प्रति व्यवसायनिष्ठप्रतिबन्धकता में तद्यविशेप्यकत्व की उपस्थिति को उत्तेजक मानकर 'तदक्दाधिशेयकस्व की उपस्थिति के अभाव से विशिष्ट व्यवसाय को प्रामाण्यमह के प्रति प्रतिबन्धक मान कर उस की उपपत्ति की जा सकती है। और जब इस रीति से व्यवसाय में प्रामाण्यग्रहण हो जाता है तत्र व्यवसाय में प्रामाण्य का संशय नहीं होता । बद संशय तभी होता है जब तदवविशेष्यकत्व की उपस्थिति नहीं होती । अत: यह कहा जा सकता है कि अनुव्यवसाय से व्यवसाय में प्रामाण्य ग्रह का नियम न होने से प्रामाण्य का परत: ग्रहण- पश्न युक्तियुक्त है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन [५७ [प्रतिबन्धकत्व की कल्पना में गौरव ] किन्तु यह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि त विशेष्यकत्य की उपस्थिति को उत्तेजक बना कर व्यवसाय में प्रामाण्यग्रह के प्रतिबन्धकन्य की कल्पना में गौरव है । यूसरी बात यह है कि व्यवसाय को प्रामाण्य ग्रह के प्रति प्रतिवन्धक मानन पर सबसायकाल में व्यवसाय में प्रामाण्य ग्रह की आपत्ति का चारण सरन्ट होने पर भी व्यवसाय नाश के उत्तरकाल में व्यवसाय में प्रामाण्यग्रह की आपत्ति होगी क्योंकि व्यवसाय के नृतीय क्षण में विद्यमान अनुव्यवसाय से उपनीत व्यचमाय और प्रामाण्य का विशेष्यविशेषणभाष से शान होने में कोई बाधा नहीं है। फलत: न्यायमत में व्यवसाय के चतुक्षण में व्यवसाय में प्रामाण्य का निश्चय सर्वत्र सम्पन्न हो जाने के कारण अनुव्यवसायविषयीभूत ज्ञान में अनुभव. सिद्ध प्रामाण्यमंशय की अनुपपत्ति अनिवार्य है। उक्त कारण से प्रामाण्य की इमि के विषय में जनदर्शन घी यह मान्यता ही गुझियुक्त है कि प्रामा गय के आश्रयभूत ज्ञान में प्रामाण्यज्ञानरूप परिणाम के प्रति विषयाभ्यासविषय का पुन: पुन: दर्शन ही हेतु है। यदि ऐसा न माना जायगा तो स्वपकाशवाद में प्रदर्शितरीति से व्यवसाय क्षणिक होने के कारण अनुव्यवसाय में है। गृiia न हो सकेगा। फिर यदि वह प्रामाण्य की उपस्थिति से व्यवहित होगा तब तो अनुव्यवसाय द्वारा उस के ग्रहण की यात भी न कही जा सकेगी। आशय यह है कि शान की स्वप्रकाशता का उपपादन करने के प्रमङ्ग में उस की अनुव्यवसायवेद्यता की परीक्षा आवश्यक होती है। परीक्षा के प्रसङ्ग में यह विचार उपस्थित होता है कि व्यवसाय को अनुव्यवसाय से ग्राह्य नहीं माना जा सकता क्योंकि प्रान क्षणिक होता है अर्थात् न्यायमतानुसार ज्ञान अपनी उत्पत्ति के नृतीय क्षण में नष्ट हो जाता है अनः उस का अनुव्यवसाय नहीं हो सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रथमक्षण में उत्पन्न घटज्ञान का 'घ जानामि' इसप्रकार का अनुव्ययमाय नहीं हो सकता क्योंकि यह ज्ञान आत्मा में घटविशेषित ज्ञानवैशिष्टय को विषय करता है अतः उम के पूर्व बटीय ज्ञानम्। इस प्रकार का ज्ञान अपेक्षित है। यह शान भी ज्ञानत्वविशिष्ट में घट के सम्बन्ध को ग्रहण करता है अतः उस से पूर्व विशेषणीभूत घट का और विशेष्यभूत ज्ञान का ज्ञान अपेक्षित है। इन शानों में घरमान प्रथमक्षण में उत्पन्न हो जाता है। दूसरे क्षण में घटीयवान-ज्ञानन्' इस प्रकार झानांश में निर्मितावच्छेदक घटप्रकारकज्ञानात्मक 'शान और ज्ञानत्व का निर्विकल्पक' प्रत्यक्ष होता है । तृतीयक्षण में 'घटीयं ज्ञानं' ऐसा शान होकर चतुर्थक्षण में ही 'घर जानामि' पेमा अनुव्यवसाय संभावित है। किन्तु जब शान अपने तीसरे क्षण में ही नष्ट हो जाता है तब न तो तीसरे क्षण में 'शानं घटीयम्' यह शान और न चौथे क्षण में 'वटं जानामि' यह सान संभावित हो सकता है क्योंकि इन्द्रियसन्निकृष्ट हो एवं विद्यमान हो पेसी घस्तु का ही प्रत्यक्ष होता है। इस स्थिति में यदि तवधिशेष्यकत्व' विषयक उपस्थिति विरह से विशिष्ट व्यवसाय को प्रामाण्यप्रह के प्रति प्रतिबन्धक मान कर व्यवसाय के मनन्तर तद्वदविशेष्यकत्य' की उपस्थिति होने पर अनुन्यवसाय से म्यवसाय में प्रामाण्यज्ञान की बात की जाती है तो यह कैसे संभव हो सकती है !!! Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] [ शासवार्ताः स्त० १०/१५ एतेन वस्तुतः तद्वद्विशेष्यकत्वे सति तत्प्रकारकत्वमानं न प्रामाण्यम् , रजत-शुक्ल्योः 'शुक्तिरजते' इत्यादिज्ञानसाधारण्यात् , किन्तु तदविशेष्यकत्वावच्छिन्नतत्प्रकारकत्वम् , तद्महे चानुव्यवसायसामग्रथा असामर्थ्यम्, व्यवसायो वा प्रतिबन्धकः, विशेषणतावच्छेदकीभूततद्विशेयकस्वज्ञानस्वात्र कारणत्वकल्पनाद् वा न प्रथमानुव्यवसायेन तद्ग्रहः' इति निरस्तम्, तत्प्रकारतावच्छिन्नतद्विशेप्यताकत्वस्य प्रामाण्यत्वेऽविनिगमात्, अनभ्यासे द्वितीयानुव्यवसायेनापि तदग्रहाच्च, [तद्विशेष्यकत्वावच्छिन्नतत्प्रकारकत्वरूप प्रामाण्य लेने पर निर्दोषता की शंका] यदि अनुत्र्यबसाय द्वारा प्रामाण्यग्रह हो जाने से व्यवसाय में प्रामाण्यसंशय की अनुगपत्ति का परिहार करने की दृष्टि से अनुव्यवसाय द्वारा प्रामाण्यग्रह की संभावना के निगस के लिये यह कहा जाय कि प्रामाण्य द्विशेष्यकत्ये सति तत्प्रकारकत्वमात्रस्वरूप नहीं हो सकता क्योंकि प्रामाण्य का यह स्वरूप मानने पर शुक्ति में रजतत्व को और रजत में शुस्तित्व को ग्रहण करनेवाले 'ये शुक्ति-रजत हैं' इस ज्ञान में प्रामाण्य की आपत्ति होगी । अतः प्रामाण्य को तद्वद्विशेष्यकत्यायचिछनतत्प्रकारकत्वरूप मानना आवश्यक है । और उस के ग्रहण में अनुव्यवसाय सामग्री समर्थ नहीं है अश्वा उस के ग्रहण में व्यवसाय प्रतिबन्धक है किंया उत्तप्रामाण्यप्रकारकवुद्धि में तद्विशेष्यकन्यरूप विशेषणतावच्छेदप्रकारकशान कारण है। अतः प्रथम अनुव्यवसाय से प्रामाण्य का शान नहीं हो सकता । कहने का आशय यह है कि सद्विशेष्यकत्यावच्छिन्नतत्प्रकारकत्य का अर्थ है भयच्छिन्नत्य सम्बन्ध से तद्विशेष्यकत्वविशिष्टतत्प्रकारकत्व, क्योंकि अच्छिन्नत्व को विशेषणरूर में प्रामाण्य का घटक माने तो पूर्व में अचच्छिन्नत्य विशेषण का शान न होने से प्रकाररूप में उसे विषय करनेवाले शान की उत्पत्ति न हो सकेगी। प्रामाण्य के उक्तस्वरूप को प्रकाररूप में ग्रहण करनेवाला ज्ञान नविशेष्यकत्वविशिष्टतत्प्रकारकत्व के वैशिष्टय का ग्राहक होता है । अतः विशिष्टपशिष्टच को ग्रहण करनेवाले ज्ञान में विशेषणतावच्छेवकप्रकारक शान कारण ज्ञान के जन्मक्षण या द्वितीयक्षण में तद्वद्विशेष्यकत्वरूप विशेषणतावच्छेदक का ज्ञान न होने के नाते तीसरे क्षण में ज्ञान में उतप्रामाण्य के ग्राहक अनुव्यवसाय की उत्पत्ति नहीं हो सकती। [निर्दोषता की आशंका का निरसन ] तो यह कथन भी निरस्त हो जाता है, क्योंकि सद्विशेष्यकत्व और तत्प्रकारकत्व के विशेष्यविशेषणभाव में कोई विनिगमना न होने से अवच्छिन्नत्व सम्बन्ध से "तद्विशेष्यकत्व. विशिष्ट तत्प्रकारकत्व' के समान उक्त सम्बन्ध से 'तत्प्रकारकत्वविशिष्ट तद्विशेष्यकत्व' को भी प्रामाण्य मानना होगा । फलतः पविष प्रामाण्य का निश्चय होने पर भी अन्य विध प्रामाण्य के संशय की आपत्ति होगी । दोनों को तुल्यसामग्रो से वेध मानकर दोनों के निश्चय की नियम से महोत्पति बता कर उक्त आपत्ति का परिहार नहीं किया जा सकता, क्योंकि पक में तद्विशेष्यकत्वरूप विशेषण के ज्ञान की अपेक्षा है और दूसरे में तत्प्रकारकत्यरूप विशेषण के ज्ञान की अपेक्षा है। उक्त दोनों विशेषणों को नियमत: सहधेच मानकर भी आपत्ति का परिहार नहीं किया जा सकता, क्योंकि उक्त आपत्ति का परिहार संभव होने पर भी नियमतः विविध प्रामाण्य के सहानुभत्र की आपत्ति होगी। इस आपत्ति को इष्टापत्ति नहीं माना जा सकता क्योंकि दोनों का मियत सहानुभव अनुभवविरुद्ध है। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क, टीका-हिन्दीविश्वन कदाचित् प्राक्कोट्यस्मरणादिना विलम्वेऽपि तदुत्तरं संशयदर्शनात् । यत्तु 'एकसंबन्धेन तद्वति संबन्धान्तरेण तत्प्रकारकज्ञानव्यावृत्तं तेन संबन्धन तत्मकारकत्वं प्रामायं दुर्ग्रहम् ' इतिः तदपि मनोरथमात्रम्, व्यवसायेन संबन्धेन रजतत्वादिकं प्रकारस्तेन तद्वतोऽनुव्यवसाये भानात् । यदपि 'इदं रजतम् इति तादात्म्यारोपच्या वृत्तये मुख्यविशेष्यता प्रामाण्ये निवेशनीयेति मुख्यत्वं दुर्गहम् इति; तदपि न, आरोग्याशे प्रमात्वेन मुस्यताया अनिवेशादिति दिग ।। नयायिक के उक्त समाधान में दृसरा दोष यह है कि-जैसे 'प्रथम अनुव्यवसाय में उक्त. प्रामापय का ग्रहण नहीं होता वैसे ही अनभ्यास दशा में द्वितीय अनुव्यवसाय में भी उस का ग्रहण का होगा क्योंकि पूर्व में कोटिस्मरण का अभाव होने से संशय की उत्पत्ति में विलम्ब होने पर भी कोटिस्मरण होने पर द्वितीय अनुव्यवसाय के बाद भी ज्ञान में प्रामाण्य का संशय अनुभवसिद्ध है। कहने का आशय यह है कि प्रथम अनुव्यवसाय से नैयायिक लोग जो शान में प्रामाण्य ग्रह नहीं मानते उस का एकमात्र कारण यही है कि प्रथम अनुव्यवसाय के बाद ज्ञान में प्रामाण्य संशय देखा जाता है अतः यह मानना आवश्यक होता है कि अनुव्यवसाय से प्रामाण्य का यना नहीं होता क्योंकि प्रामाण्य का ग्रहण मान लेने पर उक्त संशय की उपपत्ति नहीं हो सकती । तो जैसे प्रथम अनव्यवसाय के बाद ज्ञान में प्रामाण्य का संशय होने में प्रथम अनुव्यवसाय की प्रामाण्य का ग्राहक नहीं माना जाता वैसे ही द्वितीय अनुव्यवसाय के बाद भी ज्ञान में प्रामाण्य का संभव होने में उसे भी प्रामाण्य का ग्राहक नहीं माना जा सकता । अतः प्रथम अनुव्यवसाय से प्रामाण्य के अग्रहण और द्वितीय अनुध्य. यसाय से प्रामाण्य के ग्रहण की नैयायिकों की मान्यता उचित नहीं हो सकती. क्योंकि 'प्रथम अनुव्यवसाय के बाद ही झान में प्रामाण्य का संशय होता है, हियीय अनुव्यवमाय के बाद नहीं होता नेयायिकों की यह धारणा उक्त कारण से निराधार है। [व्यवसाय में भासमान सम्बन्ध का अनुव्यवसाय में भान अबाधित ] इस सन्दर्भ में नैयायिकों का यह कहना कि-एक सम्बन्ध से तधर्म के अधिकरण में अन्य सम्बन्ध से तद्धर्मप्रकारक ज्ञान में तद्धर्मप्रकारक प्रामाण्य की आपत्ति के धारणार्थ तत्सम्बन्ध से तधर्म के अधिकरण में तत्सम्बन्ध से नद्धमप्रकारकत्य को ही प्रामाण्य मानना होगा। अतः अनुव्यवसाय में तत्सम्बन्ध से तदधिकरण का ग्रहण न हो सकने से उस से उक्तप्रामाण्य का ग्रहण नहीं हो सकता । -ठीक नहीं है क्योंकि व्यवसाय में जिन सम्बन्ध से रजतत्व आदि धर्म प्रकार होता है, अनुव्यवसाय में उस सम्बन्ध से उस धर्म के अधिकरण का भान होता है। नैयायिकों के उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि 'यदि तद्विीप्यकत्वसहित तत्प्रकारकाव मात्र को प्रामाण्य माना जायगा तो शुक्ति में रजतत्वज्ञान भी प्रमाण हो जायगा क्योंकि शुनि. भी कालिक सम्बन्ध से रजतस्थ का अधिकरण है। अतः वह ज्ञान भी रजतत्त्रवशिष्यकबजतत्यप्रकारक है। इस वोष के वारणार्थ समयाय सम्बन्ध सं रजतस्वप्रकारक प्रामाण्य का लक्षण करना होगा 'समवाय सम्बन्ध से रमतत्वविशेष्यकत्वसहित समवायसम्बन्ध से रजतत्त्वप्रकारकत्व' । लक्षण का इस रूप में निबंधन कर देने पर उक्त दोष नहीं प्रसक्त हो १. शान के प्रथम अनुव्यवसाय का अर्थ है, किसी वस्तु के प्रथमोस्पन्न शान का अनुव्यवसाय । २. द्वितीय अनुव्यवसाय का अर्थ है, प्रथम ज्ञात वस्तु के द्वितीय ज्ञान का अनुव्यवसाय । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. ] [ शासवार्ता० स्तः १०/१५ सकता, क्योंकि शुक्ति में रजतन्यसमयाय न रहने से शुक्ति में रजतत्व का ज्ञान समवायसम्बन्ध से रजतत्वयाद्विरक तत्वा कारक नहीं। जय प्रामाण्य का यह स्वरूप बन जाता है तब अनुब्यवसाय मे उसके ग्रहण की सम्भाव्यता समाप्त हो जाती है क्योंकि अनुष्यवसाय व्यवसाय के बाद्य विषयों को ज्ञानलक्षणाप्रत्यासत्ति से व्यवसाय के विशेषणरूप में ही ग्रहण करने में समर्थ होता है, बाय विषयों के परस्पर सम्बन्ध को ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता। अत: उस में रजत में समयाय सम्बन्ध से रजतत्व का भान न होने से यह समवाय सम्बन्ध में ग्जतत्ववद से पनि प्रामाण्य का ग्राहक नहीं हो सकता । नैयायिकों के इस कथन को असंगत बताने वाले व्याख्याकार का आशय यह है कि'व्यवसाय जिस रूप में जिस विषय को ग्रहण करता है उस रूप में ही वह उस विषय को अनुम्यवसाय में उपनीत करता है, ऐसा नियम है, क्योंकि द्रव्यत्य आदि रूपों से गृष्टीत रजत का अनुव्यवसाय में द्रव्यत्व आदि रूपों से ही मान होता है रजतस्वरूप से नहीं होता। अत: अनुन्यबसाय में व्यवसाय के विशेषणरूप में भासित होनेवाले उस बाह्य विषय में, उस वाद्य विषय के उस सम्बन्ध का भान होने में कोई बाधा नहीं है जिस बाह्य विषय में जिस बाय विषय का जो सम्बन्ध ध्यवसाय से गृहीत होता है। कहने का आशय यह है कि अनुय्यवसाय मानम प्रत्यक्षरूप होने से उस में किमी बाद्य पदार्थ का स्वतन्त्र रूप से भान नहीं हो सकता पर व्यवसाय के विशेषणरूप में तथा व्यवसायविशेषण के विशेपणरूप में बाह्य पदार्थ का भान उसी प्रकार हो सकता है जैसे पुष्पमाला में लगा सूत और सूत का घटक अंशु (मत का रेशा) राजा के सिर पर पहुँच जाता है। [मुख्य विशेष्यता का निवेश असंगत ] कुछ नैयायिकों का यह कहना है कि-"शुक्ति में तादात्म्य सम्बन्ध से रजत के आरोप में रजत में रजताय का भान होने से मामाण्य की जो आपत्ति होती है उस के परिहारार्थ तत्प्रकारक प्रामाण्य का लक्षण करना होता है-'तनिष्ठ मुख्यविशेष्यता निरुपित तनिष्ठप्रकारताफत्व'। ऐसा लक्षण करने पर उक्त आपत्ति नहीं होती क्योंकि उक्त आरोप में तादात्म्य सम्बन्ध से गन प्रकार होने से उस में रजतत्व की विशेष्यता मुख्य नहीं है क्योंकि प्रकारता से भिन्न अथवा प्रकारता से अनवच्छिन्न विशेष्यता ही मुख्य होती है । उक्त आरोप में रजतत्य की रजत निष्ठ विशेयता बसी नहीं है क्योंकि पक ज्ञान की समानाधिकरण विषयताओं में अभेद अथवा अवच्छेद्यावच्छेदक भाव होने से उन आरोप में रजतत्व की रजतनिष्ट विशेष्यता शुक्ति की रजतनिष्ठ प्रकारता से अभिन्न अथवा अवभिन्न है और जब उन प्रयोजन से प्रामाण्य के लक्षण में विशेष्यता अंश में मुख्यत्व का निवेश आवश्यक है नव अनुव्यवसाय में प्रामाण्य के ग्रहण की आशा नहीं की जा सकती क्योंकि मुख्यत्व के ग्रहण में अनुव्यवसाय का सामर्थ्य नहीं है।" - किन्तु यह कहना संगत नहीं है, क्योंकि उक्त आरोप शुक्ति में तादात्म्य सम्बन्ध में रमत अंश में ही अप्रमाण है। रजत में समवाय सम्बन्ध से रजसत्व अंश में तो वह प्रमाण ही है अतः प्रामाण्य के लक्षण में विशेष्यता अंश में मुख्यत्म का निधेश आवश्यक न होने से उस के कारण अनुव्यवसाय में प्रामाण्यग्रहण की अक्षमता का समर्थन नहीं किया जा सकता । [अनभ्यास दशा में परतः प्रामाण्य का निश्चय ] उक्त विचार से उपलब्ध निष्कर्ष यह है कि अनभ्यास दशा में ज्ञान में प्रामाण्य का निश्चय परत: होता है । जैसे ममि के शानमात्र से, अर्थात् ऐसे अग्निशान से जिस में प्रामाण्य Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ ६१ तस्मादभ्यासदशायां वह्निज्ञानमात्रतः प्रवृत्तस्य समर्थप्रवृत्युपलम्भात् तयैव लिनेन प्रामाण्य परतो निश्चीयते, निश्चायकस्यानुमानस्य प्रकृतप्रामाण्याश्रयातिरिक्तत्वात् । न चैवं तत्रापि प्रामाण्यग्राहकान्तरापेक्षायामनिष्टापातः कस्यचित् संवादकस्य स्वत एवं प्रामाण्यनिश्चयेनोपरमात् । ततश्चाभ्यासदृशायां तज्जातीयज्वलनोपलम्भे तदाहित क्षयोपशमा लिङ्गाद्यनपेक्षतया स्वत एव प्रामाण्यनिश्चय इति विवेकः । दृश्यते च प्राग् लिङ्गाद्यपेक्षतया निश्चितस्यापीष्टसाधनतादेः स्वाश्रयनिर्मासिज्ञानेऽभ्यासाहितक्षयोपशमपाटवात् तदनपेक्षतत्रापि साक्षादनुभवः । स्मृतित्वं च तत्रानुभवबाधितम् । प्राक 1 का निश्चय नहीं है, मनुष्य जब अभि को प्राप्त करने में प्रवृत्त होता है तथा अभि के प्राप्त होने से उस की प्रवृत्ति का साफल्य ग्रहीन हो जाता है, तब सफलप्रवृत्तिलिङ्ग से उस के जनक ज्ञान में प्रामाण्य का निश्चय परतः होता है, क्योंकि प्रामाण्य का ग्रहण जिस अनुमान से होता है वह प्रामाण्य के आश्रयभूत ज्ञान से भिन्न है और प्रामाण्य के आश्रयभूत ज्ञान से भिन्न हो ऐसे ज्ञान से गृहीत होना इसी को पस्तः ग्रहण कहा जाता है। यदि यह कहा जाय कि'अभिज्ञान में अनुमान से प्रामाण्यज्ञान मानने पर उस अनुमान में भी किसी अन्य अनुमान से प्रामाण्यज्ञान मानना होगा, एवं उस में प्रामान्यज्ञान के लिये अनुमानान्तर की अपेक्षा होगी । फलतः परतः प्रामाण्यग्रहण का पक्ष अनवस्थाग्रस्त हो जायगा जो एक अनिष्पत्ति है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि किमी संवादक- प्रामाण्यग्राही ज्ञान में स्वतः प्रामाण्य का निश्चय होने से अनवस्था का उपरम हो सकता है । [ परतः प्रामाण्यग्रहण में अनवस्थादोष निरवकाश ] आशय यह है कि अनवस्था तभी हो सकती है जब सभी शानों में प्रामाण्य जिज्ञासित हो किन्तु सभी थानों में प्रामाण्य जिज्ञासित नहीं होता क्योंकि प्रामाण्य की जिज्ञासा उसी ज्ञान में होती है जिस में प्रामाण्य का ज्ञान स्वतः नहीं होता, इसलिये प्रामाण्य ग्रहण के सम्बन्ध में fasant दृष्टि यही है कि अनभ्यासदशापन्न ज्ञान में प्रामाण्य का शान परतः यानी सफलप्रवृत्तिरूप लिङ्ग से होता है और अभ्यासदशापान में प्रामाण्य का ज्ञान स्वतः ज्ञानावरणीय कमें के क्षयोपशमात्र से होता हैं । इस बात को इसप्रकार समझा जा सकता है कि किसी अशिकामी मनुष्य को दूर से अभि का प्रथम उपलम्भ होने पर उसे यह सन्देह होता है कि यह अभिज्ञान प्रमाण है अथवा अप्रमाण । फिर एककोटिक निश्चय पर पहुँचने की इच्छा से वह अभि के समीप जाता है, यदि उसे अग्नि की प्राप्ति होती है तो उसे अपने अभिज्ञान में प्रामाण्य का अनुमान होता है कि 'मेरा वह अभिज्ञान जिस में मुझे प्रामाण्य, अप्रामाण्य का सन्देद हुआ था, प्रमाणभूत ज्ञान है क्योंकि उस ज्ञान से अग्नि पाने की जो मेरी प्रवृत्ति हुई वह सफल हो गई, मुझे अग्नि की प्राप्ति हो गयी । किन्तु कालान्तर में जब उसे किसी अन्य अग्नि का उपलम्भ होता है तब उसे उस उपलम्भ में प्रामाण्य निक्षय सत्वर हो जाता है, क्योंकि अभ्यास से अग्निज्ञान का जनक ऐसा 'ज्ञानावरणीय कर्म का जो क्षयोपशम' हुआ रहता है वही उस उपलम्भ में प्रामाण्य का निश्चय कराने के लिये पर्याप्त होता है, उस के लिये किसी लिङ्ग आदि अन्य हेतु की अपेक्षा नहीं होती, क्योंकि अग्नि को दूसरी बार देखनेवाला मनुष्य यह सोच लेता है कि जिस अग्नि के उपलम्भ में उसे प्रामाण्य का निश्चय हो चुका है, यह उपलम्भ भी उसी अग्नि के सजातीय अग्नि का ही तो उपलम्भ है, अतः निश्चय ही यह प्रमाणभूत उपलम्भ है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शाम्रधाः सत१०२५. तदुपस्थितिरपि तत्राऽतन्त्रम् , क्षयोपशमेन ज्ञानप्रत्यासत्य यथासिद्धेः, तथाविधोपस्थित्यादिनियामकादेव कार्यनियमसिद्धेः “तद्धतोः" इत्यादिन्यायात् । अत एव श्रुतनिश्रितादिमतिज्ञानव्यवस्थापि संगता, तत्र श्रुतानुसारानपेक्षणादित्यन्यत्र विस्तरः । अथ झटिति प्रचुरा च तथाविधा प्रवृत्तिरन्यथानुपपद्यमाना स्वतःभामा प्वज्ञमिमाक्षिपतीति वेत ? न, अन्यानोपपरियोपरताज्ञानादेझटिति सिद्ध्यादिनैव झटिति प्रवृत्त्यादिसंभवात् , तत्र प्रामाण्यग्रहस्य क्वचिदष्यनुपयोगात् , उपयोगे वा 'स्वतः' इति पक्षपाताऽयोगात् । [अभ्यास दशा में इष्टसाधनता बुद्धि की प्रामाण्यग्रह में समानता] यह ज्ञातव्य है कि अभ्यासदशापन्न झान में उक्त रीति से प्रामाण्य निश्चय की कल्पना कोई नितान्त नधीन कल्पना नहीं है, क्योंकि इष्टसाधनता के अनुभव का इसी रीति से उदय देखा जाता है। जैसे किसी वस्तु में अन्वय-व्यतिरेक आदि लिङ्ग से इष्टसाधनता का अनुभव होने के अनम्तर उस वस्तु को देखते ही उस में इष्टसाधनता का अनुभव उस अनुभराभ्यास से उत्पादित श्नयोपशम से ही हो जाता है। वहाँ अन्वयव्यतिरेक आदि लिङ्ग की अपेक्षा नहीं होती। तो जैसे पूर्व में लिङ्ग आदि से गृहीन होनेवाली इष्टसाधनता का अनुभव कालान्तर में इधमाधनीभूत वस्तु का ज्ञान होते ही स्वत: हो जाता है, वैसे ही, पहले प्रामाण्य ज्ञान में लिङ्ग की अपेक्षा होने पर भी बाद में उस की अपेक्षा के बिना ही प्रामाण्य ग्रहण के आवरण के अभ्यासोत्पादित क्षयोपशममात्र से ही प्रामाण्य निश्चय की भी उत्पत्ति हो सकती है। [कालान्तरमावि इष्टसाधनता का निश्चय अनुभवरूप ] यदि यह कहा जाय कि-' पूर्व में लिङ्ग से गृहीत इष्टसाधनता का कालान्तर में लिङ्ग की अपेक्षा किये बिना ही जो निश्चय उत्पन्न होता है वह अनुभव नहीं है किन्तु स्मृति है, '-तो यह टीक नहीं है, क्योंकि उस निश्चय का अनुभवत्वरूप से ग्रहण होता है, अतः उम में स्मतित्व बाधित है । इस सन्दर्भ में यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'पूर्शनुभूत इष्टसाधनता की स्मृतिरूप मानलक्षणाप्रत्यासत्ति से कालान्तर में इश्साधनसा का अनुभव होता है क्योंकि क्षयोपशम के विना स्मृति का भी उदय न होने से पूर्ववर्ती क्षयोपशम से स्मृतिरूप शानलक्षणाप्रत्यासति अन्यथासिद्धि है, क्योंकि 'ततोरेन सम्भये किं तेन जिस के हेतु मात्र से ही जो कार्य संभव है उस कार्य में उसकी खुद की क्या अपेक्षा ?' इस न्याय के अनुसार स्मृतिरूप ज्ञानप्रत्यासत्ति के हेतु क्षयोपशम से सम्माधित इटसाधनसा के अनुभव में उस से होनेवाली स्मृति को हेतु मानना असंगत है। उक्त न्याय के अनुसार ही *श्रुतनिश्रित-अश्रुतनिश्रित आदि मतिज्ञानों की भी व्यवस्था मंगत होती है, क्योंकि अभ्यास के बाद तत्सविषयक मतिशान में श्रुत की अपेक्षा नहीं होती, यह बात अन्यत्र विस्तार से णित है। यदि यह कहा जाय कि-दछित वस्तु का शान होने पर उसे प्राप्त करने के लिये मनुष्य की त्वरित बलवती प्रवृति होती है. यह प्रवृत्ति इष्ट अस्तु के ज्ञान में स्वतः प्रामाण्यनिश्चय के यिना अनुपपन्न है, क्योंकि प्रामाण्य को परत: ग्राह्य मानने पर प्रवृत्ति का त्वरित उदय नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त प्रवृत्ति की उपपत्ति प्रकारान्तर से हो सकती * अननिश्रित:-श्रुतशान के आधार से होनेवाले मतिज्ञान को श्रुतनिश्रित कहा जाता है, जो मतिज्ञान श्रुतावलम्भि नहीं होता उसे अश्रुतनिश्रित कहा जाता है । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] 1 स्वादेतद् अनभ्यासदशायां प्रामाण्यसंदेहादपि प्रवृत्तेः किं प्रामाण्यनिश्चयप्रयोजनम् ? इति । तत्र वदन्ति तद्विपयसंशयापगम एव प्रयोजनम् इति कि प्रयोजनान्तरनिरूपणप्रयासेन ! तत्मयोजन किम् ? इति चेत् अभ्यास एव 'संदेहात् प्रवर्तमानस्य कथं प्रेक्षावत्त्वं स्यात्' इति चेत् ? न कथञ्चित्, चाचरणक्षयोपशमाऽऽसादितप्रेक्षावद्व्यपदेशस्यापि संदेहादिदशायां तदभावादतथाच्यपदेशात् । उक्तं च " प्रेक्षवत्ता पुनर्ज्ञेया कस्यचित् कुत्रचित् क्वचित् । अप्रेक्षाकारिताप्येवमन्यत्राशेषवेदिनः ॥ १ ॥ इति । अयं भावः--तृणारण्यादिस्थले बह्नाविव प्रामाण्यसंशय - निश्चयस्थले प्रवृत्तौ विशेषाऽदर्शनाद् विशिष्य प्रवृत्तौ तयोर्हेतुत्वं न कल्प्यते चेत् तथापि पक्षावरणक्षयोपशमभावाऽभावाभ्यामर्थतस्तयोः प्रेक्षावदप्रेक्षावत्प्रवृत्तित्वविशेषोऽनिवारित एव । न च सम्पत्व - निष्कम्पत्वयोः प्रवृत्तिगतविशेषधर्मयोरनुभवात् तदवच्छिन्नयोरेव हेतुत्वमिति निरवद्यम् : कम्पा- कम्पयोरपि फलानवश्यंभावसंभावनाजनितभय- तदभावनिमित्तत्वात् स्वाभाविकविशेषाऽसिद्धेः । है । जैसे, इष्टसाधनता का त्वरित ज्ञान होने पर स्वरित प्रवृत्ति हो सकती है। अतः प्रवृत्ति में प्रामाण्यज्ञान का कहीं कोई उपयोग नहीं है और यदि कदाचित् कहीं उपयोग होता हो भी, तो प्रामाण्य के स्वतः ज्ञान में प्रवृत्ति का ऐसा पक्षपात नहीं हो सकता कि वह प्रामाण्य के स्वतः ज्ञान से ही हो, परत: ज्ञान से न हो । [ ग्रामाण्यनिश्चय का प्रयोजन प्रामाण्यग्रहण की उक्त द्विविध व्यवस्था मानने संशयहास ] पर प्रामाण्य के परतः ग्रहण पक्ष के सम्बन्ध में यह प्रश्न हो सकता है कि अनभ्यासदशा में प्रामाण्य का सन्देह रहते हुये भी जब प्रवृत्ति हो सकती है तब बाद में सफल प्रवृत्तिरूप लिङ्ग से पूर्वशान में प्रामाण्य का निश्चय आवश्यक मानने का क्या प्रयोजन है ? इस प्रश्न के उत्तर में विद्वानों का कहना है कि पूर्वज्ञान में प्रामाण्यसंशय की निवृत्ति करना ही उस का प्रयोजन है, अतः उस से भिन्न किसी प्रयोजन के अन्वेषण का प्रयास निरर्थक है । यदि यह पूछा जाय कि 'पूर्वज्ञान में प्रामाण्यसंशय की निवृत्ति का क्या प्रयोजन है ? ' तो इस का उत्तर यह है कि उसका प्रयोजन है अभ्यास अभ्यास का अर्थ है ज्ञान के अनन्तर होनेवाले उस के विषयभूत पदार्थ के सजातीय विषय को ग्रहण करनेवाले ज्ञान में निश्चितप्रामाण्य के ज्ञान के सजातीयत्व का निश्चय । स्पष्ट है कि यह निश्चय पूर्वज्ञान में प्रामाण्य के निश्रय के बिना नहीं हो सकता क्योंकि उक्त सजातीयस्वरूप विषय की कुक्षि में पूर्वज्ञान गत प्रामाण्यनिश्चय समाविष्ट है । [प्रेक्षावत्ता हानि की शंका का उत्तर ] यदि यह प्रश्न हो कि सन्देह से प्रवृत्त होनेवाला मनुष्य प्रेक्षावान - विवेकशील कैसे कहा जा सकेगा ? तो इस का उत्तर यह है कि कथमपि नहीं। क्योंकि प्रेक्षावान् शब्द से उसी मनुष्य का व्यपदेश होता है जिस के प्रेक्षावरण का क्षयोपशम हो जाता है। सन्देह दशा में प्रेक्षावरण का क्षयोपशम न होने से उस दशा में प्रेक्षावान का व्यपदेश न हो इस में कुछ भी असंगति नहीं है । कहा भी गया है कि अशेषवेदी- सर्वज्ञ से भिन्न पुरुषों में कोई पुरुष, किसी Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ ] [ शास्त्रवार्ता० त० २०/१२ किञ्च, मामाष्याऽनिश्चयेऽपि कोट्यस्मरणादिना संशयाभावाद् निष्कम्पप्रवृत्त्युपपत्तेर्व्यभिचारादपि न तत्र प्रामाण्यनिश्चयस्य हेतुत्वम् । प्रेक्षापूर्वप्रवृत्तौ तु बाधपूर्वनिश्वये विशेषदर्शनस्येव प्रामाण्यनिश्चयस्य हेतुत्वं स्यादपीति । वस्तुतः प्रवृत्तावप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दितस्यैवेष्टज्ञानस्य हेतुत्वाद हेतुतावच्छेदकविघटकाप्रामाण्यज्ञानापनयनायैव प्रामाण्यनिश्चयादरः । तदिदमुक्तम्- 'तद्विषयसंशयापगम एवं प्रयोजनम्' इति । अधिक्रमस्मत्कृतश्रमारहस्यादनुसंश्रेयम् । विशेष समय में किसी विशेष विषय के बारे में ज्ञान होता भी है और प्रेक्षावान नहीं भी होता है । कहने का आशय यह है कि जैसे तृण, अरणि आदि से उत्पन्न अग्नि में विभिन्न जातिमसा का दर्शन न होने से, तृण आदि को विभिन्नजातीय अग्नि का कारण नहीं माना जाता जैसे ही प्रामाण्यसंशय एवं प्रामाण्यनिश्चय से होने वाली प्रवृत्तियों में भी विभिन्नजातीयता का अनुभव न होने से उन्हें भी विभिन्नजातीयप्रवृत्ति का कारण नहीं माना जा सकता। फिर भी प्रेक्षावरण के क्षयोपशम के रहने पर होनेवाली प्रवृत्ति और उसके अभाव में होनेवाली प्रवृत्तियों में क्रम से प्रेक्षावत्प्रवृत्तित्व तथा अप्रेक्षावत्प्रवृतित्वरूप वैलक्षण्य का परिहार तो नहीं ही हो सकता है। अतः यह निःशङ्कभाव से कहा जा सकता है कि प्रामाण्यसंदेह से प्रवृत्त होनेवाला मनुष्य उस वक्त प्रज्ञावान नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसे प्रेक्षावरण का क्षयोपशम नहीं प्राप्त है और प्रामाण्य निश्चय में प्रवृत्त होनेवाला पुरुष उस वक्त प्रज्ञावान कहा जा सकता है क्योंकि उसे उक्त क्षयोपशम प्राप्त है । यदि यह कहा जाय कि प्रवृत्ति में सकम्पत्व और निष्कम्पत्व यह दो विलक्षणधर्म अनुभव सिद्ध हैं अतः सकम्पप्रवृत्ति के प्रति प्रामाण्यसंशय को तथा निष्कम्पप्रवृत्ति के प्रति प्रामाण्यनिश्चय को कारण मानने में कोई दीप नहीं है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि कम्प और अकम्प ये प्रवृत्ति के स्वाभाविक धर्मभेद नहीं है किन्तु 'फल के अवश्यम्भाव की सम्भावना के अभाव से उत्पन्न भय से होनेवाली प्रवृत्ति सकम्प होती है और उक्त भय के अभाव में होनेवाली प्रवृत्ति निष्कम्प होती है - इस व्यवस्था के अनुसार प्रवृत्ति का सकम्पन्त्र और निष्कम्पत्य अन्यमूलक होने से प्रवृत्ति का स्वाभाविक विशेष नहीं है । [ निष्कम्पप्रवृत्ति में श्रामाण्यनिश्रय अहेतु ] दूसरी बात यह भी है कि कोटि का स्मरण आदि न होने की दशा में प्रामाण्य का संशय न होने पर प्रामाण्यनिश्रय के अभाव में भी निष्कम्प प्रवृत्ति की उत्पत्ति होती है, अतः व्यभिचार होने से निष्कम्पमवृत्ति के प्रति प्रामाण्यनिश्चय को कारण नहीं माना जा सकता । डाँ, केवल यह माना जा सकता है कि जैसे बाधपूर्वक निश्रय में विशेषदर्शन कारण होता हैं वैसे ही प्रेक्षापूर्वक प्रवृति में ग्रामाण्य का निश्चय कारण हो सकता है। सच बात तो यह है कि अप्रामाण्यज्ञान से अनाक्रान्त 'इष्टयस्तु का ज्ञान' ही प्रवृत्ति का कारण होता है। अप्रामाण्यज्ञानाभावरूप हेतुतावच्छेदक को विघटित करनेवाले अप्रामाण्यंज्ञान के अपनयन में प्रामाण्य निषय की अपेक्षा होती है । इस तथ्य को दृष्टिगत रख कर ही कहा गया है कि प्रामाण्यसंशय को निवृत्त करना ही परतः प्रामाण्यग्रह का फल है। इस विषय में अधिक जिला की पूर्ति व्याख्याकार के ' प्रमारहस्य' ग्रन्थ से की जा सकती है । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन } तत् सिद्धमेतदप्रामाण्यं स्वत एव केवलदृशां ज्ञप्ती, गुणापक्षणादुत्पत्तो परतः, स्वतश्च परतश्छाद्मस्थ्यमाजा पुनः । अभ्यासे च विपर्यये च बिदितं ज्ञप्तौ, समुत्पद्यते त्वन्यस्मादिति शासन विजयते जैन जगजिवरम् ।।१३॥१५॥ एवं सर्वज्ञग्रहादुपमानस्याप्यत्र प्रवृत्तिरित्याहहृद्गताशेषसंशीतिनिर्णयात् तद्ग्रहे पुनः । उपमान्यग्रहे तत्र न चान्यत्रापि चान्यथा ॥१६।। हृदताऽशेषसंशीतिनिर्णयात--स्वहृदयगताखिलसंदेहापनयनाद् हेतोः, तद्ग्रहे सर्वज्ञग्रहे सति पुनातदनन्तरम् अन्यग्रहे तथाविधान्योपलब्धौ सत्याम् , तत्र गृहीते सर्वज्ञे, 'अनेन सदृशोऽसो' इत्युपमानम् । तदनहे चोपमाऽप्रवृत्तौ न क्षतिरित्याह-न चान्यत्रापि च-गो-गवयानावपि च अन्यथा उभयदर्शनाभाव उपमासंभवः । उक्त विचारों से यह सिद्ध है कि-केवली-सर्वज्ञ को प्रामाण्य का ज्ञान स्वतः और प्रामाण्य का जन्म गुणापेक्ष होने से परतः होता है, किन्तु छद्मस्थ जीवों को अभ्यास दशा में प्रामाण्य का ज्ञान स्वत: और अभ्यास के अभाव में परत: पवं उत्पनि में भी परतः होता है। इस मान्यता के कारण ही जैन शासन जगत को जीतनेवाला, संसार का सर्वोत्कृष्ट शामन है ।१|| [सर्वसाधक उपमान प्रमाण] २६वीं कारिका में यह बताया गया है कि प्रमाणान्तर से सर्वक्ष की सिद्धि हो जाने पर अन्य सर्वज्ञ की सिद्धि जपमान प्रमाण से भी हो सकती हैं। कारिका का अर्थ इमप्रकार है सर्घक्ष के सम्बन्ध में हृदय में उदनेवाले सम्पूर्ण संशय का उन रीति से निराकरण होकर प्रमाण (अनुमान) द्वारा मर्वज्ञ की मिट्टि हो जाने पर उस के अनन्तर उस के सदृश अन्य सर्वज्ञ का ज्ञान होने पर पूर्वसिद्ध सर्वेक्ष में उपलभ्यमान सर्वज्ञ के माश्य को ग्रहण करनेवाले वह इस के सदृश है' इस प्रकार के उपमानप्रमाण की भी प्रवृति हो सकती है। अत: सर्वज्ञ की सर्वथा असिद्धिदशा में यदि उस में उपमान प्रमाण की प्रवृत्ति नहीं होती है तो कोई क्षति नहीं है. क्योंकि उपमेय और उपमान शोनों के दर्शन न होने की दशा में गो और गवय आदि में भी उपमान प्रमाण की प्रवृत्ति नहीं होती है। कहने का आशय यह है कि जैसे गो का ज्ञान होने के अनन्तर उस के महश गधय का दर्शन होने पर ही गौ में गययसादृश्य का उपमानजन्य बोध होता है. अन्यथा नहीं होता । इतने मात्र से गो-गवय आदि को उपमान का अविषय नहीं माना जाता किन्तु उपमान का विषय माना ही जाता है। उसी प्रकार अनुमान प्रमाण से पक सर्यक्ष की सिद्धि हो माने के अनन्तर उस के सश अन्य सर्वश का दर्शन होने पर पूर्वसिद्ध सर्वश में दृश्यमान सर्वश के सादृश्य का उपमानजन्य बोध हो ही सकता है। अतः उपमान पधं उपमेय भत सर्वज्ञ के अज्ञानदशा में उपमान प्रमाण से यदि सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं होती तो इतने मात्र से उसे उपमान प्रमाण का अविषय नहीं कहा जा सकता । अतः यह मानना सथा उचित है कि सर्वश के साधन में उपमान प्रमाण भी सर्वथा पङ्गु नहीं है। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] (शासधासा० स० १० १६ ___ अत्र वैशेषिकादयः-'नोपमानमतिरिच्यते विषयाभावात् । न च सादृश्यं विषयः, तद्धि नातिरिक्तम् , तद्यञ्जकत्वाभिमतस्य तदन्यत्वे सति तर्मयत्त्वादेरेव तत्त्वात् । तच्च स्वघटफभेदप्रतियोगिज्ञानसहकृतेन्द्रियग्राह्यम् । एतेन 'इन्द्रियसंनिकर्षमात्रात् तदग्रहेण लिङ्गाद्यप्रतिसंधानेऽपि च ग्रहणे तस्यानतिरिक्तत्वेऽपि ग्राहकान्तरमावश्यकम्' इत्यपास्तम् । ननु तथापि गवये गोप्रतियो. गिकसादृश्यज्ञानकरणकं गवि गवयपतियोगिकसादृश्यज्ञानमुपमितिरस्तु । न ह्येतत् प्रत्यक्षम् , विशेप्यस्य गोरसंनिकर्षात् । नापि स्मृतिः, अननुभूतविषयकत्वात्, गोरनुभवेऽपि विशिष्टस्याननुभवात् । तदुक्तम् [उपमान स्वतंत्र प्रमाण नहीं है-बैशेषिक] वैशेषिक आदि कतिपय दर्शनों का मत है कि उपमान यह अतिरिक्त प्रमाण नहीं है क्योंकि उस का कोई अतिरिक्त विषय नहीं है। कहने का आशय यह है कि किसी नवीन प्रमाण की सिद्धि तभी होती है जब उस का कोई ऐसा नवीन विषय हो जिस का ग्रहण फ्लप्त (तक्ष्न्य प्रसिद्ध) प्रमाणों से न हो सकता हो। यतः बलप्त प्रमाणों से ग्रहण न होने योग्य कोई नथीम विषय नहीं है अत: उपमान नामक अतिरिक्त प्रमाण की कल्पना निराधार है। यदि यह कहा जाय कि-'सारश्य एक ऐमा अतिरित निय है कि कर पाने मान आदि से नहीं होता अत: उस के ग्रहण के लिये उपमानप्रमाण मानना उचित है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि साश्य अतिरिक्त पदार्थ नहीं है किन्तु सादृश्य को अतिरिक्त पदार्थ माननेवाले जिसे सारश्य का व्यञ्जक मानने है.सारश्य उस से भिन्न नहीं है, किन्तु वही सादृश्य है। जैसे, जो जिस से भिन्न होता है और जिस के बहुतर धर्म का या विशेष धर्म का आश्रय होता है उप्त में उस के सादृश्य की प्रतीति होती है। जैसे, किसी सुन्दर नारी का मुख चन्द्रमा से भिन्न और चन्द्रमा के आह्लादकत्व धर्म का आश्रय होने से चन्द्रसशरूप में गृहीत होता है। मारश्य को अतिरिक्त पदार्थ मानने वाले लोग नारी-मुम्न में सात होनेवाले चन्द्रमादृश्य को चन्द्रभिन्नत्वविशिष्ट चन्द्रगत आहरूादकत्व से व्य काय मानते हैं, किन्तु वैशेषिक का कहना यह है कि चन्द्रभिन्नत्वसहित चन्द्रगत आहलादकत्व यही नारी मुख में चन्द्रमा का सादृश्य है। उस से भिन्न सादृश्य की कल्पना नियुक्तिक पचं गौरक्यस्त है। और जब उक्त धर्म ही सारश्य है तो उस का ग्रहण उस की कुक्षि में प्रषिष्ट भेद के प्रतियोगी चन्द्रमा के ज्ञान से महकृत इन्द्रिय से ही हो सकता है, अतः उस के ग्रहण के लिये उपमाननामक अतिरिक्त प्रमाण का अभ्युपगम अनावश्यक है। इसीलिये यह कथन भी निरस्त हो जाता है कि-"इन्द्रियसन्निकर्ष मात्र से सादृश्य का ग्रहण नहीं होता एवं लिङ्ग आदि का ज्ञान न होने पर भी सारश्य का ग्रहण होता है अतः साश्य को अतिरिक्त पदार्थ न मानने पर भी उस के ग्राहक अन्य प्रमाण का अभ्युपगम आवश्यक है, क्योंकि सादृश्य की कुक्षि में प्रविष्ट भेद के प्रतियोगिभूत उपमान का शान रहने पर इन्द्रिय से उस का अहण हो सकता है। क्योंकि यह कैसे कहा आ सकता है कि नारी के आह्वादकमुस के साथ नेत्र का सन्निकर्ष होने पर यदि चन्द्रमा की स्मृति हो जाती है तो भी नेत्र से ही यह ज्ञान नहीं होता कि यह नारीमुख चन्द्रमा से भिन्न होते हुये भी चन्द्रदर्शन से होनेवाले आहाद को उत्पन्न करता है?! अतः तद्भिवस्वसहित Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] "तस्माद् यत् स्मर्थते तत् स्यात् सादृश्येन विशेषितम् । प्रमेयमुपमानस्य सादृश्यं वा तदन्वितम् ॥१॥" [०वा०] इत्युपमानमतिरिच्यतामिति चेत् । न एवं सति 'गवयो गोवधर्मा' इति ज्ञानस्यापि 'गौर्गवयविधर्मा' इति ज्ञानजनकस्य मानान्तरत्वप्रसङ्गात् । यदि च गवये गोप्रतियोगिकवैधर्म्यज्ञाने गवि गवयनिष्ठवैधयंप्रतियोगित्वेन ज्ञानेन गवयप्रतियोगिक वैधर्म्यमनुमीयते तदा तुल्यम्, प्रकृतेऽपि गवयनिष्ठसादृश्यप्रतियोगित्वेन गवयप्रतियोगिकसादृश्यानुमानात्' इत्याहुः | तद्गतभृयोधर्मरूप तत्सादृश्य का तद्माहकप्रत्यक्षादिप्रमाण द्वारा ग्रहण संभव होने से उपमान नामक अतिरिक्त प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । [ उपमान स्वतंत्र प्रमाण है--मीमांसक ] वैशेषिक की उक्त मान्यता के विरुद्ध उपमानप्रमाणवादी मीमांसक आदि का कहना यह हैं कि पुरोयर्ती प्रत्ययोग्यद्रव्य में उक्त रीति से प्रत्यक्षप्रमाण द्वारा सादृश्य का ग्रहण संभव होने पर भी दूरस्थ द्रश्य में पुरोवर्ती द्रव्य के साहश्य का ग्रहण प्रत्यक्षप्रमाण आदि से संभव नहीं हो सकता । जैसे, अरण्यस्थ पुरुष के शब्द से गवय में गोसादृश्य का ज्ञान होने के अनन्तर अरण्य में गये ग्रामीण पुरुष को गवय का दर्शन होने पर मेरी गौ इस के सहश है इस प्रकार दूरस्थ गौ में सम्मुखवर्ती गवय के सादृश्य का ज्ञान होता है। यह ज्ञान प्रत्यक्षआदि से विलक्षणप्रारूप है जिसे उपमिति कहा जाता है, जो अरण्यस्थ पुरुष के वाक्य द्वारा बोधित 'गय में गो सादृश्य' के स्मरण से उत्पन्न होती है। अथवा जिसे अरण्यवासी पुरुष के द्वारा गय में गोसाश्य का बोध नहीं हुआ है उसे भी अरण्य में नेत्र के सम्मुख गमय उपस्थित होने पर प्रत्यक्षप्रमाण से गवय में गोसादृश्यज्ञान होने के अनन्तर अपनी ग्रामस्थ गौ में गय सादृश्य का ज्ञान होता है। उस का यह ज्ञान भी प्रत्यक्षादि से विलक्षण प्रमा है जिस का जन्म गयय में गोसाइयज्ञान से होता है। अतः उस ज्ञान के कारणभूत गययनिष्ठ गोसादृश्य ज्ञान को उपमाननामक अतिरिक्त प्रमाण मानना आवश्यक है, क्योंकि अरण्यगत पुरुष को दूर ग्राम में स्थित गौ में गवयसादृश्य का जो ज्ञान होता है उसे प्रत्यक्ष प्रमा में समाविष्ट नहीं किया जा सकता क्योंकि उस ज्ञान के विशेष्यभूत गौ के साथ इन्द्रियसन्निकर्ष नहीं है । उस ज्ञान को स्मृति में भी समाविष्ट नहीं किया जा सकता, क्योंकि उस का विशेष्यभृत गौरूप विषय यद्यपि पूर्वानुभूत है किन्तु गवयसादृश्यरूप विशेषण पूर्वानुभृत न होने से गवयसादृश्य विशिष्ट गो पूर्वानुभूत नहीं है, और उत्तज्ञान इस पूर्वाननुभूत विशिष्ट को ग्रहण करता है अतः व स्मृतिरूप नहीं हो सकता क्योंकि स्मृति अननुभूतविश्यक नहीं होती। कहा भी गया है कि किसी सहा वस्तु का दर्शन होने पर जिस पदार्थ का स्मरण होता है- दृश्यमान पदार्थ के सादृश्य से विशिष्ट उस पदार्थ का अथवा उस पदार्थ से विशिष्ट दृश्यमान पदार्थ का साहश्य, उपमानप्रमाण का प्रमेय है, क्योंकि गोसदृश गवय का दर्शन होने पर गौ गघयसदृशः ' अथवा ' गरि गवयसाध्यम्' इस प्रकार की प्रमा का उदय आनुमानिक है। अतः इस विलक्षणप्रभा के लिये उपमान नामक अतिरिक्त प्रमाण को मानना आवश्यक है । [ वैधर्म्यग्राहक स्वतंत्र प्रमाण की आपत्ति | किन्तु वैशेषिकों की दृष्टि में मीमांसक का उक्त कथन संगत नहीं है क्योंकि ' गवयः गोसरश: ' इस ज्ञान को यदि 'मौः गवयसदृशः ' इस ज्ञान का जनक अतिरिक्तप्रमाण माना Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] [शखवार्ताः स्त० १०/१६ नैयायिकास्तु-'कीग् गवयः ?' इति प्रभ गोसदृशो गवयः' इत्युत्तरवाक्ये श्रुते, वने पर्यटतस्तत्सदृशपिण्डदर्शनान्तरं तत्र गवयपदशक्तिपरिच्छेद उपमानफलम् , इन्द्रिय-लिङ्ग-शब्दासाध्यत्वात् । न च 'गोसदृशो गवयः' इति वाक्यादेव गोसादृश्यविशिष्टे शक्तिमहः, 'गोसदृशो गवयपदवाच्यः, असति वृत्त्यन्तरे वृद्धस्तत्र प्रयुज्यमानत्वात्' इत्यनुमानाद् वेति शङ्कनीयम् ; गौरवात् , तवज्ञानेऽपि व्यवहारादिना गवयत्वविशिष्ट शक्तिग्रहेण गवयपदप्रयोगाच्च गोसादृश्यस्य गवयपदाऽप्रवृत्तिनिमित्तत्वात् , गवयत्वस्य ताशस्य प्रागप्रतीतेः, शब्दादनुमानाद वा तेन रूपेण शक्त्यग्रहात् । न च गययत्यप्रत्यक्षानन्तरं 'गोसदृशो गवः' इति वाक्याल्लक्षणया गवयत्वविशिष्टे शक्तिग्रह इति वाच्यम् जायगा तो गयो गोधिधर्मा' इस ज्ञान को भी ‘गौः गययविधर्मा' इस शान का जनक एक और अतिग्नि प्रमाण मानना पड़ेगा। यदि इस के उत्तर में मीमांसक की ओर से यह कहा जाय कि-' गषय में गो के वैधम्य का ज्ञान होने पर गौ में गवयनिष्ठ वैधर्म्य के प्रतियोगित्व का ज्ञान हो जाता है। अतः उस प्रतियोगित्म से गो में गवयवधार्य की अनुमिति होती है, इसलिये गौ में गवयंवैधर्म्यज्ञान का अनुमिति में अन्तर्भाव हो जाने से उस के लिये पृथक् प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती तो यह बात गो में गवयसाय शाल के समय में भी सही जा सकती है। जैसे यह कहा जा सकता है कि गवय में गोसारश्य का ज्ञान होने पर गौ में गत्रयनिष्ठसादृश्य के प्रतियोगित्व का ज्ञान हो जाता है और उस प्रतियोगित्व से गो में गवयसारश्य की अनुमिति हो सकती है अतः गो में गवयसारश्यज्ञान का अनुमिति में अन्तर्भाव हो जाने से उस के लिये उपमान नामक अतिरिक्त प्रमाण की कल्पना नियुक्तिक है। ['गवय पद का शक्तिज्ञान उपमान का फल-नैयायिक ] नैयायिकों का कहना है कि गयरूप पशुविशेष में गययपद की शक्ति के शापनार्थ उपमाननामक अतिरिक्त प्रमाण मानना आवश्यक है। उन का आशय यह है कि जब कोई ग्रामीण - ग्रामवासी मनुष्य गाँव में आये हुये किमी अरण्यवामी व्यक्ति से गवय की चर्चा मुन कर पूछता है कि गवय कैसा होता है ? किस प्रकार के पशु को गवय कहा जाता है ?' तव अरण्यबासी व्यक्ति से बताता है कि गश्य गोसदृश होता है, गोसदृश पशु को गयय कहा जाता है । अरण्यवासी पुरुष के वाक्य से गयय की जानकारी प्राप्त कर ग्रामवासी पुरुष जब कभी अरण्य में जाने पर गौसदृश पशु को देखता है तब उसे अरण्यवासी पुरुप के वाक्यार्थ का स्मरण होने से उसे 'गोसदृशोऽयं गधयः गोसटश यह पशु गत्रय पद का वाच्य है। इस की प्रमा उत्पन्न होती है। यह प्रमा गोसदृश पश में गवयपद की शक्ति को विषय करती है और यह इन्द्रिय, लिङ्ग अथवा शब्द से नहीं उत्पन्न होती किन्तु गोसदृश पशु के दर्शन से उत्पन्न होती है अत: इसे गोसादृश्यशानरूप कारण से ही उत्पन्न मानना आवश्यक है। फलतः सादृश्यशान इस प्रमा का करण होता है। वह प्रत्यक्षादि प्रमाणों में अन्तर्मन नहीं होता. अत एव उस्ने स्वतन्त्र प्रमाण मानना और गोस्वरूप उपमान को विषय करने से उपमान शब्द से व्यघहत करना न्यायप्राप्त है। [वाक्य या अनुमान से शक्तिग्रह का असंभव ] यदि यह कहा जाय कि-"प्रामवासी पुरुष अब गांव में आये अरण्यवासी पुरुष के 'गोसदृशो गघयः' इस वाक्य को सुनता है तब उसे उसी समय उस घाक्य से ही गोसारश्य Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या, क. टीका-हिन्दीधिवेचन ] विशिष्ट में गययपद की शक्ति की प्रमा हो जाती है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि गोसहश पशु में अरपयवामी पुरुष द्वारा किये गए गयय पद के व्यवहार की जानकारी होने पर ग्रामवासी पुरुष को यह अनुमान होता है हि गोगा 'गाम - दहा नोना । क्योंकि, लक्षणारूप अन्य वृत्ति के बिना भी वृद्ध पुरुषों के द्वारा गधयपद से व्यवहृत होता है । जो अर्थ लक्षणा के बिना भी वृद्ध पुरुषों द्वारा जिस पद से व्यवहत होता है यह उस शब्द से वाच्य होता है; जसे बट शब्द से वाच्य घट आदि रूप अर्थ ।" इस प्रकार के अनुमान प्रमाण से ग्रामवासी पुरुष को गोसदृश पशु में गवय पद का शक्तिग्रह हो जाता है। अतः गचयपद के शक्तिहरूप प्रयोजन के अनुरोध से प्रमाणान्तर की कल्पना नहीं हो सकती -तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि अरण्यवासी पुरुष के उक्त वाक्य से अथवा उक्त अनुमान से गोसादृश्यविशिष्ट में हो गवय' पद का शक्तियह हो सकता है, गवयत्वविशिष्ट में गवयपद का शक्तिग्रह नहीं हो सकता, क्योंकि ग्रामवासी पुरुप को उस समय गययत्वविशिष्ट का ज्ञान ही नहीं होता । अत: उन शाक्य अथवा उत्त अनुमान से गवयपद का शकिग्रह मानने पर गोसादृश्य को 'गवय' पद का शक्यतावच्छेदक मानना आवश्यक होने के कारण गौग्त्र होगा! [अन्योन्याश्रय दोप का निरसन ] यदि यह कहा जाय कि- गवयत्यविशिष्ट में ययपद का शक्तिग्रह सिद्ध होने पर ही उस के उपपादनार्थ उपमानप्रमाण की कल्पना हो सकती है और उपमान प्रमाण से ही गवयन विशिष्ट में गत्रय पद का शक्तिग्रह हो सकता है । फलत: गत्रयत्वविशिष्ट में गययपद की शक्ति का अभ्युपगम अन्योन्याश्रय दोष से ग्रस्त होने के कारण स्वीकार्य नहीं हो सकता। इसलिये गौरव होने पर भी गोसादृश्य विशिष्ट में ही गवयपद की शक्ति मानना उमित है और उसका भान उक्तवाक्य एवं उक्त अनुमान से मभव होने के कारण उपमान प्रमाण की कल्पना अमंगल है' -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अरण्यवामी पुरुषों को अरण्य में गोसादृश्य अज्ञात होने पर भी व्यवहार द्वारा गश्यत्वविशिय में गत्रयपद का शनिग्रह होता है अत एव ग्रामघामी पुरुष को भी गययत्वविशिष्ट में ही गवयपद या शनिग्रह मानना उचित है। और यह शक्तिशान ग्रामवासी पुरुष को गवय-दर्शन के पूर्व नहीं हो सकता। अतः यदि उस अरण्यवामी पुरुष के उक्त वाक्य मे अथवा उक्त अनुमान से गोसादृश्यविशिष्ट में गवयपद का शक्तियह हो भी जाता है तो भी जब यह अरण्य में जाने पर गयय को प्रत्यक्ष देखता है तब उसे अरण्यवासी पुरुष के पूर्वश्वत वाक्यार्थ का स्मरण होकर गधयत्वविशिष्ट में गवयपद का शनिग्रह होता है, और ज़म के फलस्वरूप प्राम में रहते समय उत्पन्न गोमादृश्य विशिष्ट में गत्रय पद के शनिग्रह में अप्रामाण्य ज्ञान हो जाता है । फलतः ग्रामवासी पुरुप भी इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि गत्रयत्वधिशिष्ट ही नवयपद का वाच्य है, किन्तु यह निफर्प उपमानप्रमाण के बिना संभव नहीं है। क्योंकि ग्रामवामी पुरुष को अरण्य में गवयदर्शन होने पर जो गघयत्वविशिष्ट में गवय पद का शक्तिग्रह होता है वह प्रत्यक्ष, अनुमान या शब्दप्रमाण से नहीं होता। किन्तु अरण्यवासी पुरुष के पूर्वश्रुत वाक्यार्थ के स्मरण द्वारा सम्मुख (पुरोवर्ती) पशु में गोसादृश्य के दर्शन से होता है । अत: उक्त दर्शन ही कथित रीति से उपमान प्रमाणरूप में सिद्ध होता है। यदि यह कहा जाय कि-" ग्रामघासी पुरुष को अरण्य में जब गवय का दर्शन होता है तब अगायचासी पुरुष के पूर्वश्रुतवाक्य के अर्थ का ही स्मरण नहीं होता किन्तु उम के गोसहशो गत्रयः' इस याक्य का भी स्मरण होता है। अत: गोमश शद की गवयत्वविशिष्ट में लक्षणा Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] [ शामवार्त्ता० स्त० २० / १६ गोसादृश्य सामानाधिकरण्येन गवयपदवाच्यत्वबोधजननात् जनितान्वयबोधतयाऽनाकाङ्गत्वेन तस्य लक्षणीय बोधयितुमसमर्थत्वात् । ननु तथापि ' गवयपद सप्रवृत्तिनिमित्तकम्, पदत्वात्' इति सामान्यतोदृष्टमितरबाधात् लाघवाच्च गवयत्वप्रवृत्तिनिमित्तकत्वबोधकमस्तु अस्तु वा 'गवयत्वप्रवृत्तिनिमित्तकं तत्, इतराऽप्रवृत्तिनिमित्तत्वे सति सप्रवृत्तिनिमित्तत्वादिति व्यतिरेक्येव तथेति चेत् ? न, अनुमितेर्व्यापकतावच्छेदका ऽप्रकारकत्वात् द्वितीये साध्याप्रसिद्धेश्व । 1 द्वारा उस वाक्य से ही उसे गवयत्वविशिष्ट में गवयपद का शक्तिग्रह हो सकता है। अतः उस शक्तिप्रह के अनुरोध से भी उपमानप्रमाण की कल्पना नहीं हो सकती " तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि उक्तवाक्य से गोसादृश्य से उपलक्षितअर्थ में गवयपद की शक्ति का बोध हो सकता है | अतः उक्तवाक्य से लक्षणा द्वारा बोध की उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती, क्योंकि लक्षणा तभी मान्य होती है जब शक्ति द्वारा वाक्यार्थबोध नहीं हो पाता, किन्तु जब शक्ति द्वारा कोई या योज वाक्य अर्थान्तर में (दूसरे अर्थ में) निराकाङ्ग हो जाने से लक्षणा का आश्रयण नहीं हो सकता । [ अनुमान से गवयपद की शक्ति का ग्रह - उपमानप्रतिपक्षी ] उपमानविरोधी लोगों की ओर से यदि यह कहा जाय कि 'उक्तवाक्य से गवयत्व विशिष्ट में गवयपद का शक्तिग्रह न होने पर भी अनुमान से गवयपद का शक्तिग्रह हो सकता है । जैसे, ग्रामवासी पुरुष के अरण्य में जाने पर तथा गयय का दर्शन होने पर उसे यह अनुमान हो सकता है कि गवयपद सप्रवृत्तिनिमित्तक अर्थात् किश्चिर्मविशिष्ट का वाचक है क्योंकि वह पद है । जो पद होता है वह प्रवृत्तिनिमित्तक होता है ।" यदि यह कहा जाय कि - " इस अनुमान से तो केवल इतना ही सिद्ध हो सकता है कि गवयपद का कोई प्रवृत्तिनिनित्त है, किन्तु यह नहीं सिद्ध हो सकता कि गवयत्व ही गवयपद का प्रवृतिनिमित्त है। अतः इस सिद्धि के लिये उपमान प्रमाण मानना आवश्यक है " तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि गवयत्वभिन्न गोवादि जातियों में गवयपद की प्रवृत्तिनिमितता का बाधज्ञान है और गोसादृश्य आदि की अपेक्षा को गवयपद का प्रवृत्तिनिमित्त मानने में लाघवज्ञान है। अतः इन दोनों ज्ञानों के सहयोग से प्रवृतिनिमित्त के साधक उक्त सामान्य अनुमान से भी यह अनुमितिस्वरूप निश्चय हो सकता है कि गवयत्व ही गवयपद का प्रवृत्तिनिमित्त है। दूसरे भी एक अनुमान से rores में ere प्रवृत्तिनिमित्त होने का निश्चय हो सकता है। जैसे- गवयपद में समयत्तिनिमित्तत्व के सामान्यानुमान के बाद यह अनुमान हो सकता है कि ' गवयपद् गवयत्वप्रवृत्तिनिमितक है क्योंकि गवयन्व से इतरधर्म उस का प्रवृत्तिनिमित्त नहीं है किन्तु वह प्रतिनिमित्तक है, जो गवयत्वप्रवृत्तिनिमित्तक न हो किन्तु सप्रवृत्तिनिमित्तक हो यह गवयत्व से भिन्न प्रवृत्तिनिमित्त से शून्य नहीं होता. जैसे, घट आदिपद गवयत्य प्रवृत्तिनिमित्तक नहीं हैं तो यह गवयत्व से भिन्न प्रवृत्तिनिमित्त से शून्य भी नहीं है, क्योंकि गवयत्यभिन्न घटत्व आदि उस का प्रवृत्तिनिमित्त विद्यमान है।' इस व्यतिरेकी अनुमान से भी गवयपद में गवयत्यप्रवृत्तिनिमित्य का निश्चय हो सकता है। यदि यह कहा जाय कि-" अरण्य में गद्ययदर्शन होने पर ग्रामवासी पुरुष को अरण्यबाली पुरुष के पूर्वश्रुत वाक्यार्थ का स्मरण होने मात्र से ही उक्त अनुमान के बिना भी प्रवृत्तिनिमित्तकत्व का निश्चय होता है अतः उस की उपपत्ति के लिए उप पद में Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीश्वेिचन ] मामप्रमाण मानना आवश्यक है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उपमान प्रमाण मानने पर भी गवयपद में गययत्वप्रवृत्तिनिमितकत्व का निश्चय उक्त सामान्यानुमान के बिना नहीं हो सकता, क्योंकि ग्रामवासी परुष का अरण्य में 'गोसशो गषयः इस प्रकार काही वयवर्शन, उपमानप्रमाणवादी को भी मानना पडता है। क्योंकि साक्ष्य दर्शन ही उस के मत में उपमान प्रमाण है । अतः इस दर्शन के अभात्र म उपमान से भी गत्रयत्वषिशिष्ट में गवयपद का शक्तियह नहीं हो सकता। और जब गयय का उक्त दर्शन ही आवश्यक है सब गश्यत्व और गोसादृश्य दोनों के समान रूप से उपस्थित होने से उपमान प्रमाण द्वारा गोसादृश्यविशिष्ट में गययपद का शक्तिग्रह हो अथवा गवयत्व विशिष्ट में गबयपद का शक्तिग्रह हो-इस में कोई विनिगमना न होने से गवयत्वविशिष्ठ में गवयपद का शक्तिग्रह नहीं हो सकता । अतः उपमानप्रमाण से मषयपद में गघयत्यप्रवृत्तिनिमित्तकान का मिश्चय करने के लिये गवयपद को गोसादृश्यप्रवृत्तिनिमित्तक मानने की अपेक्षा गमयत्वप्रतिनिमित्तक मानने में नायब है-इम प्रकार के लाघवज्ञानरूप विनिगमक की अपेक्षा है। और यह लायनज्ञान तभी हो सकता है जब यह जिवासा उत्पन्न हो कि गवयपद गोमादृश्यप्रवृत्तिनिमित्तक है अथवा गषयत्व प्रवृत्तिनिमित्तक है। और यह जिज्ञासा प्रवृत्ति-निमित्तविशेष की जिज्ञासारूप है अतः इस का उदय तभी हो सकता है जब गवय पद में सामान्यरूप में सम्प्रवृत्तिनिमित्तकन्त्र का निश्चय हो । अतः उपमानप्रमाणवादी को भी गवयपद में सप्रवृत्तिनिमित्तकत्व के सामान्यानुमान की अपेक्षा होने से यह नहीं कहा जा सकता कि 'उक्त अनुमान के अभाव में भी उपमानप्रमाण से गवयपद में गवय वप्रवृत्तिनिमित्तऋत्य का निश्रय हो सकता है। और जब उक्त अनुमान और उक्त लाघवशान जपमानप्रमाणवादी को भी अपेक्षित होता है तो उक्त लावयज्ञानसत्कृत उक्त अनुमान से ही गवयपद में गवयत्यप्रवृत्ति निमित्तफत्य का निश्रय संभव होने से जगमानप्रमाण की कल्पना निरर्थक है।" [अनुमान से गवयपद की शक्ति का ग्रह असंभव-नेयायिक ] अब नैयायिक विद्वान कहते हैं कि-उपमान विरोधी का उक्त कथन सभ्यर्थ नहीं है, क्योंकि गवयपत्र में सप्रवृत्तिनिमित्तकत्व का जो मामान्य अनुमान बताया गया है, उस में गवयत्वप्रवृत्तिनिमित्तकत्व की अनुमति नहीं हो सकती, क्योंकि उस सामान्यानुमान के लिये अपेक्षित व्याप्तिज्ञान का आकार यही है कि-'जो पद होता है वह (सामान्यरूप से) सप्रवृत्तिनिमितक होता हैं' न कि जो पद होगा है वह (विशेषरूप से) गवयत्यप्रवृत्तिनिमित्तक होता है।' क्योकि पदत्व घटादिघद में गवयन्धप्रवृत्तिनिमित्तकस्य का प्यभिचारी है 1 इस प्रकार उक्त सामान्यानुमान में अपेक्षित व्याप्तिान अब सप्रवृत्तिनिमित्तकात्य में ही पदत्य की व्यापकता को विषय करता है और मययत्वप्रवृत्तिनिमित्तकाल में नहीं करता तो उस व्याप्तिान से गयत्यप्रवृत्तिनिमित्तकत्व की अनुमिति फैल हो सकती है? क्योंकि यह नियम है-जो व्याप्तिज्ञान जिस रूप से साध्य में हेतुब्यापकता को विषय करता है म व्याप्तिज्ञान से उस रूप से ही साध्य की अनुमिति होती है। हेतु के व्यापकतानवच्छेदकरूप से माध्य. अनुमिति में प्रकार नहीं होता। सामान्थानुमान के बाद होने वाले उक्त व्यतिरेको अनुमान से भी गवय पद में गवयवप्रवृत्ति निमित्तकत्व की अनुमिति नहीं हो सकती क्योंकि उस अनुमान द्वारा सीधे गवयत्व प्रवृत्तिनिमितकत्व ही साध्य है और वह स्वयं अप्रसिद्ध है और अप्रसिद्धयस्तुमकारक कोई ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि तम्प्रकारकवुद्धि में तद्विषयक शान कारण होता है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] [ शाखषातां स्त० १० / १६ , अत्र 'सादृश्यादिविशिष्टपिण्डदर्शनं करणम्, उद्बोधकी भूतैतजन्यातिदेशवा क्या र्थस्मृतिर्व्यापारः ' इति मिश्राः । एतन्नये वाक्यार्थस्मृत्यव्यवहितोत्तरं सादृश्यविशिष्टपिण्डदर्शन उपमितिर्न स्यात्, इत्यतिदेशवाक्यार्थधीः करणम्, तदर्थस्मृतिर्व्यापारः सदृशपिण्डदर्शनं च सहकारि' इति नव्याः । 'एतन्नये ऽतिदेशवाक्यार्थानुभवोत्तरमेव सदृश पिण्डदर्शन उपमितिनं स्यादिति वाक्यज्ञानं करणम्, वाक्यार्थानुभवादिकं व्यापारः' इत्यन्ये । " अयमपि नयश्चित्रलेखादिना मानस बोधादुपमित्यमाथे शोभते । न च निश्चयत्वाऽप्रवेशला घयादतिदेशवाक्यार्थशाब्दत्वेनैव हेतुत्वात् प्रकृत आभिप्रायकशब्दकल्पनाद् नानुपपत्तिरिति वाच्यम्; तदर्थज्ञानसत्त्वेऽपि व्यापारभृततन्निश्चयादेव कार्यसंभवात् । [ मिश्र और नव्य नैयायिकों का मतभेद ] उपमान प्रमाण के सम्बन्ध में मिश्र (पक्षधर मिश्र) का यह कहना है कि गोसादृश्य विशिष्टपिण्ड (पशु शरीर) का दर्शन उपमिति प्रमा का करण है एवं इस दर्शनरूप उदबोधक से उत्पन्न 'गोसदृशो गयय:' इस अतिदेश वाक्य के अर्थ का स्मरण व्यापार है और गोदश गवय में गवयपद का शक्तिग्रह, उन दोनों का उपमिति प्रमारूप फल हैं। किन्तु इस मिश्र मत में, जब किसी अन्य उद्बोधक से उक्त अतिदेशवाक्य के अर्थ की स्मृति होगी. और उस के अव्यवहित उत्तरक्षण में गोसादृश्य विशिपिण्ड का दर्शन होगा: तब गोसदृश गय में गवयपदवाच्यत्व की उपमिति न हो सकेगी, क्योंकि उस ममय उपमिति-करण और उस के व्यापार के पौर्वापर्य का भंग है । अतः नव्य कुछ नैयायिकों का कहना है कि 'गोसदृशी गवयः इस अतिदेश वाक्यार्थ का शाब्दबोध उपमिति का करण है, और अतिदेशवाक्यार्थ का स्मरण उस का व्यापार हैं, एवं गोसपिण्ड का दर्शन उस स्मरण का सहकारी है | अतः उक्त स्मरण और उक्तदर्शन के पौर्वापर्य का कोई नियम न होने से दोनों स्थिति में वाक्यार्थस्मृति के पूर्व अथवा वाक्यार्थस्मृति के बाद उक्त दर्शन होने पर उपमिति होने में कोई बाधा नहीं हो सकती । [ नव्यनैयायिक के साथ दूसरे विद्वानों का मतभेद ] उक्त नव्य मल में जब 'गोमदृशी गवय:' इस अतिदेश वाक्य के अर्थानुभव के बाद तथा उस अर्थ के स्मरण के पूर्व गोसदपिण्ड का दर्शन होगा तत्र उपमिति का उदय न हो सकेगा क्योंकि उक्त वाक्यार्थ्यानुभव के उक्त वाक्यार्थस्मरणरूप व्यापार का उस काल में अभाव है । अत: अन्य किसी विद्वानों का कहना है कि उक्त अतिदेश वाक्य का ज्ञान ही करण है और उस वाक्य का अर्थानुभव अथवा अर्थस्मरण ही उस का व्यापार है तथा गोसदृश पिण्ड का दर्शन उस व्यापार का सहकारी है। किन्तु युक्ति के आधार पर निष्कर्ष का अभ्युपगम करनेवाले विज्ञानों का कहना है कि अन्य विद्वानों द्वारा उक्त मत भी तभी समीचीन हो सकता है जब 'गोसदृशी गवय:' इस वाक्य की लिपि से गोहा में गवयपदवाच्यत्व के एवं यय के चित्र से गोसदृशपिण्ड के मानस ज्ञान से गोसदृश में गवयपदवाच्यत्व की उपमिति न हो । किन्तु उक्त मानवज्ञान से भी उपमिति होती है जो अन्य विद्वानों के उक्त मत में नहीं हो सकती, क्योंकि उक्त मानसज्ञान के समय न वाक्यज्ञान है न वाक्यार्थ का अनुभव अथवा स्मरण है तथा न गोसरशपिण्ड का दर्शन ही है । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. फ. टीका- हिन्दीविषेचन { ७३ तस्मात् सादृश्यज्ञानमात्रं करणम्, व्यापारोऽतिदेशवाक्यार्थज्ञानम् सादृश्यविशिष्टपिण्डदर्शन च उभयत्रैव विशेषणीभूतसादृश्यज्ञानहेतुत्वात्' इति यौक्तिकाः । अथ 'त्रिक करभमतिदीर्घग्रीवं कठोरकष्टकाशिनमपसदं पशूनाम्' इत्यादिवाक्या थज्ञानादनन्तरमतिदीर्घग्रीवत्वादिरूपवत्पिण्डदर्शने करमपदवाच्यतोपमितेरत्र पचन्तर धर्म्यज्ञानमप्युपमितिहेतुः इति साधर्म्य - वैधर्म्यज्ञानयोरूपमितिहेतुत्वे व्यभिचार इति चेत् ? न, इदंस्थाद्यवच्छिन्ने गवयपदवाच्वत्योपमितौ गवयपदवाच्यत्वधर्मितावच्छेदकमकारकज्ञानत्वेन हेतुत्वात् । अस्तु वाऽनुमितिविशेषे परामर्शविशेषवदुपमितिविशेषे तज्ज्ञानानां हेतुत्वम्, अन्यथा तवदप्रामाण्यज्ञानाभावनिवेशानुपपत्तेः' इत्याहुः । [ युक्तिवादीयों के सामने दूसरे विद्वानों की आशंका ] यदि यह कहा जाय कि अतिदेशवाक्यार्थ का ज्ञान अतिदेशवाक्यार्थविषयकनिश्वयत्वरूप से उपमिति का कारण नहीं है किन्तु अतिदेशवाक्यार्थविषयक शाब्दबुद्धिरूप से ही कारण है, क्योंकि निश्चयत्वघटितरूप से कारण मानने की अपेक्षा शाब्दत्वघटितरूप से कारण मानने में लाभ है | अतः निभयत्य के अर्थसमाजग्रस्त होने से कार्यतावच्छेदक न हो सकने के कारण निश्रय तज्जन्यत्ववदितव्यापारत्य न होने पर भी कोई दोष नहीं है । तथा, लिपि और चित्र आदि में होनेवाले मानसबोध के स्थल में उपमिति की अनुपपत्तिप्रयुक्त दीप भी नहीं है, क्योंकि जहाँ अतिदेशवाक्य का श्रवण नहीं होता किन्तु अतिदेशवाक्य के लिपि का ज्ञान होता है वहाँ लिपि द्वारा लिपिकर्त्ता को अभिप्रेत शब्द का ज्ञान होकर अतिदेशवाक्यार्थ का शाब्दबोध होता है। गवं जहाँ गवय के चित्र से गोसदृश पिण्ड का मानसज्ञान होता है वहाँ भी 'यह गोसदृशविण्ड का चित्र है' इस प्रकार चित्र अंश में लौकिक और गोसदृश पिण्ड अंश में अलौकिक चाक्षुत्र दर्शन होता है, अत: उन्कस्थल में वाक्यज्ञानरूप करण वाक्यार्थानुभवरूप व्यापार तथा गोसदृश पिण्डदर्शनरूप सहकारी के सन्निधान से ही उपमिति का उदय होता है । [ दूसरे विद्वानों की शंका के प्रति युक्तिवादीयों का उत्तर ] तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अतिदेशवाक्यार्थ का ज्ञान होने पर भी अतिदेशवाक्यार्थ के निश्चयरूप व्यापार से ही उपमितिरूप कार्य की उत्पत्ति होती है। कहने का आशय यह है कि लिपि और चित्र का जहाँ दर्शन होता है यहाँ लिपि से शब्द की कल्पना की और चित्रदर्शन को गोसपिण्डविषयक मान श्रिना भी उपमिति का उदय आनुभविक है, एवं नित्य के कार्यतावच्छेदक न होने पर भी निश्चय में अनुभवत्यरूप से जन्यता होने से निश्चय भी व्यापार हो सकता है। अतः यह मानना युक्तिसंगत है कि साहय का ज्ञान मात्र करण है, उसे दर्शनात्मक अथवा अनुभवात्मक होना आवश्यक नहीं है । एवं अतिदेशवाक्यार्थ का ज्ञान और सादृश्य विशिष्टपिण्ड का दर्शन ये दोनों सादृश्यज्ञान का व्यापार है, क्योंकि दोनों साश्यविशिष्टविषयक हैं, अतः दोनों में सादृश्यरूप विशेषण का ज्ञान कारण है। इसलिये उन दोनों में सादृश्यज्ञान से जन्म होते हुये सादृश्यज्ञान से जन्य उपमिति का जनकत्वरूप व्यापार मंभव है । उपमिति के सम्बन्ध में मिश्र-नव्य-अन्य और युक्तिवादियों के मतों की चर्चा के आधार १० Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] [ शात्रवार्था० स० १० / १६ , पर यह निष्कर्ष उपलब्ध होता है कि गवय में गवयपद वाच्यस्व की उपमिति तभी होती है। जब गोसादृश्यज्ञान से ' 'गोसटशी गययः इस अतिदेशवाक्यार्थ का ज्ञान और गोसादृश्यविशिष्टपिण्ड का दर्शन होता है। इस निष्कर्ष के अनुसार उपमिति के उदय की प्रक्रिया निम्न प्रकार से हो सकती है । [ उपमितिज्ञान के प्रादुर्भाव की प्रक्रिया का निष्कर्ष ] ग्रामवासी पुरुष ग्राम में आये आरण्यक पुरुष के वाक्य से गोसदृश में गवयपदवाच्यत्व का ज्ञान प्राप्त कर जब अरण्य में जाता है और गवय का दर्शन करता है तब उसे गोसादृश्य का स्मरण हो जाता है क्योंकि गोसाइय के पूर्वानुभय से उत्पन्न गोसादृश्य विषयक संस्कार गवयदर्शन से प्रबुद्ध हो जाता है। गोसादृश्यस्मरण के बाद उसे 'गोसद्दशी गवय:' इस प्रकार गोसाइफिशिष्ट गवय पिण्ड का दर्शन होता है । इस दर्शन से उदबुद्ध संस्कार द्वारा अतिदेशवाक्य का स्मरण होकर उसके अर्थानुभव का उदय होने पर गोसदृश में गवयपदवाच्यत्र की उपमिति होती है। उक्त दर्शन और स्मृत अतिदेशवाक्य से उत्पन्न वाक्यार्थानुभव दोनों गोसारश्य ज्ञान से उत्पन्न होने से व्यापारविधया और गोसादृश्य का ज्ञान करणविधया उक्त उपमिति के जनक होते हैं । इन प्रक्रिया के सम्बन्ध में यह ज्ञातव्य है कि जब गवयदर्शन से अतिदेशवाक्यार्थविषयक संस्कार उदबुद्ध है तब अतिदेशवाक्यार्थस्मरण के बाद गोसदृश गवयपिण्ड का दर्शन होकर उपमिति होती है, और जब गोसरशगवय के पिण्ड के दर्शन से उक्त संस्कार उदबुद्ध होता है । तब सटश पिण्डदर्शनोत्तर अतिदेशवाक्यार्थ का स्मरण होता है। पर्व जब भतिदेशवाक्यार्थ के अनुभव के अनन्तर गोसदृशपिण्ड का दर्शन होता है, तब अतिदेशवाक्यार्थ की स्मृति अपेक्षित नहीं होती किन्तु अतिदेशवाक्यघटक गोसदृशपदार्थ की उपस्थितिरूप सादृश्य ज्ञान से उक्त वाक्यार्थानुभव और सहा पिण्डदर्शन इन दोनों द्वारा उपमिति का उदय होता है । और जब अतिदेशवाक्य की लिपि से अतिदेशवाक्य का ज्ञान एवं गवय के चित्र से गोसदृशपिण्ड का दर्शन होता है उस समय भी लिपि से अवगत अतिदेशवाक्य के घटक गोष्टापद से होनेवाले गोसदृशविषयक उपस्थितिरूप सादृश्यज्ञान से उक्त वाक्यार्थविषयक बोध और चित्रदर्शन से उत्पन्न गोसपिण्ड दर्शन के द्वारा उपमिति का जन्म होता है। इस प्रकार जब भी उपमिति का उदय होता है तब सदैव उपमिति के पूर्व सादृश्यज्ञानरूप उपमानप्रमाण एवं अतिदेशवाक्यार्थज्ञान तथा गोमदृश गजयपिण्ड का दर्शनरूप व्यापारश्य का सन्निधान अवश्य रहता है। यदि यह कहा जाय कि जैसे गोसदृशपिण्ड के दर्शन से गवयपदवाच्यत्य की प्रमा के अनुगंध से सादृश्यज्ञान को उपमिति का कारण माना जाता है । उसी प्रकार पशुओं में अधम उस कदम को धिक्कार है जिस की प्रीवा अत्यन्त लंबी होती है और जो कठोर कांटों का भक्षण करता है।' इस अतिदेशवाक्य से अत्यन्त दीर्घग्रीवा से युक्त कठोर कण्टक के भक्षणकर्त्ता अधमपशु में करमपद वाच्यत्त्र का ज्ञान होता है और उसके अनन्तर समस्त पशुओं से लक्षण ऐसे पशुण्डि का दर्शन होने पर उस में करमपश्वाच्यत्व की उपमिति होती है । अतः अन्य पशु के वैधशान को भी उपमिति कारणता प्राप्त है। किन्तु ऐसा मानने पर वैधर्म्यज्ञान से होनेवाली उपमिति के प्रति साधर्म्यज्ञान-सादृश्यज्ञान व्यभिचारी होने से पवं साहश्शान से होनेवाली उपमिति के प्रति वैधर्म्यज्ञान व्यभिचारी होने से साधर्म्यज्ञान और ज्ञान, दोनों में से एक को भी उपमिति का कारण नहीं माना जा सकता । अतः अति • Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका - हिन्दीविवेचन ] [ ७५ रिक उपमान प्रमाण की कल्पना नियुक्तिक है। " सो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'अयं गोसदृशः ' तथा 'अयम् अतिदीर्घग्रीवः कठोरकण्टकाशी इन दोनों शानों का अतिदेशवाक्यजन्य शान में पदवाच्यत्व के धर्मितावच्छेदकरूप में जो धर्म भासित होता है तत्प्रकारकज्ञानत्वरूप से, अनुगम कर के शान प्रथा वैवगन दोनों की अनुगतरूप से पदवाच्यत्व की उपमिति का कारण मानने से व्यभिचार का परिहार हो सकता है, क्योंकि नियम ऐसा है कि अनिदेश वाक्य से विशिष्ट में यत्पदवाच्यत्य का ज्ञान होता है तद्वप्रकारकज्ञान पद्धर्मविशिष्ट में उत्पन्न होता है तद्धर्मविशिष्ट में तत्पदवाच्यत्व की उपमिति होती है । जैसे 'गोसटशी गवयः इस अतिदेशवाक्य से जन्यज्ञान में गोसायविशिष्ट में गवयपदवाच्यत्व का ज्ञान होने से 'गोसादृश्य' अतिदेशवाकरजन्यज्ञान में गवाच्यत्व का धर्मितायच्छेक होता है अतएव गोमरूप धर्म का वयत्व आदि यद्धर्मविशिष्ट में ज्ञान होता है तद्धर्भविशिष्ट में वाच्यत्व की उपमिति होती है। इसीप्रकार अतिदीर्घग्रीवः कठोर कण्टभक्षी पश्वकर विधर्मा करवाच्यः इस अतिदेशवाक्य जन्यज्ञान में अतिवीर्यत्व एवं कठोरकण्टकश्रीन्य यह धर्मयुगः करभपदवाच्यत्व का धर्मितावच्छेदक होता है। अतः इस धर्मयुग का इदन्य करमत्व आदि धमें से विशिष्ट में ज्ञान होने पर उक्त धर्मविशिष्ट में करमपदवाच्यत्व की उपमिति होती हैं। इस प्रकार उत्तरीति से उपमिति के प्रति साधम्यज्ञान एवं वैधर्म्यज्ञान के व्यभिचार का कारण हो जाने से उक्त उभयज्ञान को उपमिति का कारण मानने में कोई बाधा न होने के कारण उपमानप्रमाण का अभ्युपगम करने में कोई बाधक नहीं हो सकता | 1 2 अथवा उपमिति के प्रति साधम्र्य और वैधभ्यंज्ञान में प्रदर्शित व्यभिचार का धारण करने के लिये यह कहा जा सकता है कि जैसे मत्तलिङ्गक अनुमिति में तनलिङ्गपरामर्श को कारण मानने से अनुमिति और परामर्श के कार्यकारणभाव में प्रसक्त व्यभिचार का परिहार होता है उसी प्रकार साधम्यज्ञान से होनेवाली उपमिति के प्रति साधम्र्म्यज्ञान को और शान से होनेवाली उपमिति के प्रति वैधम्येज्ञान को कारण मानने से उपमिति और साधस्य वैधम्र्य ज्ञान के कार्यकारणभाव में मसक्त व्यभिचार का परिहार हो सकता है। तथा इसी प्रकार कार्यकारणभाव मानना उचित भी है क्योंकि इस प्रकार कार्यकारणभाव मानने पर अप्रामाण्यज्ञान से आस्कन्दित साधर्म्यज्ञान और वैधज्ञान से उपमिति की उत्पत्ति होने की आपत्ति का परिहार करने के लिये साधर्यज्ञान और वैधम्यंज्ञान में विद्यमान उपमितिकारणता की अच्छे कोटि में साधर्म्यविषयक अप्रामाण्य ज्ञानाभाव और वैधविषयक अप्रामाण्यवानाभाव का निवेश कर इस प्रकार कार्यकारणभाव की कल्पना की जा सकती है कि साधर्म्यज्ञान से होनेवाली अनुमिति में साधम्मेविषयक अप्रामाण्यज्ञानाभावविशिष्टसाधर्म्यज्ञान कारण है एवं वैधज्ञान से होनेवाली उपमिति में धर्म्यविषयक अप्रामाण्यज्ञानाभाव विशिष्ट वैषम्यंशान कारण है । किन्तु यदि साधक - वैधर्म्य दोनों का दवाध्यत्व के धर्मितावच्छेदकत्वरूप से अनुगम कर पदवाच्यत्व की उपमिति में पदवाच्यत्व के धर्मिकीभूतधर्ममकारकज्ञानत्वरूप से अनुगत कारणता मानी जायगी तब कारणतावच्छेदक कोटि में साधर्म्यविषयक अप्रामाण्यज्ञानाभाव का निवेश करने पर साधर्म्य विषयक अप्रामाण्यज्ञानाभाव दशा में विषयक प्रमाण्यज्ञान से आस्कन्दित वैधशान से उपमिति की आपत्ति होगी, एवं वैधर्म्यविषयक अप्रामाण्यज्ञानाभाव का निवेश करने पर उस अभाव की दशा में साधयविषयक अप्रामाण्यज्ञान से आस्कन्दित साधम्येशान से उपमिति की आपति होगी। यदि साधर्म्यविषयक अप्रामाण्यज्ञानाभाव एवं वैधर्म्यविषयक अप्रामाण्यज्ञानाभाव दोनों का निवेश होगा तो वैधस्य Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] [शासवार्ताः स्त० १०/१६ वयं तु घूमः-गवये गोसादृश्यज्ञान न प्रत्यक्षम् , अस्पष्टत्वात् , 'उपमिनोमि' इति विलक्षणानुभवाच्च । किन्तु, प्रत्यभिज्ञाविशेष एव, उपमितित्वस्य प्रत्यभिज्ञात्वव्याप्यत्वात्। गक्ये गोसादृश्यज्ञाने गवि गवयसादृश्यपरिच्छेदोऽपि लिङ्गादिप्रतिसंधानानपेक्षत्वाद् नानुमानिकः, किन्तु विचित्रक्षयोपशमाधीनस्तस्यैव समानातिवधपर्यायग्रहपरिणामः । संज्ञा-संज्ञिसंबन्धमतातिरपीथमे बोपपादनीया, प्रतीतगवयपदबाच्यत्वोपलक्षणताकस्य गोसादृश्यस्य ग्रहेऽतिदेशवाक्यार्थस्मरणे च सति गवयं प्रति व्यापारित लोचने तथाप्रत्यभिज्ञावरण क्षयोपशमात् 'अयं गवयपदप्रतिनिमित्तवान् ' इति परिच्छेदोपपत्तेः । अन्यथा 'कररेखाविशेषवान् शतवर्षजीवी' इति बाक्याथै प्रतिसंदधतः क्वचित् पुरुषे कररेखाबिशेषोपलग्भे तत्र 'अयं शतबर्षजीवी' इत्यनुसंथानमपि प्रमान्तर स्यात्, इति तत्रापि प्रमाणान्तरमन्वेषणीयं देवानां पियेण । विषयक अप्रामाण्य ज्ञानदशा में साधम्य विषयक अप्रामाण्य ज्ञान न रहने पर भी साधयान से, एवं माधविषयक अप्रामाण्यज्ञान दशा में वैधम्यविषयकप्रामाण्यज्ञान न रहने पर भी वैधम्यंज्ञान से, उपमिति न हो सकेगी। क्योंकि, उक्त स्थल में उक्त दोनों अप्रामाण्यशानामावों से विशिष्ट पदवाच्यत्य का धर्मितावच्छेदकप्रकारक ज्ञान नहीं है। फलतः कारणतावच्छेदककोटि में अप्रामाण्यमानाभाव के निवेश की अनुपपति में अनुगत कारणता का समर्थन नहीं हो सकता। [उपमिति का प्रत्यभिज्ञा में अन्तर्भाव-व्याख्याकार] प्रस्तुत विषय में जनदर्शन के सिद्धान्त पक्ष का अवलम्बन करते हुए व्याख्याकार का कहना है कि गवय में जो गोमादृश्य का ज्ञान होता है वह प्रत्यक्षात्मक नहीं है, क्योंकि वह अस्पष्ट है जब कि प्रत्यक्षान्मक ज्ञान स्पष्ट ही होता है। दूसरी बात यह है कि उस शान का 'उपमिनोमि-गवयं गया उपमिनामि' इस प्रकार उपमितित्वरूप से अनुभव होता है । यदि यह प्रत्यक्षरूप हो तो इस अनुभव की उपपत्ति नहीं हो सकती । अत: उक्तनान प्रत्यभिज्ञा का ही एक भेद है, उमितित्व प्रत्यभिज्ञात्य का व्याप्यधर्म है। पर्व गवय में गोसादृश्य का ज्ञान होने के अनन्तर जो गो में गवयसादृश्य का निभय होता है, वह भी लिन आदि के ज्ञान की अपेक्षा किये विना ही उत्पन्न होने के कारण आनुमानिक नहीं है । विशेष्यभूत गो के साथ इन्द्रिय का मनिकर्प न होने से उस में प्रत्यक्षामकत्व की भी कल्पना नहीं हो सकती । अतः ग्रह मानना उचित है कि गययनिष्ठ गोसादृश्य एवं गोनिष्ठगययसादृश्य दोनों समानवित्ति-समानसामग्री से वेद्य गयय और गो के पर्याय हैं और उन का ज्ञान गवय और गो के उन पर्यायों का हो ग्रहण परिणाम है जो विचित्र क्षयोपशम से उत्पन्न होता है । इसलिये गषय में गोसादृश्यज्ञान के बाद होनेवाला गो में गवयमादृश्य का निश्चय भी प्रत्यभिशा का ही भेद है। [प्रत्यभिज्ञाभेद न मानने पर नये प्रमाण की आपति] नयायिकों के मत में उपमान से जो संक्षा और संझी के सम्बन्ध की प्रतीति मानी जाती है उस की भी उपपत्ति इसी प्रकार हो सकती है। अर्थात् यह कहा जा सकता है कि गोसादृश्य से उपलक्षित पशु में गवयपदपाध्यस्व की प्रतीति होने के बाद गोसादृश्य का ज्ञान पर्व अतिदेशवाक्यार्थ का स्मरण होने पर गवय के साथ चश्च के सन्निकर्ष से 'गोसरशोऽयं गवयास प्रत्यभिज्ञा के आचरण के क्षयोपशम से 'अयं गवयपदप्रवृत्तिनिमितवान् । इस प्रकार का निमय हो जाता Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ ७७ अधात्र 'कीलिङ्गः शतवर्षजीवी ?' इति प्रश्न 'कररखाविशेषवान् शतवर्षजीवी' इत्युत्तरवाक्यं व्याप्तिपरम् इति कररेखाविशेषणलिङ्गेन शतवर्षजीवित्वमनुमीयत इति चेत् ? न, लिङ्गाद्यनुसंधानाभावात् अन्यथा प्रकृतेऽर्पादृशक्रमस्य सुवचत्वात् । " इन्द्रियव्यापाराभावेऽप्युपलब्धगोसादृश्यविशिष्टगवयपिण्डस्य वाक्यतदर्थस्मृतिमतः कालान्तरेऽप्यनुसंधानबलात् समयपरिच्छेदोपपत्तेनं प्रत्यभिज्ञानमेतत्" इत्ति तु 'प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्षविशेष:' इति वदतां दूषणम्, नास्माकमत्र परोक्षमेदवादिनाम् । हेतुभेदध्यात्र नाधिक्यसाधकः, प्रत्यक्षविशेषे चाक्षुपादौ चक्षुरादिहेतुभेदवत् प्रत्यभिज्ञाविशेषेऽतिदेशवाक्यादिहेतुमेदोपपत्तेः । नन्वेवमतिदेशवाक्यार्थानुभवानन्तरं झटित्येव सहश पिण्डदर्शन उपमितिर्न स्यात्, अनुभव- स्मरणोत्तरमेव प्रत्यभिज्ञानोपगमादिति चेत् ? न स्यादेव यदि श्रुतोपयोगानुपरमः, तदुपरमे तु स्मृतिसंपन्या स्यादेषेति द्विग् ॥ १६॥ 2 है । यह निश्रय भी प्रत्यभिक्षा का ही एक भेद है । यदि इन ज्ञानों को प्रत्यभिक्षा में भिन्न प्रमी मानकर उस की उपपत्ति के लिये उपमान नामक अतिरिक्त प्रमाण की कल्पना की जायेगी तो उसी के समान पक और अतिरिकप्रमाण की कल्पना की आपत्ति होगी। जैसे कोई सामुद्रिक किसी व्यक्ति से कहता है कि जिस के हाथ में अमुक प्रकार की विशेष रेखा होती हैं वह सौ वर्ष तक जीवित रहता है । फिर वह व्यक्ति जब किसी अन्य मनुष्य के हाथ में उस प्रकार की रेखा देखता है तब उसे सामुद्रिक के वाक्य का अस्मरण होकर उस मनुष्य के विषय में यह ज्ञान होता है कि यह मनुष्य सौ वर्ष तक जीवित रहनेवाला है। यह ज्ञान प्रत्यक्ष, अनुमिति, उपमिति अथवा शाब्दबोधरूप नहीं है, किन्तु प्रमा है | अतः इस के करणभूत 'हाथ के रेखाविशेष के ज्ञान को अतिरिक्त प्रमाण मानना आवश्यक है। फिर भी इसे प्रमाण न मानना, और गो में गवयसादृश्यज्ञान के अथवा मबयपद में गवयत्व प्रवृत्तिनिमित्तकवित्व ज्ञान के करणभूत ' गवय में गोसादृश्य ज्ञान को अतिरिक्त प्रमाण मानना - यह अक्षता का ही सूचक है । 1 [ शतवर्षजीवितज्ञान का अनुमिति में अन्तर्भाव अनुचित ] यदि यह कहा जाय कि कैसे चिह्नवाला व्यक्ति शतवर्षजीवी होता है, इस प्रश्न उत्तर में यदि यह कहा जाता है कि जिस के हाथ में अमुक प्रकार की विशेष रेखा होती हैं वह शतवर्षजीवी होता है तो इस कथन का तात्पर्य इस प्रकार की व्याप्ति बताने में होता है कि जिन मनुष्यों के हाथ में अमुक प्रकार की विशेष रेखा होती है वे सभी शतवर्षजीबी होते हैं। अतः किसी मनुष्य के हाथ में विशेषरेखा देख कर जो उस के शतवर्षजीवित्व का ज्ञान होता है यह अनुमितिरूप है क्योंकि वह उक्त व्याप्तिज्ञान से प्रादुर्भूत होता है" - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त उत्तर से लिङ्ग-लिङ्गत्व-व्याप्ति आदि का ज्ञान नहीं होता और यदि उक्त उत्तर से व्याप्ति आदि का ज्ञान मान कर हाथ के रेखाविशेष से होनेवाले शतffers के ज्ञान को अनुमितिरूप माना जायगा तो यह क्रम गाय में गोसादृश्यज्ञान से होनेवाले गो में गवयसादृश्यज्ञान अथवा गवय में गवयपदवाच्यत्वज्ञान के सम्बन्ध में भी कहा जा सकता है । अर्थात् यह कहा जा सकता है कि 'गोसदृशी गवयः इस अतिदेशवाक्य का भी • तात्पर्य nerve सादृश्य के प्रतियोगित्व में गवयसादृश्य की व्याप्ति बताने में अथवा गोसादृश्य · Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] [ शासवा० स्त० १०/१७ अर्थापत्त्यापि तद्ग्रहं प्रतिपादयितुमाहशास्त्रादतीन्द्रियगतरर्थापत्यापि गम्यते । अन्यथा तत्र नाश्वासश्छद्मस्थस्योपजायते ॥१७।। शास्त्रात् वेदात्, अतीन्द्रियगतेमः धर्मा-ऽधर्मादिपरिच्छेदात्, अर्थापत्यापि-परमार्थनीत्या गम्यते सर्वज्ञः । न हि तद्वाच्यवाचकसाक्षात्कारिव्यतिरेकेण सम्यकशास्त्रादतीन्द्रियार्थगतिरित्यर्थात् तसिद्धिरिति । इत्थं तदङ्गीकर्तव्यम् । अन्यथा तत्र अतीन्द्रियार्थ नावाम:='इदमित्यमेव ' इत्येवम् छझस्थस्य अक्षीणावरणस्य प्रमातुः उपजायते, यक्ष्यमाणरीत्या शक्ति तात्पर्यनिश्चयाभावात् , निश्चितेऽप्यावरणदीपात् संशयाद्युत्पत्तेश्च ज्ञानावरणप्रकृतिकत्वाज्ज्ञानावरणकर्मणः, सर्वज्ञमूलक वनिश्च मैं गवयपदयाध्यत्व की व्याक्ति बताने में है। आ पब गयय में गोसादृश्यज्ञान से जो मीमांसक मतानुसार गो में गवयसादृश्यशान होता है अथवा न्यायमतानुसार गोसदृश पशुधिशेष में गत्रय. पदवाच्यत्व का शान होता है वह अनुमि तिरूप है। यदि यह कहा जाय कि-" जिसे गोसादृश्यविशिए गयपिण्ड का दर्शन और गोमदशा गप्रयः' इम अतिदेशधाक्यार्थ का स्मरण हो चुका रहता है उसे अन्य काल में जब गषय के साश चक्षु का सन्निकर्ष नहीं होता तब भी गोसादृश्य विशिष्ट गवय पिण्ट तथा 'गांसदृशो गवयः' इस अतिदेशवावयार्थ का स्मरपा होकर गवय में गवयपद के समय(शक्ति) का निश्चय होता है, अत: मुसे प्रत्यभिज्ञा रूप नहीं माना जा सकता क्योंकि इन्द्रिय मन्निकर्य के अभाव में प्रत्यभिज्ञा की उत्पत्ति नहीं होती तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि इस कथन से जो दोष प्रदर्शित होता है वह प्रत्यभिज्ञा को प्रत्यक्षभेद माननेवाले लोगों पर ही लागू होता है। वह जैन विद्वानों पर लागू नहीं हो सकता, क्योंकि जैन दर्शन में प्रत्यभिज्ञा को परोलशान का भेद माना गया है । यदि यह कहा जाय कि-'उक्त ज्ञान अन्य परोक्ष ज्ञानों के हेतृशों से न उत्पन्न होकर उन से भिन्न हेतु से उत्पन्न होता है अत: वह परोक्षशान में अतिरिकतो यह ठीक नहीं है क्योकि हेतुभेद से अतिरिक्तता की सिद्धि नहीं हो सकती । जम. चाक्षुष-स्पार्शन आदि विभिन्न प्रत्यक्षों के वक्ष त्वक आदि विभिन्न न होने पर भी ये सब प्रत्यक्षात्मक ही होते हैं उसी प्रकार इन्द्रिय एवं अतिदेशवाक्य आदि विभिन्न हेतुओ से होनेवाले विभिन्न शान भी प्रत्यभिज्ञात्मक हो सकते हैं। यदि यह कहा जाय कि-'उपमिति को प्रत्यभिज्ञा का भेद मानने पर अनिदेशवाक्यार्थ के अनुभव के अनन्तर जब गोसशपिण्ड का दर्शन झटिति होता है तब उपमिति की उत्पत्ति न हो सकेगी क्योंकि अनुभवोत्तर स्मरण के बाद ही प्रत्यभिज्ञा की उत्पत्ति मानी जाती है। तो इस का उसर यह है कि यदि श्रुतोपयोग-वाक्यार्थबोध का घिराम नहीं होता तो उक्त स्थिति में उपमिति की उत्पत्ति ही नहीं होती है और जब उस का उपरम हो जाता है तब वाक्यार्थ की स्मृति के सम्पन्न होने पर उपमिति हो ही सकती है ।।१६।। [अर्थापत्तिप्रमाण से सर्वसिद्धि] कारिका १७ में यह बताया गया है कि अापत्तिप्रमाण से भी सर्वक्ष की सिद्धि हो सकती है | कारिका का अर्थ इस प्रकार है शान से धर्म-अधर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थ का ज्ञान होता है अतः अर्थापत्ति से भी सर्वत्र Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ ७९ याच तन्निवृत्तिः सुघटा, "तेमेव सच्चं०" इत्याद्यागमप्रामाण्यात् । वेदमूलकत्वेन तु न तनिवृत्तिः, वेदमूलकत्वेऽव्यभिचारित्वव्याप्यत्वस्य वेदेनाऽबोधनात्; अन्यतश्वानाश्वासादिति स्फुटीभविष्यत्युपरिष्टात् । एवं वचनविशेषान्यथानुपपत्तिरूपयाऽप्यर्थापत्त्या सर्वज्ञसिद्धिर्भावनीया । अथाऽसर्वज्ञस्व-चक्तृत्वयोर्वहि धूमयोरिव नियतानुकृतान्वयव्यतिरेकत्वेन हेतुहेतुमद्भावात् कथमेतत् ? न च विवक्षाया एव बचनहेतुत्वम्, तदभावे ऽसर्वज्ञत्व-रागादिसद् भावेऽपि वचनाभावेन व्यभिचारादिति वाच्यम् विवक्षायामपि व्यभिचारोपलब्धेः अन्यविवक्षायामन्य शब्ददर्शनात्, अन्यथा > की सिद्धि होती है । आशय यह है कि वाच्यअर्थ, वाचकशब्द और उन दोनों के सम्बन्ध साक्षात्कर्त्ता के अभाव में सम्यकशास्त्र से अतीन्द्रिय अर्थ का ज्ञान नहीं हो सकता है । अतः यदि शास्त्र से अतीन्द्रिय अर्थ का ज्ञान होता है तो यह स्वीकार करना होगा कि उस शास्त्र की रचना करनेवाला कोई ऐसा सर्व पुरुष है जिसे शास्त्र के प्रतिपाच अर्थ, उस अर्थ के बाचक शास्त्रघटक शब्द और उन दोनों के सम्बन्ध का साक्षात्कार है। यदि ऐसा न माना जायगा तो अतीन्द्रिय अर्थो के सम्बन्ध में छमस्थ पुरुष को जिस के ज्ञानावरण का क्षय नहीं हुआ है - यह ऐसा अवश्य है' इस प्रकार का विश्वासात्मक निश्चय न हो सकेगा क्योंकि आगे बतायी जानेवाली रीति से उसे शास्त्रघटक शब्दों की शक्ति का तथा शाखा के तात्पर्य का निश्चय नहीं होता | यदि किसी प्रकार निश्चय हो भी जाय तो आवरणदोष से संशय विपर्यय आदि की उत्पत्ति हो जाती है क्योंकि ज्ञान का आवरण करना (ज्ञानोत्पत्ति का अवरोध करना) यह ज्ञानावरणकर्म का स्वभाव है । जब कि शास्त्र में सर्वशमूलकत्व के निश्चय से अतीन्द्रिय अर्थो में संशयादि की निवृत्ति उपपन्न हो सकती है क्योंकि आगम से यह प्रमाणित है कि सर्वश मूलक वन्दन] ही सत्य होता है । वेदमूलक होने से कभी संशयादि की निवृत्ति नहीं हो सकती क्योंकि वेद द्वारा 'वेदमूलकत्व में अर्थ के अव्यभिचारित्व की व्याप्ति' का बोध नहीं होता । यदि किसी अन्य से उस का बांध माना जाय तो उस में विश्वास नहीं हो सकता, यह बात आगे स्पष्ट की जायेगी । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अतीन्द्रिय अर्थ के बोधक वचनविशेष की सर्वश के बिना अनुपपत्तिरूप अर्थापत्ति से सर्वेश की सिद्धि की जा सकती हैं। [ वक्तृत्व असर्वज्ञता का अनुमापक होने की आशंका ] सर्वेश को वक्ता मानने पर यह प्रश्न हो सकता है कि जैसे धूम द्वारा वह्नि के अन्वयव्यतिरेक का नियमेन अनुकरण होने से वह्नि और भ्रम में हेतुहेतुमद्भाव होता है वैसे ही वक्तृत्व द्वारा असवेशत्व के अन्वयव्यतिरेक का नियमेन अनुकरण होने से असत्य और वक्तृत्व में भी हेतुहेतुमद्भाव है। अतः सर्वश में वक्तृत्व कैसे हो सकता है ? यदि यह कहा जाय कि ' विवक्षा ही बचन का कारण होती है क्योंकि उस के अभाव में सर्वशस्य और रागादि होने पर भी वचनप्रयोग नहीं होता है । अतः असर्वशत्व को वचन का कारण मानने में व्यभिचार है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अन्य अर्थ की विवक्षा में १. तमेव स निशंक जं जिणेहिं पवेश्यं - [ छाया -- तदेव सत्यं निःशंकं यद् जिनः प्रवेदितम् ] : Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] [ शास्त्रवार्ता० स्त० १० / १७ गोत्रस्खलना देरभावप्रसङ्गात् । अथ विवक्षाव्यभिचारेऽपि शब्दविवक्षायामव्यभिचार इति चेत् ? न, स्वप्नावस्थायामन्यगतचित्तस्य वा तदभावेऽपि वक्तृत्वसंवेदनात् । न चाऽसर्वज्ञत्वादिना वचनस्यान्वया सिद्धावपि तदभावे सर्वत्र वक्तृत्वं न भवति' इत्यत्र प्रमाणाभावात् प्रत्यक्षा- ऽनुपलम्भसाध्यः कथं हेतुहेतुमद्भाव निश्चयः ? इति वाच्यम् । वह्निमस्थलेऽप्येवं सुवचत्वात् तर्क बलेन नियमस्य चोभयत्र सुग्रहत्वादिति चेत् ? न, वह्नि - धूमयोरिवासर्वज्ञत्व वतृत्वयोः कार्यकारणभावाभावात् । तथाहि-‘वह्निसद्भावे धूमो दृष्टस्तदभावे न दृष्टः' इत्येतावतैव न धूमस्यामिकार्यत्वम्, किन्तु वह्निधर्मानुविधायित्वम्, “कार्य घुमो हुतभुजः कार्यं श्रर्मानुवृत्तित:" [ प्र०वा० ३।३५ ] इति वचनात् । तच्च न दर्शना दर्शनमात्र गम्यम्, किन्तु विशिष्टात् प्रत्यक्षा- ऽनुपलम्भाख्यात् प्रमाणात् प्रतीयते । प्रत्यक्षमेच अन्य शब्द के प्रयोग का दर्शन होने से यह सिद्ध है कि जिस अर्थ की विषक्षा नहीं होनी उस अर्थ के भी बोधक शब्द का प्रयोग होता है। यदि ऐसा न हो तो गोत्र आदि के बताने में मनुष्य का जो स्खलन होता है वह न हो सकेगा। इस प्रकार विपक्ष में भी मन के व्यभिचार का उपलम्भ होने से विवक्षा भी वचन का कारण नहीं हो सकती । यदि यह कहा जाय कि ' अन्य की विवक्षा में अन्य शब्द के प्रयोग से अर्थविवक्षा का ही व्यभिचार सिद्ध होता है. शक्षा का नहीं अतः शब्दविवक्षा को घवन का कारण कहा जा सकता है ' -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि स्वभावस्था में पत्रं वित्त के अन्यत्र आसक्त होने की दशा में किसी प्रकार की विवक्षा न होने पर भी वक्तृत्व- वचनप्रयोग की उपलब्धि होती है। अतः शब्द विषक्षा को भी वचन का कारण नहीं माना जा सकता है । यदि यह कहा जाय कि-' असशत्व आदि के साथ वचन का अन्वय असिद्ध है। एवं असशत्व के अभाव में वक्तृत्व का अभाव होता है। इस व्यतिरेक में कोई प्रमाण नहीं है । अतः असर्वशत्व और वस्तुत्व में हेतुहेतुमद्भाव का निश्चय कैसे हो सकता है ? क्योंकि वह प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ से ही साध्य होता है । वे दोनों ही असर्वशत्व और वक्तृत्व में नहीं है तो reate नहीं है क्योंकि ऐसी बात वह्नि धूम के सम्बन्ध में भी बिना किसी अवरोध से कही जा सकती है । अर्थात् यह कहा जा सकता है कि आईंन्धन के अभाव में बहिन के रहने पर भीम में अन्य नियम असिद्ध है । एवं वह्नि शून्य सभी स्थलों के दुर्ज्ञेय होने से उन सभी स्थानों में घूम का अभाव होता है यह किसी प्रमाण से ज्ञात नहीं हो सकता । अतः प्रत्यक्षानुपलम्भ का अभाव होने से वह्नि और भ्रम में भी हेतुहेतुमद्भाव का निश्रय नहीं हो सकता | 'धूम यह्नि का व्यभिचारी होने पर वह्निजन्य नहीं हो सकता' इस तर्क से यदि भ्रम में वह्नि के नियम का ग्रहण किया जायगा तो 'वक्तृत्व असत्य का व्यभिचारी होने से असज्ञत्वजन्य' न हो सकेगा इस तर्क से वक्तृत्व में असत्य के नियम का भी निर्धारण किया जा सकेगा । फलतः यह प्रश्न बना रहेगा कि असर्वेक्षत्व और षक्तृत्व में हेतुहेतुमद्भाव होने से सर्वश में वक्तृत्व कैसे हो सकता है ? इस के उत्तर में व्याख्याकार का कहना है कि वह्नि और भ्रम में हेतुहेतुमदभाव के समान असnes और वक्तृत्व में हेतुहेतुमद्भाव न होने से उक्त प्रश्न निराधार है। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ ८६ कार्यकारणाभिमत पदार्थविषयं तद्विविक्तान्यवस्तुविषयं च प्रत्यक्षाऽनुपरम्मशब्दाभिधेयम् । कदाचिदनुपलम्भपूर्वकं प्रत्यक्षं तदभावसाधकम् , कदाचिच्च प्रत्यक्षपुरस्सरोऽनुपलम्भः । तत्राद्येन येषां कारणाभिमतानां संनिधानात् प्रागनुपलब्धं धूमादि यत्संनिधानादुपलभ्यते तस्य सत्कार्यता व्यवस्थाप्यते, 'बहन्यतिरिक्तकारणसमवहितो धूमो यद्यग्निजन्यो न स्यात, अमिनिधानात् प्रागपि तत्र देशे स्यात् , अन्यतो वाऽऽगच्छेत् ' इत्या पाद्यन्यतिरेकशक्काया अनुपलम्भेन निरासात् । संनिहितधूमे जायमानस्य बहिनजन्यत्वनिश्चयस्य सामान्योपयोगेन सामान्ये पर्यवसानात् । एतेन प्रागनुपलब्धस्य रासनस्य कुम्भकारसंनिधानान्तरमुपलभ्यमानस्य तत्कार्यता स्यात् इति निरस्तम् तथाहि-तत्रापि यदि रासभस्य तत्र प्रागसत्त्वम् , अन्यदेशादनागमनम् , अन्याकारणत्वं च [अग्नि और धूम्र में कार्य-कारणता की सिद्धि ] वह्नि के होने पर धूम का उदय देखा जाता है और बहिन के अभाव में धूम का उदय नहीं देखा जाता । यद्यपि यह सत्य है फिर भी इतने मात्र से ही धृम में अग्निकार्यस्य नहीं सिद्ध होता किन्तु बहिनधर्म की अनुवृत्ति से उस की सिद्धि होती है। यह तथ्य इस प्रमाणावासिक के वचन से व्यक्त होता है कि "हुतभुक-वदि के कार्यधर्म का अनुवर्तन करने से धृम वति का कार्य समझा जाता है" | यह स्पष्ट है कि दर्शन और अदर्शन मात्र से कार्यत्व की अवगति नहीं होती किन्तु प्रत्यक्षानुपलम्भ नामक विशिष्टप्रमाण से उसकी प्रमिति होती है। प्रत्यक्षानुपलम्म शब्द से किमी अतिर्गिक्तप्रमाण का अभिधान न होकर उस प्रत्यक्ष का ही अभिधान होता हैं जो कार्य और कारण रूप में अभिमतपदार्थ को तथा उन दोनों से विलक्षण अन्य वस्तु को विषय करता है । यह प्रत्यक्ष कभी अनुपलम्भपूर्वक प्रत्यक्ष के रूप में कार्यत्व का साधक होता है और कभी प्रत्यक्षपूर्वक अनुपलम्भ के रूप में कार्यत्व का साधक होता है। जिन कारणाभिमत पदार्थों के सान्निधान से पहले उपलब्ध न होनेवाला धृम आदि जिस के सन्निधान से उपलम्ध है है, धूम आदि में उसके कार्यत्व की सिद्धि अन्नपलम्भपूर्वक प्रत्यक्ष से होती है क्योंकि अनुपलम्भ से "वहिन से भिन्न अपने समस्त कारणों के सन्निधान देश में भ्रम यदि अग्नि से जन्य न हो तो अग्नि के सन्निधान के पूर्व भी उस देश में उसे होना चाहिये । अश्या स्थानान्तर से वहाँ आना चाहिये" इस अग्निजन्यत्वरूप आपायव्यतिरेक की शङ्का का निरास होता है और सन्निहित धृम में होनेवाले बहिजन्यत्व निभय का सामान्य उपयोग से म सामान्य में पर्यवसान होता है । इस प्रकार अग्नि से भिन्न धूम के समस्त कारणों के सन्निधान काल में अग्निसन्निधान से पूर्व शृम के अनुपलम्भ और अग्निसन्निधान होने पर धूमसामान्य के उपलम्भ में पर्यवसान होने से धूम सामान्य में अग्निजन्यन्य की सिद्धि होती है। [गर्दभ में कुम्भकारकार्यत्व के प्रसंग का निरसन] __ अनुपलम्भपूर्वक प्रत्यक्ष को कार्यत्व का निश्चायक मानने पर यह शङ्का हो सकती है कि 'कुम्भकार के सन्निधान के पूर्व अनुपुलब्ध गर्दभ का कुम्भकार के सन्निधान के अनन्तर उपलम्भ होने की दशा में गर्दभ में कुम्भकार की कार्यता की प्रसक्ति हो सकती है। किन्तु यह शङ्का इसलिये निरस्त हो जाती है कि कुम्भकार के सन्निधान के पूर्व गर्दभ का अनुपरम्भ ११ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] [शाखवार्ता० स्त० १०/१७ निश्चेतुं शक्येत तदा स्थादेव कुम्भकारकार्यता, केवलं तदेव निश्चेतुमशक्यमिति । द्वितीयेन यत्संनिधाने प्रवर्तमानं तत्कार्यं दृष्टं तावतां मध्ये यस्याभावात् तद् नोपलभ्यते तत्र तत्कार्यत्वं निश्चीयते । न चामि-काष्ठादिसंनिधाने भवतो धुमस्यापनीते कुम्भकारादावनुपलम्भोऽस्ति, अग्न्यादौ त्वपनीते भयत्यनुपलम्भः । इति परस्परसहितौ प्रत्यक्षा-ऽनुपलम्भौ तन्निश्चायको । सर्वकालममिसंनिधाने भवतश्च धूमस्यानग्निजन्यत्वं कदाचिदजन्यत्वेनाहेतुकत्वेन अदृश्यहेतुकत्वेन वा शक्येत, तत्र फादाचित्कल्वा-इभ्याद्यन्वयानुविधायित्वज्ञानेन तन्निवृत्तिरिति दिग् । न चाय प्रकारोऽमर्वज्ञत्व-वक्तृत्वयोः संभवति, असर्वज्ञत्वधर्मानुबिधानस्य वचनेऽदर्शनात् । साहि-असत्वं यदि पयुदासन किश्वज्ञत्वमुच्यते तदा तद्धर्मानुविधानाऽदर्शनाद् न ताजन्यता वचनस्य । न हि किञ्चिज्ज्ञत्वतरतमभावाद् वचनस्य तरतमभाव उपलभ्यते, किचिज्ज्ञत्वप्रकर्ष कुम्भकारजन्य त्वरूपआपायव्य तिरेक की उक्त प्रकार की शंका का निवर्तक नहीं है। और वास्तविकता यह है कि उस प्रकार के अनुपलम्भ से सहकृत प्रत्यक्ष ही कार्यत्व का ग्राहक होता है ! कहने का आशय यह है कि यदि यह निश्चय हो सके कि कुम्भकार के सन्निधान के पूर्व गर्दभ का उस देश में अभाव होता है अन्य स्थान से वहाँ उस का आगमन नहीं होता और कुम्भकार से अन्य उसका कोई कारण भी नहीं है तो अवश्य उसमें कुम्भकार के कार्यत्व की सिद्धि हो सकती है। किन्तु सत्र बात यह है कि गर्दभ में उन तीनों वार्ता का निश्चय शक्य ही नहीं है। जिन पदार्थों के सन्निधान में जो कार्य उपलब्ध होता है उन पदार्थों में से जिसके अभाव में उस कार्य का उपलम्भ नहीं होता उस कार्य में उस पदार्थ के कार्यत्व का निश्चय होता है। यह निश्चय प्रत्यक्ष पृर्वक अनुपलम्म से होता है क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष पहले उपस्थित होता है और अनुपलम्भ बाद में उपस्थित होता है। यद्यपि अग्निकाण्ठ आदि के साथ कुम्भकार के सन्निधान में शृमरूप कार्य का उपलम्भ होता है, तथापि कुम्भकार का अभाव हो जाने पर धूम का अनुपलम्भ नहीं होता, नथापि अग्नि आदि का अभाव होने पर धृम का अनुपउम्भ होता है । इसलिये प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ दोनों मिल कर कार्यता के निश्चायक माने जाते है । यदि irमा न माना जायगा तो कुम्भकार सन्निधान के अभाव में रामभ के अनुचलम्भ से गसम में तथा कुम्भकार के मन्निधान में धूम के उपलम्भ से धूम में कुम्भकारकार्यत्व की सिद्धि की आपत्ति होगी । अग्नि से इतर अपने समस्त कारणों के सन्निधान के सम्यकाल में अग्नि का सन्मिधान होने पर होनेवाले धूम में कदाचित् अग्नि-अजन्यत्य की -किसी भी समय जन्य न होने से, एवं अहेतुकन्ध से तथा अष्टश्यहेतुकत्व से यदि अमिजन्यवाभाव की-शङ्का हो तो उसकी मिवृत्ति कादाधिकत्व और अग्नि के अन्वयानुषिधायित्व के नाम से हो सकती है। [वक्तृत्त्व असर्वज्ञता का कार्य नहीं है] सो प्रकार अग्नि और धूम में बताया गया वह असशस्त्र और वक्तृत्व में नहीं है क्योंकि वचन में असर्वशत्म के धर्म का अनुविधान नहीं देखा जाता । जैसे : भसर्वशत्व शहद में नन् पद का पयुदास प्रतिषेध अर्थ मानने पर असर्वज्ञत्य का अर्थ होता है किश्चिदसत्व । वचन में Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा. क. टीका - हिन्दी विवेचन ] [ ८३ वत्स्वत्यल्पविज्ञानेषु कृम्यादिषु वचनोत्कर्षानुपलम्भात् । यदि च प्रसज्यप्रतिषेधेनाऽ सर्वज्ञत्वं सर्वसत्याभाव उच्यते, तदा ज्ञानरहिते मृतशरीरे तस्योपलम्भः स्यात् न च कदाचनापि तत्तत्रोप लभ्यते, ज्ञानातिशयवत्स्वेव सकलशास्त्रव्याख्यातृषु वचनातिशयदर्शनात् । अतो ज्ञानप्रकर्षतारतम्यरूपज्ञानधर्मानुविधानदर्शनात् तत्कार्यता, धूमस्येवान्या दिसामग्रीगत सुरभिगन्धाद्यनुविधायिनोऽग्न्यादिजन्यता । इति यथोक्तप्रत्यक्षाऽनुपलम्भाभ्यामेतावद्व्यापारकज्ञानस्य स्पष्टताननुभवेनोहात्येन प्रमाणान्तरेण व्यवस्थाप्यत इति । यद् यत् निधिताऽशेषपूर्वकता विना नोपपन्नम् इत्यात्मन्येवासकृद् निश्चितम् इत्यविसंवादिवचनविशेषोऽ विसंवादिज्ञानवन्तं पुरुषविशेषं सर्वज्ञमर्थापयतीति सिद्धम् । तदुक्तम् " " यद् यस्यैव गुणान् दोषान् नियमेनानुवर्तते । तन्त्रान्तरीयकं तत् स्यादतो ज्ञानोद्भव वचः ॥४१॥" इति । इंद्र चाभ्युपगम्योक्तम् वस्तुतोऽर्थापत्तिर्नानुमानादतिरिच्यते । तथाहि 'देवदत्स्य जीवित्वे 2 - उस के धर्म का अनुविधान नहीं देखा जाता क्योंकि किश्चित्य के तरतम भाव यूनाधिक्य से वचन में तरतमभाव न्यूनाधिक्य का उपलम्भ नहीं होता। जैसे कृमि आदि अत्यन्त अल्पशजीव में किञ्चित् का प्रकर्ष होने पर भी वचनप्रकर्ष का उपलम्भ नहीं होता। अतः वचनमें किञ्चदशत्व की जन्यता का निश्चय नहीं हो सकता। इसी प्रकार असर्वज्ञत्य शब्द में नञ् शब्द का प्रसज्यप्रतिषेध अर्थ मान कर असर्वशत्य का यदि सर्वज्ञत्वाभाव अर्थ किया जाय तो भी न असत्य की कार्यता नहीं सिद्ध हो सकती क्योंकि वचन द्वारा सर्वेशत्वाभाव के अन्वय का अनुविधान नहीं होता । जैसे- ज्ञानशृस्य मृतशरीर में संवंशत्याभाव होने पर भी वचन कर उपलम्भ नहीं होता किन्तु अतिशय ज्ञानवान् सकल शास्त्रों के व्याख्याता पुरुषों में ही वचनप्रकर्ष देखा जाता है। अतः ज्ञानप्रकर्ष के तारतम्यरूप ज्ञानधर्मका अनुविधान होने से बचन को ज्ञान का ही कार्य मानना उसी प्रकार उचित है-जैसे अग्नि आदि की सामग्री के ( चन्दनादि के) सुरभिगन्ध आदि का अनुविधान करने से धूम को अग्नि आदि से जन्य मानना उचित होता है। इस प्रकार यह सिद्ध है कि यथावर्णित प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ से उक्त व्यापारपर्यन्त ज्ञान में स्पष्टता का अनुभव न होने से ऊह नामक अतिरिक्तप्रमाण से कार्यत्व का निश्रय होता है । जिस जिस वचनमें अविसंवाद निश्चित होता है वह भविसंवादिज्ञान विशेष के विना उपपन नहीं होता, यह नियम मनुष्य को अपने ही बचन के सम्बन्ध में अनेकदा निश्चित है | इसलिये अतीन्द्रिय पदार्थका प्रतिपादन करने वाला आगमरूप चन्चनविशेष अविसंवादिज्ञान से संपन्न पुरुष के बिना असम्पन्न होने से अर्थापत्तिके रूप में सर्वेश का साधक होता है । कहा भी गया है कि जो जिस के गुण और क्षेत्र का नियम से अनुवर्त्तन करता है वह उस के बिना नहीं होता इसलिये शान के गुणदोषका अनुवर्तन करने से वचन ज्ञान का कार्य होता है । ' [ अर्थापत्ति प्रमाण अनुमान से अभिन्न ] अब तक जो यह बात कही गई कि अर्थापत्ति से भी सर्वेश की सिद्धि हो सकती है वह परमत से अर्थापत्ति के प्रमाणान्तरत्व का अभ्युपगम कर के कही गई है। किन्तु सत्य यह है कि अर्थापत्ति, अनुमान से अतिरिक्त प्रमाण ही नहीं है। जैसे अर्थापत्तिप्रामाण्यवादी की यह Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शासवार्ता० स० १०१७ सति गृहेऽसत्त्वं यहिः सत्त्वं बिनाऽनुपपद्यमानं बहिःसत्त्वमर्थापयति' इति परेषामभिमानः । तत्र बहिःसत्वं विनाऽनुपपत्तिर्बहिःसत्त्वाभावव्याप्यकीभूताभावप्रतियोगित्वं व्यतिरेकच्याप्तिरेव । इति 'देवदत्तो बहिःसन् , जीवित्वे सति तात्, यो सम् िगाः इव इति व्यतिरेक्यनुमानमस्तु, 'बहिर्वृत्तिमद्वन् ' इति दृष्टान्तेन कदाचिदन्वय्येव वा । अथ गृहे. सनिकृष्टे जोविदेवदत्ताभावो गृहीतो देवदत्ते बहिःसत्त्वकल्पकः, न चेदमनुमानम् वैयधिकरण्यादिति चेत् ! न, विशिष्टेन सह गृहीतान्यथानुपपत्तिकेन लिङ्गेन व्यधिकरणेनापि विशिष्टानुमानोपपत्तेः । 'उदेष्यति शकटम् कृत्तिकोदयात् ' 'उपरि सविता, भूमेरालोकवत्वात् ' इत्यादौ तश दर्शनात् , पक्षधर्मताया अनुमितावतन्त्रत्वात् । इन्यते च परेणाप्येतत् "पित्रीश्च ब्राह्मणत्वेन पुत्रब्रामणताऽनुमा । सर्वलोकप्रसिद्धा न पक्षधर्ममपेक्षते ॥१॥" इत्यभिधानात् । “तुल्यवित्तिवेद्यतया तदुत्तरे मनसा वा गृहीतेन गृहनिष्ठाभावप्रतियोगित्वेन देवदरनिष्ठेना मान्यता है कि जीवित रहते हुए भी गृह में न होना बहिः सत्य के विना अनुपपन्न होने से अपने आश्रयभूत देवदत्त आदि के पहिःसस्व की अर्धापत्तिरूप प्रमा को उत्पन्न करता है, किन्तु यह मान्यता उचित नहीं है क्योंकि 'बहिःसत्व के विना अनुपपत्ति का अर्थ है यहिःसत्य के अभाष में अभाव होना । अर्थात् बहिः सत्वाभाव के व्यापक अभाष का प्रतियोगी होना । फिर यह तो व्यतिरेकल्याप्तिरूप है, अतः जीवित रहते हुये गृह में न होने से बहिःसत्य की अर्थापत्ति नहीं होती किन्तु अनुमान ही हो सकता है। और वह अनुमान व्यतिरेकी और अन्वयी दोनों प्रकार का हो सकता है । व्यतिरेकी अनुमान इस प्रकार होगा कि देवदत्त बाहर विद्यमान है क्योंकि जीवित होते हुये गृह में विद्यमान नहीं है। जो बाहर विद्यमान नहीं होता यह जीवित होते हये गृह में अविद्यमान नहीं होता जैसे ग्रहवर्ती यज्ञदत्त । अन्वयी अनुमान इस प्रकार होगा देवदत्त बाहर विद्यमान है, क्योंकि जीवित होते हुये गृह में अविद्यमान है. जो जीवित होते हुये गृह में अविद्यमान होता है वह बाहर विद्यमाम होता है जैसे बाहर में विद्यमान मैं अथया मेरे जैसा कोई अन्य व्यक्ति। यदि यह कहा जाय कि-'सन्निकृष्ट गृह में जीवित देवदस के अभाव का ग्रहण होने पर देवदत्त में बहिःसत्त्व का ज्ञान होता है। यह ज्ञान अर्थापत्ति रूप ही हो सकता है अनुमान रूप नहीं हो सकता, क्योंकि 'जीवित देवदत्त का अभाव' रूप साधन गृह में है और बहिः सस्वरूप साध्य देवदत्त में है, अतः साध्यसाधन में वैयधकरपय है और अनुमान साध्यसाधन में नियत सामानाधिकरण्य से ही होता है । तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जिस लिङ्ग में विशिष्ट साध्य के साथ अन्यथानुपपत्ति का ज्ञान होता है वह यदि व्यधिकरण भी हो तो उस से विशिष्ट माध्य का अनुमान होता है । जैसे-कृत्तिका नक्षत्र के उदय से शकटोदय का एवं भमिगत आलोक से अर्घ्य अन्तरिक्ष में स्थित सूर्य का अनुमान होता है। इसलिये पक्षधर्मता सर्वत्र की प्रयोझक नहीं होती। यह बात मीमांसा को भी माननी परती है। क्योंकि यह कहा गया है कि 'मातापिता के ग्रामणत्व से पत्र के ग्रामणत्यका अनमान सर्वसम्मत है, अतः अनुमान को नियम से पक्षधर्मता की अपेक्षा नहीं होती। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विषेश्वन ] नुमानाद् न वैयधिकरण्यम्, 'उदेष्यति भूमौ संनिहितसवितृकत्वं च साध्यते " इति तु यौगाः । [ ८५ शकटम् ' इत्यादावप्येतत्काले संनिहित शकटोदयत्वम् तच्चिन्त्यम् तथापि 'बहिर्देशो देवदत्तवान्' इत्यस्यानुपपत्तेः । यथोहमनुमितिव्यवस्थाया एव न्याय्यत्वात् विलक्षणानुमितौ विलक्षण शक्तिमत्त्वेन तत्तज्ज्ञानानां हेतुत्वादित्यन्यत्र विस्तरः । एतेन 'अस्त्वन्वयव्याप्तिज्ञानजन्याऽनुमितिः व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानजन्या त्वर्थापत्तिः अन्यथा परस्परव्यभिचारेण हेतुत्वस्याप्यसंभवात्' इति निरस्तम् प्रमाणद्वयसमाहारे परस्परविरोधित्व करूपने गौरवात्, 2 [ पक्षधर्मता से ही अनुमानोदयवादी नैयायिकमत ] नैयायिकों का इस सम्बन्ध में यह कहना है कि गृह में देवदत्त का अभाव और देवदत्त गृहनिष्ठ अभाव प्रतियोगित्य दोनों समान ज्ञान से देय है। अतः सन्निकृष्ट गृह में जीवित देवट्स के अभाव का ज्ञान होने पर जीवित देवदत्त में गृहनिष्ठ अभाव के प्रतियोगित्व का भी ज्ञान हो जाता है । यह भी ज्ञातव्य है कि यदि उक्त दोनों समानज्ञानवेध न हो तो भी सन्निकृष्टगृह में जीवित देवाभाव का ज्ञान होने पर देवदस में गृह निष्ठअभावप्रतियोगित्व का मानस ज्ञान हो सकता है । अत: देवदस में बहिःसत्य की सिद्धि देवदत्तनिष्ठ गृहाभाव से नहीं होती किन्तु गृहनिष्ठअभावप्रतियोगित्य से होती है । फलतः साध्य साधन में यधिकरण्य न होने से उसे अनुमान माना जा सकता है। इसी प्रकार कृत्तिकोदय से शकद्रोदय का भी अनुमान नहीं होता, किन्तु कृत्तिकोदय काल में कृत्तिकोदय हेतु से सन्निहित शकटादयत्व का अनुमान होता है । भूमिगत आलोक से ऊर्ध्वं अंतरिक्ष में सूर्य का अनुमान नहीं होता किन्तु भूमि में सन्निहित सूर्य का अनुमान होता है। एवं माता-पिता के ब्राह्मणत्व से पुत्र में आणत्य का अनुमान नहीं होता किन्तु ब्राह्मण मातापितृजन्यत्व से ब्राह्मणस्व का अनुमान होता है। अतः कहीं भी यधिकरण हेतु से साध्य का अनुमान नैयायिक को मान्य नहीं है । [ नैयायिकमत की चिन्तनीयता ] किन्तु नैयायिकों का उक्त कथन चिन्तनीय है, क्योंकि उक्त अनुमानों की उपपत्ति उक रीति से यद्यपि साध्यसमानाधिकरण लिङ्ग से हो जाती है किन्तु गृह में जीवित देवदत्ताभाव के ज्ञान से तो 'बहिर्देशो देवदत्तवान् ' इस प्रकार बहिदेश में देवदस की अनुमिति होती ह उसकी उपपत्ति साध्यसमानाधिकरण लिङ्ग से नहीं हो सकती, क्योंकि गृहनिष्ठ अभाव प्रतियो गित्व अथवा गृह में जीवित देवदत्त का अभाव दोनों देवदत्तरूप साध्य के व्यधिकरण हैं। अतः जहाँ जिसप्रकार साध्य के समानाधिकरण अथवा व्यधिकरण हेतु से अनुमिति ऊह द्वारा संभव प्रतीत हो, यहाँ उसी प्रकार अनुमिति की व्यवस्था उचित है। विलक्षण हेतुओं से अनुमिति का उदय मानने पर व्यभिचार की शङ्का भी नहीं की जा सकती, क्योंकि विलक्षण अनुमिति में विलक्षण शक्तिस्वरूप से विभिन्न ज्ञानों को कारण मानने से व्यभिचार का परिहार हो सकता है। इस विषय का विस्तृत विचार अन्यत्र दृष्टव्य हैं । यदि यह कहा जाय कि - 'अन्वयव्याप्तिज्ञान से अनुमिति और व्यतिरेकव्याप्तिज्ञान से अर्थापत्ति नामके अनुमितिभिन्न प्रभा की उत्पत्ति मानना आवश्यक है, क्योंकि यदि दोनों व्याप्तियों के ज्ञान से अनुमिति को उत्पत्ति मानी जायगी तो अभ्वयव्याप्ति ज्ञान से जन्य Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता स्त० १० / १७ अनुभूयमानानुमित्यपलापप्रसङ्गाच्च 'व्यतिरेकिणो वहन्यभावाभावत्वादिना अन्वयिनस्तु वहन्यादिनाऽनुमितिः इत्यन्ये । तत्र नियमश्चिन्त्यः । अथ व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानजन्यज्ञाने 'नानुमिनोमि किन्त्वर्थापयामि' इत्यनुव्यवसायात् पार्थक्यमेवास्या इति चेत् ? न, 'नानुभवामि किन्त्वनु मिनोमि इतिवदस्य पार्थक्या व्यवस्थापकत्वात् अन्यथा ऽन्वयव्यतिरेकिणः प्रामाणान्तरत्वप्रसङ्गात्, अनुभबापलापम्यान्यत्रापि तस्याटिंग | ८६ ] 3 अनुमिति के प्रति व्यतिरेकव्याप्ति ज्ञान का एवं व्यतिरेकव्याप्ति ज्ञानजन्य अनुमिति के प्रति अन्वयव्याप्तिज्ञान का व्यभिचार होने से किसी भी व्याप्ति ज्ञान की अनुमिति का कारण मानना असंभव हो जायगा तो यह कथन भी निरस्त प्राय: है क्योंकि भन्थ्य व्याप्ति ज्ञान से अध्यवहित उत्तर में होनेवाली अनुमिति के प्रति अन्वयव्याविज्ञान को तथा व्यतिरेकव्याप्तिज्ञान के अध्यवहित उत्तर होनेवाली अनुमिति में व्यतिरेकव्याप्तिज्ञान को कारण मान लेने से उक्त व्यभिचार का परिहार हो जाता है । अत अन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकव्याप्तिज्ञान को अनुमिति का कारण मानने में दोष नहीं है किन्तु विजातीय शानों को ही कारण मानने में दोष है । जैसे- जब अन्वयव्याप्तिज्ञानरूप अनुमान प्रमाण का और व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानरूप अर्थापत्ति प्रमाण का युगपत् सन्निधान होगा तब दोनों को परस्पर के कार्य का प्रतिबन्धक मानना पडेगा क्योंकि दों शानका समकालीनत्व मान्य न होने से उस दशा में अनुमिति और अर्थापत्ति नामक दो ज्ञानों की उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती एवं अनुमितिस्त्र तथा अर्थापतित्य में सांक के भय से "अनुमिति - अर्थापत्ति' उभयात्मक एक शान की भी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती । फलत दोनों व्याप्तिज्ञानों को विलक्षण प्रमाण मानने के पक्ष में उक्त प्रतिबन्धकता की शून्यता के कारण गौरव होगा और उस दशा में अनुभवसिद्ध अनुमिति का अपलाप भी करना पडेगा । अन्य विद्वानों का कहना है कि व्यतिरेकी अनुमान से वहन्यभावाभावत्वरूप से हिन की अनुमिति होती है और अन्वयी अनुमान से बहिनस्वरूप से वहिन की अनुमिति होती है । अतः अन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकव्याप्ति दोनों के ज्ञान को अनुमिति का कारण मानने में व्यभिचार की प्रसक्ति नहीं हो सकती । किन्तु यहाँ नियम नियुक्तिक होने से चिन्तनीय है। अतः दोनों व्याप्ति ज्ञानों को अनुमिति का कारण मानने पर प्रसक्त होने वाले व्यभिचार का श्रारण इस व्यवस्था द्वारा ही करना उचित है कि अन्वयव्यामिशानाध्यवहितोत्तर अनुमिति में अन्वयव्याप्तिज्ञान कारण होता है और व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानाव्यवहितोत्तर अनुमिति में व्यतिरेकव्याप्ति ज्ञान कारण होता है । [ व्यतिरेकव्याप्तिज्ञान स्वतन्त्र प्रमाण नहीं हैं ] C यदि यह कहा जाय कि:- “व्यतिरेकव्याप्तिज्ञान से उत्पन्न ज्ञान का न अनुमितमि किन्तु अर्थापयामि इस प्रकार अनुमिति भिन्नत्व और अर्थापत्तित्वरूप से अनुध्यवसाय होता है अतः अर्थापत्ति को अनुमिति से भिन्न मानना आवश्यक है" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे अन्वयव्याप्तिज्ञान से जन्य ज्ञान के 'नानुभवामि किन्तु अनुभिनोमि' इस अनुव्यवसाय से अनुमिति में अनुभव के पार्थक्य की सिद्धि नहीं होती उसी प्रकार उक्त अनुव्यवसाय से भी अर्थापति में अनुमिति के पार्थक्य की सिद्धि नहीं हो सकती । अन्यथा यदि अन्वयव्याप्तिज्ञानजन्य अनुमिति से व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानजन्यज्ञान को विलक्षण प्रमा मान कर व्यतिरेकव्याप्तिज्ञान को अर्थापतिरूप अतिरिक Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीत्रिवेमन [ ८७ अथ जीवद् गृहाभावग्रहसमय एव बहिःसत्त्वग्रहात् प्रमेयानुप्रवेशदोषाद् नेदमनुमानमिति चेत् ? न, असिद्धेः, धूमा( ? मसद् )भावग्रहोत्तरमेव दहनप्रतीतिबज्जीवतो गृहाभावग्रहोत्तरमेव बहिःसत्त्वप्रतीतेः । अथ 'देवदत्तः क्वचिदस्ति जीवित्वात् ' इत्यनुमानजन्यं क्वचित्त्वेन गृहविषयकं ज्ञानम् अनुपलब्धिजन्यं च 'गेहे नास्ति' इति ज्ञानम्, इत्यनयोर्विरोधज्ञानात् करणीभूतात् 'क्वचित् ' प्रमाण माना जायगा तो अन्वयध्याप्ति और श्यतिरेकच्याप्ति दोनों के समूहालम्वन ज्ञान में विलक्षण प्रमा को उत्पत्ति मान कर उसे और एक अतिरिक्त प्रमाण मानना होगा। यदि यह कहा जाय कि-'उस ममूहालम्बन शान से जभ्य मान को अनमित्यादि से विलक्षण प्रमा मानने पर उस शान के अनुमितित्यरूप से अनुभव का अपलाप होगा'-ता इस दोष का उद्भावन उचित नहीं हो सकता क्योंकि भ्यतिरेकल्याप्तिमान को अर्धापत्ति प्रमाणचादी के मत में भी अनुभव का अपलाप होता है। जैसे अन्वयव्याप्तिज्ञान और व्यतिरेकव्यप्तिमान दोनों का युगपद् सन्निधान होने पर अनुमिति और अर्थापनि किमी की भी उत्पत्ति न मानने पर वहाँ होनेवाले अनुमित्यादि अनुभव का अपटाप होता है । एवं व्यतिरेकच्याप्तिमान मात्र में होनेघाले. शान में अनुमितित्व के अनुभव का भी अपलाप होता है । [हेतु और साध्य का ज्ञान क्रमिक होता हैं ] __ यदि कहा जाय कि-'गृह में जीवित देवदत्त के अभावज्ञान के समय ही देवकत में बतिःसत्त्व का शान हो जाता है । अत एव गृहनिष्ठजीवित देवदत्ताभाव भी बहिःसत्व के समान प्रमेय कोटी में प्रथिष्ट हो जाता है अतः उसे बहिः सत्त्व का प्रमापक अनुमान नहीं कहा जा मकता, क्योकि प्रमयकोटि में अप्रविष्ट ही प्रयापक होता है ।'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि गृह में जीवितदेवदत्ताभाष के ज्ञानकाल में ही बहिःसत्त्व के ज्ञान का होना अमित है । सत्य यह है कि जैसे बदिमत्तया प्रथमतः अनिर्णन धर्म में धृम के सद्भाव ज्ञान के बाद ही अग्नि की प्रतीति होती है उसी प्रकार गृह में जीवित देवदत्ताभाव के शान के अनन्तर ही देवदत्त में बहिःसत्त्व की प्रतीम होती है। [विरोध ज्ञान अर्थापत्ति प्रमाणरूप नहीं है ] यदि यह कहा जाय कि-"अर्थापत्ति को अनुमान से गतार्थ नहीं किया जा सकता क्योंकि भापत्ति से पक सा कार्य होता है जो अनुमान से संभव नहीं है। जैसे: जीवित देवदत्त में गृहासत्व का ज्ञान होने पर यह अनुमान होता है कि देवदत्त किसी स्थान' में है क्योंकि जीवित है। यह अनुमान किसी स्थान' के रूप में गृह की भी विषय करने से देवदत्त में गृहास्तित्व को भी विषय करता है और गृह में देवदत्त की अनुपधि से उत्पन्न होनेवाला 'देवदत्तो गृहे नास्ति' देवदत्त गृह में नहीं है। यह ज्ञान देवरत्त में गृहास्तित्वाभाव को विषय करता है, अतः विरुद्धार्थविषयक होने से इन दोनों में विरोधमान होता है। इस विरोधज्ञानरूप कारण से 'देवदत्तः क्वचिवास्ति' इस अनुमाम में 'क्वचिद् रूप से गृहान्यविश्यकत्व की बुद्धि होती है जिस से उक्त ज्ञानों में भविरोध की उपपत्ति होती है । अत: उक्तशादों में जो विरोधमान होता है उसे अर्यापतिप्रमाण मानना और उस से उक्त अनुमान में जो गृहाग्यविषयकत्व की सिद्धि होती है उसे अर्थापत्ति प्रमा मानना; अथवा उक्त झानों में विरोध शान से होनेवाले उस अनुमान में गृहान्यविषयकस्व के ज्ञान को पर्यापत्ति प्रमाण मानना और उक्त शानों में अविरोध ज्ञान को अर्थापत्ति प्रमा मानना आवश्यक है।"-तो यह Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ] [ शाखार्त्ताः स्त० १० / १७ इत्यत्र गेहान्यविषयकत्वार्थापत्तिरविरोधापादिका जायत इति चेत् १ न, तयोर्ज्ञानयोरेककालीनत्वेनाऽविरोधात् । " क्वचिदिति ज्ञानं यदि गेहविषयकं स्याद् ' गेहे नास्ति ' इतिज्ञानं विरुद्धं स्यात् " इति विरोधापादनं च ' क्वचित्' इति न गेहविषयकम् ' गेहे नास्ति इत्यविरुद्धत्वादित्यनुमानोत्थापकमेव । ' गृहसत्त्व-गृहासत्त्वयोर्विरोधो गृहासत्त्ववहिः सत्त्वयोर्व्यासिद्योतकः एव ' इत्यन्ये । अथ सामान्यानुमितिसामय्या मे वै कविशेषवाघज्ञानकरणिका विशेषान्तरप्रकारिकाऽर्थापत्तिरिति चेत् ? न एवं सति पर्वते वहन्यनुमितेरपि जायमानायाः शिखरावच्छेदेन बाधज्ञानाद नितम्बाचच्छेदेन पर्यव स्वन्त्याः सामान्यप्रत्यक्षादेरप्येकविशेषवावाद् विशेषान्तर पर्यवसायिनोऽश्रपतित्वप्रसङ्गादिति दिग्||१७|| ठीक नहीं है क्योंकि उक्त अनुमानजन्यज्ञान और अनुपलब्धिजन्य उक्त ज्ञान, दोनों एक काल में उत्पन्न होते हैं । अतव उन में अविरोध स्वतःसिद्ध है । अत एव उस की उपपत्ति के लिये प्रमाणान्तर की कल्पना अनावश्यक है । विरोध अगय ही दूसरी बात यह है कि उक्त होगा कि 'देवदत्तः कचिदस्ति यह ज्ञान यदि गंहविषयक होगा तो 'देवदत्त गृह में नहीं है' इस ज्ञान के साथ विरोध होगा तो यह विरोध आपादान इस अनुमान का ही उत्थापक होगा कि 'देवदत्तः क्वचिदस्ति' यह ज्ञान क्वचिदूरूप से गेहान्यविषयक है, गृहविषयक नहीं है । क्योंकि 'देवदत्तो गृहे नास्ति' इस ज्ञान से अविरुद्ध है । अतः उक्त शानों के विरोधज्ञान से अविरोधसाधिका अर्थापत्ति की सिद्धि नहीं हो सकती । अन्य विद्वानों का कहना है कि गृहसत्व और ग्रहासत्य का विरोध गृहासत्व में बहिः सत्व की व्याप्ति का द्योतक है। क्योंकि गृहानत्व में बहिःसत्त्व की व्यामि होने पर ही गृहासत्व में गृहस्व का विरोध हो सकता है । [ विशेषान्तरप्रकारक बुद्धि अर्थापत्तिरूप नहीं हैं ] यदि यह कहा जाय कि - सामान्य अनुमिति की सामग्री में एक विशेष के बाधक ज्ञानरूप करण से जो विशेषान्तरप्रकारक वृद्धि होती है यह अर्थापत्ति है। जैसे: पर्वत में व्याय धूम का परामर्श होने पर यदि पर्वत में पर्वतीय बह्नि से इतरथद्धि का बाधशान होता है तो पर्वत में बहिन का पर्वतीय वानित्वरूप से पर्वत पर्वतीयवनमान इस प्रकार का ज्ञान होता है । इस शान को अनुमितिरूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह धूमरूपहेतु के व्यापकतानवच्छेदक पर्वतीय व नित्वरूप से वह्नि को विश्य करता है । अत एव यह ज्ञान अर्थापत्तिप्रमारूप है और पर्वत में पर्वतीयवीतर का बाघशान अर्थापत्ति प्रमाण है और वहिनसामान्य का अनुमापक परामर्श उस का सहकारी है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर प्रसिद्ध अनुभिति और प्रसिद्ध प्रत्यक्ष में भी अर्थापतित्व की प्रसक्ति होगी। जैसे धूम से जो पर्वत में बहिन की अनुमिति होती है वह शिखरावच्छेदेन वहिन के बाधशान से नितम्बावच्छेदेन पहिनज्ञान में पर्यवसित होती है । एवं सन्निहित पर्वत में वह्निमददेश के साथ इन्द्रियसन्निकर्ष होने पर जो पर्वत में बहिन का प्रत्यक्ष होता है वह भी शिखर आदि में बह्नि का वावज्ञान होने से नितम्ब में ही वहन्यवगाहिज्ञान में पर्यवसित होता है। अतः जैसे- नितस्यावच्छेदेन अग्निशान में पर्यवसित होनेवाली पर्वत में वहिन की अनुमिति अनुमिति ही है, अर्थापत्ति नहीं है, एवं पर्यंत के Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेधन ] [८९ 10 वीं कारिका में यह बताना पमा सधन कTAत्रयम मानलाया पापा ममाणा ___यतश्चैवम् , अत आह-- प्रमाणपञ्चकात्तिरेवं तत्र न युज्यते । तथाप्यभावप्रामाण्यमिति स्वाध्यविजम्भितम् ||१८॥ प्रमाणपश्चकात्तिः माबोफ्लम्भकयावत्प्रमाणाविष्यत्वम् एवम्-उक्तरीत्या, तत्र सर्वज्ञे न युज्यतेन घटते । तथापि एवमपि व्यवस्थिते, अभावप्रामाण्यम्=अभावप्रमाणस्य सर्वज्ञाभावनिश्चायकत्वम् इति अदः स्वान्ध्य विजृम्भितम् स्वाज्ञानविलसितम्, सदुपलम्भकसाम्राज्येनाभावप्रमाणस्यैवानुत्थानात् । वस्तुतोऽभावस्य पृथक्प्रमाणत्वमेवाऽसिद्धम् , भावांशमाहिणेन्द्रियेणेवाभावांशग्रहणात् । न च सम्बन्धाभावः, योग्यतारूपस्य तस्याभावायोगात् संयोगस्य च भावाशोपलम्भेऽप्यतन्त्रत्वात् , चक्षुषोऽप्राप्यकारित्वव्यवस्थितेः । कथमेतदेवम् ? इति चेत् । शृण, प्रसङ्गसंगतमेतत्तत्त्वं निरूपयामः – चक्षुर्न प्राप्यकारि, अधिष्ठानाऽसंबद्धार्थग्राहकेन्द्रियत्वात् , मनोवत् । न चाप्रयोजकत्वम् नितम्ब देश में अग्नि ग्रहण में पर्यवसित होनेवाला पर्यंत में यङ्गिप्रत्यक्ष प्रत्यक्ष ही है, अर्थापत्ति नहीं है उसी प्रकार सामान्यानुमिति की सामग्रो के समय एक विशेष के बाघ ज्ञान से होनेवाली विशेषान्तरप्रकारक अनुमिति भी अनुमिति ही है, अर्थापत्ति नहीं है ।:१७ [सवेज्ञ को अभाचप्रमाण का विषय मानने में अज्ञान] 'यह बताया गया भावसाधक पानों प्रमाणों को अशक्त बताना तथा 'अभावप्रमाण' से उस के नास्तित्व का साधन करना अयन है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है भाव के माधक जितने प्रमाण हैं सघंश उन सभी का अविषय है. यह बात पूतिरीमि से युक्तिसंगत नहीं है। "सर्बज्ञ की अनुपलब्धिरूप अभाव प्रमाण से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध होता हैं" यह कथन असर्वशवादी के अज्ञान का ही फल है क्योंकि सर्वश के अस्तित्व को सिद्ध करनेवाले अनेक प्रमाण विद्यमान रहने से 'अभाब' प्रमाण का उत्थान असंभव है। सच तो यह है कि अभाघ का अतिरिक्त प्रामाण्य ही असिद्ध है, क्योंकि जिम इन्द्रिय से भाष का प्राण होता है उसी से अभाव का भी ग्रहण मम्पन्न हो सकता है । अभाव के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध न होने से इन्द्रिय द्वारा उसका ग्रहण अशक्य है। यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि योग्यतारूप सम्बन्ध अभाव के साथ भी सुलभ है और संयोगसम्बन्ध ती भावग्रहण में भी अपेक्षित नहीं है, क्योंकि युक्ति द्वारा यह निर्णात है कि चक्षु अपायकारि असम्बद्ध अर्थ का ग्राहक होता है । चनु असम्बद्ध अर्थ का ग्राहक होने में क्या युक्ति है, यह विषय यद्यपि प्रस्तुत विचार का अङ्ग नहीं है फिर भी प्रसङ्गमाप्त है, अतः इस की चर्चा कर लेना उचित है। [चच-अप्राप्यकारिता वादस्थल] चक्षु प्राप्यकारी ( सम्बन अर्थ का ग्राहक) नहीं है क्योंकि वह अपने अधिष्ठान-स्थान में असम्बद्ध अर्थ की ग्राहक इन्द्रिय है. जो इन्द्रिय अपने अधिष्ठान से असम्बद्ध अर्थ की ग्राहक १. मुद्रित मूलंपुस्तके यानभ्वधि' इति पाटः। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शाखबारो० स्त. १०/१८ संबद्धार्थ ग्राहकत्ये तस्य वहिनजलावलोकनादिना दाहक्लेदादिप्रसङ्गात् , अधिष्ठानाञ्चक्षुषो विभागेऽन्धस्वासनाच्च ! अथ नयनाद नायना रश्मय एव निर्गस्य प्राप्य च वस्तु रविरश्मय इव प्रकाशमादति, सूक्ष्मत्वेन तेजसत्वेन च तेषां वहन्यादिभिदाहादयो न भत्रिप्यन्तीति चेत् । न , चक्षुषस्ते जसत्वस्यवासिद्धेः । न च 'चक्षुस्तैजसम्, रूपादिधु मध्ये रूपस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात् , प्रदीपवत्' इत्यनुमानात् तत्सिद्धिः, चक्षुःविषयसयोगेनानैकान्तिकत्वात् , 'द्रव्यत्वे सति' इति विशेषणेऽप्यजनविशेषेणानेकान्तिकत्वाच्च । एतेन 'रूपसाक्षात्काराऽसाधारणकारणं तैजसम् , रसाऽव्यञ्जकरचे सति फाटकाचन्तरित नकाशकत्वात् , प्रदीपयत्' इत्यपि निरस्तम् 'अञ्जनादिभिन्नरवे सति' इति विशेषणदाने चाऽप्रयोजकत्वात् , अञ्जनादिवच्चक्षुषोऽतैजसत्वेऽप्यक्षतेः, चक्षुः प्रदीपयोरेकया जात्या व्यकत्वाऽसिद्धेश्च । होती है वह सम्बद्ध अर्थ की ग्राहक नहीं होती, जैसे : मन अपने अधिष्ठान शरीर देश से असम्बद मेरु आदिरूप अर्थ का अथवा अपने अधिष्ठान शरीर से असम्बद्ध दूरस्थ वस्तुओं का चिस्तनरूप में प्राहक इन्द्रिय होने से अपने से असम्बद्ध तत्तत् अर्थों का ग्राहक होता है । उक्त हेतु में अप्रयोजकत्व की शक्का नहीं की जा सकती-अर्थात् अधिष्ठान से असम्बद्र अर्थ ग्राहक इन्तियत्व में असम्बद्ध अर्थ के ग्राहकत्वरूप साध्य के व्यभिचार की शहा करनेवाले तर्क के अभाव की शहा नहीं की जा सकती, क्योंकि इस शाध के फलस्वरूप में सम्बद्ध अर्थ की ग्राहकता प्रसपत होगी जो मान्य नहीं हो सकती, क्योंकि चश्च यदि सम्बद्ध अर्थ का ग्राहक होगा तो अग्नि का अवलोकन करने पर उसके दाह की और जल का अवलोकन करने पर उस में किसना=आई होने की आपत्ति होगी । यह कैसे सम्भव हो सकता है कि जो अग्नि से संयुक्त हो उसका दाह न हो और जो जल से संयुक्त हो वह किसन न हो। दूसरी बात यह है कि चक्षु से दीख पडनेवाले पदार्थ तो चक्षु के अधिष्ठान से दूर ही रहते हैं । अतः शु को ही अधिष्ठान से पृथक् होकर उनके पास जाना होगा, फारतः अधिठान देश चाहीन हो जाने से रष्टि अन्ध हो जायगी, क्योंकि पकबार अधिष्टान से निकल जाने के बाद चन के पुनः अधिष्ठान में प्रत्यावर्तित होने का कोई उपाय नहीं है। [चक्षु तैजस किरणमय होने की आशंका ] यदि यह कहा जाय कि-" चक्षु य विश्व के पास स्वयं नहीं जाता किन्तु उसकी किरणे वहां तक फलती है । प्रष्टव्य विषय चक्षु की किरणों से सम्बद होने से ही चक्षु से सम्बद्ध होते हैं । यह किरण अन्य विषय का दर्शन हो जाने पर पुन: चक्ष में लौट आती हैं। यह कल्पना कोई अनहोनी कल्पना नहीं क्योंकि सूर्य की किरणों में यह बात देखी जाती है। तो जैसे सूर्य के अपने स्थान में अवस्थित रहते हुए उसकी किरणों का सृदूर तक फलाव होने से सुदूरवर्ती पदार्थों का प्रकाश होता है और जय सूर्य अस्त होने को होता है तब सारी किरण लौटकर सूर्य में समाहित हो जाती है । उसी प्रकार घक्षु के अपने अधिष्ठान में ज्यों के न्यो बने रहते हुये उसकी किरणें दूर तक अवस्थित वस्तुओं का स्पर्श कर उनका अवलोकन सम्पन्न करती है तथा वक्षु को अन्ध करने का विधार होते ही सारी किरणे लौटकर चक्षु में समाहित हो जाती है । अतः किसी वस्तु के अबलोकनार्थ चक्षु के बाहर होने पर भ्रष्टा के अन्धत्य का प्रसङ्ग नहीं हो सकता | अग्नि के अवलोकन से वाह की तथा जल के अवलोकन Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] 1 अथ चक्षुषोsमाप्यकारित्वे कुच्यादिव्यवहितस्यापि ग्रहणं स्यात्, असंनिहितत्वाविशेषात् योग्यता च स्थैर्यपक्षे न परावर्तत इति चेत् ? हन्त । एवं तवापि कथं नायं दोषः ! स्फटिकादिव्यवहितग्रहणेऽप्यतिप्रसंगस्य दुर्निवारत्वात् स्फटिकादिकं निर्भिद्य विषयदेशं यावद् नायनरश्मीना गमने च तूलपटलादेस्तैः सुतरां सुभेदत्वात्, तूलपटला अन्तरितस्याप्युपलग्लासङ्गात् । यत् पुनरुदयने नोक्तम्- 'स्फटिकाद्यन्तरितोपलब्धिः प्रसादस्वभावतया स्फटिकादीनां तेजोगते खतिबन्धकतथा प्रदीपप्रभावदेवोपपन्ना' इति तद् दूषितं वृद्धै::- प्रसन्नता बन्मूर्त द्रव्यकृतगव्यप्रतिबन्धस्य काप्यदर्शनात्, [ ९१ से क्लेद की पूर्वक आपत्ति भी नहीं हो सकती, क्योंकि चक्षु की जो किरणं अग्नि या जबसे संयुक्त होती हैं ये सूक्ष्म एवं तैजस होती हैं | दात या क्लेव स्थूल एवं अतेजस वस्तु में सम्भव होता है। " [ चक्षु में सत्व का निराकरण-उत्तर ] किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि चक्षु में तेजत्य असिद्ध है। यदि यह कहा जाय कि "अनुमान से चल में तेजय मिश्र है, अनुमान का प्रयोग इस प्रकार है- चल तेजस है क्योंकि यह रूप आदि के मध्य में केववरूप को ही अभिव्यक्त करता है। जो रूप आदि के मध्य केवल रूप को ही अभिव्यक्त करता है वह तेजस होता है, जैसे वह पुष्प के रम, गन्ध, स्पर्श को अभिव्यक्त न कर केवल उसके रूप को ही अभिव्यक्त करने से तेजस है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि माद्यद्रव्य के साथ चक्षु का संयोग प्रायद्रव्य के रूप आदि में से केवल रूप को ही अभिव्यक्त करने पर भी तेज नहीं है। अतः उक्त हेतु व्यभिचारी होने से त्वका साधक नहीं हो सकता हेतु के शरीर में प्रव्यत्व विशेषण देने से यद्यपि उक्त संयोग में प्रदर्शित व्यभिचार का बारण हो सकता है, तथापि 'अञ्जन' द्रव्य में व्यभिचारा रहेगा, क्योंकि चभ्रु में लगाया जानेवाला अञ्जन ग्राह्मक्रय के रूप आदि गुणों में से उसके केवल रूप का ही अभिव्यक्त करनेवाला द्रव्य होने पर भी तेजस नहीं है किन्तु पार्थिव है । ' उक्त अञ्जनद्रव्य में व्यभिचार के कारण ही चक्षु के तेजसम्व की मिद्धि इस अनुमान से भी नहीं की जा सकती है कि 'रूपसाक्षात्कार का असाधारण कारण (चक्षु) तेजम है क्योंकि रस का व्यञ्जक न होते हुये स्फटिक आदि से व्यवहित द्रव्य का हक है. जैसे मदी । यदि उक्त व्यभिचार के वारणार्थ हेतु के शरीर में 'अञ्जनादिभिन्नत्व' का निवेश किया जाय तो हेतु दूसरे दोष से ग्रस्त होगा। यह दोष है अप्रयोजकत्व, अर्थात् उक्त हेतु में उक्त साध्य के व्यभिचार की शङ्का को निवृत्त करनेवाले तर्क का अभाव । कहने का आशय यह है कि चक्षु को ग्राद्रव्य के रूप आदि में केवल रूप का व्यञ्जक, अञ्जनादिभिन्न मानते हुये अथवा रस का अव्यञ्जक होते हुए स्फटिक आदि से व्यवहित का प्रकाशक मानते हुये भी यदि तेजस न माना जाय तो कोई आपत्ति न होने से उन् हेतु से चक्षु में तैजसत्व का साधन नहीं हो सकता । फलतः अञ्जन आदि के समान चक्षु को अतेजस मानने में कोई क्षति नहीं है. क्योंकि चक्षु और प्रदीप दोनों तेजस्वरूप एक जाति से व्यञ्जक होते है यह बात असिद्ध है । [ दिवारादि से व्यवहितवस्तु के ग्रहण की आपत्ति ] यदि यह शङ्का की जाय कि " चक्षु के अप्राप्यकारी असस्वद्र अर्थ का ग्राहक होने पर कुड-भित्ति आदि से व्यवहित द्रव्य के ग्रहण की आपत्ति होगी क्योंकि मित्ती आदि से Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ] [ शासवार्ता० स्त. १०/१८ तूलादिना जलादिगत्यप्रतिबन्धस्य प्रशिथिला वययारभ्यावनिमित्तकस्यैव दर्शनात् । स्फटिकान्तर्गतप्रदीपरश्मग्रस्तु न तं भित्त्वा प्रसरन्ति, किन्तु तत्संपर्कमासाद्य स्फटिकपरमाणुपुञ्ज एव तथा परिणतः अव्याहत और व्यवहित दोनों में चक्षु की असम्बद्धता समान है। यह कथन कि 'भिति आदि से अव्यवहितध्य प्रत्यक्षयोग्य होने से चक्षु से असम्बद्ध होने पर भी गृहीत हो सकता है किग्नु भित्ति आदि से व्यवहित द्रस्य अयोग्य होने से गृहीत नहीं हो सकता' संगत नहीं है; क्योंकि जो लय भित्ति आदि के व्यवधान की दशा में गृहीत नहीं होता वही व्यवधान हट जाने पर गृहीत होने लगता है। एवं जो वध्य भित्ति आदि के अध्ययधानदशा में गृहीत होता है यवधान मा जाने पर गृहीत नहीं होता। यह भी नहीं कहा जा सकता कि 'अव्यवधानरशा में जो व्रव्य प्रत्यक्षयोग्य होता है बह व्यवधानदशा में अयोग्य हो जाता है क्योंकि भाव के स्थर्य पक्ष में उस के रहते उस की योग्यता का अपाय नहीं हो सकता । अपाय की बात भाव की क्षणिकता के पक्ष में ही सम्भव हो सकती है। नैयायिक भावक्षणिकत्वचावी नहीं है, किन्तु भावस्थैर्यवादी हैं, मतः उस के सामने उक्त बात का अभिधान अथवा समर्थन सम्भव नहीं है।" [प्राप्यकारित्व पक्ष में उक्त दोष तदवस्थ-प्रत्युत्तर] किन्तु उक्त शङ्कात्मक दोष उचित नहीं है, क्योंकि यह योष चक्षु के प्राप्यकारित्वपक्ष में भी है। जैसे: उस पक्ष में भी यह भतिप्रसङ्ग उद्भावित किया जा सकता है कि चक्षु में जैसे। स्फटिक आदि से व्यवहित का ग्रहण होता है उसी प्रकार अन्य द्रध्य से म्यवहित का भी चक्षु द्वारा ग्रहण होना चाहिये । “चक्षु की किरणे स्फटिक आदि का भेदन कर उस से व्यवहित द्रष्टव्यविषय तक पहुंच जाती हैं, अत: अक्षु से स्फटिक आदि से व्यवहित द्रव्य का ग्रहण हो सकता है किन्तु अन्य द्रध्य का भेदन सम्भव न होने से अन्य व्रव्य से व्यवहित द्रव्य के ग्रहण की प्रसक्ति नहीं हो सकती” एसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि चश्च की जिन किरणों से स्फटिक जैसे कठोर द्रव्य का निर्भेदन हो सकता है उन से कोमल रूई के गोलक का निर्भेदन तो और सुकरता से हो सकता है । अतः रूई के गोलक से व्यवहित द्रव्य के ग्रहण की आपत्ति अनिवार्य है । { उदयनाचार्य के समाधान का निरसन] उदयनाचार्य ने उक्त आपत्ति का उत्तर देते हुये जो यह कहा है कि स्फटिक आदि स्वभावत: स्वच्छ द्रव्य है वह तेज की गति का विरोधी नहीं हैं अत: जसे प्रदीप की प्रभा स्फटिक अरवि के पार निकल जाती है उसी प्रकार चच की किरण भी स्फटिक को पार कर सकती हैं, इसलिये उन से ध्यत्रहित अर्थ का ग्रहण चश्च से हो सकता है, किन्तु जो द्रव्य स्वभात्रत: स्थच्छ नहीं है उन से तेज की गति का प्रतिबन्ध हो जाने से उन से ध्यवहित द्रव्य के साथ चक्षु का सम्बन्ध न होने से चक्षु द्वारा ग्रहण नहीं हो सकता"-किन्तु बुद्धों के कथनानुसार यह ठीक नहीं है, क्योंकि स्वच्छ द्रष्य से गति का प्रतिबन्ध न होना कहीं देखा नहीं गया है। प्रत्युत यह देखा गया है कि कई आदि से जल आदि की गति का अप्रतिबन्ध होता है क्योंकि हाई पर पानी डालने पर पानी रूई के पार चला जाता है और यह इसलिये होता है कि रूई अय वर्षों के अत्यन्त शिथिल संयोग से तैयार होती है। स्फटिक आदि का Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. फ. टीका-हिन्दीविवेचन ] सर्वतः प्रसरति । अत एव पतिरक्तादिकाचकूपिकातो रश्मयोऽपि तच्छायाः प्रसरन्तो दृश्यन्ते । अथ यथा पारदस्याऽयस्पात्र भेदे सामर्थ्य, न पुनरलाबुपात्रभेदे, तथा लोच नरोचिषामपि स्फटिकादिभेदे शक्तिर्भविष्यति न तूलपटलमेद इति चेत् ? न, प्रत्यभिज्ञायाधात् । तस्मात् कुद्ध्याधन्तरितचाक्षुषजनकक्षयोपशमाभावादेवास्मदादीनां न तदन्तरितचाक्षुषम् , तादृशक्षयोपशमवतामत्तियितज्ञानिनां तु भवत्येव तवानुषम् । अथानन्तरितस्यापि कदाचिदन्तरितत्वात् कुझ्यादिव्यवधानकालीनघटादिचाक्षुषे ज्ञानावरणप्रकृतिविशेषस्य प्रतिबन्धकत्वेऽपि तदशायां तदव्यवधानकालीनचाक्षुषापत्तिवारणाय ताशचाक्षुषे तत्तत्कुड्या निर्माण अवयवों के शिथिल सयोग से नहीं होता किन्तु दृढतर संयोग से होता है, अतः चश्नु की किरणों का उस के पार जाना सम्भव नहीं है । सच बात यह है कि स्फटिक में जब प्रदीप की किरणे प्रवेश करती हैं तो वे उस का भेदन नहीं करती किन्नु उन का सम्पर्क पाकर स्फटिक का परमाणुपुञ्ज तवर्ण के रूप में परिणत होकर चारों ओर फैल जाता हैं । उसके फैलाव से ही स्फटिक आदि से घ्यवहित वष्य का ग्रहण सम्पन्न होता है ? यह देखा ही जाता है कि पीत, रक्त आदि वर्ण के काच की कुप्पी से उसी षर्ण की किरणे फैलती है। [स्फटिक में अभेद प्रत्यभिज्ञा की अनुपपत्ति ] ___ यदि यह कहा जाय कि-"जैसे पाग लोहे के कठोर पात्र को तोड देने में समर्थ होता है पर कोमल लकडी की नंबडी को तोडने में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार चक्ष की किरण स्फटिक आदि को तोड़ने में समर्थ होती हुई भी कई के गोले को नोडने में असमर्थ हो सकती है। अत: चश्च से स्फटिक से ध्यवहित तथ्य का ग्रहण मानने पर के गोले से व्यवहित द्रव्य के प्रक्षण की आपत्ति नहीं दी जा सकती । इसलिये चक्षु के प्राप्यकारित्व पक्ष का निराकरण युक्त नहीं है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि चक्षु की किरणों से स्फटिक का भेदन मानने पर चक्षु की किरणों के प्रबंश के पूर्व और वाद के स्फटिक में जो अभिन्नता की प्रत्यभिज्ञा होती है वह न हो सकेगी, क्योंकि चक्षु की किरणों से पूर्व स्फटिक का भेदन हो जाने पर बाद में अन्य स्फटिक की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, अतः चक्षु की किरणों के प्रवेश और बाद के स्फटिक में भिन्नता अनिवार्य है। उक्त त्रुटियों के कारण चक्षु को प्राप्य कारी मानना सम्भव न होने से यह मानना न्याय. संगत है कि जब जिस द्रव्य के चाक्षुषशान का जनक क्षयोपशम विद्यमान होता है तब उम द्रय का चानुपक्षान होता है । स्फटिक आदि स्वच्छ द्रव्य अपने से व्यवहित द्रव्य के चानुषशान के जनक क्षयोपशम का प्रतिबन्धक नहीं होते । अतः उन से व्यवहित द्रव्य का चाप शान होता है किन्तु दिवार आदि अस्वच्छ निविडघ्रस्य अपने से व्यवहित तव्य के चाक्षुषशान के जनक क्षयोपशम का प्रतिबन्धक होते हैं । अतः उन से व्यवहित द्रव्य का चाक्षुषज्ञान नहीं होता । यही कारण है कि जिन शाना तिशय से सम्पन्न महापुरुषों को भित्ति आदि से ध्यवाहित वस्तुओं के भी चाश्चषज्ञान का जनक क्षयोपशम विद्यमान होता है-जिन के क्षयोपशम का प्रतिबन्ध भित्ति आदि व्यवधायक द्रयों से नहीं हो पाता, उन्हें उन व्यवहित वस्तुओं का भी चाक्षुषशान होता ही है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ] [ शासवार्ताः स्त० १०/१८ दिव्यवधानामावहेतुत्वे स्वप्राचीस्थपुरुषसाक्षात्कारे स्वपतीचीवृत्तित्वेसंबन्धेन कुड्यादीनां प्रतिबन्धकत्वकल्पने वा गौरवाचक्षुषः प्राप्यकारित्वमेव युक्तम्, चाक्षुषत्वावच्छिन्न एव चक्षुः संयोगत्वेन हेतुताकल्पने लाघवात् , कुड्यादीनां नयनादिप्राप्तिप्रतिबन्धकत्वकल्पनागौरवस्य फलमुख स्वात् , ततक्रियातत्तदुत्तरदेशादीनामेव संयोगनियामकत्वेनानतिप्रसकाद्, भित्यादीनां प्रतिबन्धकत्वाऽकरुपनाद् वेति चेत् ? [अप्राप्यकारितापक्ष में गौरव दोष का आपादन] यदि यह कहा जाय कि-"जो द्रव्य कुदय(-दिशार भादि से अश्यरहित होने की दशा में चक्ष से गृहीत होता है वह कभी कुड्ध आदि से व्यवहित भी हो जाता है और उस दशा में वह चश्न गृहीत नहीं होता। अतः कुडच आदि के व्यवधान में अयस्थित घट आदि के चाशुषशान में ज्ञानावरणप्रकृतिविशेष को प्रतिबन्धक मानना आवश्यक होता है. किन्तु इस प्रतिबन्धक के होते हुये भी यह आपत्ति हो सकती है कि कुड्य आदि के व्यवधान काल में जो घरचाना होता था उमेद आदि से व्यायामाल में होना चाहिये । कहने का आशय यह है कि जो घट कुद्धच से पककाल में अध्यहित और अन्यकाल में व्यवहित होता है उस के दो चाक्षुष होते हैं। एक कुत्र का अव्यवधानकालीन और दूसग कुडय का व्यवधानकालीन, दुमरे चाक्षुप में जो प्रतिबन्धक होता है, उस से पूर्वचाक्षुष का प्रतिबन्ध नहीं होता अत: कुद्ध से व्यवहित घट को ग्रहण करनेवाले कुड़न के अध्यवधानकालीन चाक्षुष काहींना आवश्यक है । इस आपत्ति का परिहार दो प्रकार से हो सकता है-एक यह कि कृडय आदि के अव्यधानकालीन घटादि के चाक्षुष में कुडय आदि के व्यत्र धानाभाव को कारण माना जाय और दृमग यह कि कृढ-य आदि की पूर्व दिशा में स्थित पुरुष के विषयता सम्बन्ध से साक्षात्कार' के प्रति कुडय आदि व्यवधायक द्रव्य को स्वपश्चिम दिग वृत्तित्र सम्बन्ध मे प्रतिबन्धक माना जाय । किन्तु इन दोनों ही पक्षों के अवलम्बन में गौग्य है. क्योंकि पहले प्रकार में अतिरिक्त कारणता की कल्पना और दूसरे प्रकार में अतिरिक्त प्रतिबन्धकता की कल्पना करनी होती है। अतः चक्ष का 'प्राप्यकात्वि-सम्बद्ध अर्थ का ग्राहकत्व' एक्ष ही उचित है, क्योंकि उस पक्ष में द्रव्य के चाक्षुष ज्ञानमा के प्रति चक्षु के संयोग को कारण मानने में टायर है, क्योंकि जब घट आदि कुडय आदि में व्यवहित होता है तब उस के साथ चक्षु का संयोग न होने से उस समय उसके चानुष की आपत्ति नहीं हो सकती । इसलिये उस समय चाक्षप की आपत्ति के परिहागर्थ किमी प्रतिबन्धक की कल्पना आवश्यक नहीं होती। हाँ. इस पक्ष में कुडच आदि से ध्यवहित घट आदि के साथ चक्षु का संयोग न हो सके, इस के लिय कच आदि को चाकी किरणों की गति का प्रतिबन्धक मानना पडता है। मो चल के अप्राप्यकारिवपक्ष में आवश्यक न होने से इस पक्ष में गौरवाणादक हैं, किन्तु यह गौरव चश्न के प्राप्यकारिवपक्ष में बाधक नहीं हो सकता, क्योंकि चश्च में प्राध्यकारित्व सिद्ध हो जाने पर कुडव आदि से व्यवहित घट आदि के साथ चश्च की प्राप्ति रोकने के लिये उक्त प्रतिबन्धक की कल्पना आवश्यक होती है अतः फलमग्न होने से अर्थात् चश्च के प्राप्यकारित्र की सिद्धि रूप फल के अनन्तर उपस्थित होने से पूर्वप्राप्त उक्त सिद्धि का विघटन उस से नहीं हो सकता ! _दूसरी बात यह है कि कुडच आदि को चश्च की गति का प्रतिबन्धक मानने की कोई आवश्यकता नहीं है, कुलथ आदि के भीतर से होकर चक्षु आदि के पार हो जाने पर भी १. 'स्वमात्रणेव निर्वाहादिति तु विवेचितं प्राक्' । इति पाठान्तरम् Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या, क. टीका-हिन्दी चिथचन ) न, अन्धकारादिसाधारण्येन कुठ्यादीनामेक शक्तिमत्त्वेनावारकत्वकल्पने गौरवाभावात् । एतेन 'परभागेऽधकारवति भित्त्यादौ चाक्षुषोदयाचक्षुःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नालोकसंयोगत्वेन द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुत्वाच्चक्षुषः पाप्यकारित्वसिद्धिः' इत्यपि निरस्तम् ; कुझ्यादिवदर्वाग्भागावस्थितस्यैवान्धकारस्यावरणस्वात् अन्धकारस्यबधानस्य च विषयव्याप्तस्य व्यवधानकालीनचाक्षुषप्रतिबन्धकत्वाद् नान्धकारमयावस्थितस्यालोका थमीक्षाःकारानपानि: । प्रतियधकरवं च प्रकृतिविशेपशक्त्युदयोधकत्वमिति नानुपपत्तिः । कहा आदि से व्यवहित घट आदि के साथ उस का संयोग नहीं हो सकता क्योंकि मिस क्रिया से सिम क्रियायान् का जिस उत्तर देश के साथ संयोग होना प्रमाणसिद्ध है, उम क्रिया से यह उत्तरदेश ही उस क्रियावान के संयोग का नियामक होता है। कुडन आदि से व्यवहित घटादि के साथ चक्षु की किरणों का संयोग प्रमाणसिद्ध नहीं है अतः उक्त घटादि उस का नियामक न होने से उस के साथ चक्षु की किरणों का संयोग नहीं हो सकता । इसलिये चक्षु के प्राप्यकारित्यपक्ष में उक्त प्रतिषाधकता की कल्पना से होने वाला गौरव भी असम्भव है। तित्तत् क्रिया और तत्तत् उत्सरदेश को संयोग का नियामक मानने में कोई युक्ति नहीं है? यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि पफ क्रिया से क्रियावान द्रव्य का किसी एक ही उत्सरदेश के साथ संयोग होता है, सब उत्तर देशों के साथ नहीं होता, इस वस्तुस्थिति की उपपति उक्तरूप से नियामक माने विना नहीं हो सकती।" [ गौरख दोष का परिहार] -किन्तु विचार करने पर चक्ष के प्राप्यकारित्ववादी की उक्त बात उचित नहीं प्रतीत होती, क्योंकि अन्धकारस्थित बटादि के चाक्षुषशान की आपत्ति के बारणार्थ अन्धकार को तो चाक्षुष के प्रति प्रतिबन्धक मानना ही होता है । अतः चाक्षुष के सभी प्रतिबन्धकों में प्रतिवन्धप्रयोजिका पक शक्ति मान कर ताशशक्तिमत्यरूप से सभी प्रतिबन्धकों में एक प्रतिबन्धकता हो जाने से विभिन्नपतिबन्धको में प्रतिबन्धकताभेद की कल्पना का गौरव नहीं हो सकता | [कुख्य और अन्धकार में प्रतिबन्धकता का समर्थन चन को प्राध्यकाग्त्वि सिद्ध करने के लिये नयायिकों की ओर से एक यह युति दी जाती है कि-'भित्ति आदि के पृष्ठभाग में अन्धकार रहने पर भी उस के सम्मुखभाग में आलोक होने पर उस का चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है किन्तु एकभाग में चक्षु का और अन्यभाग में आलोक का संयांग होने पर चाक्षुष नहीं होता, अतः द्रव्य के चाक्षुष प्रत्यक्ष में अन्धकार को प्रतिबन्धक न मान कर चक्षुःसंयोग के अपने वकदेश से अधिक न आलोकसंयोग को कारण मानना आवश्यक होता है। यदि चक्षु को प्राप्यकारी न माना जायगा तो प्रष्टव्य द्रव्य के साथ चक्षु के संयोग की अपेक्षा न होने पर उक्तरूप से कारण की कल्पना न हो सकेगी. अत: उक्त कारणकल्पना की उपपत्ति के लिये चक्षु को प्राप्यकारी मानना आवश्यक है । अन्यथा पृष्टभाग में स्थित अन्धकार के आवरणवश सम्मुखभाग में आलोक होने पर भी भित्ति के चाक्षुष की उत्पत्ति न हो सकेगी'-किन्नु यह युक्ति भी निरस्तप्राय है क्योंकि जैसे सम्मुनस्थित कुडय आदि ही चाक्षुषज्ञान का आवरण होती है उसी प्रकार सम्मुखभागस्थ अन्धकार ही चाक्षुष. शान का आवरण होता है। अतः उक्तदोष नहीं हो सकता। यह भी ज्ञातव्य है कि अन्धकार का विषयच्यातंव्यवधान ही व्यवधान कालीन चानुष का प्रतिबन्धक होता है। इसलिये Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शामवार्ता स्त० १०/२८ प्राप्यकारित्वे च चक्षुषः शाखा - चन्द्रमसोर्युगपद् महानुपपत्तिः, युगपदुभयसंयोगाभावात् । न च 'तिर्यग्भागावस्थितयोः शाखा- कदमसोर्युगपद संयोगोपपत्तिः' इति वर्धमानोक्तं निरवद्यम्, ऊर्ध्व प्रसृतानामेव नयनरश्मीनां तयोस्तिर्यग्भागेऽवस्था नोपपत्तेरूर्वस्थित वस्तुग्रहणप्रसङ्गात् । न चामभागावच्छेदेन संयुक्तस्यैव चक्षुषो ग्राहकत्वम्, अत एव न नयनस्थिताञ्जनादिमहोऽपीति नायें प्रसङ्ग इति वाच्यम् तथापि तावत्पर्यन्तं प्रयतस्थान्तरालिकवस्त्वन्तरग्रहणमसङ्गात्, संनिहित विमुच्याऽसंनिहितसंयोगानुपपत्तेः, अनन्यगत्या वेगादिविशेषात् विनैव संनिकृष्टदेशविशेष संयोगं विप्रकृष्टदेशसंयोगोपपादने चानन्यगत्या देशविशेषस्य तत्तच्चाक्षुषहेतुत्वमस्तु, अनन्तचक्षुः क्रिया संयोग ९६ / अन्धकार के मध्य में अवस्थित आलोकस्थ वस्तु के साक्षात्कार की अनुपपत्ति नहीं होती क्योंकि जिस आलोक के चारों ओर अन्धकार है उस आलोक में स्थित वस्तु में अन्धकार की व्यामि न होने से उस का चाक्षुष अन्धकार से अवरुद्ध नहीं हो सकता । यह भी ध्यान देने योग्य हैं कि वस्तुतः शानावरणीयकर्म ही ज्ञान का प्रतिबन्धक होता है । प्रतिबन्धिका शक्ति वस्तुत: उसी में होती है । कुड, अन्धकार आदि वाह्यस्यवधायक तो उस शक्ति के उद्बोधक होने से प्रतिबन्धक कहे जाते हैं। अतः चक्षु के अप्राप्यकारित्व पक्ष में कोई आपत्ति या अनुपपत्ति नहीं है । [ प्राप्यकारितापक्ष में एक साथ शाखा - चन्द्र ग्रहणापत्ति ] चक्षु के प्राप्यकारित्यपक्ष में एक और दोष है। यह है, वृक्ष की शाखा और उस से ऊपर बहुत दूर अन्तरिक्ष में स्थित चन्द्रस के कृष्पत् को अनुपपति कार्वजनीन अनुभव है कि जब कोई मनुष्य रात में वृक्ष की शाखा की और आँख डालता है तब उसे ती भाव में अवस्थित शाखा और चन्द्रमा साथ ही दीख पड़ते हैं । यह बात चक्षु को अप्राप्यकारी मानने पर तो बन सकती है पर प्राप्यकारी मानने पर नहीं बन सकती, क्योंकि शाखा के समीपस्थ होने में उस के साथ चक्षु का संयोग पहले होगा और दूरस्थ चन्द्रमा के साथ बाद में होगा। अतः शाखा का प्रत्यक्ष पहले और चन्द्रमा का प्रत्यक्ष बाद में होना चाहिये न कि एक साथ । इस के उत्तर में "वर्धमान' का कहना है कि शाखा और चन्द्रमा मीधी रेखा अवस्थित नहीं होते किन्तु तिर्यक तिरछे अवस्थित होते हैं. अतः चक्षु की किसी किरण का शाखा साथ और किसी अन्य किरण का चन्द्रमा के साथ युगपत संयोग सम्भय होने से दोनों के युगपद ग्रहण में कोई बाधा नहीं है । शाखा यद्यपि सम्मिलीत है और चन्द्रमा ऊ है तथापि मध्य में किरण की गति का कोई अवरोधक न होने से समान समय में दोनों तक चक्षु की किरण पहुँचने में कोई असंगति नहीं है । किन्तु यह उत्तर निर्दोष नहीं है क्योंकि जब शाखा और चन्द्रमा का तिर्यक अवस्थान होगा तब शाखा के साथ चक्षुकिरण के संयोग के समय चन्द्रमा के साथ चक्षुकिरण का संयोग सम्भव ही नहीं हो सकता, क्योंकि चक्षु की किरणें जब शाखा की और फैलती हैं तब उन का फैलाव शाखा के उपर ही होता है न कि पार्श्व में, अत: उस समय चन्द्रमा का ग्रहणन होकर शाखा के ऊपर अवस्थित अन्य स्तुओं के ग्रहण की आपत्ति होगी । अथवा यों कहा जा सकता है कि शाखा और चन्द्रमा का तिर्यक् अवस्थान मान कर उन के साथ चक्षु की विभिन्न किरणों के युगपत् १. गंगेोपाध्याय का पुत्र वर्धमानवा | Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ ९७ संयोग की उपपसि द्वारा दोनों के युगपत् ग्रहण की उपपत्ति कर सकते हैं किंतु ऐसा हो जाने पर भी ऊपर फैलनेवाली चक्षफिरणों को चन्द्र के उपर अवस्थित वस्तुओं के साथ भी संयोग होने से उन वस्तुओं के भी ग्रहण की आपत्ति होगी किन्तु चन्द्र के ऊपर स्थित वस्तुओं का ग्रहण नहीं होता है। [एक आपत्ति का परिहार करने पर अन्य आपत्ति ] यदि यह कहा जाय कि-'ग्राम द्रव्य के अग्रभाग से संयुक्त चक्ष ही द्रव्य का ग्राहक होता है, इसीलिये नेवस्थित अन आदि का चाक्षर पक्ष नहीं होता, क्योंकि नेत्र के अधिष्टान से उपर की ओर निर्गत ने किरणें अक्षन के अप्रभाग से संयुक्त न होकर उस के पृष्ठभाग से ही सम्बद्ध हो सकती हैं। अत, जैसे अञ्जन के अग्रभाग से संयुक्त न होने के कारण चक्षु से नेत्र स्थित अञ्जन का ग्रहण नहीं होता उसी प्रकार चक्षु चन्नमा के ऊपर अवस्थित द्रव्यों के अग्रभाग से संयुक्त न होने के कारण उन के पृष्ठभाग से संयुक्त भी अक्षु से उन का ग्रहण न होना ही युक्तिसंगत होने से उन के ग्रहण की आपत्ति नहीं हो सकती-तो यह कथन टीक नहीं है क्योंकि इस कथन से उक्त पफ आपत्ति का परिहार हो जाने पर भी वक्ष के प्राप्यकारित्वपक्ष में होनेवाली अन्य आपत्तियों का परिहार नहीं हो सकता । जैसे चक्षु को प्राप्यकारी मानने पर व्रष्टा के नेत्र और द्रष्टव्य शाखा आदि के मध्य जिसने द्रव्य है उन सभी के साथ चश्नु का सयोग होने के कारण उन सभी वन्यों के चाक्षुष की आपत्ति होगी। चक्ष को अपायकारी माननेवाले जनमत में यह आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि द्रष्टा के नत्र तथा शाखा आदि के मध्य अवस्थित द्रव्यों के. चाशुषज्ञान के आवरण का श्योपशमरूप कारण सन्निहित नहीं रहता । उक्त आपत्ति के परिहारार्थ यह नहीं कहा जा सकता कि मध्यस्थित द्रव्यों के साथ चक्षु का संयोग ही नहीं होता, क्योंकि मध्यस्थित द्रव्य शाखा आदि की अपेक्षा समीपस्थ होते हैं अतः यह संभव नहीं हो सकता कि समीपस्थ द्रव्यों के साथ दक्ष का संयोग न हो और दूरस्थ शाखा आदि के साथ हो जाय । यह भी नहीं कहा जा सकता कि 'मध्यस्थित द्रव्यों के चाक्षुपज्ञान की आपत्ति के परिहार का कोई अन्य उपाय न होने से यह माना जा सकता है कि बैगातिशय के कारण नेत्र किरण मध्य के द्रध्यों में संयुक्त न होकर दूर तक फैल जाती हैं । अतः दृरस्थ द्रव्यों से ही उन का संयोग होता है। क्योंकि इस की अपेक्षा यह मानना अधिक उचित है कि जिस देश में स्थितद्रव्य का चाश्रुप आनुभविक है, विषयता सम्बन्ध से द्रव्यचाक्षुष के प्रति वृत्तित्य सम्बन्ध से बह देश है। कारण है । यह कार्य कारणभाष भी मध्यदेशस्थित द्रव्यों के चाशुपक्षान की आपत्ति के परिहार का अन्य किसी उचित उपाय के न होने से मान्य किया जा सकता है। इस कार्यकारणभाव को मानने का औचित्य इमलिये हैं कि प्रत्य कानुष में चक्षुद्रव्यसंयोग को कारण मानने पर चर की क्रिया, पूर्वस्थान से घच का विभाग, उस स्थान के साथ चक्षुर्मयोग का नाश, ग्राह्यद्रयरूप उत्तर देश के साथ चक्षुसंयाग, चक्षु की क्रिया का नाश इन सभी पदार्थों के बीच बहुतर कार्यकारणभाव की कल्पना में अत्यधिक गौरव है और वृत्तिन्य सम्बन्ध से देशविशेष को चाप-प्रत्यक्ष का कारण मानने में उक्त. अनन्त कार्यकारणभाषों की कल्पना को आयर यकता न होने से लायम है। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८] [शाच्यार्ताः स्त. २०१८ विभाग-तत्कार्यकारणभावाद्यकरुपनलाघवात् । अस्तु वा नयनप्राप्तिनियामकं विशिष्टाभिमुख्यमेव तत्कानियामकम् । एतेन 'क्रमिकोमयसंयोगवता चक्षुषा शाखा- चन्द्रमसोणे कालसनिकर्षाद् योगपद्याभिमानः' इत्यपि निरस्तम् , चन्द्रज्ञानानुव्यवसायसमये शाखाज्ञानस्य नष्टत्वेन 'शाखाचन्द्रौ साक्षात्करोमि' इत्यनुव्यबसा यानुपपत्तेश्च । न च ऋमिकतदुभयजनितसंस्काराभ्यां जनितायां समूहालाम्बनस्मृतावेवानुभवत्वारोपात् तथाऽनुव्यवसाय इति सांप्रतम् । साहगारोपादिकरूपनायां महागौरवादिति । अधिकं ज्ञानार्णवादौ । तदेवं भावांश इवाभावांशेऽपि विषयग्रहणपरिणामरूपभावेन्द्रियस्य ग्राह्यतापरिणामाख्ययोग्यता उक्त उत्तर के अतिरिक्त यह भी कहा जा सकता है कि, नेत्र के जिस विशिष्ट आभिमुख्य से नेत्रप्राप्ति-नेघसंयोग का नियमन होता है वही, नेत्रसंयोग से उत्पादनीयतया अभिमत द्रव्यचाक्षुपरूप कार्य का नियामक है। अत: नेत्र के विशिष्ट आभिमुख्य से ही द्रव्य के चाक्षुष की उपपत्ति हो जाने से तदर्थ द्रष्टय द्रष्य के साथ नेत्रसंयोग की कल्पना अनावश्यक पर्व मनुचित है। [शाखा-चन्द्र के एक साथ ग्रहण का समर्थन] चक्षु को प्राप्यकारी मानने पर शाखा और चन्द्रमा के युगपद् ग्रहण की जो अनुपपत्ति बताई गई उस के उत्तर में कुछ विद्वानों का यह कहना है कि-'शाखा और चन्द्रमा के साथ चष्ठ का युगपत् संयोग न होने के कारण उन का युगपद् प्रहण होता ही नहीं किन्नु दोनों प्रत्यक्षों के श्रीच अत्यन्त स्वरूप काल का ही अन्तर होने से उन में योगपच-सहोत्पन्नता का भ्रम होता है। अत: अब शाखा और चन्द्रमा का युगपत् प्रत्यक्ष ही होता नहीं तो उस की अनुः पपत्ति बता कर चक्षु के प्राप्यकारित्वपक्ष का खण्डन करना अयुक्त है'-किन्तु यह कथन असंगत है, क्योंकि जब शाखा और चन्द्रमा का प्रत्यक्ष कम से होगा तब चन्द्रदर्शन के अनु. व्यवमाय के समय चन्द्रदर्शन से पूर्वोल्पन्न शाखादर्शन का नाश हो जाने से 'शाखा-चन्द्रौ साक्षात्करोभि शाखा और चन्द्र को देवता हूँ' इस प्रकार चन्द्रदर्शन के अनुव्यवसाय के साथ शाखादर्शन का अनुव्यवसाय न हो सकेगा । यदि यह कहा जाय कि-' उक्त अनुव्यवसाय शाखा और स्वन्ट्र के दर्शन का अनुव्यवसाय नहीं है किन्तु दोनों दर्शनों से क्रमोत्पन्न दो संस्कारों से उत्पन्न शाखा और चन्द्र के समूहालम्बन स्मरणरूप अनुव्यवसाय है जो स्मरण को स्मरणत्यरूप से विषय न कर अनुभवत्य-माक्षास्कारत्वरूप से विषय करता है। तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि एसा मानने में उक्त समुहालम्बन स्मरण की कल्पना, उसमें स्मरणत्वमान के प्रतिबन्धक की कल्पना और साक्षात्कारत्व के आरोपजनक दोष की कल्पना आदि के आवश्यक होने से महान गौग्य है। इस विषय के ऊपर और विस्तृत विचार व्यारूशकार के 'शानार्णव' आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है। [अभावांश का ग्रहण इन्द्रिय से] उक्त रीति से विचार करने पर यह सिद्ध होता है कि इन्द्रिय से अभाव का ग्रहण दुर्घट नहीं है, क्योंकि जैसे भाघ के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होता है उसी प्रकार अभाय के Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दीविवेचन संबन्धसत्त्वादिन्द्रियेण तद्ग्रहणं न दुर्घटम् | यच्चोक्तम्-'प्रतियोगिग्रहणपरिणामाभावरूपं तदन्यवस्तुविज्ञानरूप वाऽभावास्य प्रमाणभेष्टव्यम्' इति-तत्र पटिष्टम् , आद्यस्य समुद्रोदक पलपरिमाणेनानैकान्तिकत्वात् ; द्वितीयस्य च विविक्ताधिकरणज्ञानरूपस्यन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायित्नेन प्रत्यक्षत्वादेव । यदप्युक्तम् 'न चैवमभावज्ञाने' इत्यादि....तदप्ययुक्तम् , प्रतियोग्यधिकरणसंसृष्टताऽसंसृष्टताभ्यामधिकरणग्रहणप्रतियोगिस्मरणयोरपेक्षायां बाधात्, प्रत्यक्षेणैब सिद्धौ वैयथ्याच्चः अन्याऽसंसृष्टतादिग्रहेऽभावव्यापारे साथ भी इन्द्रिय का सम्बन्ध होता है । एस सम्बन्ध को यों समझा जा सकता है-इनिध्य दो प्रकार की होती हैं-द्रव्यइन्द्रिय और भावइन्द्रिय । चक्षु आदि द्रव्यइन्द्रिय है और विषयग्रहणानुकूल उन का परिणाम भावइन्ट्रिय है । भाइन्द्रिय के द्वारा ही द्रव्यइन्ट्रिय का सम्बन्ध होता है। वह सम्बन्ध संयोग आदिरूप नहीं हैं किंत ग्राद्यपदार्थ का ग्राहयतापरिणामरूप है । इस ग्राह्यनिष्ठ परिणाम को ही इन्द्रिय से गृहीत होने की योग्यता कही जाती है । यह प्राय की योग्यता ही ग्राह्यपदार्थ के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध है । ग्राह्य के साथ इन्द्रिय का यह सम्बन्ध जसे मात्र के माथ है उसी प्रकार अभाव के साथ भी है। कहने का आशय यह है कि चक्षु आदि इन्द्रिय में जैसे भावात्मकरिषय यहणरूप परिणाम होता है और इस परिणाम से भावात्मकविषय में ग्राह्यतापरिणाम होता है, उसी प्रकार इन्द्रिय में अभामा मक विषय का भी ग्रहण परिणाम और उक्त परिणाम से अभावात्मक विषय में ग्राश्यतापरिणाम होता है। अभावनिष्ठ वहीं ग्राश्यतापरिणाम योग्यतारूप हैं और वही ग्राह्यनिष्ठ योग्यता यह इन्द्रिय के. साथ ग्रामविषय के सम्बन्ध का काम करती है । तात्पय, ग्राह्य उस योग्यतारूप मबंध से इन्द्रियसंघद्ध होता है । अत: भाव के समान अभाष भी उक्त योग्यतारूप सम्बन्ध से इन्द्रियसम्बद्ध होने के कारण इन्द्रिय से गृहीत हो सकता है। इमलिये अभावग्रहण के लिये अनुपलब्धिरूप अभाव को पृथक् प्रमाण मानना अनावश्यक है। अभावप्रमाणवादी की ओर से जो यह कहा गया कि-'प्रतियोगी के ग्रहणस्य इन्द्रिय परिणाम के अभाव को अथवा प्रतियोगी से भिन्न अधिकरणात्मक वस्तु के ज्ञान को अभावप्रमाण मानना आवश्यक है क्योंकि उस के बिना किसी अन्य प्रमाण से अभावग्रहण सम्भत्र नहीं है।' -वह टीक नहीं है क्योंकि विषय ग्रहण रूप परिणाम का अभाव विषय के अभावग्रहण का व्यभिचारी होने से अभाव में प्रमाण नहीं हो सकता । -समुद्र के उदकविन्दु के परिणाम का ग्रहणात्मक इन्द्रियपरिणाम का अभाव होने पर भी उस का अभाव नहीं होना हन्द्रिय से गृहीत न होने पर भी सत्र के जलविन्दुओं में पलपरिमाण का अभाव नहीं होता। किन्तु सूक्ष्म जलबिन्दु के समान उस का परिमाण अपना अस्निल धारण करता ही है। अत: विषयानु पलब्धि विषयाभाव के ग्राहक प्रमाणरूप में मान्य नहीं हो सकती। प्रतियोगी से अन्य अधिकरणात्मकवस्तु के ज्ञान को भी अभावरूप अतिषिक्त प्रमा के रूप में स्वीकृत नहीं किया जा सकता, क्योंकि इन्द्रिय के अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधान करने से अधिकग्णाज्ञान प्रत्यक्षरूप है । अत: उस से अभाव को ग्राह्य मानने पर अभाव की प्रत्यक्षग्राह्यता सिद्ध होगी न कि अभावरूप भिन्नप्रमाण की मान्यता । [अभाव प्रमाण न मानने पर भी अपेक्षा की उपपति] अभाव को अतिरिक्त प्रमाण सिद्ध करने के लिये जो यह बात कही गई कि-"अभावज्ञान Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शावा० त०] १० / १८ काविदोषात् नच संताऽसंसृष्टतोदासीनं तज्ज्ञानमात्रं तथा, इत्वादिनाऽभावज्ञाने व्यभिचारात्, विशिष्याभावज्ञानेऽनन्ताधिकरण- प्रतियोगिज्ञानहेतुता करूपने गौरवाच्चेन्द्रियोपयोग समय एवाधिकरणप्रतियोगिज्ञानापेक्षां विनैव भावांशवदभावांशस्य प्रत्यक्षत्वाभ्युपगमौचित्यात्, भूतलाऽसंसृघटदर्शना हितसंस्कारस्य पुनः घटाऽसंसृष्टमूभागदर्शनानन्तरं तथाविधघटस्मरणे सति 'अत्र घटोनास्ति' इति प्रत्यभिज्ञानमात्रात् न चात्र किञ्चिदधिकं कल्पनीयम्, विशिष्टवैशिष्ट्यज्ञानसामग्रीमात्रेणैव निर्वाहातू - इति तु विवेचितं प्राक् । १०० ] में अधिकरणशान और प्रतियोगी के स्मरण की अपेक्षा होती है । यह अपेक्षा अभाववान को अभावप्रमाणजन्य मानने पर ही उपपन्न हो सकती है, इन्द्रियजन्य मानने पर नहीं उपपन्न हो सकती, क्योंकि अधिकरणज्ञान आदि के बिना भी इन्द्रिय से भावात्मक पदार्थ का ग्रहण होता है अतः इन्द्रिय को विषयग्रहण के जनन में अधिकरणशानादि सापेक्ष नहीं माना जा सकता ।" - यह कथन भी अयुक्त है, क्योंकि इन्द्रिय से होनेवाला कोई ग्रहण ऐसा होता है। जो प्रतियोगी और अधिकरण से संसृष्ट वस्तु को विश्य करता है और कोई उन से असंमृष्ट वस्तु को विषय करता है भावात्मक वस्तु का इन्द्रियजन्य ज्ञान प्रतियोगी और अधिकरण को विषय नहीं करता पर अभाव का ग्रहण उन दोनों को विषय करता है । अतः भावग्रहण में इन्द्रिय को अधिकरणशान और प्रतियोगी स्मरण की अपेक्षा न होने पर भी अभावग्रहण में उन की अपेक्षा में कोई बाधा नहीं हो सकती। दूसरी बात यह है कि अय अधिकरणज्ञान और प्रतियोगिस्मरण सापेक्ष प्रत्यक्ष से अभाव का ग्रहण हो सकता है तब उस के लिये अभावात्मक प्रमाणान्तर की कल्पना व्यर्थ भी है। [ अतिरिक्त अभावप्रमाणवादी को चक्रकदोषापत्ति ] यह भी ध्यातव्य है कि अनुपलब्धि को अभावग्राहक अतिरिक्त प्रमाण मानने में चक्रक आदि दोष भी है। जैसे घट की अनुपलब्धि को घटाभाव के ग्रहण में भूतल में घटसंसर्गाभाव का ज्ञान अपेक्षित है क्योंकि संसर्गाभाव द्वारा ही संसर्गी का अभाव होने से घटसंसर्गाभाव के विना घटाभाव नहीं हो सकता और घटाभाव न होने पर घटानुपलब्धि मात्र से उस का ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि घर के रहने पर भी प्रतिचन्धकवश अथवा घटदर्शन के किसी कारण की अनुपस्थितिषश भट की अनुपलब्धि हो सकती है । अतः घटाभाव के ग्रहण में घानुपलब्धि को घटसंसर्गाभाव के ज्ञान की अपेक्षा स्पष्ट है और वटसंसर्गाभाव के ज्ञान में घटाभावज्ञान की अपेक्षा है क्योंकि संसर्ग के संसर्गिपरतंत्र होने से संसर्ग का अभाव भी संसर्गी के अभावाधीन होता हैं, अतः घटाभाव होने से ही घटसंसर्गाभाव सम्भव है । और घटाभाव के ज्ञान में घटानुपलब्धि की अपेक्षा है, इस प्रकार घटाभाव ग्रहण में घटानुपलब्धि को तीसरी कक्षा में अपनी ही अपेक्षा हो जाने से चक्क स्पष्ट है । इसलिये यह नहीं कहा जा सकता किटानुपलब्धिरूप अभावप्रमाण से ही 'मृतले घटो नास्ति' इस प्रकार भूतल से संसृष्ट घट के अभाव का ग्रहण हो जाने से इस ग्रहण के जनन में अधिकरणशान आदि को कारण नहीं मानना पड़ता, अतः अभाव को अतिरिक्त प्रमाण मानने में लाघव है और इन्द्रिय से अभाव का ग्रहण मानने पर तजन्य अभावग्रहण में अधिकरणज्ञान आदि को कारण मानना आवश्यक होने से गौरव हैं ।" Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] न चैवं प्रतियोगिग्राहिणेन्द्रियेणाधिकरणज्ञानस्य हेतुत्वे वायौ रूपाभावप्रतीतिरपि संगच्छते, तत्र रूपाभावस्य रूपानुपलम्भेनाप्यनुमातुमशक्यत्वात् , प्राकट्यनिरासेन तदभावेन तस्यानुमातुमप्यशक्यवात् । न चानुपलम्भे विशेषाभावादभावग्रहविशेष आलोकाद्यपेक्षोपपत्तिरपि, अधिकरणविशेषेऽपि करणविशेष बिना क्रियाविशेषानुपपत्ते, अधिकरणज्ञानस्य करणत्वे च गतमभावप्रमाणेन । न चाधिकरणाऽभावाज्ञानद्वयं क्रमेणोत्पद्यमा नमुपलभ्यतेऽपि येनेयं कल्पना सावकाशापि स्यात् । [अधिकरणादि अविषयक इदंत्वरूप से अभावज्ञान का सम्भव ] यदि यह कहा जाय कि-मटता-असमृष्टता आदि में उदासीन अर्थात् घट में भूतल की संसृष्टता अथवा असंमृपता के ज्ञान की अपेक्षा न कर घट की केवल अनुपलब्धि ही 'भूतले घटो नास्ति' इस प्रकार भूतलसंसृष्टवटाभाव के ग्रहण का जनक है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि घट की अनपलब्धि से अधिकरण और प्रतियोगी को विषय न करनेवाला भी घटाभावग्रहण होता है जो बबल इदात्वरूप से घटाभाष को विषय करने से 'अयम' इस आकार में उत्पन्न होता है। अतः वैवलघटानुपलब्धि को 'भूतले घटो नास्ति' इस प्रकार के अभावग्रहण का जनक मानने पर केवल बटानुपलब्धि से इस प्रकार का अभावग्रहण न होकर 'अयम्' इस रूप में बटाभाव का ग्रहण होने पर अन्वयव्यभिचार होना दुनिघार है। अतः चाहे अनुपलब्धिरूप अभावप्रमाण से अभाव का ज्ञान माना जाय और चाहे इन्द्रिय से अभाव का ज्ञान माना जाय. दोनों दशा में विभिन्न अधिकरणों में प्रतियोगी से विशषित अभावशान के प्रति अनम्त अधिकरणज्ञान और प्रतियोगि शाम को कारण मानने में गौरव हैं । इसलिये उचित यही है कि जसे अधिकरण और प्रतियोगी के ज्ञान की अपेक्षा बिना ही इग्निय से भाष का ग्रहण होता है उसी प्रकार उन शानों की अपेक्षा किये बिना ही इन्द्रिय से अभाव का भी ग्रहण होता है। किंतु जो 'अत्र घटो नास्ति- यहाँ घट का अभाव है। इस प्रकार अधिकरणविशेप में घविशेषित अभात्र का वान होता है यह घटाभाव का प्रथम शान न होकर उस का प्रत्यभिज्ञारूप ज्ञान होता है । जिस पुरुष को भूतल से असमृष्ट बट के 'घटः' इस प्रकार के दर्शन से घटविषयक संस्कार प्राप्त रहता है उसे घट से असंमृष्ट भूतल का भूतलं' इस प्रकार का दर्शन होने के बाद घट का स्मरण होने पर उक्त प्रत्यभिज्ञात्मक शान उत्पन्न होता है, यद्यपि यह ज्ञान दृश्यमान वस्तु के साथ पूर्वदृष्ट, स्मृत वस्तु के ऐक्य का ग्राहक न होने से विषय की दृष्टि से प्रत्यभिशा नहीं है किंतु प्रत्यभिज्ञा के समान म्मरण और दर्शन से प्रादुर्भत होने के कारण प्रत्यभिशा शब्द से व्यादिष्ट होता है। उक्त रीति से 'अत्र घटो नास्ति' इस शान की उत्पत्ति मानने पर उस के लिये कोई अतिरिक्त कल्पना नहीं करनी पड़ती, किन्तु विशिष्ट के वैशिष्टय को विषय करनेवाले शान की सामग्री से ही इसका निर्वाह हो जाता है। इस बात का विवेचन पहले किया भी जा चुका है। [ वायु में रूपाभावप्रतीति न होने की आपत्ति ] त्रा के प्राप्यकारित्यपक्ष में किंवा अभाव के पृथक प्रामाण्यपक्ष में प्रतियोगी के ग्राहक इन्द्रिय से उत्पन्न अधिकरणशान को जो अभावज्ञान का कारण बताया गया है वह भी संगत १. द्रष्टव्यःप्रशमस्तबक-पृष्ठ २२५ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] [ शासवार्ताः स्त० १०/१८ नहीं है, क्योंकि चक्षु ले वायु का ग्रहण न होने से घायु में कपाभाष की प्रतीति न हो सकेगी। 'रूपानुपलम्भ से वायु में रूपाभाष की आनुमानिक प्रतीति होती है। यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वायु में रूपानुपरम्भ का भी ज्ञान दुर्घट है। शायु में रूप के अप्राकटय से वायु में रूपानुपलम्भ का अनुमान हो सकता है। यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि 'उपलम्म से अर्थ में प्राकट्य शातता की उत्पत्ति होती है। इस मत का खण्डन हो चुका है। अतः जब प्राकटय ही नहीं है तब उस के अभाय से अनुपलम्भ का अनुमान कैसे हो सकता हैं? अनुपलम्भ को अभावप्रमाण मानने पर एक यह भी दोष है कि अनुपलम्भ में कोई चलक्षण्य न होने से अभाव के ग्रहण निशेष में आलोक आदि की अपेक्षा न हो सकेंगी। कहने का आशय यह है कि अन्धकार में घट के स्वाच अनुपलम्भ से घटाभाध का ग्रहण होता है, उस में आलोक की अपेक्षा नहीं होती, किन्तु अन्धकार में घट के चाक्षुप अनुपस्तम्भ से घटाभाव का ग्रहण नहीं होता अत: चाष अनपलम्भ से होनेवाले अभावग्रहण में आलोक की अपेक्षा मानी जाती हैं किन्तु यदि अनुपलम्भ ही अभाव का ग्राहक प्रमाण होगा तो अनुपलम्भ तो सब समान है चाहे वह त्वक् से घट का उपलभ न होने से दो या चाहे चक्षु से घट का उपलम्भ न होने से: उपन्छम्माभावात्मक अनुपलम्भ में तो कोई भेद होता नहीं तो फिर उसे किसी अभावग्रहण में आलोक की अपेक्षा न हो और किसी अभावग्रहण में आलोक की अपेक्षा हो, यह बात कैसे बन सकती है? [करणलक्षण्य के विना अभावग्रहण के लक्षण्य का असंभव ] यदि यह कहा जाय कि-'अभाव के ग्रहण में अनुपलम्भ को आलोक की अपेक्षा कहीं नहीं होती किन्नु जिस अधिकरण में अभावशान होता है उस अधिकरण के ज्ञान विशेष में उस के हेतु को आलोक की अपेक्षा होती है। जैसे: यदि चक्षु से गृहीत भूतल में घटानुपलब्धि से घटाभाव का ग्रहण करना होता है तब भूतलरूप अधिकरण के चाक्षुषशान के लिय चक्ष को आलोक की अपेक्षा होती है न कि आलोक सापेक्ष चक्ष से गृहीत भूतल में घटाभाम्रग्रहण के लिये घटानुपलब्धि को आलोक की अपेक्षा होती है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि अन्धकार में त्वक से गृहीत भूतल में होनेवाले घटाभार ग्रहण में और प्रकाश में चक्ष से गृहीत भूतल में होनेवाले घटाभावग्रहण में बन्दक्षण्य स्पष्ट है, किन्तु यह प्रियागत लक्षण्य करणयन क्षण्य के बिना नहीं हो सकता और प्रकृत में अनुपलम्भरूप करण में कोई भेक्षण्य है नहीं और यदि अभावग्रहण के लक्षण्य की उपपत्ति के लिये विलक्षण अधिकरणज्ञान को उस का करण माना जायगा तो अभावप्रमाण का अस्तित्व ही समान हो जायगा । यदि यह कहा जाय कि-'अभायज्ञान का करण तो अभावप्रमाषा ही है. अधिकरणशान तो उस का सहकारी है । अतः करण में सहज वैलक्षण्य न होने पर भी सहकारीमूलक चलक्षग्य से ग्रहणक्रिया में बैलशपय हो सकता हैं और अधिकरणज्ञान से अभावप्रमाण की व्यर्थता भी नहीं हो सकती-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अधिकरणज्ञान और अभावज्ञान यदि क्रम मे हो तभी उक्त कल्पना हो सकती है, किन्तु पमा नहीं है, उरटे दोनों की प्रमिक उत्पत्ति न होकर अधिकरण और अभाव का एक ही विशिघ्रज्ञान उत्पन्न होता है । अत: उक्त कल्पना सत्य नहीं है। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिम्वीविंचन ] [.०३ ____ अपि च, अज्ञातकरणत्वादप्यमावज्ञानमपरोक्षं स्वीकरणीयम् , ज्ञाताया अनुपलब्धेः करणत्वे ऽनवस्थानात् । न च प्रागनास्तिताबुद्धौ ज्ञातैव सा करणम् , अभावप्रत्यक्षमात्रे प्रतियोगिज्ञानस्याऽहेतुत्वेन गृहसनिकर्षकाले मैत्राऽस्मरणेऽपि तदभावानुभवेन मैत्रस्मरणे सति प्रामास्तिताधियः प्रत्यभिज्ञामात्रत्वात् । अबधानं च तत्रानुपयोगादिकृताभावसभावनानिरासार्थमुपयुज्यते । 'स्मरणाहीस्मरणानुमितसनिकर्षादिकालीनानुपलब्धिलिङ्गकैव प्रामास्तिताघीः' इत्यये । दोषेणाप्यनुपलब्धेरभावरूपाया उपघाताभावादिन्द्रियस्यैव दुष्टत्वोपपत्तेरभावप्रमा( भ्रम)करणत्वा(त्ववोदभावनम(प्रमा करणस्वभपीन्द्रियस्यैव युक्तम् । [अज्ञातकरण से जन्य अभावज्ञान की अपरोक्षरूपता] यह भी ज्ञातव्य है कि-'घट आदि के अभाव ज्ञान में घट मादि की अनुपलब्धि स्वयं अज्ञात होकर ही करण होती है। भत: अज्ञातकरण से जन्य होने के नाते अभावज्ञान की अपरोक्षरूपता अनिवार्य है क्योंकि अज्ञातकरणक ज्ञान को ही अपरोक्षशान कहा जाता है। इस दोष के निरासार्थ यह मानना सम्भव नहीं हो सकता कि शात अनुपलब्धि ही अभावशाम का करण है, क्योंकि अनुपलब्धि ज्ञान को अभावज्ञान का करण मानने पर अनवस्था होगी, जैसे घटाभाव के ज्ञानार्थ घटोपलम्भाभाव का मान अपेक्षित है और उस ज्ञान के लिये घटोपसम्भ की अनुपलब्धिउपलम्भाभाव का ज्ञान अपेक्षित है तथा बटोपलम्भ के उपरम्भाभावशान के लिये घटोपलम्भोपलम्भ के उपलम्भाभाष का झान अपेक्षित है । इस प्रकार प्रत्येक उपलम्भान्मक प्रतियोगी के अभायज्ञान में उस के उपलम्भाभावशान की अपेक्षा होने से अनवस्थादोषवश घटानुपलब्धि का शान सामान्य पुरुष के लिये असाध्य हो जायगा । अतः उसे घटाभावज्ञान का जनक मानमा सम्भव नहीं हो सकता ! [ज्ञात अनुपलब्धि करण होने की संभावना का प्रतिक्षेप ] यदि यह कहा जाय कि-"प्राग्नास्तिताबुद्धि में अर्थात् अभाव के प्रथमज्ञान में ज्ञात है। अनुपलब्धि करण होती है। जैसे-जो स्थान आलोफसंयुक्त एवं प्रत्यक्षयोग्य हाता है तथा अनन्यमनस्क पुरुष का मुन्टा ने उस स्थान पर पड़ता है तो वहाँ के घट के विद्यमान होने पर उस का उपलम्भ अवश्य होता है किन्तु जब वैसी स्थिति में भी घट का उपलम्भ नहीं होता तब मनुष्य को यह आपात्मक बुद्धि होती है कि यदि इस स्थान में घट होता तो उस का उपलम्भ अवश्य होता क्योंकि घट और घटेन्द्रिग्रसन्निकर्ष के अतिरिक्त घटोपलम्भ के समस्त कारण विद्यमान हैं। इस आगीपात्मक बुद्धि के फलस्वरूप उसे यह ज्ञान होता है कि यतः यहाँ घट का अनुपलम्भ है अतः यहाँ घट का अभाव है। इस प्रकार घट के अभाव का जो प्रथमशान होता है यह घटानुपलम्भ के ज्ञान से होता है । ऐसा मानने में अनवस्था भी नहीं है क्योंकि घटाभाव के प्रथम कान में ही घटानुपलम्भशान की अपेक्षा है किन्तु इस अपेक्षणीय घटानुपलम्भ के झान में उस के प्रतियोगी घटोपलम्भ की अनुपलब्धि का ज्ञान अपेक्षित नहीं है क्योंकि घटोपलम्भाभाष के ज्ञान का उदय इस प्रणाली से आजभविक नहीं है कि यदि बटोपलम्भ होता तो उस का उपलम्भ होता, यतः घटोपलम्भ का अनुपलम्भ है अतः घटोपलम्भ का अभाव है।-तो यह कथन उचित नहीं प्रतीत होता क्योंकि अभाव प्रत्यक्षमात्र Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] [ शासवार्ता स्त० १०/१८ में प्रतियोगिशान कारण होता है ऐसा नियम न होने से मैत्रशग्य गृह के साथ चक्षु के सन्निकर्षकाल में मैत्र का स्मरण न होने पर भी मैशाभाव का मैत्र से अविशेषित अभाव के रूप में अनुभव होने के बाद मैत्र का स्मरण होने पर 'गृहै मयो नास्ति-गृह में मेत्र का अभाव है। इस मकाने विभिन्न अभाव का प्रथमशान होता है, जो अभाव के पूर्वानुभव एवं मैंत्र के स्मरण से उत्पन्न होने से प्रत्यभिक्षा मात्र है । इन दो अभावशानों में प्रथम अभावशान मैत्र के अस्मरण दशा में उत्पन्न होता है अतः उस में मैत्रानुपलब्धि के ज्ञान से उत्पन्न होने की कोई सम्भावना ही नहीं हो सकती । और दूसरा अभावज्ञान पूर्वानुभूत अभाव का ग्राहक हाने से प्रत्यभिज्ञारूप है। अत: वह भी मैत्रानुपलब्धि के ज्ञान की अपेक्षा नहीं करता किन्तु उस में अभावांश में मैत्र के मान के लिये मैत्रस्मरणमात्र को ही अपेक्षा होती है । अतः यह कहना निराधार है कि प्राग्नास्तितायुद्धि यानी अभाय का प्रथमग्रहण झात अनुपलब्धि से उत्पन्न होता है। यह ज्ञातव्य है कि मेघाभाव की प्रत्यभिज्ञात्मक उक्त बुद्धि में जो अवधान-मंत्र स्मग्ण की अपेक्षा होती है वह मैत्रानुपलब्धि के ज्ञानार्थ नहीं होती किन्तु प्रतियोगी से अविशषित अभात्रज्ञान का कोई उपयोग न होने से जो उस के अभाव की सम्भाषन उत्पन्न होती है उस के निराकरणार्थ होती है. क्योंकि मैत्रस्मरण द्वारा मैत्रविशेषित अभावशान हो जाने पर मैत्र के अस्तित्वबुद्धि के निराकरण आदि में उस का उपयोग हो सकता है। [अनुपलब्धि का ज्ञान अनुमान से-अन्यमत ] अन्य विद्वानों का कहना है कि मैत्रशन्य गृह के साथ चक्षु के सन्निकर्ष काल में मैत्र का स्मरण न होने पर मैघानुपलधि का अनुमान होता है। वह यद्यपि इस प्रकार नहीं हो सकता कि “ मैत्र अनुपलब्ध है क्योंकि स्मरणयोग्य होते हुये भी स्मृति में नहीं आ रहा है-जैसे पूर्व में अननुभूत, अमर्यमाण स्मरणयोग्य घट आदि अन्य पदार्थ ।" क्योंकि इस अनुमान में मैत्र का पक्षविधया प्रयोग होने से मैत्र की अस्मरणादशा में इस की प्रवृति असम्भय है। किन्तु ''गृहगत अभाव अनुपलब्धप्रतियोगिक है क्योंकि स्मरणयोग्य प्रतियोगिक होने हुये भी अस्मयमाणप्रतियोगिक है, जो उक्तसाश्यक नहीं होता वह उक्त हतुक भी नहीं होता मसे पूवपिलव्ध स्मर्यमाणप्रतियोगिक वटाद्यभाव अथया घटादिपदार्थ।" ___ उक्त रीति से अनुपलब्धि का अनुमान हो जाने से अनुपलब्धिरूप लिङ्ग से अभाव की अनुमिति होती है। वह इस प्रकार कि 'गृह में अनुपलभ्यमान का अभाव है क्योंकि अनुपलभ्यमान के आश्रय रूप में उपलब्धियोग्य होने पर भी उस के आश्रयरूप में अनुपलब्ध है. अथवा गृह में अनुपलभ्यमान पदार्थ, गृहनिष्ठभाय का प्रतियोगी है, क्योंकि उपसम्भयोग्य होने पर भी गृह में अनुपलब्ध है। अतः अभावशान में अनुपरन्धि का अनुमान के रूप में ही उपयोग है. किन्तु स्वतन्त्रप्रमाण के रूप में नहीं : [अन्यदीय मत में अरुचि का बीज ] इस मप्त को व्याख्याकार ने अन्यमत के रूप में प्रस्तुत कर इस में अपनी अचि सूचित की है। अरुचि का कारण यह है कि अनुपलब्धि के उक्त अनुमान के पूर्व अभाव का ज्ञान अपेक्षित है, क्योंकि उस अनुमान में गृह निष्ठ अभाव पक्षविधया उपात्त है । इसी प्रकार अनुपलब्धि लिङ्ग से जो गृह में अभाव का अनुमान बताया गया है, उस में भी अनुमान के पूर्व अभावशान की अपेक्षा रही है क्योकि उस में साध्यविधया उसका उपन्यास है और साध्यविधया Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] किञ्च, प्रमाणयोर्विरोधादधिकरणविशिष्टाभावधीरण्येवं न युज्यते, अमाचज्ञानेऽधिकरण-प्रतियोगिनोरुपनीत योनानभ्युपगमेऽधिकरणांशे 'साक्षात्करोमि ' इत्यनुभवानुपपत्तेः अनुमानाऽभावप्रमाणयोः समाहारे व्यापकाभाव --व्याप्याभावप्रतीत्यनुपपत्तेश्च द्वयोर्मिथः प्रतिरोधेऽनुभवस्यैवानुपपत्तेः, अप्रतिरोधे च सांकर्यात्, तस्स्थलीयानुभवे जात्यन्तरस्वीकारे च तत्र करणान्तरस्यावश्यकत्वात् [ १०५. , उपन्यास साध्य के ज्ञान के बिना नहीं हो सकता । इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष के कारण अभाव का ज्ञान नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि अनुपलब्धिलिङ्गक उक्त अनुमान से अभाव के प्रतियोगीरूप में भाव का विशेषरूप से मान नहाने में विशेषरूप से मैत्रादिविशेषित अभाव का ज्ञान नहीं हो सकता । अभावज्ञान को इन्द्रियजन्य मानने में एक और युक्ति है । वह यह कि दृष्ट करण से ही श्रम की उत्पत्ति का नियम होने से अभावभ्रम को भी दुष्टकरण से ही उत्पन्न मानना होगा । किन्तु यदि अनुपलब्धि को अभावज्ञान का करण माना जायगा तो दोष से अनुपलब्धि का उपघात न होने से अभावभ्रम में दुष्करणजन्यत्व की उपपत्ति न होगी अतः उसे बेन्द्रियजन्य ही मानना होगा, तो जैसे अभावभ्रम दोषयुक्त इन्द्रिय से जन्य होगा वैसे ही अभावप्रमा की भी दोषहीन इन्द्रिय से जन्य मानना ही युक्ति संगत हो सकता है। क्योंकि जो करण सदोष होने पर जिस का भ्रम उत्पन्न करना है बही निर्दोष होने पर उसी की प्रमा भी उत्पन्न करता है-ऐसा नियम है । [ अधिकरणविशिष्ट अभाव के ज्ञान की अनुपपत्ति ] दूसरी बात यह भी ज्ञातव्य है कि अभाव को स्वतन्त्रप्रमाण मानने पर अभावप्रमाण के विषय में प्रमाणान्तर की प्रवृत्ति और प्रमाणान्तर के विषय में अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति में विरोध होने से भृतवरूप अधिकरण के ग्राहक इन्द्रिय से घटाभाव का ग्रहण अशक्य होने से एवं भाव के ग्राहक घटानुपलब्धिरूप अभावप्रमाण से भूतल का ग्रहण अशक्य होने से 'भुतले बटो नास्ति भूतल में घटाभाव है इस प्रकार का अधिकरणविशिष्ट अभावज्ञान न हो सकेगा। और यदि अभावज्ञान में अधिकरण एवं प्रतियोगी का भान प्रमाणमूलक न मान कर उपनयज्ञानमूलक माना जायगा तो अधिकरणांश के ज्ञान का साक्षात्कारत्वरूप से अनुभव न हो सकेगा। अभाव को स्वतन्त्रप्रमाण मानने में एक और दोष है, वह यह कि व्यापकाभावभाव से व्याप्याभाव - धूमाभाव के साधक अनुमान और यहवभाव एवं धूमाभाव के ग्राहक वह्नि और घूम की अनुपलब्धिरूप अभाव प्रमाण, इन दोनों का लसन्निधान आवश्यक होने से श्रयभावरूप व्यापकाभाव और धूमाभावरूप व्याप्याभाव की प्रतीति न हो सकेगी, क्योंकि अभाव के आनुपलब्धिक अनुभव की सामग्री से अभाव के आनुमानिक अनुभव का, और अभाव के आनुमानिक अनुभव की सामग्री से अभाव के अनुपलब्धिक अनुभव को प्रतिरोध हो जाने से अभाव के किसी भी अनुभव की उत्पत्ति ही न हो सकेगी। और इस त्रुटि के निराकरणार्थ यदि उक्त अनुभवों की सामग्रियों को परस्पर कार्य का प्रतिबन्धक न माना जायगा तो दोनों प्रभागों से आनुमितिक- अनुपलब्धिक उभयात्मक एक अनुभव के उत्पन्न होने से उस मैं अनु मितित्व और अनुपलब्धिकत्व दोनों का सांकर्य होगा। और यदि सांकर्य के निरासार्थ उन दोनों Re Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] [ शाखवार्ताः स्त० १०/१८ प्रमाणसंख्याव्याघातापत्तेः, एकतरबलसत्त्वे चाविनिगमात् । अपि च, अमावग्रहे भावानुपलब्धिवद् भावमहेऽप्यमावानुपलब्धेहेतुत्वात् प्रत्यक्षथैवोत्सीदेत् , घटादिग्रहेऽपि घटाभावानुपलब्धेापारात् , इन्द्रियसहकारित्वं तु तस्या उभयत्र तुल्यमिति दिग । तसो नाभावप्रमाणप्रवृत्तिः सर्वज्ञे इति व्यवस्थितम् । यच्च एवं विप्रतिपन्न प्रत्यक्षं यदि'....(प्ट. १५) इत्यादि प्रसङ्गसाधनमुद्भावितम् । तदप्यापाद्यापादकयोस्तद्विपर्यययोश्च व्याप्यव्यापकभावे सिद्धे शोभते, स चाद्यापि न सिद्ध इति न फिश्चिदेतत् | यदपि (पृ. १५) 'यत्नाप्यतिशयो दृष्टः, येऽपि सातिशया दृष्टाः'....इत्याद्यक्तानुरोधेन स्वविषयस्वग्राह्य प्रमाणों से किसी निजातीयप्रमा की उत्पत्ति मानी जायगी तो उस प्रमा के करण को एक अतिरिक्त विजातीयप्रमाण भी मानना पड़ेगा। फलतः प्रमाणों की स्वीकृत संख्या का ध्याघात होगा। यदि उक्त सभी दोषो के भय से उक्तस्थल में किसी एक ही प्रमाण का कार्य माना जायगा सो सा मानने में कोई विनिगममा न होगी। अभाव को अतिरिक्तप्रमाणस्थीकृत भानने में सब से बडी बाधा यह है कि जब अभावग्रह में भावानुपलब्धि करण होगी तब तुल्ययुक्ति से भावग्रहण में अभावानुपलब्धि भी करण क्यों न होगी? क्योंकि घट आदि भार पदार्थों के ग्रहण में घट आदि के अभाव की अनुपलब्धि भी अपेक्षित होती है । फलतः प्रत्यक्षप्रमाण की कथा ही समाप्त हो जायगी । यदि यह कहा जाय कि-'भावपदार्थ का ग्रहण केवल अभाव की अनुपलब्धि से ही नहीं हो जाता किन्तु हन्द्रिय की भी अपेक्षा होती है अतः भावग्रहण इन्द्रियकरणक ही होता है, अभाव की अनुप. लधि तो उस की सहकारी होती है'-तो यह बात अभावग्रहण के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। जैसे यह कहा जा सकता है कि अभावग्रहण इन्द्रियकरणक ही होता है भावानुपसब्धि उस की सहकारी होती है। अभाव के पृथक प्रामाण्य के विरोध में जिन युक्तियों का संकेत किया गया उन से अभाव के प्रामाण्य का निगास हो जाने से यह सिद्ध है कि सर्वज्ञ में अभावप्रमाण की प्रवृत्ति सम्भव न होने से सर्वज्ञ के अभाव का साधन असम्भव है। [सबैज्ञविरोधी प्रसंगसाधन का निरसन ] सर्वज्ञ के विरोध में एक प्रसङ्गसाधन-तर्कमलक अनुमान का उद्भाधन जो इस प्रकार क्रिया गया था कि पृ.१५) विप्रतिपन्नप्रत्यक्ष-धर्म, अधर्भ आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का बह शाम जिस में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्षत्य की विप्रतिपत्ति ह-यदि किसी पुरुष में आश्रित हो तो उस पुरुष की उपलब्धि होनी चाहिये । यतः ऐसा कोई पुरुष उपलब्ध नहीं है अतः उक्त विप्रतिपन्न प्रत्यक्ष किसी पुरुप में आश्रित नहीं है । इस प्रसङ्गलाधन से धर्म, अधर्म आदि के द्रष्टा सर्वज्ञपुरुष का अभाव सिद्ध हो सकता है।' च्याख्याकार का कहना है कि यह उद्भावन तभी समीचीन हो सकता है जब उक्त प्रत्यक्ष के आश्रयभूत अपरूप आपादक में उक्त प्रत्यक्ष के आश्रयपुरुष की उपलधिरूप आपाध की व्याप्ति एवं उक्त प्रत्यक्षाश्रय पुरुष की उपलब्धिरूप आपाय के अभाव में उक्त प्रत्यक्ष के आश्रय पुरुषरूप आपादक के अभाव की व्याप्ति सिद्ध हा; क्योंकि प्रसङ्ग तत्मिक बुद्धि में आपादक में आपदाव्याप्ति का और प्रसङ्गसाधन-समूलक अनुमान में आपाधाभाव में आपादकाभावव्याप्ति का ज्ञान कारण होता है । किन्तु उक्त व्याप्ति सिद्ध नहीं है, अत. उक्त उद्भावन अकिश्चित्कर है। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीवियेचन ] [१०७ जात्यतिक्रान्तप्रत्यक्ष प्रत्यषेधि, तदपि 'दृष्टजातीयचक्षुरादय एव सर्वे पुरुषाः' इति नियम ग्रहे शोमते, स एव चाऽसर्वज्ञस्य दुर्ग्रहः । दृश्यते च चक्षुरपे केषाश्चित् प्रभादिमन्त्रादिद्वारेण संस्कृतं कालविप्रकृष्टार्थग्राहकम्, मूधिका देतश्चरवपदंशादेश्चान्धकारखवाहितार्थग्राहकम्, अजनविशेषा दिसंस्कृत च केपाश्चित् कुड्यादिव्यवहितार्थग्राहकम् , दीपावतारादौ च समुद्र-सेना-नग-नगरादिग्राहकम् : तन्द यदि पुरुषविशेषस्यापि कस्यचिच्चक्षुरादि धर्मादरपि-देश-काल-स्वभावविप्रकृष्टस्य ग्राहकं भवति तदा को नाम दृष्टस्वभावातिक्रमः !; चक्षुःश्रवसों चक्षुषव शब्दश्रवणस्व प्रसिद्धत्वेन विषयातिक्रमस्याप्य [यात्राप्यतिशयो....का निरसन] सर्वज्ञ के विरोध में एक और बात कही गई है वह यह कि, (पृ. १६) जिस किसी इन्द्रिय में अतिशय उत्कर्ष दया जाता है यह इन्द्रिय, देश और काल के विप्रकर्ष की उपेक्षा कर अपने ग्राम्य पदार्थों के मजातीरा सभी पदार्थों को तो महण कर सकती है किन्तु अपने उन्फर्ग में कारण यह अपने द्वारा ग्रहणयोग्य पदार्थों से विजातीयपदार्थों को नहीं ग्रहण करती । अग्लेअतिशययुक्त मंत्र पुरस्थ पदार्थ को एवं यतमान सामान सनील अथ JITA सामान पदार्थ को देग्न सकता है, पर स, गन्ध आदि को नहीं देख सकता क्योंकि उन पदार्थों के ग्रहण में यह स्वभावतः अयोग्य है । यही स्थिति उन पुरुषों की भी हैं जो तप आदि से विशेष सामर्थ्य प्राप्त कर लेते हैं, ये भी प्रत्यक्षयोग्य पदार्थों का ही (देशकाट का विप्रकर्ष होने पर र सकते हैं किन्तु जो पदार्थ स्वभावतः प्रत्यक्ष के अयोग्य है, उन का प्रत्यक्ष ये भी नहीं कर सकते - ___ उक्त कथन से धर्म, अधर्म आदि पदार्थ जो प्रत्यक्षविषय एवं प्रत्यक्षमाप्राति से शुन्य होने के कारण स्वभावतः प्रत्यक्ष के योग्य हैं उन के प्रत्यक्षज्ञान का प्रतिबंध कर धर्म-अधर्म आदि के द्रष्टा सर्वज्ञपुरुष के अस्तित्व का निराकरण किया गया है। किन्तु यह कथन भी तभी समीचीन हो सकता है जब यह नियम बात हो सके कि सभी पुरुष सामान्य पुरुष के चक्षु आदि इन्द्रियों के सदृश इन्द्रियों से ही सम्पन्न होने हैं। किन्तु यह नियम जो मर्पक्ष नहीं है, उसे ज्ञात नहीं हो सकता, क्योंकि असर्व श पुरुष संसार के सभी पुरुषों को और उन के चक्ष आदि इन्द्रियों को कैसे जान सकता है? प्रत्युत, उक्त नियम के विपरीत यह देखा जाता है कि कुछ पुरुषों का नेय प्रश्नादि और मन्त्र आदि से संस्कृत होकर देश-काट से विप्रकृष्ट वस्तु को भी ग्रहण करता है। पुरुषविशेष की बात छोडिये, स्थिति यद्द है कि मृपक, नसंचर, पदंश आदि तिर्यग् जातीय जीवों का मेघ अन्धकार में ढंकी वस्तुओं को भी ग्रहण करता है। कितने लोगों का अञ्जनविशेष आदि से संस्कृत नेत्र भित्ति आदि से व्यवहित वस्तुओं के भी ग्रहण में समर्थ होता है। एक दीपावतार आदि में समुद्र, सेना, पवत तथा नगर आदि को भी देख पाने में समर्थ होता है। तो जैसे कुछ पुरुषों के नेत्र उक्त रीति से सामान्य स्थिति में न दिखाई देनेषाले पदार्थों को भी देख लेते हैं, उसी प्रकार यदि किसी विशियपुरुष का नेत्र देश काल और स्वभाव से विप्रकृष्ट भी धर्म, अधर्म आदि को देखने में समर्थ होता हैं तो इस में दृष्ट. स्वभाव का अतिक्रमण क्या होता है ? विषय के अष्ट अतिक्रमण होने की भी बात नहीं कही जा सकती क्योंकि चक्षुःश्रवा-सर्प को चश्च से शब्द के प्रवण की प्रसिद्धि होने से विषया Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] [ शासवार्ता स्त० १०/१८ दृष्टस्याऽकरुपनात् । 'कर्णच्छिद्रानुपलब्धेबंदशकचक्षुत्यिन्तरमेवेति चेत् ! तुझ्यमेतदुत्तरमन्यत्रापि, प्रकृष्टपुण्यसंभारजनितसर्वविच्चक्षुपो जात्यन्तरत्वात् । अभ्युपगमवादश्चायम्, वस्तुतो घातिकर्मक्षयाविमतत्वेन केवलज्ञानस्याऽतीन्द्रियत्वादिन्द्रियजज्ञानस्यावग्रहादिक्रमानुविद्धत्वादिति द्रष्टव्यम् । ये तु यौगाः संगिरन्ते–'मनःकरणकमेव योगिनां प्रत्यक्षम्, योगजधर्मपत्यासत्त्या मनसैव निखिलार्थसाक्षात्कारात्' इति--तेऽपि प्रान्ताः, योगजधर्मस्य मनःप्रस्थासचित्वं चक्षुरादिप्रत्यासत्तित्व वेत्यत्राऽविनिगमात् । विशेषतहकारे मानस प्रातिभप्रत्यक्ष दृष्टमिति योगिप्रत्यक्षमपि धर्मविशेषतिक्रमण भी अष्ट नहीं है। कर्णस्छिन म होने से सर्प के सम्बन्ध में यदि यह कहा जाय कि-' सर्प का चक्षु रूपदर्शीचक्षु से विलक्षण है और शब्द उसका विषय ही है अतः विषयातिकमा के समर्थन में चक्षु द्वारा सर्प के शपश्रवण को निमित्त नहीं बनाया जा सकता'-तो यह उत्तर सर्वत्र पुरुष के सम्बन्ध में भी समान है, क्योंकि यह निर्वाधरूप से कहा जा सकता है कि पुण्यप्रकर्ष से सर्वज्ञ को रूपादिदर्शीचच से विलक्षण ऐसे चक्षु की प्राप्ति होती है जो धर्म-अधर्म आदि को भी देखने में समर्थ होता है। संघेश की सर्वदर्शिता का उक्तरीति से समर्थन करते हुये जो यह कहा गया कि सर्वज्ञ धर्म-अधर्म सभी पदार्थों का ज्ञान इन्द्रिय से अर्जित कर सकता है, वह अभ्युपगमवाद या प्रौढिवादमात्र है। सच यह है कि लवंश का केवलशान समग्न घातीकर्मों के क्षय से आविर्भूत होने के कारण अतीन्द्रिय यानी इन्द्रियाजन्य होता है, क्योंकि इन्द्रियजम्य ज्ञान अपग्रह, ईहा आदि के क्रम से उत्पन्न होता है और केवलज्ञान में यह कम नहीं होता। [योगिप्रत्यक्ष में मन करण नहीं होता] नयायिकों का कहना है कि योगी को जो सर्वविषयक प्रत्यक्ष होता है वह मनःकरणंक है, योगजधर्मरूप प्रत्यासत्ति से योगी को मन से ही सभी पदार्थों का साक्षात्कार होता है। इस के विरुद्ध व्याख्याकार का कहना है कि उक्त बात को कहनेवाले नैयायिक भ्रमग्रस्त हैं, क्योकि योगजधम मन की प्रत्यासत्ति है अथवा चक्षु आदि बाश इन्द्रियों की प्रत्यामत्ति है' इस में कोई विनिगमना नहीं है। कहने का आशय यह है कि 'योगजधर्म' न्यायमतानुसार विषय के साथ इन्द्रिय की प्रत्यास त्ति भी हो सकती है। इस प्रत्यासप्ति के अनुयोगी हैं समस्तपदार्थ और प्रतियोगी है इघ्रिय, प्रतियोगिता का नियामक सम्बन्ध है निजातीय स्थाश्रयसंयोग । स्व का अर्थ है योगजधर्म उस का आश्रय है योगी की आत्मा, उस का विजातीय संयोग है उसकी इन्द्रिय के साथ। अतः इन्द्रिय 'योगजधर्मरूप' प्रत्यासत्ति का प्रतियोगी है। उस की अनयोगिता का नियामक है स्वाश्रयसंयुक्तसंयक्तविशेषणता, स्त्र का अर्थ है योगजधर्म, उस का आश्रय है योगी की आत्मा, उन से संयुक्त है उस का शरीर और उस शरीर से संयुक्त है महाकाल, उस की विशेषणता है समस्त पदार्थों में, क्योंकि महाकाल कालिकविशेषणता सम्बन्ध से सम्पूर्ण पदार्थ का आश्रय है। अतः समस्तपदार्थ इस प्रत्याससि के अनुयोगी हैं । ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है कि योगजधर्म मन की ही प्रत्यास सि है, चक्षु आदि की नहीं है-जब कि उस की प्रतियोगिता का नियामक सम्बन्ध मन के समान चक्षु आदि में भी विद्यमान है। इसलिये यह कथन ब्रममूलक है कि योगी को योगजधमरूप प्रत्यासत्ति से मन से ही समस्तपदार्थों का साक्षात्कार होता है, चक्षु आदि से नहीं होता । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दीविषेचन ] [ १०९ सहकृतमनोजन्यमेव करप्यते" इति वेद :: न, विदोषासुर मनिस्सहारा दिजन्यस्य निम्यादिसाक्षात्कारस्य दर्शनाद् योगिनां सर्वार्थविषयचाक्षुषादिकल्पनस्यापि सुशकत्वात् । “अञ्जनाविना निध्यादिसाक्षात्कारोऽपि मानस एव, 'पश्यामि' इति प्रतीतिस्तु तत्र तत्र चाक्षुषत्वारोपादि"ति चेत् ? न, बाधकाभावात् । नयनप्राप्त्यभावस्य तस्याप्राप्यकारित्वेऽबाधकत्वात् । अपि च जन्यज्ञानत्वावच्छिन्नं प्रत्येक मनसः कारणत्वं त्वया करप्यते । तत्र जन्यस्वमीश्वरज्ञानादिव योगिज्ञानादपि व्यावृत्तमस्तु, योगजधर्मप्रत्यासत्यकल्पनलाघवात् । अथ केबलिनामपि मनःसत्त्वात् कथं न तत्करणकं तेषां ज्ञानम् ! इति चेत् ? सत्यम् , तत्सत्त्वेऽपि तयापाराभावात् । 'संयोगातिरिक्ततद्वयापारस्याऽसिद्धि रेवेति चेत् ? न, सुषुप्तिव्यावृत्त्यनुपपत्तेः । 'अस्त्येव तेषामनुत्तरसुरसंशयनिवर्तको मनोव्यापारोऽपीति चेत् ? सत्यमस्त्येव, प्राभिका [योगजधर्मसहकृत नेत्र से योगिसाक्षात्कार की सम्भावना] यदि यह कहा जाय कि-'धर्मविशेष से सहकृत मन से प्रातिभप्रत्यक्ष का होना दृष्ट है। अतः योगी के प्रत्यक्ष को भी धर्मविशेष से सहकत मन से ही जन्य मानना उचित है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अञ्जमविशेष से उबुद्ध धर्मविशेष से सहकृत पक्ष से पृथ्वी के भीतर ये निधि का साक्षात्कार भी दृष्ट है, अतः यह भी कहा ना सकता है कि जैसे गुणनिधि का साक्षात्कार धर्ममहकत चच से होता है उसी प्रकार योगजधर्म से सहकृत चन से ही योगी की समस्त वस्तुओं का साक्षात्कार होता है । यदि यह कहा जाय कि-'अञ्जन आदि से जो निधि आदि का साक्षात्कार होता है वह भी मानस ही है, 'निधि पश्यामि निधि को देखता हूँ इस रूप से जो उस में दर्शनत्य का अनुभव होता है वह दर्शनत्वअंश में आरोपात्मक है'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त साक्षात्कार में दर्शनत्वानुभव का कभी बाध न होने से उसे आरोगत्मक कहना असंगत है, 'गुप्तनिधि के साथ चनु का सन्निकर्ष नहीं है। अतः उसे चाक्षुष नहीं माना जा सकता' यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि चक्ष के अप्राप्यकारिस्व पक्ष में चक्षु का असन्निकर्ष चाक्षुष की उत्पत्ति में बाधक नहीं हो सकता। __ दूसरी बात यह है कि जन्यज्ञान के प्रति ही मन की कारणता नैयायिकों को अभिमत हैं, अत: यदि ईश्वर ज्ञान के समान योगिझान को अजय मान लिया जाय तो उसे मनोजन्य कहना संगत नहीं हो सकता और यही उचित भी है क्योंकि योगिज्ञान को अजन्य मान लेने पर योगजधर्मरूप प्रत्यासत्ति की कल्पना अनावश्यक हो जाने से ऐसा मानने में साघय है। प्रश्न हो सकता है कि केवली को भी मन तो होता है, तो फिर उस का शान मनःकरणक क्यों नहीं होता?स का उत्तर यह है कि-यह सत्य है कि कैवल्ली को भी मन होता है पर यह निर्व्यापार होता है, अत: उस से ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती। यदि यह कहा जाय कि'आत्मा के साथ मन के संयोग से भिन्न कोई मन का व्यापार सिम्स नहीं है और मन का मयोग तो केवली आत्मा के साथ है ही, अतः वह निर्यापार कैसे है ?'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यदि मन का संयोग ही मन का व्यापार होगा तो सुषुप्ति समय में भी मन की नियापारता सिद्ध न होगी, फलतः उस समय भी ज्ञान की उत्पत्ति का प्रसङ्ग होगा। यदि यह कहा जाय कि-'केवली के मन का भी व्यापार है ही जिस से अनुत्तर देवलोक निवासी Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] [ शास्त्रबार्ता स्त० १० / १८ नामर्थानुमापकः सः परं न क्षयोपशमाऽनिष्पादकतया स्वप्रतिपत्त्यनुकूलः, इन्द्रियव्यापारस्य तद्द्वारेव ज्ञानहेतुत्वात्, अन्यथा व्यभिचारात् । अत एव क्षयोपशमभेदादेव ज्ञानभेदः, न त्विन्द्रियभेदात् | इत्थमेव संभिन्नश्रोतोलब्धिमतां श्रोत्रेणापि रूपग्रहणोपपत्तेः । न चैवं चाक्षुषत्व - श्रावणत्वादिसत्कर्यम्, तस्य जात्यन्तरत्वात् । अत एव च इन्द्रियादिबहिरङ्ग परहेतुकत्वादस्मदा दिचाक्षुषादीनां निश्चयतः परोक्षत्वम्, संशयास्पदत्वाच्च; योगिज्ञानस्य चात्मातिरिक्तानपेक्षत्वात् संशयास्पदत्वाच्च तत्त्वतोऽपरोक्षत्वम् ' इत्यामनन्ति । यदप्युक्तम्- (पृ. १६) 'कथं च धर्मादिमाहिज्ञानस्योत्पत्तिः !....' इत्यादि । तदपि न पेशलम्, सर्वज्ञप्रणीतमागममनुसृत्याभ्यासादेव सामर्थ्यंयोगेन तदुत्पत्तेः । न चैवं चक्रकावतारः, अनादित्वात् देवताओं के संशय की निवृत्ति होती है - तो इस का समाधान यह है कि केवली का मन भी व्यापार अवश्य है पर वह व्यापार प्रानिकों को प्रष्टव्य अर्थ का अनुमापकमात्र होता है, उस व्यापार से केवली प्रश्नकर्ता के जिज्ञास्य का उत्तर दे देता है, किन्तु उसका मनोव्यापार उस के अपने ज्ञान का साधक नहीं होता, क्योंकि उस से क्षीणघातीकर्मा केचली को क्षयोपशम नहीं होता । और हमारे मत से मनोव्यापार क्षयोपशम द्वारा ही ज्ञान का जनक होता है, क्योंकि यदि ऐसा न माना जायगा तो जिन पदार्थों के ज्ञानावरण का क्षयोपशम नहीं होता उन पदार्थों के भी शान की आपत्ति होगी । क्षयोपशम द्वारा ज्ञान का जन्म होने से ही उस के भेद से ज्ञान का भेद होता है, इन्द्रियभेद से नहीं होता। मनोव्यापार से क्षयोपशम होने पर ज्ञान का जन्म होता है इसीलिये जिन पुरुषों को संभिश्रोतलधि विकसित होती है उन के भोत्र और चक्षु में अन्योन्य शक्ति का मिश्रण हो जाता है. उन्हें श्रोत्र से भी रूप का ग्रहण होता है, में शब्द को सुनकर श्रोत्र में उच्चारणकर्त्ता के रूप को भी देख लेते हैं। ऐसा होने पर भी चाक्षुरत्व और श्रवणत्व में सांक नहीं होता, क्योंकि चक्षु और श्रोत्र आदि इन्द्रियों से उन लब्धिधारीयों को जिस ज्ञान की उत्पत्ति होती है यह केवल चक्षु एवं केवल श्रोत्र से होनेवाले ज्ञानों से विज्ञातीय होती है, उन में केवल चक्षु की जन्यता का अवच्छेदक चाक्षुषत्व और केवल श्रोत्र की जन्यता का अवच्छेदक श्रावणत्व नहीं रहता, अतः उन के साये की सम्भावना नहीं हो मकती । केवली का ज्ञान इन्द्रियादिजन्य नहीं होता और सामान्य मनुष्यों का ज्ञान इन्द्रियादिजन्य होता है, यही कारण है जिस से यह माना जाता है कि सामान्यजनों का चाक्षुष आदि ज्ञान इन्द्रिय आदि आत्मभिन्न बहिरंग हेतुओं से उत्पन्न होने से तथा संशयास्पद होने से निश्चयतः परोक्ष होता है और केवली का ज्ञान आत्मा से भिन्न हेतु की अपेक्षा न करने से पवं संशयास्पद न होने से तत्त्वतः अपरोक्ष होता है । [ धर्म-अधर्मादि ग्राहक सर्वज्ञज्ञान का उपपादन ] सर्वश के विरोध के सन्दर्भ में जो यह कहा गया था (पृ. २७) कि उचित साधन न होने से धर्म, अधर्म आदि के ग्राहक ज्ञान की उत्पत्ति कैसे सम्भव हो सकेगी ? - वह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि सर्वश निर्मित आगम के अनुसार तप आदि के अभ्यास से सामर्थ्ययोग द्वारा धर्म आदि का ग्रहण उत्पन्न हो सकता है । यदि यह कहा जाय कि " ऐसा मानने पर चक्रक दोष होगा, जैसे धर्मादि के ज्ञान के लिये आगमानुसारी अभ्यास अपेक्षित है, और उस के लिये सर्वज्ञ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन सर्वज्ञपरम्परामाः । अत एव "तप्पुस्बिया अरहया"....[आव० नि० गाथा ५६७] इत्यादावनवस्थादिदोषस्यापि परिहारः । अर्थज्ञानशब्दरूपत्वाच्चागमस्य मरूदेव्यादीनां सार्वश्यस्य वचनरूपागमाभ्यासाऽपूर्वकत्वेऽपि न क्षतिः, आगमार्थप्रतिपत्तित एव तेषामपि तथात्वसिद्धेस्तत्त्वतस्तरपूर्वकत्वात् । अभ्यासेनाऽस्पष्टस्य स्पष्टरचा योगदोषश्चानुक्तोपालग्भमात्रम्, ततोऽस्पष्टज्ञानमुपमृद्य स्पष्टज्ञानान्तरोत्पत्तेरेवोपगमात् "नम्मि उ च्छाउम स्थिए नाणे" [आव०नि० गाथा ४२१] इति वचनात् । अत एव प्रेरणाजनितं ज्ञानमम्मदादीनामप्यतीता--ऽनागत-सूक्ष्मादिपदार्थविषयमस्तीति सर्वत्रत्वं स्यात्' इति मीमांसकमनोरथतरून्मूलितः, अभ्यासजन्यस्पष्टविज्ञानस्य सकलपदार्थविषयस्यास्मदादीनामभावात्, प्रणीत आगम की अपेक्षा है, तथा आगमप्रणयन के लिये प्रणेता को धर्म आदि का ज्ञान अपेक्षित है। अतः तीसरे पर्याय में धर्मादिशान में धर्मा विज्ञान की ही अपेक्षा होने से चक्रक स्पष्ट है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि सर्पक्षपरम्परा अनादि है, अत: सर्वश होने को इछुक प्रत्येकजन पूर्वपूर्व सर्वेनग्रणीत आगम द्वारा कर्तध्य तप का ज्ञान प्राप्त कर उस के अभ्यास से सर्वज्ञान का सामथ्र्य अर्जित कर सर्वशता प्राप्त कर सकता है। इसीलिये अईत् को अन्य अहंत पूर्वक मानकर अनवस्था आदि दोष का भी परिहार किया गया हैं । [ आगम सीर्फ शब्दात्मक ही नहीं है ] आगम अर्थशान और शब्द उभयान्मक है, इसीलिये मरूदेवीमाना आदि की सर्पक्षता शब्दरूपागमाभ्यासपूर्वक न होने पर भी कोई क्षति नहीं होती, क्योंकि भागमार्थ के शान से सर्वज्ञान की सिद्धि होने से उनकी सर्वशता में भी सर्वक्षपूर्वकत्व की सिद्धि हो जाती है । सर्वज्ञता को आगममूलक मानने पर जो यह बात कही गई कि 'अस्पष्टशान कभी अभ्यास से स्पष्ट नहीं हो सकता' घन अनक्त का उपारम्भ है. न कही गई बात को टिपर्ण बताना है. क्योंकि न त चास्थि ज्ञाने' इस आशय को प्रकट करनेवाले वचन से यह स्पष्ट कर दिया गया है कि आगम के अभ्यास से मति-श्रुतादि छानास्थिक अस्पष्टज्ञान का उपमर्दन होकर स्पष्ट केवल ज्ञानरूप ज्ञानान्तर की उत्पत्ति होती है। ___ आगम से सर्वशता की सिद्धि मानने पर मीमांसकों के मन में ऐसे मनोग्थ द्रम का उदय हो जाता है कि यदि आगम से सर्वज्ञता होगी तब तो उन जैसे सामान्य मनुष्यों को भी आगम द्वारा अतीत, अनागम, सूक्ष्म आदि पदार्थी का ज्ञान होने से उन जैसे मनुस्य भी सर्वज्ञ हो जाओंग । किन्तु मीमांसकों का यह मनोरथ द्रम इसलिये धराशायी हो जाता है कि उन जैसे मनुष्यों को समस्त पदार्थों का अभ्यासजन्यज्ञान भी स्पष्टज्ञानरूप नहीं होता और इस प्रकार का स्पष्ट झान ही समिता का नियामक होता हैं। जो ज्ञान स्पष्ट नहीं होता वह संशयाकान्त होने से स्वतन्त्र प्रवृत्ति में उपयोगी नहीं होता | दुसरी बात यह है कि सब पदार्थों के अस्पष्टज्ञान से सर्वाना मानने पर निर्मल परम्परा की प्रसक्ति होगी क्योंकि परम्परा के मूल में स्पष्टज्ञान का अभाव होगा और स्पष्ट शान ही किसी स्वच्छ परम्परा का प्रर्वतक होता है। १. सप्पुधिया अरहया पूइयप्ता य बिणयकम्म | च ककिंचो वि जद्द कह कहए णमए तहा तिथं ।। २. उपगम्मि अगते, नलम्भि उ छाउमस्थिए. नाणे । राइए संपत्तो महसेणवर्णमि उल्लाणे || Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] [शास्त्रवा० स्त० १०/१८ इतरस्य च संशययोग्यतया स्वतन्त्रप्रवृत्त्यनुपयोगित्वात् , निर्मूलपरम्पराप्रसक्तेः । कामादिविप्लुतविशदज्ञानवत इव भावनाबललब्धविशदज्ञानवतः सर्वज्ञस्य तद्वदुपप्लुतत्वप्रसङ्गापादनं च वृथैव, भावनाबलाज्ज्ञानं वेशद्यमनुभवति' इत्येतावत्मात्रेण दृष्टान्तस्योपात्तत्वात्, सकलदृष्टान्तधर्माणां साभ्यधर्मिण्यासऽवनस्याऽयुक्तत्वात् , अन्यथा सकलानुमानोच्छेदप्रसक्तेः । यच्च परोक्षादपरोक्षोत्पत्यदर्शनमुद्भावितम् , (पृ.१७)सदज्ञानविलसितम्, परोक्षादपि तत्तास्मरणात् स्वयमपरोक्षतत्ताविपयकमत्यभिज्ञानस्वीकारात् । यस्तु श्रवणादेः प्रत्यक्षपमाकरणत्वेन प्रत्यक्षपमाणत्वासन उक्तः, स तु 'साक्षात्कारिप्रमाथाः करणं प्रत्यक्षम्' इति बदतो नैयायिकान् प्रति शोभते न तु " स्पष्ट प्रत्यक्षम्" इति वदतोऽस्मान् प्रति । अभेद एव प्रदीप-प्रकाशयोखि क्रिया-करणशक्ति [सर्वन में समादि विकार की भापत्ति का निरसन ] सर्वज्ञ को आगमार्थ की भावना से सब पदार्थों का विशद ज्ञान प्राप्त होता है, इस मान्यता के विरोध में प्रतिपक्षी द्वारा जो यह आपत्ति दी जाती है कि-जैसे विशवज्ञान से सम्पन्न भी मनुष्य काम आदि विकारों से अभिभूत होते हैं उसी प्रकार भावना से विशदशान को अर्जित किये हुये सर्वज्ञ भी कामादि विकारों से अभिभूत हो सकते हैं वह आपत्ति व्यर्थ है। सर्वेश के ज्ञान की विशदता के समर्थन में अन्य मनुष्य के भावनामूलक विशदशान का जो दृष्टान्त दिया जाता है यह केवल इतना ही बताने के लिये कि भावना के बल से विशदजान होता है । यह नहीं कि भावनाबल से शान प्राप्त करनेवाले मनुष्य की सर्वज्ञ में सब प्रकार समानता होती है। अत: साधनीय धर्मी में प्रान्त के समस्त धर्मों का आपावान अयुक्त है, क्योंकि यदि साध्य धर्मी में दृष्टांत के समस्त धर्मा का आपादान होगा तब अनुमान मात्र का उच्छेद हो जायगा, क्योंकि उस स्थिति में दृष्टान्त का समानधर्मी पक्ष भी असन्दिग्ध साध्यक अथवा निश्चितसाध्य क ही होगा, फिर उस में साध्य का अनुमान नहीं हो सकेगा, क्योंकि सन्दिग्ध किंवा असिद्ध ही साध्य का अनुमान आनुभविक है । [सर्वज्ञविरोधी की अनेक पूर्वपक्षयुक्तियों का निरसन] सर्वज्ञता को आगमप्रभव मानने पर जो इस दोष का उद्भावन किया गया कि (पृ. १८) 'परोक्ष से अपरोक्षशान की उत्पत्ति कहीं दृष्ट नहीं है, अतः आगमरूप परोक्षप्रमाण से सर्व विषयक अपरोक्षशान का अभ्युपगम असंगत है'. यह अज्ञानमुलक है क्योंकि तत्ता के परोक्ष स्मरण से तत्ता की अपरोक्ष प्रत्यभिज्ञा का प्रतिपक्षी ने स्वयं स्वीकार कर रखा है। श्रवण आदि को प्रत्यक्षप्रमा का कारण मानने पर उन में प्रत्यक्षममाणत्व की जो आपत्ति दी गई, व्याख्याकार के मत से बह आपत्ति ठीक ढंग से नैयायिकों को ही हो सकती है क्योंकि वे साक्षात्कारिप्रमा के करण को प्रत्यक्षप्रमाण मानते हैं किन्तु जनों को वह आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि वे स्पष्टशान को प्रत्यक्षप्रमाण मानते हैं। यदि यह शङ्का की जाय कि 'स्पष्टशान तो प्रत्यक्षप्रमा है वह प्रत्यक्षप्रमाण कैसे हो सकता है। क्योंकि दोनों में अभेद होने पर भेदनियत क्रियाकरणभाव न हो सकेगा-तो यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि जैसे प्रदीप और प्रकाश में वस्तुतः अभेद होने पर भी शक्तिभेद से भेद की उपपत्ति होती है उसी प्रकार किया और १ प्रमाणनयतत्त्वालोके २-२॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचम] [ ११३ भेदोपपत्तेः । योऽपि च 'सर्वज्ञज्ञानेन....' (पृ०१७-६)इत्यादिप्रसन्न उक्तः सोऽपि न युक्तः, उत्पन्नस्य तस्य सर्वथाऽनाशेनोत्तरकालमकिञ्चिज्ज्ञत्वानुषपत्तेः । स्यान्मतम्-द्वितीयादिक्षणे गृहीतग्राहित्वाद प्रामाण्यापत्तिरिति । मेवम् , अगृहितग्राहित्वस्य प्रमाया अलक्षणत्वात् , धारावाहिकप्रमायामव्याप्तेः, अमेऽतिव्याप्तेश्च । तदुक्तमुदयनेनापि-"अव्याप्तेरधिकच्याप्तेरलक्षणमपूर्वग्" इति । अथ 'यथार्थत्वे सति' इति विशेषणाद् नातिव्याप्तिः, धारावाहिके च पूर्वज्ञानजन्यज्ञातताया: पूर्वज्ञानाऽविषयाया उत्तर करण में अभेद होने पर भी शक्तिभेद से भेद की उपपत्ति हो सकती हैं और इसी भेद से अभिन्न एक वस्तु में भी कियाकरणमाय हो सकता है । सर्वज्ञ के सम्बन्ध में जो यह आपत्ति दी गई कि-'सर्वज्ञान से एक क्षण में सार्थग्रहण हो जाने पर उत्तरकाल में सर्वश में अकिश्चिज्शता (कुछ भी न जानने) की आपत्ति होने से उनकी सर्वशता का लोप हो जायगा -वह युक्त नहीं है, क्योंकि सर्वविषयक शान जब एक बार उत्पन्न हो जाता है तब उस का कदापि नाश नहीं होता, अत: उत्तरकाल में अकिश्चिशता साविषयकसानवत्ता-अल्पससा की आपत्ति नहीं हो सकती। [गृहीतग्राहित्त्व अप्रामाण्यप्रयोजक नहीं है यदि यह कहा जाय कि-' उक्त दोष भले न हो किन्तु द्वितीय, तृतीय आदि क्षणों में सर्वच के ज्ञान में अप्रामाण्य की आपत्ति अनिवार्य है क्योंकि उन क्षणों में बह गृहीत अर्थ का ही ग्राहक होता है और प्रमाण यही होता है जो अगृहीत अर्थ को ग्रहण करता है। तो यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि अगृहीत अर्थ को ग्रहण करना, यह प्रमा का लक्षण नहीं है। यनः यदि इसे प्रमा का लक्षण माना जायगा तो धारावाहिक प्रमा में अध्यामि होगी क्योंकि वह भी द्वितीय, तृतीय आदि क्षणों में प्रथमक्षण में गृहीत अर्थ को ही ग्रहण करती है। बं ब्रम में उक्त प्रमालक्षण की अतिव्याप्ति होगी क्योंकि शुक्ति में रजतत्व का ग्राहक भ्रम भी पूर्व में शुक्ति में अगृहीत ही रजतत्व को ग्रहण करता है । उदयनाचार्यने भी इन्हीं दो दोषों में प्रमा के उक्त लक्षण को त्याध्य बताया है, उन्होंने कहा है कि 'अपूर्वदृक्-पूर्व में अज्ञात अर्थ का प्राहकज्ञान प्रमा है' यह प्रमा का लक्षण नहीं है क्योंकि यह लक्षण धागयाहिक प्रत्यक्ष प्रमा में अच्याप्त और अप भ्रम में अतिव्याप्त है। [लक्षण में यथार्थत्वादि के प्रवेश से दोपपरिहार अशक्य] यदि यह कहा जाय कि-' उक्त लक्षण में यथार्थत्व का निवेश कर देने से भ्रम में अतिव्याप्ति का परिहार हो सकता है और धारावाहिक झानों को पूर्वज्ञान से अगृहीत पूर्यशानजन्य शातता का ग्राहक मान लेने से उन में अव्याप्ति का भी निरास हो सकता है। अनः यथार्थत्व से घटिल अगृहीतग्राष्टिज्ञानत्य को प्रमालक्षण मानने में कोई दोष नहीं है। मी व्यवस्था करने पर यदि ऐसी शङ्का हो कि-" लक्षण में यथार्थव के निवेश मे भ्रम में अतिव्याप्ति का वारण हो जाने पर भी धारावाहिक प्रमा में अध्याप्ति का वारण जिस रीति से किया गया है, वह रीति ठीक नहीं है क्योंकि गृममाण अर्थ में ज्ञानविषयता के व्यवहार की उपपत्ति यदि ज्ञान से अर्थ में शातता की उत्पत्ति मान कर की जायगी तो अतीत अनागत १. न्यायकुमुमाञ्जली चतुर्थस्तबके कारिका ।। ६५ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- -- - - --- ११५ ] [ शानधाता० स्त. १०/१८ ज्ञानविषयत्वाद नाव्यातिः, भाव्यतीतघटादौ घटत्त्वादिगतज्ञाततयैव धर्म-धर्मिणोरभेदस्वीकारेण घटादेशपि विषयत्वोपपत्तेतिताया निरासाऽयोगादिति वाच्यम् ; यथार्थत्वमात्रस्यैव लक्षणत्वेऽधिकरय ध्यर्थत्वात् , विषयाऽबाधेन स्मृतेरपि प्रमात्वात् , अन्यापेक्षतया प्रामाण्यस्य चानुमित्यादौ दुर्वचत्वात् , स्वभावविशेषेणैव विषयतानियमे ज्ञातताया निरासाच; अन्यथा भाविघटनकारकभाविभूतलज्ञानादौ पदार्टी में शालता की उत्पसि सम्भव न होने से उन में ज्ञान विषयता की उत्पत्ति न हो सकेगी"-तो यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि अतीत आगमत घट. पट आदि को ग्रहण करनेवाले शान से घट आदि में शातता की उत्पत्ति सम्भय न होने एर भी उन के घटत्व आदि विश्चमान धमा में ज्ञानता की उत्पत्ति हो सकती है और धर्म एवं धर्मी में अभेद होने से घटत्व आदि में उत्पन्न सातता का आश्रय घट आदि पदार्थ भी हो सकते हैं । अतः घटन्ध आदि में उत्पन्न ज्ञातता से घट आदि में ज्ञानविषयत्व की उपपत्ति सम्भव होने से ज्ञातता का निराकरण न होने के कारण उस के दाग धारावाहिक प्रमास्थान में द्वितीय आदि क्षणों में अगृहीतग्राहित्य का उपपादन कर अध्याप्ति का भी परिहार किया जा सकता है"-किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि लक्षण में यथार्थन्ध का निवेश कर देने पर उतने मात्र को ही प्रमा का लक्षण मानना सम्भव होने के कारण शेष अंश व्यर्थ हो जायगा, क्योंकि शंषभाग का उपादान स्मरण में प्रमालक्षण की अतिव्याप्ति के वारणार्थ ही स्वीकार्य हो सकता है, किम्नु विषय का बाध न होने पर स्मरण को भी प्रमा मान लेने में कोई आपत्ति न होने से शेष भाग का उक्त प्रयोजन भी नहीं रह जाता। यदि यह कहा जाय कि 'मरण अन्यापेक्ष-पूर्वानुभवापेक्ष होने से प्रमाण नहीं हो सकता' तत्र तो अमिति आदि में भी प्रामाण्य का उपपादन दुःशक हो जायगा क्योंकि वह भी अन्यागेश हेतु में साध्यध्याप्तिग्रहाल ए बाधा भामाश होती । [ज्ञान में ज्ञानविषयता का नियमन स्वभाव से] मुख्य बात तो यह है कि अर्थ में ज्ञानविषयता का नियमन स्वभाव से ही सम्पन्न हो जाता हैं अर्थात् अर्थ में ज्ञानविषयता के सम्बन्ध में यह मानना ही युक्तिसंगत होता है कि स्वभाव से ही को अर्थविशेष किसी ज्ञान विशेष का विषय होता है, उस के नियमनार्थ क्रिमी अन्य की आवश्यकता नहीं होती। अतः शातता का अस्तित्व ही सिद्ध होने से उसके *रा धारावाहिक प्रमा में अगृहीतग्राहित्य का उपपादन दान मात्र है । यह ध्यान देने की बात है कि शानविषयता को स्वभावनियम्य ही माना जा सकता है, शाततानियम्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि यदि ज्ञानविषयता ज्ञाततानियाय होगी तो भावी घर और भावीभूतल को विषय करनेवाले 'घटयभूतलं भविता' इस ज्ञान को विषयता भासी घट और भावी भूतल में कथमपि उपपन्न न हो सकेगी क्योंकि भावी घट और भाषी भूतल, शान के समय अविद्यमान हैं अतः उन में शातता की उत्पत्ति नहीं हो सकती । यद्यपि घटत्व, भूतलस्म में वह उत्पन्न हो सकती है और घटत्व, भूतलत्य में विद्यमान शातता से बट और भूतल में तो स्वतन्त्र कामविषयता की उपपत्ति हो सकती है पर उस से घटविशिष्टभूतल में ज्ञानविषयता की उपपत्ति कैसे हो सकेगी, हाँ, यदि घट और भूतल में भी अभेद होता तो चटत्वगत शातता घट के समान भूतल में भी होती और भूतलत्यगत शासता भूतल के समान घट में भी होती तो कदाचित १. धान्यम्' इति पदमत्र ' इति चेत्' इत्यथें प्रयुक्तं दृष्टव्यम् । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] गत्यभावात् । न हि घट-मूतलयोरप्यभेदो भङ्गानामभिमत इति दिग् । यदपि 'कि, परसंतानवतिरागादिसाक्षात्करणावस्य रागादिमत्त्वमपि स्यात् ' ( पृ० १८- ५ ) इत्युक्तम् ; तदपि न चेतोहरम्, न हि रागादिसंवेदनमात्रं रागादिनिमित्तम्, किन्तु तथापरिणाम इति; अन्यथा स्वप्ने मद्यपानानुभवे, 'मद्यं पीतम्' इति शब्दार्थेनिबोधे वा श्रोत्रियस्य मद्यपत्वनिभितकप्रायश्चित्तप्रसङ्गात् । यदप्यभाणि - 'अपि च अतीतकालाचा कलितस्य वस्तुनः' (१८ - १ ) इत्यादि तदप्यसारम्, अतीतादेरतीतस्वादिनैव केवलज्ञानेन ग्रहणात्, स्पष्टतया प्रत्यक्षत्वोपपत्तेः, वर्तमानतायास्तत्राऽतन्त्रत्वात् ; अन्यथा वर्तमानार्थानुमित्यादावगतेः । न चातीता देरसत्त्वाद् न तद्ग्रह इति शङ्कनीयम्, वर्तमानस्य उन दोनों शातताओं से और भूत का अभेद तो शाततावादी भट्ट को भी मान्य नहीं है । [ ११५ में ज्ञानविषयता की उपपत्ति होती पर घट [ परकीय रागादि के साक्षात्कार से कोई आपत्ति नहीं है ] सर्वश के विरोध में जो यह बात कही गई है कि-' सर्वज्ञ को सर्वविषयक प्रत्यक्ष होने से उसे परसन्तान यानी उमस्थ जीव में विद्यमान राग आदि का भी साक्षात्कार अवश्य होगा | अतः सर्वश में अपना राग न होने पर भी अन्य राग से रागित्व की आपत्ति होगी 'वह ठीक नहीं है क्योंकि रागादि का संवेदन= साक्षात्कार रागादिमत्ता का निमित्त नहीं है किन्तु मगधात्मक परिणाम उसका निमित्त है। सर्वज्ञ यतः श्रीणघातीकर्मा होता है अतः रागादिरूप में उसका परिणाम न होने से उम में रागादिमत्ता की आपत्ति नहीं हो सकती और यदि तत्तव अर्थ के संवेदन को ही तत्तद्द अर्थ के सम्बन्ध का निम्ति माना जायगा तो स्वप्न में मद्यपान का अनुभव होने पर अथवा अन्य मनुष्य के ' मया मयं पीनम ' इस वाक्य से मपान का शब्द अनुभव होने पर श्रोत्रिय = वेदांत आचार सम्पन्न पुरुष में भी मलपान का सम्बन्ध हो जाने से उसे मद्यपान के पायश्चित की आपत्ति होगी । [ सर्वज्ञज्ञान भ्रान्त हो जाने की आपत्ति निरवकाश ] सर्वशता के विरोध में जो एक बात यह कही गई कि ' सर्वश के प्रत्यक्ष को भतीत आदि पदार्थ का ग्राहक मानने पर उन पदार्थों के विषय में भी सर्वज्ञज्ञान की प्रत्यक्षरूपता की उपपत्ति के लिये सर्वज्ञ प्रत्यक्ष को वर्तमानत्वरूप से अतीतादि का ग्राहक मानने से उस में भ्रमन्स की आपत्ति होगी ' वह ठीक नहीं है क्योंकि केवलज्ञान अतीत आदि पदार्थों को अतीतत्व आदि रूप में ही ग्रहण करता है । उन पदार्थों में भी उस की प्रत्यक्षरूपता उन पदार्थों के स्पष्ट भान के कारण होती है। क्योंकि वर्तमानग्राहिता ज्ञान की प्रत्यक्षता का नियामक नहीं होती. अन्यथा वर्तमान अर्थ को ग्रहण करनेवाले अनुमिति आदि शानों में भी प्रत्यक्षरूपता की आपत्ति का परिहार न हो सकेगा । यदि यह कहा जाय कि अतीत आदि की सत्ता न होने से उस का ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि सत्ताशून्य का ग्रहण मानने पर आकाशपुष्प आदि अनन्त सत्ताशून्यों के प्रत्यग्रहण की आपत्ति होगी तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यह सत्य है कि जिस की सत्ता नहीं होती, प्रत्यक्ष द्वारा उस का ग्रहण नहीं होता, पर अतीत आदि सत्तानृत्य नहीं हैं किन्तु वे भी अपने काल में सत्तायुक्त हैं और यदि उन्हें अपने काल में सत्तायुक्त न माना जायगा Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] [शाखवार्ताः स्त० १०/१८ वर्तमानकालसंबन्धित्वेनेवातीतादेरपि स्वकालसंबन्धित्वेन सत्त्वात् । अन्यथा निखिलशून्यतामसनात् । एतेन 'अपि च यस्तुनः....' (१८-३) इत्याद्यपि निरस्तम् , यथाकालं वस्तुनो ध्वंस-प्रागभावभावेन युगपज्जातमृतव्यपदेशाऽनापत्तेः । यदपि 'किञ्च, सर्वज्ञकालेऽपि....'(१८-४) इत्यादि न्यगादिः तदपि न साधु, विषयाऽपरिज्ञाने विषयिणोऽप्यपरिज्ञानाभ्युपगमे सकलवेदार्थपरिज्ञानाऽनिश्चये सद्याख्यातार्थाश्रयणादमिहोत्रादौ स्वप्रवृत्तिव्याघातात् , व्याकरणादिसकलशास्त्रार्थाऽपरिज्ञाने व्यवहारिणां तदर्थज्ञतानिश्चयानुपपत्तेश्च | तो वर्तमान पदार्थ भी अपने काल में सप्तायुक्त न होगे। कपोंकि इस बात में कोई युक्ति नहीं है कि अतीत आदि अपने काल में सत्तायुक्त नहीं और धर्तमान अपने काल में सत्तायुक्त हो, फलसः सर्वशन्यता की प्रसक्ति होगी। [समानकाल में उत्पाद-व्यय के व्यवहार की आपति का परिहार ] सर्वशता के विरोध में जो यह बात कही गई कि-'जो सर्वश होगा वह एककाल में अतीत; अनागत, वर्तमान सभी पदार्थो का साक्षात्कार करेगा । फलतः उसे वस्तु के जन्म और मरण का पकसाथ ही ज्ञान होने से इस प्रकार के व्यवहार की आपत्ति होगी कि यह वस्तु जिस समय उत्पन्न हुई उसी समय नष्ट हुई, एवं यह मनुष्य जिस समय पैदा हुआ उसी समय मर गया-वह ठीक नहीं है क्योकि वस्तु का ध्वंस और प्रागभावाभाव-जन्म यथोसितकाल में होता है। पक ही काल में नहीं होता, सघश को वस्तु के जन्म और ध्वंस दोनों का ज्ञान पक समय में ही अवश्य होता है, पर जिस वस्तु का जिस काल में जन्म होता है उस काल में ही उस के जन्म का और जिस काल में ध्वंस होता है उस काल में ही उस के ध्वंस का शान होता है न कि जिस काल में घान पैदा होता है इस काल में उस का जन्म और यम होने का ज्ञान होता है । अतः उक्त आपत्ति नहीं हो मकती। [सर्वज्ञ के बिना भी सर्वज्ञ का ज्ञान शक्य ] सकता के विरोध में जो तूसरी बात यह कही गई कि 'सर्बम का अस्तित्व किमी काल में नहीं सिद्ध हो सकता क्योंकि मिस काल में सर्वज्ञ का अस्तित्व सघशादी को मान्य है उस काल में भी यह सर्वन है' इस प्रकार का ज्ञान किसी को नहीं होता क्योंकि सर्वशता का ज्ञान सर्वज्ञानाधीन है और सर्वशान किसी असवेश को सम्भव नहीं है तो फिर उस समय भी जब उस का अस्तित्व है यह किसी को ज्ञात नहीं हो सकता तो समयान्तर में जब स की मत्ता सर्वज्ञवादी की भी दृष्टि में नहीं हैं तब उस का अस्तित्व कैसे सिद्ध हो सकता है क्योंकि जो किसी भी समय बात न हो सके उस के अस्तित्व को स्वीकार करने का आधार ही क्या रह जाता है ?' विचार करने पर यह बात भी ठीक नहीं जंचती, क्योंकि सर्घश के अस्तित्त्वकाल में उस समय विद्यमान लोगों को उस का शान होना सर्वथा सम्भव है। उस के ज्ञान की असम्भाव्यता में जो यह कारण बताया गया कि सर्व का शान न होने से संबंश का शान दुघट है' वह ठीक नहीं है क्योंकि विषय का ज्ञान न होने से यदि विषयी का शान न माना जायगा तो सकल घेदार्थ का ज्ञान न होने से सकल वेदार्थ का भी ज्ञान न होगा, फलतः उस के द्वारा किये गये वेदष्याख्यान में श्रद्धा न हो सकने से उस के ध्याख्यान के आधार पर अग्निहोत्र आदि वैदिक कमी में मनुष्य की प्रवृति का लोप हो जायगा । एवं व्याकरण आदि सकल Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. फ. टीका-हिन्दी विवेचन] यदपि 'किच, नित्यसमाधानसंभवः' (१९-१) इत्याभिहितम् । तत्रापि न सुष्टववहितम् , मन्त्राविष्टकुमारिकावद् विकल्पाभावेऽपि केवलिनो वचनोपपत्तेः । 'धर्मविशेषहेतुकं मन्त्राविष्टकुमारिकावचनं न विकल्पमपेक्षत' इति चेत् ? केवलिवचनमपि किं न तथा, अर्थावबोधस्य तत एव सिद्धेः !; यदागमः " केवलनाणेणत्थे गाउं जे तत्थ पन्नवणजोगे । ते भासइ तित्थयरो वइजोगसुअं हवइ सेसं ॥१॥" [आव०नि० ७८] इत्थं च रागाद्यभावे वचनादिप्रवृत्तिरपि व्याख्याता, तदमावेऽप्यदृष्टविशेषात् तदुपपत्तेः, तीर्थकरनामवेदनार्थत्वाद् भगवद्देशनायाः, "तं च कहं बेइज्जई अगिलाए धम्मदेसणाई हि "(आव०नि०७४३) शाओं के समूचे अर्थ का ज्ञान न होने से उन शाखों के अभिक्ष का भी शान न हो सकने के कारण 'अम्क ट्यामि महान वैयाकरण-सम्पूर्णव्याकरणचिद्' है एवं 'अमुक व्यक्ति महान नैयायिक सम्पूर्णन्यायशास्त्र का विज्ञान है' इन व्यवहारों की उपपत्ति न हो सकेगी । अतः विषयी के ज्ञान में विषयज्ञान की कारणता का परित्याग कर देना आवश्यक होने से, सबज्ञ न होने पर सनान का मान सम्भव न होने मात्र से सबंश का शान होने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती। [चनप्रयोग से समाधि का भंग नहीं होता] आगम की सम्रझमूलकता के विरुद्ध जो यह बात कही गई कि-'सर्वज्ञ कंवली सभी समय समाधिस्थ होता है, अत: उस के द्वारा पचनप्रयोग सम्भव न होने से वह 'आगम' का प्रणेता नहीं हो सकता-वह भी सावधानीपूर्वक नहीं कही गई क्योकि समाधि से भंग न होने पर भी उसके वचन की उपपत्ति हो सकती है । आशय यह है कि जैसे-मन्त्राचिन-मन्त्रद्वारा बाद्यव्यापार से बिग्त की हुई कुमारी कन्या उस अवस्था में भी मन्त्रप्रभाव से बचनप्रयोग करती है उसी प्रकार केवली समाधि-बाहव्यापार से मुख्य की दशा में भी अपने निरतिशय ज्ञानप्रभाव से वचनप्रयोग कर सकते हैं । यदि यह कहा जाय कि-'मन्त्राविष्ट कुमारी का पचन धर्मविशेष से उद्भूत होता है अतः वचनप्रयोग के लिये विकल्पबायव्यापारनिष्ठता की अपेक्षा नहीं होती तो यह बात केवली के वयनप्रयोग के सम्बन्ध में भी क्यों नहीं कही जा सकती ! क्योंकि केवली के उक्तरीति से प्रकट वचन से भी अर्थबोध होने में कोई बाधा नहीं है, असा कि आगम में कहा गया है कि तीर्थकर केवलशान द्वारा समस्त पदार्थों को जान लेते हैं, उन में जो अभिलाप योग्य होते हैं, उन्हें बताने के लिये बचनप्रयोग करते हैं, यह वचनराशि वाग्योग ही होता है किन्तु शेष यानी उपचार से यह श्रुत-कहलाता है। सर्वज्ञ द्वारा आगमप्रणयन की असम्भाव्यता बताने के सन्दर्भ में जो यह बात कही गई कि केवली में राग, द्वेष आदि का अभाव होता है, अतः वचन प्रयोग में उसकी प्रकृति नहीं हो सकती क्योंकि यमनप्रयोग में मनुष्य की प्रवृत्ति रागादिमूलक ही होती है। यह भी उचित नहीं है क्योंकि रागादि के अभाव में भी वचन प्रयोग में केवली की प्रवृत्ति उसके अदृष्टवश हो सकती है क्योंकि तिच्च कर्थ घेवते ? अम्लानया धर्मदेशनयेह-ऋषली का कर्मशेष उस की १. केवलज्ञानेनार्थान् ज्ञात्वा ये तत्र प्रशापन योग्याः । तान् भाषते तीर्थकरो वाग्योगश्रुतं भवति शेषम् ॥१॥ २. मुद्रितावश्यकनियुक्तौ पृ. १२ । ३. तच्च कथं घेद्यते अग्लानया धर्मदेशनयेह। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ] [सवार्ता स्त. १०/१८ इत्याद्यागमप्रामाण्यात् । न चैवमदृष्टस्य दृष्टघातकत्वापत्तिः, दृष्टहेतुवैचित्र्यस्याप्यदृष्टनियम्यत्वात् । देशनावीजं भगवतो निरुपधिपरदुःखप्रहाणेच्छा न रागः, सामायिकचिद्विवर्तरूपत्वात् । अत एव "तो मुअइ नाणवुदि भविअजणवियोहणवाएं" [आव०नि० ८९] इत्यागमोक्तिरित्यपि वदन्ति । न चैवं कृतकृत्यत्वहानिः, क्षीणघातिकर्मकत्वेन कथञ्चित्कृतकृत्यत्वेऽपि जीवघातिकर्मविपाकभाजनतया सर्वथा तत्त्वाऽसिद्धेः 1 आह च भाष्यकृत“णेगतेण कयस्थो जेणोदिन्नं जिणिदनाम से । तदवंझफलं, तरस य खवणोवाओऽयमेव जओ ॥१॥" उत्कृष्ट धर्मदेशना से वेध होता है। इस आशय के आगमप्रमाण से यह सिद्ध है कि भगवान् का धर्मोपदेश उन के तीर्थकरनामकर्म का फल है। [ दृष्टकारणविघात की आपत्ति का निरसन] यदि यह शङ्का की जाय कि 'अदृष्ट से सीधे कार्य का उत्पाद मानने पर दृष्टकारण का विघात होगा क्योंकि सर्वत्र सभी कार्य अदृष्ट से सीधे सम्पन्न हो जायेंगे तो यह ठीक नहीं है क्योंकि दृष्ट कारणों का वैचित्र्य भी अष्ट्र से ही नियम्य है । कहने का आशय यह है कि यह देखा जाता है कि कभी जिस कार्य को करने में अनेक साधनों की अपेक्षा होती है यही कालान्तर में थोड़े ही साधनों से सम्पन्न हो जाता है। एवं जिस कार्य को करने के लिये कुछ लोग बडा प्रयत्न करता है उसे ही कुछ अन्य लोग छोड ही प्रयत्न से कर डालते हैं, तो कार्यों के उत्पादन के सम्बन्ध में जो यह वलय उन के तुओं में देखा जाता है वह कर्ता के अइष्टविचित्र्य में ही होता है । अत: किसी कार्य को स्थितिविशेष में सीधे अप्रजन्य मानने पर प हैतृभों के सर्वेथा लोप की प्रसक्ति नहीं हो सकती किन्तु कतिपय दृष्टहेतु ओं का त्यागमात्र सिद्ध होता है। अथवा पक हैत के बदले अन्य हेतु की अपेक्षा सिद्ध होती है। फलतः भगवान के उपदेश के विषय में यह कहा जा सकता है कि भगवान् जो उपदेश करते हैं वह राग से नहीं किन्तु अन्य जीवों के दुःख को दूर करने की नि:स्वार्थकामना से करते हैं। उन के उपदेश में राग की अपेक्षा नहीं होती किन्तु समभाषयुक्त चैतन्य के विवर्तरूप इच्छा होती है। यह चतन्य का परिणामरूप होने से केवली में भगवान् का उपदेश रागमृटक न होकर कृपामूलक है इस सत्य की पुष्टि एक आगमवचन से भी होती है जिस का अर्थ यह है कि-"केवली समन पदार्थ का साक्षात्कार प्राम कर लेने पर भग्यजनों के अवबोधनार्थ शान की वृष्टि करते हैं।" यदि यह शङ्का हो कि-'केवली में कतत्व मानने पर उसकी कृतकृत्यता का व्याघात होगा, केवली होने पर भी यह अकृतार्थ रहेगा' तो इस का उत्तर यह है कि कंवली पूर्णरूप से कृतकृत्य नहीं ही होता, क्योंकि जो अघातीकर्म उसे कैवल्य अवस्था में भी जीवित रखते हैं उन के फल का भोग उसे करना ही होता है, अतः वह कृतकृत्य केवल उन घाती कर्मों के ही कार्यों के विषय में होता है जिन्हें वह चारित्र के प्रखर तेज से दाध कर चुका होता है। भाष्यकारने कहा भी है कि केवली एकांत रूप से कृतकार्य नहीं हो जाता क्योंकि तीर्थकर नाम कर्म का उदय प्रवर्त्तमान है, यह अपन्ध्यफळ होता है, उसके फल का अवरोध १. ततो भुञ्चति ज्ञानवृष्टिं भविफजनविबोधनार्थतया । २. मुद्रितावश्यकनियुक्तौ पू. १४ । ३. विशेषावश्यक भाध्ये गाथा-१९०३ | ४. नैकान्तेन कृतार्थो येनोदीणे जिनेन्द्रनाम तस्य । तदवन्ध्यफल, तस्य च क्षपणोपायोऽयमेव यतः॥१॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ ११९ ये तु जैनाभासाः परोक्तदोषभीता अक्षररूपाया वाचो रागनियतत्वाद् नियत्यैव मुखाद् मूनों निरिस्वरी ध्वनिरूपामेव पारमेश्वरों वाचमुपयन्ति; तेऽभिनिवेशलुप्तविवेकाः, ध्वनिरूपायास्तस्याः पतिसर्वज्ञं श्रोतृभाषापरिणामवदक्षरपरिणामाऽयोगात् , अव्यक्तकरूपतया सत्या-असत्यामृषादलद्वयन्निप्पादकबाम्योगद्वयबैयात् , " अद्धमागहीए भासाए भासंति" इति सूत्रविरोधात् ; नियत्यैव प्रयत्नं विना वचनोपपत्तौ च तयैव तद्विनापि परानुग्रहोपपत्तेः । ध्वनेरपि पौरुषेयतयाऽक्षररूपतया तुल्ययोगक्षेमस्वात् , अन्यथा बायमतप्रवेशाचेत्यन्यत्र बिस्तरः । ___ यदप्युक्तम्-'न च रागादीनामावरणत्वमपि प्रसिद्धम् , कुच्यादीनामेव ह्यावारकत्वप्रसिद्धिः' (पृ० १९-५)इतिः तदपि न क्षोदक्षमम् , कुड्यादीनामेव स्वातन्त्र्येणावरणत्वाऽसिद्धेः, तद्व्यबहितानामप्यर्थानां नहीं होता, उसे निवृत्त करों का एक ही उपाय है, वह यह कि वह जगत के जीवों को आन्मोद्धार के मार्ग का उपदेश करे ।' [निरक्षरभगवद्भाषा-वादी दिगंबर मत का परिहार] भगवान की भाषा के सम्बन्ध में कतिपय परोक्त दोष से भयभीत जनाभास-दिगम्बरों का मत है कि भगवान की भाषा अक्षरात्मक नहीं हो सकती क्योंकि वह रागादिनियत होती है और भगवान में गगादि का अभाव है। अतः भगवान की भाषा ध्वनिरूप है और यह नियनि. पंश ही मुख या मृणा से मिनीत होता है। व्याख्याकार के शम्दों में ऐसा कहनेवाले जनाभामों का विवेक आग्रहवश लुप्त है क्योंकि भगवान् की धनिरूप भाषा का प्रति सर्वज्ञ में श्रोतृभाषा परिणाम के समान अक्षरपरिणाम नहीं हो सकता तथा वह केवल अन्यक्तरूप होने से उस के सत्य तथा असत्याऽमृषा-ऐसे दो वाग्योग स्वीकार करना व्यर्थ हो जायेगा । तथा निरक्षरत्न की कल्पना 'भगवान् अर्धमागधी में भाषण करते है' इस सूत्रोक्ति से विरुद्र है। दूसरी बात यह है कि प्रयन्त के विना भी कंबल नियति से ही भगषदभाषा की उपपत्ति करने पर यह भी कहा जा सकेगा कि जैसे विना प्रयत्न के केवल नियति से ही भगवान की भाषा उपपन्न हो सकती है उसी प्रकार भाषा के बिना केवल नियति से ही परानुग्रह की भी उपपति हो सकती है । अतः भगवान के वचन का भी अभ्युपगम निरर्थक है। साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि अक्षर के समान ध्वनि भी पौरुषेय है। दोनों का योगक्षेम एक जैसा है, अत: रागादि के अभाव में पुरुष यदि अक्षरमय भाषा का प्रयोग नहीं कर सकता तो ध्वनिमय भाषा का भी प्रयोग नहीं कर सकता । यदि ऐसा न माना जायगा तो बाझमत का प्रवेश होगा अर्थात् जैस जनतर दर्शन मीमांसा में शब्द की नित्यता मान्य है, उसी प्रकार जैन दर्शन में भी शब्द नित्यता की मान्यता प्रसक्त होगी । इस विषय का विस्तृत विचार अन्यत्र प्राप्य है। [रागादि दोष में आवारकत्व का उपपादन] प्रस्तुत सन्दर्भ में एक बात यह कही गई थी कि 'माधारकत्व कुइय-दीवार आदि में ही प्रसिद्ध है और राग आदि में आवरणत्व असिद्ध है।' विचार करने पर यह बात भी ठीक नहीं अँचती, क्योंकि स्वतन्त्र रूप से कुश्य आदि में ही आवरणत्व असिद्ध है। यतः स्वप्ना १ अर्धमागध्या भाषायां भाषन्ते । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] [ शामवार्ताः स्त० २०१८ सत्यस्वमज्ञानेन स्वमदशायां, जामशायां च शब्दलिङ्गाऽक्षव्यापाराभावेऽपि 'वो भ्राता मे आगन्ता' इत्या द्याकारण प्रातिभेन च ग्रहणात् , सकलार्थग्रहणस्वभावे ज्ञाने प्रतिबिम्बस्वभाव आदर्श मलस्येव रागादीनामेवावरणत्वोचिस्यात् । अथ रागादीनामावारकत्वेऽपि कथमास्यन्तिकः क्षयः ? इति चेन् ? सम्यग्दर्शन-वैराग्यादीनां परमप्रकर्षण; 'यदुत्कर्षतारतम्याद् यस्थापचयतारतम्य तस्य परमप्रकर्षे तदत्यन्तं क्षीयते, यथोप्णस्पर्शस्य परमप्रकर्ष शीतस्पर्शः' इति नियमात् । न च लड्न-उदकतापादिवदभ्यस्यमानस्यापि सम्यग्दर्शन-वैराग्यादेनं परमप्रकर्षप्राप्तिरिति शङ्कनीयम् , पूर्वप्रयत्नसाध्यस्य लङ्घनस्य व्यवस्थितत्वाभावेनोत्तरोत्तरप्रयत्नानामपरापरलङ्घनातिशयोत्पत्तौ व्यापाराऽयोगेन तत्परमप्रकर्षाऽसिद्धः, व्यायामानपनीत क्षेप्मानासादितपटुभावतयैव कायेन प्रा.यावलचयितव्यस्पालचनात् । न च विज्ञानस्यापि वस्था में वीवार आदि से ठयवहित पदार्थ का भी सत्यस्यतात्मकजान से ग्रहध्य होता है । पत्र जाग्रद् अवस्था में भी शब्द, लिङ्ग तथा इन्द्रिय का व्यापार न होने पर भी प्रातिभज्ञाम से उस का ग्रहण होता है। यह ग्रहण उसी प्रकार होता है जैसे किसी कुमारी को कभी कभी 'कल ही ग भाई आयगा' इस प्रकार अपने दूरस्थ भाई के भाषी आगमन का ग्रहण हो जाता है। अतः यही मानना ही उचित है कि जैसे स्वभावतः प्रतिविम्य नाही दर्पण में मलआवरण होता है उसी प्रकार स्वभावतः समस्तपदार्थी को ग्रहण करने में सक्षम ज्ञान में गग आदि आवरण होता है। यदि यह प्रश्न हो कि जब गग आदि आवारक है तो उस का आत्यन्तिक क्षय कसे होगा ? तो इस का उत्तर यह है कि सभ्यग्दर्शन पवं बैंगग्य आदि के परम प्रकर्ष से उस का आत्यन्तिक शय हो सकता है । 'उरणस्पर्श के परमप्रकर्ष से शीतस्पर्श के आन्यन्ति क क्षय' के दृष्टान्त से यह नियम सिद्ध है कि जिस के उत्कर्षतारतम्य से जिस के अपचय का तारतम्य होता है उस का परमप्रकर्ष होने पर उस का अत्यन्तक्षय होता है। इस नियम के अनुसार सम्यगदर्शन आदि का परमप्रकर्ष होने पर राग आदि का अत्यन्त भय होना सिद्ध हो सकता है क्योंकि सम्यगदर्शन आदि का ज्यों ज्यों उत्कर्ष होता है, राग आदि का त्यो त्यों अपचय देखा जाता है। [ अभ्यास से परमप्रकर्षाभाव की शंका का परिहार] यदि यह शङ्का की जाय कि-जैसे पुनः पुनः अभ्यास करने पर भी लहन और उदकताप आदि का परमप्रकाष नहीं होता अर्थात् लखन का बरावर अभ्यास करने पर भी मनुष्य सारी भूमि का लङ्घन नहीं कर पाता एवं उदक को पुन: पुन: अग्नि से तप्त करने पर भी यह अग्नि नहीं बन जाता उसी प्रकार सम्यग्दर्शन पवं बेराग्य आदि का अत्यन्तदीर्घकाल तक निरन्तर अभ्यास करने पर भी परमप्रकर्ष नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि पूर्वप्रयत्न से उत्पन्न लवन स्थिर न होने से अन्यान्य सातिशय लङ्धन को उत्पन्न करने में । उत्तरोत्तर प्रयत्न का व्यापार नहीं हो पाता । इसीलिये लवन के अभ्यास से लबचन का तारतम्य होने पर भी परमप्रकर्ष नहीं होता। यदि यह पूछा जाय कि 'जब लंघनाभ्यास से कोई अतिशयाधान नहीं होता तो तीसरे-चौथे-पाँचधे लवन के प्रयत्न में जो कुछ अधिक लंघन होता है वही पहले प्रयत्न से क्यों नहीं होता तो उत्तर यह है कि उत्तरोत्तर लंघन प्रयत्न Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विषवत | प्राक्तनाभ्यासादासादितातिशयस्य शीघ्रमेव विमाशादव्यवस्थिततयाऽपराभ्यासादन्यस्यैधातिशयवतो ज्ञानस्योत्पत्तेर्ने परमप्रकर्षसिद्धिरिति वाच्यम्; तत्र पूर्वाभ्यासजनित संस्कारस्योचरत्रानुवृत्तेः, अन्यथा शास्त्रपरावर्तनादिवैयर्थ्यं प्रसन्नात् । उदकता त्यतिशयेन क्रियमाणे तदाश्रयस्यैव क्षयाद् नातितायमानमप्युदकमभिरूपतामासादयति, विज्ञानस्य त्वाश्रयोऽभ्यस्यमानेऽपि तस्मिन् न क्षयमुपयाति, इति कथं तस्य व्यवस्थितोत्कर्षताऽशक्या वक्तुम् !! न च ' यदुत्कर्षतारतम्यात्....' इत्यादिव्यास निम्बाद्योषधोपयोगप्रकर्पतारतम्यानुविधास्यपचयतारतम्यवता लेप्मणा व्यभिचारः, तत्र निम्बाद्योषधोपयोग परमप्रकर्षस्यैवाऽसिद्धेः, तदुपयोगेऽपि लेप्मपुष्टिकारणानामपि तदैवासेवनात् अन्यथौषधोप योगाधारस्यैव विनाशप्रसङ्गात् चिकित्साशास्त्रस्य धातुदोषसाम्यापादनाभिप्रायेणैव प्रवृत्तः, तत्प्रतिएक व्यायाम है जिस से श्लेम का दोष दूर होता है और देह को पटुता चपलता प्राप्त होती है। पहले प्रयत्न में श्लेष्म का दोष दूर नहीं होने से पटुताके अभाव में उतना लखन नहीं हो पाता जितना अग्रिम प्रयत्न से हो सकता है । यदि यह कहा जाय कि विज्ञान की भी स्थिति तो डघन की ही स्थिति के समान है क्योंकि प्राक्तन अभ्यास से जो सातिशयज्ञान उत्पन्न होता है, शीघ्र विनाश हो जाने से पह भी स्थिर नहीं होता । अतः नये अभ्यास से नये ही सातिशयज्ञान की उत्पत्ति न होने से पूर्वजात विज्ञान का भी परमल नहीं हो सकता तो यह ठीक नहीं है क्योंकि पूर्वाभ्यासजनित विज्ञान से उत्पन्न संस्कार स्थिर रहता है अतः उस की सहायता से उत्तरोत्तर अभ्यास से संस्कार में अतिशयाधान द्वारा ज्ञान का परमप्रकर्ष हो सकता है क्योंकि यदि ऐसा न हो तो शास्त्र के पुनः पुनः अध्ययन की कोई सार्थकता नहीं हो सकती । [ १२२ पुनः पुनः ताप करने पर भी उदकताप का जो परमप्रकर्ष नहीं होता उस दशन्त से भी ज्ञान के परमप्रकर्ष की अनुपपति की शङ्का करना उचित नहीं है क्योंकि उदक का अतिशय ताप करने पर ताप के आश्रय उदक का ही नाश हो जाता है तो फिर निराश्रयताप के परमोत्कर्ष की सम्भावना कैसे हो सकती है। पर विज्ञान की बात उस से अत्यन्त भिन्न है क्योंकि विज्ञान का अधिकाधिक अभ्यास होने पर भी उस के आश्रय का नाश नहीं होता अतः उस के उत्कर्ष को अव्यवस्थित कह कर उस के परमप्रकर्ष की अशक्यता कैसे बतायी जा सकती है ? ! [ उत्कर्ष - अपकर्ष के उक्त नियम के भंग की शङ्का का परिहार ] यदि यह शङ्का हो कि जिस के उत्कर्षतारतम्य से जिस के अपचय का तारतम्य होता हैं उस के परमप्रकर्ष से उस का अत्यन्त क्षय होता है' यह नियम लेप्मा कफ में व्यभि चरित है, क्योंकि निस्व आदि औषधों के सेवन से उत्कपेतारतम्य से कफ के अपचय का तारतम्य होने पर भी कफ का अत्यन्त क्षय नहीं होता अतः उक्त नियम के असिद्ध होने से उस के बल से सम्यग ज्ञानादि के परमकर्ष से रागादि के अत्यन्त क्षय की सिद्धि नहीं की जा सकती तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि कफनाशक औषधियों के सेवनकाल में ऋफ के पोषक तत्वों का भी सेवन होते रहने से निम्य आदि औषधियों के सेवन का परमकर्ष कभी हो ही नहीं पाता । अन्यथा यदि कफ के नाशक औषधि का ही प्रकृष्ट सेवन होता रहे तो औषधसेवन के आधारभूत शरीर का ही नाश हो जाय | बात यह है कि चिकित्साशास्त्र १६ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] [ शासवा० स्त. १०/१९ पादितौषधोपयोगस्योद्रिक्तधातुदोषसाम्यविधान एवं व्यापारात्, तदत्यन्तनिर्मलने तयापारे च दोषान्तरस्यात्यन्तक्षये लेष्माद्यधिष्ठितशरीरानवस्थानात् । न च सम्यगदर्शनादिपरमप्रकऽपि पुनमिथ्याज्ञानादिप्रवृत्तिसंभवाद् न याञ्छिताप्तिरिति वाच्यम् ; प्रकृष्टेऽपि मिथ्याज्ञानादौ दोषदर्शनात् तद्विपक्षे च गुणदर्शनादभ्यास-प्रवृत्त्युपपत्तावपि प्रकृष्टसम्य ज्ञानादि-तद्विपक्षयोदोष-गुणाऽदर्शनात् तदनुपपत्तेः, इति वदन्ति । अभ्यासः क्षयोपशमवृद्धावुपयुज्यते, सा च क्षायिकभावोत्पत्ताविति तत्त्वम् ॥१८॥ परोदितधर्माऽधर्मव्यवस्थानिमित्तं विचारयतिवेदाद्धर्मादिसंस्थापि हन्तातीन्द्रियदर्शिनम् । विद्दाय गम्यते सम्यकुत एतद्विचिन्त्यताम् ।।१९।। वेदाद् धर्मादिसंस्थापि-परोदिता धर्मादित्यवस्थापि, 'हन्त' खेदे, अतीन्द्रियदर्शिनधर्मादिसाक्षात्कारिण प्रमातारम् विहाय अनादृत्य कुतः केनोपायेन सम्यक् यथावत्, गम्यते ? एतद् विचिन्त्यताम् उपयुज्य विमृश्यताम् ।।१९।। धातुदोषों में समता लाने के दिये ही प्रवृन है । अतः उम से उपदिष्ट औषध का सेवन धातु के बढ़े हुये शेप को दूर करने के लिये ही किया जाता है। यदि दुष्ट धातु के अत्यन्त निर्मलन तक औषध सेवन किया जाय तो दोषान्तर का भी अत्यन्त क्षय होने से कफाश्रित शरीर की स्थिति ही समाप्त हो सकती है। यदि यह शङ्का हो कि- सम्यग दर्शन आदि का परमप्रकर्ष हो जाने पर भी मिथ्याशान आदि प्रयुक्त प्रवृत्ति का संभव होने से रागादि के अत्यन्त क्षय रूप अभीष्ट की तथा उस के द्वान मोक्षरूप अभिमत की सिद्धि नहीं हो सकती' तो इस का उत्तर यह है कि अत्यन्त उत्कट भी मिथ्यावान आदि में दोप और उसके निधी सम्यग्दर्शन आदि में गुण का दर्शन होने से सम्यनज्ञान आदि के अभ्यास में तो प्रवृत्ति की उपपत्ति हो सकती है, पर प्रकृष्ट सम्यगशान आदि में दोष तथा उस के धिगंधी मिश्यामान आदि में गुण का दर्शन न होने से सम्यगशान आदि का प्रकर्ष प्रात होने पर मिश्याज्ञान आदि प्रयुक्त पुन: प्रवृत्ति की उपपत्ति नहीं हो सकती। यह ज्ञातध्य है कि विज्ञान के अभ्यास ले-यिशान साधनों के अभ्यास से भयोपशम की अभिवृद्धि होती हैं और उस क्षयोपशमाभिवृद्धि से क्षायिक भाव की उत्पत्ति होती है ||१८|| सर्वज्ञ के विना वेद से धर्माधर्म व्यवस्था की उपपत्ति] १९ ची कारिका में धर्म-अधर्म आधि की व्यवस्था के चैदिक विद्वानों द्वारा स्वीकृत निमित्त के सभ्यन्ध में विचार किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है धेदिक विद्वान यह तो कहते हैं कि धर्म-अधर्म आदि की व्यवस्था बंद से होती है, किन्तु वंद की बात यह है कि वे धंदार्थ के प्रत्यक्षवष्टा पुरुष का ही अस्तित्व नहीं स्वीकार करते । उन्हें अपनी इस मान्यता के सम्बन्ध में विचार करना चाहिये कि धर्म-अधर्म आदि के प्रमातापुरुष के बिना वेद द्वारा धर्म, अधर्म आदि का परिज्ञान कैसे हो सकता है ? किस आधार पर वेद की सत्यता का अवधारण हो सकता है? :१९।। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा. क. टीका - हिन्दी विवेचन एतदेव भावयति--- परस्त न वृद्धसंप्रदायेन च्छिन्नमूलत्वयोगतः । न चाग्दिर्शिना तस्यातीन्द्रियार्थोऽवसीयते ||२०|| न वृद्ध संप्रदायेन वृद्ध पारम्पर्येणैव वेदाद् धर्मादिसंस्था ज्ञायते । कुतः ? इत्याह छिन्नमूलत्वयोगत: == आदावेव तत्तः केनचिदज्ञानाद मूलस्यैवान्केदात् । न चाचारात् स्मृतिः, स्मृतेराचार इत्यनादिपरम्परायां न दोषः, यावदर्थदर्शनाभ्यासपरिपक्वज्ञानैरेव स्मृतिप्रणयनात्, दुपजीवनादिति वाच्यम्; तत एव वेदार्थसिद्धेर्वे दवैयर्थ्यात् । ' तयोः स्वातन्येणाप्रामाण्याद वेदमूलत्वमावश्यकम् अत एव शिष्टाचारविशेषादप्रत्यक्षस्यापि वेदस्यानुमानमिति चेत् ? शिष्टाचारत्वेनैव कर्तव्यतामनुमाय तया मूलशब्दानुमानाऽनुपयोगात्, तदर्थस्य प्रागेव सिद्धेः । यदि ' [ १२३ श्री कारिका में उक्त मान्यता की निर्मुकता का ही चिन्तन किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है उक्त प्रश्न के उत्तर में यदि यह कहा जाय कि 'द धर्म-अधर्म का निर्णयक है यह बात क्रुद्ध=ज्ञानवृद्ध पूर्वपुरुषों की परम्परा से बात की जा सकती है यह ठीक नहीं है क्योंकि वृद्धपरम्परा से ज्ञात होने का अर्थ यदि यह हो कि पूर्व पुरुषों द्वारा किये गये वेदव्याख्यान से पावर्ती पुरुषों को वेदप्रतिपाद्य धर्म-अधर्म आदि का ज्ञान होता है, तो यह अर्थ उचित नहीं हो सकता क्योंकि इस प्रक्रिया में वेद के प्रथम व्याख्याता को पदार्थ का ज्ञान न होने से वेदव्याख्यान की परम्परा नहीं बन सकती । यदि यह कहा जाय कि - ' वृद्धपरम्परा का अंध व्याख्यान की परम्परा नहीं है अपितु आचार और स्मृति की परम्परापेक्ष परम्परा है। तात्पर्य यह है कि आचार से स्मृति और स्मृति आचार की प्रवृत्ति का क्रम अनादि है। जिन पुरुषों का शाम यावद अर्थ के दर्शनानुसार आचार के अभ्यास से पिक्व हो जाता है व हो स्मृति की रचना करते हैं। स्मृतिरचना के बाद के मनुष्य स्मृति से कर्तव्य का ज्ञान अर्जित कर उस के आचार अनुष्टशन में प्रम होते हैं ' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि आधार और स्मृति की अनादि परम्परा स्वीकार करने पर आचारानुसार रचित स्मृति से ही वेदार्थ का ज्ञान हो जाने से वेद का अस्तित्व मानना व्यर्थ हो जायगा | [ आचार और स्मृति में वेद विना मी प्रामाण्य की शक्यता ] यदि यह कहा जाय कि ' आचार और स्मृति स्वतन्त्र प्रमाण न होने से उन के वेदमूलक प्रामाण्य की उपपत्ति के लिये वेद के अस्तित्व को मानना आवश्यक है। यही कारण है जिस से शिष्टाचारविशेष से अप्रत्यक्ष वेद का अनुमान होता है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि शिष्टाचार से कर्तव्यता के अनुमान द्वारा आचार की उपपत्ति हो जाने से मूल शब्द के अनुमान की यौक्तिकता नहीं बन सकती क्योंकि वेदप्रतिपाथ कर्तव्यता का बोध वेदानुमान के पूर्व शिष्टाचार से ही सम्पन्न हो जाता है। यदि शिक्षचार में वेदमूलकत्व व्याप्ति से शिष्टाचार द्वारा वेद का अनुमान किया जायगा तो वाक्यमात्र प्रत्यक्ष अथवा अनुमानमूलक होता है इ व्याप्ति से वेद में प्रत्यक्ष अथवा अनुमानमूलकत्व का अनुमान होने से वेद के स्वतः प्रामाण्य का लोप हो जायगा । वेद के अनादि होने से उसे प्रत्यक्ष अथवा अनुमान की अपेक्षा नहीं होती' यह कल्पना करने पर तो यह कल्पना भी सम्भव हो सकती है कि कोई अनादि Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] [ शास्त्रवार्ता० स० १० / २१ च व्याप्तेरेव तस्यागममूलत्वम्, तदा तस्य प्रत्यक्षाऽनुमानमूलत्वमप्यत एवानुमेयम् अनादेस्तदनपेक्षायां चाचारोऽपि कश्विदीदृशः स्यादिति 'नित्यानुमेयो वेद' इति 'चोदनैव धर्मे प्रमाणमिति च भज्येत । किश्च शाखोच्छेदे कृत्स्नस्यापि वेदस्य कदाचिदुच्छेदात् कथममे स्वतन्त्र पुरुषं विना संप्रदायः, धर्मादिव्यवस्था वा ? | 'गतानुगतिक एवं लोक' इत्यप्रामाणिक एवाचारो न तु शाखोच्छेदः अनेकशा वागतेतिकर्तव्यता पूरणीयत्वादेकस्मिन्नपि कर्मण्यनाश्वासप्रसङ्गात्' इत्युपगमे तु वेदानामपि गतानुगतिकतयैव लोकैः परिग्रहादप्रमाणत्वप्रसङ्गाद् । दोषान्तरमाह-न चावजूद र्शिना = छद्मस्थेन प्रमात्रा तस्य वेदस्य अतीट्रियायैः-वर्गात अवसीयते - निश्चीयते ॥ २० ॥ ग्रामाण्यं रूपविषये संप्रदाये न युक्तिमत् । यथाऽनादिमदन्धानां तथात्रापि निरूप्यताम् ||२१|| ततश्च - रूपविषये नीलपीतादिविषये व्यवस्थाकारिणि यथाऽनादिमदन्धानां संप्रदाये आचार ही, आचार और स्मृति की परम्परापेक्ष परम्परा का मूल है अत: आचार से वे का अनुमान न हो सकने से जिस आचार की कर्तव्यता का बोधक वेद उपलब्ध नहीं है उस आचार का प्रवर्तकद नित्यानुमेय है' एवं 'विधिवाक्य ही धर्म में प्रमाण है' इन दोनों मान्यताओं का भंग हो जाता है । [ स्वतन्त्ररुप के बिना वेदसम्प्रदायप्रवृत्ति असंगत ] इस के अतिरिक्त यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि यदि वेद की किसी शाखा का उच्छेद माना जायगा तो कभी समूचे वेद का भी उच्छेद मानना पड सकता है | अतः वेदार्थयेता स्वतन्त्रपुरुष माने त्रिना उत्तरकालीन वेदसम्प्रदाय की प्रवृत्ति तथा धर्म आदि की व्ययस्था कैसे हो सकेगी ? यदि यह कहा जाय कि संसार गतानुगतिक है, संसार के लोग 'मत' का ही अनुगमन करते हैं, चलते मार्ग से ही चलते हैं। अतः संसार में प्रचलित आचार अप्रामाणिक ही है। उस का प्रचलन संसार के गतानुगमन की प्रति से ही प्रवृत्त हैं । उम के अधिक वेदशाखा का उच्छेद नहीं होता, यदि वेदशाखा का उच्छेद माना जायेगा तो कम की इतिकर्तव्यता के अनेक वेदशाखाओं से बोध्य होने के कारण वेदबोध्य किसी एक भी कर्म में मनुष्य को उस आशङ्का से विश्वास न हो सकेगा कि कदाचित् इस कर्म की किमी इतिकर्तव्यता के बोधक वेदशाखा का उच्छेद न हो गया हो किन्तु यह कहना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर इस मान्यता का भी औचित्य प्रसक्त हो सकता है कि संसार द्वारा वेद का परिग्रह भी उस की गतानुगमन की प्रकृति के कारण ही है अतः द अप्रमाण ही है । उपर्युक्त के अतिरिक्त एक दोष यह भी है कि अग्दर्शी छद्मस्थ जीव को वेद में धर्म आदि का प्रतिपादन करने की शक्तिरूप अतीन्द्रिय अर्थ का निश्चय भी नहीं हो सकता। अतः सामान्यजन को यह समझ पाना अत्यन्त कठिन है कि वेद में धर्म, अधर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का प्रतिपादन करने की शक्ति है या नहीं ? ' फलतः वेद से धर्म, अधमें आदि की व्यवस्था होती है' इस बात को प्रमाणित करना अशक्य है ||२०|| [ अनादि अन्धसम्प्रदायवत् वेदसम्प्रदाय का अप्रामाण्य ] २१ वीं कारिका में उपर्युक्त विचार का फल बताया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार हैवेदार्थ के जिशासु को बंद में प्रामाण्य सिद्ध न होने से बंद के वास्तविक अर्थ का Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] व्यामोहदोघाद यथाकथञ्चित् प्रवृत्तेऽपि, प्रामाण्य न युक्तिमत् मूलासंभवात् , स्वतोऽपरिच्छेदशक्तेश्च; तथाऽत्रापि वेदाद् धर्मादिसंप्रदायेऽपि निरूप्यतां विभाव्यताम् ।।२१।। ननु लौकिकपदार्थतुल्यतया प्रसिद्धशब्दार्थत्वमेव वेदपदानाम् , अतो नात्र वृथा नाम कल्पना, इति न निर्मलत्वं संप्रदायस्येत्याशक्याह-- न लौकिकपदान तत्पदार्थस्य तुल्यता । निश्चतुं पार्यतेऽन्यत्र तद्विपर्ययभावतः ॥२२॥ न लौकिकपदार्थेन-न लोलोला गादिपतापनि पदो-तिना सह बरदाय वेदोक्ताम्यादिपदार्थस्य तुल्यता-एकत्वम् निश्चतुं पार्यते । कुतः । इत्याह-अन्यत्र नित्यत्वादी, विपर्यभावत: लौकिकपदतुल्यताविपर्ययभावान् । तथा चान्याद्यर्थकाऽनान्या द्यर्थकलौकिकाग्नि-घटादिपदव्यावृत्तनित्यत्वादिधर्मजनिते वेदस्थान्या दिपदेऽम्यर्थकत्वादिसंशयसाम्राज्यमिति भावः ।।२२।। नित्यत्वाऽपौरुषेयत्वाद्यस्ति किश्चिदलौकिकम् । तत्रान्यत्राप्यतः शङ्का विदुषो न निवर्तते ॥२३।। निश्चय नहीं हो सकता-यह बात अन्धसम्प्रदाय के दृष्टान्त से अवगत हो सकती है। जैसे जन्मान्धों का सम्प्रदाय यदि यह व्यवस्था करे कि अमुक नील है और अमुक पीत है, तो व्यामोहवश अन्य अन्धों को उक्त व्यवस्था मान्य होने पर भी उस सम्प्रदाय में प्रामाण्य का अभ्युपगम युक्तिसंगत नहीं हो सकता क्योकि जन्मान्धों द्वाग की जानेवाली विभिन्न रूपों की व्यवस्था का कोई मूल नहीं है और कोई अन्धा अन्यापेक्ष हुये बिना नील, पीत आदि का निश्चय कर नहीं सकता अतः नील, पीत आदि रूपों की व्यवस्था करनेवाले जन्मान्धों के सम्प्रदाय में प्रामाण्य का अवधारण नहीं हो सकता । उसी प्रकार निर्मूल परम्पग से वेदार्थ का भी निर्णय नहीं हो सकता ॥२२॥ वेदार्थ में लौकिकपदार्थतुल्यता अघटित ] २९ वीं कारिका में वेदसम्प्रदाय के निर्मूल न होने की शिक्षा का निराकरण किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है यदि यह कहा जाय कि-'वैदिक पदों और लौकिक पदों के अर्थों में तुम्यता है, अतः वेदपदों के प्रसिद्वार्थक होने से वेदों में आये नामों से बेदवक्ता के नाम की कल्पना ध्यर्थ = असंगत नहीं है, अतः एव बदसम्प्रदाय की निर्मुलता नहीं हो सकती'-तो इस का उत्तर यह है कि लोकोक्त अग्नि आदि पद और वेदगत अग्नि आदि पदों के अर्थों में समानता नहीं है, क्योंकि वेदस्थ अग्नि आदि पदों में शोकोक्त अग्नि आदि पदों से विलक्षणता है क्योंकि कौकिक, अग्नि आदि पद अनित्य है तथा वैदिक अग्नि आदि पद नित्य हैं। नित्य इस अर्थ में यि वे किसी पुरुष द्वारा अर्थविशेष में इदम्प्रथमतया प्रयुक्त नहीं हैं जब कि लौकिक पदों का बहुधा तत्तत् अर्थ में इदम्प्रथमतया प्रयोग होता है। अतः इस विलक्षणना के कारण वैदिक पदों में इस प्रकार के संशय को अत्यधिक अवकाश है कि वेद में आये अग्निपदों का वही अर्थ है जो लौकिक अग्नि आदि पदों का होता है अथवा उन का कोई अन्य अर्थ है ? ॥२२॥ २३ थीं कारिका में पूर्वकारिका में कही बात को ही स्पष्ट रूप में कहा गया है। कारिका अर्थ इस प्रकार है१. प्रत्यन्तरेषु वृद्धानाम' । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ . [ शास्त्रवा० स्त० १०/२५-२५ एतदेवाह-नित्यत्वाऽपौरुषेयत्वादि आदिनाऽतीन्द्रियार्थाभिधायकत्वादिग्रहः, अस्ति क्रिश्चिदलौकिकम्=लोकातीतम्, तत्रवेदे यतश्चैवम् , अतः अस्मात् कारणात्, अन्यत्रापि पदार्थादौ, विदुषः असाधारणधर्मज्ञस्य, शक्का न निवर्तते-'कि लौकिकपदार्थतुल्य एवास्यार्थः, किंवा विलक्षणः, नित्यत्वादिः ! इति ॥२३॥ म चैतन्निवृत्त्युपायः परस्येत्याहतभिवृत्तौ न चोपायो विनातीन्द्रियवेदिनम् । एवं च कृत्वा साध्वेतत् कीर्तितं धर्मकीर्तिना ||२४५ तभिवृत्ती यथोदिताशङ्कानिवृत्तौ न चोपायोऽन्यः कश्चित् , विनाऽतीन्द्रियवेदिनं प्रमातारम् , शङ्काबीजकर्मदोषराहित्य एब निःशेषशङ्काराहित्यस्य तत्त्यत उपपत्तेः, स च बो नास्ति। एवं च कृत्वा-इदं चाभिल्य साधु-शोभनम् एतत् वक्ष्यमाणम् कीर्तितम् उद्गावितम् धर्मकीर्तिना =धर्मकीर्तिनाम्ना बौद्धाचार्येण ।।२४।। स्वयं रागादिमानार्थं वेत्ति वेदस्य नान्यतः । न वेदयति वेदोऽपि वेदार्थस्य कुतो गतिः॥२५॥ (प० वा. ३-३१८ उत्त० ३१९ पूर्वार्ध:०) तथाहि-स्वयम् अन्यानपेक्षतया रागादिमान् पुरुषः नार्थ वेत्ति निश्चिनोति वेदम्ब, घेद में कुछ अन्दौकिकता है, वह यह कि पैदिक मतानुसार बदनित्य पयं अपौरुषेय है तथा अतीन्द्रिय अर्थ का बोधक है, अत: वेद के इस असाधारण धर्म को जाननेवाले पुरुष की यह शङ्का कथमपि निवृत्त नहीं हो सकती कि, वैदिक पदार्थ लौकिक पदार्थ के नुल्य ही है अथवा लौकिक पदार्थ से बिलक्षण है : क्योंकि लौकिकपदों से नित्यत्रादि धर्मों द्वारा विलक्षण अर्थ ही वैदिकपदी द्वारा उपस्थित होता है ॥२३॥ २४ वीं कारिका में यह बताया गया है कि वेदार्थ के विषय में उत्थित उक्त शङ्का को निवृत्त करने का कोई उपाय वेदायीरुपयत्ववादी मीमांसक के पास नहीं है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है घेद में वर्णित धर्म-अधर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का द्रष्टा न मानने पर “वैदिक शब्दों का वही अर्थ है जो लौकिक शब्दों का होता है अथवा कुछ अन्य अर्थ है" इम शङ्का को निवृत्त करने का कोई अन्य उपाय सम्भव नहीं हा सकता, क्योंकि शङ्का के जनक कर्मदोष की निवृत्ति होने पर ही निःशेष शङ्का की निवृत्ति की वास्तव उपपत्ति हो सकती है। कहने का आशय यह है कि धर्म, अधर्म आदि के प्रतिपादक शास्त्र को क्षीणसर्थकर्मा सर्वथानिःशङ्क: पुरुषमूलक मानने पर ही उस के अर्थ के बारे में सम्माधित शङ्काओं का परिहार हो सकता है जो मीमांसक को मान्य नहीं है। इस तथ्य को मनोगत कर के बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति ने वेदप्रामाण्य के विरुद्ध जो दोपोोधन किया है वह सर्वथा शोभन ही है ।।२४। २५वीं कारिका में पूर्वकारिका में संकेतित धर्मकीर्ति के दोषोद्भाबन को प्रदर्शित किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है रागादिग्रस्त मनुष्य अन्य की अपेक्षा किये विना स्वयं वेदार्थ का निश्चय नहीं कर सकता क्योंकि वह स्वभावत: संशयालु होता है, किसी अन्य पुरुष के सहयोग से भी यह यह कार्य Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या, क. टीका-हिन्दीषियन ) [ १२७ संशयालुस्वभावत्वात् , नान्यता नाप्यन्यतः पुरुषविशेषात् , तस्यापि रागादिमत्तया विश्वासाऽनास्पदत्वात् । न वेदयति बेदोऽपि “भो ब्राह्मण ! ममायमर्थः' इति, एवमप्रतीतेः । एवं च वेदार्थस्यअमिहोत्रादेः, कुतो गतिः कथं परिच्छितिः ? ।।२।। यतश्चैवम् , अत आहतेनाग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम इति श्रुतौ । खादेव श्वमांसमित्येष नार्थ इत्यत्र का प्रमा?।।२६।। (प्र०वा० ३१९ उ०-३२० पू०) तेन कारणेन "अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः” इति श्रुतौ 'भूतविशेषे घृतादि प्रक्षिपेत्' इत्यर्थिकायामभ्युपगमानावाम् खादत् श्वेमासम्' इत्येष नार्थः किन्तु भवदभिप्रेत एव-इत्यत्र का प्रमा? नात्र किश्चिद् विशेषार्थनिर्धारकं प्रमाणमिति भावः ।।२६।।। पराभिप्रायमाशङ्कय परिहरतिप्रदीपादिवदिष्टश्चेनच्छब्दोऽर्थप्रकाशकः । स्वत एव, प्रमाण न किश्चिदत्रापि विद्यते ॥२७॥ प्रदीपादिवदिष्टश्चत् तच्छब्दः श्रुतिशब्दः अर्थप्रकाशक: स्वार्थबोधजनकः स्वत एव= तथास्वाभायादेव । अत्रापि एवंभूतस्वभाववादेऽपि न किञ्चित् प्रमाण प्रत्यक्षादि विद्यते ॥२७॥ नहीं कर सकता क्योकि अन्य समस्त पुरुषों के भी गगग्रस्त होने से उन में बिनाम नहीं हो सकता । घेद स्वयं भी नहीं बताता कि मंग अमुक अर्थ है. अतः वेद प्रतिपाय अग्निहोत्र आदि अर्थी का निश्चय कम हो सकता है ? । २५॥ २६ची कारिका में चंदार्थ के निर्णय का कोई विश्वसनीय आधार न होने से उपस्थित होनेवाले दोष का प्रतिपादन किया गया है। कारिका का अथं इस प्रकार है यतः घेदार्थ के निर्णय का कोई उपयुक्त आधार नहीं है अत. 'अग्निहोत्रं गुहयात् स्वर्गकाम:' इस श्रनिवाक्य का मीमांसक जो यह अर्थ करते हैं कि 'म्बर्ग चाहनेवाका भर भूतविशेष : अग्नि में प्रत आदि का प्रक्षेप करे' वही उस का अर्थ अथवा 'मग चाहनेवाला पुरुष कुसे का मांस खाय' यह अर्थ है !' इस बात का निर्धारण कैसे होगा, मीमांसक सम्मत अर्थ ही उस श्रुति वाक्य का अर्थ है, अन्य कोई कुत्सित अर्थ नहीं है. यह कसे कहा जा सकेगा ||२६॥ २७ वीं कारिका में उत्त. आक्षेप के मीमांसकसम्मत समाधान की शङ्का कर के उम का परिहार किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है___ मीमांसफ की ओर से उक्त आक्षेप का यदि यह उत्तर दिया जाय कि-'जैसे प्रदीप आदि अपने अर्थ का स्वयं प्रकाशक होता है, उसे किसी अन्य की सहायता अपेक्षित नहीं होती उमी प्रकार वैदिक बाक्य भी अपने वास्तवार्थ का स्वयंबोधक होता है, अत: जैसे प्रदीप आदि स्म उस के प्रकाश्य विषय से अनिमि विपय के प्रकाश की आपत्ति नहीं होती उसी प्रकार र वाक्यों से भी उन के वास्तव अर्थ से भिन्न अर्थ के बोध की आपत्ति नहीं हो सकती ' तो यह ठीक नहीं है क्योकि 'बैदवाक्यों में निश्चित अशेविशेष को अवगत कराने का स्वभाव है। १. अनिहा-श्वा तस्य उत्रं मांसमिति कृत्येत्यर्थः । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] [ शाखवार्ता० स्त० १०/८२-२१ किञ्च, एवं भ्रमजनकत्वमपि क्वचिद् वेदस्य स्यादित्याहविपरीतप्रकाशश्च ध्रुवमापद्यते कचित् । तथाहीन्दीवरे दीपः प्रकाशयति रक्तताम् ॥२८॥ विपरीतप्रकाशश्च अतथाभूतार्थवाचकत्वं च धूचं निश्चितम् आपद्यते, क्वचित विषयान्तरे । प्रदीपादिदृष्टान्तेनैतदेव भावयति-तथा हीन्दीवरे-नीलोत्पले दीपः प्रकाशयति प्रदर्शयति, रक्तता-पाटलिमानम् । एवं च चन्द्रः पीतवाससि शुक्लताम, इत्यादि द्रष्टव्यम् ॥२८॥ तस्मान्न चाऽविशेषेण प्रतीतिरुपजायते । संकेतसव्यपेक्षत्वे स्वत एवेत्ययुक्तिमत् ॥२९॥ ननु यथा दीपस्य चाक्षुषजननशक्तिरेव कार्यदर्शनात् कल्प्यते न घाणीयादिजननशक्तिः, तथा वेदानामपि स्वार्थे प्रमाजननशक्तिरेच करयते न अमजनशते सिंत लाएपनिमा र ? न, ततः प्रमाकार्यस्यैवाऽदर्शनात् । न च तदतान्यादिपदेश्यो नियतार्थबोधोऽपि दृश्यते, जलादौ संकेतितेभ्यस्तेभ्यो जलादियोधस्यापि दर्शनात् , नियतसंकेतापेक्षायामपि स्यतस्त्वमङ्गो दुर्निवारः इत्यभिप्रेत्याह इस विषय में प्रत्यक्ष आदि कोई प्रमाण नहीं है और निप्रमाण बात कहने पर तो निप्रमाण अन्य बात भी जो मीमांसक को मान्य नहीं है, कही जा सकती है ॥२७॥ [वेद में प्रदीपादिवत् भ्रमकारकता ] २८वीं कारिका में बेद को निषिपुरुषमूलक न मानने पर उस में प्रमाजनकत्व के समान भ्रमजनकल्य की भी आपत्ति का प्रदर्शन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है... वेद को प्रदीप आदि के समान अर्थ का बोधक मानने पर प्रदीप आदि के समान ही उसे कहीं श्रम का जनक भी मानना होगा क्योकि यह युक्तिसंगत नहीं है कि अपनी करता के लिये तो बेद में प्रदीप आदि की समता बतायी जाय और समता स्य पर प्रसक होनेवाली प्रतिकूलता से पलायन किया जाय । कहने का आशय यह है कि प्रदीप आदि को तथा बेद को अर्थषोधन में यदि समानभाव माना जायगा तो जैसे प्रदीप से नीलकमल में रक्तता का दर्शन होता है एवं चन्द्रमा की चाँदनी से पीतवस्त्र में धबद्धता का दर्शन होता है उसी प्रकार वेद से कहीं धर्मजनक क्रिया में अधमंजनकत्व और कहीं अधर्मजनक क्रिया में धमजनकता का भी बोध होना चाहिये, किन्तु यह मान्य नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा मानने पर घेद धर्म-अधम आदि का व्यवस्थापक नहीं हो सकता ॥२८॥ [संकेतापेक्षा होने पर स्वतःप्रामाण्य भंग] २९वीं कारिका में वेद को स्वार्थबोध के जनन में नियत सहूतसापेक्ष मानने पर उस के स्वतः प्रामाण्य के भङ्ग की भापत्ति बताई गई है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-- यदि यह कहा जाय कि-'जैसे दीप से चाक्षुषप्रत्यक्ष का उदय देखा जाता है अतः उस में चाक्षुषप्रत्यक्ष की उत्पादिका शक्ति ही मानी जाती है, घाणजप्रत्यक्ष आदि के जनन की शक्ति नहीं मानी जाती. उसी प्रकार वद से स्वार्थ की प्रमा का उदय होने के आधार पर यष्ट कहा जा सकता है कि वेद में स्वार्थ की प्रमा उत्पन्न करने की ही शक्ति है, भ्रमजनन की शक्ति नहीं है । अत: वेद से भ्रमात्मकशान की उत्पत्ति का आपादान शक्य नहीं है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वेद से प्रमारूप कार्य का होना रष्ट नहीं है, इसलिये उक्त कल्पना नहीं हो सकती । दूसरी बात यह है कि वेदस्थ अग्नि आदि पदों का किसी पुरुष द्वारा जल में Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२९ स्था, क. टीका-हिन्दीविवेचन तस्मात् श्रुतिपदात्, न चाविशेषेण पदीपादित इव झपादो, प्रतीतिरुपजायते । संकेतसव्यपेक्षत्वे इष्टवाच्यविषयसंकेतमपेक्ष्येप्टार्थप्रतीतिजमकस्वभावस्थे, 'म्बत एव' इत्ययुक्तिमत् प्रदीपादितुल्यावतःप्रकाशकत्वभङ्गात ।।२९।। नियतसक्रेतापेक्षायामपि दोपमाह-- साधुनवेति संकेनो न चाशला निवर्तते । तद्वंचियोपलन्धश्च स्वामयाभिनिवेशतः ॥३०॥ इतेव्यवहितसंबन्धाद् न च-नेय, संकेतः श्रुतिस्थाम्या दिपदानामन्यादिविषयोऽभिप्रायः, साधः =प्रकृतयथार्थवाच्या र्थवीजनकः न वा इति एवमाकारा आशङ्का निवर्तते । कुतः ? इत्याह . स्वाशयामिनिवेशत: स्वाशयेन स्वाभिप्रायेणाभिमुखो निवेशः तथा तथा व्यापारचन ततः, तद्वैचित्र्योपलब्धेश्च संकेतवैचित्र्यदर्शनाच्च ॥३०॥ ननु व्याख्याप्यपारुषेयी स्मृता केवलं जैमिन्यादिभिः, इति चेनवत् तव्याम्या यामपि ना साधुत्वाशङ्केत्याशङ्कयाह-- व्याख्याप्यपौरुषेययस्य माना पाकर संगतः । मिथो विमायाश्च तसाधुवाधनिश्रितः ॥३१॥ व्याख्याप्यस्य वेदस्य अपौरुषेयी, मानाभावात् अमिन्यादीनां स्मरणादौ प्रमाणाभावात् न सगता । करणेऽपि स्मरणोवतेरन्यार्थतयोपपत्तेबांधकाभावात् । अनन्यगतिकतवान मानमित्यत संकेत कर देने पर उन पदों से जल आदि के बोध का होना भी देखा जाता है, न कि प्रदीप आदि से जैसे रूप आदि का ही प्रत्यक्ष होता है उस प्रकार वेदस्थ पदों से दिन अर्थ का बोध होना दृष्ट है। और इस दोष के निवारणार्थ यह कल्पना की जाय शि. वेदस्थ पदों का निश्चित अर्थों में नियतसंकेत होता है। उस की अपेक्षा से ही घेद स्याओं का बोधक होता है, -तो उसे स्वतः प्रमाण फाहना असंगत होगा। अत. येद में प्रदीप के समान स्वतः प्रकाशकता की सिद्धि न होकर उस का भङ्ग ही सिद्ध होता है ।।२०।। ३०वीं कारिका में घेद को स्वार्थबोधन में मियतसवंत सापेक्ष मानने पर भी दोष बनाया गया है | कारिका का अर्थ इस प्रकार है-' साधुवति' में श्रयमाण 'इति' पद का आशङ्का निवर्तते' इस के साथ स्वहित सम्बन्ध मानने से उपलब्ध होता है। वंद को नियतसत सापेल मानने पर भी 'वेदस्थ अग्नि आदि पद का अग्नि आदि अर्थों में जो संकेत है यह प्रकृत में यथार्थ वाच्यार्य का बोधक है या नहीं है' इस शा की निवृत्ति नहीं होती क्योंकि विद्वानों द्वारा अपने अपने अभिप्राय के अनुसार वेद की व्याख्या की जाती है और उम व्याख्या मे नियतसंकेत का ज्ञान न होकर संकेतन्निःय का ही नाम होता है ॥३९॥ [ वेदव्याख्या में अपौरुषेयता का असंभव ] ३१श्री कारिका में बंद की व्याख्या अपौरुपयी है' इस मत का निन्सन किया गया है। कारिका का अर्थ इन प्रकार है___ यदि यह कहा जाय कि-'चंद के समान वेद की व्याख्या भी पौरपंय नहीं किन्तु अनादि नित्य है, जैमिनि आदि ने उस व्याख्या का केवल स्मरण किया है। अत: बंद के . Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० [शास्त्रधार्ताः स्त: १०/३२-३३ आह-मिथः कापिलेयादिव्याख्यया सह, विरुद्धभावाच्च व्याहतार्थत्वाच्च जैमिनीयादिव्याख्यायाः । व्याख्याभेदेऽपि अस्यां साधुत्वं सेवाद्रियत इत्यत आह-तत्साधुत्वाद्यनिश्चितेः= इयं साधुः, इयं च कश्पिता' इति निश्चयाभावात् ॥३१॥ मान्यप्रमाणसंवादात्तत्साधुत्य विनिश्चयः । सोऽतीन्द्रिये न यन्याय्यस्तत्तद्भावविरोधतः ॥३२॥ एतदेव भावयति-नान्यप्रमाणसंवादात-न प्रत्यक्षादिप्रमाणसंघादेन 'तद्गोचरगतेन' इति गम्यते, तत्साधुत्वविनिश्चया-अधिकृतव्याख्यायाः साधुत्वनिश्चयः, गृहीतमामाण्यकप्रमाणान्तरसंवादित्वेनाऽप्रामाण्यशङ्कानिवृत्तेरिति भावः । कुतः ! इत्याह-सः अन्यप्रमाणसंवादः, यत् यस्मात् , अतीन्द्रिये व्याख्यागोचरे न न्याय्यान्न युक्त्युपपन्नः । कुतः ? इत्याह-तत्तद्भावविरोधतः= तस्यातीन्द्रियस्य व्याख्याविषयस्य तद्भावविरोधतः, अन्यप्रमाणग्रहेऽतीन्द्रियस्वविरोधादित्यर्थः ॥३२॥ तस्मायाख्यानमस्येदं स्वाभिप्रायनिवेदनम् । जैमिन्यादेन तुल्यं किं चनेनापरेण व ? ॥३३॥ यतश्चैवं तस्मात् कारणाद्, व्याख्यानमस्य वेदस्य, इंदं भवत्कल्पितम्, स्वाभिप्रायनिवेदनं गतः स्वाशनाम:२म् , जैमिल्यादे: ३१८, नफर्तुः, न तु नित्यार्थस्मरणम् , समान वेद की व्याख्या में भी साधुत्व की शक नहीं होती '-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वेदव्याख्या के अौरुषेय होने में और जमिनि आदि द्वारा मात्र उस का स्मरण होने में कोई प्रमाण नहीं है; क्योंकि वेदव्याख्या की रचना को ही अन्य दृष्टि से स्मरण कहने की उपपशि में कोई बाधा नहीं है। यदि यह कहा जाय कि- अपौरुषेय मान घिना वेदव्याख्या की प्रामाणिकता प्रकारान्तर से नहीं टपपन्न हो सकती, अतः यह अनन्यगतिकता-अन्यथानुपपत्ति ही घेदव्याख्या के अपौरपेयत्व में प्रमाण है'-तो यह उचित नहीं है क्योंकि जैमिनि आदि द्वारा की गई वेदों की व्याख्या कपिल आदि द्वारा की गई व्याख्या से विरुद्ध है। अतः विभिन्न आचार्यों दाग की गई वेदव्याख्याओं में यह व्याख्या समीचीन है और यह ध्याख्या कहिपत है. इस निश्रय का कोई आधार न होने से किसी व्याख्या को असाधु मान कर उस का त्याग और किसी व्याख्या को साधु मानकर उसका आदर करना सम्भव नहीं हो सकता ॥३॥ ३९ ची कारिका में उक्त अर्थ की ही पुष्टि की गई है । कारिफा का अर्थ इस प्रकार है वेद की अभीय व्याख्या में अप्रामाण्य शङ्का की निवृत्ति नहीं हो सकती क्योंकि जिस प्रमाण में प्रामाण्य निर्णीत होता है उस अन्य प्रमाण के संवाद से ही प्रस्तुत व्याख्या में अप्रामाण्य शक्षा की निवृत्ति होती है किन्तु प्रकृत में इस प्रकार का कोई प्रत्यक्ष आदि प्रमाण नहीं हैं, क्योंकि अन्य प्रमाण का संन्याद घेद की व्याख्या से गम्य अतीन्द्रिय अर्थों में सम्भय नहीं हो सकता, यतः वेदव्याख्या से बोधित अतीन्द्रिय अर्थ यदि प्रत्यक्षादि प्रमाण में गम्य होगा तो उस के अतीन्त्रियत्वरूप भात्र का विरोध होगा । ३२।। उक्त कारण से मीमांसक को अभिमत घेद का व्याख्यान, व्याख्याता द्वारा जब अपने ही अभिप्राय का प्रकाशन है न कि जेमिनि आदि वेदव्याख्याकारों द्वारा वेद के नित्य अर्थ का स्मरण है क्योंकि वेद का अर्थ सूत्रबद व्यवस्थित नहीं है, तो फिर वेदवादी मीमांसक का बचन शैवषचन के तुल्य क्यों नहीं होगा ! कहने का आशय यह है कि जैसे बौद्ध सम्प्रदाय का बचन उस सम्प्रदाय के प्रवर्तक रागादिमान पुरुष का भपने आशय का प्रकाशक होने से Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. दीका-हिन्दीविवेचन ] सूत्रवदर्थस्य व्यवस्थितस्याऽदर्शनात् । 'अतः' इति गम्यते, अपरेण चौद्धादिवचनेन, कि न तुल्यम् , वा-युप्माकम् , रागादिमतः स्वरयाभिमायनिवेदनाऽविशेषात् , ताराग्य च पुर: स्वतन्त्रवचनेऽविश्वासाऽविशेषादिति भावः ।।३३।। न च स्वाऽनिर्देशमात्रेऽपि स्वातन्त्र्यमण्यातीत्याहएप स्थाणुस्यं मार्ग इति वक्तीह कथन । अन्यः स्वयं ब्रवीमीति तयोर्भदः परीक्ष्यताम् ।।३४॥ 'एष स्थाणुः, अयमेतदभिमुखो मार्ग' इति कश्चन वक्ता स्वनामाना निवेशेन इद्द-जगति वक्ति । अन्य तदपरः ‘स्वयं ब्रवीमि यदुताय मार्ग' इति स्वनामाभिनिविदोन बक्ति । तयोः कत्रोः भेदः-विशेषः परीक्ष्यताम् , स्वाभिप्रायनिवेदनं प्रति न कश्चिद् मेढ़ः फलिप्यतीत सावः । स्यादत सर्वमान्यता प्राप्त करने में सफल नहीं हो पाता उसी प्रकार मीमांसक को अभीष्ट वेदव्याख्या भी रागादिमान् व्याख्याता पुरुष के अभिप्राय का प्रकाशक होने से सामान्यता नहीं प्रार कर सकती क्योंकि यहाँ विश्वास करने का कोई आधार नहीं है कि-'अभीष्ट च्याख्या से ज्ञातव्य अर्थ प्रामाणिक है' क्योंकि रागादिमान पुरुष का स्वतन्त्र प्रमाणनिरपेक्ष वचन विश्वसनीय नहीं होता ।३३।। [ स्वनामनिर्देश के बिना भी स्वाभिप्राय निवेदन का सम्भव ] ३४ / कारिका में यह बताया गया है कि गला नाग अपने कश्चन को अपने नाम से निर्दिष्ट न करने मात्र से उस कथन में उस की यतात्रता का अभाव नहीं हो जाता। कारिका का अर्थ इस प्रकार है--- यदि कोई वक्ता अपने नाम का उल्लेख न कर के केवल यह कहे कि यह स्थाणुढावृक्ष है' अथवा 'यह मार्ग अमुक ओर जाता है। और अन्य वक्ता अपना उल्लेख करते हुये कहे कि ' मैं स्वयं कहता है कि यह मार्ग अमुक ओर जाता है तो इन दोनों ही वक्ता अपने अभिमत का ही प्रकाशन करते हैं। ऐसा नहीं है कि उक्त बात को अपनी बात कह कर कहनेवाले एवं उक्त बात को अपनी बात' कहे विना कहनेवाले दोनों की बात में कुछ भेद हो, क्योंकि दोनों ही उक्त बात के स्वतन्ध वक्ता हैं। उन के वचन का जो अर्थ है उस की सत्यता वा असत्यता दोनों की बात में समान है। अतः वेद की व्याख्या को अपनी स्याख्या न बताने पर भी उस व्याख्या से बोध्य अर्थ के प्रति व्याख्याकार ही उत्तरदायी है. इसलिये व्याख्याकार के व्याख्यात अर्थ में अन्य प्रमाण न होने पर स्वीकार्यता का निभय शक्य नहीं है। [पदों की शक्ति अर्थमात्र में सम्भव ] यदि यह कहा जाय कि-'साय आदि तर्क से अन्य अर्थ में शक्ति के संशय का निरास होने से अग्नि आदि अर्थों में ही अग्निपद की शक्ति मिश्चित है, और कोई माधक न होने पर शक्य अर्थ में ही वेदों का प्रामाण्य होता है। इमलिये बेदस्थ पदों के शपयार्थबोधन में बाधकामात्र तथा विवक्षित अर्थ में उन की शक्ति आदि का प्रदर्शन करने के लिये वेद की व्याख्या की उपयोगिता अनिवार्य है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि विनिमक के अभाव एवं लायव मे प्रतीति के अनुसार समस्त अर्थों में पदों की शसि मानना उचित है । जो अर्थ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता० १० १० / २४-२५ 1 दम्यादिपदानामन्यायादावेव शक्तिर्निचिता अथवा दिई रायनगड, असति बाधके शवयार्थ एव च वेदानां प्रामाण्यम् इति वेदादिपदानां बाधकाभावादिशवत्यादिप्रदर्शनार्थाया व्याख्याया उपयोग इति । मैवम् विनिगमकाभावेन लाघवेन च यथामतीति निखिलार्थशक्तित्रहपनायाः पदानां युक्तत्वात्, आवश्यक सङ्केतान्तराश्रयणेनैव लक्षण । नुदात् नियतसंकेतस्या तीन्द्रियार्थं दुर्बहत्वात्, अविशा मप्रसिद्धार्थेऽपि मामाण्याऽप्रच्यवान्, बावकं विनापि च तात्पर्यविशेषेण प्रसिद्धार्थस्त्र परित्यागादर्शनात्, अप्रसिद्धशक्तिकानां वेदपदानां दिन मूलं शक्ति प्रहस्य दुःशकत्वाच्चेति दिग ॥ ३४ ॥ जिस पद के शक्ष्यार्थरूप में प्रसिद्ध नहीं हैं उस में उस की शक्ति के बोधनार्थ अन्य संकेत का आश्रयण करने से ही लक्षणा का अनुच्छेद-सम्बर हो सकता है। कहने का आशय यह है कि अमुक अर्थ में ही अमुक पद की शक्ति है अन्य में नहीं है, ऐसा मानने में कोई त्रिनिगम नहीं है तथा किसी अर्थ में पद की शक्ति और किसी अर्थ में दक्षणा मानने की अपेक्षा सभी अर्थों में पद की शक्ति मानने में लाघव है। अतः यह मानना ही उचित है कि अन्तर केन्द्र यह होता है सर्वे सर्वार्थाचा =सब पत्रों की सब अर्थों में शक्ति होती है । ' कि जिस अर्थ में जिस पद का बहुरता से प्रयोग होता है उस अर्थ में उस पद का नियत संकेत होता है और जिस अर्थ में उस पद का अल्प प्रयोग होता है उस में संकेतान्तर यानी अनियत - आधुनिक संत होता है। जैसे जल के विशिष्ट शह में गङ्गापद का संकेत नियत एवं प्रसिद्ध है और atri घोष इत्यादि स्थानों में तीर में गड़ा पद का संकेत अनियतआधुनिक एवं अप्रसिद्ध है। अप्रसिद्ध अर्थ में पत्र का संकेतान्तर मानने से, जिस अर्थ में जिस पद का संकेत होता है उस अर्थ में वह पद शक्त होता है अथवा वह अर्थ उस पद का शक्य होता है यह क्षण प्रसिद्धसंकेत वाले और अप्रसिद्ध संकेत वाले दोनों में समान रूप से उपपन्न हो जाता है। अतः यह कहना उचित नहीं हो सकता कि अर्थविशेष में वेदस्थों की शक्ति का ज्ञान कराने के लिये वेद की व्याख्या आवश्यक है । C [ सर्वज्ञता के विना प्रामाण्य की अनुपपत्ति ] यह भी ज्ञातव्य है कि वेद यदि संदेश का वचन न होगा तो उस की व्याख्या के आधार पर वह उपादेय न हो सकेगा, क्योंकि अतीन्द्रिय अर्थों में पद के नियत संकेत का ज्ञान gure होने से ऐसे पदों से घटित वेद की व्याख्या सम्भव हो न हो सकेंगी। इस सन्दर्भ में यह कहना उचित नहीं हो सकता कि जैसे अर्थादर्श- अमदेश को किसी प्रमाणविशेष के बिना ही अप्रसिद्ध अर्थ में पद का संकेत ग्रह होता है उसी प्रकार अतीन्द्रिय अर्थ में भी वेद व्याख्याता को वेदस्थ पत्रों का संकेतग्रह होता है क्योंकि अस को अप्रसिद्ध अर्थ में जो सतह होता है वह भी प्रमाणसूक ही होता है, इसीलिये अप्रसिद्ध अर्थ में असर्वेश की प्रमाणता की हानि नहीं होती। अप्रमिन्द्र अर्थ में असर्वेश को अप्रमाणता तब होती जब उसे वह बिना प्रमाण के ही ग्रहण करता, किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रसिद्ध अर्थ को ग्रहण करने मैं न होने पर तात्पर्यविशेष से प्रसिद्ध अर्थ का परित्याग नहीं किया जाता । इस प्रकार प्रसिद्ध अर्थ का बाघ ही अप्र स अर्थ को स्वीकार करने में प्रमाण बन जाता है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि जिन वेवस्थ पदों की शक्ति प्रसिद्ध नहीं है उन पदों का feat मूल आधार के बिना शक्ति अशक्य है अतः स्पष्ट है कि वेद को सर्वशवचन न मानने पर उस का लोकपरिग्रह उपपन्न नहीं हो सकता ||३४|| १३२ ] ३ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क, टीका-हिन्दीविवेचन ] प्रस्तुत एव दोपान्तरमाहन चाप्यपौरुषेयोऽसौ घटते सूपपत्तितः । वक्तृव्यापारबैकल्ये तच्छब्दानुपलब्धितः ।।३।। न चाप्यसौवेदः, सूपपत्तितः=सुयुक्त्या अपौरुषेयो घटते । कुतः ! इत्याह-वक्तव्यापारवैकल्य वक्तृतास्वादिव्यापाराभावे तच्छब्दानुपलब्धिता वेदशब्दानुपलब्धः, शदवावनि छन्न एवं ताल्बादिन्यापाराणां हेतुत्वादिति भावः ।।३५।। ननव.युक्त्या वर्णानां नित्यत्वाद वक्तृ या पारो व्यञ्जकपवनोत्पाद एवोपक्षीण इत्याशङ्कयाहवक्तव्यापारभावेऽपि तद्भावे लौकिक न किम् । अपौरुषेयमिष्टं वो बचो द्रव्यव्यपेक्षया ॥३६॥ वक्तव्यापारभावेऽपिशब्दे तान्याद्यन्वय-व्यतिरेकानुविधानेऽपि तद्भावे अपौरुषेयत्वेऽन्युपगम्यमाने, लौकिकं वच: किन च:=युप्माकं द्रव्यव्यपेक्षयाऽपौरुषेयमिष्टम् ? तत्रापि हि द्रव्या न्यपौरुषेयाप्येव, द्रव्यतो नित्यत्वस्य पर्यायतश्चोत्पादव्यययोस्तत्रापि प्रामाणिकत्वात् । ईशापौरुषेय धेन लौकिकस्यापि वेदतुल्यत्वं स्यादिति निगर्वः । ३५ वीं कारिका में प्रस्तुत विषय में ही अन्य दोष का प्रदर्शन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार हैं चंद अपौरुषेय है। यह बात उचित युक्तियों से संगत भी नहीं हो सकती, क्योंकि शब्द मात्र के प्रति ताल आदि का व्यापार कारण होता है. अत: यता के तालू आदि का ध्या न होने पर वेद के शब्दों की उपलब्धि सम्भव ही नहीं हो सकती ||३५|| 1 [वेदवत् लौकिक वाक्यों में अपौरुषेयत्व की प्रसक्ति] ३६ वीं कारिका में इस पक्ष का परिहार किया गया है कि-पण पूति युक्ति से नित्य है, मीर्फ धक्ता का व्यापार वर्गों के व्यञ्जक पवन का उत्पन्न कर ऋतकार्य हो जाता है। कारिका का अर्थं इस प्रकार है यदि यह कहा जाय कि-'शरद यद्यपि तालु आदि के अन्वय-प्य तिरेक का अनुविधान करता है तथापि वह अपौरुषेय है, ताटु आदि के व्यापार की अपेक्षा उम को उत्पन्न करने में नहीं होती किन्त उस के व्यक पबन को उत्पन्न करने में होती है। अतः व्यत्रक पवन में बाल आदि के व्यापार के अन्वय-व्यतिरेक का अनुबिधान होने से व्यङ्गाध शब्द में भी उस का व्यवहार हाता है । पतावता उस के अपौरुषेयत्व की हानि नहीं हो सकती ।'-तो इस के प्रतिकार में यह भी कहा जा सकता है कि यदि वर्ण की नित्यता से बंद को अपौरुषेय मानना अभिमत है तब तो लौकिक वाक्य को भी वेदापौरुषेयन्त्रवादी को अपौरुषेय मानना अभिमत होना चाहिये, क्योंकि लौकिकवाक्य में भी वर्णान्मना परिणत होने वाले तथ्य अपरुिषय ही हैं, व भी द्रव्यात्मना नित्य और पर्यायात्मना उत्पत्ति-विनाशशाली हैं, यह बात प्रमाणसिद्ध है। कहने का आशय यह है कि जेनदर्शन में घर्णित युक्तियों से शब्द गौगलिक है, शमवर्गणा के पुदगल द्रव्य ही तालु आदि का व्यापार होने पर वर्णात्मक पर्याय के आस्पद होते हैं, अतः शब्दमात्र मूलपुद्गल के रूप में निस्य और वर्णात्मक पर्याय के रूप में जन्य एवं नश्वर है, अतः वर्गों के मूलस्वरूप की अपौरुपैयता की दृष्टि से वेद और लौकिक चाफ्यों में अपौरुषेयता समान होने से वेद को अपौरुषेय और लौकिक वाक्य को पौरुषेय कहना उचित नहीं है। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ ] [शास्रधार्ताः स्त० १०/३६ किश्च, एवं कारणस्वाभिमतानां व्यञ्जकस्थाननिवेशे घटादावपि दण्डादीनां व्यञ्जकतयैवोपपत्तेर्गत कार्यद्रव्यचर्चयापि, घटाद्युत्पाद-विनाशाऽकल्पनलाघ्वान् । अतिसूक्ष्मेक्षिकया ग्राहकविश्रामे च गतं घटादिना ब्राह्यतयैव । यच्च परार्थवाक्योच्चारणानुपपत्तेनिस्यत्वं वर्णानामुक्तम् , तयुक्तम् , अनित्यस्यापि शब्दस्य धूमादेरिवावगतसंबन्धस्यार्थप्रत्यायकत्वसंभवात् , भूयोदृष्टासु धूमन्यक्तिषु वतिसंबन्धग्रहवत् पुनः पुनरुच्चरितासु शब्दव्यक्ति प्वर्थसम्बन्धमहोपपत्तेः । 'जातावेव संबन्धग्रहो व्यक्तिनां चाक्षेप' इति पुनरुभयन्त्र सुवचम् , अयुक्तं च, जातिविशिष्टव्यक्तावेककालमेव संबन्ध महात् । अध धूमे धूमत्वजातिसत्त्वाद धूमन्वविशिष्टे वहिसंबन्धग्रहोऽस्तु, गादी तु शब्दत्वादिजात्यभावाद् न [व्यंजकपक्ष में कार्यद्रव्य के असव की आपत्ति] दूसरी बात यह है कि तालु आदि का व्यापार जो वस्तुत: शब्द का कारण है उसे शब्द का व्यञ्जक मानकर यदि शब्द को नित्य माना जायगा तब घट आदि के कारणों को भी घट आदि का व्याक मान कर कार्य द्रव्य की कथा ही समान की मा सकेगी. क्योंकि उत्पतिविनाश की कल्पना आवश्यक न होने से घर आदि को नित्य मानने में लायन है। इतना ही नहीं कि उत्तरीति से प्रस्तु की निन्यता का स्वीकार सम्भव होने से अनित्य वस्तु का अस्तित्व समाप्त होगा, किन्तु सूक्ष्मष्टि से थोड़ा और विचार करने से घट आदि के ग्राहकशान में ही विचार की विश्रान्ति देने से कर आदि की बाय सत्ता का ही लोप हो जायगा । जैसे यह कहा जा सकता है कि घट आदि की अज्ञात सत्ता का व्यवहार में काई उपयोग न होने से यह मानना अधिक युक्तिः संगत है कि घट आदि का वा अस्तित्व नहीं है। किन्तु केवल ज्ञात अस्तित्व है अर्थात् घटादिज्ञान से भिन्न घटादि के अस्तिन्य का स्वीकार अनावश्यक है। फलतः बाह्य अर्थ का टोप हो जाने से विज्ञानवाद बलात् गले पड़ जायगा । अनित्य पक्ष में परार्थोच्चारण की उपपत्ति ] वर्ण की निन्यता के समर्थन में जो एक बात यह कही गई कि-यदि वर्ण नित्य न होगा तो अन्य व्यक्ति को स्वस्त अर्थ का बोध कराने के लिये वाक्य का उच्चारण नहोस क्योकि वर्ण के भनित्य क्षणिक होने पर वर्णसमूहरूप वाक्य की निष्पत्ति सम्भव न होने से गद द्वारा अर्थ का बोध सम्भव न हो सकेगा'वह युक्तिसंगत नहीं है, यतः वाक्यभावापन्न शब्द को स्वरूपतः अर्थबोध का जनक नहीं माना जाता किन्तु उस में अर्थ के सम्बन्धज्ञान को अर्थबोध का जनक माना जाता है । अतः जैसे अनिन्य शृम में वहि के व्याप्तिसम्बन्ध का ज्ञान होने से धूम को देवकर वद्धि का बोध होता है। उसी प्रकार अनित्य शब्द में अर्थ के शक्ति बन्ध का वान होने पर अनित्य शब्द को सुनकर उस के अर्थ का बोध हो सकता है। नित्य शब्द में अर्थ के सम्बन्ध का ज्ञान दृघर भी नहीं है, क्योंकि जसे भूयोदर्शन से विभिन्न धृमध्यक्तियों में बाढ़ के व्यामिसम्बन्ध का ज्ञान होता है उसी प्रकार भूयःप्रयोग-पुन: पुनः उच्चारण से अनित्य शब्दभ्यक्तियों में अर्थ के शक्तिसम्बन्ध का भी शाम हो सकता है। [जाति में शक्तिमानी मीमांसकमत का परिहार] यदि यह कहा जाय कि-' शब्द का सम्बन्धशाम व्यक्ति में न होकर केवल जाति में ही होता है, अतः शब्द के सम्बन्ध ज्ञान से जाति का ही बोध होता है व्यकि का नहीं होता । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या, क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ १३२ तद्विशिष्टे शक्तिग्रह इति चेत् ? न, गादावप्यतुगतव्यवहारसिद्धाया जातेः प्रतिक्षेपाऽयोगात्, श्रोत्रग्राह्यत्वादिना तद्व्यवहारान्यथासिद्धयोगात् , तस्यातीन्द्रियघाटतत्वात् , जातेराकृतिव्यमयत्वनियमे मानाभावाच्च । यच्च प्रत्यभिज्ञयैव ज्ञात-जायमानशब्देश्यमभिहितम्, तदसत्, लुनपुनतिकेशनखादिष्विव तस्या भ्रान्तत्वात्, अन्यथोत्पाद-विनाशपतीत्यनुपपत्तेः तार-मन्द-शुक-सारिकाप्रभवादिशब्देन नानाविधेष्वपि वर्णषु प्रत्यभिज्ञादर्शनात् तस्या भ्रमत्वाऽवश्यकत्वाच । व्यक्ति तो जाति से आक्षिप्त होती है शब्द से शात जाति के द्वारा उस के आभयभूत व्यक्ति का अनुमिति किंवा अर्धापत्ति के रूप में आक्षेपात्मक बोध होता है । अतः धूम-बदि को शब्दअर्थ के दृष्टान्तरूप से प्रस्तुत करना उचित नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है कि उक्त बात दोनों में समान है, यतः यह निर्विवादरूप से कहा जा सकता है कि जैसे अनित्य अर्थ में अनित्य शब्द का सम्बन्धग्रह नहीं होता किन्तु अर्थगत जाति में शब्दगत जाति का सम्बन्धग्रह होता है और उस सम्बन्धमह से अर्थगत जाति का बोध होने पर अर्थ का आक्षेप होता है, उसी प्रकार धूम में वह्नि का सम्बन्धग्रह नहीं होता किन्तु धूमत्ष में वद्वित्व का सम्बन्धग्रह होता है और उस सम्बन्धमह से चहित्य का बोध होने पर वदि का आक्षेपा-मक बोध होता है। किन्तु सत्य तो यह है कि 'जाति में ही शब्द का सम्बन्धमान होता है व्यक्ति में नहीं' यह बात ही अयुक्त है क्योंकि एक साथ ही जाति विशिष्ट व्यक्ति में शब्द का सम्बन्धग्रह होता है। [गकारादि में शब्दत्त्वजाति अनिवार्य यदि यह कहा जाय कि-' समस्त धृमों में धृमत्वजाति होती है अत: उम जाति से समस्त धृमन्यक्तियों का अनुगम सम्भव होने से समस्त धृमव्यक्तियों में तो बति के व्याप्तिसम्बन्ध का ग्रह हो सकता है। पर गकार आदि वण में शब्दत्य आदि जाति न होने से उस के दाम विभिन्न शब्दों का अनगम शक्य न होने से समस्त शब्दध्यक्तियों में अर्थ के शनिलम्बन्ध का शान नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जाति अनुगत व्यवहार से सिद्ध होती है अतः जब गोत्व आदि जातियों में जातिपद के अनुगत व्यवहार से उन में भी जातिसिद्धि का परिहार नहीं हो सकता, तय गकार आदि में शब्द के भनुगत व्यवहार से सिद्ध होने बाली शरवस्त्रजाति का परिहार नहीं हो सकता है। अतः शब्दत्व जाति से अनुगतीकृत ममस्त शब्दष्यक्तियों में अर्थ के शक्ति सम्बन्धमह को दुर्घट नहीं कहा जा सकता। यह भी नहीं कहा जा सकता कि 'गकार आदि में अनुगत शब्दध्यबहार श्रीजग्राह्यगुणन्य को विषय करता है न कि शब्दत्वनाति को, अत: गकार आदि में शब्दत्वजाति की सिद्धि असम्भव है। क्योंकि श्रोत्रग्राह्य गुणत्व अतीन्द्रिय श्रोत्र से घटित होने के कारण दुग्रह है. अतः उस के द्वारा शब्द के अनुगत व्यवहार की उपपत्ति सम्भव न होने से उस के उपपादक विषय के रूप में शब्दत्व जाति की सिद्धि अनिवार्य है। __ यह भी नहीं कहा जा सकता कि 'जाति आकृति से म्यङ्गच होती है अत: गकार आदि की कोई आकृति न होने से उस में शब्दत्वज्ञाति की परिकल्पना असम्भव है -क्योंकि 'जातिमात्र आकृतिव्यङ्गब होती है। इस नियम में कोई प्रमाण नहीं है। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ । [ शास्त्रार्ता० स्त. १०/३६ एतेन 'उत्पाद--विनाशपतीतीनामेव भ्रमत्त्वमस्तु । न चोत्पाद-विनाशप्रतीतीनां भ्रमत्वकल्पनामपक्ष्य प्रत्यभिज्ञामात्रम्य तत्कल्पने लाइवम् , प्रत्यभिज्ञानामप्यानन्त्यात् , विषयवाहुल्यस्य ज्ञानवाहुल्याऽ प्रयोजकत्वात् । न च ' उत्पन्नो गकारः, विनष्टो गकारः' इति चैधय॑ज्ञानकालोत्पत्तिकायाः प्रत्यभिज्ञायास्तज्जातीयाऽभेदविषयकत्वम्, 'श्यामो नष्टः, रक्त उत्पन्नः' इति ज्ञानकाले ‘स एवायं घटः' इति व्यत्येक्यप्रतीतिस्तु तत्र विशिष्टोत्पादादिपतीतेः शुद्ध व्यक्त्यमेदाऽविरोधित्वात् । इह तु शुद्धस्यव गकारादेरुत्पादादिधीरिति विशेषादिति वाच्यम् ताशवधर्म्यज्ञानाभावकालोत्पन्नपूर्वापरकालीनव्यक्त्यभेद्रविषयकपत्यभिज्ञया संदक्यसिद्धावुत्पादादिप्रतीतेर्वायुसंयोगात्पादादिविषयकत्वस्य सुवचत्वात् , वह्यादी धूमादिव्याप्तिभ्रमवद् नित्ये ऽपि शब्दे स्वत्वगर्भस्यापि सखण्डोत्पादस्य भ्रमसंभयात साक्षाद्विरोधिनस्तथाविधोत्पादस्य व्यावर्तकत्वनाऽगृहीतत्वात् तबुद्धय॑क्स्यभेदबुद्धयविरोधित्वाच्च इत्युक्तावपि न क्षतिः। प्रत्यभिज्ञा से शब्द में एकत्व सिद्धि का असंभव ] ज्ञात और शायमान शब्दों में प्रत्यभिज्ञा द्वारा जो ऐक्य की सिद्धि बताई गई, वह भी संगत नहीं है, क्योंकि शक्ति केश और छिन्न नख में पुनः उत्पन्न केश और नग्य का भेद होने पर भी उन में ऐक्य की प्रत्यभिज्ञा होने से प्रत्यभिज्ञा भ्रमात्मक होती है अतः उन्म के वाग कभी भी सेक्य की मिद्धि नहीं हो सकती । अन्यथा ज्ञान और शायमान शब्दों के फ्य की प्रत्यभिक्षा से यदि शहद को निम्य माना जायगा तो गकारादि चणों में जो ‘गकार उत्पन्न हुआ, गकार विन हुआ इस प्रकार के उत्पत्ति-विनाश की प्रतीति होती है उस की उपपत्ति न हो सकेगी। बग्ने सत्य तो यह है कि श्रुत एवं भूयमाण शन्दों में पं.क्य की प्रत्यभिज्ञा भ्रम ही है. क्योंकि तार, मन्द, शुकप्रभव, सारिकाप्रमच आदि भेद में अनेकविध गकारादि २ में भी पक्य की प्रत्यभिज्ञा इस प्रकार होती है कि जो मकार पहले तार सुनाई पडा वही अब मन्द सुनाई पड़ रहा है। एवं 'जो गकार शुक के मुख से सुन पडा वही सारिका के मुम्ब से भी सुन पड रहा है।' यह प्रत्यभिशा विविध वर्गों में पंक्य को विषय करने से निर्विघादकप से भ्रम हैं । अतः जैसे शब्दविषयक यह प्रत्य भिक्षायें भ्रम हैं उसी प्रकार श्रुत तथा भूयमाण शब्दों में ऐक्य की प्रत्याभिशा का भी भ्रमरूप होना ही उचित है । इमलिये उस के बल से शब्द की निन्यता का माधन असम्भय है । [शब्दनित्यतावादी का सविस्तर प्रतिपादन अबाधक ] शब्दनित्यत्यवादी का कहना यह है कि-गकार आदि वर्गों में जो उत्पत्ति और विनाश की प्रतीति होती है, वही भ्रम है, श्रुत और श्रयमाण वर्णी में जो प्रेक्ष्य की प्रत्य भिक्षा होती है, वह भ्रम नहीं है। यदि यह कहा जाय कि 'उत्पत्ति और विनाश की बहुतर प्रतीतियों को भ्रम मानने की अपेक्षा प्रत्यभिज्ञात्मक पक प्रतीनि को भ्रम मानने में लाघव है, तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रत्यभिज्ञा भी विषय दृष्टि से एक होने हुये भी स्वरूपदृष्टि से अनन्त है। यदि यह कहा जाय कि 'उत्पति उत्पधमान के भेद से. तथा घिनाश प्रतियोगी के भेद से अनन्त है. अतः उन्हें विषय करनेवाली प्रतीतियों का आनन्त्य उचित है. पर प्रत्यभिज्ञा तो पूर्वज्ञात और वर्तमान में झायमान विषय के अभेदात्मक एकत्रिषय को ग्रहण करती है, इसलिये उसका आनन्त्य अनुचित है' तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनेक विषयों को ग्रहण करनेवाले सम्हालम्बन ज्ञान के पक होने से तथा एक ही विषय को ग्रहण करनेवाले क्रमोन्गन्नझानों में भेद होने से विषयमाहुल्य में कानबाहुल्य की प्रयोजकता असिद्ध है। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विवेश्चन ] । १३७ [ज्ञात और ज्ञायमान में ऐक्य निरापद ] यदि यह कहा जाय कि-'गकार में निलय के सति औ. वीजा रूप धर्य के ज्ञानकाल में जो पूर्वज्ञात और वर्तमान में शायमान गकार में ऐक्य की प्रत्यभिक्षा होती है वह शायमानव्यक्ति में ज्ञातव्यक्ति के अभेद को विषय नहीं करती किन्तु शायमान में ज्ञात के सजातीय के अभेद को विषय करती है | अत: ज्ञात और शायमान गकार में भेद दोने पर भी दोनों में साजात्य होने से झायमान गकार में शातगकार के सजातीय के अभंद को विषय करने से प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य की भी उपपत्ति हो जाती है और उस से ज्ञात और शायरान में पेक्यसिद्धि की आपत्ति भी नहीं होती । ज्ञात और शायमान गकार में प्रत्यभिज्ञा की उक्त रूप से उपपत्ति करने पर यपि यह शंका हो सकती है कि-'श्याम घद नष्ट हो गया, रक्त घट उत्पन्न हुआ' इस शान के समय होनेवाली 'यह वही घट है' इस प्रकार की श्याम और रक्त घट केक्य की प्रत्यभिज्ञा भी यह बड़ी गकार है। इस प्रम्यभिज्ञा के समान व्यक्ति अभेदविषयक न होकर सजातीयाभेदविषयक हो जायगी। अत: इस प्रत्यभिज्ञा से भी व्यक्त्यभेद की सिद्धि न होगी'-किन्तु विचार करने पर यह शङ्का उचित नहीं प्रतीत होती क्योंकि श्यामरूपविशिष्ठघर के नाश की प्रतीति पत्रं रक्तरूपविशिष्टघट के उत्पाद की प्रतीति विशेषण के नाश और उत्पाद के द्वारा उपपन्न हो सकने से शुद्ध घटव्यक्ति के अभेद की विरोधिनी नहीं होती, अत: पूर्व में श्याम और वर्तमान में रक्त घर के अभेद को विषय करनेवाली उक्त प्रतीति व्यक्तिअभेद विषयतया प्रमा हो सकती है पर पूर्वशात और वर्तमान में ज्ञायमान गकार में नस्य को विषय करनेवाली प्रत्यभिज्ञा व्यक्त्यभेदविषयक प्रमा नहीं हो सकती क्योंकि शुद्ध गकार के उत्पाद और विनाश की प्रतीति से उत्पन्न एवं विनष्ट गकार में भेद सिद्ध होने से उक्त प्रतीति द्वारा उत्पन्न-विनष्ट गकार का अभेद बाधित है ।'-तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि गकार में उत्पत्ति और विनाश की प्रतीति की अभावदशा में जो ग्रह थही गकार है' यह प्रत्यभिज्ञा होती है उस से पूर्वज्ञात और शायमान गकार में यय के सिद्ध होने में कोई बाधा न होने से, गकार में होनेवाली उत्पत्ति और विनाश की प्रतीति के विषय में यह कहा जा सकता है कि यह प्रतीति गकार के व्याक वायुसंयोग की उत्पत्ति और विनाश को विषय करती है अथवा यह भी कहा जा सकता है कि यह प्रतीति नित्य शब्द में उत्पत्ति आदि को विषय करने से भ्रम है। [ उत्पत्ति की प्रतीति में भ्रान्तता अनुपपन नहीं] यदि यह कहा जाय कि-' उत्पत्ति स्वाधिकरणक्षणध्वंसानधिकरणक्षण सम्बन्ध रूप है। जैसे जो व्यक्ति जिस क्षण में उत्पन्न होता है यह क्षण उस व्यक्ति के अधिकरणभूतक्षणों के धंस का अनधिकरण होता है क्योंकि उस के पूर्व उस व्यक्ति का अभाव होने से उस के पूर्व का क्षण उस का अधिकरण नहीं होता । और जो क्षण उस व्यक्ति के अधिकरण होते हैं उन में उस का उत्पत्तिक्षण सर्वप्रथम क्षण है जो उस क्षण में नष्ट न होकर उस के अगले क्षण में मट होता है अत: उस क्षण के साथ उस व्यक्ति के सम्बन्ध को ही उस व्यक्ति की उत्पत्ति कही जाती है। निस्यव्यक्ति सभी क्षणों में रहता है अतः प्रत्येक क्षण उस के अधिकरणभूत अपने पूर्वक्षण के धंस का अधिकरण होता है, इसलिये उत्पत्ति के उक्त लक्षण में स्वशब्द से नित्य व्यक्ति को ग्रहण करने पर उत्पत्ति की अप्रसिद्धि हो जाने से नित्य में उस का भ्रम Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] [ शास्त्रवार्ताः सस०१०/३६ न च तारत्वादिकं ध्वनिधर्म एव शब्द आरोप्यते, न तु शब्दस्य स्वाभाविक रूपमिति वाच्यम् : तस्य तारस्वादिधर्मबत्तयैव नित्यमनुभूयमानतया तत्र तारत्वाद्यारोपाऽयोगात् । तदुक्तम्--- “यो ह्यन्यरूपसंवेद्यः संवेद्येतान्यथापि वा । स मिथ्या न तु तेनैव यो नित्यमुपलभ्यते ॥१॥'इति नहीं हो सकता क्योंकि एक प्रसिद्ध का ही अन्यत्र भ्रम होता है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस दृष्टि से विचार करने पर घर्ति में भूम की व्याप्ति का भी भ्रम नहीं होगा। यतः व्याप्ति स्वव्यापकसामानाधिकरण्यरूप है, जैसे: धुम में धृमध्यापकवति का सामानाधिकरण्य यही धूम में बहिन की व्याप्ति है, किन्तु स्याप्ति के लक्षण में स्वशब्द से घहिन को पकडने पर धूम में घहिन की व्याप्ति यहिनव्यायकधूमसामानाधिकरण्यरूप होगी जो कि धूम धहिन का व्यापक न होने से अप्रसिद्ध है। अत: यहिन में धूमव्याप्ति के भ्रम की उपपत्ति यह कहकर करनी होगी कि यद्यपि वहिनध्यापकधूमसामानाधिकरपय अखण्डरूप में प्रसिद्ध नहीं है किन्तु वहियापकत्व और धमलामानाधिकरण्य इन दो खण्डों में प्रसिद्ध है। अतः वायु में प्रसिद्ध घहिन व्यापकत्व का थूम में अवगाहन कर वहिन 'स्वव्यापक धूम का समानाधिकरण है। इस प्रकार वहिन में धूम व्याप्ति का भ्रम हो सकता है। तो जैसे वहिन में भ्रम की मखण्डव्याप्तिभ्रम की उपपत्ति होगी उसी प्रकार नित्यपदार्थ में सखण्ड उत्पाद के भी भ्रम की उपपत्ति हो सकती है। जैसे-यह कहा जा सकता है कि यद्यपि नित्यपदार्थ के अधिकरणभूतक्षणों के भवंस का अनधिकरणक्षण अप्रसिद्ध होने से अखगडरूप में नित्य का उत्पाद अप्रसिद्ध है, तथापि नित्याधिकरण समानाधिकरणत्व और क्षणसम्बन्ध इन दो दण्डों में प्रसिद्ध है अतः गगन आदि में प्रसिद्ध नित्याधिकरणक्षणध्वंसानधिकरणत्व का क्षण में अवगाहन कर नित्यपदार्थ में स्थाधिकरणक्षण,सानाधिकरणक्षणसम्बन्धरूप सखण्ड उत्पाद का भ्रम हो सकता है। [प्रत्यभिज्ञा में सजातीयाभेदविपयकता का निराकरण ] जो यह कहा गया कि-'गकार में उत्पत्ति-विनाश की प्रतीति के समय 'यह बही गकार है' इस प्रकार श्रुत और श्रुयमाण गकार में अभेदग्राहिणी प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकती अत: वह व्यपस्यभेदविषयक न होकर सजातीयाभेदविषयक' वह भी ठीक नहीं है क्योंकि उक्त प्रव्यक्ति के अभेद का अभावरूप न होने से उसके अभेद का साक्षाद विरोधी नहीं है और अमेद के च्यावर्तक अभेवाभाव के व्याप्यरूप में गृहीत भी नहीं है। अतः उस का शान विनष्टव्याप्ति की अभेद बुद्धि का विरोधी नहीं हो सकता। इसलिये गकार में उत्पत्ति और विनाश की प्रतीति के समय भी उत्पन्न रूप में प्रतीत श्रूयमाण गकार में विनष्टरूप में प्रतीत श्रुत गकार के अभेद को ग्रहण करनेवाली प्रत्यभिज्ञा का सम्भय होने से उस के बल से शब्द की नित्यता प्रतिष्ठित करने में कोई बाधा नहीं है। सविस्तर प्रतिपादन का निरसन] शमनित्यत्वयादी के उक्त सविस्तर कथन पर यदि विचार किया जाय तो यह निश्चित होता है कि उक्त कथन से भी शब्द के मनित्यतापक्ष की कोई क्षति नहीं है क्योंकि लून -पुनर्जात केश आदि की प्रत्यभिशा के समान श्रुत पर्व श्रूयमाण गकार आदि के ऐक्य की प्रत्यभिक्षा को भी भ्रम मान लेने में कोई आपत्ति न होने से तथा प्रत्यभिक्षा से भिन्न शब्द की नित्यता का साधक कोई प्रमाण न होने से गकार आदि की उत्पति भौर विनाश की प्रतीति के अनरोध से शब्द की अनित्यता का अभ्यगम निष्कंटक है। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] न च ध्वनिधर्मत्वे तारत्वादीनां ग्रहणमप्युपपद्यते, स्पर्शाद्यनन्तर्भावेन त्वगादीनामशब्दधर्मत्वेन च श्रोत्रस्य तत्राऽव्यापारात् 'सन्तु तर्हि ध्वनयो नाभसा' इति चेत् न, तथापि व्यक्तियोग्यतान्तर्भूतत्वाज्ञातियोग्यतायाः 'तारोऽयम्' इत्यादी ध्वन्यस्फुरणे तद्‌गतता रत्याद्यस्फुरणप्रसङ्गात् । न चेदेवम्; कत्वादिकमपि वायुगतमेवा रोप्येतेति शब्देवयं स्यात्, कादेरपि वा बायुधः स्यात् । 'अस्त्वेवं को दोषः ?' इति चेत् ? वायुगतयोग्यधर्मत्वे तद्गतस्पर्शादिवत् वचा ग्रहप्रसङ्गः, अवयवगुणत्वेऽनित्यत्वस्य परमाणुगुणत्वे चाग्रहणस्य प्रसङ्गः ॥ [ १३९ [ तार-मन्दता शब्द में आरोपित नहीं है । यदि यह कहा जाय कि ' तारत्व मन्दस्य ध्वनि का धर्म है, शब्द में उस का आरोप होता है. शब्द का वह स्वाभाविक धर्म नहीं है अतः तार और मन्द प्रतीत होने वाले शब्दों में भेद न होने से तार और मन्द शब्द की ऐक्य प्रत्यभिक्षा को कहना सम्भव न होने से उस के उप्रान्त से ज्ञात और ज्ञायमान गकार आदि में ऐक्य की प्रत्यभिक्षा को भ्रम नहीं कहा जा सकता तो यह ठीक नहीं है क्योंकि शब्द का अनु आदि रू से ही सर्वदा होता है अतः उस में तारत्व आदि का आरोप नहीं माना जा सकता। कहा भी गया है कि जो पदार्थ बहुधा किसी एक रूप से संविदित होता है वह यदि कभी अन्य रूप से भी संविदित होने लगता है तो वह अन्य रूप उस का आरोपित रूप होता है किन्तु जिस रूप से जो पदार्थ सदा संविदित होता है वह उस का आरोपित रूप नहीं होता । [तार - मन्दता को ध्वनि के धर्म मानने में आपत्ति ] सत्य तो यह है कि तारत्व आदि शब्द की ही स्वाभाविक धर्म है ध्वनि का नहीं, क्योंकि यदि उसे ध्वनि का धर्म माना जायगा तो उस का ज्ञान ही न हो सकेगा क्योंकि वायु आदि स्वरूप ध्वनि के तारत्व आदि धर्मों का स्पर्श आदि में अन्तर्भाव न होने से उसके ग्रहण में स्व आदि का, तथा शब्द का धर्म न होने से उसके ग्रहण में क्षेत्र का व्यापार नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि 'ध्वनि को वायु आदि स्वरूप मानने पर ही उक्त दोष हो सकता है अतः उसे वायु आदि स्वरूप न मानकर नाभस - आकाशमय मान कर उक्त दोष की सम्भावना समाप्त की जा सकती है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जाति की प्रत्यक्षयोग्यता व्यक्ति=आश्रय की प्रत्यक्ष योग्यता पर निर्भर होती है अतः 'तारोऽयम्=यह तार है' इस प्रतीति में नाभस होने के नाते अयोग्य ध्यनि का भान न होने पर उसके तारत्य आदि धर्म का भी भान न हो सकेगा । और यदि अयोग्य ध्यति का धर्म होने पर भी तारत्व आदि को प्रत्यक्ष योग्य माना जायगा तो यह भी कहा जा सकेगा कि ककार, खकार आदि जो धर्म शब्द में प्रतित होते हैं उन में अनेकत्व नहीं है किन्तु शब्द एक ही है। कब, खत्ष आदि जो धर्म शब्द में प्रतीत होते हैं वे शब्द के धर्म न होकर वायु के धर्म हैं, शब्द में उस का आरोपमात्र होता है । अथवा यह भी कहा जा सकेगा कि ककार आदि भी वायु के ही धर्म हैं, शब्द का कोई अतिरिक्त अस्तित्व ही नहीं है । यदि यह कहा जाय कि ' कोई दोष न होने से इस पक्ष का अभ्युपगम हो सकता है। तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कत्व आदि को अथवा ककार आदि को वायु का प्रत्यक्षयोग्य धर्म मानने पर बायु के स्पर्श आदि के समान त्वगिन्द्रिय से उसके ग्रहण की आपत्ति होगी । एवं अवयत्री वायु का गुण मानने पर अनित्यता की तथा वायुपरमाणु का गुण मानने पर उसके अप्रत्यक्षत्व की आपत्ति होगी । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] [ शास्त्रवार्ताः स्त० २०३६ किंच, नित्यत्वे शब्दस्य सर्वदा सर्वोपलब्धिप्रसङ्गः । विजातीयवायुसंयोगादीनां व्यञ्जकत्व च नित्यसर्वगतस्य गकारादेवर्णस्य, श्रोत्रस्य, उभयस्य वाऽऽबारकाणां वायूनामपनयनाद् वर्ण-श्रोत्रतदुभयसंस्कारक्रमेण वक्तव्यम् । तत्र वर्णसंस्कारपक्ष आवारककृतनिशानजनक शक्तिप्रतिबन्धापनयनद्वारा विज्ञानजनकशक्त्याविर्भावने शक्ति-शक्तिमतोः कथञ्चिदर्भवाद् वर्णस्वरूपमेयाविर्भावितं भवति, इति कथं न वर्णस्य व्यञ्जकजन्यत्वम् !, जनकसनिधानप्रागुत्तरकालीनज्ञानजननाऽजननस्वभावभेदावश्यकत्वाच्चेति किमभिव्यक्त्या ? अपि च, वर्णाभिव्यक्तिपक्षे कोष्टयेन वायुना यावद्वेगमभिसर्पता यावान् वर्णविभागोऽपनीतावरणः कृतस्तावत एव श्रवणं स्याद् न समस्तस्य वर्णस्य, इति खण्डशस्तत्प्र [विजातीय वायु संयोग में व्यंजकता की अनुपपत्ति शब्द के नित्यतापक्ष में दूसरा दोष यह है कि शब्द यदि नित्य होगा तो सब को सबंदा उसके प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी । इस के अतिरिक्त यह भी दोष होगा कि विजातीय वायुसंयोग मादि उस का च्यञ्जक न हो सकेगा क्योंकि उस में तीन ही प्रकार से ध्यञ्जकता सम्भव है। एक यह कि वह वर्ण के आवारक का अपनयन कर के वर्ष का संस्कारक होने से पूर्ण का ध्यञ्जक हो । दृसरा यह कि वह श्रोत्र के आवारक का अपनयन कर श्रोत्र का संस्कार होने से वर्ण का व्यञ्जक हो। और तीसग यह कि वह घणे और श्रोत्र दोनों के आवारक का अपन यन कर दोनों का संस्कारक होने से वर्ण का व्यञ्जक हो । इन तीनों प्रकारों में यदि वर्णमस्कार पक्ष को स्वीकार किया जायगा तो घर्ण में व्यनकजन्यता की आपत्ति होगी क्योंकि आवारक से वर्ण की अपनी घिशानजनकशक्ति का जो प्रतिबन्ध होता है उसके अपनयन से वर्ण की विज्ञान जनक शक्ति का आविर्भाव कर के ही विजातीय घायुसंयोग को वर्ण का व्यञ्जक कहना होगा, अतः शक्ति और शक्तिमान में कथंचित अभेद होने से वि० वायुसयोग द्वारा शक्ति का आवि. भाव होने पर शक्तिमान वर्ण का ही आविर्भाव मानना होगा, तो जब वणे यायुसंयोग से आधिभंत होगा तो उम का अर्थ ही यह होगा कि वह घायुमंयोग से जभ्य है, क्योंकि आविर्भाव उत्पत्ति का ही नामान्तर है । दूसरी बात यह है कि शब्द में जब यह स्वभावभेद मानना आवश्यक है कि पद जनक- व्यञ्जक के सन्निधान से पूर्व अपने ज्ञान का अजनक होता है और जनक सन्निधान के उत्तर काल में अपने ज्ञान का जनक होता है तो वह तो जन्य का ही स्वभाव है अतः वायुमंयोग से शब्द की उत्पत्ति मानना ही युक्तिसंगत है न कि उसे अस्वीकार कर अभिव्यक्ति मानना । [खण्डितवण-श्रवण की आपत्ति ] वर्णाभिव्यक्ति पक्षमै एफ और दोष है वह यह कि कोष्ठगत वायु से वर्ण की यदि अभिब्यक्ति होगी तो वायु पूरे घेग से वर्ण के जितने भाग तक पहुंच कर उस के आवरण का अप. नयन कर सकेगा, वर्ण के उतने ही भाग का श्रयण होगा, पूरे वर्ण का श्रवण न होगा । फलतः यणं की खण्डशः प्रतिपत्ति स्वीकार करनी पड़ेगी। यदि कहा जाय कि 'वर्ण निर्भाग है अत: एक ओर आवरण का अपनयन होने पर यह सर्वत्र आवरण मुक्त हो जाता है इसलिये उक्त दोष नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि घणं की निर्भागता के आधार पर जैसे उक्त बात कही जायगी उसी प्रकार यह भी बात कही जा सकेगी कि वर्ण जब एकत्र आवरणयुक्त होगा तो सत्र आयरणयुक्त होगा । फलत: वर्ण का किंचित् भी श्रवण न हो सकेगा क्योंकि Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या, क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ १४१ तिपत्तिः स्यात् । 'निविभागत्वादेकत्रोत्सारितावरणः सर्वत्रापनीता चरणोऽयमिति चेत् ! तर्हि तत एवैकवानपनीतावरणः सर्वत्र तथेति मनागपि श्रवण न स्यात् । ___ अधार्धावृतघटादिवदभिव्यक्तः सन् सर्व एवायं गृह्यते यदवच्छेदेन संस्कारस्तदवच्छेदेन ग्रहणनियमाद नातिप्रसङ्गः । तदुक्तम्-“यथैवोत्पद्यमानोऽय न सर्वैरवगम्यते । दिदेशाद्यविभागेन सर्वान् प्रति भवन्नपि ।।१।। तथैव तत्समीपस्थैर्नादैः स्यादयस्य संस्कृतिः । तरेब गृह्यते शब्दो नदूरस्थैः कथञ्चन ॥२॥" [श्लो.बा.६।८४-८५] इति न दोष इति चेत् ? न, असिद्धमसिद्धेन साधयतो महासाहसिकतापत्तेः, घटस्याप्यावृताऽनावृतदेशयोः खण्डाऽखण्डपतिमासभेदेन मेदसाधनात , तद्वदस्य सबिभागत्वप्रसङ्गात् , सस्कृताऽसंस्कृतदेशभेदात्, अन्यथा सर्वात्मना सस्काराधानेऽन्यत्रावारकाणां शक्तेः प्रतिबद्धमशक्यत्वेनाएकत्र सुन पहनेयाला भी वर्ण सर्वत्र नहीं सुन पडता । अतः जिन स्थानों में वह नहीं सुन पडता उन स्थानों में उसे आवरणयुक्त मानना आवश्यक है और जब वह कहीं आवरणयुक्त होगा तो उक्त रीति से उस का सर्वत्र आवरणयुक्त होना अपरिहाये है। [संस्काराबच्छेदकावच्छेदेन शब्दग्रहण की आशंका] यदि यह कहा जाय कि-' पूर्णरूप से ज्ञान और सर्वत्रज्ञान में भेद है। अतः एक वस्तु पूर्णरूप में ज्ञात होकर भी सर्वत्र अज्ञात हो सकती है। इसलिय यह कहा जा सकता है कि जैसे आधे भाग में ढका हुआ घर अभिव्यक्त होने पर पूर्ण रूप से गृहीत होते हुये भी आवृत्त भाग में अगृहीत रहता है उसी प्रकार शब्द भी अभिव्यक्त होने पर पूर्ण रूप से ही गृहीत होता है। किन्तु जिन स्थानों में आवृत्त रहता है उन स्थानों में भगृहीत रहता है । क्योंकि जिम देश में व्यञ्जक वायुसंयोग से शब्द का भावणापनयन द्वारक संस्कार होता है उस संस्कार से उस देश में ही शब्द ग्रहण का नियम है । अतः एक शब्द के अनावृत्त होने पर सर्वत्र अनावृत्त होने अथवा एकत्र आवृत्त होने पर सर्वत्र आवृत्त होने के प्रसंग मे एकत्र अभिव्यक शब्द के सर्वत्र ग्रहण अथवा एकत्र अनभिव्यक्त शब्द के सर्वत्र अग्रहण का प्रसङ्ग नहीं हो सकता। यह बात इस प्रकार स्पष्ट भी की गई है कि-"जैसे शब्द के अनित्यतापक्ष में जो शब्द उत्पन्न होता है वह दिग्देशविभाग से हीन होने के कारण सब मनुष्यों के दिये समान रूप में उत्पन्न होता है. फिर भी सब मनुष्यों द्वारा गृहीत नहीं होता किन्तु जिस के श्रोत्र से सन्निकृष्ट होता है उसी को गृहीत होता है, उसी प्रकार जिस मनुष्य के समीपस्थ नाद-स्वनि से जिस शब्द का आव. रणापनयन द्वारक संस्कार होता है वह शब्द उसी मनुष्य को गृहीत होता है । व्यञ्जक वनि से दूरस्थ मनुष्यों को कथमपि गृहीत नहीं होता"। अतः शब्दनित्यतापक्ष में उद्भावित उक्त दोष नहीं हो सकता । [घटवत् शब्द में सभागत्व की प्रसक्ति-उत्तर] तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि असिद्ध से असिद्ध का साधन करने पर माधक में महासाहसिकता की आपत्ति होगी और महासाहसिक यानी भविचककारी का कार्य मान्य नहीं होता। कहने का आशय यह है कि आवृतदेश में खण्डप्रतिभास और अनावृतदेश में अखण्डप्रतिभास के भेद से घट की भी भिन्नता सिद्ध होती है। अर्थात् घट के विषय में यह सिद्ध होता है कि घट विभिन्न अवययों के संयोग से उत्पन्न एक अखण्ड अवयवी द्रव्य नहीं है किन्तु अवयवों का समूह है, क्योंकि जब उस के कुछ अवयव आवृत होते हैं तब उस का खण्डप्रतिभास-आंशिक Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अना [ शात्रवार्ता० स्त० १० / ३६ ऽकिञ्चित्करतयाऽतिप्रसङ्गस्य तादवस्थ्यात् । उत्पत्तिपक्षे त्वव्यापकत्वाद् यत्समीपवर्ती वर्ण उत्पन्नस्तेनैवास गृह्यते न दूरस्थैरिति नातिप्रसङ्गः । दिग्देशाद्यविभागेन.... इतेि चातवासंगतम्, गस्य कस्यचिद् वस्तुनोऽसंभवेनाऽनभ्युपगमात् । किञ्च व्यापकत्वेन वर्णानामेकावरणापायेन समानदेशत्वे सर्वेषामनानृतत्वाद् युगपत् सर्ववर्णश्रुतिः स्यात् । न च प्रतिनियतवर्णश्रवणान्यथानुपपत्त्या व्यञ्जकभेदसिद्धेनयिं दोषः स्यादिति वाच्यम्, तदभेदो ह्यावारक्रमेदेस्यात्, अभिन्नावारकापनेतू लभेदाऽसिद्धेः । आवारकमेदश्च वर्णदेशभेदे स्वात् समानदेशानामेकावारकेणैवापरावरणदर्शनात् । देश मेदोऽपि वर्णानामव्यापकत्वे सति स्याद, व्यापकत्वे तु परस्परदेशपरिहारेण तेषामनवस्थानाद देशभेदासिद्धेः । न चाडव्यापकत्व वर्णानामभ्युपगम्यते भवद्भिरिति । 1 १४२ ] दर्शन होता है और जब उस के समस्त अवयव अनावृत होते हैं तब उस का अखण्डप्रतिभान पूर्णदर्शन होता है । सो जैसे आवृत अनावृत देश के भेद से घट सभाग होता है उसी प्रकार वायुसंयोगरूप व्यञ्जक से संस्कृत और असंस्कृत देश के भेद से शब्द में भी सभागत्य की प्रसक्ति अपरिहार्य होगी | इस दोष के निवारणार्थ यदि वायुसंयोग से शब्द का सर्वात्मना संस्कार माना जायगा तो उस से अन्यत्र व्यञ्जक वायुशून्यस्थान में आधारक की शक्ति का प्रतिबन्ध शक्य न होने से व्यञ्जक वायु के समीप भी उस से आधारक की शक्ति का प्रतिबन्ध न होगा। फरत: व्यञ्जकवायु के समीप भी आवृत्त ही शब्द का प्रण मानना होगा और जब पक आवृत शब्द का ही श्रवण होगा तो अन्यत्र भी उस के अवण की आपत्ति दुर्गार होगी । शब्द के उत्पत्तिपक्ष में यह दोष सम्भव नहीं है क्योंकि उस पक्ष में शब्द अध्यापक है अतः जो शब्द जिस के समीप उत्पन्न होगा उस का श्रवण उसी को होगा दूरस्थ पुरुषों को नहीं होगा। शब्द के अनित्यतापक्ष में जो यह बात कही गई कि ' शब्द दिग् देश आदि के विभाग से दीन दोकर सब के प्रति समानरूप से उत्पन्न होता है वह ठीक नहीं है, क्योंकि निर्विभाग किसी भी वस्तु का सम्भव न होने से निर्विभाग शब्द की उत्पत्ति का अभ्युपगम अशक्य है ! [ एक शब्द के श्रवण में सर्वशब्द श्रवणपात्ति ] शब्दनित्यतापक्ष में एक दोष और है, वह यह कि नित्यतापक्ष में शब्द व्यापक होता है, सभी वर्ण सर्वत्र विद्यमान होते हैं अतः किसी एक देश में एकवर्ण के अनावृत होने पर उस देश में स्थित सभी वर्ण अनावृत होंगे, फलतः एक शब्द के श्रवण के समय सभी शब्दों के सहश्रवण की आपत्ति होगी । यदि यह कहा जाय कि पकस्थान में सभी वर्णों का श्रवण न होकर जो प्रतिनियत वर्णों का ही श्रवण होता है उस की प्रकारान्तर से उपपत्ति न हो सकने से विभिन्न शब्दों के लिये विभिन्न व्यञ्जकों की कल्पना होने से उक्त दोष नहीं हो सकता तो यह ठीक नहीं है क्योंकि व्यञ्जक का भेद आवारक के भेद पर निर्भर है । व्यञ्जक को अभिन्न आवारक का अपनयनकर्ता मानने पर उस में भेद की सिद्धि नहीं हो सकती 1 व्यञ्जकभेद की सिद्धि के लिये आधारक का भेद भी तभी सिद्ध होगा जब वर्णों के देश में भेद हो क्योंकि एकदेश में स्थित पदार्थों का एक ही आवरण आवारक होता है । वर्णों का देशभेद भी तभी होगा जब वर्ण अध्यपक हो, क्योंकि व्यापक मानने पर पक के देश को त्याग कर दूसरे का अत्रस्थान सम्भव न होने से देशभेद की सिद्धि नहीं हो सकती और वर्ण की अध्यापकता शब्दनित्यत्ववादी को मान्य नहीं है। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविषेचन । [१४३ व्यजकत्वाभिमतानां नावारकापनेतृत्वेन व्यञ्जकत्वम् , किन्तु वर्णे श्यस्वभावाधानात्, इत्युपगमे तु स्ववाचैव तस्य परिणामित्वमभिहितम् । 'स्वप्रतिपत्तौ सहकारित्वेनैव व्यञ्जकत्वम्', इत्यप्येकान्तनित्यस्य सहकार्यपेक्षाऽयोगाद् न शोभते, विजातीयवायुसंयोगानां कत्वादेरेव जन्यताबच्छेदकत्वौचित्याच, अन्यथा कोलाहलप्रत्ययानुपपत्तः, तत्र काविषयकत्वे च तारतम्यानुपपत्तेः । न च ध्वनिगतमेव तारतम्य तत्रारोप्यत इति सांप्रतम् , तस्याऽश्रावणत्वात् , विलक्षणतारतम्यानुभवाच्च । कत्वादिशब्दत्वादिप्रकारकपत्यझे पृथग्घेतुत्वे तु गौरवम् । न च कत्वादिप्रकारकप्रत्यक्षे दोषामावहेतुस्वमपेक्ष्य विजातीयवायुसंयोगहेतुत्वमावश्यकमिति युक्तम् , तत्र कोलाहलादावपि बहु-बहुविधादिमतिज्ञानभेदवतः कत्वादि-शुक्रीयत्वादिप्रकारकप्रत्यक्षोदयात्, तत्र दोषाऽभावहेतुत्वावश्यकत्वात् । न च [दृश्यस्वभाव के आधान में शब्द-परिणामिता सिद्धि ] यदि यह कहा जाय कि-'शब्दनित्यत्वषादी जिसे शब्द का व्यञ्जक मानते हैं वह शब्द के आवारक का अपनयन करने से शब्द का व्याक नहीं होता अपितु वर्ण में दृश्यस्वभाव का आधान करने से व्याक होता है।'-तो इस कथन से शब्द का परिणामित्व शब्दनिस्यत्ववादी के अपने वचन से ही उत्त हो जाता है जिस से शब्द का नित्यतापक्ष अनायास निरस्त हो जाता है। प्रण के प्रत्यक्ष में सहकारी होने से भी वायुसंयोग को वर्ण का व्यञ्जक मानना समीचीन नहीं हो सकता क्योंकि शब्दनित्यतावादी के मत में वर्ण एकान्त नित्य है और पकान्त नित्य में सहकारी की अपेक्षा युक्तिसंगत नहीं हो सकती क्योंकि सहकारी की अपेक्षा उसी वस्तु में युक्तिसंगत होती है जो सहकारी से उपकृत होता है। एकान्तनित्य वस्तु को सहकारी से उपकृत नहीं माना जा सकता क्योंकि उसे सहकारी से उपकृत मानने पर उपकारात्मना उस में अनित्यत्व की प्रसक्ति होने से उस की एकान्तनियता का भङ्ग हो जायगा। वर्ण को जन्य न मान कर नित्य तथा व्यङ्ग-श्य मानने में एक और दोष है घह यह कि ककारादिवर्ण के नित्य होने पर उस के प्रत्यक्ष को विजातीयघायुसंयोग से जन्य मानना होगा और ऐसा मानने में ककारादिविषयक प्रत्यक्षाव को घिजातीयवायुसंयोग का जन्यतावच्छेदक मानने में गौरव होता है, अतः लाघव की दृष्टि से कत्व, खत्व आदि वर्णधर्मों को ही विजातीयवायुसंयोग का जन्यतावच्छेदक मानना उचित है, इसलिये ककारादि वर्ण अन्य ही है, नित्य एवं व्यङ्गय नहीं है। [शब्द-अनुत्पत्तिपक्ष में कोलाहलपतीति की अनुत्पत्ति] यह मी झातव्य है कि विजातीयवायुसंयोग से ककार आदि की उत्पत्ति न मान कर कत्व आदि रूपों से ककारादि का प्रत्यक्ष मानने पर कोलाहल की प्रतीति की उपपत्ति न हो सकेगी क्योंकि जिस प्रतीति में शब्द के कत्वादि धर्मों का भान न होकर शादत्य मात्र काही भान होता है उसे ही 'कोलाहल प्रतीति' कही जाती है, किन्तु विजातीयवायुसंयोग जब ककार आदि का जनक न होकर कत्यादिप्रकारक प्रत्यक्ष का ही जनक होगा तो कत्यादि के भान से शुन्य शब्दप्रतीति के सम्भव न होने से कोलाहल प्रतीति न हो सकेगी। हाँ, जब ककार आदि की उत्पत्ति मानी जायगी तब तो अनेक वर्णों की पकस्थान में सहोत्पत्ति के दोष से कत्वादि के शान का प्रतिबन्ध होने से कन्धादिभानशून्य शब्दमात्र की प्रतीतिरूप कोलाहलप्रतीति के होने में कोई बाधा न होगी। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] [शानवातास्त० १०/३६ कोलाहलादिकालीन-कत्यादिप्रकार प्रत्याश्ये गुणविशेषम्यैव हेतुत्वम् , तथापि विजातीयवायुसंयोगानां विशिष्य हेतुस्वे गौरदानपायात, गुणविशेषस्य क्षयोपशमविशेषद्वारकत्वेन 'यद्विशेष'. इति न्यायात् सामान्यत एव क्षयोपशमस्य हेतुत्वाच्च । न च स्वाश्रयविषयतयापि कस्वादिकं जन्यतावच्छेदफमिति यक्तुं युक्तम् , कादेः स्वगतधर्मानुविधायित्वेन साक्षादेव कत्वादेस्तत्त्वौचित्यात् , अन्यथा घटत्वादेरपि ज्ञानगतस्यैव तथात्वप्रसङ्गात् । एतेन शुकादिककारादेरपि विषयितया तथात्वं निरस्तम् , शब्दत्वादिग्रहेऽतिप्रसङ्गाऽनिरासाच्च । तदीयश्रवणसमवाये श्रावणत्वस्योपलक्षणत्वेऽतिप्रसङ्गतादवस्यात् । विशेषणत्वे तु प्रथमं केवलशब्दप्रत्यक्षस्वीकारेऽपसिद्धान्तापाता-चेति न किञ्चिदेतत् । एतेन 'नित्यत्वपक्षेऽपि इत्यारण्य दिगन्तं पूर्वपक्षोक्त प्रत्युक्तम् । तन्न वर्णसंस्कारपक्षो ज्यायान् । "कोलाहल की प्रतीति ककार आदि जन्य यौँ को विषय नहीं करती किन्तु दोपयश कत्वादि को विषय न कर नित्य ककार आदि को ही विषय करती है" ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर कोलाहल में प्रतीत होनेवाले तारतम्य की उपपत्ति न हो सकेगी । "युगपत् प्रतीयमान वर्षसमूहरूप कोलाहल में तारतम्य नहीं होता किन्तु उस के व्याक श्यनियों में तारतम्य होता है, कोलाहल में उस ध्वनितारतम्य का ही आरोप होता है"ऐसा भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि ध्वनि वायुरूप है, अतः उस के श्रवणाऽयोग्य तारतम्य का श्रवणाई कोलाहल में आरोप नहीं हो सकता । दूसरी बात यह है कि कोलाहल में ध्वनि के तारतम्य से विरक्षण तारतम्य का अनुभव होता है जो कोलाहल में व्यनितारतम्य के आरोप से नहीं उपपन्न हो सकता । [भिन्न भिन्न वायुसंयोग को कारण मानने में गौरव ] यदि कत्वादिप्रकारक प्रत्यक्ष में अन्यत्रायुमयांग को तथा शब्दत्वादिप्रकारक प्रत्यक्ष में अन्यवायुसंयोग को कारण मानकर कत्यादिग्राहक वायुसंयोग के अभाव में शब्दत्यादिग्राहक वायुसयोग से कोलाहलातीति की उपपत्ति की जायगी तो यहां दो प्रकार के विभिन्न कार्यकारणभाव की कल्पना करने में गौरव होगा । यदि कत्वादि प्रकारक प्रत्यक्ष में घिरोधी दोष के अभाव को भी कारण मानने की अपेक्षा विजातीय वायुसंयोग को ही उसका कारण माना आयगा, एवं कोलाहलस्थल में उस संयोग का अभाय होने से कत्वादिप्रकारक प्रत्यक्ष की अनु. नपत्ति का उत्पादन किया जायगा-तो यह प्रकार भी उचित न होगा क्योंकि जिस पुरुष को बहु-बहुविध आदि विभिन्न मतिशान होते हैं, उसे कोलाहल आदि में भी कत्व आदि एवं शुक्रीयत्व आदि का ग्रहण होता है, वह कोलाहलगत ककार आदि वर्गों को कत्यादिरूप से और यदि घे वर्ण शुकादि के होते हैं तो उन्हें शुकीयत्व आदि रूप से भी ग्रहण करता है अतः कोलाहल के प्रत्यक्षस्थल में भी दोषाभावरूप हेतु का सन्निधान आवश्यक होने से कत्वादिप्रका रक प्रत्यक्ष में दीपाभात्र की हेतुता आवश्यक है। [गुणविशेष की कारणता की शंका का उत्तर ] यदि यह कहा जाय कि -कोलाहल आदि के समय जो कत्वादि प्रफारक प्रत्यक्ष होता है उसमें गुणविशेष ही कारण होता है जो बहु-बहुविध आदि विभिन्न मतिज्ञान के धारक पुरुष में विधमान होने से उसे कोलाहल में कत्यादि का प्रत्यक्ष उत्पन्न करता है, अत: कत्यादि Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविधचन ] प्रकारक प्रत्यक्ष में दोषाभाव को कारण मानने में कोई युक्ति नहीं है'-तो यह कथन भी उचित नहीं है क्योकि कोलाहल स्थानीय कस्यादि प्रत्यक्ष में गुणविशेष को कारण मानने पर भी अन्यस्थानीय फत्वादि प्रत्यक्ष में विज्ञानीयवायुसंयोग को कारण मानना अनिवार्य होने से विभिन्न कार्यकारणभाव की कल्पना से प्रसक्त गौरव की मिति नहीं होती। दूसरी बात यह कि गुणविशेष को भी क्षयोपशम विशेष बाग ही कारण मानना होगा, अतः प्रत्यक्षविशेष और क्षयोपशम विशेष में कार्यकारण भाव होने से यद्विशेषयोः कार्यकारणभावः स तत्सामान्ययोरपि-जिन वस्तुओं में विशेषरूप से कार्यकारणभाव होता है उनमें सामान्य रूप से भी कार्यकारणभाव होता है' इस नियम के अनुसार प्रत्यक्ष और क्षयोपदाम में सामान्यरूप से कार्यकारणभाव का अभ्युपगम अनिवार्य है। अतः कत्यादि प्रकारक प्रत्यक्ष के विषय में यह व्यवस्था ही उचित है कि जब कत्वादि धर्मों के आवरण का क्षयोपशम होता है तब कल्यादिप्रकारक प्रत्यक्ष होता है और जब उक्त प्रयोपशम ही होता तन कम्पादिप्रकारक प्रत्यक्ष नहीं होता । अत. घिजातीयवायुमंयोग को कत्यादिप्रकारक. प्रत्यक्ष का जनक न मान कर ककार आदि का ही जनक मानना उचित है। क्योंकि कत्वादिप्रकारक प्रत्यक्षत्व को विजातीयवायुसंयोग का जन्यतावच्छेदक मानने की अपेक्षा कत्यादि को उसका जन्यतावच्छेदक मानने में लाधव है। [विषयिता सम्बन्ध से जन्यतावच्छेदकता मानने पर आपत्ति ] यदि यह कहा जाय कि- वर्णनिन्यतापक्ष में भी कत्यादिप्रकारकप्रत्यक्षत्व को विजातीयवायुमयोग का जन्यतावच्छेदक न मान कर स्वाध्रय विषयकत्वसम्बन्ध से कत्यादि को ही जन्यतावच्छेदक मानने से गौरव न होगा'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ककार आदि वर्ण अपने कब आदि धर्मों का अनुविधान करते हैं, अतः कत्यकारक प्रत्यक्ष के कारण द्वारा ही उस में ककारादिविषयकस्त्र की उपपत्ति हो जाने से ककार आदि से घटित स्वाश्रय विषयकत्व सम्बन्ध से कत्वादि को जन्यतापदक मानने की अपेक्षा समवायरूप साक्षात् सम्बन्ध से ही कवादि को जन्यतावच्छेदक मानमा उचित है। यदि समवाय और विषयिता दोनों के साक्षात् सम्बन्ध रूप होने से विषयिता सम्बन्ध से कत्यादि को अन्यताषच्छेदक मानकर वर्णनित्यतापक्ष का समर्थन किया जायगा तो विषयिता सम्बन्ध से झानगत घटत्व आदि को जन्यतावच्छेदक मान कर बट आदि की भी जन्यता के अपलाप की आपत्ति होगी। वणे नित्यत्ववादी की ओर से यह भी कहा जा सकता है कि 'वर्णनित्यतापक्ष में ककार आदि वर्ण अनेक न होकर एक-पक व्यक्तिरूप है अतः उनमें कत्वादि सामान्य धर्म का अस्तित्व अप्रामाणिक होने से शुकादि से व्यक्त ककार आदि ही विषयिता सम्बन्ध से विज्ञानीयवायु संयोग का जन्यतावच्छेदक है। किन्तु यह कथन भी निदोष नहीं है क्योंफि शब्दत्वादिप्रत्यक्ष का कोई अन्य कारण न मानने पर ककार आदि के प्रत्यक्ष के कारण का सन्निधान होने पर सदेव शब्दत्वादिरूप से ककार आदि के प्रत्यक्ष की आपत्ति होने से वितिकरूप में ककार आदि का प्रत्यक्ष न हो सकेगा । यदि यह कहा जाय कि- "ककार आदि का प्रत्यक्ष होने पर शरदत्व आदि का प्रत्यक्ष होता ही है, साथ ही मन्तदन्यक्तित्यरूप से भी प्रत्यक्ष होने से ककार आदि के विधिक्त प्रत्यक्ष की अनुपपसि भी नहीं होती । एवं कोलाहल स्थल में भी ककार आदि का प्रत्यक्ष न होने से शब्दत्व आदि के प्रत्यक्ष का अतिप्रसङ्ग भी नहीं हो सकता, क्योंकि तत्पुरुष के श्रवण में Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शासवार्ताः स्त० १०/३६ नापि श्रोत्रसंस्कारपक्षो युक्तः, तस्मिन्नपि पक्ष हि सकृत् संस्कृतं श्रोत्रं सर्ववर्णान् युगपत् शृणुयात् । न ह्यञ्जनादिना संस्कृतं चक्षुः संनिहितं स्वविषयं किञ्चित् पश्यति किञ्चिद् नेति दृष्टम् । न वा बाधिर्यनिराकरणद्वारा तैलविशेषादिसंस्कृतं श्रोत्रं गकारादिकमेव शृणोति न खकारादिकमिति दृष्टम् । नच-समानेन्द्रियग्राह्येष्वप्यर्थेषु व्याखकप्रतिनियमो दृष्टः, तेलाभ्यनस्य मरीचिभिभमेमेघोदकसेकेन गन्धाभिव्यक्तिभेदात् । तथा च व्यञ्जकैर्वायुभिभिन्नेषु कर्णमूलावयवेषु वर्तमानैः प्रतिनियतवर्णग्राहकतयैव श्रोत्रे संस्काराधायकत्वाद् नैकवर्णग्राहकत्वेन संस्कृतं श्रोत्रं सर्ववर्णान् युगपद् गृहणाति । तदुक्तम् समवेन वस्तु के प्रत्यक्ष में तत्पुरुष के श्रवण का समवाय कारण होता है अतः कोलाहलस्थल में ककारादि का श्रात्रण न होने से शश्वत्व में भाषण समवाय न होने से उसका प्रत्यक्ष नहीं प्रसक्त हो सकता"-तो यह ठीक महीं है क्योंकि भावणसमघायरूप कारण के शरीर में श्रावणत्व को उपलक्षण मानने पर कोलाहलम्थल में ककार आदि का श्रावण न होने पर भी उसके श्रावणत्व से उपलशित होने से कारण का सन्निधान ध्रुव है और यदि श्रावणत्व को विशेषण माना जायगा तो सर्वप्रथम शब्दत्यादि से मुक्त शब्दमात्र का श्रावणप्रत्यक्ष मान कर ही शब्दत्यादि का प्रत्यक्ष मानने से अपसिद्वान्त होगा क्योंकि शब्दत्यादि से मुक्त शब्द का प्रत्यक्ष सिद्धान्तविरुद्ध है। उक्त रीति से विचार करने पर प्रस्तुत स्तषक की पांचवी कारिका की व्याख्या में नित्यत्वपक्षेऽपि से(पृ. २६ पं० २)प्रारम्भ कर विग शब्दपर्यन्त (पृ० २७ पं० ८) . चर्चित पूर्णपक्ष निरस्त हो जाता है । अतः वर्णमस्कारपक्ष समीचीन नहीं है। [व्यक द्वारा श्रोत्र के संस्कारपक्ष में सर्ववर्णग्रहणापत्ति ] न्यनक से श्रोत्र का संस्कार होता है यह पक्ष भी समीचीन नहीं है क्योंकि विजातीय वायुसंयोग से श्रोत्र का पक घार संस्कार हो जाने पर उससे सभी वर्गों का एक साथ ग्रहण होना चाहिये, पर एसा नहीं होता । ग्रहण के साधन का संस्कार होने पर उसके ग्राद्य पदार्थों में से किसी का ग्रहण हो, किसी का न हो, ऐसा नहीं हो सकता । जैसे यह नहीं देखा जाता कि व्यञ्जन आदि से चक्षु का संस्कार होने पर उससे किसी सन्निहित वस्तु का दर्शन हो और अन्य सन्निहित वस्तु का दर्शन न हो । किन्तु देवा यह जाता है कि सन्निहित ग्रहण योग्य सभी वस्तुओं का युगपद् दर्शन होता हैं। इसी प्रकार यह भी नहीं देखा जाता कि तेलषिशेष आदि से श्रोत्र का संस्कार होने पर बाधिर्य आदि का निरास हो जाने पर श्रोत्र से गकार आदि वर्गों का ही श्रवण हो और खकार आदि का न हो । किन्तु देखा यह जाता है कि सम्कृत श्रोत्र से समानरूप से सभी वर्गों का ग्रहण होता है । अतः शब्द के व्याक द्वारा श्रोत्र का संस्कार मानने पर सभी शब्दों के युगपत् श्रवण की आपति अनिवार्य है क्योंकि शब्द नित्यता पक्ष में सभी शब्द सदेव श्रोत्र से सन्निहित होते हैं। [ प्रतिनियतवर्णग्रहणानुकुल संस्कार जनक व्यञ्जक की आशंका ] आपाततः यद्यपि यह कहा जा सकता है कि -एक इन्द्रिय से ग्रहणयोग्य पदार्थों में भी व्याक की पृथक् पृथक् भयवस्था देखी जाती है । जैसे; सभी गन्ध घाण से ग्राह्य होते हैं, किन्तु व्यजक भेव से प्राण द्वारा उनका प्रहण विलक्षण होता है। उदाहरण के रूप में तैल • Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्धी विवेचन ] [१४७ "व्यञ्जकानां हि वायूनां भिन्नावयवदेशता । जातिभेदश्च तेनैव संस्कारो व्यवतिष्ठते ।।१।। अन्यार्थप्रेरितो वायुर्यथाऽन्यं न करोति च । तथान्यवर्णसंस्कारशक्तो नान्यं करिष्यति ॥२॥ अन्यस्ताफ्यादिसंयोगेर्नान्यो वर्णो यथैव हि । तथा ध्वन्यन्तरोचारो न ध्वन्यन्तकारिभिः ।।३।। तस्मादुत्पत्त्यभिव्यक्त्योः कार्याापत्तितः समः । सामर्थ्य भेदः सर्वत्र स्यात् प्रयत्न-श्विक्षयोः ॥४॥ [ द्रष्टव्य-श्लो० वात्ति० सू० ६ श्लो० ७९ तः ८२ -इति वाच्यम् । इन्द्रियसंस्कारिणां व्यञ्जकानां समानदेशसमानेन्द्रियमा प्वर्थेषु प्रतिनियतविषयग्राहकत्वेनेन्द्रियसंस्कारकत्वस्य कचिदप्यदर्शनात् । मरीचि-मेघोदकयोस्तु विषयसंस्कारकत्वमेव, नेन्द्रियसंस्कारकत्वम् , सिक्त पदार्य और भूमि के गन्ध को लिया जा सकता है । तल सिक्त पदार्थ जब तेजस किरणों से सम्पृक्त होता है लब उसके गन्ध का ग्रहण होता है, पयं भूमि जब निदाधान्त में मंघमुक्त जल से सिरत होती है तब उसके गन्ध का ग्रहण होता है और यह दोनों ग्रहण एक दूसरे से विलक्षण होते हैं, उनके विषयभूत गन्धों में वैज्ञात्य होता है. यहाँ व्यञक की व्यवस्था का पार्थक्य स्पष्ट है क्योंकि तैलसिक्त पदार्थ का गन्ध तैजस किरणों से दी व्यक्त होता है मेघ मुक्त जल से नहीं होता । ण्यं भूमि का गन्ध मेन मुक्त जल से ही व्यक्त होता है तेजस किरणों से नहीं होता । गन्ध व्यञ्जक के दृष्टान्त से शब्दव्यञ्जक की व्यवस्था का भी पार्थक्य समझा जा सकता है और यह कहा जा सकता है कि व्यञ्जक वायु कर्ण के मूल अवषयों में उपस्थित होकर प्रतिनियत वर्ण के ग्रहाणार्थ ही श्रोत्र को संस्कृत करते है.अतः किसी पक वर्ण के ग्रहणार्थ संस्कृत श्रोत्र से अन्य सभी वर्गों के युगपद ग्रहण की आपत्ति नहीं हो सकती । कहा भी गया है कि-" व्यञ्जक घायु कर्ण के विभिन्न अवयवों से सम्बद्ध होते हैं और उन मे श्रोत्र का विभिन्न जातीय संस्कार होता है। शरदोत्पत्ति पक्ष में असे अन्य शब्द के उत्पादनार्थ प्रेरित वायु शश्वान्तर को नहीं उत्पन्न करता उसी प्रकार अन्य वर्ण के ग्रहणाध अपेक्षित संस्कार के जनन में समर्थ वायु वर्णान्तर के ग्रहणार्थ अपेक्षित संस्कार का जनन नहीं कर सकता । एवं असे अन्य वर्ण के उत्पादक तालुआदिवायुसंयोग से वर्णान्तर की उत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार अन्य ध्वनि के कारणों से वन्यन्तर की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती। उक्त कारण से कार्यमूलक अर्थापत्ति द्वारा शब्द की उत्पत्ति अथवा अभिव्यक्ति दोनों पक्षों में समस्त शब्दों के प्रति समान रूप से प्रयत्न और विवक्षा का सामर्थ्य भेद सिद्ध होता है।" [ इन्द्रियसंस्कारजनक व्यञ्जक से पृथक् पृथक् संस्कार अयुक्त-उत्तर ] किन्तु विचार करने पर यह कथन भी उचित नहीं प्रतीत होता क्योंकि इन्द्रिय को संस्कृत करने वाले व्यञ्जकों में यह कहीं भी नहीं देखा गया है कि वे एक इन्द्रिय से ग्रहण योग्य पदार्थों में एक एक अर्थ के ग्रहणार्थ इन्द्रिय में पृथक पृथक एक एक संस्कार उत्पन्न करते हों। गन्ध व्यञ्जक तेजस किरण और मेवमुक्त जाट का जो शान्त दिया गया वह शम्दव्यञ्जक के विषय में नहीं घटित होता क्योंकि उक्त किरण और उक्त जल विषय के संस्कारक हैं, इन्द्रिय के संस्कारक नहीं है क्योंकि उनसे लेल सिक्त पदार्थ और भूमि के अतिशयित गन्ध की भी अभिव्यक्ति होती है। कहने का आशय यह है कि उक्त व्यञ्जकों के सन्निधान से पूर्व उन पदार्थों में प्राण द्वारा जो गन्ध गृहीत होता है वही उनका सन्निधान होने पर अतिशययुक्त गृहीत होने लगता है अतः उनसे ग्राह्य विषय ही संस्कृत होता है । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] [ शासवात्त० स्त. १०/३६ तैलाभ्यक्तभुवोर्गन्धातिशयस्यैव ताभ्यामभिव्यक्तेः । किञ्च, इन्द्रियसंस्कारकत्वमिन्द्रियगतोपकारजननं विना दुर्वचम् , उपकारश्च मेदाऽभेदविकल्पोपहतः, अन्यथा च व्यञ्जकभेदोपलोप इति न किञ्चिदेतत् । एतेन व्यवहितनिध्यादिमात्रव्यञ्जकमन्त्रादिवत् संनिहितकादिमात्रव्यकवायुभेदोक्तावपि न क्षतिरिति श्रोत्रसंस्कारपक्षोऽपि न साधीयान् । उभयसंस्कारपक्षस्तु प्रत्येकपक्षोक्तदोपोपहत एवेति दिग। एवं च वर्णानामेवाऽनित्यत्यात् कथं जा बजाररूपरम वेदम्प नियनम ! इनि परिभावनीयम् । किन्तु शदव्यञ्जक घायु के विषय में यह बात नहीं है क्योंकि श्रोत्र के साथ उसके सम्पर्क के पूर्व श्रोत्र से किसी भी रूप में वर्ण का ग्रहण होता ही नहीं, अत एव उससे श्रोत्र का ही संस्कार मानना आवश्यक होता है। 1 [वायुसंयोग से श्रोत्र संस्कार की अनुपपत्ति ] एक दूसरी बात यह है कि वस्तुतः वायुसंयोग से श्रोत्र का संस्कार मादा ही नहीं जा सकता क्योंकि जो इन्द्रिय के संस्कारक माने जायेंगे वे इन्द्रिय का कोई उपकार किये बिना उसके संस्कारक नहीं हो सकेंगे और इन्द्रिय में उपकार का जनन माना नहीं जा सकता क्योंकि इन्द्रिय में जननीय उपकार इम्तिय साथ भेट और अभेद का चि में असमर्थ होने से सिद्ध ही नहीं हो सकता। जैसे व्याक द्वारा इन्द्रिय में उत्पाद्य उपकार यदि इन्द्रिय से भिन्न होगा तो उसे भी इन्द्रिय का उपकारक मानना होगा, क्योंकि इन्द्रिय का यदि कोई उपकार न हो तो उसका जम निरर्थक है । अतः इन्द्रिय भिन्न उपकार म पश्न अनन्त उपकार की कल्पना के कारण अनवस्थाग्रस्त है। इस संकट से निस्तार पाने की दृष्टि से यदि व्यञ्जक द्वारा इन्द्रिय के उत्पाथ उपकार को इन्द्रिय से अभिन्न माना जायगा तो व्यञ्जकसन्निधान से पूर्व और बाद में इन्द्रिय में कोई नैशिष्ट्य न होने से व्यञ्जक सन्निधान में बाद भी इन्द्रिय से वर्णग्रहण न हो सकेगा। व्यञ्जफ से इन्द्रिय में उपकार का आधार मानने पर प्रसक्त होने वाले उक्त संकटों से मुक्ति पाने के विचार से यदि यह कहा जाय कि 'इन्द्रिय को व्यञ्जफ का मनिधान मात्र होता है और कुछ नहीं होता' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर व्यञ्जक भेद का लोप हो जायगा क्योंकि ध्यञ्जक द्वारा जब कुछ उत्पाप न होगा केवल उनका सन्निधान मात्र ही होगा तो उस धेत्रिय मानना निरर्थक होगा । अतः इन्द्रिय में उपकार का आधान कि बिना व्यरक चाय को इन्द्रिय का संस्कारक कहने में कोई तथ्य नहीं है। इस सन्दर्भ में यह भी कहा जा सकता है कि जैसे मन्त्रादि व्यतिनिधि आदि का ही व्यञ्जक होता है, अन्य वस्तु का नहीं, उसी प्रकार भिन्न यायु सन्निहित ककार आदि का ही व्यञ्जक होता है। अतएव पफ वर्ण के. व्यञ्जऋचायु का सन्निधान होने पर अन्य मभी वों के ग्रहण की आपत्ति नहीं होती । इस प्रकार अन्य रीति से प्रतिनियत वर्ण के ग्रहण की व्यवस्था हो जाने से तथा वायु से इन्द्रिय का सत्कार मानने में उक्त दोष के प्रसङ्ग से श्रोब के संस्कार का पक्ष भी समीचीन नहीं है। वर्ण और श्रोष दोनों शब्द व्याक वायु से सम्कृत होते हैं। यह तीसरा पक्ष भी मान्य नहीं हो मकता क्योंकि यह पक्ष भी प्रत्येक के संस्कार पक्ष में प्रदर्शित दोषों से ग्रस्त है। अतः उक्त रीति से जब पूर्ण ही अनित्य है तब उनका भमूहरूप घेद कैसे नित्य हो सकता हैं ! यह बात विधानों के लिये सोचने-समझने की वस्तु है। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ १४९ अत्र नैयायिकाःवो न नित्य इति ताबदबादि युक्तं, द्रव्यन्वमस्य पुनरर्थवशाद यदुक्तम् । व्योमैकवर्तिनि गुणे न विराजते तद् , गुल्लेब राजवनितामणिहारमध्ये ॥१॥ सथाहि-शब्दो गुणः, बहिरिन्द्रियव्यवस्थापकत्वात् , रूपादिवत्' इत्यनुमानात् परिशेषेणाम्वगुणस्वसिद्धः कथं तस्य द्रव्यत्वम् ? । तथात्वे हि श्रोत्रेण तस्य ग्रहणं न स्यात्- 'श्रोत्रेन्द्रिय हप नहीं-गुण है-नैयायिक पूर्वपक्ष ] इस परिसंघाद में नैयायिकों का कहना यह है कि जैन विद्वानों ने जो यह बताया कि वर्ण निस्य नहीं है मह तो युक्ति संगत अवश्य है पर प्रत्यक्ष अर्थानुरोध से जो यह बताया कि वर्ण द्रव्य स्वरूप है यह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि वर्ण एक मात्र आकाश का गुण है अतः उसे द्रव्य के मध्य गिन लेना उसी प्रकार अशोभन है जैसे गजरानी के मणिमयहार के बीच गुञ्जा का प्रथन अशोभन होता है। शब्द गुण है, द्रव्य नहीं है यह तथ्य निम्न रीति से सिद्ध होता है:- जैसे 'शब्द गुण है क्योंकि वह बहिरिन्द्रिय का व्यवस्थापक है-'उससे बहिरिन्द्रिय की सिद्धि होती है। जो बहिरिन्द्रिय का व्यवस्थापक होता है-जिससे बहिरिन्द्रिय की सिद्धि होती है, यह गुण होता है, जैसे रूप आदि गुण | कहने का आशय यह है कि इन्द्रिय दो प्रकार की होती है यहिरिन्द्रिय और अन्तरिन्घ्यि । बहिरिन्द्रियाँ पाँच है. प्राण, रसन, चक्षु, स्वक तथा श्रोत्र । अन्तरिन्द्रिय एक है-मन । इन दोनों में अन्तर यह है कि बहिगिन्द्रिय अपने प्राणगुण के सजातीय गुण का आश्रय होती है जैसे-घाण, गन्ध का, रमन रमका, चक्षु रूप का, त्वक स्पर्श का तथा श्रोत्र शब्द काः किन्तु अन्तगिन्द्रिय मन अपने प्राधगुण सुख, दुःख आदि के सजातीय गुण का आश्रय नहीं होता ।। [ शब्द से बहिरिन्द्रिय की सिद्धि और शब्द आकाश का गुण ) शब्द से बहिरिन्द्रिय की सिद्धि इस प्रकार होती है-'शब्द अपने सजातीय गुण के आश्रयभूत इन्द्रिय से ग्राम है, क्योंकि लौकिक सत्रिकर्ष से प्रत्यक्ष योग्य न होते हुये भी प्रत्यक्ष है, जिसे रूप आदि के आश्रयभूत इन्द्रिय संग्राह्य रूप आदि गुण । इस प्रकार शब्द में बहिरिन्द्रिय का व्यवस्थापकत्व सिद्ध होने से उस हेतु से शब्द में गुणत्व की सिद्धि होती है। शब्द में गुणव सिन्द होने पर परिशेपानुमान से उसमें आकाशगुणात्य की सिद्धि होती है। उसका प्रकार यह है “शब्द पृथिवी आदि आठ द्रव्यों से भिन्न द्रव्य में आश्रित है क्योंकि पृथिवी आदि आठ द्रव्यों में आश्रित न होते हुये द्रव्य में आश्रित है। जो उस साध्य का आश्य नहीं होता वह उक्त हेतु का भी आश्रय नहीं होता जो पृथिवी आदि में आश्रित रूगदि अथवा कहीं भी आश्रित न होने वाला महाकाल आदि । हेतु के उभय अंश की सार्थकता ] उक्त हेतु में द्रव्याश्रितत्व का सन्निवेश न करने पर नित्य द्रव्य में हेतु साध्य का व्यभिचारी हो जाता है । इसमें भी द्रव्य का निवेश न करके आश्रितत्व मात्र का निवेश करने पर गुणव आदि में हेतु साध्य का व्यभिचारी हो जाता है । अतः इन दोनों व्यभिचारों के निग. सार्थ हेतु की कुक्षि में व्याश्रितत्व का निधेश किया जाता है, यदि केवल द्रक्ष्याभ्रितत्व को ही Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०] {शावात स्त० १०/३६ हेतु रखा जाय तो गन्ध आदि में वह साध्य का व्यभिचारी हो जाता है। अत: हेतु के शरीर में पृथ्वी आदि आठ द्रव्यों में अनाभितत्व का निवेश आवश्यक होता है। उक्त विशिष्ट हेतु के शरीर में प्रविष्ट द्रव्याधितत्व अंश शब्द रूप पक्ष में गुणत्व हेतु से सिम होता है और पृथ्वी आदि आठ द्रव्यों में अनाश्रितत्य अंश निम्न बीन अनुमानों से सिद्ध होता है। (२) शब्द पृथ्वी जल तेज और घायु में अनाश्रित है यह बात इस अनुमान से सिद्ध होती है कि शब्द स्पर्शवान् व्रव्य (पृथिवी, जल, नेज और यायु) का गुण नहीं है क्योंकि पाक से अमन्य एवं कारण गुणजन्य से भिन्न तथा प्रत्यक्षत्य का विषय है. जसे सुख आदि आत्मगत योग्य गुण । इस हेतु में प्रथम अंश पाकजन्य रूप आदि में, वृसरा अंश अवयश्गुणजन्य अवयवी के गुण में और तीसरा अंश जलपरमाणु आदि के रुपाधि में व्यभिचार के बारणार्थ प्रविष्ट है। (२) शब्द विक, काल और मन इन तीन द्रव्यों में भी अनाश्रित है यह इस अनुमान से सिद्ध होता है कि शरद विक्, काल और मन का गुण्य नहीं है क्योंकि विशेष गुण है, जैसे रूप आदि। शब्द में विशेषगुणत्व भी अनुमान से सिद्ध होता है से 'शब्द विशेष गुण है क्योंकि चक्षु से प्रत्यक्ष होने के अयोग्य तथा बहिरिस्क्रिय ते प्रत्यक्ष हो योर (शान्य जातिका आश्रय है, जो उक्तषिध जाति का आभय होता है, वह विशेषगुण होता है जैसे उक्त विध स्पर्शत्व जाति का आश्रय स्पर्श । 'विशेषगुणत्य' का अर्धं है 'न्याय किंचा वैशेषिक दर्शन में विशेष गुण शब्द से परिभाषितत्व' । उक्त दर्शनों में विशेष गुण शब्द रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, स्नेह, सांसिद्धिक द्रवत्व, शब्द, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म तथा भावनाख्य संस्कार इन सोलह गुणों में परिभाषित है। (३) शब्द आत्मा में भी अनाश्रित है, यह बात इस अनुमान से सिद्ध होती है कि शब्द मात्मा का गुण नहीं है क्योंकि यहिरिन्द्रिय से ग्राह्य गुण है जैसे रूप आदि । ___ उक्त तीन अनुमानों से शब्द में क्रमशः पृथिवी आदि चार द्रव्यों में तथा दिक, काल, मन में एवं आत्मा में अनाधितत्व सिद्ध होने से पृथिवी आदि आट द्रव्यों में अनाश्रितत्व सिद्ध हो जाता है अतः उक्त विशिष्ट हेसु (पृथिवी आदि अष्ट व्रव्यों में अनाश्रितत्व से विशिष्ट द्रव्याश्रितत्व) से शब्द पृथिवी आदि अग्र द्रव्यों से भिन्न द्रव्य में आधिसत्व की सिद्धि होती है। इस प्रकार पृथिवी आदि माठ द्रव्यों से भिन्न जो द्रव्य शब्द के आश्रय रूप में सिद्ध होता है उसी को आकाश कहा जाता है। [ साध्याप्रसिद्धि की शंका का निरसन ] उक्त साध्य के विषय में भी यह प्रश्न उठ सकता है कि-'उक्त परिशेपानुमान के पूर्व पृथिषी आदि अष्ट ध्यों से भिन्न प्रध्य न सिद्ध होने से उससे घटित उक्त साध्य अप्रसिद्ध है। अतः उसकी अन्वय व्याप्ति किंवा व्यतिरेक व्याप्ति का ज्ञान सम्भव न होने से उसका अनुमान कैसे हो सकता है ?--तो इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि पृथिवी आदि अष्ट द्रव्यों से भिन्न द्रव्य में आश्रितत्व यथाश्चत रूप में साध्य नहीं है । किन्तु, उसके स्थान में स्वाश्रयाश्रितत्व सम्बन्ध से पृथिवीभेद. जलभव आदि भेदाधक तथा व्यत्य यह उभय साध्य है । उक्त सम्बन्ध कपालत्य आदि के सम्बन्ध रूप में प्रसिद्ध है. साध्य की कुक्षि में प्रविष्ट पृथिवीभेद आदि भेदाष्टक गुण आदि में प्रसिद्ध है, तव्यत्व पृथिवी आदि में प्रसिद्ध है, अतः साध्य एवं उस का सम्बन्ध दोनों के प्रसिद्ध होने से उक्त साध्य की अनुमिति में बाधा नहीं Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] द्रव्याऽग्राहकम् , रूप-स्पर्शाऽग्राहकथहिरिन्द्रियत्वात् रसनवत्' इत्यनुमानेन श्रोत्रस्य द्रव्याऽग्राहकत्वसिद्धेः । अपि च, शब्दो न द्रव्यम्, एकद्रव्यत्वात्, रूपादिवत् । एकद्रव्यत्वं च तत्र 'एकद्रव्यः शब्दः, सामान्यविशेषवत्त्वे सति वाह्य केन्द्रियप्रत्यक्षत्वात् , रूपादिवत्' इत्यनुमानेन सिद्धम् । न च वायो न्यभिचारः, तस्य बायन्द्रियाऽप्रत्यक्षत्वाद् मूर्तप्रत्यक्षत्वस्यैव संग्राहकत्वलाघवेनोद मृतरूपकार्यतावच्छेदकत्वात् , द्रव्यचाक्षुषत्वस्य तथात्वे गगनादिस्पार्शनवारणाय द्रव्यस्पार्शनं प्रत्युद्भूतस्पर्शत्वेन हेतुत्वे स्पर्शत्वप्रवेशे गौरवात् , अनुभूतत्वामावकूट-स्पर्शत्वयोर्विशेप्यविशेषणभावे विनिगमनाविरहात् । मम तु स्पर्शनिष्ठानुभूतावच्छिन्नप्रतियोगिताकानुद्भताभावयूटत्वनव हतुत्वात्, गगनादौ रूपाभाबादेव स्वाचापत्तेरभावात् , सामान्यसामग्रीमादायैव विशेषसामयाः कार्यजनकत्वनियमात् । अपि च एवं बगिन्द्रियवृत्त्यनुभूताभावस्याप्यनिवेशालाघवम् । हो सकती, इसलिये इस अनुमान से उक्त सम्बन्ध के घटक रूप में उक्त भेदाष्टक तथा प्रध्यत्व इन दोनों के आश्रय भूत आकाश की सिद्धि सुकर हो जाती है। [शब्द को द्रव्य मानने में बाधक और संकट ] निष्कर्ष यह है कि जब उक्त रीति से परिशंषानुमान द्वारा शब्द में आकाशगुणत्व सिद्ध है तो यह द्रव्य कैसे हो सकता है ? यहाँ इतना ही नहीं समझना है कि गुणत्व शब्द में व्रत्यत्व की सिद्धि में बाधक है, अत: उसे द्रव्य नहीं माना जा सकता, अपितु यह भी समझना है कि उसे प्रध्य मानने में संकट भी है। जैसे शरद यदि द्रव्य होगा तो श्रोत्र से उसका ग्रहण न हो सकेगा क्योंकि श्रोत्र द्रव्य का ग्राहक नहीं होता । यह बात अनुमान से सिद्ध है जैसे 'श्रोत्र द्रष्य का अग्राहक है क्योंकि रूप और स्पर्श का अग्राहक बहिरिन्द्रिय है, असे रसनेन्द्रिय ।' शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि न होने का दृप्सरा कारण है शब्द में द्रव्यभिन्नत्व की सिद्धि, जो इस अनुमान से सम्पन्न होती है कि 'शब्द द्रव्य से भिन्न है क्योंकि एक द्रव्यमाघ में आश्रित है जैसे रूप आदि । शब्द एकद्रव्यमात्र में आश्रित है, इस बात की सिद्धि इस अनुमान से होती है कि-'शब्द पक्रव्यमात्र में आभित है क्योंकि सामान्य विशेष-परापर जाति का आश्रय होते हुये केवल एक बहिरिन्द्रिय से जन्य प्रत्यक्ष का विषय है, जैसे रूप आदि ।' [एकद्रव्याश्रित्य हेतु वायु में व्यभिचारी होने की शंका का निरसन ] यदि यह शङ्का हो कि 'उक्त हेतु, वायु में पकद्रष्यत्य का व्यभिचारी है अतः उस हेतु से शब्द में एक द्रव्यत्व का अनुमान नहीं हो सकता' तो इस का उत्तर यह दिया जा सकता है कि वायु के अप्रत्यक्ष होने से उक्तहेतु वायु में नहीं प्रतीत रहता, अतः यह घायु में साध्य का व्यभिचारी नहीं हो सकता । बायु में उक्त हेतु के न रहने का कारण यह है कि मृत प्रत्यक्षसामान्य में उभृतरूप कारण है, यदि वायु का प्रत्यक्ष होगा तो यह भी मूर्तप्रत्यक्ष होगा, अत: वह उदभूतरूपहीन वायु में नहीं उत्पन्न हो सकता । यदि यह कहा जाय कि-' उदभूतरूप को मूर्तप्रत्यक्षसामान्य का कारण मानना नियुक्तिक है, वह तो द्रव्यचाक्षुष का ही कारण है, इसलिये वायु के स्पार्शनप्रत्यक्ष में उतरूपहीनता बाधक नहीं हो सकती, अतः वायु में उक्त हेतु सम्भव Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.२] [ शानधाताः स्त० १०/३६ एतेन 'प्रामाणिकस्य घट-पटादिनिष्ठोपादानप्रत्यक्षादिजन्यत्वस्यावच्छेदकं कार्यस्वमस्तु, संग्राहकस्वात्, न तु घटे घटत्व पटादौ पटत्वादिकम्, गौरचात् । प्रकृते तु स्पर्शनस्य रूपजन्यत्वे मानाभावाद् निश्चिताऽव्यभिचारकत्वाच्च द्रव्यचाक्षुषत्वमेव तथा । अस्तु का मूर्तप्रत्यक्षत्वावच्छिन्ने स्पर्शहेतुता' इत्यपास्तम् , वायोश्चाक्षुपतापत्तेश्च । यदि चापेक्षाबुद्धिभेदेन कूटत्वस्य नानात्वाद् न तादृशानुदभूता होने से व्यभिचार अनिवार्य है'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि उद्भतरूप को द्रव्यचाक्षुप का कारण मानने पर गगन आदि के स्पार्शनप्रत्यक्ष का परिहार करने के लिये द्रव्यस्पार्शन के प्रति स्पर्शत्य के साथ उत्त के उद्भूतस्पर्श को कारण मानना पड़ेगा और स्पर्शगत उदभूतत्य अनुभूत. त्वाभावकूटरूप है, भटाः विशेष्य विशेपणभाव में विनिगमना न होने से द्रव्य स्पार्शन के प्रति अनुभूतत्वाभावकूटविशिष्ट स्पर्शत्वरूप से एवं स्पर्शत्यविशिष्ट अनुभूतत्वाभावकटरूप से स्पर्श को कारण मानने में गौरय गाण! किन्न जन उदभूतकाको मतपत्यानमामान्य का कारण माना जायगा तब व्यस्पार्शन के प्रति स्पर्शनिष्ट अनुदभूतत्व से अवच्छिन्न प्रतियोगिता के निरूपक अनुभूतस्वाभावकूट को ही कारण माना जायगा, यद्यपि यह अभाव अनुदभूतस्पर्शामावरूप होने से गगनादि में भी रहेगा तथापि गगनादि के स्पर्शन की आपत्ति नहीं होगी क्योंकि द्रव्यस्पार्शन विशेष कार्य है, मृतप्रत्यक्षसामान्य कार्य है, विशेषकार्य की उत्पत्ति सामान्य कार्य की उत्पादकसामग्री के सन्निधान में ही होती है यह नियम है। मूर्तप्रत्यक्षरूसामान्य कार्य का कारण उदभूतरूप गगन आदि में नहीं होता, अतः केवल विशेपकार्य की सामग्री से उस के पार्शन की आपत्ति नहीं हो सकती। अध्यस्पार्शन में उक्तरूप से अनुभूतस्पर्शाभावकूट को कारण मानने पर कारणशरीर में स्वमिन्द्रिय में विद्यमान अनुदभूतस्पर्श के अभाव का निधेश आवश्यक नहीं होता अतः उस के अनिवेश से द्रव्यस्पार्शन में अनुभृतस्पर्शाभावकूट को कारण मानने में लाघध भी है। [उद्भूतरूपजन्यता द्रव्यचाक्षुप में ही सीमित करने में गौरव ] ___ मूर्तप्रत्यक्षसामान्य में उदभूतरूप कारण है और द्रव्यम्पार्शन में अनुभूतस्पर्शाभात्रकूट कारण है, न कि द्रव्यचाक्षुष में उदभूतरूप एवं द्रव्यस्पार्शन में उद्भूतस्पर्श'-स के विरुद्ध कुछ विद्वानों का यह कहना है कि- उदभूतरूप को द्रव्यचाचप का कारण न मान कर मृतप्रत्यक्षसामान्य का कारण मानने पर यह भी बात कही जा सकती है कि घट, पट आदि में जो उपादान प्रत्यक्षादि की प्रमाणसिद्ध जन्यता है, संग्रह के अनुरोध से उस का भी अवच्छेदक कार्यत्व है न कि घनिष्टतादृशजन्यता का अबच्छेदक बटत्व एवं पटनिष्ठ तादृशजन्यता का अघच्छेदक पटत्व, क्योंकि ऐसे अनन्त धर्मों को कार्यताघच्छेदक मानने में गौरव है, प्रकृत में स्पार्शन के रूपजन्य होने में कोई प्रमाण न होने से तथा रूप में प्रत्यचाक्षुष के अव्यभिचारी का निश्चय होने से द्रव्यचाक्षुष के ही प्रति उदभूतरूप को कारण मानना उचित है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि मूर्तप्रत्यक्षसामान्य के प्रति स्पर्श कारण है। फलत: इन दोनों ही स्थितियों में वायु के पास एफेन्द्रियजन्य प्रत्यक्षविषयत्व हेतु में पकवट्यत्वरूप साध्य कर व्यभिचार अनिवार्य है।"-किन्तु यह कथन इस कारण निरस्त हो जाता है कि वश्यचाक्षुष के प्रति उद्भूतरूप को कारण मानने पर गगन आदि के स्पार्शन प्रत्यक्ष के वारणार्थ द्रव्यस्पार्शन के प्रति उद्भूत स्पर्श को पृथक् कारण मानना पढेगा और ऐसा मानने में गौरव बताया जा Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ १५३ भावकूटत्वेन हेतुता, अपि त्वनुद्भूतत्वाभावकूटस्पर्शत्वयोर्व्यासज्यवृत्त्यवच्छेदक तोपगमेनानुद्भूतत्वाभावकूटव स्पर्शत्वेनैव तथात्वमिति विभाव्यते; तदा मूर्त प्रत्यक्षत्वावछिन्नं प्रत्येव महत्वोद्भूतरूपस्पर्शयत्वेन हेतुत्वमस्तु इति वायुप्रभादेरुच्छिन्नैव प्रत्यक्षत्वकथा, स्पर्श-रूपादिप्रत्यक्षेणैव तदनुमितिस्मृत्यादिसंभवात् । द्रव्यस्पार्शनजनकतावच्छेद के कत्वनिष्वजातेः सांकर्यवारणाय द्रव्यचाक्षुषजनकतावच् दकैकत्वनिपजातिव्याप्यत्वस्वीकारात् कुतो वाय्वादेः स्पार्शनम् ? प्रकृष्टमहत्त्वोद् भृतस्पर्शयो द्रव्यस्पार्शन प्रति गौरवेणाऽहेतुत्वात् एकस्य विजातीयैकत्वस्यैव तत्त्वौचित्यात् । यदि च सरेणोरचाक्षुपत्वा 1 यदि मूर्त प्रत्यक्ष सामान्य के प्रति स्पर्श को कारण माना जायगा तब वायु के चाक्षुप की आपत्ति होगी और यदि उस के वारणार्थ द्रव्यचक्षुष के प्रति उदभूतरूप को कारण माना और सत्य के विशेष्य-विशेषणभाव में विनिगमनाविरह से उद्भूतरूप में गुरूरूप से दो कारणता की कल्पना होने से गौरव होगा, और यदि चाक्षुष में अनुद्भूतरूपाभावकूट को कारण माना जायगा तो पुनः बायु के चाप्रत्यक्ष की आपत्ति होगी । तो [ वायु में स्पार्शन प्रत्यक्ष विषयता की शंका का उत्तर ] यदि यह शङ्का हो कि अभावगत कृत्व संख्यारूप न हो सकने से अपेक्षाबुद्धिविशेषधित्वरूप होने के कारण अपेक्षाबुद्धि के भेद से भिन्न-भिन्न होता है, अतः फुटत्वरूप अवच्छेदक के भेद से कारणता के प्रसक्त बाहुल्य के भय से द्रव्यम्पार्शन में अनुभूत स्पर्शाभावकृट को कारण नहीं माना जा सकता किन्तु अनुभृतत्वाभावकूट और स्पर्शत्य में व्यासज्यवृत्ति पकावच्छेदकता मान कर अनुभूतत्वाभावकृत विशिष्ट स्पर्शत्व रूप से ही द्रश्य स्पार्शन के प्रति कारणता मानना उचित है। अतः द्रव्यचाक्षुष के प्रति ही उद्भूतरूप को कारण मानना सम्भव होने से वायु के स्पार्शनप्रत्यक्ष में कोई बाधा न होने के कारण उस में बाह्य एकेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष विषयत्व में एक व्रव्यत्वरूप साध्य का व्यभिचार अनिवार्य है।' तो इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि महत्त्व, उद्भूतरूप तथा उद्भूतस्पर्श में एक व्यासज्यवृत्ति अवच्छेदकता मानकर मूर्त प्रत्यक्ष सामान्य में महत्त्व उद्भूतरूप, उद्भूतस्पर्शवत् कारण है ऐसा मानने पर वायु और प्रभा दोनों का प्रत्यक्षत्व यद्यपि समाप्त हो जाता है तथापि उनकी असिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि वायु के उद्भूतस्पर्श का प्रत्यक्ष होने से उस स्पर्श से वायु की और प्रभा के उद्भूतरूप का प्रत्यक्ष होने से उस रूप से प्रथा की अनुमिति हो सकती है। तथा उस अनुमिति से उत्पन्न संस्कार द्वारा कालान्तर में दोनों की स्मृति भी हो सकती हैं । उक्त कारण की कल्पना के फलस्वरूप वायु का प्रत्यक्ष सिद्ध न होने से उसमें उक्त हेतु में साध्य के व्यभि चार की प्रसक्ति नहीं हो सकती । [ वायु के स्पार्शनप्रत्यक्ष के प्रतिक्षेप में स्वतन्त्रमत ] इस विषय में कतिपय स्वतन्त्र विचारकों का यह कहना है कि जिनद्रयों का चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है उन द्रव्यों की एकत्वसंख्या में एक बेजात्य मानकर व्रत्यन्वाक्षुष के प्रति विजातीय पकत्वको कारण मानना चाहिये, एवं जिन द्रव्यों का स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है उन द्रव्यों के पकत्व में भी अन्य वैजात्य मानकर अध्यस्पार्शन के प्रति भी विजातीय पकत्व को कारण Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] [ शास्त्रवार्ता० स्त० १० / ३६ भ्युपगमेन द्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदकत्वनिष्ठजातेरेव द्रव्यस्पार्शनजनकतावच्छेदकैकत्वनिष्ठजातिव्याप्यत्वं किन स्यात् इति विभाव्यते; तदाप्येकस्या एवैकत्यनिष्ठजातेर्द्रव्यचाक्षुष-स्पार्शनोभयजनकतावच्छेदकत्वाद न वाय्वादेः स्पार्शनत्वमिति तु स्वतन्त्राः | यत्तु 'घटाकाशसंयोगद्वित्वादेः स्पायस्यान छत स्वाश्रसत्वसंवन्धेन लौकिकविषयत्वावच्छिन्नत्वाचा भावस्य प्रतिबन्धकत्वं कल्प्यते, व्यासज्यवृत्तिगुणत्वाचत्वावच्छिन्नं प्रति तथात्वे गुणादित्वाचं प्रति प्रकृष्टमहत्त्ववदुद्भूतस्पर्शवत्समवायस्य पृथक्कारणत्वकल्पनापत्तेः । मानना चाहिये क्योंकि व्यस्पार्शन में प्रकृष्ट महत्त्व और उदभूतस्पर्श को कारण मानने में गौरव है अतः एक विजातीय एकत्व को ही प्रत्यस्पार्शन का कारण मानना उचित है । इन दोनों जातियों में सांकर्य न हो इस दृष्टि से स्पार्शन की जनकता के अवच्छेदक एकत्वनिष्ठ जाति को व्याप्य मान लेना चाहिये । वायु में प्रत्यचाक्षुत्र की जनता के अच्छेदक जाति से विशिष्ट एकत्ष के न रहने से उसमें प्रत्यस्पार्शन की जनता के भवच्छेदक जाति से विशिष्ट पकत्व भी नहीं रहता, अतः वायु का स्पार्शनप्रत्यक्ष सम्भव न होने से बाच एकेन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष विषयत्वरूप हेतु उसमें पकद्रव्यत्वरूप साध्य का ध्यभिचारी नहीं हो सकता । 3 यदि यह शङ्का दो कि ' त्रसरेणु को अचाक्षुष मान कर प्रध्यचाक्षुष की अनकता के अबच्छेदक एकत्वनिष्ठजाति को ही द्रव्यस्पार्शन की जनता के अवच्छेदक एकत्वनिष्ठजाति का व्याप्य क्यों न माना जाय ? और यदि यह मानना सम्भव हो सकता है तो वायु का पा प्रत्यक्ष सम्भव होने से वायु में बाह्य एकेन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष विपयत्व में एक प्रयत्य के व्यभि चार का वारण असम्भव है तो इस का उत्तर यह हो सकता है कि द्रव्य के चाक्षुष और स्पार्शन दोनों की जनकता का अवच्छेदक लय की दृष्टि से एकaag एक ही जाति को मानना चाहिये, वायु का चाक्षुष न होने से उसमें तज्जातीय एकत्व का अभाव होने के कारण वायु का प्रत्यक्ष न होने से उसमें उस हेतु में उक्त साध्य का व्यभिचार नहीं प्रसक्त हो सकता । [ स्वाश्रयसमवायसम्बन्ध से त्वाचाभाव की प्रतिबन्धकता - एकदेशी ] प्रस्तृत प्रसङ्ग में कुछ विद्वानों का यह कहना है कि द्रव्यसमवेत के स्पार्शन प्रत्यक्ष का कारण उद्भूतस्पर्श स्थाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से तथा त्वक्संयुक्तसमवायसम्बन्ध से घटाकाश के संयोग तथा घरकाशगत द्वित्व आदि में विद्यमान हैं, अतः उनके स्पार्शनप्रत्यक्ष की आपत्ति होती है, इसलिये द्रव्य से भिन्न सत् के त्याचप्रत्यक्ष के प्रति लौकिकविषयता सम्बन्ध मे त्याच प्रत्यक्षाभाव को स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से प्रतिबन्धक मानना आवश्यक है-स्व का अर्थ हैं त्वाचाभाव, उसका माश्रय है आकाश उसमें समवेत है उक्त संयोग और द्वित्य, अतः उनका प्रत्यक्ष नहीं होता, क्योंकि वे दोनों श्रव्य से भिन्न सत है। अतः उनका त्याचप्रत्यक्ष आकाशनिष्ठ स्त्राचाभाव से प्रतिबद्ध हो जाता है । प्रतिवध्यद में सत् में द्रव्यभिनन कहने पर पृथिवी आदि के चतुरणुक का स्पार्शन भी प्रतिवद्ध हो जायगा, क्योंकि सरेशु का त्याचप्रत्यक्ष न होने से स्वाधाभाव रूप प्रतिबन्धक उक्त सम्बन्ध से चतुरणुक में रहेगा । प्रतिarrer में प्रव्यभिन्न सत् का निवेश न कर द्रव्य भिन्नमात्र का निवेश करने पर अभाव का स्पर्शन भी प्रतिबध्यवर्ग में आ जायगा किन्तु उसमें त्वाचाभाव रूप प्रतिबन्धक उक्त सम्बन्ध से नहीं रहता । | i Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] द्रव्यान्यसत्प्रत्यक्षत्वावच्छिन्न प्रति चाक्षुषाभावस्य तथास्वे च घर-प्रभासंयोगादिस्पार्शनापत्तेदुर्निवारत्वात् , इति वायूष्मादेरपार्शनरवेन तद्वृत्तिस्पार्शनानुपपत्तिः । न च स्पर्शतरद्रव्यान्यसत्त्वाचत्वं तत्प्रतियध्यताबच्छेदकम् , स्पर्शेतरत्वप्रवेशे गौरवात् ; घटा-5ऽकाशसंयोगादौ 'स्पार्शनसामान्यापत्तिवारणाय 'स्वस्पर्शस्पार्शन प्रति स्पर्शत्वेन, परमाण्वादिस्पर्शस्पार्शनवारणाय प्रकृष्टमहत्त्वेन चातिरिक्तकारणत्वकल्पनाच' इति तदसत . सरेबादिघटितसनिकर्षेण द्रव्यत्वादित्वाचप्रसङ्गवारणाय द्रव्यान्यद्रव्य उक्त संयोग और द्वित्व आदि के स्पार्शनप्रत्यक्ष के वारणार्थ यदि ऐसी कल्पना की जाय कि प्यासष्यवृति (उभयवृत्तिा गुण के स्वाचप्रत्यक्ष के प्रति उक्त त्याचाभाष उक्त सम्बन्ध से प्रतिबन्धक है, तो इस कल्पना के अनुसार उक्त संयोग और द्वित्य के उभय वृत्तिगुण होने से उनके स्पार्शनापत्ति का परिहार तो हो जायगा किन्तु गुणादि के त्याचप्रत्यक्ष के प्रति प्रकृष्ट महत्व एवं उक्भूतस्पर्श का जो आश्रय, उसके समवाय को पृथक् कारण मानना आवश्यक होने से गौरव होगा। द्रव्यभिन्न सत् के प्रत्यक्षसामान्य में लौकिकचाक्षुषाभाव को स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से प्रतिबन्धक मानने पर भी उक्त संयोग और द्वित्व के प्रत्यक्ष का वारण हो सकता है किन्तु घट और प्रभा के संयोग के स्पार्शन का वारण नहीं हो सकता, क्योंकि घट और प्रभा दोनों का चाक्षुष प्रत्यक्ष होने से चाक्षुषाभावरूप प्रनिधन्धक स्वाश्रयसमधेतत्व सम्बन्ध से घटप्रभासंयोग में नहीं रहता। इस स्थिति में जब कि व्यभिन्न सत् के त्वाचप्रत्यक्ष में स्वाश्रयसमधेतत्य सम्बन्ध से लौकिकत्वाचाभात्र प्रतिबन्धक है तब घायु और उष्मा के स्पर्श का स्पार्शनप्रत्यक्ष नहीं उपपन्न हो सकता और इस कारण ही वाय का बनिरिन्द्रिय से प्रत्यक्ष न हो सकते बहिरिन्द्रियजम्यप्रत्यक्ष विषयत्व, एकद्रध्यत्वरूप साध्य का व्यभिचारी नहीं हो सक ___यदि यह कहा जाय कि " वायु और उष्मा के स्पर्श का प्रत्यक्ष अनुपपन्न न हो इस दृष्टि से स्पर्श से इतर द्रट्यभिन्न सत् के त्वाचप्रत्यक्ष के प्रति ही उक्त सम्बन्ध से लौकिकत्वाचामाघ प्रतिबन्धक है न कि द्रष्यभिन्न सत् मात्र के त्याचप्रत्यक्ष के प्रति "-तो यह टीक नहीं है क्योंकि प्रतियध्यकुक्षि में स्पर्शतरत्व का निवेश करने में गौरव है। पूसरी बात यह है कि यदि प्रतिवध्यदल में स्पर्शतरत्व का निधेश होगा तो स्पर्श का त्याचप्रत्यक्ष प्रतिबध्य म होगा, फलतः घटाकाशसंयोग मादि में 'यिषयतासम्बन्ध से स्पर्श के स्पार्शन की आपत्ति होगी अतः इस आपत्ति के वारणार्थ विघयतासम्बन्ध से शार्ग प्रत्यक्ष के के प्रति तादात्म्यसम्बन्ध से स्पर्श को धारण मानने में गौरव होगा, प, स्पर्शप्रत्यक्ष के प्रतिवध्य न होने पर परमाणुस्पर्श के भी प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। अन; प्रकृष्टमहत्त्व को भी स्पर्शप्रत्यक्ष के सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से कारण मानना आवश्यक होने से यह एक और गौरत्र होगा । [एक देशी के मत की असमीचीनता ] किन्तु कुछ विद्वानों का यह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि प्रसरेणु आदि से घटित १ यहां 'स्पाशनसामान्यापत्ति' के स्थान में 'स्पर्शस्पार्शनापत्ति' पाठ होगा उचित है । २ यहाँ ‘स्वस्पर्शस्पार्शन' के स्थान में ' स्पर्शस्पार्शन ' पाठ होगा उचित है । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] [ शाखाः स्त० १० / ३६ समवेत स्पार्शनत्वावच्छिन्नं प्रति त्वक्संयुक्त प्रकृष्टमहत्त्वोद्भूत स्पर्शवत्समवायत्वेन प्रत्यासत्तित्वावश्यकत्वात्, द्रव्यान्यसत्त्वाचत्वस्य प्रतिवध्यतावच्छेदकत्वे घटा -ऽऽकाशसंयोगादौ जातिस्पार्शनं प्रति जातित्वादिना हेतुत्वकल्पने गौरवात्, व्यासज्यवृत्तिगुणनिष्ठविषयतया त्या चत्वावच्छिन्नं प्रत्येवोक्तप्रत्यासत्त्या त्वाचाभावस्य यावदाश्रयत्वाचस्य वा हेतुत्वाच्च । न च द्रव्यान्यव्यसमवेत्तस्पार्शनत्वावच्छिन्नं प्रति त्वक्संयुक्तत्वान्चयत्समवायेनैव प्रत्यासतित्वम्, मेहदुद्भूतरूपयोरुभयोः प्रवेशे गौरवात्, तथा च वाय्वादेस्पार्शनत्वे कथं तद्द्वृत्तिस्पर्शादिस्पार्शनम् ? इति वाच्यम् त्वाचत्वस्य विशेषगुणत्वे गुणगुणिनोर्युगपदग्रहणप्रसङ्गात् । उपलक्षणत्वे च पाकज सत्रिकर्ष से अर्थात् त्वक्संयुक्तश्मरेणुसमवाय से प्रसरेणु आदि में प्रव्यत्व आदि के त्याच प्रत्यक्ष की आपत्ति के वारणार्थ यह मानना आवश्यक है कि द्रव्यभिन्न जो व्रयसमवेत, उसके स्पार्शन के प्रति त्वक्संयुक्त जो प्रकृष्टमहत्त्व और उदभूतस्पर्श का आश्रम, उसका समवाय त्वक् की प्रत्यासत्ति है । यह भी ध्यान देने योग्य है कि प्रत्यभिन्न सत् के त्वाप्रत्यक्ष के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से लौकिकत्वाचाभाव को प्रतिबन्धक स्वीकार करने पर भी घराकाशसंयोग आदि में विषयतासम्बन्ध से जातिविषयस्पार्शन का परिहार नहीं हो सकता क्योंकि जाति द्रव्य से भिन्न होने पर भी सत्ता जाति से शून्य होने के कारण मत् नहीं है, अतः जाति का स्पार्शन स्वाभाव के श्रव्य भिन्नसद्विषयक वाचत्यरूप प्रतिबध्यतावच्छेदक से आक्रान्त नहीं है, अत पव उक्त संयोग आदि में विश्यतासम्बन्ध से जातिम्पार्शनापत्ति के निगमार्थ विपयतासम्बन्ध से जातिप्रत्यक्ष के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध मे जातित्व रूप से जाति का कारण मानना आवश्यक होने से गौरव है। उपर्युक्त कारण से घटाकाशसंयोग आदि के स्पार्शन के परिहारार्थ यह मानना उचित है कि व्यासज्यवृत्ति (उभयत्रुति) गुणनिष्ट विषयतासम्बन्ध से त्याचप्रत्यक्ष के प्रति स्वाश्रय सम न्ध से लौकिकत्वाचाभाव प्रतिबन्धक है अथवा या आश्रय का त्वाप्रत्यक्ष कारण है । उक्तसंयोग आदि के यावदआश्रयों में आकाश का त्याच प्रत्यक्ष न होने से उसमें पितासम्बन्ध से त्याचप्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि उसके उभयवृत्ति न होने से त्याचा भाव उसके स्पार्शन का प्रतिबन्धक नहीं हो सकता । तथा वायु में प्रकृष्टमहत्व र उदभूत स्पर्श के होने से उसमें त्वक की उक्त प्रत्यासत्ति का अभाव भी नहीं है । [ महत्व उद्भूतस्पर्श के प्रवेश में गौरव का निरसन ] यदि यह शंका हो कि -' द्रव्य से भिन्न द्रव्यसमवेत के स्पार्शन में त्वयुक्त त्याच वत्समवाय प्रत्यासत्ति है, न कि स्वक्संयुक्त प्रकृत महत्त्ववदुद्तस्पर्शयत्ममाय, क्योंकि उस में " महत्त्व और उदभूत स्पर्श का निवेश होने से गौरव है, अतः वायु का स्पार्शन न मानने पर उसके स्पर्श में संयुक्त त्याचप्रत्यक्षस्यिय का समवाय न होने से उसका स्पार्शन कैसे हो सकता है ? तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त प्रत्यासत्ति के शरीर में त्याचत्य (वा १- यहाँ महदुद्भूतरूपमयोः ' के स्थान में महदुभूत स्पशरुमयो: पाठ होना उचित है । 4 - Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .mmon- A L LAR स्मा. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ १५७ स्पशोत्पत्तिकालेऽपि स्पर्शादिग्रहणप्रसङ्गात् , एकस्यामेव व्यक्तौ कालमेदेनानन्तस्वाचसंभवेन तावत्त्वाचनिवेशापेक्षया महत्त्वोद्भूतस्पर्शयोरुभयोरेव निवेशौचित्याच्चेति विग । एवं चोद मूतरूपाभावाच्छन्दस्य मूर्तद्रव्यत्वे वायुपिशाचादिवद् बहिरिन्द्रियपत्यक्षत्वमेव न घटते । विभुत्वे तु नित्यत्वाजन्यत्वमेव न स्यादिति मीमांसकमतप्रवेशः । कर्णावच्छिन्नश्रोत्रसम्बायस्य शब्दग्राहकप्रत्यासत्तित्वाच्च न तस्य द्रव्यत्वम्, कर्णावच्छिन्नश्रोत्रसंयोगस्य तथात्वे श्रोत्रेण द्रव्यान्तरग्रहणप्रसङ्गादिति । सेयं कदक्षरमयी बत ! गीः परेषां धर्मव्यथेव विदुषां हृदय दुनोति । कुर्मस्तवन गिरमासमताद् वितत्य पीयूषवृष्टिसदृशं प्रतिकारसारम् ॥१॥ प्रत्यक्षविषयत्व) को विशेषण मानने पर स्पर्शगुणा और उसके आश्रयद्रक्ष्य का महग्रहण न हो सकेगा क्योंकि स्पर्श के आश्रयन्त्रव्य का पूर्व में स्पार्शन हुये विना यह वाचप्रत्यक्षविषयता से विशिष्ट न होगा ! अतः स्पर्श के साश संगमस्वा मनत्यमविष यताविशिष्ट का समवायरूप प्रत्यासत्ति न होने से द्रव्य के साथ उसका स्पार्शन न हो सकेगा और यदि त्या चत्व को उपलक्षण माना जायगा तो पाकजस्पर्श के जन्मकाल में उसके स्पार्शन की आपत्ति होगी क्योंकि पाकपूर्यवर्ती स्पर्श के साथ द्रव्य का स्पार्शन पाक से पहले हुआ रहता है। अतः पाकजस्पर्श के जन्मकार में उसका स्पार्शन न होने पर भी बह त्यानत्व से उपलक्षित रहता है। अत एव उस काल में भी पाकजस्पर्श के साथ त्वक्रमयुक, त्याचबोपलक्षित का समवायरूप यक की प्रत्यातत्ति हो सकती है। उपर्युक्त दोष के अतिरिक्त. यह भी द्रष्टव्य है कि कालभेद में एक व्यक्ति का भी त्वाचप्रत्यक्ष अनन्त होता है, अत: विनिगमनाविरह से सभी स्वाच का प्रन्यासति के कलेवर में प्रवेश होने से महान् गौरव होगा, इमलिये उस की अपेक्षा महत्व और उदभूतस्परी का प्रवेश कर पूर्णोक्त प्रत्यासत्ति को स्वीकार करने में ही लाघय है 1 उक्त विचार का सार यह है कि शब्द में उद्भूतरूप तो होता नहीं, अत: उसे मृतव्रत्य मानने पर वायु, पिशाच आदि के समान बहिरिन्द्रिय से उसका प्रत्यक्ष न हो सकेगा और यदि विभु माना जायगा तो नित्य हो जाने से जन्य न हो सकेगा, अतः शब्द को द्रव्य मानने पर मीमांसक मत में प्रवेश की आपत्ति होगी। शब्द को द्रव्य मानने में दूसरा बाधक यह है कि शब्द का ग्रहण कर्णान्छिन्न श्रोत्रसम वायरूप प्रत्यासत्ति से होता है। यदि बह द्रव्य होगा तो श्रोत्र में समत न हो सकने से उक्त प्रत्याति से गृहीत न हो सकेगा। यदि उक्त समवायझर प्रत्यात्ति से उसे ग्राम न मान कर कर्णावच्छिन्न श्रोत्रम योगरूप प्रत्यासत्ति से ग्राह्य भाना जायगा तो श्रोत्र का संयोग अन्य द्रव्य में भी होने से श्रोत्र से अन्य द्रक्ष्यों के भी ग्रहण की आपनि होगी । [शब्दगुणत्ववादी नैयायिकमत का प्रतिकार-उत्तरपक्ष ] शब्द के सम्बन्ध में नैयायिकों की उक्त स्थापना के विरोध का उपक्रम करते हुए व्याख्याकार का कहना है कि-शब्द को क्षणिक अन्य बताने वाले नयायिकों की उक्ति का प्रत्येक अक्षर कुत्सित है, वह विद्वानों के हृदय को धर्मजनित पीडा के समान उद्विग्न करती है। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ r er-- रुपा १५८1 [शासवार्ता० स्त० १०/३६ ___ तथाहि-यत् तावद् बहिरिन्द्रियव्यवस्थापकत्वात् शब्दस्य गुणत्वमुक्तम् तदसत् रूपादीनामपि द्रव्यविविक्तानामसत्त्वेनाऽतथात्वाद् दृष्टान्ताऽसिद्धेः, इन्द्रियान्तराऽग्रामग्राहकत्यस्यैव भिन्नेन्द्रियस्वव्याप्यत्वेन तत्र गुणप्रवेशस्य गौरवकरत्वाच्च । एतेन 'श्रोत्रेन्द्रिय द्रव्याऽग्राहकम्' इत्याद्यपि निरस्तम् , अभयोजकत्वात् । तस्याऽदव्यत्वसाधकमनुमानं च बलवता द्रव्यत्वसाधकानुमानेन बाधितमेव । तथाहि-शब्दो द्रव्यम् , कियावत्त्वात् , शरवत् । निष्क्रियत्वे च तस्य स्वाऽसंबद्धश्रोत्रेण ग्रहणे तस्याऽप्राप्यकारित्वप्रसङ्गः । संबन्धकल्पनायां च श्रोत्रं वा शब्ददेशं गत्वा शब्देन संबध्येत, शब्दो वा श्रोत्रदेशमागत्य तेनामिसंबध्येत ! । नायः नभोरूपस्य श्रोत्रस्य निष्क्रियत्वेन गत्यभावात् । अपान्तरालयतिनामप्यन्यान्यशब्दानां ग्रहणप्रसङ्गात्, अनुवातप्रतिवात-तिर्यग्वातेषु प्रतिपत्त्यप्रतिपत्तीषत्प्रतिपत्तिभेदाभावप्रसाच्च, श्रोत्रस्य गच्छतस्तत्कृतोपकाराग्रयोगात् । नापि द्वितीयः शब्दस्य श्रोत्रदेशागमने स्वयमेव सक्रियत्वामिधानात् । अतः आप्तपुरुष जिन भगवान के सिद्धान्त से अपनी वाणी का विस्तार करके षिद्वानों की मनः पीडा का अमृत-वृष्टि जैसा सारपूर्ण प्रतीकार हम अभी करते है। प्रतीकार में सर्वप्रथम यह कहना है कि बहिरिन्द्रिय का व्यवस्थापक होने से जो शब्द को गुण कहा गया है, वह असंगत है। असंगति के दो कारण हैं-पक यह कि द्रव्य सत्ता न होने से रूप आदि में गणत्व का अभाव होने से इधान्त सिद्ध दसरा यह किरन्द्रियान्तर से अग्राह्य का ग्राहकत्व'ही भिन्नन्त्रियत्व का व्याप्य है। अतः उस की कुक्षि में गुणप्रवेश की कोई आवश्यकता न होने से गुण से पटित को ध्याप्य मानने में गौरव है । फलतः व्यर्थ विशेषण से घटित होने के कारण व्याप्यत्वाऽसिद्धि की प्रसक्ति है। [ शब्द में द्रव्यत्व साधक अनुमान ] शब्द की दृठ्यात्मकता के विरोध में जो इस अनुमान का प्रयोग किया गया कि श्रोत्रन्द्रिय स्वसमवेत का ग्राहक होने से द्रव्य का अग्राहक है वह ठीक नहीं है, क्योंकि स्वसमवेत ग्राहकत्व में द्रव्य के अनाहकत्व की साधकता का कोई प्रयोजक नहीं है 1 प्रत्युत, शब्द में अद्रष्यत्व का साधक अनुमान शब्द में द्रव्यत्य साधक बलवान् अनुमान से बाधित है । शब्द में व्यत्व का साधक अनुमान इस प्रकार है-' शब्द द्रव्यस्वरूप है, क्योंकि क्रिया का आश्रय जसे बाण ।' इस अनमान में अप्रयोजन की शंका नहीं हो सकती क्योंकि शरद को य मानेंगे तो श्रांत्र से स्त्र से असम्बद्ध का ग्रहण होने पर उस में अप्राप्यकारिन्व की आपत्ति होगी । इस भय से शब्द के साथ यदि श्रोत्र के मम्बन्ध की कल्पना की जाएगी, नो इस की उपपत्ति दो ही प्रकार में की जा सकेगी--एक यह कि श्रोत्र शब्द के जन्मस्थान में पहुँच कर शब्द से सम्बन्ध सरे, दूसरा यह कि शब्द म्यं श्रोत्रस्थान में जाकर उस से सम्बन्ध स्थापित करें। इन में प्रथम पक्ष ठीक नहीं है क्योंकि श्रीत्र आकाशस्वरूप होने से निष्क्रिय होने के कारण गतिहीन है और यदि उसे गतिशील माना जाएगा तो वक्ता और श्रोत्रा के मध्य में उपस्थित अन्य अनेक शब्दों के भी थायण प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। साथ ही यह भी दोष होगा कि अनुपात में अर्थात् वक्ता की ओर से श्रोता की ओर वायु का बहाव होने की दशा में शब्द की प्रावण प्रीति होती है, पत्र प्रतिवात में अर्थात् श्रोता की विरुद्ध दशा में बायु का बहाव होने की स्थिति में शब्द की प्रतिपत्ति का जो अभाव होता है, तथा वायु Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ १५९ नम्विदं स्वविकल्प जल्पमात्र, अस्लमो छ योगेन स्वावच्छेदकावच्छेदेन जनितेन शब्देन दशदिक्षु निमित्तपवनतारतम्ये कदम्बगोलकन्यायेन तार-मन्दादिरूपा दश शब्दा आरभ्यन्ते, निमित्तपवनाऽतारतम्ये तु दशदिक्षु वीचीतरजन्यायेनेक एव शब्द आरभ्यते, एवं तैरपि वा शब्दान्तरास्भक्रमेण श्रोत्रप्राप्तेः सुघटत्वाद् नानुपपत्तिरिति येत् ? नन्वेवं 'बाणादयोऽपि पूर्वपूर्व समानजातीय क्षणप्रभवा अन्या एव लक्ष्येणाभिसंबध्यन्ते' इति किं नाभ्युपगम्यते ? । 'प्रत्यभिज्ञानाद् बाणादौ स्थायित्वसिद्धेयं कल्पनेति चेत् शब्देऽपि तर्हि मा भूदियम्, तत्राप्येकत्वमाहिण: प्रत्यभिज्ञानस्य 'देवदत्तोश्चारित एवायं शब्दः श्रूयते' इत्येवमाकारेणोपजायमानस्या बाधितत्वात् । के वक बहाव की दशा में शब्द की जो अस्पष्ट प्रतीति होती है उस सब की अनुपपत्ति होगी, safe as as vs के जन्मस्थान में जाता है तो वह ठीक वहीं पहुँचेगा क्योंकि मनुषात, प्रतिमाल किंवा तिर्यग्वात से श्रोष का कोई उपकार अथवा अपकार सम्भव नहीं है । शब्द ही श्रोष देश में जाता है यह द्वितीय पक्ष भी समीचीन नहीं है, क्योंकि इस पक्ष में शब्द की सयितः स्वयं स्वीकार कर लेने से उस की द्रव्यरूपता की सिद्धि का पथ प्रशस्त एवं निष्कंटक हो जाता है । [ शब्दान्तरारम्भवाद से श्रवणप्राप्ति - नैयायिक ] नैयायिक की ओर से यदि यह कहा जाय कि " जैनों का उक्त कथन अपने कपोल for free का ही उद्गार है क्योंकि न्याय का मत इस से विपरीत है। उस का मत यह है कि त्रीणा आदि शब्दोत्पादक वाथ और आकाश का संयोग अपने अवच्छेदक देश - वीणा आदि के स्थितिदेश से अवच्छिन्न आकाश में जिस अथ शब्द को उत्पन्न करता है. उस से निमित्त भृत वायु के तारतम्य के अनुसार दिशाओं में एक ही साथ तार मन्द आदि दश शब्द ठीक उसी प्रकार उत्पन्न होते हैं जैसे कदम्ब के पुष्प में एक ही साथ दश दल उत्पन्न होते हैं, अथवा निमित्तमृत मायु का तारतम्य न होने पर दशों दिशाओं में एक ही शब्द उत्पन्न होता है। यह उत्पत्ति वीची तरल जैसी होती है। जैसे सरोवर में बेग से कङ्कर का प्रक्षेप करने पर एक बीची उठती है, जिस से क्रम से कई तर पर्याप्त दूरी तक उत्पन्न होती रहती हैं और प्रत्येक तरफ चारों ओर फैल्ली है उसी प्रकार श्रीणा आदि मे पहला शब्द उत्पन्न होने पर उस से क्रम से कई शब्द उत्पन्न होते हैं और प्रत्येक शब्द निमित्तभूत धायु के प्रसारानुसार दशों दिशाओं में प्रसृत होता है। दिशाओं में उस का प्रसार उस के अद्रश्य होने से संयोगात्मक न होकर स्वरूपात्मक होता है । स्वरूपात्मक होने का अर्थ है एक शब्द का दश दिशाओं के साथ स्वरूप सम्बन्ध । आय शब्द से उत्तर शब्द उत्पन्न होने पर क्रम से पूर्व पूर्व शब्द से उत्तरोत्तर शब्द की उत्पत्ति के कम से आध शब्द का सजातीय शब्द श्रोता के कर्णाकाश में उत्पन्न होकर श्रोत्र समवाय सन्निकर्ष द्वारा श्रोता से गृहीत होता है, अतः शब्द के अद्रव्यत्व पक्ष में भी शब्द के जन्मस्थल में दूरस्थ ओता करे उस के श्रवण की अनुपपत्ति नहीं हो सकती । " [ चाणादि द्रव्य में क्षणिकत्वापत्ति - जैन ] नैयायिकों के इस कथन के प्रतिवाद में व्याख्याकार का यह कहना है कि शब्द क्षणिक होते हुए भी जिस रीति से अपने जन्मस्थल से दूर स्थान में भी कार्य करता है। उस रीति Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शाखवा० स्त० १०/३६ 'दूरत्य-नैकट्याभ्यां तार-मन्दादिभेदेन भेदे चुचे साजात्यमेव प्रत्यभिज्ञाविषय' इति चेत् ! न, परिणामभेदेऽपि रक्ततादशायां घटस्येव परिणामिनस्तस्य सर्वथाऽभेदात् । अत एवानुश्रेण्या विश्रेण्या वा मिश्राणामेव पराधातवासितानामेव च शब्दद्रव्याणां श्रवणाभ्युपगमेऽपि न क्षतिः । न च क्षणिकत्वं शब्दस्य प्रत्यभिज्ञायां बाधकम् , तत्र मानाभावात् , शब्दजनकशब्दस्य कार्यशब्देन शब्दजन्यशब्दस्य कारणशब्दनाशेन नाशकल्पने गौरवात्, उच्चरिसशब्दस्य श्रोत्रदेशागमनकल्पनस्यवोचित्यात् : अन्यथा कत्वादिविशिष्टलौकिकप्रत्यक्षानुपपत्तेश्च । से धनुष से छूटने वाला बाण भी क्षणिक होने पर भी अन्यान्य सजातीय बाण की उत्पत्ति के कम से दूरस्थ लक्ष्य का बेघरूप कार्य कर सकता है। अत: बाण को भी स्थिर न मान कर क्षणिक मानन की आपत्ति होगी। यदि धनुष से पृथक् होने वाले और लक्ष्य का वेध करने वाले बाण में पंक्य की प्रत्यभिशा होने से उस की क्षणिकता को अस्वीकार्य माना जाएगा तो शब्द की भी क्षणिकता स्वीकार्य न हो सकेगी क्योंकि देवदत्त आदि के कण्टोत्पन्न शछन् और श्रूयमाण शब्द के ऐक्य को विषय करने वाली 'देवदत्त से उच्चारित शरद को ही सुन रहा हूँ ' इस प्रकार की अबाधित प्रत्यभिशा होती है। यदि यह कहा जाय कि-श्रोता से दूरस्थ वक्ता का शब्द तार, और निकटस्थ वक्ता का शब्द मन्द होता है। अत: तार मन्द आदि के भेद से दूरस्थ और निकटस्थ शब्द में भेद के निर्विवाद होने पर भी जसे उन के सजातीयाऽभेद की प्रत्यभिशा होती है, उसी प्रकार सर्वत्र सजातीयाभेद द्वारा शविषयक प्रत्यभिशा की उपपत्ति सम्भय होने से उस के द्वारा शब्द के स्थैर्य का माधन नहीं हो सकता...'तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जैसे परिणामभेद होने पर भी रक्ततादशा का घट झ्यामतादशा के बट से अभिन्न होता है, उसीप्रकार तारन्य मन्दा आदि परिणामों का भेद होने पर भी परिणामी शब्द की अभिन्नता अबाधित रह सकती है। [ शब्द परिणामी द्रव्य होने से शास्त्रकथनसंगति ] शब्द को द्रश्य मानने पर यह शंका हो सकती है कि यदि श्रोता को आधोत्पन्न शरद का ही श्रयण मानेंगे तो अनुश्रेणी-उच्चारकों की ऋमिक पहिल-में एवं विश्रेणी-उच्चारक की पविक्त से भिन्न श्रेणी में मिश्र पाघ्र प्रगघातवासित शब्दों का श्रवण होता है-आपके इस शास्त्रकथन में असंगति की आपत्ति होगी-' तो ऐमी शंका में कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि ऐसा होने पर भी मिश्र और पराघातवासित शब्द मूल शब्द के ही परिणामविशेष होने से परिणामी शब्द की अभिन्नता बनी रहती है। यदि यह कहा जाय कि 'क्षणिकन्य शब्द की प्रत्यभिशा में बाधक है, अतः प्रत्यभिक्षा से शब्द की स्थिरता नहीं सिद्ध हो सकती-'तो यह भी ठीक नहीं हो सकता क्योकि शध्द के क्षणिक होने में कोई प्रमाण नहीं है। कहने का आशय यह है कि शब्द को क्षणिक मानने पर उसकी उपपत्ति के लिए जन्य शब्द से जनक शब्द का तथा जनक शब्द ( उपान्त्य शब्द ) से जन्य चरम शब्द का नाश मानना होगा। अतः शब्द का क्षणिकत्व पक्ष शब्द नाश की विविध कल्पना से गौरवग्रस्त होगा। इसलिए यही मानना उचित है कि अन्यत्र उच्चारित शब्द श्रोता के श्रोत्र तक वेग से पहुँचता है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ १६१ यश्चैतदुपपादनाय संप्रदायं परित्यज्य–'प्रतियोगितया शब्दनाशे विजातीयपवनसंयोगनाशत्वेन, स्वप्रतियोगिजन्यतासंबन्धेन नाशरवेनैव वा हेतुत्वमुपगम्य विजातीयपवनसंयोगनाशादेव जनक शब्दनाशादेव वा शब्दानां नाशः, इति पवनसंयोगस्योत्सर्गतः क्षणचतुध्यायायितया राडीपारो चतुर्थक्षा निमित्तपवनसंयोगनाशात् पञ्चमक्षणे शब्दनाशः, इति शब्दस्य चतुःक्षणस्थायितया न तृतीय क्षणचर्तिध्वंसप्रतियोगित्वरूपं क्षणिकत्वम् ; नापि निमित्तपवनसंयोगनाशक्षणोत्पन्नशब्दस्य क्षणिकतापत्तिः, निमित्तपचनसंयोगस्योत्पत्तिसंबन्धेन कार्यसहभावेन वा शब्दहेतुत्वात् ; अवच्छेदकतया तारे शुकीयककारादों वा तादृशमावस्य हेतुत्वाद वा । अत एव नैकावच्छेदेन सदृशनानाशब्दोत्पत्तिए' इति नव्य दृशा यह भी शातव्य है कि यदि उच्चारणदेश से चल कर श्रोत्रदेश में शब्द का आगमन न माना जाएगा, तथा शब्द को क्षणिक माना जाएगा तो कत्व आदि से विशिष्ट ककारादि का लौकिक प्रत्यक्ष न हो सकेगा क्योंकि 'क' का उच्चारण होने पर दूसरे क्षण में क और कप का नियिकल्पक होगा और तीसरे क्षण में जब कत्व विशिष्ट का लौकिक प्रत्यक्ष अपेक्षित है तब 'क' का तो नाश हो गया है। [ ककारादि के लौकिक प्रत्यक्ष की नव्यदृष्टि से उपपत्ति ] __ कुछ ऐसे भी नैयायिक हैं जो कत्वादि विशिष्ट ककार आदि शब्द का लौकिक प्रत्यक्ष उपपन्न करने के लिए सम्प्रदाय परम्परागत मान्यता का त्याग कर एक नयी इष्टि अपनाते हैं। उन का कहना यह है कि-शब्द जनक शब्द का कार्यशब्द से और चरम शब्द का जनकशब्द से नाश नहीं होता किन्तु जनक के नाश से नाश होता है। जनकनाश विजातीयपवनसयोग का भी नाश है और उत्पादक शब्द का भी नाश है । अतः उन के अनुसार प्रति. योगिता सम्बन्ध से शब्द नाश के प्रति विजातीयपवनसंयोगनाश अथवा सामान्य रूप से नाश स्वप्रतियोगिजन्यत्व सम्बन्ध से कारण है। जैसे स्व का अर्थ है विजातीयपवनसंयोगनाश अथवा पूर्वशब्द, उस की जन्यता है उत्तर शब्द में, अतः उक्तसंयोगनाश अथवा पूर्वशब्द नाश के अनु. सार उक्तसंयोगजन्य शब्द् में अथवा पूर्वेशन्जन्यशब्द में प्रतियोगिता सम्बन्ध से शब्द नाश की उत्पत्ति होती है । इस कार्यकारणभाव के अनुसार शब्द का नाश शब्द के पञ्चमक्षण में उत्पन्न होगा। अतः शब्द की स्थिति चार क्षण तक होने से उस में तृतीयक्षणसि ध्वस का योगित्वरूप क्षणिकत्व न होने से तीसरे क्षण उस का तौकिक प्रत्यक्ष होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। इस मान्यता में उक्त संयोगनाश से शब्द के पश्चमक्षण में शब्दनाश होने का कम यह है कि उक्तसंयोग के दूसरे क्षण में शब्द उत्पन्न होगा और उसी क्षण में उक्त संयोग के उत्पादक पवनकम का नाश होगा । संयोग के तीसरे क्षण पथन में युसरा कर्म उत्पन्न होगाः चौथे क्षण में पूर्वदेश से पयन का विभाग होगा। पाँचत्रे क्षण में पूर्वपवनसंयोग का नाश होगा । छठे क्षण में यानी शब्द के पायवे क्षण में शब्द का नाश होगा। इस कार्यकारणभाव के अभ्युपगम पक्ष में पवनसंयोग से उस के द्वितीयक्षण में उत्पन्न होने वाला शब्द तो उक्त क्रम से अपने पाँचवे क्षण में नष्ट होने से चार क्षण नक स्थायी हो सकता। पर जो शब्द उक्त संयोग से उस के नाश क्षण में उत्पन्न होगा यह तो उक्त संयोग नाश से दूसरे क्षण ही नष्ट हो जाएगा। अत: उस शब्द में द्वितीयक्षणवृत्ति यस प्रतियो Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ ] [ शास्त्रमा स्त० १० / ३६ निरीक्ष्यते; तेषां बहुक्षणस्थायितामुपेक्ष्य प्रत्यभिज्ञानदर्शनं व्यसनमात्रम् | वस्तुती 'दूरादागतोऽयं शब्दः समीपादागतोऽयं शब्द:' इति 'दूरादागतोऽयं बकुलपरिमलः समीपादागतोऽयं बकुलपरिमल: ' इति प्राणेन गन्धक्रियाविशेषवत् श्रोत्रेण शब्द क्रियाविशेषः साक्षादेव गृह्णत । इत्थमेव श्रोत्राऽप्राप्य - कारित्वाभिमानिशाक्यसिंहविनेयमतनिरासात् क्रियाविशेषग्रहादेव दूरादिव्यवहारोपपत्तः, दूरस्थत्वादेः श्रोत्रेण ग्रहीतुमशक्यत्वात् दूरस्थस्यैव शब्दस्य महे दूरस्थेन महता मेर्यादिशब्देनाल्पस्य मशकादिशब्दस्यानभिभवप्रसङ्गाच्च । न च पवनगतैव गतिः शब्द आरोप्यते स्वाभाविकगतेरन्यगत्यनुविधानानुपपत्तेरिति वाच्यम् इन्द्रनीलामागतेरिन्द्रनीलमत्यनुविधानवदुपपत्तेः । 1 · गित्व सूक्ष्म क्षणिकल्प की आपत्ति यद्यपि प्राप्त होती है. तथापि इस आपत्ति का परिहार पचनसयोग के नाशक्षण में शब्दोत्पत्ति को असम्भव बता कर किया जा सकता है। जैसे यह कहा जा सकता है कि विजातीयपचनसंयोग उत्पत्ति सम्बन्ध से शब्द का जनक है, अथवा काहसान जनक है । अःशब्द का जन्म योग के रहते ही हो सकता है, उस के नाश क्षण में नहीं हो सकता है । अथवा यह भी कहा जा सकता है फि अवच्छेदकतासम्बन्ध से तार शब्द के प्रति कि घा शुकादिप्रभव ककार आदि के प्रति सदभाव कारण है। अतः पश्नसंयोग के नाशक्षण में उस से शब्द की उत्पत्ति नहीं हो सकती क्योंकि वह उस काल में नाश से प्रस्थमान होने के कारण उत्पद्यमान शब्द के भाव नहीं है । इस कार्यकारणभाव को मान्यता प्रदान कर देने से पचनसंयोग से पकावच्छेदेन सह अनेक शब्दों की उत्पत्ति का भी प्रसंग नहीं हो सकता क्योंकि जव अनेक शब्द उत्पाद्य होंगे, तो संयोग उन के सदश न होगा क्योंकि कार णीभूत भाव में कार्य का नाटय उत्पाद-उपविएवं समाख्यात्व उभय रूप से विक्षित है। [ नव्यदृष्टि से किये गये कथन की आलोचना ] कोंके सवन्ध में ख्याकार का कहना है कि जब वे तीन क्षण में शब्दराध की पर मान्यता का त्याग कर शब्द को चार क्षण तक स्थायी मानने को तैयार तर अधिक काल तक स्थायी मान लेने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। स्थायी न व्यक्तियों द्वारा कर कदर्शित आ. उन का एक नाम के इस बात का सूचक मात्र है कि शब्द को मानना, ता की सम्प्रदायानुमत क्षणिकता को विकृत करना एवं भिन्न उच्चारित ककार में यह नहीं कार के इस प्रत्यभिज्ञाको समानीयविषयक करना यह उम्र का व्यसन है । , आया है ।" सत्य यह कि जैसे यह सुगन्ध दूर से आया है यह सुगन्ध समीप इस प्रकार गन्ध परिसर के क्रियाविशेष का घ्राण से ग्रहण होता है, उसीप्रकार यह शब्द दूर से आया है यह समीप में आया है इस प्रकार शब्द का क्रियाविशेषांत्र से प्रत्यक्ष गृहीत होता है । शापसिंह के शिष्यों का जो यह मत है कि श्रोत्र अशाध्यकारी यानी असम्बद्ध का ग्राहक होता है यह मत भी इस रीति से निरस्त हो जाता है, क्योंकि दूर समीप आदि का व्यवहार क्रियाविशेष के शान से ही उपपन्न होता है और दूरस्थत्व आदि का ग्रहण अप्राप्त श्रोत्र से सम्भव नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि यदि दूरस्थ ही शब्द का ग्रहण माना जाएगा तो मेरी आदि के दूरस्थ महान शब्द से भेरी के समीप होनेवाले मशक आदि के शब्दों का Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क, टीका-हिन्दी निघेनन ] अपि च, गुणवत्वादपि द्रव्यं शब्दः । न च गुणवत्त्वमसिद्धम् , कंसपाध्यादिध्वानाभिसबन्धेन कर्णशकुख्यास्यस्य शरीरावयवस्याभिधातदर्शनेन स्पर्शवच्या तस्य तत्सिद्धेः, स्पर्श-वेगसापेक्षक्रियाया अभिघातहेतुत्यात् । 'स्पर्शवता शब्देन कर्णविवरं प्रविशता वायुनेव तद्वारलगतुलशशुकादेः प्रेरणस्यात्-' न स्याद धूमेनानेकान्तात् । भूरे नि पर्शवान, मिशः संघका असोऽ. स्वास्थ्योपलब्धेः, न च तेन चक्षुःप्रदेशं प्रविशता तत्पश्ममात्रस्यापि प्रेरणं समुपलभ्यत इति । न च स्पर्शवत्वे शब्दस्य वायोखि स्पार्शनासाः, धूम-प्रभादिबन्दनु भूत पक्ष वात् । नापि धूमादिवच्चाक्षुपप्रसङ्गः, जलसंयुक्तानलवदनुदभूतरूपत्वाम् । अथ जलसहचरितेनानलेनोग्णस्पर्शवला शरीरदेश. दादबत् तथानिधेन शब्दसहचरितेग बायुनेब श्रावणाख्यशरीरावयवांमधाता न भवाय पर्मवत्त्वमिति चेत् ! न, शब्दतींचतानुविधायित्वेनाभिघातविशेषस्य तद्ध तुकत्वात् । न चानुभूतस्पर्शवता नाभिघात इति सांप्रतम , ताशस्यापि पिशाचादेः पादप्रहारेण तत्संभवात् । 'येगवलि बिरादयबअभिभव न हो सकेगा, क्योंकि शब्दश्रवा के लिए तब शब्द और श्रीन की प्राप्ति अपेक्षित न होगी । तब भरी और मानक दोनों के शब्द दूर से सुन पाने चाहिए। यदि यह कहा जाय कि-' शब्द का होने स गतिहीन है. उस में परन की गति का ही आरोप होता है। यदि ऋद की द्रव्य मान कर उस में स्वाभाविधः गति मानी ज्ञानगी तो यह पवन-गति का अनुविधा- न कर मकेगी-' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इन्ग्रनील की प्रभा की स्वाभाविक गति इन्द्रनील की गति का अनुविधान करती है अतः यह नियम असि है कि स्वाभाविक गति अन्य गति का अनुविधान नहीं करती। [ गुणवान् होने से शब्द में द्रन्यत्व-सिद्धि ] उत्पत्ति स्वर में श्रीता के श्रोन तक पहुँचने के लिए अपहित गति से जसे शब्द में द्रव्याध सिन्द्र होता है असेही गुण में भी शद में द्रव्यत्य सिद्ध होता है। शब्द में गुज अप्रमिद्ध है-यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कांस के बर्तन आदि की पनि का सम्बन्ध होने का शरीर के अवयव कर्णशकली' का अभिघात देखा जाता है। अभिवात. स्पर्श एवं धेगसापेक्ष क्रिया से होता है। अतः उक्त ध्वनि में स्पश की सत्ता मिळू होने से एक में गुश सिद्ध है। यदि शंका हो कि-" स्पर्शवान् शन्दद्ध्य अब कर्णछिद्र में प्रवेश करेगा तब नोनहार प लगे हुए कर्षासातूद या सूत्रप तनु आदि को वायुमधेश की तरह धक्का लगेगा " -तो यह ठीक नहीं है। कारण स्पर्श यान् द्रध्य से धक्का लग ही घसा कोई नियम ifie क्योंकि धूम में वैसा नहीं देखा जात। भृभ भी स्पशेवान् द्रव्य हो , अा: रजकग सर्श की तरह धृम स्पर्श से चच में पीडा होती है यह भी देखा जाता है, किन्तु नेत्र में जब उस का प्रवेश होता है तब नत्र : बाल को धक्का लगता हो, बाल कुछ हीलत हो सा दीखता नहीं। अत: शब्दप्रवेश से श्रोत्रस्थ कर्पासतूल आदि को धका न लगे तो कोई आचर्य नहीं है। " शब्द को स्पर्शवान् माग तो वायु की तरह उस के स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी " -यह भी नहीं कह सकते, क्योंकि धूम और प्रभा की तरह शब्द का स्पर्श भी अनुभूत होता है। धूमादि की तरह शब्द के चाक्षुष प्रत्यक्ष की आपति' को भी अत्रकाश नहीं है क्योंकि उष्णजल गत सूक्ष्म अग्नि अंशों की तरह शब्द का रूप भी अनुभूत होता है। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] (शास्त्रवार्ताः स्त: १०३६ क्रिययवाभिधातः, तत्र स्पो न तन्त्रमिति चेत् ? अस्त्वम्, ताकि गुणस्बम मा हरामेव । अस्पत्व-महत्त्वाभिसंबन्धादपि गुणवान् शब्दः, 'अस्पः शब्दो, महान् शब्दः' इति सार्बजनीनानुभवात् । न च बबतृगतं व्यडकगतं वाऽल्प-महत्त्वमारोप्यत इति वाच्यम्, बाधकाभावात् । न चेयत्तानवधारणं बाधकम् , बारबादौ तदनवधारणेऽप्यरुप महत्त्वावधारणात् । न च तारत्वमन्दत्यजातिभ्यामेव शब्दगताभ्यामल्प महत्त्वव्यपदेशोपपत्तन तत्र परिमाणकरुपनमिति वाच्यम् । तारत्वादेः शब्दगतजातित्वाऽसिद्धेः, कत्यादिना सोकर्यात्, 'कत्या दिव्याप्यं तारत्वादिकं भिन्नमेव' इत्यस्य च दुर्वचत्वात् , 'तारत्वादिव्याप्यं कत्वादिकमेव भिन्नमस्तु' इत्यपि वक्तुं शक्यत्वात् । यदि यह कहा जाय कि-जैसे जलसंयुक्त-उठणम्पर्शवान अग्नि से शरीर प्रदेश का दाह होता है उसीप्रकार शब्द के सहचारी स्पर्शवान् वायु से ही शरीर के कर्ण रूप अवयव का अभिघात हो जाने से शब्द में स्पर्श की सिद्धि न हो सकने के कारण शब्द में गुण असिद्ध है ।-' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अभिघात विशेष शब्द की तीव्रता का अनुविधायी होने से अभियान को शब्दजन्य मानना होगा. अतः उस की उपपत्ति के लिए शब्द को स्पर्शवान् मानमा आव ___ 'शब्द में अनुदद्भुत स्पर्श मानने पर उस से कर्ण का अभिघात नहीं हो सकता । ' यह शंका नहीं की जा सकती क्योंकि पिशाच आदि में अनुभूत स्पर्श होने पर भी उस के पादप्रहार से अभिवात होना प्रामाणिक है। यदि यह कहा जाय कि-वेगवान् निशिडावयव द्रव्य की क्रिया से ही अभिघात होता है। उस में स्पर्श की अपेक्षा नहीं होती । अतः पिशाच के वेगवान् निविडाययव होने से उस के पादप्रहार से अभिघात हो सकता है तो इस कथन से भी शध्द में गुण का व्याघात नहीं हो सकता, क्योंकि उस से कर्ण का अभियात उपपन्न करने के लिए उस में वे ग मानना आवश्यक होने से वेगात्मक गुण से उस की गुणाश्रयता अध्याहन है। [ अल्पतादि के अनुभव से शब्द में गुणसिद्धि ] अल्पत्य-महत्व परिणाम के अभिमत सम्बन्ध से भी शब्द में गुण सिद्ध है क्योंकि 'अल्पः शब्दः-छोटा शब्द. महान् शब्द:-ब्रहा शब्द' इस प्रकार के सबजनास भव से स्व-महात्र सिद्ध है। वक्ता के अथवा व्यञ्जक के अल्पत्य महत्त्र का शब्द में आरोप होता है। यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि शब्द में होनेवाले अल्पाव आदि के अनुभव का कोई बाधक नहीं है और अबाधित अनुभव आरोगात्मक नहीं होता । यदि यह कहा जाय कि शब्द में इयत्ता का अवधारण नहीं होता कि 'अमुक शब्द इतना छोटा अथया इतना महान् है,' जब कि जो परिमाणवान होता है उस की इयत्ता का अवधारण होता है । अत: इयत्ता का अवधारण न होना ही शब्द में अल्पस्व-महत्यादि के अनुभव का बाधक है '-तो यह कहना उचित नहीं है क्योंकि वायु में इयत्ता का अवधारण न होने पर भी उस में अल्पत्व-महत्त्व भादि परिमाण सर्वमान्य है। 'तारत्व-मन्दत्य जाति से ही शब्द में महत्त्व-अल्पत्व का व्यवहार हो सकता है, अत: उस में परिमाण की कल्पना व्यर्थ है। यह कहना भी उचित नहीं है क्योंकि कत्व में मन्द ककार में तारत्वाभाव का सामानाधिकरपया और तार खकार में तारत्व में कत्थाभाय का सामानाधिकरण्य पर्व 'क' में कत्व-तारस्व दोनों का सामानाधिकरण्य होने से कत्व आदि Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. सका-हिन्दीविधेचन ] [ १६५ कार्यमात्रवृत्तिजातेः कार्यतावच्छेदकत्वनियमेन नानातास्त्वाचवच्छिन्ने नानाहेतुकल्पनागौरवाच्च । 'मन्दतीव्रताभिसंबन्धादरुप-महत्त्वप्रत्ययसंभवे मन्दवाहिनि गङ्गानीरे 'अल्पमेतत् इति प्रत्ययोत्पत्तिः स्यात् , तीववाहिनि गिरिसरिन्नीरे — महत् ' इति च प्रतीतिप्रसङ्गः ' इत्यपि वदन्ति । न चात्र क्रियानिष्ठयोरेब मन्दत्व-तीव्रत्वयोः प्रत्ययः, शब्दे तु स्वगतयोरेवेति विशेष इति वाच्यम् । शब्देऽपि ' मन्दमायाति, तीत्रमायाति शब्दः' इति क्रियानिष्ठयोरपि तयोः प्रतीयमानत्वात्, क्रियाधर्मस्य क्रियावत्युपचाराश्च नीरेऽपि दृश्यत एव 'इदं नीरं मन्दम्, इदं तीव्रम् । इति न किञ्चिदेतत् । वाघुना प्रतिनिवर्तनात् संयोगादपि तथा, गन्धादिवत् प्रतिकूलवायुनाऽऽश्रअनिवर्तनस्य दुर्घचत्वात् , तदाश्रयस्य भवद्भिर्यापकस्याभ्युपगमात्, शब्दात् शब्दोत्पत्तेश्च निरस्तत्वात् । 'तन्निरासे के सांकर्य से तारत्व आदि में शब्दगत जातिरूपता असिद्ध है। 'कन्य, ग्रत्व आदि की व्याख्य तारत्व आदि जाति अनेक ' यह कहना भी कठिन है क्योंकि विनिगमनाविरह से तारत्व आदि का व्याप्य कल आदि अनेक हैं, यह भी कहना सुकर है । इस के अतिरिक्त तारस्य आदि को अनेक मानने में एक यह भी दोष है कि कार्य मात्र में रहनेवाली जाति कार्यताबच्छेदक होती है यह नियम हैं; अतः इस नियम की उपपत्ति के लिए विभिन्न तारत्व आदि को विभिन्न कारणों का कार्यतावच्छेदक बनाने के निमित्त से अनेक कार्यकारणभाष की कल्पना आवश्यक होने से गौरव होगा। [ तीव-मन्दता से अल्प-महत्त्व प्रतीति मानने में दोष ] यह भी ज्ञातव्य है कि यदि शब्द में होने वाली अल्पत्य महत्त्व की प्रतीतियों की उपपत्ति मन्दता और तीव्रता द्वारा की जायगी तो मन्दघाही अगाध गंगाजल में अल्पत्य की एवं तीववाही पहाडी झरनों में महत्व की प्रतीति की आपत्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि-'गंगानीर में अल्पत्त्र और पहाड़ी झरनों में महत्व की प्रतीति का आपादान नहीं हो सकता, क्योंकि मन्दता, तीव्रता गंगानीर में न होकर उस की क्रिया में है । अत: तद्गत मग्दता तीव्रता को ही तदगत अल्पत्व महत्व प्रतीति का नियामक मानने से उक्त आपत्ति नहीं हो सकती। और शब्द में उक्त प्रतीति की उपपत्ति हो सकती है, क्योंकि यह शब्द की ही मन्दता और तीव्रता से सम्मादनीय है '-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यदा कदा शब्द में भी किया की ही मन्दता-तीव्रता से अल्पत्व-महत्व की प्रतीति होती है। जैसेः शब्दः मन्दमाया ति-शब्द मन्दता से आ रहा है' इस प्रतीति से 'शब्द अल्प है। इस प्रतीति की, श्यं शब्दः तीममायाति-शब्द तीव्रता से आ रहा है। इस प्रतीति से 'शब्द महान् है। इस प्रतीति की उत्पत्ति होती है। दूसरी बात यह है कि क्रियाधर्म का क्रियात्रान में उपचारन्गीण व्यवहार देखा भी जाता है। जैसे मन्द बहते हुप नीर को मन्द शरद से और तीन बहुत हप नीर की तीन शब्द से लोक में शतशः ध्यबहूत होते हुए देखा जाता है । अत: 'तगत मन्दता-तीव्रता से ही तद्गत अल्पता, महत्ता की आरोपात्मक प्रतीति होती है' यह नियम असिद्ध है। [ वायु प्रतिनिवतन से सिद्ध संयोग से शब्द में द्रव्यत्वसिद्धि ] वायु से शब्द का प्रतिनिवर्तन यानी पीछे की ओर प्रेरण होने से शब्द में घायु का संयोग सिद्ध है, अतः संयोग से भी शब्द में प्रध्यत्व का अनुमान हो सकता है । यह मानना Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] [ शास्त्रवार्ता स्त० १० / ३६. L कथमेक एव शब्दों बहुभिः प्रतीयते ?' इति चेत् । यथैक एव चम्पका दिगन्धो बहुभिः प्रतीयते तथेति विभावय । तदवयवानां दिक्षु प्रसरणवत् शब्दावयवानामपि तदुपगमात् । चम्पकादिभ्यो निर्गता द्रव्यान्तरीभृता एव चम्पकावयवा यथावातं प्रसरन्ति न तु चम्पकोऽपि, अदृष्टवशाद् बच्छू तायामिव नियतावयवान्तराऽगमनाच्च न चम्पके च्छिद्राद्यापत्तिः न चायं शब्दे न्याय इति चेत् न चम्पकी यगन्धप्रत्यभिज्ञाना दवयवान्तरागमकल्पने गौरवाच्चावस्थितस्यैव चम्पकस्य तथापरिणामकल्पनात् शब्दस्याप्यवस्थितस्यैव दिविदिध्यामिसंभवात् । आगममूल्यास्साकमयमर्थ इति दिक । C संभव नहीं है कि जैसे प्रतिकूल बायु से आश्रम नियन द्वारा गन्ध आदि गुणों का नियन होता है उसीप्रकार य निवर्तन के द्वारा शब्द आदि का भी निवर्तन हो सकता है :क्योंकि शब्दावादी नयायिक के मत में शब्द का आश्रय आकाश व्यापक माना जाता है। अतः उसका निवर्तन सम्भव नहीं है । प्रतिकृद वायु से शब्द निवर्तन के अनुभवस्था में यदि यह कहा जाय कि शब्द का निवर्तन नहीं होता अपितु वायु के प्रति होने पर शब्द की अभिमुख दिशा में शब्द की उत्पत्ति न होकर पीछे की ओर शब्द की उत्पत्ति होने लगती है । -तो यह कहना शक्य नहीं है क्योंकि राज्य से शब्द की उत्पत्ति का इस आधार पर निरास किया जा चुका है कि शब्द को द्रव्य मान लेने पर बक्ता के मुख से अथवा श्रीणा आदि से उदूभृत शब्द ही गति द्वारा धोना के कान तक पहुँच सकता है । अतः शब्द के जन्मस्थल से श्रोता के कान तक अनेक शब्दों के जन्म की कल्पना में महान गौरव है । [ अनेक पुरुषों द्वारा एक शब्द के ग्रहण की उपपत्ति ] यदि यह शंका हो कि ' शब्द से शब्द की उत्पत्ति न मानने पर शब्द के जन्मस्थल के चारों ओर उपस्थित अनेक श्रोताओं को एक ही शब्द का ग्रहण कैसे होगा ? - ता इस का उत्तर यह है कि जैसे चम्पक आदि पुष्पों का एक ही गन्ध विभिन्न स्थानों में अवस्थित पुरुषों द्वारा गृहीत होता है उसी प्रकार एक शब्द भी अनेक पुरुषों द्वारा गृहीत हो सकता है, क्योंकि पुष्प के अवयव जैसे दिशाओं में फैल जाते हैं उसी प्रकार शब्द द्रव्य के अवयत्र भी दिशाओं में फैल जाते हैं । यदि यह कहा जाय कि चम्पक आदि से निकले चम्पक आदि के अवयव अवयवी चम्पक से भिन्न द्रव्य है। अतः बायु के साथ उन का फैलाव हो जाता है। किन्तु मूल पुण अपने स्थान में ही अवस्थित रहता है ! और जैसे भूमि के गर्भ में बड़े बीज के टूटने पर बीजाराम से अन्य अवयत्रों का सम्पर्क होकर अकुरादि की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार चम्पक के कुछ अनयत्रों के पृथक हो जाने पर भी अवश जियत नवीन अवययों से निकले aara की रिक्तता की पूर्ति हो जाने से पुप में छिद्रादि नहीं होता। किन्तु यह बात शब्द में सम्भव नहीं है क्योंकि ऐसा अनुभव नहीं है कि विभिन्न पुरुषों को शब्द के अवयव सुनाई पड़ते है और मूल शब्द अपने स्थान में यथापूर्व बना रहे तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अक के गन्ध की प्रत्यभिशा होती है अर्थात् चम्पक के गन्ध का एक बार अनुभव होने के बाद जब गन्ध कर पुनः अनुभव होता है तो इसप्रकार की प्रत्यभिक्षा होती है कि जो गन्ध एक घण्टे के पूर्व गृहीत हुआ था वही अब भी गृहीत हो रहा है । पवं पुष्प के गन्ध " Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याः क. टीका-हिन्दी विवेचन ] एकत्यादिसंख्यायोगादपि तथा, 'एकः' शब्दः, द्वौ शब्दो, बहवः शब्दा; ' इति प्रतीतेः । न चाधारसंन्योपचारात् तथाव्यपदेश इति युक्तम् आधारस्यकत्वाद् बहुप्वप्येकत्वव्यपदेशापत्तेः । विषयसंख्योपचारे घ गगना - 5ऽकाशयोमशब्देषु बहुत्वव्यपदेशानापत्तिः, गगनलक्षणम्च विषयस्यैकत्वात् । न स्याच्च ‘एको गोशब्दः । इशि स्वप्नेऽपि अतीतिः, वामनकत्वात । अपिच, घटादाविव निरूपचरितमेच शब्द एकत्वाधिक प्रतीयते, परम्परा सबन्धेन चलक्षायेन वा तदप्रत्ययात् । गतेन 'यथाऽविरोधं संख्योपचारः । इति पदाथै पत्यवादकत्यादिकम् , बुद्रिविशेषयिषवरूपमेव का अनुभव कर पृष्प से कल देर जान पर जा पुनः गन्धानुभव होता' म समा भी यह प्रत्यभिज्ञा होती है, कि य हे निकट जो गन्ध गृदीन असा शायद पुपए में गली दूर पर भी ग्रीन हो किन्तु चम्पक के अधयों का निगम और न अवयवों के सम्पर्क से चएफ. के. निर्गत अवययों की रिक्तता की प्रति मानने पर उक्त प्रत्यभिक्षाओं की पति नहीं हा सकती क्योंकि म चम्पक और गानुक अश्यों में पुष होनाल, बम्पक में भेद होने के कारण उन के गाध में श्री मंद होता है। अस्यय अवप्रया में मंद होने के कारण चम्पक और उस से निर्गत अवयवों के गन्ध में भी भंद होता है। अत: चम्पक के विषय में यही मानना उचित है कि चम्पक के अवयव उस से निर्गत नहीं होत किन्तु चम्पक अपने अवयवों के साथ अपने स्थान में समान रूप में अवस्थित रहता है । किन्तु उस के से परिणाम उत्पन्न होते हैं जो देर तक फेल कर चम्पक के गन्ध का अनुभव उत्पन्न करते हैं। यही बात शब्द के विषय में भी मानना उचित है क्योंकि सा स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है कि शब्द अपने स्थान में यथापूर्व अवस्थित रहता है फिर भी विभिन्न दिशाओं और अवान्तर दिशाओं में उस की व्या तिरूप उसका परिणाम उत्पन्न होता और इसीलिये एक ही शब्द विभिन्न दिशाओं में विभिन्न पुरषों द्वाग गृहीत होता है। व्याशाकार का याहना है कि शब्द द्रव्यान्मक यह उन की कोरा कल्पना नहीं है। फिन्तु यह विषय आगमनमामूलक है, जैन आगमों में शब्द द्रा होने का कहा गया है । [ एकलादि संख्या के योग से शब्द में द्रव्यत्व सिद्धि ] ___ एकम्य आदि संख्या के सम्बन्ध में भी द्रव्यत्व की मिद्धि होती है क्योंकि एक. द. दो शब्द, बहुन शब्द इस प्रकार की प्रतीतियों से शब्द में रकत्वादि मख्या मित्र है। संख्या गुणर रूप है और गुण द्रध्य में ही आश्रित होता है, इसशिपः संख्या का आयय होने से शब्द को ध्यात्मक मानना आवश्यक है। आश्रय की संख्या से शब्द में संख्या के उक्तव्यबहार की उपपत्ति नहीं की जा सकती क्योंकि न्याय रत में उस का आश्रय आकाश एक है, अन उस की मंख्या से द्वित्व, बहुत्य आदि के व्यवहार का उपपादन अशक्य है। प्रत्युत, आश्रय की मरख्या मे शब्द में संख्या व्यवहार का ममर्थन यापन पर आश्रय के पक होने से बहुत शादों में भी पकत्व व्यवहार की आपत्ति होगी। शतप्रतिपाद्य अर्थ की संख्या का भी शब्द में गौण ध्यवहार नहीं माना जा सकेगा क्योंकि ऐसा मानने पर आकाश के एक होने से उस के बोधक 'भगन आकाश व्योम' आदि शब्दों में भी बहुत्व व्यवहार की अनुपपत्ति होगी । और गो शब्द से प्रतिपाध गौ के असंख्य होने से ‘गोशब्दः एकः' इसप्रकार गो शब्द में एकत्व प्रतीति की स्वप्न में भी उपपत्ति न हो सकेगी। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] बा' इत्यादि निरस्तम् । एवं 'क्रियावत्त्वात् गुणवत्त्वाच्च शब्दो द्रव्यम् तस्याऽद्रव्यत्वसाधकानुमानम् । [ शाखा स्त० १० / ३६ इति बाधितं अपिच ' एकद्रव्यत्वात्' इति हेतुरप्यसिद्धः, 'एकद्रव्यः शब्दः ' इत्याद्यनुमाने वायुनैव व्यभिचारात्, तस्याऽप्रत्यक्षत्वे घटादेरपि तथात्वप्रसङ्गात् स्वचा स्पर्शस्येव चक्षुषापि रूपस्यैव प्रतीतेः सुवचत्वात् ' पश्यामि स्पृशामि इति घिया घटादेर्दर्शनस्पर्शनाभ्यां प्रत्यक्षत्वोपगमे च वायावपि 'खरः, मृदुः उष्णः, शीतो वायुमें लगति' इति प्रतीतेस्तथात्वं किं नोपेयते ? । न चेयं स्वशामि इत्या प्रतीतिर्न स्पार्शनी, अपि तु मानसीति वाच्यम् ; त्वग्व्यापार एव तदुदयात्, L 7 [ घट और शब्द में समानरूप से एकत्वादि की प्रतीति ] दूसरी बात यह है कि जैसे वर आदि में एक आदि का प्रत्यय एवं व्यवहार औपचारिक न होकर मुख्य होता है, उसीप्रकार शब्द में भी एक आदि का प्रत्यय और व्यवहार अनौपचारिक पर्व मुख्य ही होता है। ऐसा नहीं होता कि घटादि में पकत्व आदि की प्रतीति साक्षात् सम्बन्ध से हो और शब्द में परम्परा सम्बन्ध से हो, घट और शब्द में होने वाली पकत्वादि की प्रतीतियों में वैलक्षण्य भी नहीं अनुभूत होता । अतः घट और शब्द में होने वाली एकत्वादि की प्रतीतियों में वैषस्य की कल्पना निराधार है । यह मत भी उक्त कारण से ही निरस्त हो जाता है कि संख्या का उपचार अविरोध के आधार पर होता है। अतः जैसे प्रध्य, गुण आदि में घटत्व संख्या बुद्धिविशेषविषयत्वरूप है उसीप्रकार शब्द में प्रतीत होनेवाला एकत्व आदि बुद्धिविशेषविषयत्वरूप ही है, क्योंकि घट आदि ब्रrों में होनेवाली तथा क्रय, गुण आदि में होनेवाली बहत्व की प्रतीति में तथा शब्द में होनेवाली एकत्व आदि की प्रतीतियों में जघ सम्बन्धकृत अथवा स्वरूपकृत वैलक्षण्य आनुभविक नहीं है तत्र सद्दश प्रतीतियों में पक को संख्याविषयक मानने और अन्य को बुद्धिविशेषविषयत्वविषयक मानने में कोई विनिगमना नहीं है । इसप्रकार किया और गुण से शब्द में यत्व की सिद्धि होने से उस में अग्रव्यत्व का साधक अनुमान बाधित हो जाता है। अतः शब्द को द्रव्यभिन्न मानना अत्यन्त नियुक्तिक है । [ नैयायिकप्रोक्त अनुमान में एकद्रव्यत्व हेतु की असिद्धि ] शब्द में अध्याय सिद्ध करने के लिए जो एकद्रव्यत्व हेतु का प्रयोग किया गया वह भी समीचीन नहीं है, क्योंकि शब्द में 'एकद्रव्यत्व - एकद्रव्य मात्र में समवेतत्व' असिद्ध है । इस असिद्धि के परिवार के लिए शब्द में एकद्रव्यत्य सिद्ध करने के लिए जिस अनुमान का प्रयोग किया गया वह भी संगत नहीं है, क्योंकि एकद्रव्यत्व के साधनार्थ प्रयुक्त बाह्य एकेन्द्रियजन्यप्रत्यक्षविपयत्वरूप हेतु वायु में एकद्रव्यत्व का व्यभिचारी है। इस व्यभिचार का अभाव तभी हो सकता है जय वायु अप्रत्यक्ष हो । किन्तु यह मानना उचित नहीं है क्योंकि वायु को अप्रत्यक्ष मानने पर घट आदि में भी अप्रत्यक्षत्व की आपत्ति होगी । यतः विना किसी कठि नाई के यह कहा जा सकता है कि जैसे त्व से वायु के स्पर्श का ही ग्रहण होता है वायु रूप का डी ग्रहण होता है, घटादि का घटं स्पृशामि इस प्रतीति के बल पर का नहीं होता, उसीप्रकार चक्षु ग्रहण नहीं होता। और यदि I से घर आदि के घटं पश्यामि एवं Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] कारानुपपत्तेश्च । अथ शामि' इति धीओन्ता, मूर्तप्रत्यक्षत्वस्योद्भूतरूपकार्यतावच्छेदकत्वेन कारणाभावस्य बाधकस्य सत्त्वादिति चेत ? न, चाक्षुषे स्पार्शने या बिलक्षणक्षयोपशमनःपयोग्यताया एवं हेतुत्वात् प्रभाविवृत्त्यनुदभूतस्पशादेः स्पार्शनादिप्रतिबन्धकत्याऽकल्पनात्, योग्यताऽभाबादेव सत्र स्पार्शनाद्यनुदयात् । अत एव योग्यताविशेषवतः पुरुषविशेषस्य शब्दे यायेन्द्रियान्तरेणापि प्रतीतो प्रकृतहेतावसिद्धतामप्युद्भावयन्ति संप्रदायवृद्धाः, अन्यथा चक्षुषेवास्मदादिमिरुपलायमानश्चन्द्राकाविभिभिचारात् , 'सर्वदा सर्वत्र सवैवाहाकेन्द्रियग्राह्यः शब्दः, बाह्यन्द्रियग्राह्यत्वे सति विशेषगुणत्वात् , रूपादिवत् ' इत्यत्र च शब्दस्य गुणत्वनिषेत्रेन हेतोरसिद्धत्वात् । अपि च, मूर्तप्रत्यक्षत्वावच्छिन्न उद्भूतरूपस्य हेतुत्वं मीमांसकानुसारिभिरेव निरस्तम्, मूर्तप्रत्यक्षत्वस्य कार्याऽकार्यवृत्तितया कार्यतामवच्छेदका वात् । मूर्तलौकिकप्रत्यक्षत्वापेक्षया च द्रव्यनिष्ठलौकिकविपयतया चाक्षुपत्वस्य व लाघवेन कार्यतावच्छेदकल्बौचित्यात् । अस्तु वा शक्तिविशेषस्य घट का सच और त्वक प्रत्यक्ष प्रजा जाए तो फिर वायु के प्रत्यक्षम का अस्वीकार कैसे हो सकेगा, क्योंकि वायु की भी इसप्रकार प्रत्यक्ष प्रतीति होती है कि वायु रूक्ष लग रहा है, मृदु लग रहा है, गर्म लग रहा है. उण्डा लग रहा है । ' इन प्रतीतियों के बारे में यह कहना सम्भव नहीं है कि-'ये प्रतीतियाँ त्यगिन्द्रियजन्यप्रत्यक्षरूप नहीं हैं किन्तु मनोजन्य प्रत्यक्षरूप हैं-' क्योंकि स्थगिन्द्रिय का व्यापार होने पर ही इन प्रतीतियों का उदय होता है। यदि इन प्रतीतियों को मानस प्रत्यक्षरूप मानेंगे तो-' वायु स्पृशामि' 'बरे, मृदु, उण, शीतं पायुं स्पृशामि' इसप्रकार स्पार्शनस्व रूप से अनुभव न हो सकेगा। [ विलक्षण क्षयोपशम ही मूर्तप्रत्यक्ष का जनक है ] यदि यह कहा जाय कि-'उस प्रतीतियों की 'स्पृशामि' इसप्रकार की बुद्धि स्पार्शनत्व अंश में भ्रमरूप है क्योंकि मृर्तविषयकप्रत्यक्षत्व उद्भूतरूप का कार्यतावच्छेदक है और वायु में उद्भूतरूप न होने से घायु का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि कारणाभाय कार्याभाव का साधक होता है । अतः यायु की प्रतीति में मृतप्रत्यक्षत्य का अभाव उस में स्पानिय का बाधक है-' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि चाक्षुष और स्पार्शन प्रत्यक्ष में बिलक्षण क्षयोपशमरूप योग्यता ही कारण होती है। अर्थात् जिस वस्तु के चाक्षुष और स्पार्शन के बिंघटक आवरणीयकम का क्षयोपशम होता है, उस का चाक्षुष एवं स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है । घायु में स्पाशन प्रत्यक्ष के प्रयोजक इस योग्यता के विद्यमान होने से उसका स्पार्शन हो सकता है। प्रभा अ उक्त योग्यता का अभाव होने से उस का स्पार्शन नहीं होता। यदि यह बात नहीं मानी जाएगी तो प्रभा आदि के अनुभूत स्पर्श को उस के स्थान का प्रतिबन्धक मानने से गौरव होगा । इसीलिए जैन सम्प्रदाय के वृद्ध-मान्य विवान वायु में एकद्रव्यत्य के साधनार्थ प्रयुक्त वाम एकेन्द्रियमान जन्यप्रत्यक्षविषयत्य रूप हेतु में असिद्धि का भी उदभावन करते हैं, क्योंकि योग्यताविशेष सम्पन्न पुरुष को श्रोत्रभिन्न बाह्यन्द्रिय से भी शब्द का प्रत्यक्ष होता है । इस के अतिरिक्त अन्य प्रकार से भी उक्त हेतु एकद्रव्यत्वकप साध्य का व्यभिचारी है । जैसे : चन्द्र, सूर्य आदि का हम लोगों को केवल चक्षु से ही प्रत्यक्ष होने के कारण उन में उक्त हेतु एकद्रव्यत्व रूप साध्य का व्यभिचारी है। "शब्द सर्षदा सर्वत्र सभी को एक ही बाधेन्द्रिय से म २२ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] [ शासवार्ताः स्त. १०/३६ शक्तिविशेषवत्त्वेन विषयस्यैव वा चाक्षुषे स्पार्शने च हेतुत्वमिति न वाय्वादेरस्पार्शनत्वम् । न चैवं वायुगतसंख्या-परिमाणादेः प्रत्यक्षतापत्तिः, सजातीयसंचलनाभावे भूयोऽवयवावच्छेदेन त्वसनिक चेष्टत्वात्, पार्श्वद्र्यलग्नकारद्वयसंख्यापरिमाणमहम्यानुभविकत्वादिति । एतेन स्वतन्त्रोक्तीत्या 'विजातीयकत्वाभावादस्पार्शनत्वं वायोः । इत्यपि निरस्तम् . स्पार्शनजनकतावच्छेदक्रबैजात्यव्यापकत्रसरेण्बेकस्यसाधारण बैजात्यस्य नित्यैकत्वसाधारणत्वे महत्त्वोद्भूतरूपयोः पृथक्कारणताद्वयकल्पनस्यावश्यकस्वान्, निखिलतद्धा वृत्तवे च कार्यमात्रवृत्ति( तया ? जातितया तदवच्छिन्नं प्रति कस्यचित् कारगृहीत होता है क्योंकि मह वाश्यन्द्रिय से ग्राम्य विशेषगुण है जसे रूप आदि," इस अनुमान से भी यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि शब्द एक ही बाह्यन्द्रिय से गृहीत होता है, क्योंकि शब्द में गुणत्व का निषेध होने से उक्त हेतु शब्द में असिद्ध है। [ मृतप्रत्यक्ष के प्रति उद्भनरूप की कारणता का अस्वीकार ] वृसी यात यह है कि मृत प्रत्यक्ष के प्रति उदभूतरूप कारण है इस बात को मीमांसकानुयायी विद्वानों ने ही अम्बीकृत कर दिया है, क्योंकि मृतप्रन्यनत्व अन्य और नित्य उभय विधमूनप्रत्यक्ष का धर्म होने से कार्यता का अवच्छेदक नहीं हो सकता । मूर्तविषयक लौकिक प्रत्यक्षत्य भी उद्भूतरूप का कार्यतायन्टेदक नहीं हो सकता, क्योंकि उस की अपेक्षा लघु होने में व्रज्यनिष्ठलौकिकविषयतासम्बन्ध से चाशुपत्य को ही उदभूतरूप का कार्यतावच्छे. दक मानना उचित है। अथवा मिद्धान्ती ओन की और में यह भी कहा जा सकता है कि शक्तिविशेष किंवा शक्तिविशेष से विशिष्ट द्रव्य ही चानुष पत्रं स्पार्शन प्रत्यक्ष का कारण होता है । वायु आदि में भी रूपानजनक शक्तिविशेष को स्वीकार करने से उन का भी शर्शन हो सकता है । अतः यह नहीं कहा जा सकता कि वायु आदि का स्पार्शन नहीं हो सकता । यदि यह शंका की जाय कि 'वायु का स्पार्शन मानने पर उत्त के मख्या, परिमाण आदि के भी स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी ।' -तो यह कोई दोष नहीं है क्योंकि सजातीय का भवन न होने पर तथा बायु के वहुल अवयवों के साथ त्वक् का सन्निकर्ष होने पर वायु की संख्या और वायु के परिमाण का स्पार्शन प्रत्यक्ष मान्य है। जब कई घायु साथ बहने लगता है उसी समय वायु की मख्या का स्पार्शन नहीं हो पाता । पर्व जब वायु के स्वल्प अभावों के साथ ही त्या का सन्निकर्ष होता है, केवल उसी समय उस के परिमाण का ग्रहण नहीं हो पाता । अन्यथा होता ही है । क्योंकि किसी मनुष्य के दोनों पाश्वों में जब फूत्कार से घायु उत्पन्न किया जाता है, तो उसे उस दायु की संख्या और उस के परिमाण के स्थान का स्पष्ट अनुभव होता है। [विजातीय एकत्व को प्रत्यक्ष का कारण मानने में गौरव ] स्वतन्त्र ताकिकों का अपनी नीति के अनुसार जो यह कहना है कि प्रत्यक्ष में विजातीय एकत्य कारण है। घायु में विजातीय एकत्व न होने से उस का स्पार्शन नहीं होता'यह कथन भी निरस्तमाय है क्योंकि विजातीय पकत्व को प्रत्यक्ष का कारण मानने में गौरव है। जैसे : प्रत्यक्ष में यह कार्यकारणभाय 'स्पार्शन प्रत्यक्ष में विजातीय एकत्व कारण है, पत्र चाक्षुपप्रत्यक्ष में विजातीय पकत्व कारण है। इन दो कार्यकारण भावों में पर्यवसिप्त होता है। इस के अनुसार एकत्यगत एक चजात्य स्पार्शन का और अन्य वैज्ञात्य चाक्षुष का जनकतात्रच्छेदक होता है। प्रसरेणु का स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं होता । अतः प्रसरेणुगत एकस्व में Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क, टीका-हिन्दीविवेचन ] णस्यावश्यकतया द्रव्यचाक्षुष प्रत्येकत्वकारणतामादाय कारणताद्वयकल्पनस्यावश्यकत्वात् , जात्यकल्पनस्य पुनरधिकत्वात् , उक्त विजातीयकत्वस्यैव संयुक्त समवायप्रत्यासत्तिमध्ये निवेशेन वायोरपानित्वे तवृत्तिस्पद्यस्पार्शनप्रसङ्गात्, अन्यथा प्रभादौ चाक्षुषजनकतावच्छेदिकया सांकर्यादिति दिग । एवं च 'उद्भूतरूपाभावाद् मूर्तत्वे शन्द्रस्य प्रत्यक्षत्वं न स्यात् । इति व्याहतं वचनम् , स्पार्शनजनकता का अवच्छेदक वजात्य नहीं रहेगा, किन्तु चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है मतः चाक्षुष जनकता का अयच्छेदक वैजात्य रहेगा। फलतः चाश्वषतनकता का अबच्छेदक धजात्य स्पानिजनकता के अधच्छेदक धैनात्य का व्यापक होगा । अब यह प्यापक चनात्य यदि नित्य एकत्व में भी रहेगा तो पृथिवी आदि के परमाणु तथा आकाश आदि में प्रत्यक्षजनक विजातीयपकत्व के होने से उन के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी । अतः उस के परिहारार्थ महत्त्व और उद्भूतरूप इन दोनों को भी प्रत्यक्ष के प्रति पृथक कारण मानना आवश्यक होने से स्पष्ट गौरव है। यदि उक्त प्रत्यक्षापत्ति के भय से एकापगत प्रत्यक्षजनकतावडे जात्य को सभी निन्य पकयों में अवृत्ति माना जाएगा तो यह कार्यमाञनिजातिरूप होगा । अतः उस जाति से विशिष्ट के प्रति किसी पक कारण की कल्पना करनी होगी कि कार्य मात्र में रहनेवाली जाति में कारणप्रयोज्यत्त' का नियम है । फलतः उक्तजाति में विशिष्ट के प्रति एक कारणता तथा चाक्षुष प्रत्यक्ष के प्रति उक्तनातिमत् एकत्र की पफकारणता, इसप्रकार दो कारणता स्वतन्त्रोक्त मत में भी आवश्यक होगी । पकत्व में प्रत्यक्ष ननफतावच्छेदक वैज्ञाय की कल्पना उक्त मत में अधिक होगी। उक्त गौरव के अतिरिक्त, दूसरा दोष यह होगा कि द्रव्यसमवेतविषयक प्रत्यक्ष में जो संयुक्तसमवायरूप प्रत्यासत्ति कारण होती है, उस के मध्य में विजातीय एकत्व का प्रवेश कर संयुक्तविजातीय एकस्वधन समयाय को ही प्रत्यक्ष का कारण मानना होगा । अन्यथा वायु के स्पार्शनाभाव का उपपादन न हो सकेगा, क्योंकि स्थूलबायु में त्वक संयुक्त समवायरूप प्रत्यासक्ति के होने से उस का स्पार्शन अनिवार्य होगा। किन्तु अब उक्त प्रत्यासक्ति के मध्य में विजातीयपकत्व का निवेश होगा तब वायु में विजातीयएकत्व न होने से घायु के स्पर्श आदि में उक्त प्रत्यासत्ति का सम्भव न होने से, घायु के स्पर्श आदि के भी स्पार्शन की अनुपपत्ति का नया दोष आ पड़ेगा। यदि यह कहा जाय कि स्मार्शन पर्व चाक्षुष के प्रति विजातीय प्रकल्प कारण नहीं है किन्तु विजातीय द्रव्य कारण है । पाशन जनकता का अयच्छेवक वैजात्य स्वाशन प्रत्यक्ष योग्य व्रव्य में ही रहता है. वायु में स्पाशन जनकतावच्छेदक वैनात्य न रहने से उन का स्पार्शन नहीं होता' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर प्रभा आदि में तेजस्व जाति वासुर जनकतावच्छेदक जाति से संकीर्ण हो जापगी। जैसे : नेजमत्व उष्मा में चाक्षुपजनकतावच्छंदक जाति का व्यभिचारी है और चाक्षुषजनकतावच्छेदक जाति वट आदि में तेजस्व का व्यभिचारी है, किन्तु दोनों जातियाँ प्रभा में विद्यमान हैं। "क्षयोपशमविशेषरूप योग्यता को अथवा शक्तिविशेष को चाक्षुष पचं स्पार्शन का जनक मान लेने पर शब्द को मूर्त व्रत्य मानने पर उद्भतरूप न होने से उस का प्रत्यक्ष न हो सकेगा।" पूर्वपक्षी का यह घचन भी अब व्याहत हो जाता है, क्योंकि प्रत्यक्षत्व का प्रयोजक Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] [शासवार्ता स्त: १७३७ योग्यतायाः शक्तिविशेषस्य हा त्राप्यमानत्वात् । यात्तिा वाले श्रोत्रस्य संयोग एव, मनो-नयनव नामिन्द्रियाणां व्यञ्जनावग्रहमतिपादनात्, “पुठं सुणेइ सई " : आव. नि. 'लो. ५ ] इत्यागमात्, यान्तरस्याऽग्रहणं च श्रोत्रेणाऽयोन्यत्वादिति किमनुषपन्नम् । तदेवं द्रव्यापेक्षया सर्व यचोऽपौरुषेयम् , पर्यायापेक्षया तु पौरुषेयमेवेति व्यवस्थितम् ॥ ३६ ।। अभ्युपगम्य परमत दोषान्तरमाह दृश्यमानेऽपि चाऽऽशङ्काऽदृश्यकतसमुद्भवा । __ नातीन्द्रियार्थद्रष्टारमन्तरेण निवर्तते ॥ ३७ ।। 'दृश्यमानेऽपि च=श्रयमाणेऽपि च स्वतन्त्रवक्तृव्यापारवैकल्ये वेदशब्दे, आशका अदृश्यकतै समुद्भवा दृश्यकश्रवणे 'पिशाचर्तकोऽयं भविष्यति' इति पिशाचकर्तत्वोत्कटकोटिविपया न निवर्तते 'प्रेक्षापूर्वकारिण: । इति शेपः । कि सर्वथा न निवर्तत एव ? नेत्याह-अतीन्द्रियार्थदृष्टारमन्तरेण । यदि स्वसौ स्वीक्रियेत तदा तद्वचस्तो निवतेतापि, प्रत्यक्षादिभ्यः सर्वज्ञवचनस्य बलबत्त्वादिति भावः ॥ ३७ ॥ योग्यता अथवा शक्तिविशेष मृतद्रव्यात्मक शब्द में भी अव्याहत है । शब्म्' को द्रव्य मानने पर उस के साथ श्रोत्र की प्रत्यासत्ति संयोग ही होगा क्योंकि मन और नयन से भिन्न इन्द्रियों से व्यञ्जनावग्रहप्राप्त का ग्रहण होना बताया गया है, जैसे कि 'पुढें सुणेइ सई-स्पृष्टं शृणोति शब्दम्' इस आगम से स्पष्ट है कि श्रोत्र स्पृष्ट सम्बद्ध शब्द को सुनता है। श्रोत्र से शब्द द्रव्य का ग्रहण मानने पर उस से अन्य द्रव्य के ग्रहण की आपत्ति नहीं दी जा सकती, क्योकि शब्द द्रव्य को श्रोत्रयोग्य तथा अन्य द्रष्य को श्रोत्राऽयोग्य मान कर श्रोत्र में शब्द का ग्रहण और द्रव्यान्तर का अग्रहण मानने में कोई अनपपति नहीं है । निष्कर्ष; द्रव्य की अपेक्षा सभी बचन अपौरुषेय हैं और पर्याय की अपेक्षा वचनमात्र पौरुषेय होते हैं यह सिद्ध हुआ || ३६ ।। 'वेद किसी स्वतन्त्र पुरुष की रचना नहीं है। इस परमत को अल्प काल के लिये स्वीकार कर ३५ वीं कारिका में उस मत में सम्भावित अन्य दोष का उदभावन किया गया है। कारिका का अर्थ इमप्रकार है "वेदात्मक शब्द राशि में किसी स्वतन्त्रवक्ता का ध्यापार नहीं है, परम्परा से बह कथित एवं श्रुत होता आ रहा है। इस का कोई दृश्यकर्ता नहीं सुना जाता।" इस बात को मान लेने पर भी विवेकशील पुरुष को यह शंका अनिवार्य है कि 'वेद दृश्यकई क न होने पर भी अदृश्य'कर्तृक किसी पिशाच द्वारा रचित हो सकता है, और यह शंका तब तक निवृत्त नहीं हो सकती जब तक किसी अतीन्द्रियार्थदर्शी मर्वश पुरुष का अस्तित्व न मान लिया जाय । मयंश पुरुष का अस्तित्व मानने पर उस के वचन से यह शका अवश्य निवृत्त हो सकती है क्योंकि सर्वश का वचन प्रत्यक्ष आदि से बलवान् होता है। अतः स्पष्ट है कि सर्पज्ञ पुरुष द्वारा घेद को अकर्तृक बता दिए जाने पर ही उस के अदृश्यकर्तृकत्य की शंका का निराकरण हो सकता है, अन्यथा नहीं ॥ ३७ ।। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] परः शंकते पापादत्रेदृशी बुद्धिर्न पुण्यादिति न प्रभा । न लोको हि विगानत्वात् तद्वत्वाद्यनिश्वितेः ॥ ३८ ॥ | १७३ पापात् = दुरदृष्टात् अत्र वेदे - ईदृशी बुद्धिः विनाऽऽस्तिक्यपरिपाकनिमित्तमदृष्टम् इति भावः । रिति न प्रमानात्र प्रमाणं किञ्चिदिति भावः लोको हिन्न लोक एवात्र प्रमाणम् । कुतः ? उक्ताऽऽशङ्कारूपाः ततः के एतां निवर्तयेद उत्तरयति-न पुण्यात् =न पुण्यादीदृशी बुद्धि। ' लोक एवात्र प्रमाणमित्याशङक्याह-न इत्याह - विगानत्वाद विरुद्धं गानमभ्युपगमो यस्येति बहुव्रीहिस्तस्य भावस्तत्त्वं ततः । तथा च केषांचिद् विप्रतिपतेर्नात्र सकललोकंकवाक्यतेति भावः । ' यद्यप्येवम्, तथापि महवोऽस्मत्पक्ष एव तद्बहुत्वाद्यनिश्चितेः-- तेषामुक्ताभ्युपगमवतां बहुत्वस्त्र सर्वाऽदर्शनेनाऽनिश्चयात् ॥ ३८ ॥ इति बहूनामभ्युपगमः प्रमाणमित्याशङ्क्याह आदिना तदन्येषामन्पत्वस्य वा अनिश्चितेः ३८ वीं कारिका में उक्त कथन के सम्बन्ध में कर उस का उत्तर दिया गया है | कारिका का अर्थ इसप्रकार है पराभिमत को पूर्व पक्ष के रूप में प्रस्तुत [ पाप-पुण्य और लोकवहुत्वापत्य का अनिश्चय ] पूर्वपक्षी की ओर से यदि यह कहा जाय कि वेद वस्तुतः कर्तृक हैं, उस के अदृश्य कर्ता की शंका पापी पुरुषों को ही हो सकती है। पुण्यशाली चिनेकी पुरुषों को नहीं हो सकती और आस्तिक्यपरिपाक कारक अदृष्ट के बिना उस का निवर्तन कौन करेगा ?' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि इस बात में कोई प्रमाण नहीं है कि वेद के अवश्यकर्ता की शंका पाप से डी होती है, पुण्य से नहीं होती । अपितु यही मानना उचित प्रतीत होता है कि उक्त शंका पुण्य से ही होती है, क्योंकि उक्त शंका हो जाने पर पुण्यवान पुरुष बेदवर्णित अप्रमाणिक अनुष्ठानों के जाल में फँसने से बच जाता है । यदि यह कहा जाय कि - ' वेद की अवश्य कर्ता की शंका पापमूलक है यह बात लोकसिद्ध है तो यह भी उचित नहीं है क्योंकि वेद के अकर्तृत्व के सम्बन्ध में अनेक लोगों का विपरीत मत होने से उस शंकर के पापमूलक होने में लोक को प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि लोक उसी बात में प्रमाण हो सकता है, जिस में सभी का ऐकमत्य हो । उक्त बात में सब का ऐकमत्य नहीं है, अतः उसे लोकसिद्ध नहीं कहा जा सकता । पूर्वपक्ष की ओर से यदि यह कहा जाय कि ' वेद के अवश्यकर्ता की शंकर पापमूलक है, इस बात में यद्यपि सत्र का ऐकमत्य नहीं है किन्तु यह बात बहुसंख्यक लोगों को अभिमत हैं, अतः बहुसंख्यकों की अभिमति ही इस बात में प्रमाण है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि संसार के सभी पुरुषों का दर्शन अपने को शक्य न होने से यह निश्चय करना कठिन है कि जिन्हें उक्त बात अभिमत है उन की संख्या अधिक हैं और जिन्हें उस बात अभिमत नहीं है। उन की संख्या अल्प है || ३८ ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शाखवार्ता० स्त० १०/३९-४० बहनामपि संमोहमावाद् मिथ्याप्रवर्तनात् । मानसंख्याविरोधाच्च कथमित्थमिदं ननु ? ॥ ३९॥ कश्चिद् निश्चयेऽप्याह बहूनामपि तथाऽभ्युपगन्तृणाम्, संमोहभावात् मूलाज्ञानदोषात , मिथ्याप्रवर्तना=बिगीतप्रवृत्युपपत्तेः पारशीकादीनामिव मातृविवाहादौ । तथा च 'शतमप्यन्धान न पश्यति । इति न्यायाद बहूनामप्यभ्युपगमोत्राप्रमाणमिति भावः । अभ्युपगम्यापि दोषमाह मानसंख्याविरोधाच-लोकस्य मानत्वे सप्तममानापत्त्या 'पडेव प्रमाणानि ' इति विभागयाघाताच्च ‘ननु' इत्याक्षेपे इदं='पापादत्रेदशी बुद्धिः' इत्युक्तम् इत्थं कथम् युक्तं कुतः ! ।।३९॥ 'नातीन्द्रियार्थद्रष्टारमन्तरेण ' इत्मा शिवपति-. अतीन्द्रियार्थद्रष्टा तु पुमान् कश्चिद्यदीष्यते । संभवद्विपयापि स्यादेवंभृतार्थकल्पना ॥ ४० ॥ अतीन्द्रियार्थद्रष्टा तु पुमान् सर्वदर्शी तु पुरुषः यदि कश्चिदिप्यते-म्वीक्रियते ऋपभोऽन्यो [ बहुलोक को प्रमाण मानने में संख्याव्याघातादि दोष ] ३९ वीं कारिका में बहु मख्यकों के अभ्युपगम की अमाणमा सिद्ध की गयी है, कारिका का अर्थ इसप्रकार है यदि किसीप्रकार यह निश्चय हो भी जाय कि वेद के अदृश्यकर्ता की शंका पापमूलक हैं -इस बात को माननघालों की संख्या अधिक हैं तो भी उन के अभ्युपगम को प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि जसे पारसी लोगों की माता के साथ विवाह में प्रवृत्ति होती है उसीप्रकार बहसंख्यकों की भी अज्ञानवश अनेक मिथ्या प्रवृत्तियाँ होती है। अतः यह कहा जा सकता है कि बहुसंख्यकों द्वारा वेद के अइश्यकर्ता की सम्भावना को पापमुलक मानना भी अमानप्रयुक्त है । इसलिप 'अन्धे मनुष्य सैकड़ों की संख्या में मिल कर भी किसी वस्तु को नहीं देख सकते' इस सर्वसम्मत सत्य के आधार पर यह निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है कि बहुसंख्यकों का अभ्युपगम भी इस बात में प्रमाण नहीं हो सकता कि वेद के अदृश्यकर्ता की शंका पापमूलक है, पुण्य मूलक नहीं है। वेद के अदृश्य कर्ता की शंका पापमूलक है.' इस बहुसंख्यक अभ्युपगम मान लेने पर इस से उक्त बात की प्रामाणिकता नहीं हो सकती, क्योंकि लोक अथषा लोकाभ्युपगम को प्रमाण मानने पर सप्तम प्रमाण की आपत्ति होने से 'प्रमाण छः ही होते हैं ' इसमकार के प्रमाण विभाग का व्याघात प्रसक्त हाने से लोक अथवा लोकाभ्युपगम को प्रमाण नहीं माना जा सकता । इस स्थिति में यह कथन कैसे युक्तिसंगत हो सकता है कि वेद के अवश्यकर्ता की शंका पापजन्य है, पुण्यजन्य नहीं है ? ॥३९॥ संतीसवीं कारिका में कहा गया था कि अतीन्द्रिय अर्थों के द्रष्टा पुरुष की माने बिना वेद के अदृश्यकर्ता की शंका निवृत्त नहीं हो सकती ! ५० वीं कारिका में उसी को विशद किया गया है । कारिका का अर्थ इसप्रकार है-हाँ, यदि यह स्वीकार कर लिया जाय कि अतीन्द्रिय माँ का द्रष्टा कोई सर्वज्ञ पुरुष है। भले वह ऋषभदेव हो या अन्य हो। तो ऐसी कल्पमा Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या, क टीका-हिन्दीविवेचन ] वा । ततः किम् ? इत्याह-संभवद्विषयापि स्यात् संभवदुक्तिकापि स्यात्, सदुपदेशमूलझानसामान् एवंभूतार्थकल्पना= पापादत्रेदृशी बुद्धिः' इति संभावना ।। ४० ।। नम्बपौरुषेयत्वसिद्धे विशेषदर्शनादेवोक्ताशङ्का निवर्तते, इत्यतस्तत्साधनमपि बिना सर्वज्ञं न इत्याह अपौरुषेयताप्यस्य नान्यतो घबगम्यते ।। कर्तुरस्मरणादीनां व्यभिचारा दिदोषतः ।। ४१ ।। अपौरुषेयतापि अभ्य वेदस्य नान्यतः-- सर्वज्ञादन्यस्मात् प्रमाणान् हि निश्चितम् अबगम्यते, अतीतस्य वक्तुरनुपलब्धिमात्रादभावाऽसिद्धेः । ननु चात्र हेतवः सन्तीत्येतदाशडक्याहकर्तुस्स्मरणादीनां- वक्ष्यमाणानां हेतूनां व्यभिचारादिदोषतः अनैकान्तिकाऽसिद्धत्वादिदोषदुष्टस्वात् ॥ ४१ ।। तथाहि-वेदोऽपौरुषेयः, 'कर्तुम् मण'' इति राधिकरणो देवः । अमर्यकत्वं च भारतादौ व्यभिचारि, परकीयकर्तस्मरणं च वेदेऽपि तुल्यम् । 'न तुल्यम्, वेदे विगानेन कर्तस्मरणादिति चेत् ? किमिदं विगानम् ! कर्तविशेषविप्रतिपत्तिर्वा, स्मर्यमाणकर्तविशेषे प्रकृतकार्यान्य अवश्य सम्भव हो सकती है कि वेद के अरश्य कर्ता की शंका पापमूलक है पुण्यमृतक नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञ पुरुष को उस शंका के पापमूलकत्व का ज्ञान सम्भव होने से यह कह सकता है कि उक्त शंका पापमूलक है और उस के कथन से यह यात सर्वमान्य भी हो सकती है ॥ ४० ॥ ४१ वीं कारिका में यह बताया गया है कि सर्यक्ष के अभाव में अपौरुषेयत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । अतः अपौरुषेयत्वरूप विशेषदर्शन से भी वेद में अदृश्यकर्तकत्व की शंका की निवृत्ति नहीं हो सकती । कारिका का अर्थ इसप्रकार है-सर्यक्ष से अन्यप्रमाणद्वारा बंद के अपौरुषेयत्व का निश्चय नहीं हो सकता। क्योंकि अनलिब्धि मात्र से अतीत अत्ता। की सिद्धि नहीं होती। अनुमान से भी वेद का अपौरुषेयत्व नहीं हो सकता, क्योंकि कर्ता का अस्मरण आदि जो अनुमान के सम्भाषित हेतु हैं वे व्यभिचार-असिद्धि आदि दोषों से ग्रस्त हैं ॥ ११ ॥ [ कर्तृ-अस्मरणहेतुक अपौरुषेयत्व का अनुमान दूषित ] जसे यदि इसप्रकार अनुमान प्रयोग किया जाय कि-वेद अपौरुषेय है क्योंकि उस के कर्ता का स्मरण नहीं होता -तो इस में हेनु साध्य का ब्यधिकरण हो जाता है क्योंकि साध्य की सिद्धि घेद में अभिमत है और हेतु वेदनिष्ठ न होकर पुरुषनिष्ठ है । अत: हेतु विरोध ( साश्य का असमानाधिकरण्य) और असिद्धि (=पक्षवृत्तित्वाभाव । से ग्रस्त है। अस्मर्यमाणकर्तफत्य हेतु का अर्थ है जिस का फर्ता स्मरणा का विषय हो तबन्यत्व-स हेतु से भी वेद में अपौरुषेयत्व का अनुमान नहीं हो सकता क्योंकि भारत आदि के कर्ता का स्मरण जिन्हें नहीं है उन की दृष्टि से भारत आदि में यह हेतु साध्य का व्यभिचारी है क्योंकि भारत आदि वस्तुतः पौरुषेय है। यदि यह कहा जाय कि-'कुछ व्यक्तियों को भारत आदि के कर्ता का स्मरण न होने पर भी अन्य व्यक्तिओं को उस के कर्ता का स्मरण होता है। अतः किसी भी व्यक्ति को कर्ता का स्मरण न होने के अर्थ में पर्यवसित-अस्मयमाणकर्तृकत्व भारत मादि Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] [ शासवार्ता स्त० १०.५२ सजातीयकार्यकर्तत्वसंभावना वा! नाद्यः, कर्तविशेषधिप्रतिपत्त्या तद्विशेषस्मरणस्याऽसत्यत्वेऽपि कर्तमात्रस्मरणस्याऽसत्यत्वाऽयोगात्; अन्यथा कादम्बर्यादावपि कर्तविशेषविप्रतिपत्त्याऽस्मर्यमाणफर्तुत्वेनानैकान्तिकत्वासनात् । अत एव न द्वितीयोऽपि, कर्तृविशेषे प्रकृतजातीयकार्यान्तरकर्तृत्वसंभावनायामपि प्रकृते कर्तृमात्रस्मरणाऽवाधात् ; अन्यथा च वक्ष्यमाणस्थले व्यभिचारात-इत्याशयवानाह नाऽभ्यास' ऐवमादीनामपि कर्तापविमानतः । स्मयते च विगानेन हन्तेहाप्यष्टकादिकः ॥४२॥ 'अभ्यास.' एवमादीनामपि"अभ्यासः कर्मणां सत्यमुत्पादयति कौशलम् । धात्रापि ताबदभ्यस्त यावरसृष्टा मृगेक्षणा ॥१॥" में साध्य का व्यभिचारी नहीं है' -तो जसे भारत आदि में असमर्यमाणकर्तकत्व का अभाव है उसीप्रकार वेव में भी उस का अभाव है, क्योंकि वेदपौरुषेयत्व वादियों को वेद के कर्ता का स्मरण होता है । अतः अस्मयमका काय हेतु हमें असिद्ध है। [ विगान के सम्भावित पक्षद्वय में हेतु की अनुपपत्ति ] यदि यह कहा जाय कि-' बंद और भारत आदि के कर्तृ-स्मरण में तुल्यता नहीं है क्योंकि भारत आदि के कर्ता के स्मरण के बारे में किसी का बिगान-मन्य नहीं है। किन्तु, वेद कर्ता के स्मरण के बारे में वाऽपौरुपयत्ववादियों की चिमति है 1 अत: भारत में अमर्यमाणकर्तकत्व के न होने और वेद में उस के होने से उक्त दोष नहीं हो सकता' -तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि विगान-विप्रतिपसि के किसी भी सम्भावित पक्ष में हेतु की उक्त व्याख्या निष नहीं हो सकती । जैसे कर्ता के विषय में बिगान की दो व्याख्या हो सकती है (१) पक यह कि कर्तृ-विगान का अर्थ है क विशेष के विषय में विप्रतिपत्ति और (२) दुसरी यह कि स्मर्यमाणकर्ता में प्रकृत काग्रं के सजातीय अन्य कार्य के कर्तृत्व की सम्भावना । इस में प्रथम व्याख्या स्वीकार नहीं हो सकती क्योंकि जिस विशेष कर्ता में विप्रतिपति होगी उस कर्ता के स्मरण के असत्य होने पर भी कर्तामात्र का स्मरण असत्य नहीं हो सकता । अन्यथा कादम्बरी आदि काव्यग्रन्थों के विशेष कर्ता के सम्बन्ध में भी विप्रतिपत्ति होने से उन ग्रन्थों के भी कर्ता का स्मरण असत्य हो जायगा । फलतः अस्मयमाण कर्तृकत्व उन में साध्य का व्यभिचारी हो जाएगा। ऋत-विगान की दूसरी व्याख्या भी ग्राह्य नहीं हो सकती क्योंकि विशेष कर्ता में बंदरचना रूप प्रकृत कार्य के सजातीय अन्य कार्य के कर्तृत्व की सम्भावना होने पर भी सामान्यरूप से बेदकर्ता के स्मरण का बाध नहीं हो सकता। और यदि विशंपकर्ता में प्रकृत कार्य के सजातीय अन्य कार्य के कर्तृत्व की सम्भावना में प्रकृत कार्य के कर्ता मात्र के स्मरण का बाध होगा, तो 'स्मर्यमाणकर्तृकत्व का अभाव' रूप हेतु आगे कहे जाने वाले स्थल में साध्य कर व्यभिचारी हो जाएगा । प्रस्तुत ४२ वीं कारिका में यही आशय ध्यक्त किया गया है। कारिका का अर्थ इसप्रकार है [अभ्यास....आदि वाक्यवत् वेद में भी कर्तस्मरण में वमत्य ] वेदापौरुषेयत्व-बादियों का कहना है कि-' कर्ता के स्मरणाभाव से वेद में अपौरुषेयत्व Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विषेचन ] [१७७ अन्ये तु पश्चार्धमन्यथा पठन्ति-"मिथ्या तत्तादृशी येन ने धात्रा निर्मिता परा" इत्यादीनामपि, कर्ताऽविमानतः एकवाक्यतया न मयते; स्मर्यते च बिगानेन--अनेकवाक्यतया, हन्त ! इहापि= वेदेऽपि अष्टकादिकः अष्टका यामकब्रह्मादिरिति । अथ "अभ्यासः"....एवमादौ कर्तृमात्रे न रिगानमस्ति, वेदे तु कर्तमात्रेऽपि तदस्ति । तथाहि-वेद सौगता: कर्तमात्र स्मरन्ति न मीमांसकाः, इति तत्र कर्तस्मरणमसत्यमिति चेत् ? नन्वेवमस्मर्यमाणकर्तकत्वहेतुरेवासिद्धः । अथ च्छिन्नमूलं वेदे कर्तृस्मरणम् , अनुभधो हि स्मरणस्य मूलम् , न चासौ तत्र तद्विषयत्येन विद्यत इति न दोष इति चेत् ? न, स्वप्रत्यक्षेण कननुभवस्यागमान्तरेऽप्यभावात्, सर्वप्रत्यक्षामावस्य चाचांगदशा निश्चतुमका अनुमान हो सकता है, क्योंकि पौरुषेय वाक्यों में कर्तृस्मरण का अभाव न होने से व्यभिचार नहीं है। जैसे अभ्यासः कर्मणां सत्यमुत्पादयति कौशलम् । धात्रापि तावदभ्यस्नं यावत्सृष्टा मृगक्षणा ।। कुछ अन्यों के अनुसार इस श्लोक के उत्तगध का पाट इस प्रकार है मिथ्या तत्तादृशी येन न धात्रा निर्मिताऽपरा" अर्थ : यह सत्य है कि 'कर्म का अभ्यास कौशल उत्पन्न करता है। प्रमाने भी अभ्यास से कौशल प्राप्त कर के ही मृगनयना की रचना की ।' अन्य उत्तरार्ध के मत के अनुसार उक्त कथन सत्य नहीं किन्तु मिथ्या है क्योंकि ब्रह्मा ने उस के जैसी किसी अन्य सुन्दरी की रचना नहीं की। -न पौरुषेय वाक्यों के कर्तृस्मरणा में एकवाक्यता ऐकमत्य नहीं है, किन्तु पकबाक्यता का अभाव यानी वैमत्य है। अतः इन में कर्तस्मरणामात्ररूप हेतु नहीं है, अन एव उस में व्यभिचार नहीं है"-किन्तु यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि कर्तृस्मरण में वैमत्य होने से यदि कर्तस्मरणाभाव को अस्वीकार कर व्यभिचार का वारण किया जायगा तो बेद में भी कर्तस्मरणाभाव का अस्वीकार होगा, क्योंकि वेद में भी अष्टकादि कर्ता के स्मरण में वैमत्य है। फलतः वेद में कर्तृस्मरणाभावरूप हेतु स्वरूपासिल हो जापगा। यदि यह कहा जाय कि । उक्त पौरुषेय वाक्य के सामान्यकर्ता के विषय में विगान वैमत्य नहीं है किन्तु विशेष कर्ता के ही विषय में बमत्य है, पर वेद के तो सामान्यकर्ता के विषय में भी वैमत्य है। जैसे-बौद्ध तो वेद का कोई न कोई कर्ता अवश्य मानते हैं किन्तु मीमांसक वेत् का कोई भी कर्ता नहीं मानते । अतः उक्त पौरुषेय वाक्य के सामान्य कर्ता में मत्य न होने से कर्तृस्मरण का अभाव नहीं माना जा सकता, पर वेद के सामान्य कर्ता में भी मत्य होने से वेद में कर्तस्मरण का अभाष माना जा सकता है। इसलिए कर्तस्मरणाभाव हेतु पौरुषेय वाक्यों में न तो व्यभिचारी है और न वेद में मसिद्ध है । फलतः उस से वेद में अपौरुषेयत्व की सिद्धि हो सकती है" -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यौद्धादिको वेद में कर्तृस्मरण होने का आपने ही कह दिया, इसलिये वेद में अस्मर्यमाणकर्तृकत्यरूप हेतु ही असिद्ध हो गया। [किसी एक को प्रत्यक्ष न होने मात्र से उस का अभाव असिद्ध] यदि यह कहा जाय कि-'बौद्धादि को बेद में जो कर्तृस्मरण है उस का कोई मूल नहीं है, स्मरण का मूल अनुभव है, वेद के कर्ता का किसी भी बौद्वादि को अनुभव नहीं है। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] [ शासवास० त० १०/४२ शक्यत्वात्, "हिरण्यगर्भः समवर्तताये” (ऋम्वेद ८ - १०-१२१ ) इत्याद्यागमेन रचनाविशेषकार्यानुमानेन च तत्र कर्त्रनुभवस्यानपायाच्च, अन्यथा कारणाभावे कार्यानुत्पत्तेरिछन्नमूलक र्तस्मरणस्यासंभवतिकत्वादिति न किश्विदेतत् । अथ स्मरणयोग्यत्वेऽपि सत्यस्मर्यमाणकर्तकत्वं हेतुः अस्ति चात्रापि कर्ता स्मरणयोग्यः, यद्यसौ स्यात् तदाऽग्निहोत्रादिप्रवृत्तिसमये स्मर्येत, स्वयमदृष्टफलेषु कर्मसु पित्राद्युपदेशमूलायां प्रवृत्तौ 'पित्रादिभिरेतदुपदिष्टम् ' इति पित्रादिस्मरणावश्यंभावदर्शनात् न चाभियुक्तानामपि वेदार्थानुष्ठातृणां ; अतः उस के कर्ता का नहीं कर्तृस्मरण का सम्भव न होने से वेद में कर्तृस्मरणाभाव को असिद्ध नहीं कहा जा सकता तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि यदि अपने को कर्ता का प्रत्यक्ष न होने के नाते कर्ता के अनुभव का अभाव माना जाएगा । तब आगमान्तर यानी वेदान्य शास्त्र के कर्ता का भी अपने को प्रत्यक्ष न होने से उस के कर्त्ता का भी अनुभव अमान्य होगा । फलतः आगमान्तर के भी कर्ता का स्मरण न हो सकने से कर्तृस्मरणाभाव उस के अपौरुषेयत्व का व्यभिचारी हो जाएगा । और यदि मनुष्यमात्र को कर्ता का प्रत्यक्ष न होने के आधार पर कर्ता के अनुभव को अमान्य किया जाएगा तो अर्धादर्श' सर्वश से भिन्न मनुष्य को सर्वप्रत्यक्षाभाव का ज्ञान न हो सकने से किसी के भी कर्ता के अनुभव को भी अमान्य न किया जा सकेगा। अतः वेद के कर्तृस्मरण के मान्य हो सकने से वेद में कर्तृस्मरणाभाव का उपपादन नहीं किया जा सकता । 2 दूसरी बात यह है कि 'हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे पूर्व में हिरण्यगर्भ हुए जिसने वेद की रचना की इस आगम से एवं वेद की विशिष्ट रचनारूप कार्य से सम्पाच अनुमान द्वारा 1 कर्ता का अनुभव सुकर होने से, वेद कर्ता के अनुभव का अभाव सिद्ध न होने से, तन्मूलक वेदकर्ता का स्मरण भी सम्भव होने से वेद में कर्तृस्मरणाभाव की उत्पत्ति नहीं की जा सकती । यह भी ज्ञातव्य है कि जिस के कर्ता का प्रत्यक्ष नहीं है, उस के कर्ता के अनुभव का अभाव मान कर यदि उस के स्मरण को अस्वीकृत किया जाएगा तो किसी भी छिन्नमूल स्मरण वाले विषय में यह कहना सम्भव नहीं होगा कि उस के कर्ता का स्मरण हो सकता है - क्योंकि उसके कर्ता का प्रत्यक्ष न होने से उस के कर्ता का अनुभव सिद्ध नहीं होगा और जिस का अनुभव न होगा उस का स्मरण भी न होगा। क्योंकि अनुभव स्मरण का मूल कारण होता है । कारण के अभाव से कार्य का अभाव होता है, यह नियम है । [ ' स्मृतियोग्य रहते हुए स्मृतिविषयत्वाभाव' हेतु का निरसन ] यदि यह कहा जाय कि " स्मरणयोग्यकर्तृकत्व विशिष्ट अस्मर्यमाणकर्तृस्व से अपौरुषेयत्व का अनुमान किया जा सकता है, क्योंकि वह उक्त पौरुष वाक्यों में अपौरुषेयत्व का व्यभिचारी नहीं है । आशय यह है कि कर्ता होने पर जिस के कर्ता के स्मरण का आपादान हो सके, वही स्मरणयोग्यकर्तृक होता है । उक्त पौरुषेय वाक्य का कर्ता होने पर भी उस के कर्तृस्मरण का अपादान नहीं होता क्योंकि उस के कर्ता के अस्तित्व में कर्तृस्मरण की व्याप्ति नहीं है । अतः उस में स्मरणयोग्यकर्तृकत्व न होने से उस में उक्त हेतु का भी अभाव है। वेद में उक्त हेतु की स्वरूपासिद्धि भी नहीं है क्योंकि उस का कर्ता होने पर उस के कर्तृस्मरण का आपादन Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविषेचन ] [ १७९ त्रैवर्णिकानां कर्तुः स्मरणमस्तीति चेत् ? न, आगमान्तरे व्यभिचारात् । न हि तत्रापि तत्कर्ता न स्मरणयोग्यः, न वा स्मर्यत इति । न चायं नियमः 'अनुष्ठातारोऽभिप्रेतार्थानुष्ठानसमये तत्कतस्मिनुस्मृत्यैव प्रवर्तन्ते' इति । न हि पाणिन्यादिपणीतव्याकरणप्रतिपादितशाब्दव्यवहारानुष्ठानसमये तदनुष्ठातारोऽवश्यं व्याकरणप्रणेतारं पाणिन्याविकमनुस्मृत्यैव प्रवर्तन्त इति दृष्टम् , निश्चिततत्समयानां कर्तस्मरणव्यतिरेकेणाप्यविलम्बितं 'भवति आदिम्मधुशब्दप्रयोगव्यवहारदर्शनात् । अनाप्तोक्तत्वशका च प्राशसंशयपर्यवसायिनी न प्रतिवन्धिका । प्रतिबन्धिका चेत् तदाप्तोक्तत्वज्ञानमात्रं मृग्यम्, न तु तद्विशेषोक्तत्वज्ञानमपीति न किञ्चदेतत् ॥ ४२ ॥ सप्रकार हो सकता है कि यदि वेद का कोई कर्ता होता तो अग्निहोत्र आदि कर्मों के अनुष्ठान में प्रथम होने वाले पुरुषों को उस का स्मरण अवश्य होता। क्योंकि यह नियम है कि जिन कर्मों का फल कर्ता को स्वयं दृष्ट नहीं होता, उन कर्मों में कर्ता की प्रवृत्ति उन कर्मों की कर्तव्यता बताने वाले पुरुष के स्मरण से होती है । जैसे, जिस बालक को जिस कर्म का फल स्वयं शात नहीं होता, फिर भी पिता या गुरु के उपदेश से उस में प्रवृत्त होता है तो प्रवृत्त होने के समय उसे यह स्मरण अवश्य होता है कि पिता ने या गुरुजी ने इस कर्म को करने का उपदेश दिया है। किन्तु वेदार्थ का अनुष्ठान करने वाले विद्वान वणिकों को भी घेद कर्ता का स्मरण नहीं होता है । अतः वेद के कर्ता का अस्तित्व होने पर उक्त रीति से उस के स्मरण का आपादान हो सकने से वेद में स्मरणयोग्य कर्तृकत्व तथा स्मर्यमाणकर्तृकत्वाभाव रहने से उस में उक्त विशिष्ट हेतु विद्यमान है। इसलिए उस हेतु से बेद में अपौरुषेयत्व का अनुमान होने में कोई बाधा नहीं है" -तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि उक्त हेतु अम्य के आगम में अपौरुषेयत्व का ट्यभि. चारी है। यत: यह बात नहीं है कि अन्य आगम का कर्ता स्मरणयोग्य नहीं है अथवा मस्मर्यमाण नहीं है। अत एवं उस में स्मरण योग्य कर्तृकत्त्य तथा अस्मय॑माण कर्तृकाष दोनों के होने से पवं अपौरुषेयत्व न होने से उस में उक्त हेतु में अपौरुषेयत्व का व्यभिचार स्पष्ट है । [ उपदेशकर्ता के स्मरणपूर्वक प्रवृत्ति का नियम असिद्ध ] आगमान्तर में व्यभिचार के अतिरिक्त बेद में उस की स्वरूपासिद्धि भी है क्योंकि जिस रीति से वेद में स्मरणयोग्य फर्तकत्व की उपपत्ति की गयी है उस रीति के निराधार होने से वेद में स्मरणयोग्यकर्तृकत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । आशय यह है कि वेद में स्मरणयोग्यकर्तृकत्व की सिद्धि इस नियम के आधार पर की गयी है कि 'कर्मानुष्ठान में प्रवृत्त होने वाले पुरुष कर्मानुष्ठान के उपदेशकर्ता का स्मरण करके ही कर्मानुष्ठान में प्रवन होते हैं।' किन्तु यह नियम असिद्ध है क्योंकि यह नहीं देखा जाता कि पाणिनि आदि द्वारा रचित व्याकरण द्वारा निष्पन्न शब्दों का व्यवहार करने वाले पुरुष उन शब्दों का व्यवहार करने के समय उन शब्दों का अनुशासन करने वाले व्याकरण के रचयिता पाणिनि आदि का स्मरण अवश्य करते हों। अपिसु देखा यह जाता है कि जिन पुरुषों को जिन शब्दों की निष्पत्ति के नियम ज्ञात होते हैं ये उन नियमों के निर्देशकर्ता का स्मरण किए बिना ही 'भवति' आदि साधु शब्दों का प्रयोग बिना विलम्ब करते हैं। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] [ शामवार्ताः स्त० १०/४३ 'आधाभिमतं हिरण्यगर्भवेदाध्ययनं गुरुमुखाधीतवेदाध्ययनपूर्वकम् , वेदाध्ययनत्वात, इदानींतनवेदाध्ययनवत्' इत्येतदप्यसाधनमित्यभिधातुमाह-- स्वकृताध्ययनस्यापि तद्भायो न विरुध्यते । गौरवापादनार्थं च तथा स्यादनिवेदनम् ।।४३॥ स्वकृताध्ययनस्यापि स्वरचितपाठस्यापि, तद्भावः-आद्याध्ययनभावः न विरुध्यते कालिदासादिकृतकुमारसंभवादौ तथा दर्शनात् । तथा चायं व्यभिचारी हेतुरिति भावः । कृतापलापे कारणमाह -गौरवापादनार्थ च-प्रस्तुतग्रन्थस्याग्गिनिर्मितत्व संभावनादिनाऽत्यादरार्थ च, तथा स्यादनिवेदनंमदत 'मत्कृतोऽयम्' इति ॥४३।। ___ यदि यह कहा जाय कि-'जिन नियमों से शब्द की निष्पत्ति होती है । उन नियमों के बोधक शास्त्र में अनातोक्तत्य की शंका होने पर, पयं जिस शास्त्र से जिन कर्मों के अनुष्ठान में प्रवृत्ति होती है उस शास्त्र में अनाप्नोक्तत्व की शंका हो जाने पर शब्दप्रयोग में तथा शास्त्रोक्त कर्मानुष्ठान में मनुष्य की प्रवृत्ति का प्रतिबन्ध हो जाता है। अत: शब्दसाधुत्ववोधक व्याकरण में तथा कर्मानुष्ठान के बोधकशास्त्र में आप्तोक्तत्व का निश्चय आवश्यक है। -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि व्याकरण में अनातोकत्व की शंका होने से व्याकरण से निष्पन्न होने वाले शब्दों के साधुत्य की शंका हो जाती है, पर्व कर्मानुष्ठान के बोधक शास्त्र में अनाप्तोक्तत्व की शंका होने से कर्म में कर्त्तव्यत्व की शंका हो जाती है - यह बात ठीक है; किन्तु ये शंकाएँ शब्द में याच साधुत्व की शंका एवं कर्म में पाच कर्तव्यत्य की शकारूप होने से शब्द के साधुत्य निश्चय में तथा कर्म में कसंध्यत्व के निश्चय में प्रतिबन्धक नहीं हो सकती, क्योंकि ग्रामसंशय कभी भी ग्राह्यनिश्चय का प्रतिबन्धक नहीं होता। और तत्तत् शास्त्र से होने वाली प्रवृत्ति के लिए तत्तत् शास्त्र में सामान्यरूप से आप्तोक्तत्व निश्चयमात्र को ही अपेक्षणीय मानना उचित है न कि आप्तविशेष द्वारा उक्तत्व निश्चय को अपेक्षणीय सामना चाहिए। फलतः क समय अनुष्ठाता को कर्मानुष्ठान योधक शास्त्र में उस के कर्ता का विशेष रूप से स्मरण की अपेक्षा न होने से, उक्त नियम के सिद्ध न हो सकने से उस के आधार पर वेद में स्मरणयोग्य कर्तृकत्व की सिद्धि न हो सफने के कारण, वेद में उक्त विशिष्ट हेतु की स्वरूपासिद्धि अनिवार्य है ॥ ४२ ॥ [ आद्याभिमत वेदाध्ययन में गुरुमुखाधीत वेदाध्ययनपूर्वकत्व की असिद्धि ] ४३ थीं कारिका में यह बात बताई गयी है कि वेदपौरुषेयत्ववादी हिरण्यगर्भ के जिस अध्ययन को आद्य अध्ययन मानते हैं उस में इदानीन्तन वेदाध्ययन के दृषान्त से वेदाध्ययनत्व हेतु से गुरुमुखाधीन वेदाध्ययनपूर्वकत्व का साधन कर के वेद की अपौरुषेयता का समर्थन नहीं किया जा सकता। कारिका का अर्थ इसप्रकार है हिरण्यगर्भ के वेदाध्ययन को आध अध्ययन मानने में कोई विरोध नहीं है। यह निस्सं. कोच कहा जा सकता है कि हिरण्यगर्भ ने येद की रमना कर के उस का मध्ययन प्रस किया है। केवल इस नातं उस अध्ययन को आय अध्ययन मानना उचित नहीं हो सकता कि हिरण्यगर्भ ने अपने अधीत वेद को अपने द्वारा रचित नहीं कहा है, क्योंकि वेद को अर्याग्दी से भनिर्मित कहने पर उस का गौरव हो सकता है, लोक में उस का आदरपूर्वक ग्रहण हो सकता है, इस दृष्टि से भी वेद के कर्ता द्वारा उस में स्वकृतस्य का गोपन हो सकता है। अन्यथा, कालीदासकृत कुमारसम्भव आदि में कालिदास द्वारा स्वक्कतत्व का प्रदर्शन Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ) [ १८१ 'वैदिकमन्त्रशब्दा अपौरुषेयाः, समर्थत्वात् , व्यतिरेके शब्दान्तरं दृष्ट्वान्तः' इत्यप्यसाधनमित्यभिधातुमाह मन्त्रादीनां च सामर्थ्य शावराणामपि स्फुटम् । प्रतीतं सर्वलोकेऽपि न चाप्यन्यमिचारि तत् ॥ ४४ ॥ मन्त्रादीनां च सामर्थ्य विषापहरणादौ, शावराणामपि पौरुषेयाणामपि, स्फुट-सर्वसाक्षिकं सर्वलोकेऽपि प्रतीतम् , तथा च व्यभिचार इति भावः । असिद्धतामप्याह-न चापि तत्=भवदभिमतं वेदमन्त्रसामर्थ्यम् अन्यभिचारि, सुप्रयुक्तमन्त्रेऽपि विवाहादिकर्मणि वैधक्ष्यादिदर्शनात् । तदेवमयौरुषेयत्वमपि नान्यः हिरोहयतीति भातम् । । करने से यह भी कहा जा सकता है कि कुमारसम्भव का भी आध अध्ययन नहीं है किन्तु, कुमारसम्भव के इवानीन्तन अध्ययन के समय आद्य माने जाने वाले कुमारसम्भव के अध्ययन में भी गुरुमुवाधीन कुमारसम्भव के अध्ययनपूर्वकत्व का अनुमान फर कुमारसम्भव के भी अपौरुषेयत्व की सिद्धि की आपत्ति हो सकती है। कहने का आशय यह है कि वेदाध्ययनत्व में गुरुमुखाधीतवेदाध्ययनपूर्वकत्व की ध्यामि तभी मान्य हो सकती है कि जब सामान्य रूप से यह व्याप्ति मान्य हो सके कि तत् तत का अध्ययन गुरुमुखाधीन तसदध्ययनपूर्वक होता है-किन्तु ऐसी व्याप्ति नहीं है, क्योंकि कुमारसम्भत्र आदि के आध अध्ययन में गुरुमुखाधीन कुमारसम्भवाध्ययनपूर्वकत्व नहीं है । फलतः वेदाध्ययनत्य भी आद्य वेदाध्ययन में गुरुमुखाधीनदाध्ययनपूर्वकत्व का व्यभिचारी होने से आधाभिमत वेदाध्ययन में गुरुमुखाधीतवेदाध्ययनपूर्वकत्व का अनुमापक नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि-'आधाभिमत घेदाध्ययन पक्ष है अत: उस में हेतु में साध्य का व्यभिचार नहीं बताया जा सकता, अन्यथा पक्ष में साध्य का निश्चय न होने से अनुमान मात्र का उच्छेद हो जाएगा । -तो यह ठीक नहीं है, क्योकि पक्ष द्वाग हेतु में साध्यध्यभिचार के प्रदर्शन का तात्पर्य हेतु में अपयोजकत्र के प्रदर्शन में होता है । कहने का भाव यह है कि वेदाध्ययनत्व में गुरुमुखाधीन वेदाध्ययनपूर्वकन्व की व्याप्ति कर कोई प्रयोजक प्रबल तर्फ न होने से वेदाध्ययनत्व में गुरुमुखाधीत वेदाध्ययन पूर्षकत्व की व्याप्ति का ग्रह नहीं हो सकता। अत: वेदाध्ययनस्य हेतु से आधाभिमत वेदाध्ययन में गुरुमुखाधीत वेदाध्ययनपूर्वकत्व का अनुमान नहीं हो सकता । ४३ ॥ [ वेदमन्त्रों में अपौरुषेयत्वसाधक सामर्थ्यहेतु साध्यद्रोही ] ४४ वीं कारिका में यह बताया गया है कि शब्दान्तररूपी व्यतिरेकी दृष्टान्त से सामर्थ्य हेतु द्वारा वेद के मन्त्रात्मक शब्दों में अपौरुषेयत्व का साधन नहीं किया जा सकता। कारिका का अर्थ इसप्रकार है 'वेद के मन्त्रात्मक शब्द् अपौरुषेय हैं पोंकि सामर्थ्य युक्त हैं जो शब्द अपौरुषेय नहीं होता, उस में सामर्थ्य नहीं होता । जैसे सामान्य मनुष्य का किसी को शाप देने या वर देने का शब्द ।' -इसप्रकार का अनुमान नहीं हो सकता क्योंकि विष का अपहरण करने के लिए पुरुष प्रणीत शाबर मन्त्रों में विषापहरण का सामर्थ्य सर्वमान्य होने से उन मन्त्रों में सामर्थ्य अपौरुषेयस्व का व्यभिचारी है। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १८२ ] [शाब्बार्ता स्त. १०/बेदेऽपि पठ्यते शेष महात्मा तत्र तत्र यत् । स व मानमतोऽप्यस्याऽसत्वं वक्तुं न युज्यते ॥ ४५ ॥ अन्यदण्याह वेदेऽपि पठ्यते पेपः सर्वज्ञः महात्मा-शुद्धसत्वः, तत्र तत्र " स सर्वविद् यस्यैव महिमा " इत्यादौ यत् यस्मात्, स च-येदः मानं प्रमाणं भवताम्, अतोऽपि हेतोः अस्थ-सर्वज्ञस्य असत्वं वक्तुं न युज्यते ।। ४५ ॥ न चाप्पतीन्द्रियार्थत्वाज्ज्यायो विषयकल्पनम् । असाक्षाद्दर्शिनस्तत्र रूपेऽन्धस्येव सर्वथा ॥४६॥ न चेहार्थवादादिकल्पनया परिहार इत्याह न चाप्यतीन्द्रियार्थत्वात् साक्षात् तदर्थाऽदर्शनात् , ज्यायः-शोभनम् विषयकल्पनम्= अर्थवादादिकल्पनम् असाक्षाद्दर्शिनः छद्मस्थस्थ, तत्र-वैदे, निदर्शनमाह-सर्वथाऽन्धस्य= जात्यन्धस्य रूप इव-नीलादौ विषय इव । यथा हिं जात्यन्धस्य न सम्यग नीलादिग्रहण श्लाघा युज्यते, तथा च्छद्मस्थस्यापि सर्ववित्त्वश्लाघेति । न च सिद्धार्थस्य स्वार्थेऽप्रामाण्यमपि वक्तुं युक्तम् , व्यभिचार के अतिरिक्त सामर्थ्य हेतु वेद मन्त्रों में स्वरूपासिद्ध भी है क्योंकि वेद मन्त्रों के सभ्यक प्रयोग द्वारा विवाहादि संस्कार होने पर भी विवाहित श्री का वैधव्य आदि होने से धैवाहिक वेद मन्त्रों में सामर्थ्य का अभाव स्पष्ट है। तो जैसे विपरीत फल होने से बेद मन्त्रों में सामर्थ्य नहीं सिद्ध होता उसीप्रकार किसी भी हेतु से उस में अपौरुषेयत्व भी नहीं सिद्ध हो सकता ॥ १४ ॥ ४५वीं कारिका में बेद में अपौरुषेयत्व की सिद्धि के विरुद्ध अन्य बात भी बताई गयी है कारिका का अर्थ इसप्रकार है-वेद में भी तत्तत् स्थलों में शुद्ध बुख सर्वश के अस्तित्व का स्पष्ट उल्लेख है । जैसे स सर्पयिद यस्यैष महिमा-जिस की यह सृष्टि की रचना आदि महिमा है वह सर्ववेसा है,' इसप्रकार वेद में अनेक स्थान में सर्वश का उल्लेख है और बेदाऽपौरुषे. यत्ववादी के मत में वेद प्रमाण है। अतः वेदात्मक प्रमाण से ही संर्षश की सिद्धि होने से उस का भसदभाष अताना युक्तितंगत नहीं हो सकता ॥ १५ ॥ [ असर्वज्ञ का सर्वज्ञ रूप में अर्थवाद अनुचित ] ४६ वीं कारिका में यह बताया गया है कि घेद में जो सर्वत की सत्ता के योधक वाक्य प्राप्त होते हैं उन्हें सामान्य मनुष्य की अपेक्षा अधिकवेत्ता की प्रशंसा में प्रयुक्त-अर्थवाद मान कर उग से सर्वश की सिद्धि की आपत्ति का परिहार नहीं किया जा सकता । कारिका का अर्थ इसप्रकार है जो पुरुष छद्मस्थ-मिथ्याशाम के संस्कार से सम्पम यानी असर्वश होता है, उस के लिए वेद में वर्णित अनेक अर्थ अतीन्द्रिय होते है जिन का साक्षाद् दर्शन उन्हें नहीं होता । अतः उन के विषय में येद में अर्थवाद की कल्पना उचित नहीं हो सकती, क्योंकि असर्वज्ञ की सर्वश के रूप में प्रशंसा उतनी ही अनुचित है जितनी जन्मना अग्ध मनुष्य की नील आदि रूपों के द्रष्टा रूप में। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या, क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ १८३ प्रथमं गृहीताया अपि शब्दत्वावच्छेदेन कार्यस्वविशिष्टशक्तरुत्तरकालं बाधकदर्शनेन त्यागात्, प्रथमं गृहीताया इव चन्द्र-तारादिस्वरूपताया उत्तरप्रवृत्तागमादिमूलतत्महत्त्वज्ञाने अनुभावकत्वे आकासादिवत्साध्यतोपरागस्याआमाणिकगौरवेणाऽप्रयोजकत्वाच्च; अन्यथा 'परिणतिसुरसमाम्रफलम् ' इत्यादिबाक्यश्रवणानन्तरं सुरसाम्रफलानुभवाभावेन प्रवृत्त्यनुपपत्तिप्रसङ्गात् । न च सत्र क्रियापदमध्याहृत्यैव प्रवृत्तिरिति वाच्यम् ; अध्याहारे मानाभावात् । किञ्च, 'पुत्रो जातस्ते' इति श्रवणे हर्षप्रयुक्तमुखप्रसाददर्शनाद् हर्षस्य ज्ञानसाध्यत्वात् पुत्रजन्मज्ञान उपचितस्य वाक्यस्यैव हेतुत्वौचित्यात् । अन्यथा 'गामानय' इत्यादावपि प्रमाणान्तरजन्यज्ञानेनान्यथासिद्धिप्रसङ्गात् कथं न सिद्धार्थस्यानुभावकत्वम् ! । यदि चाप्रवृत्तिपराद् वाक्यादननुभव एव, तवा तत्र मूकतैब स्यात् , ज्यवहाराभावात् । असंसर्गग्रहादेव तत्र व्यवहारोपपादने चान्यत्रापि तत एव तदुपपत्तिः किं न स्यात् ! । इति प्रवृत्तिवद् व्यवहारस्याप्यनुभवप्रमाणतया सिद्धं सिद्धार्थस्यानुभावकतया ॥४६।। यदि यह कहा जाय कि- सिद्धार्थक-विधिप्रत्यय से अनधीत यायय, स्वार्थ में प्रमाण नहीं होता। अतः सर्वबोधक षचन भी सिद्धार्थक होने से सर्पज्ञ की सत्ता में प्रमाण नहीं हो सकता' -तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रयोजक और प्रयोज्य वयस्क पुरुषों के व्यवहार से जिज्ञासु बालक को सर्वप्रथम शब्दसामान्य का सक्तिग्रह यद्यपि कार्यत्व क्रिया से अन्चित अर्थ में ही होता है किन्तु बाद में लाघघ-गौरव का विचार करने पर पूर्वजात शक्तिग्रह को न्याग कर लाधवषश स्वार्थ में ही शक्ति का अवधारण होता है। पूर्व में गृहीत के त्याग की कल्पना कोई अप्रामाणिक अपूर्वकल्पना नहीं है, क्योंकि चन्द्रमा-नक्षत्र आदि में पहले स्वल्पपरिणाम का ग्रहण होने पर भी बाद में शास्त्र से उन के महत्परिणाम का ज्ञान होने पर पूर्व गृहीत परिमाण को अमान्य कर दिया जाता है। दूसरी बात यह है कि आफाका आदि जिस प्रकार शब्द में अर्थ की अनुभाषकता का प्रयोजक होता है उसप्रकार साध्यता का उपराग यानी कार्यता का सम्बन्ध अनुभाषकता में प्रयोजक नहीं होता । अतः जिस अर्थ में साध्यता का उपराग नहीं है किन्तु सिद्धता है शरद में उस की अनुभावकता का अपलाप नहीं किया जा सकता, क्योंकि शब्द से सिद्धार्थ के बोध का अपलाप किया जाएगा तो "परिणतिसुरसमाम्रफलम् ग्राम का फल पकने पर सुमधुर रस से भर जाता है ।" -इस वाक्य का श्रवण होने के अनन्तर मीट रस घाले आम्रफल का अनुभव न होने से आम्रफल, के ग्रहण में उक्त वाक्य के श्रोता की प्रवृत्ति न हो सकेगी क्योंकि अध्याहार में प्रमाण न होने से ग्रहाण-ग्रहण करो' या भिश्च खायो' इत्यादि क्रियापद का अध्याहार कर के उक्त वाक्य से अर्थानुभव की उत्पत्ति नहीं की जा सकती ।। इस के अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि 'पुत्रस्त जात.तुम्हें पुत्र उत्पन्न हुआ' इस वाक्य को सुनने पर श्रोता का मुख प्रसन्न हो उठता है उस की इस प्रसन्नता से उस के हर्ष का, हर्ष से हर्ष के कारण पुषजन्म ज्ञान का अनुमान होकर उस ज्ञान का अन्य साधन उपस्थित न होने से उस शान से उक्त वाक्य में ही उस ज्ञान की कारणता का अनुमान होता है । अतः सिद्धार्थक वाक्य में भी अर्थानुभावकता निर्विवाद सिद्ध है। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] [शास्त्रपा० स्त० १०/४७ सर्वज्ञेन यभिव्यक्तात्सर्वार्थादागमात् पस। धर्माधर्मव्यवस्थेयं युज्यते नान्यतः क्वचित् ॥४७॥ उपसंहरनाह-सर्वज्ञेन हि-सर्वज्ञेनैव, अभिव्यक्तात्-प्रकाशितात् सर्वार्थात् सर्वविषयात् आगमात् , परा=मुमुक्षु-सत्साधुपरिग्रहादुत्कृष्टा, इयं प्रत्यक्षलक्ष्यमाणा धर्मा-ऽधर्मव्यवस्था युज्यते, नान्यतः नान्यस्मादपौरुषेयत्वाभिमतादागमात्, कचित् कदाचनेयं युज्यते । धर्मा-ऽधर्मव्यवस्थेय कृतविश्वपरिग्रहा । यतः प्रवर्तते शश्वत् त सर्वज्ञमुपास्महे ॥४७॥ ___ यदि यह कहा जाय कि-'उक्त वाक्य के अन्तर्गत तत्तत् पदों से तत्तत् अर्थ की उपस्थिति होने पर तत्तत् अर्थों का सम्बन्धज्ञान ज्ञानमक्षणसन्निकर्ष सहकृत मन से प्रत्यक्षात्मक होता है, न कि उक्त वाक्य से शाब्दबोधात्मक 1 अत: सिद्धार्थक वाक्य में अनुभाषकता असिद्ध है' -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'पुत्रस्ते जातः' इस वाक्य में उक्त रीति से अर्थानुभावकत्व का निरास करने पर 'गामानय-गौ ले आओ' इस बाश्य की अर्थानुभावकता भी निरस्त हो जाएगी । यतः उस वाक्य के विषय में भी यह कहा जा सकेगा कि चास्यपटक तत्तत् पदों से तत्तत् अर्थ की उपस्थिति होने पर ज्ञानलक्षण सन्निकर्ष सह कृत मन से तत्तत् अर्थ के सम्बन्ध का प्रत्यक्षात्मक ही ज्ञान होता है, शाब्दबोधरूप नहीं होता । फलतः यह निर्वाधरूप से सिद्ध हो सकता है कि जैसे प्रवर्तक वाक्य अर्ध का अनुभात्रक होता है. उसीप्रकार सिद्धार्थक वाक्य भी अर्थ का अनुभावक होता है । यदि यह कहा जाय कि- जो वाक्य प्रवृत्तिपरक नहीं होता उस से अनुभव की उत्पत्ति नहीं ही होती' -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर अप्रवर्तक वाक्य के विषय में मनुष्य को मृक ही रह जाना होगा क्योंकि उस से कोई व्यवहार नहीं हो सकता । और यदि अप्रवर्तक याक्य के पदों से उपस्थित अर्थों का संसर्गबोध न होने पर भी उन के असंसर्ग के अग्रह से व्यवहार की उत्पत्ति की जाएगी तो प्रवर्तक वाक्य से भी अर्थानुभव की उत्पत्ति मानना व्यर्थ होगा । क्योंकि उस वाक्य के भी पदों से उपस्थित अर्थों के असंसर्ग के आग्रह से प्रवृत्ति की उपपत्ति हो जाएगी। अत: जैसे प्रवृत्ति अनुभवप्रमाणक-अनुभषमूलक होने से उस की उपपत्ति के लिए प्रवर्तक वाक्य को अनुभायक माना जाता है। उसी प्रकार व्यवहार भी अनुभवमूलक होने से उस की उपपत्ति के लिए सिद्धार्थक याक्य को भी अनुभावक मानना आवश्यक है ।। ४६ ।। [ सर्वज्ञसिद्ध वार्ता उपसंहार ] ४७ वीं कारिका में, सर्वश की सिद्धि के विषय में किए गये विचारों का उपसंहार किया गया है 1 कारिका का अथं इसप्रकार है सर्व से ही अभिव्यक्त होने पर आगम मार्थविषयक हो सकता है और आगम के साथविषयक होने पर ही धर्म-अधर्म की ऐसी व्यवस्था हो सकती है जो मोक्षार्थी एवं सच्चे। साधुओं के द्वारा परिगृहीत होने से उस्कृष्ट कही जा सके। आगम को अपौरुषेय मानने पर उस से धर्म-अधर्म की उत्कृष्ट व्यवस्था नहीं हो सकती क्योंकि आगम के अपौरुषेय होने पर आगमोक अर्थ में प्रामाणिकता का निश्चय नहीं हो सकता । अतः ध्याख्याकार उस सर्वज्ञ की उपासना में अपने को सतत संलग्न बताते हैं जिस के द्वारा धर्म-अधर्म की ऐसी उत्कृष्ट व्यवस्था होती है जिस का परिग्रह समृचा संसार करता आया है ।। ५७ ।। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ १८५ वार्तान्तरमाहअत्रापि प्राज्ञ इत्यन्य इत्थमाह सुभाषितम् । इष्टोऽयमर्थः शक्येत ज्ञातुं सोऽतिशयो यदि ॥१८॥ अत्रापि-अनन्तरोदितवार्तायामपि, प्राज्ञः पण्डितः, इति-अम्मादेतोः, अन्यः-सौगतः, इत्थं - वक्ष्यमाणनीत्या आह 'सुभापितम्' इत्युपहरति । इष्टोऽयमर्थः-'सर्बहेन छभिव्यक्तात्' इत्यादिमोक्तः, शक्यंत ज्ञातुम् स:-अर्थः 'अर्थ सर्वज्ञः, अयं च तहामन्यतार्थ आगमः' इत्येव विभक्त स्वभाव: यद्यतिशयो-गुणविशेषः स्यात् । ।।४८।। एतदेवाह-.. अयमेव न चेत्यन्यदोपो निर्दोपतापि वा। दुर्लभवात् प्रमाणानां दुर्योधेत्यपरे विदः ॥१९|| अयमेव सर्वज्ञः, न च अयं न सर्वज्ञश्च, इति एवम् अन्यदोषःसंतानान्तरवर्तिदोषः, निर्दोषतापि वासंतानान्तरवर्तितोपाभावोऽपि बा, प्रमाणान परचेतसाम् दुर्लभत्त्वान् अप्रत्यक्षत्वात् दुर्बोधा=दुर्ज्ञाना, इत्यपरे-सौगताः विदुः-जानन्ति ।।४।। अत्रं समाधानवान्तिरमाद--.. ____ अत्रापि बने बृद्धाः सिद्धमव्यभिचार्य पि । लोके गुणादि विज्ञानं सामान्येन महात्मनाम् ।।५।। [सर्वज्ञ और तदुरचित आगम की प्रतीति दुर्लभ चौद्धयादी] १८ वी कारिका में पूर्वकारिका में वर्णित विषय के सम्बन्ध में पक अन्य बात कही गयी है जो इसप्रकार है इस कारिका द्वारा ग्रन्थकार ने एक प्रकार का उपहास करते हुए यह कहा है कि पुक्ति विषय में भी अपने को प्राक्ष मान कर बौद्ध का यह कहना है कि सर्वज्ञ पुरुष द्वारा अभिः ध्यक्त समग्र अर्थजात के प्रतिपादक आगम से धर्म-अधर्म की व्यवस्था होती है यह बात तब ज्ञात हो सकती है जब कोई ऐसा अतिशय यानी मा विशिष्ट गुण हो जिम के द्वारा यह निश्चय किया जा सके कि 'अमूक प्रक्ति सर्वश है और अमुक आगम उस के द्वारा अभिव्यक्त किया गया है' ॥ ४८ ।।। ४२ वीं कारिका द्वारा अन्य कतिपय बौद्ध विधानों का यह मन्तव्य प्रगट किया गया है कि यत: प्राण (=पर चिसवृत्ति ) दुर्लभ-दुखीय होता है अत: यह विषय अत्यन्त दुज्ञेय है कि 'अमुक व्यक्ति सर्वज्ञ है और अमुक सश नहीं है' । अgक सन्तान ( शान स्वाह) दोषयुक्त है और अमुक सन्तान निषि है। दोनों कारिकाओं से बौद्ध विद्वानों का यह आशय प्रकट किया गया है कि लश और उस से प्रणीत आग की पहचान कठिन है। अतः धर्म अधर्म की व्यवस्था को सर्वशमुलक बताना एक दुष्कर कार्य है ॥ १ ॥ ५० ची कारिका द्वारा सर्वश के सम्बन्ध में बौद्ध द्वाग प्रकट किये गये विचारों का पक समाधान बताया गया है । बोहों द्वारा प्रस्तुत किए गये विचार के सम्बन्ध में सिद्धान्त वेगा कैग विद्वानों का कहना है कि मंसार में ऐसे अनेक महात्मा-प्राशजन हैं जिन्हें प्रत्यक्षप्रमाण से नहीं किन्तु सामान्यतो. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवा० स्त० १०५१ अत्रापि सौगतोदितविचारेऽपि अवते समादधति वृद्धा-सिद्धान्तपारीणाः । किम् ! इत्याह-सिद्ध प्रतिष्ठितम् , अव्यभिचायपि-नियमबदपि लोके जगति गुणादि विज्ञानं-गुण-दोषविज्ञानम् सामान्येन सामान्यतोदृष्टानुमानरूपप्रज्ञया, न तु साक्षात्कारेण, महात्मनां प्राज्ञानाम् ॥५१॥ __ अत्रैव हेतुं दर्शयतितन्नीतिप्रतिपक्ष्यादेरन्यथा तन्न युक्तिमत् । विशेषज्ञानमप्येवं तद्वदभ्यासतो न किम् ? ॥५१॥ तनीतिप्रतिपत्त्यादेः दिग्नागाचायन्यायानुसरणादेः 'यद् वृद्धभ्यायानुसारि विज्ञान तद् गुणपूर्वकम्' इति व्याप्तेः, अन्यथा तत्-नीतिपतिपत्त्यादि न युक्तिमत् , अप्रेक्षापूर्वका रिनीतित्वात् । सामान्यसिद्धी विशेषज्ञक सिपाह-विशेषज्ञानमपि अधिकृते पुसि विशिष्टगुणज्ञानमपि एवम् = उक्तमज्ञादिशा, तद्वत् सामान्यगुणवत् अभ्यासतो-न किम् !-भवत्येव साध्यतल्लिमायनुमानपरम्परापृष्ट अनुमान से गुण-दोन का व्यवस्थित और अव्यभिचरित शान होता है। अत: यह कहना ठीक नहीं है कि सर्वनता-असर्वशता दोपधता और निर्वाषता आदि का ज्ञान प्राप्त करना शक्य नहीं है ॥५०॥ [विज्ञान में गुणपूर्वकत्व साधक अनुमान ] ५१ वीं कारिका द्वारा पूर्व कारिका में उस. विषय के समर्थक हेतु का प्रतिपादन किया गया है___ आचार्य विग्नाग की नीति के अनुसरण के आधार पर विज्ञान में गुणपूर्वकत्व की प्रतिपत्ति-सिद्धि हो सकती है। अर्थात् इसप्रकार सामान्यतः अनुमान किया जा सकता है कि अमुक विज्ञान गुणपूर्वक है, क्योंकि आचार्य दिग्नाग की नीति के अनुरूप है । जो भी त्रिज्ञान वृद्ध विद्वान पुरुषों की नीति के अनुरूप होता है वह गुणपूर्वक होता है यह व्याप्ति है । यदि यह व्यामि न मानी जाएगी तो दिग्नाग की नीति के अनुरूप होने वाली प्रतिपत्ति भी युक्तिमगत न हो सकेगी, क्योंकि वह उक्त व्याप्ति की अभान दशा में, प्रेक्षापूर्वकारि यानी सदसत् के विधेक से कार्य करने की प्रकृतिवाले पुरुष की नीति के अनुरूप न होकर विपरीत नीति के अनुरूप होगी । आचार्य दिग्नाग चौद्धसम्भदाय के सर्वमान्य मनीषी हैं। अतः उन की नीति के अनुरूप उत्पन्न विज्ञान में गुणपूर्वकत्व की उपेक्षा धौर भी नहीं कर सकते । फलत: उक्त ध्याप्ति के बल से सामान्यरूप से यह अनुमान निर्वाधरूप से सम्भव हो सकता है कि विद्वज्जनों के न्याय के अनुरूप विज्ञान गुणपूर्षक होता है । [ परमप्रकृष्ट गुणसाधक अनुमान ] कारिका के उत्तरार्ध में यह बात बताई गई है कि जैसे उक्त व्याप्ति के बल से सामान्यरूप से विज्ञान में गुणपूर्वकत्व की सिद्धि होती है उमीप्रकार उपर्युक्त व्याप्ति के बल से विशेष शान भी हो सकता है। अर्थात् अधिकृत ध्यक्ति में विशिष्ट गुण का शान भी हो सकता है। यही बात " अभ्यासतो न किम् " ? इसप्रकार प्रश्न की मुना में कही गयी है । जिस का आशय यह है कि अभ्यास से अर्थात् विशिष्ट गुणरूप साध्य के लिङ्ग के पुन: पुन: शान से अधिकृत पुरुषं में विशिष्टगुण का अनुमान क्यों नहीं हो सकता ? आशय यह है कि विशिष्ट Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८७ स्था. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] " रूपादभ्यासात् प्रकृतपक्षकं विशिष्टगुणसाध्यकं व्यतिरेक्यनुभानमिति भावः । तत्र 'अयं परमप्रकृष्टगुणवान्, अशेषसंशयापनायकत्वात् दृष्टेष्टाविरुद्ध बचनत्वाद् वा, यो नैवं स नैवं यथा या पुरुषः इति व्यतिरेकिणि साध्यप्रसिद्धये ' रागादीनामत्यन्तक्षयः परमप्रकृष्टगुणपूर्वकः, सतारतम्यानुविधाय्यत्यन्तापकर्षत्वात्, यो यतारतम्यानुविधाय्यत्यन्तापकर्षः स परमप्रकृष्टतत्पूर्वकः, यथा शीतस्पर्शात्यन्तक्षयः परमप्रकृष्टोष्णस्पर्शपूर्वकः' इत्यन्वय्यनुमानमुपयुज्यते; तत्र च पक्षज्ञानार्थ 'रागादय कचिदत्यन्त श्रीयन्ते, श्रीयमाणत्वात्' इत्युपयुज्यते ॥ ५१ ॥ एतदेवाहदोपण हा तत्सर्वक्षय संभवात् । तत्सिद्धौ ज्ञायते प्राज्ञस्तस्यातिशय इत्यपि ॥ ५२ ॥ गुण का अपेक्षित अनुमान साध्य के उपर्युक्त लिङ्गशान से निर्वाध रूप से सम्भव है । यह अनुमान केवलान्वयी या अन्ययध्यतिरेकी न होकर व्यतिरेकी होगा और इस का प्रयोग इसप्रकार होगा - " अमुक पुरुष परमप्रकृष्ट गुण का आश्रय है क्योंकि वह सर्वविध समग्र संशय का परिहार करने में समर्थ है, अथवा दृष्ट और इट के अविरोधी वचन का प्रयोक्ता है। जो पुरुष परमपकृष्ट गुण का आश्रम नहीं होता, वह सर्वविध समग्र संशय का परिहार करने में समर्थ नहीं होता, अथवा दृष्ट और इष्ट के अविरोधी वचन का प्रयोक्ता नहीं होता है । जैसे गलीयों में घूमने याला पामर पुरुष ! इस अनुमान में परमप्रकृष्ट गुण साध्य है । उस की प्रसिद्धि के बिना उक्त अनुमान प्रयोग की निर्दोषता सम्भव नहीं है अतः उस की सिद्धि के लिए इसप्रकार का अन्ययी अनुमान आवश्यक है कि राग आदि दोषों का आत्यन्तिकक्षय परमप्रकृष्ट गुणजन्य है क्योंकि वह गुणतारतम्य का अनुविधान करने वाले अत्यन्त अपकर्षरूप है । जो जिस के तारतम्य का अनुविधान करने वाला अत्यन्त अपकर्ष होता है वह उस के परम प्रकर्ष से जन्य होता है। जैसे शीतस्पर्श का अत्यन्त क्षय परमप्रकृष्ट उष्णस्पर्श से होता है । इस अनुमान भें प्रस्तुत पक्ष का ज्ञान तब तक नहीं हो सकता, जब तक यह सिद्ध न हो कि राग आदि के अत्यन्त क्षय का कोई स्थान है । अतः यह भी अनुमान अपेक्षित है कि राग आदि का किसी पुरुषविशेष में अत्यन्त क्षय होता है क्योंकि राग आदि बराबर क्षीयमाण भी है, जो निरन्तर क्षीयमाण होता है उस के अत्यन्त क्षय का कोई स्थान होता है जैसे श्रीयमाण दीपमाला का अत्यन्त क्षय आधारभूत दीप में होता है । इसप्रकार इस कारिका से यह बात स्पष्ट की गयी कि अशेष संशय का परिहर्ता विश्वसनीय आगम का प्रणेता परमप्रकृष्ट गुण का आश्रयभूत पुरुष मान्य तीर्थेङ्कर की अनुमान द्वारा सिद्धि निर्विवाद है ।। ५१ ।। [ रामादि के द्वास से अतिशय सिद्धि ] ५२ वीं कारिका द्वारा पूर्वकारिका में उक्त अर्थ का ही एक दूसरे प्रकार से समर्थन किया गया है । कारिका का आशय यह है कि राग आदि दोषों का विरोधी भावना के बल से उत्तरोत्तर हाम - अंशतः नाश देखा जाता है। इस से यह सिद्ध होता है कि पूरे राग भादि का अत्यन्त क्षय भी किसी न किसी दिन हो सकता है। और जब प्रतिपक्ष भावना के उत्कर्ष से राग आदि के आत्यन्तिक क्षय की सिद्धि हो जाती है तो प्राप्त जनों को यह समझने में Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] [ शामवार्ता० स० १०/५३ दोषाणारागादीनाम्, हासदृष्टया प्रतिपक्षभावनाबलेन देशतो नाशदर्शनेन । तेन जन्मादीनामपि हासदर्शनात् ऋदाचिदत्यन्तहाससभबाद् महापल्याभ्युपगमः परेषां निरस्यते, तत्प्रतिपक्षाभावेन तदत्यन्तहासाऽयोगात, धर्महासेन तन्मूलशुभजन्मादिहासेऽपि षष्ठारकादाबधर्ममूलजन्मादिपरिग्रहादिति द्रष्टव्यम् । इह-जगति, तत्सर्वेक्षयसभवात तेषां रागादानां प्रतिपक्षोत्कर्षेण सर्वक्षयोपपत्तः, तत्सिद्धौ कचिदतिशयसिद्धौ ज्ञायते प्राज्ञैः तम्य अधिकृतस्य अतिशय इत्यपि ।।१२।। कथम् ! इत्याहहृदनाशेषसंशीतिनिर्णयादिप्रभावतः । तदात्वे, वर्तमाने तु तद्वयक्तार्थाऽविरोधतः ।।५३॥ हृद्गतानामशेषसंशीतीनां निर्णयो निराकरणम् आदिना इष्टेष्टाऽविरुद्धोक्तिसामर्थ्यग्रहः, तयोः प्रभावोऽतिशयव्याप्यत्वं ततः, तदात्वेसर्वज्ञसद्भाचकाले यादप्यतः, वर्तमाने तु-सांप्रतं पुनः, तद्वयक्तार्थाविरोधतः तेनातिशययता व्यक्त उपविष्टो च आगमस्तदर्थपौर्वापर्याऽव्याघातेन केवलेनैवेति ॥५३।३ कोई कठिनाई नहीं होती कि अमुक अधिकारी पुरुष उम अतिशय से सम्पन्न है, जिस से सर्वज्ञता की प्राप्ति हो सकती है। राग आदि दोषों के हास से गग आदि के आत्यन्तिकक्षय की जो बात कही गयी है। उस से यह नहीं समझना चाहिए कि-'जन्म आदि का कभी अत्यन्त हास हो सकता है, जिस से किसी दिन विश्य का महामन्थ्य भी सम्भव है जैसा कि नैयायिकों का कथन है ' -क्योंकि प्रतिपक्ष के बल से ही अत्यन्त हास सम्भव होता है। जन्म आदि का ऐसा कोई प्रतिपक्ष नहीं है जिस के उत्कर्ष से जन्म आदि का अत्यन्त हास हो सके । धर्म जम्मका एक का एक कारण है और उस का हास भी होता है किन्तु उस के हास में शुभ जन्म का ह्रास अवश्य हो सकता है किन्तु उस से अधर्ममूलक जाम आदि की निवृत्ति नहीं हो सकती क्योकि शुभ जन्म के कारणभत धर्म का नाम हो जाने पर छटा आरा इत्यादि काल में अधर्ममूलक जन्म आदि होने की बात आगमों द्वारा वर्णित है । अत: किनी काल में विश्व के महाप्रलय की सम्भावना नहीं हो सकती । इसलिए रागादि दोषों से अतिशय गुणविशेष सम्पन्न पुरुष की सिद्धि में कोई बाधा नहीं है । अतः प्राश कनों द्वारा पुरुष विशेष में अतिशय का अवबोध दुष्कर नहीं है ।। ५२ ॥ [संशय का उच्छेद और पूर्वापर अव्याघात से अतिशय का पता] २३ वी कारिका में पूर्व कारिका दाग उक्त अर्थ की उपपत्ति का प्रकार बताया गया हैजिस से ग्रह विषय पर होता है कि अतिशय सम्पन्न सर्वज्ञ पुरुष के जीवनकाल में उस के अतिशय का शान दो बातो से होता है। एक यह कि उम में मनुष्य के हृदय में विद्यमान सम्पूर्ण संशयों को हर करने की शक्ति होती और दुसरी बात यह है कि उसका पचन दृष्ट और इष्ट का विरोधी नहीं होता है । यह दोनों ही बातें अतिशय की व्याप्य है अर्थात् जिम पुरुष में अतिशय नहीं है उस में उपर्युक्त बातें नहीं होती है। उस के अतिशय का शान उस के द्वारा रचित आगम के प्रतिपाय विषयों में पीपर्य का व्याघात न होने से सम्पन्न होता है, क्योंकि जो व्यक्ति अतिशय से युक्त नहीं होता वह जिस ग्रन्थ की रचना करता है उस में वर्णित पूर्यापर अर्थों में घिरोध की सम्भावना अवश्य होती है, सर्वथा अव्याहत अर्थ का प्रतिपादन अतिशय सम्पन्न पुरुष ही कर सकता है ।। ५३ ॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ १८९ एवंभूतोऽपीदानीं न दृश्यते, अतो नास्त्येवेत्याशङ्कानिवृत्त्यर्थमाह न चास्यादर्शनेऽप्यद्य साम्राज्यस्यैव नास्तिता । संभवो न्याययुक्तस्तु पूर्वमेव निदर्शितः ॥ ५४ ॥ न चास्य = अशेष संशयनिर्णयकर्तुः अदर्शनेऽभ्यद्य = सांप्रतम् साम्राज्यस्येव = चक्रवत्यदिराज्यस्येव नास्तिता = अभाव एव किन्त्वस्तिते । न हीदानीं साम्राज्यमपि ( न ?) दृश्यते न च कदापि नास्तीति । स्थादेतत्-संभवति तदिति न तदभावः इत्यत्राह - संभवस्तु - 'अस्य' इति वर्तते, न्याययुक्तः=अनुकूलतर्कोपस्कृतः पूर्वमेव निदर्शितः 'दोषाणां हा सदृष्ट्या (का० ५२ ) इत्यादिनेति समानमेतदिति ॥ ५४ ॥ ? एवमनुमानातिशयज्ञान्दमुक्त्वा भूयोऽनुभवाहितपटुक्षयोपशमबलाद व्याप्यादिप्रतिसंधाननिरपेक्षण प्रकृष्टमतिज्ञानेनापि तदाह--- प्रातिभालोचनं तावदिदानीमध्यतीन्द्रिये । सुवैद्य संयतादीनामविसंवादि दृश्यते ॥५५|| प्रातिभालोचनम् = ध्यादिपरिणामविषय मनपेक्षितव्या प्रत्यादिप्रतिसंधानं मानसज्ञानम्, तावच्छन्दः २५ कारिका द्वारा इस शंका का निराकरण किया गया है कि- अतिशय युक्त सर्वत पुरुष का दर्शन वर्तमान में कहीं नहीं होता। अतः उस का कभी न होना ही मानना उचित है । ' कारिका का आशय यह है कि जैसे चक्रवर्ती का साम्राज्य सम्प्रति नहीं देखा जाता, किन्तु इतने मात्र से यह नहीं माना जा सकता किं चक्रवर्ती का साम्राज्य कभी नहीं था । उसीप्रकार मनुष्य * समय संशयों को दूर करने में समर्थ अतिशयसम्पन्न सर्वेश पुरुष का इस काल में दर्शन न होने पर भी यह मानना उचित नहीं हो सकता कि उस का अस्तित्व कभी नहीं था। यदि यह कहा जाय चक्रवर्ती का साम्राज्य होना सम्भव है, इसलिए उस के अदर्शन से उम का मादिक अभाव नहीं माना जा सकता. पर सर्वज्ञ पुरुष का अस्तित्व सम्भव नहीं है । अतः उस के अदर्शन से उस का नार्वेदिक अभाव मानना ही उचित है तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि सर्वज्ञपुरुष के सम्भव होने के समर्थक तर्क का ' दोषाणां हासरट्या '... इस कारिका (५२) द्वारा कर दिया गया है। अर्थात् उस कारिका द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि चारित्र के पालन से राम आदि दोषों का हास देखा जाता है । अतः यह सम्भव है कि चारित्र के पान में ओर झाम की साधना में निरन्तर लगे पुरुष के सम्पूर्ण रागादि दोषों का किसी दिन क्षय हो जाय और वह क्षीणदोष हो कर सर्वेश बन जाय । इसलिए चक्रवर्ती साम्राज्य और पुरुष दोनों का अस्तित्व समानरूप में सम्भावित है ॥ ५४ ॥ [ अतीन्द्रिय अर्थों के प्रातिभज्ञान का अस्तित्व ] उक्त रीति से अनुमान द्वारा अतिशय को ज्ञान होता है, यह बता कर २५ वीं कारिका द्वारा यह बताना है कि दीर्घ अनुभव से उत्पन्न सामर्थ्यशाली क्षयोपशम के बल से ऐसा प्रकृष्ट मतिज्ञानात्मक अतिशयज्ञान हो सकता है जिस में व्यामि आदि ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती । कारिका का आशय यह है - यह प्रसिद्ध है कि इसप्रकार का प्रातिभालांचन अर्थात् बुद्धि आदि के परिणामों को विषय करने वाला मानसिक ज्ञान होता है, जिस में व्याप्ति आदि ज्ञानों की अपेक्षा नहीं होती। इस ज्ञान का अस्तित्व वर्तमान काल में भी उपलब्ध होता है। = Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. ] [ शासवा० स्त० १०/५५-५६ प्रसिद्धयर्थः, इदानीमपि अस्मिन् कालेऽपि अतीन्द्रिये अनागतव्याध्यादिपरिणामे सुवैद्यसंयतादीनां निपुणभिषग्वरपरिणतयोगमुनिप्रभृतीनाम् , अविसंवादि अर्थक्रियाक्षमम् दृश्यते ।।५५|| प्रकृते योजनामाह-- एवं तत्रापि तद्भावे न विरोधोऽस्ति कश्चन । तदधक्तार्थाविरोधादौ ज्ञानभावाच्च सांप्रतम् ॥५६॥ एवं-सुवैद्यादीनां व्याध्यादिपरिणाम इव तत्रापि गुणवत्पुरुषेऽपि तद्भावे विशिष्टचेष्टोपलब्च्या प्रातिभातिशयालोचनभावे, न विरोधोऽस्ति कश्चनन बाधकमस्ति किञ्चित् , असाक्षाइशिनोऽपि न संभवत्येतदित्यर्थः । तथा, तद्व्यतार्थाऽविरोधादौ-तदुपदिष्टागमार्थाऽन्याघातादौ विषये, आदिना संवादादिग्रहः, झानभावात् ज्ञानोत्पादाच्चे, सांप्रतम् इदानीम् , चकारेण तत्कालोऽपि समुच्चीयते, 'न विरोधोऽस्ति कश्चन' इत्यनुपज्यते । ननु किमेतत् पातिभम् !, चेष्टादिलिअज्ञानाल्लिनिज्ञानमेवैतत् ? न, व्याप्त्यादिप्रतिसन्धानानपेक्षत्वात् । 'अस्तु तर्हि अनुमितविषय स्मरणं प्रत्यभिज्ञानं वा ।' न, विशदत्वात् , तद्वदनपेक्षत्वाच्चेति द्रष्टव्यम् ॥५६॥ जससे अनेक सद य है जिन्हे रोग के भावी परिणामों का जो सम्प्रति अतीन्द्रिय है-प्रातिभसान हो जाता है, पत्रं ऐसे अनेक मुनिजन है जिन की योगसाधना परिपक्व हो चुकी हैं उम्र भी अतीन्द्रिय अर्थ का मानसशरन हो जाता है और यह घिसंवादी (अन्यथा ) नहीं होता अपितु उस के द्वारा वांच्छित अर्थक्रिया का सम्पादन होता है |॥ ५५ ॥ [गुणवान् पुरुप में प्रातिभातिशय अविरुद्ध ] ५६वीं कारिका में प्रातिभशान के अस्तित्व में जो युक्ति बतायी गई है. प्रस्तुत कारिका द्वारा उस की योजना सर्वज्ञ पुरुष के अतिशय ज्ञान के साधन में बतायी गयी है । कारिका का अर्थ इसप्रकार है जिसप्रकार सुवैद्य आदि को व्याधि आदि के भावी परिणामों का प्रातिभशान होता है उसीप्रकार अतिशयगुण सम्पन्न पुरुष की भी विशिष्ट चेष्टानों को देख कर उस में विद्यमान अतिशय का ज्ञान उस के असाक्षाही को भी हो सकता है-ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं है। पर्व पुरुष द्वारा रचित आगम के प्रतिपाद्य पूर्वोत्तरवर्ती विषयों में अन्याधात पथं अन्य. प्रमाणों के साथ संवाद आदि के ज्ञान से भी उस पुरुष के अतिशय का ज्ञान होने में कोई विरोध नहीं है। यह अधिरोध वर्तमान समय और ऐसे पुरुष के अस्तित्व के समय में भी निर्विवाद है। यदि यह कहा जाय कि-'जिस प्रातिभशाम से पुरुषविशेष के अतिशय की जानकारी प्राप्त होने की बात कही जा रही है वह प्रातिभशान, चेष्टा आदि लिङ्ग के शान से पुत्पन्न अतिशयरूप लिङ्गी के ज्ञान से भिन्न नहीं है। -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि लिङ्गी का ज्ञान अर्थात् अनुमान, व्याप्ति आदि के ज्ञान की अपेक्षा करता है किन्तु प्रातिभशान उस की अपेक्षा नहीं करता है। यदि यह कहा जाय कि-' प्रातिभक्षान अनुमितिविषय का स्मरण है अथवा पूर्वज्ञात की उत्तरकाल में होने वाली प्रत्यभिज्ञा है.' -तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रातिभशान विशद स्पष्ट होता है और स्मरण-प्रत्यभिज्ञात्मक ज्ञान विशद नहीं होता है । साथ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विषवन ] [ १९१ ननु यदि नाम दृष्टे संवादः, तथाप्यदृष्टेऽर्थे तथाविधप्रातिभस्याऽप्रामाण्याशका न निवर्तत एवेत्यप्रयोजकं तदित्याशङ्कापोहायाह-- सर्वत्र दृष्टे संवादाददृष्टे नोपजायते। ज्ञातुर्विसंवादाशङ्का तद्वैशिष्टयोपलब्धितः ॥५७।। सर्वत्र हटेऽर्थे संवादात अर्थक्रिया क्षमत्वदर्शनात् , अदृष्ट धर्मादौ नोपजायते ज्ञातुः प्रमातुः विसंवादाला किरिशा यशा बा' इति ! कुतः ! इत्याह-तस्य व्यञ्जकस्य व्यक्तस्य वा माध्यम्याधुपायाभिधानादिना विषयतोऽविसंवादिजातीयत्वेन स्वरूपातश्च वैशिष्टयोपलब्धितः-प्रामाण्यव्याप्यधर्मवत्तोपलम्भात् ||५|| ही स्मरण को पूर्व अनुभव तथा प्रत्यभिज्ञा को पूर्व अभिशा की अपेक्षा होती है और प्रातिभज्ञान को उन की भी अपेक्षा नहीं होती है। अतः प्रातिभशान एक निरपेक्ष ज्ञान है जिस मे पुरुप विशेष को अतिशय का ज्ञान निर्वाधरूप से सम्पन्न हो सकता है ॥ ५६ ॥ [ अदृष्ट वस्तु में विसंवाद की आशंका का निराकरण ] ५७ घौं कारिका द्वारा इस शंका का परिहार किया गया है कि पृष्ट अर्थ में प्रातिभशान दी अर्थक्रिया की क्षमता के दर्शन से प्रमाणभूत माना जा सकता है किन्तु अदृष्ट अर्थ के प्रातिभज्ञान में अप्रामाण्य शंका की निवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि उस में संवाद सम्भव नहीं है । अतः यह अदृष्ट अर्थ की सिद्धि में अप्रयोजक है। कारिका का अर्थ इसप्रकार है सभी दृष्ट अर्थों में पातिभज्ञान का संवाद मिलने से अदृष्ट अर्थ के विषय में भी प्रातिभ. झान में ज्ञाता को विवाद की -अर्थात् 'यह घस्तु जिस रूप में शाम हो रही है वैसी ही है अथवा अन्यप्रकार की है। इसप्रकार की शंका नहीं हो सकती, क्योंकि प्रातिभमान विषय की दृष्टि से अधिसंवादी-दृष्पार्थविषयक-प्रातिभशान का मजातीय है और स्वरूप की दृष्टि से इस में वैशिष्टय की प्रामाण्यव्याप्यधर्म की उपलब्धि होती है। इसलिए अषिसंवादीजातीयत्व एवं विशेषधर्म के दर्शन से और प्रामाण्यव्याप्य धर्म के दर्शन से अप्रामाण्य शंका का प्रतिबन्ध हो जाता है । और अमामाण्य शंका के विरोधी ये दोनों ज्ञान आगमकर्ता पुरुष अथवा उस के द्वारा प्रणीत आगम में माध्यस्थ्य आदि उपाय के प्रतिपादन से सम्पन्न होते हैं। कहने का आशय यह है कि आगम कर्ता पुरुप मध्यस्थ होता है । किसी भी पक्षविशेष' में उस का पक्षपात नहीं होता । उस से प्रणीत आगम में इसप्रकार के पक्षपात का अभाव होता है इसलिए आगमकर्ता के सम्बन्ध में जो अतिशयग्राही प्रातिभज्ञान उत्पन्न होता है उस में अविसंवादजातीयता और प्रामाण्यव्याप्यधर्म का ज्ञान होने में कोई बाधा नहीं होती है। इसलिए प्रातिभशान द्वारा प्रामाण्यशका का प्रतिबन्ध मामने में कोई आपत्ति नहीं है। तात्पर्य यह है कि जब प्रातिभशान सभी दृष्ट अर्थों में यथार्थ होता है तब यह शंका करने का कोई औचित्य नहीं है कि अदृष्ट अर्थ में वह अयथार्थ होगा | अतः प्रातिभशान से पुरुष विशेष में अतिशय की सिद्धि को अवास्तविक कहना कथमपि उचित नहीं हो सकता ||५७॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ ] [ शास्त्रवा० स० १०/५८-५९ अस्त्वेवमविसंवादकत्वाभिमानात प्रातिभं प्रवृत्त्याधुपयोगि, वस्तुस्थित्या तु तद विसवाद्यवेत्याशक्याह-- वस्तुस्थित्यापि तत्तादग् न विसंवादकं भवेत् । ___ यथोसरं तथा दृष्टेरिति चैतन्त्र सांप्रतम् ।।५८॥ वस्तुस्थित्यापि-परमार्थेनापि ताहग-मार्गानुसारि तत्-प्रातिभम् न विसंवादकम्= अर्थक्रियाऽक्षमम् भवेत् । कुतः ? इत्याह-यथोत्तरं-क्रियाप्रवृत्त्यनन्तरम् , (तथा=) सुवैद्यप्रातिभवदर्थक्रियोपधानेनाऽनिसंवादकतया दृष्टेः । इति च-एव च सति, एतद्-वक्ष्यमाणम् न सांप्रतम्-न भजगानम् ।।५।। ___किं तत् ? इत्याह-- मिद्धोत्प्रमाणं यद्यचमप्रमाणमथेह किम् । न ह्येकं नास्ति सत्यार्थ पुरुष बहुभाषिणि ॥२९॥ सिद्धयेत् प्रमाणमागमागम मदि, एतम एकताक्वार्थसंवादिवेन. अथेह प्रमाणं किम् ! न ह्येवं सति किञ्चिदप्रमाणं नाम पौरुषेयं वचनं युज्यते । कुतः ? इत्याह-न कं किमपि नास्ति सत्यार्थ वचनम्, किन्तु किञ्चिद् भवत्यपि पुरुष बहुभाषिणिको जल्पनीले । तथा च सर्वेपां वचन प्रमाणमापनमिति महाननथः ।।५।। ५८भी कारिका द्वारा इस शंका का निराकरण किया गया है कि प्रातिभमान अनि संयादित्य के अभिमान से प्रवृत्ति आदि में उपयोगी हो सकता है, किन्तु विषयभूतवस्तु की दृष्टि से यह विनचादी अयथार्थ ही है । ___ कारिका का वक्तव्य यह है कि उक्त प्रकार से उत्पन्न होने वाला प्रातिभज्ञान परमार्थ दृष्टि से-विषयभूत वस्तु की दृष्टि से भी विसंवादी-अर्थक्रिया के सम्पादन में अक्षम नहीं हो सकता, कि सुवैद्य के प्रानिमशान के समान उक्त ज्ञान से होने वाली प्रवृति के अनन्तर अर्थक्रिया सम्पन्न होने से उसे प्रातिभशान में भी अविसंवादिन्व की उपलब्धि होती है। अत. उसे प्रमाण मानने पर अप्रमाणभूत झाल के लोप हो जाने की निम्नोत शंका समीचीन नहीं है ।।५८ ।। ५९ वी कारिका में, पूर्व कारिका में निर्दिष्ट शंका का स्वरूप प्रस्तुत किया गया है। कारिका का अर्थ इसप्रकार है किमी एक वाक्य में अर्थ का संबाद होने के आधार पर यदि पूरे आगम को प्रमाण माना जाएगा तो फिर अप्रमाण क्या होगा ? उक्त आधार से प्रामाण्य का निर्णय करने पर किसी भी पुरुष के किसी भी पचन को अममाण कहना युमिमंगत न होगा, क्योंकि बहुभाषी मनुष्य भी कोई ऐसा नहीं होता है जिस का पक वचन भी सत्य न हो, कोई-कोई श्चन तो सत्य होता है । अत: उस एक सत्यवचन के दृष्टान्त से उस का सारा यश्चन प्रमाण हो जाएगा। और यह आपत्ति मनुष्य मात्र के वचन के सम्बन्ध में होगी अतः अप्रमाणभूत वचन का मर्यथा लोग हो जाने का महान् अनर्थ उपस्थित होगा ! ५९ ॥ [आगमवचन में घुणाक्षरन्याय और विसंवाद का निरसन] ६० घी कारिका में, पूर्व कारिका में उक्त आशका की असंगति बताई गयी है । कारिका का भर्थ इसप्रकार है Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ १९३ यथैतदसांप्रतं तथाभिधातुमाह यत एकं न सत्यार्थं किन्तु सर्वं यथाश्रुतम् । यत्रागमे प्रमाणं स इष्यते पण्डितेर्जनः ||३०|| यतः यस्मात् एकं=किञ्चिदेव वचनम् न सत्यार्थं घुणाक्षरन्यायेन, किन्तु सर्वमेवयथाश्रुतं = यथानुयोजित वचनम् यत्रागमे सत्यार्थम् सः = आगमः पण्डितैर्जनैः = परीक्षकर्लोकः, इष्यते=आमुष्मिकफलसिद्ध्यर्थमाद्रियते तथा च भृयः संवादिदर्शनाद् न घुणाक्षरीवत्वाशका विषयशुद्धिज्ञानाच्च न कचिद् विसंवादाऽऽशङ्केति भावः ||६|| विषयशुद्धिमेव व्यनक्ति आत्मा नामी पृथकर्म तत्संयोगाद्भवोऽन्यथा । मुक्तिहिंसादी मुख्यास्तनिवृत्तिः ससाधना ॥ ६१ ॥ 3 आत्मा नामी =नारकादिरूपेण परिणामवान् तथा पृथक = पौद्गलिकत्रात्मनो भिनम् कर्म, तत्संयोगात् कर्मसंबन्धात् भवः संसारः; अन्यथा बस्तुसत्कर्मवियोगात् मुक्तिः । हिंसादयः कर्मसंयोग हेतवः मुख्या: निरुपचरिताम तथा तन्निवृतिः हिंसादिनिवृत्तिः सुसाधना = सह सावनरूपदेश क्षयोपशमादिभिर्निमित्तेवर्तमाना मुख्य ॥ ६१ ॥ तथाअतीन्द्रियार्थसंवाद विशुद्ध भावनाविधिः । यत्रेदं युज्यते सर्व योगिव्यक्तः स आगमः ||६|| आगम को इसलिए प्रमाण नहीं माना जाता कि उस का कोई एक वचन सत्य सिद्ध हुआ है, क्योंकि किसी एक वचन का सत्य होता पूरे आगम की सत्यता का आधार उसी प्रकार नहीं हो सकता जैसे कीडे द्वारा कतरज किये गये किसी कार में कभी कोई अक्षर बन जाना कीडे की लिपिता का आधार नहीं हो सकता । अतः विद्वान पुरुष उसी आगम को प्रमाण मानते हैं जिस का यथासंभव सम्पूर्ण वाक्य सत्य होता है । पारकि की सिद्धि के लिए विद्वान पुरुष ऐसे ही आगम को प्रमाण का सम्मान देते हैं। इसलिए आगम के प्रतिपाय बहुत्तर अर्थों में संपाद का दर्शन होने से उस में घुणाक्षर न्याय होने जैसी शंका नहीं की जा सकती और प्रतिपाद्य विषय की शुद्धता का ज्ञान होने से किसी अंश में विसंवाद की भी आशंका नहीं हो सकती || ६० ॥ ६१ वीं कारिका द्वारा आगम की विषय शुद्धि व्यक्त की गयी है । कारिका का अर्थ इसप्रकार है आत्मा नामी होती है, नारक आदि रूपों में परिणमनशील होती है। कर्म पौगलिक होने से आत्मा से भिन्न तत्व है । उस के सम्बन्ध से आत्मा को संसार मान होता है और आत्मा और कर्म के वियोग से आत्मा को विमुक्ति की प्राप्ति होती है । हिंसा आदि कर्मसंयोग का मुख्य हेतु है । उपदेश और क्षयोपशम आदि साधनों से हिंसा आदि की वास्तव निवृत्ति होती है | ॥ ६१ ॥ चोपराग के निमित्त आदि अतीन्द्रिय अर्थों का संवाद एवं अनित्यत्व आदि की भावना का विधान जो स्वरूप और फल की शुद्धि से नितान्त निर्मल होता है तथा पूर्व कारिका में २५ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ ] [ शामवार्ता० स्त० १०/६२-६३ अतीन्द्रियार्थानां चन्द्रोपरागनिमित्तादीनां संवादःतथा विशुद्धः संभवस्वरूपफलशुद्धया निमलः भावनाविधिः अनित्यत्वादिभावनामार्गः । यत्रेद अनन्तरोदितम् सर्व युज्यते-विचार्यमाणमुपपद्यते, योगिव्यक्तः सर्वज्ञपकाशितः सा आगमः, नान्यः, परीक्षाक्षमवचनस्यैव सम्यगागमलक्षणत्वात् ॥६२॥ _ 'ज्ञः अज्ञो वाऽस्याधिकारी स्यात् ! उभयथापि सिद्धयऽसिद्धिभ्यां वयर्थम् ' इति कुवादिकुतर्कनिराकरणार्थमाह-- अधिकार्यपि चास्येह स्वयमझे हि यः पुमान् । कथितज्ञः पुनीमांस्तद्वैयर्थमतोऽन्यथा ||६३|| अधिकार्यपि च अस्य आगमस्य इह-जगति 'सः' इति गम्यते यो हि पुमान् स्वयम्आगमश्रवणनेरपेक्ष्येण अज्ञः विषयाऽपरिज्ञाता; कथितज्ञः पुनः, न तु कथितमपि यो न जानात्येव । अत एवाह-धीमान् बुद्धयावरणक्षयोपशमवान् । अतोऽन्यथा उक्त विपर्यये सर्वथा ज्ञत्वेऽज्ञत्वे वा तद्वैयर्यम् आगमवैययम् , तत्कथाप्रीत्यादिलिझनावेत्यैवाधिकारिता पुनरध्यापनादौ न तवैयर्थ्यम् । अनधिकारिप्रयोगे हि लोकसंज्ञाप्रवेशात् प्रयोक्तैव प्रयोज्याऽविधिसमासेवनजनितं महदकल्याणमासादयेत् । इति लिकरधिकारितामवेत्याध्यापने नागमाऽऽगमज्ञादिवैयर्थ्यमिति निपुणं विभावनीयम् ॥६॥ कही हुई सारी बातें जहाँ विचार के निकप पर कसने पर सत्य सिद्ध होती है, वही आगम आगम सर्वशरचित होता है, क्योंकि जो बचन परीक्षा करने पर सत्य सिद्ध होता है. उमी को सम्यक् आगम कदा जाता है । ६२ ।। स्वयं अज्ञ और कथितज्ञ पुरुष आगम बोध का अधिकारी] आगम के सम्बन्ध में कुवादियों का यह कुतर्क है कि पिन अथवा अज्ञ किसी को भी आगम का अधिकारी मानने में आगम का धैयर्थ्य होगा, क्योंकि विज्ञ के लिए आगम की कोई आवश्यकता नहीं है और अज्ञ के लिए उस की कोई उपयोगिता नहीं है। प्रस्तुत ६३ वीं कारिका में इस कुतर्क का निराकरण किया गया है। कारिका का अर्थ इसप्रकार है___जो पुरुप स्वयं अक्ष है, अर्थात् आगम के बिना जिसे आगमार्थ का ज्ञान नहीं है किन्तु कथित को समझने की जिसे बुद्धि है, जिस के बुद्धि के आवरण का ऐसा क्षयोपशम हो चुका है, जिस से वह उपदेश को समझ सकता है, ऐसा पुरुष मागम का अधिकारी है । ऐसे पुरुष से भिन्न पुरुष को तथा सर्वथा अशको अधिकारी मानने पर ही आगम का वैयर्थ्य हो सकता है । आशय यह है कि आगम में वर्णित विषयों के प्रवण में प्रीति श्रद्धा आदि लिङ्ग से अधि. कारिता का ज्ञान कर के आगम का अध्यापन करने पर उस का वैयर्थ नहीं हो सकता । अनधिकारी के प्रति यदि आगम का प्रयोग किया जाय तो प्रयोक्ता की वह प्रवृत्ति सीर्फ जनरमनप्रधान हो जाती है और प्रयोज्य के इस अविधि सेवन से प्रयोक्ता का महान अकल्याण होता है । इसलिए यह ज्ञातव्य है कि उचित लिङ्ग द्वारा अधिकारी को पहचान कर आगम का अध्यापन करने पर आमम और आगमज्ञ आदि की व्यर्थता नहीं हो सकती ।। ६३ ।। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविषेधन ] [ १९६ __ अन्यचित्त-चैतसिकागतेरसर्वार्थविषयोऽयं स्यादित्याशक्कापोहायाहपरचित्तादिधर्माणां गत्युपायाभिधानतः । सर्वार्थविषयोऽप्येष इति तद्भावसंस्थितिः ॥६४॥ परचित्तादिधर्माणाम् परचित्तालोचन-समुद्रोदकपलादिमानरूपाणाम् गत्युपायाभिधानतः= परिच्छेदोपायतपोभावनाघभिधानात्, सर्वार्थविषयोऽप्येषः प्रकान्त आगमः फलतः, स्वरूपतोऽपि सर्वामिलाप्यभावविषयः, इति एवम् तद्भाव स्थितिः सर्वजव्यक्तम्यारामस्य धर्माऽधर्मव्यवस्थापक. स्वसिद्धिः ।।६।। सत्तनिशितैः शरैरिव वरमर्मीमांसके दुर्जये लुष्टाके सुपथस्य मुष्णति धनं सर्वज्ञमस्तौजसि । तस्यैवावगमं च लुम्पति परे बाढ़ हते सौगते, साम्राज्यं जिनशासनस्व जयति न्यायश्रिया मुन्दरम् ।।१।। विश्वस्यापि दृशोर्मुद वितनुते यः प्रातिहार्यश्रिया, धर्मास्था यदुपज्ञमजमनसामद्याप्यवद्यापहा । दुयायोत्थकुवासनां नयशतलम्पन्ति यस्यागमाः, सर्वज्ञो गतिरामहोदयपदं सोऽयं कृताऽस्तु नः ॥२॥ [आगम से धर्माधर्म की व्यवस्था निर्याध] अन्य व्यक्तियों के चित्त और चित्तधर्मों का ज्ञान न होने से आगम सर्वार्थ विषयक नहीं हो सकता क्योंकि जिन बातों का ज्ञान आगम कर्ता को नहीं है, उस के द्वारा रचित आगम में उन बातों का समावेश सम्भव नहीं है। प्रस्तुत कारिका द्वारा इस शंका का निराकरण आगम में किया गया है । कारिका का अर्थ इसप्रकार है__पर चित्त और उन के धर्म तथा समुद्रोदफएल आदि का प्रमाणरूप सूक्ष्मतम पदार्थों के शान के तप-भावना आदि उपायों का प्रतिपादन किया गया है। इसलिए प्रस्तुत जैनागम फल और स्वरूप दोनों दृष्टि से सम्पूर्ण अभिलाप्य भावों का प्रतिपादक है, इसलिए सर्वज्ञ रचित आगम में धर्म और अधर्म की व्यवस्थापकता सिद्ध है । कारिका का आशय यह है कि तप और भावना आदि के द्वारा अन्य व्यक्तियों के चित्त और वित्तधर्मों का तथा अन्य सभी दुय पदार्थों का ज्ञान हो जाता है। आगम की रचना ऐसे ही सर्वश पुरुष द्वारा हुई है जिसे तप और भावना के अभ्यास से सम्पूर्ण वस्तुओं का शान प्राप्त है । अतः उस के द्वारा रचित आगम को धर्म और अधर्म का व्यवस्थापक मानने में कोई बाधा नहीं है ।। ६४ ॥ मीमांसक सा लुटेरा है कि जिसे जीतना बडा कठिन है। वह सुपथगामी जिनशासन के सर्वशरूपी धन की चोरी का प्रयास करता है किन्तु तीखे बाण जसे जिनसाशन के समीचीन उत्तम तर्कों से उस का ओज नष्ट हो जाता है। उस के अधगम को लुम करने में तत्पर बौद्ध भी जिनशासन के तर्कों से आहत हो जाता है जिन के फलस्वरूप न्यायश्री के सौन्दर्य से सम्पन्न होकर जिनशासन का साम्राज्य जगत के सामने विजेता के रूप में अद्भासित होता है । ___ जो तप आदि द्वारा अर्जित छत्र-चामरादि अतिशयित सुशोभनों की शोभा से सारे विश्व के नेत्रों को आनन्दित करता है, आज भी अशजनों के दुतों को दूर करने वाली धर्म के प्रति आस्था जिस की प्रथम देन है और जिस के आगम अपने सैकडो नयों द्वारा दुर्याय से उत्पन्न कृवासनामों का निराकरण करते हैं, महोदय पद की प्राप्ति तक यह कृतकृत्य सर्वज्ञ हमारी गति-शरण हो। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शाबधार्ताः स्त. १०/६४ ननु-युक्तमुक्तम् ‘सर्वज्ञेनाभिव्यक्तादागमाद् धर्माऽधर्मव्यवस्था' इति । कवलाहारित्वे त्वस्मदादिवत् सार्वश्यमेव नोपपद्यते, इति कथं सिताम्बराणां सर्वज्ञमूला व्यवस्था ?। न च च्छमस्थे भुजिक्रियादर्शनात् केवलिनि तद्विजातीये तत्कल्पना युक्ताः अन्यथा चतुानित्वाऽकेवलित्वसंसारित्यादयोऽपि तत्र स्युः । न च देहित्यभात्रं तस्य भुक्तिसंपादकम् , मैजुगसंपादककर्मसत्त्वेऽपि सुषुप्त्यादी वृषस्याभावेन मैथुनविरहवत् कैवल्ये हतमोहतया बुभुक्षाऽभावेन भुक्त्यनुपपत्तेः । एवं च तथा भूतशवस्या-ऽऽयुष्कर्मणोः सत्त्वेऽपि न क्षतिः । न च मोहाभावात् शरीरानुरागनिमित्तबुभुक्षाऽमावेऽपि शरीरं स्थापयितुमिच्छरभातीति वाच्यम् ; अनन्तवीर्यस्य भगवतः शरीरस्थितिमिच्छोः प्रकृताहारमन्तरेणापि तत्स्थापनसामर्थ्याऽविरोधात् । न च शरीरतिष्ठापयिषापि बुभुक्षादिवदिच्छारूपत्वाद् [केवलज्ञानी का कवलाहार अमान्य-दिगम्बर पूर्वपक्ष ] श्वेताम्बर जनसम्प्रदाय के मान्य मर्यश के सम्बन्ध में दिगम्बरवादी कहते हैं कि-यह बात तो सत्य है कि धर्म अधर्म की व्यवस्था सर्वज्ञ प्रणीत आगम से होती है। किन्तु सर्वज्ञ को कवळाहारी मानना ममीचीन नहीं है, क्योंकि यदि वह भी हम लोगों के समान आहार ग्रहण करेगा तो हम लोगों के समान वह असर्वज्ञ ही होगा। अत: स्वताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार धर्म-अधर्म की व्यवस्था सबैशमूलक नहीं हो सकती क्योंकि वे सर्वज्ञ को आहारग्रहण की अपेक्षा मानते हैं, जो सर्वक्षता में बाधक है। दूसरी बात यह है कि भोजन क्रिया छमस्थ(-अरुपश) संसारी पुरुष में देखी जाती है। केवली सबंज्ञ, छमस्थ नहीं होता। अतः उस में भोजन किया की कल्पना करना युक्त नहीं है। और यदि छनस्थ न होने पर भी उस में भोजन क्रिया मानी जाएगी तो उस में मति आदि चार ज्ञान, अकेवलीत्व और संसारीत्व होने की भी कल्पना अपरिहार्य होगी। यदि यह कहा जाय कि 'वह देहधारी है, अत एव उस में भोजन किया मानना अनिवार्य है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जैसे मैथुनसम्पादक मोह कम के विद्यमान होने पर भी सुषुप्ति आदि के समय मैथुन की इच्छा न होने से मैथुन का अभाथ होता है उसी प्रकार कैवल्य अवस्था में मोह नए हो जाने से बुभुक्षा न होने के कारण भोजन क्रिया नहीं हो सकती। इसलिये भोजन की शक्ति और आयुष्य कम विद्यमान होने पर भी भोजन किया न मानने में कोई क्षति नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-कैवल्य अवस्था में मोह का अभाव होने से शरीर के प्रति राग से होने वाली भक्षा न होने पर भी शरीर को जीवित रखने की इच्छा में केवली की प्रवृत्ति होती है तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि सर्वज्ञ भगवान अन् अनन्तवीर्य से सम्पन्न है। अतः आहार के बिना भी उन में शरीर को जीवित रखने का सामर्थ्य मानने में कोई विरोध नहीं है। सच तो यह है कि शरीर को जीवित रखने की इच्छा भगवान को ठीक उसी प्रकार नहीं हो सकती जैसे उन को बुभुक्षा नहीं होती। [स्वाभाविक आहारग्रहण की कल्पना अनुचित ] __ यदि यह कहा जाय कि जैसे तीर्थ प्रवर्तन की इच्छा न होने पर भी भगवान तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं उसी प्रकार भोजन की इच्छा अथवा शरीर को जीवित रखने की इच्छा न होने पर भी स्थभाववश भगवान आहारग्रहण कर सकते हैं'-तो यह भी ठीक नहीं है Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -*- *, *... ..- ~- ~ran,vvvve स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ १२७ भगवतोऽस्ति । न चा तीर्थप्रवर्तनवदिच्छाऽभावेऽपि स्वभावादेव भगवतो भुक्तिरिति कल्पयितुं युक्तम् , प्रकृताहारवैकल्य एवं नियतकालमाविशरीरस्थितिस्वभावकल्पनार्या दोषाभावात् । भावनाविशेषोत्पन्नसकलालेशोपरतव्यापारव्यवहारलक्षणतीर्थप्रवर्तनस्वभावयत् क्लेशोपशमनार्थ प्रकृताहारस्वभावकल्पनाया अन्याय्यस्यात् । न हि भगवति क्लेशो नाम, अनन्तसुखविरोधात् । ‘पयोभृते घटे निग्यरसलव इव बहुपुण्यप्राम्भारभते भगवत्यसातवेदनीयादिप्रकृतयो नासुखदाः' इत्युपदेशात् । दग्धरज्जुस्थानीयत्वाच्च तासाम् । न चातीन्द्रियस्य भगवतो देहगतं क्षुदादिदुःख तदुपशमसुख वा संभवति, आहारसंज्ञा-रुचिरूपयोनिस-रासनज्ञानयोस्तत्र हेतुत्वात् , विषयसंपर्कमात्रस्य तज्ज्ञानमात्रस्य वा व्यभिचारित्वात् । तदिदमुक्तम्-[प्रवचनसार १-२०] सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलनाणिस्स णस्थि देहगदं । जम्हा अदिदियत्तं जादं तम्हा हु तं णेयं ।। १ ।। औदारिकव्यपदेशस्तु भगवच्छरीरस्योदारत्वात्, न तु भुक्तेः । यत्वेकेन्द्रियादीनामयोगिपर्यन्तानामाहारिणां सूत्र उपदेशात् केवलिनां कवलाहारित्वं केचित् क्योंकि यह कल्पना करने में कोई दोष नहीं है कि आहार के अभाव में भी भगवान अपने स्वभाव से ही निश्चित काल तक अपना शरीर जीवित रख सकते हैं। भावनाविशेष से उत्पन्न, सम्पूर्ण क्लेशों से मुक्त प्रवृसि-आत्मक व्यवहार स्वरूप तीर्थप्रवर्तन, के स्वभाव की कल्पना न्यायसंमत है किन्तु फ्लश के उपशम के नि.प. भगवान में आहार ग्रहण के स्वभाव की कल्पना न्यायमंगत नहीं है। भगवान में क्लेश मानने पर “भगवान में अनन्त सुख होता है"-इस मान्यता का विरोध भी होगा। शास्त्र में बताया गया है कि दूध भरे घड़े में नीम के ग्स की एक छोटी बुद जैसे असुखकर नहीं होती उसी प्रकार अगण्य पुण्य राशि से भरे भगवान में अमातवेदनीय आदि प्रकृतियाँ भी असुखकर नहीं होती अपितु जली हुई रस्मी के ममान निग्र्थक होती है । अतीन्द्रिय भगवान में क्षुधा आदि से उत्पन्न दाख और क्षुधा आदि की निवृत्ति से उत्पन्न सुखरूप देहधर्म सम्भव भी नहीं है क्योकि आहार संझा और आहाररुचिस्वरूप मानस पर्व रासन शान उक्त सख और दखक हेत है जो भगवान में नहीं है। बिषयसम्पक मात्र अथवा विषय का ज्ञानमान तो उक्त सुख और दुःख का व्यभिचारी है। जैसे कि प्रवचनसार में सौख्यं वा पुण...' गाथा में कहा गया है कि सुख और दुरूप देहाभित धर्म केवली को नहीं होता क्योंकि केवली अतीन्द्रिय-इन्द्रिय मुक्त हो जाता है। अत: उसे सुगन और उन के साधनों का ज्ञान अतीन्द्रिय होता है। भगवान के देह को जो औवारिक कहा गया है, वह इसलिए नहीं कि भगवान भोजन ग्रहण करते हैं, किन्तु इसलिए कि उन का शरीर उदार-लोकोत्तर है। [सूत्र से भी केवली का कवलाहार असिद्ध ] कुछ लोगों में केवली को जो इस आधार पर कवलाहारी माना है कि सूत्र में एकेन्द्रिय से लेकर अयोगी पर्यन्त आहार ग्रहण करने वालों का उल्लेख है' यह सूत्रार्थ के अज्ञान के १. सौख्यं घा पुनर्दुःख केवलज्ञानिनो नास्ति देहरातम् । यस्मादतीन्द्रियत्वं जातं तस्मात खलु तज्जेयम् ।।१।। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ ] [ शाश्रवास. स्त: १०६४ प्रतिपन्नाः ; तत्सा त्रार्थाऽपरिज्ञानविजम्भितम् ; तत्र धकेन्द्रियादिभिः सह भगवतो निर्देशात्, निरन्तराहारोपदेशाच्च शरीरप्रायोन्यपुद्गलग्रहणस्याहारस्वेन विवक्षितत्वात्, अन्यथा समुद्धातावस्थायां क्षणत्रयमात्रमपहाय तेनाहारेण भगवतो निरन्तराहारत्वपसनात् । 'तत्र यथासंभवमाहारव्यवस्थितेः सह निर्देशेऽपि कवलाहार एव केवलिनो व्यवस्थापयितुं युक्तः, अन्यथा तच्छरीरस्थितेरभावप्रसादिति' (तु न) युक्तम् ; अस्मदादो प्रकृताहारमन्तरेणौदारिकशरीरस्थितेः प्रभूतकालमभावदर्शनात् केवलियपि तथाकल्पने तत्र सर्वज्ञताया अयनवसायप्रसन्नात्, दृष्टव्यतिक्रमकल्पनाऽयोगात् । श्रूयते च प्रकृता. हारमन्तरेणाप्यौदारिकशरीरथनिधि तत्काल मनीपतीनाम् । न च तदियत्तानियमप्रतिपादक प्रमाणमस्ति, इति निनिमित्तं सूत्रभेदकारणम् । यथान्यासं सूत्रार्थाश्रयण एव हि निरन्तराहारवचनमप्यनुल्लवितं भवेत् । न चातिशयदर्शनाद् निरवशेषदोषावरणहानेरत्यन्तशुद्धात्मस्वभावप्रतिपत्तिवत् प्रकृताहारविकलौदारिकशरीरस्थितिरप्यात्यन्तिकी संभवन्मुस्तेभगवतः सिध्येत्, इति " असरीरा जीवधणा '' इत्याद्यागमविरोधः प्रसज्येतेति शङ्कनीयम्, सयोगरयात्यन्तिकस्थितेरसंभवात्, असंख्येयकाला सर्वस्याः पुद्गलपरिणतेरन्यथाभवनात् , औदारिकस्य निराहारस्यापि चिरतरकालस्थायिन उत्तरकालमशेषकर्मक्षवाद विनिवृत्त्युपपतेरिति चेत् ! कारण है, क्योंकि मूत्र में एकेन्द्रिय आदि के साथ भगवान का निर्देश है और निरन्तर आहार ग्रहण करने का भी उल्लेख है। इसलिए आहार शरूद से शरीर के लिये योग्य पुद्गलों का ग्रहण ही विधक्षित है, न कि लोकप्रसिद्ध अन्न आदि का आहार । यदि अन्नादि के 'आहार' में सत्र का तात्पर्य माना जाएगा तो समदघात अवस्था में केवल तीन क्षण छोडकर परे समय उसी आहार से भगवान में निरन्तराहार होने की प्रसक्ति होगी। यदि या कहा जाय कि 'सत्र में एकेन्द्रिय आदि के साथ यथासम्भव आहार की व्यवस्था का निर्देश होने पर भी फेवली का कयलाहारी होना ही मुत्र द्वारा विवक्षित है, क्योंकि उस के बिना केवली की शरीर की स्थिति नहीं हो सकती' -यह कहना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि अनादि आहार के बिना हम जैसे लोगों के औदारिक शरीर की स्थिति अधिक काल तक नहीं हो सकती केयल्ट इस कारण से यदि केथली के विषय में भी यही स्थिति मानी जाएगी तो हम लोगों के समान उस में सघज्ञता का निश्चय भी नहीं हो सकेगा क्योंकि एक कल्पना दृष्ट के अनुसार हो और दूसरी कल्पना दृष्ट के विपरीत हो यह युक्तिसंगत नहीं है 1 इस के अतिरिक्त यह भी प्रामाणिक रूप से विदित होता है कि अन्न आदि के आहार के बिना भी प्रथम तीर्थकर आदि के औदारिक शरीर की स्थिति चिरतर काल तक बनी रही थी । उस चिरतर काल की सीमा का कोई प्रमाण नहीं है इसलिए सत्रभेद करने में कोई निमित्त नहीं है, अर्थात् सूत्र की अपने अनुमत के अनुसार व्याख्या करने का कोई आधार नहीं है। सूत्र के यथाश्रुत अर्थ को स्वीकार करने पर ही भगवान को निरन्तराहार बताना उपपन्न हो सकता है। यदि यह शंका की जाय कि भगवान में अतिशय होने के कारण जैसे समय दोपावरणों की हानि होने से अत्यन्त शुन आत्मस्वभावता मानी जाती हैं, उसीप्रकार अन्न आदि आहार के अभाव में भी मुक्ति के सम्भव की अवस्था में भगवान के औदारिक शरीर की आत्यन्तिक स्थिति मानने पर 'मोक्षमाण जीव अशरीर होते हैं ! आगम के इस कथन का विरोध होगा' Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन । अत्र ब्रमः-घातिकर्मक्षयापेक्षयाऽस्मदादिविजातीयत्वेन भगवति चतुनित्वाद्यनुपपत्तावपि भुक्तिनिमित्तकर्मक्षयापेक्षया विजातीयवासिद्धेर्न तत्र भुक्त्यनुपपत्तिः । न च मुक्तिसंपादकं कर्मेच्छा विना तदनिप्पादकम् , अनिच्छतामपि कर्मविपाककृतफलोपनिपातदर्शनात् । न च भुक्तिप्रवृत्ते रागनिमित्तकत्वाद् वीतरागे तदभावः, शरीरतिष्ठापयिषयोपवेशनादिप्रवृत्तेरिव भुक्तिप्रवृत्तेपि तत्राऽतथात्वात् । अनन्तवीर्यत्वं च तत्र विघ्नपरिपन्थि, न परमाहारमन्तरेणैव शरीरस्थितिसंपादकम् , अन्यथा च्छमस्थावस्थायाँ भगवत्यपरिमितवलश्रवणात् कर्मक्षयार्थमनशनादितपस्युद्यमक्तोऽस्य प्राणवृत्तिप्रत्ययं तस्यामवस्था याम शनायभ्यवहरणमसतं स्यात् । न च तदा क्षायोपशमिकं तस्य वीर्यम्, केवड्य-तो यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि औदारिक शरीर के सम्बन्ध की आत्यन्तिक स्थिति नहीं हो सकती । यतः असंख्येय काल के अनन्तर सम्पूर्ण पुद्गल परिणाम परिवर्तित हो जाता है, अत: अन्नादि आहार के बिना भी चिरतर काल तक स्थायी औदारिक शरीर की उत्तर काल में अशेष कर्मों का क्षय होने से निवृत्ति हो सकती है। [ पूर्व पक्ष समाप्न] [ केबलि को कवलाहार का सम्भव न्यायमिद्ध-श्वेताम्बर उत्तरपक्ष ] उक्त के सन्दर्भ में श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यों का यह कहना है कि पानी फर्मों के क्षय की अपेक्षा से भगवान हम जैसे जीर्षों से विजातीय है, इसलिए उन में चनुआनित्यसंसारीत्व-अकेवलीत्व आदि का अभाव हो सकता है । भोजन क्रिया के निमित्तभूत कर्मों के क्षय की अपेक्षा से भी भगवान हम जैसे जीवों से विजातीय है यह बात सिद्ध नहीं है, इसलिए उन में भोजन क्रिया का अभाव नहीं हो सकता । 'भोजन किया का सम्पादक कर्म भोजनेच्छा के बिना भोजनक्रिया का निष्पादन नहीं कर सकता' यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इच्छा न रहने पर भी कर्मविषाकजनित फल की प्राप्ति देखी जाती है। भोजन में प्रवृत्ति रागमूलक है, इसलिए वीतराग भगवान में भोजनप्रवृत्ति सम्भव नहीं है।' यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि शरीर को अवस्थित रखने की इच्छा के बिना भी जसे उपवेशनादि में राग न होने पर भी भगवान की प्रवृत्ति होती है, उसीप्रकार भोजन में राग न होने पर भी शरीर को अवस्थित रखने की इच्छा के बिना भोजन में भी भगवान की प्रवृत्ति हो सकती है। भगवान की अनन्तवीर्यता भी भोजनप्रवृत्ति में बाधक नहीं हो सकती, क्योंकि यह केवल उन में विनों की विरोधी है जिन से भगवान की उत्तरकालिक उपलब्धियों में बाधा सम्भावित हो, न कि वह आहार के बिना भी शरीर की स्थिति का सम्पादक है ।, क्योंकि यदि भगवान के शरीर की स्थिति आहार निरपेक्ष मानी जाएगी तो छद्मस्थ-संसारी अवस्था में कर्मक्षय के लिए अनशन आदि तप में तत्पर भगवान का प्राण धारण क्रिया में निमित्तभूत आहारादि का ग्रहण संगत न होगा, क्योंकि उस अवस्था में भी अपरिमित बल का होना प्रमाणसिद्ध है। फिर जसे केवली अयस्था में आहार के बिना भगवान के शरीर की स्थिति हो सकती है उसीप्रकार छवस्थ अवस्था में भी आहार के बिना प्राणक्रिया सम्पन्न हो सकती है। यदि यह कहा जाय कि-'छमस्थ अवस्था में भगवान का वीर्य अयोपशम मूलक होता है और केवली अवस्था में झयमूलक होता है । अत एम केवली अवस्था का घीर्य विशिष्ट आहार के बिना भी शरीर की ससा का सम्पादक हो सकता है ' -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि क्षयमूलक अनन्त वीर्य के होने पर भी शरीरस्थिति के लिए उपवेशन मादि में जैसे केवली Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwantarmumhamunaramhanumanAmAvAAN २०० ] [ शास्त्रधा०ि स्त. १०/६४ वस्थायां तु क्षायिकं तत्, इति विशिष्टाहारमन्तरेणापि शरीरस्थितिनिबन्धनमिति वाच्यम् ; तत्सद्भावेऽपि शरीरस्थितिनिमित्ताने गोरादिका महताहारस्पानिरोधात । न चोपवेशनादिकमपि शरीरस्थित्यर्थ तत्राऽसिद्धम्, समुद्घातावस्थानन्तरकालं पीठफलकादिप्रत्यर्पणश्रुतेः, तद्ग्रहणमन्तरेण तत्प्रत्यर्पणस्याऽसंभवात् , तद्ग्रहणस्य च यथोक्तप्रयोजनमन्तरेणाभावात् । यस्त्वागमबाह्य उपवेशनादिकमपि केवलिनो घनगर्जनवर्षणादिवद् नियतिकृतकाल-देशनियममेव स्वीकुरुते न तु प्रायोगिकम् प्रवृत्ताविच्छाया हेतु वात् ; तथा च प्रवचनसारकृत्-१-४४) "ठाण-णिसेज-विहारा धम्मुवदसो अणिर्यादणा तेसि। अरहताणं काले मायाचारो ब्व इीणं ।।१।।' पुण्यचिपाकस्तु तेषां सन्नपि या प्रवृत्ति प्रत्यकिश्चित्करः, औदायक्या अपि तायुक्त क्रिया या कार्याऽकार्यभृतयोर्बन्ध-मोक्षयारकारणका रणत्याभ्य क्षायिकरूपतया स्वीकारात ; तदाह "goगफला अरहता तेसि किरिया पुणो हि ओइदगी । मोहादीनि विरहदा तम्हा सा खाइगि त्ति मदा ॥ प्रवचनसार १-४५ ॥ मोऽविस्पृश्यवादी, भगवतोऽपि नामक्रमोदयेन योगपत्यावरोधात् , क्षायिकत्वेनोपचरितकी प्रवृत्ति होती है, उनीप्रकार लक सिद्ध आहार में भी केवली की प्रवृति मानने में कोई विरोध नहीं है। केवली का उपवेशन आदि शरीर की स्थिति के लिए होता है, यह बात असिद्ध है।' यह कहना भी ठीक नहीं है क्योकि समुदधात अवस्था के बाद भगवान को पीठफलक आदि परत देने का शास्त्रीय उल्लख हैं और पीठफलक आदि परत देने का उल्लख तभी सम्भव हो सकता है, जब भगवान द्वारा उस का ग्रहण हो और यह ग्रहण भी तभी हो सकता है, जब शरीर स्थिति आदि उम का प्रयोजन हो। [ केवलि की उपवेशनादि क्रिया सीर्फ नियतिकृत-पूर्वपक्ष ] आगमबाह्य-आगम के सिद्धान्तों के अनभित्रों का कहना है कि-फेषली की उपयशन आदि किया जो नियत देश और काल में होती है वह उसीप्रकार नियतिमूलक है जैसे नियत देश और काल में मेघों के गर्जन और वर्षण की क्रिया, न कि वह प्रयन्नमूलक है क्योंकि प्रवृत्ति में इच्छा कारण होती है और केवली में इच्छा का अभाव होता है। आगमबाह्यवादी के अनुसार यह बात प्रवचनसार के इम वचन से अनुमोदित है कि स्थिति, उपवेशन, बिहार और धर्मोपदेश आदि केवली की क्रिया ठीक उसीप्रकार निर्यातमूलक असे स्त्रियों का कपटमय आचार ।' केवली का पुण्यविपाक भी बाह्य प्रवृत्ति का साधक नहीं है। केवली की औदायिक किया भी कार्यभूनबम्ध का अकारण और अकार्यभूत अनश्वर मोक्ष का कारण होने से क्षायिक रूप है, अत: यह भी बाह्यप्रवृत्ति का मनक नहीं है जैसा कि “पुषण फला अईन्ता" इस गाथा में कहा गया है-अर्हन की पुण्यफलक औदयिकी क्रिया मोह आदि में रहित होती है, अतः यह क्षायिक मानी गयी है। [आगमवाद्यवादी के मत का निरसन-उत्तरपक्ष ] आगमबाह्यवादी का यह कथन अविमृश्ययाद है-अधिवेकपूर्ण कथन है, क्योंकि नामकर्म । १ स्थान-निषद्या-विहारा धर्मोपदेशश्च नियत्या तेषाम् । अर्हतां काले मायाचार इव वीणाम् ॥१॥ २ पुण्यफला अर्हन्तस्तेषां क्रिया पुनहाँदयिकी । मोहादिभिः विरहिता नस्मात् सा आयिनीति मता ॥ १ ॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ २०१ स्थाप्यौदयिकमावस्य स्वकार्याऽप्रतिरोधात्, केवलज्ञानादेस्तकार्यप्रतिवन्धकत्वे मोहादेस्तत्सहकारित्वे बा मानाभायात्; अन्यथा जिननामा-युष्ककर्मादिविषाकनिमित्तक्रियाया अपि सत्रानुपपत्तेः । न च परपरिणमनलक्षणक्रियायामज्ञानस्य हेतुत्वाऽज्ञानिनो भगवतस्तदनुपपत्तिः ; तदुक्तम्-- [प्रव० सारे ] ___'गेहदि णेव ण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं ।। पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सब्बं गिरवसेस ॥ १-३२ ॥" -इति वाच्यम् ; सत्यपि ज्ञान आत्मप्रदेशैः कर्मादानवद् योगप्रदेशैर्वहिरादानस्याप्युपपत्तेः । यदि च प्रयत्नसामान्यं प्रतीच्छाया हेतुत्वावधारणाद् न केवलिनः प्रवृत्तिरिप्यते, तदा चेात्वादच्छिन्नेऽपि विलक्षणप्रयत्नेन हेतुत्वात् तदभावे न केवलिनश्चेष्टाऽपि, इति जीवन्मुक्ति--परममुक्त्योरविशेषापातः । यदि च विलक्षणचेष्टात्वावच्छिन्न एव निलक्षणप्रयत्नस्य हेतुत्वात् तदभावेऽपि का उदय होने पर भगवान में भी योगप्रवृत्ति मानने में कोई विरोध नहीं है ! एवं क्षायिक तुल्य माना गया औयिकभार भी अपने कार्य का प्रतिरोधक नहीं होता। 'केवलशान आदि औदायिकभाव का प्रतिबन्धक है अथवा मोह आदि उस का सहकारी है। इस बात में कोई प्रमाण नहीं है । दूसरी बात यह है कि यदि यह बात मानी जाएगी तो भगवान जिन देव के मामकर्म और आयुषकर्म के विपाक से भी किसी क्रिया की उपपत्ति न होगी । यदि यह कहा माय शि." पर की परिणमन की क्रिया अशानमूलक होती है। अतः ज्ञानी भगवान में बह क्रिया नहीं हो सकती । जैसा कि “गेहदि णेब ण मुञ्चदि " इम गाया में कहा गया है कि 'ज्ञानसम्पन्न केवली किसी वस्तु को न ग्रहण करता है और न न्यागता है और न उस का परिणमन करता है किन्तु वह सभी देखता है, सम्पूर्ण वस्तुओं को जानता है -तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि शान होने पर भी केवली जैसे आत्मप्रदेशों से कर्मग्रहण करता है उसीप्रकार कायादि योगप्रदेशों से बाध अर्थ का भी ग्रहण कर मकार है । [ प्रयत्न के अभाव में चेष्टा के अभाव की आपत्ति ] __ यदि यह कहा जाय कि- प्रयत्न मात्र के प्रति इच्छा कारण होती है अत: इच्छा न होने से केवली की प्रवृत्ति नहीं हो सकती' -तो केवली में चेश के अभाव की भी आपत्ति होगी क्योंकि चेष्टा मात्र के प्रति विलक्षण प्रयन्न कारण होता है अतः केवली में प्रयत्न न होने पर चेष्टा भी नहीं हो सकती, जिस के फलस्वरूप जीवन्मुक्ति और फर्म मुक्ति में निर्विशेषता की आपत्ति होगी क्योंकि केवली में प्रयत्न न मानने में कर्मभूमि के समान जीवन्मुक्ति में भी केवली निश्चंट होगा। यदि यह कहा जाय कि-'यद्यपि चेष्टा के प्रति विलक्षण प्रयत्न कारण है अतः भगवान में मिटक्षण प्रयत्न न होने पर ततप्रयत्नमूलक विलक्षण चटा न होने पर भी, नियति अथवा स्वभाव से विलक्षण चेष्टा की उपपति हो सकती है तो यह कहने में भी आप क्यों मूक हो जाते है कि इच्छा भी प्रवृत्ति सामान्य का कारण नहीं है किन्तु विलक्षण प्रवृत्ति काही कारण है। अतः भगवान में इचछा न होने से इच्छा मूलक बिरक्षण प्रवृत्ति न होने पर भी नियति अथवा स्त्रभात्र से भगवान की प्रवृत्ति हो सकती हैं। ३ गृहणाति मैच न मुञ्चति न पर परिणमते कंबली भगवान । प्रेक्षते समन्ततः सो जानाति सवै निविशेषम् ।।१।। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ] [ शास्त्रबार्ता. स्त० १०६४ भगवतो नियतेः स्वभावादेब बा विलक्षणचेप्टोपपटिरिष्यते, तदेच्छाया अपि विलक्षणप्रवृत्तित्वावच्छिन्न एक हेतुत्वात् तदभावेऽपि नियतेः स्वभावादेब वा भगवतः प्रवृत्तिरिति बनतुं किमिति मूकायते भवान् ? । असमुदायवादे मिथ्यात्वं तु निर्लक्षणस्य भवत एवं, व एमभिनिदियो नाफोन स्वस्माकं पुरुषकारं नियत्या दिसापेक्षमाश्रयताम् । यदि च चेष्टाजातीयाऽपि प्रयत्नविशेषमतिपतेत् तदा धूमजातीयोऽपि कश्चिद् धूमध्वजमतिपतेदिति सभावनवा प्रसिद्धानुमानमपि भव्येत । तस्मादिच्छाभावेऽप्याहारपुदगलग्रहणे भगवतो ने क्षतिः । वस्तुतः शरीरतिछा पचिपा निरुपाधिपरदुःखप्रहाणेच्छेच रागकोदयात्रभवत्वेन राग एवं न, सामायिकवतां माध्यस्थ्यप्रवेच्छाया एवोचिनप्रवृत्ति तुत्वात् , ' उचित वृत्तिप्रधान निरभिष्वङ्गं चित्त सामायिकम् ' इति वचनादिति दिन । बच्चोक्तम् -'नच भगवति क्लेशो नाम .१९७.४यादि....तदयुक्तम् , अनन्तसुखस्य वेदनीयक्षयषभवस्याऽयोगिचरमसमयं तत्राऽसिद्ध स्तेन तदविरोधात् । नच-पातिवद् वेदनीयमिति तद्विपाकस्य तत्र मोहामावपतिबद्धत्वात् तकर्मण आत्यन्ति कफलाऽयोगादेव भगवति क्षायिकसुखोपपत्तेस्तदनुपमृद्य यदि यह कहा जाय कि-'केवल नियति या स्वभाव से कार्य की उत्पत्ति मानना असमु. दायवादी होना है-एकमात्रकारणक कार्यवादी होना है। जनमत में तो नियति आदि पांच कारणों का समुदाय कारण माना जाता है। अतः इच्छा के अभाव में भी केवलनियति अथवा स्वभाव से भगवान की प्रवृत्ति मानने पर मिथ्यादृष्टित्व की आपत्ति होगी'-तो यह आपत्ति उद्भावनकर्ता को ही होगी क्योंकि वह निर्लक्षण है अर्थात् उस का कोई निश्चित सिद्धान्त नहीं हैं क्योंकि उसी ने भगवान में प्रयत्न न मान कर केवल नियति अथवा स्वभाव मात्र से चेष्टा होने की बात अभिनिवेशपूर्वक कही है। हमें सिद्वान्ती को आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि हम निर्याल आदि के साथ पुरुषकार-पुरुष प्रयन्न को भी कारण मानते हैं। दुसरी बात यह है कि यदि प्रयत्न के शिना भी केवली की चेष्टा मानी जायेगी तो अग्नि के विनर कभी थूम होने की भी सम्भावना हो सकती है। फलतः धूमहेतुक अग्नि के प्रसिद्ध अनुमान का भी लोप हो जायगा। इसलिए इच्छा के अभाव में भी आहारपुद्गल के ग्रहण में भगवान की प्रवृत्ति मानने में कोई क्षति नहीं है। सघ बात यह है कि केवली को अपने शरीर की स्थिति रखने की इच्छा दूसरों के दुःख दूर करने की नि:स्वार्थ इच्छा जैसी होती है जो गगकर्म के उदय से उत्पन्न न होने के कारण रागरूप नहीं है किन्तु यह सामायिकवान पुरुषों की माध्यस्थ्यमूलक इच्छा है, क्योंकि वही सम्पूर्ण उचित प्रवृत्ति का कारण हैं। जसा कि कहा गया है कि-सामायिक वह चतता है जो रागीर होती है और जिस में उचित प्रधृत्ति की प्रधानता होती है। [केवली में क्लेश होने में कोई विरोध नहीं है] इस सन्दर्भ में जो यह बात कही गई कि 'अनन्त सुख के विरोध के कारण भगवान में दुखात्मक क्लेश नहीं हो सकता' तो यह टीक नहीं है क्योंकि अनन्तसुख वंदनीय कर्मों के संपूर्ण क्षय से उत्पन्न होता है। अतः अयोगी गुणस्थान के अंतिम समय तक अनन्त सुख की सिद्धि न होने से उस समय तक भगवान में क्लेश मानने पर असन्त सुख का विरोध नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि- 'वेदनीयकर्म घानीकर्म के समान है, इसलिए Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्धी विधेसन ] [ २०३ न क्लेशोःथानमिति वाच्यम् । तत्कर्मक्षप्रजन्यभावे तत्कर्मसत्ताया एव प्रतिबन्धकत्वात् अन्यथाऽतिप्रसनात्, उदयप्रभवेऽपि सुखेऽर्वागिव तदापि क्षायिकमावमपेक्ष्यानन्तत्वाऽविरोधात् ।। पातितुल्यत्वं च वेदनीयस्य चिन्त्यम् । तथाहि-किंतत् : धातिरसवत्त्वं बा, तेंद्रसत्रिपाकप्रदर्शकत्वं बा, स्वैकार्यजनने क्वचित् तत्सहभृतत्वं बा, स्वापनेयसजातीयापनायकत्वं वा, स्वकार्यकमूर्तिककार्यत्वं या, दोषोत्पास, ॐय वा ! .. नाद्यः, असिद्धेः । न द्वितीयः, अघातिकर्मान्तरमकृतीनामपि ताशवात् । उक्तं हि'अघातिन्यो हि प्रकृतयः सर्वदेशघातिनीभिः सह वेद्यमानास्तसविपाकं प्रदर्शयन्ति, न तु सर्वदा स्वरसविपाकदर्शनेऽपि ता अपेक्ष्यन्ते' इति । अत एव न तृतीयोऽपि, कादाचित्कस्य तत्सहभावस्याऽकिञ्चित्करत्वात् ; अन्यथाऽतिप्रसमात्, सार्वदिकस्य च तस्याऽसिद्धेः । नापि चतुर्थः, आत्मगुणत्वजास्याऽष्टकर्मक्षयजन्यानामष्टानामपि गुणानां साजात्यात्, तद्घातिनामष्टानामप्यविशेषेण वेदनीय कर्म का विपाक केवली में मोहाभाव मे-घानीकर्म के विपाक के समान-प्रतिवद्ध दो जाता है। अतः सत्तागत वंदनीय कर्म में उस के फल का आत्यन्तिक अयोग होने से भगवान में क्षायिक सुख की उगपत्ति हो जाती है। अतः उस का विरोध किप चिना भगवान में क्लेश की उत्पत्ति नहीं हो सकती।' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जो भाय जिम कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है उस में उस कर्म की सत्ता ही प्रतिबन्धक होती है। ऐसा यदि न माना जाएगा तो उस कर्म के अभाव में भी उस कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाले भाव का किसी अन्य द्वारा प्रतिबन्ध होने की अतिमसक्ति होगी। अत: वेदनीय के विपाक को मोहाभाव से प्रतिबद्ध मानना उचित नहीं है। केवली होने के पूर्व कर्मादय से उत्पन्न सुख में क्षायिक भाव की अपेक्षा जिस प्रकार का आनन्य होता है उसीप्रकार फेवलीदशा में क्लेश का उदय होने पर भी क्षायिक भाग की अपेक्षा उस सुख के आनन्त्य होने में कोई विरोध नहीं है। वेदनीयकर्म में जो घातीकर्म की समानता बतलायी गई वह भी चिन्तनीय है क्योंकि उस का निर्वचन दुष्कर है। असे धातिकर्म की समानता के निम्न रूप हो सकते हैं घातितुल्यता का अर्थ क्या है, 'घातिकर्म जैसे रसवान होना। श्वातिरस के विपाक का प्रदर्शक होना। अपने कार्य की उत्पत्ति में उस का सहभागी होना। "बातिकम के अपनेय के सजातीय का अपनायक होना । धातिकार्य के पकमूर्तिक कार्य का जनक होना। दोष का उत्पादक होना । अथवा उक्त सों से अतिरिक्त कोई अन्य रूप समानता का होना ? [घाति तुल्यता के आध चार विकल्पों का निरसन ] इन में प्रथम सम्भव नहीं है क्योंकि वेदनीय में घातिकर्म के जैमा ही रम है यह बात असिद्ध है। तसरा भी असंगत है क्योंकि अघाती अन्य कर्मों की प्रतियां भी धाति रस के विधाक की प्रदर्शक होती है किन्तु घे घाति के समान नहीं मानी जाती, क्योंकि कहा गया है कि अघाती प्रकृतियाँ सर्य-देशघाती प्रकृतियों के साथ भुज्यमान होने पर उन के रस विपाक का प्रदर्शन करती है किन्तु अपने इस विपाक का प्रदर्शन करने में सर्वदा उन की अपेक्षा नहीं करती। तीसरा पक्ष भी स्वीकार योग्य नहीं है क्योंकि कभी धातीकर्म का सहा भाष हो जाना उन के कार्य की उत्पत्ति में अप्रयोजक है। यतः कदाचित्साभाषी को सहकारी Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] [शावा० स्त१०/१५ wwwsupnew धातिवप्रसमात्, ज्ञान-दर्शन-चारित्र-वीर्यान्यतरत्वेन साजात्यविवक्षणे तु तस्य तज्जातीयापनायकत्वस्याऽसिद्धत्वात् , सुखघटितान्यतरस्वस्य च याच्छिकत्वात् । नापि पञ्चमः, सर्वासामपि प्रकृतीनां सजातीयप्रकृत्यन्तस्कार्याधीनप्रकर्षशालिकार्यकत्वलक्षणस्य तस्याऽविशेषात्, इतरस्य च दुवैचत्वात् । नापि षष्ठः, अष्टानामपि कर्मणामष्टसिद्धगुणमतिपन्थिदोषजनकत्वाऽविशेषात् । अष्टादशसु दोषेषु क्षुपिपासयोर्गणनं च प्रभाचन्द्रादीनामभिनिवेशमूलन, घातिकर्मविपाकहदनिस्यन्दनभूतानामन्तरायादीनामेवाष्टादशानां दोषाणां प्रामाणिकः परिभाषगात् ; अन्यथा मनुजत्वादेरपि दोषवत्त्वप्रसवत्या भवतामदुष्टदेवस्य दुर्लभत्वापसेः । अवोचाम च "'दूसइ अन्वाबाहं इय जइ तुह सम्मओ तयं दोसो । मणुअत्तणं वि दोसो ता सिद्भत्तस्स दूसणओ ॥ १ ॥" [ अध्या० परीक्षा-७४ ] मानने पर अन्य सहभावियों में भी सहकारिता की आपत्ति होगी। हाँ, यदि वेदनीयकर्म में घातिकर्म का सादिक सहभाव होता तय उसे घातिकर्म के समान माना जाना सम्भव होता। किन्तु सार्वदिकसहभाव असिद्ध है। चौथा पक्ष भी ग्रहण योग्य नहीं है क्योंकि अष्ट कर्म के क्षय से उत्पन्न आठों ही आत्मगुण आत्मगुणत्व जाति से सजातीय हैं अतः उन के धात करने वाले आठों ही कर्म घाती हो जाएंगे, क्योंकि जिन का अपनयन घातीकर्म से होता है तस्मातीय गुण की अपनायकता अघाती चार कर्मों में भी प्रसक्त होती है। यदि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य इन में किसी एकरूप से सातात्य की विषक्षा करेंगे तो वेदनीयकर्म में शान दर्शन आदि के सजातीय का अपनायकत्व असिद्ध है। और यदि शान आदि के साथ सुख को भी जोडकर उन में से किसी का साजात्य ग्रहण करेंगे तो यह याइच्छिक केवल काल्पनिक होने से प्रमाण भूत न होगा। [ अंतिम तीन विकल्प का निरसन ] पाँचया पक्ष भी मानने योग्य नहीं है क्योंकि सभी प्रकृतियों में सजातीय अन्य प्रकृतियों के एकमूर्तिक-समानप्रकर्षशाली कार्य की जनकता विद्यमान है। अतः न केवल वेदनीय में अपितु सभी प्रतियों में घाति कर्म की तुल्यता की आपत्ति होगी। छठा पक्ष भी समीचीन नहीं है, क्योंकि आठों कर्मों में आठ सिद्धगुण के विरोधी दोष की जनता विद्यमान है। अत पब सभी कर्मों में दोषजनकता होने से बानि तुल्यता की आपत्ति होगी। अठारह दोषों में अधा और पिपासा की गणना जो प्रभाचन्द्र आदि ने की है यह दराग्रहमूलक है क्योंकि प्रामाणिक विद्वानों ने घातिकम के विपाकद से निकले हुए झरने के जैसे अन्तराय आदि अठारह दोषों को ही मान्यता दी है। यदि अन्तराय आदि ठारह दोषों से अतिरिक्त भी दोष माने जापर्ग तो मनुजत्य आदि में भी दोष की प्रसक्ति होने से अदुष्प देव का दौर्षभ्य हो जायगा क्योंकि अध्यात्ममतपरीक्षा में यह कहा जा चुका है कि “जो अव्याधाधता को दूषित करे-भङ्ग करेयदि उसी को दोष मानना अभीष्ट है तो मनुमत्य भी दोष है, क्योंकि यह भी सिद्भत्व का दृषक है। १. दूधयत्ययावामिति यदि तब सम्मतः तक; दोषः। मनुजस्वाप दोषस्तत् सिद्धत्वस्य दूषणतः ||१|| Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NA P NAways.sAAA स्था. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [२०२ अथ प्रशस्तविपरीतभावनाप्रकर्षशालित्वं दोषत्वम् , तच्च रागादाविव क्षुदादावस्यस्ति । दृश्यते हि वीतरागभावनातारतम्येन रानादमन्दमन्दतमादिभाव इति तवत्यन्त्योत्कर्षात् तदन्त्यन्तापकोऽपि भगवतामिति । एवमभोजनभावनातारतम्यात् सकृभोजनकदिन-पक्ष-मास-संवत्सराद्यन्तरितमोजमादिदर्शनात् सदत्यन्तोत्कर्षादात्यन्तिकक्षुद्भुक्त्याद्यपकर्षोऽपि तेषां युज्यत इति चेत् ? न, अशरीरभावनया शरीरानुग्रहोपघातनिमित्तकशरीरममत्व-मानसोपतापनिवृत्तिवदभोजनभावनया भोजनानुरागक्षुज्जनितसंक्लेशयोरेव निवृत्तेः स्वकारणोपनीतयोः क्षुद्-मोजनयोः शरीरवदाकर्मक्षयं भावनाशतेनापि निवर्तयितुमशक्यत्वात् । न हि विशुद्धभावनावतां तपस्विनां क्षुदेव न लगति, अपि तु क्षुस्कृतसंक्लेशस्तैर्निरुध्यते; अन्यथा शरीरकार्यादितत्कार्यानुपपत्तेः ; क्वचित् तदनुपलब्धेस्तथाविधमनोद्रव्याहरणोपाधिकत्वात्, पुद्गलरेव पुद्गलोपचयात् । न च तेषां क्षुत्-पिपासाऽभावे उभयथा तत्परीषहविजयो घटते, तस्मात् शीतादिसत्त्वेऽपि तत्संक्लेशाभाववत् क्षुदादिसत्त्वेऽपि तपस्विनां तत्संक्लेशाभाव इति युक्तमुत्पश्यामः | [क्षुधा यह रागादि जैसा दोष होने की शंका-समाधान ] यदि यह कहा जाय कि-प्रशस्त से विपरीत यानी अप्रशस्त भाषमा का प्रकर्ष होना ही दोष है। दोष का यह लक्षण राग आदि के समान क्षुधा आदि में भी है। देखा जाता है कि वीतराग की भावना के तारतम्य से राग आदि में मन्द, मन्दतम आदि भाव होता है । इसलिए जैसे वीतराग की भावना के अत्यन्त उत्कर्ष से राग आदि का अत्यन्त अपकर्ष भगवान में होता है, उसी प्रकार, भोजन त्याग की भावना के तारतम्य से एक दिन में एक बार भोजन, फिर एक दिन के बाद भोजन, फिर क्रम से पक्ष, मास, संवत्सर आदि के व्यषधान से भोजन किया देखी जाती है। इसलिए भोजन त्याग की भावना के अत्यन्त उत्कर्ष से भगवान के क्षुधा और भोजन का अत्यन्त अपकर्ष होना भी युक्तिसंगत है' -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि शरीर से मुक्त होने की भावना से शरीर के प्रति शरीरमूलक ममता एवं शरीरोषघातमूलक मानससन्ताप की ही निवृत्ति जिसप्रकार होती है उसी प्रकार भोजनत्याग की भावना से केवल भोजनानुराग और क्षुधाजन्य क्लेश की ही निवृत्ति होती है। किन्तु क्षुधा और भोजन अपने कारणों से उपस्थित होते रहते हैं। सम्पूर्ण कर्मों का क्षय न होने तक शतशः भावना होने पर भी उन की निवृत्ति करना उसीप्रकार शक्य नहीं है जैसे शरीर से मुक्त होने की भावना से सम्पूर्ण कर्मों का क्षय न होने तक शरीर की निवृत्ति नहीं शक्य होती। यह बात नहीं है कि विशुद्ध भावना करने वाले तपस्वियों को भूख ही नहीं लगती। सत्य यह है कि भूख उन भी लगती है किन्तु वे भूख से होने वाली पीडा को सहन कर लेते हैं क्योंकि यदि उन्द भूख ही न लगती तो उन के शरीर में भूखप्रेरित कृशता आदि कार्य भी न होता। कुछ तपस्वियों में यह अवश्य देखा जाता है कि उन का शरीर कृश नहीं होता पर इस से यह माम्यता उचित नहीं होगी कि उन्हें भूख ही नहीं लगती क्योंकि उन के शरीर का कृश न होना कृशताविरोधी मनोव्य ग्रहण करने के कारण हैं, क्योंकि पुद्गलों से ही शरीर के पुदगल का उपचय हो सकता है। यदि यह माना जाय कि तपस्थियों को भूख, प्यास नहीं लगती तो उन भूख, प्यास का विजयी काहना युक्किसंगत न होगा। इसलिए Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] [ शाखवा स्त० १०/६४ इत्थं च मानसपीडाऽप्रदत्वादेव भगवतोऽसातवेदनीयाद्याः प्रकृतयो नासुखदाः इत्युपदेशोऽज्ञानाऽरत्यादिजन्यदुःखविल्यात्, स्वोदयजन्यदुः स्वमात्र हेतुत्वेनात्पदातर्यदा त्तृत्वव्यपदेशवद् एतदुपपति, स्वविपाकप्रतिरोध एव तु निम्यरसलवदृष्टान्तानुपपत्तिरिति विभावनीयम् । न चेदृशं दुःखं कवला योग्यमिति शङ्कनीयम् आहारपर्याप्तिनामकर्मोदय- वेदनीयोदय ज्वलदनप्रतिरोधाऽयोगात् । दग्वरज्जुस्थानीयत्वमपि भगवत्यसातावेदनीयादिप्रकृतीनां न स्वकार्याऽक्षमत्वाभिप्रायेण शास्त्रे प्रतिपाद्यते, किन्तु क्षिप्रक्षेपण योग्यत्वाद्यभिप्रायेण, केवलिनि सातात्यन्तोदयस्यैवागमेऽभिधानात् ; साताऽसातयोचान्तर्मुहूर्त परिवर्तमानतया सातोदयवदसा सोदयस्यापि संभवात् । 'अन्तरानन्दभावे कथं दुःखोदयः ?" इति चेद ? यथा भावितात्मनां तपस्विनां परीपहादौ । यत्तु 'पापप्रकृतीनामपूर्वकरणे रसघातादेव केवलिनां न तथाविधोऽसातोदयः, मोहसापेक्ष ८ 7 यही मानना युक्तिसंगत है कि शीत और उष्ण परिषह का अनुभव होने पर भी उन्हें कैसे उस की पीडा नहीं होती है, उसीप्रकार भूख प्यास आदि लगने पर भी तपस्वियों को उस की कोई पीडा ( संक्लेश ) नहीं होती । इसप्रकार मानस पीडा का जनक न होने से ही यह कथन युक्तिसंगत होता है कि असावेदनीय आदि कर्म प्रकृतियाँ भगवान को असुखकर नहीं होती, क्योंकि उन में अज्ञानअरति आदि से होने वाले दुःख का अभाव हो जाता है । असातावेदनीय भगवान में स्वोदय मात्र से होने वाले दुःख का ही जनक होता है, फिर भी वह असुखकर होने के कथन की उपपत्ति ठीक उसीप्रकार होती है जिसप्रकार अल्पदाता को अदाता कहने की उपपत्ति होती है । ऐसा मानने पर दूध भरे घड़े में नीम के एक बूँद रस पड़ने के दृष्टान्त की अनुपपत्ति नहीं हो सकती। यह तभी होती जब भगवान में कर्मविपाक का पूर्णतया प्रतिरोध माना जाता | 'केवली में इसप्रकार का भी दुःख होना अयुक्त है' यह शंका नहीं की जा सकती क्योंकि आहार पर्याप्त नामक कर्म और वेदनीयकर्म के उदय से प्रज्वलित जदरानल का प्रतिरोध सम्भव न होने से भूख और उस के दुःख का होना अनिवार्य है । भगवान के अखात वेदनीय आदि कर्म प्रकृतियों में जो जली हुई रस्मी की समानता बतलायी गई है यह अपने कार्य के प्रति अक्षम होने के अभिप्राय से नहीं किन्तु तत्काल निवृत्त कर दिये जाने के योग्य होने के अभिप्राय से बतलायी गई है । केवली भगवान में सातवेदनीय कर्म का अत्यन्त उदय ही आगम में बतलाया है। किन्तु सात और असात वेदनीय कर्म प्रति मुहूर्त से परिवर्तित होते रहते हैं अतः सात वेदनीय के उदय के समान भगवान में असातमेदनीय का भी उदय सम्भव होता है । ' भीतर आनन्द के रहते बाहर दुःख का उदय कैसे हो सकता है ?' यह शंका उचित नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार आत्मभावना से सम्पन्न तपस्वियों को परीषद भादि में दुःख होता है उसी प्रकार केवली में आन्तर आनन्द के रहते भी क्रिश्चिद दुःख होने में कोई बाधा नहीं है [ पापप्रकृति का रसघात हो जाने से दुखाभावशंका का उत्तर ] कुछ विद्वानों का कहना है कि पापात्मक प्रकृतियों के फलजनन में रस सहकारी होता है । केवली में रसघात हो जाने से रस का अभाव हो जाता है। अत एष उन में असातावेदनीय Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविधेचन ] [२०७ प्रकृतीनां तद्घातेऽवश्यं रसघातात् ; अन्यथा पराघातनामफर्मोदयात् केवली पराहननाद्यपि कुर्यात् ; पुण्यप्रकृतयस्तु बिशुद्धिप्रकर्षात् पीनविपाकाः कृता इति तद्विपाकमावत्यमेव तत्र' इति केनचिदुच्यते तत् तुच्छम् , रसघाताद् रसस्येव स्थितिघातात् स्थितेरप्युच्छेदप्रसङ्गात् । तथाविधस्थितौ च व्यवस्थितायां तथाविधरसः कस्य पाणिना पिधेयः ? । अगिव च सर्वथा भवोपग्राहिपापकर्मरसघाते समुद्धातवैययम् । न स्खलु सत्कर्मसमीकरणायैव समुदघातः, सत्कर्मण एव वाधिक्यं तदेत्यत्र मानमस्तीति क्रिमुत्सूत्रविस्यन्दितेन । पराधातोदयेन च परेषां दुर्धर्षताद्यभिव्यङ्ग्यं स्वफलं क्रियत एव; परहननादिकं तु मोहकार्यमेव, इति कथं ततस्तदापादनम् ! । परे तूदीरणा विना प्रचुरपुद्गलोपकर्मरूप पापप्रकृति का दुःसप्रद उदय नहीं होता। पापात्मक प्रकृतियाँ मोडसापेक्ष होती है मतः मोह की घास हान पर रसघात हो जाना आवश्यक होता है। यदि ऐसा न माना भारगा तो पराघातनामक कर्म के उदय से कंवली में पर को आवात पहुँचाने की प्रवृत्ति की भी आपत्ति होगी। पापप्रकृतियों से पुण्यप्रकृतियों में अन्तर होता है क्योंकि उन के साथ विशुद्धि का प्रकर्ष होता है, इसलिए उन का विपक-उन का फलप्रद परिणाम परिपुष्ट होता है। अतः केवली में पुण्यप्रकृतियों के विधाक का प्राबल्य होता है। फलतः उन में सुखप्रद सातवेदनीय कमे का सुखप्रद उदय तो होता है। किन्तु असातवेदनीय कर्म का दुःखप्रद उदय नहीं होता।"-किन्तु यह कथन सारहीन है क्योंकि कंवली में रसवात से यदि रस का उच्छेद माना जायगा तो स्थितिघात से उन की स्थिति का भी उच्छेद प्रसक्त होगा और यदि स्थितिघात के साथ भी स्थिति मानी जायगी तो रसघात के साथ रस के अस्तित्व को किस के हाथ के नीचे छिपाया जा सकेगा। [समुद्घातक्रिया निष्फलत्वापति ] इस के अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि यदि भयोपग्राही पाप कर्म का पूर्णरूप से रसधात पहले ही हो जापगा तो केवली द्वारा समुदघात क्रिया का अनुष्ठान व्यर्थ होगा, क्योंकि इस बात में कोई प्रमाण नहीं हैं कि 'ममुरात की क्रिया मात्र सत्कर्मों की स्थिति के समीकरण के लिए ही होती है रस के समीकरण के लिए नहीं होती। अथवा समुदधात के समय सत्कर्मों का ही आधिक्य होता है। अतः सुन्न के तात्पर्य से परे कुछ कहना असंगत हैं। इस सन्दर्भ में यह कहना कि केवल्ली में असातवेदनीय कर्म के उदय से यदि दुःख का जन्म माना जायेगा तो पराघातनामक कर्म के उदय से घर को आघात पहुँचाने में केवली की प्रवृति की आपत्ति होगी-यह ठीक नहीं है क्योंकि पराधात का उदय होने पर उसका फल होता ही है, जिस की अभिव्यक्ति पर की दुर्घर्षता आदि से होती है। हाँ, केवली द्वारा पर का आवात नहीं होता, यह इसलिए कि वह पराघात के उदय का ही कार्य नहीं है किन्तु मोह का भी कार्य है और केवली में मोह नहीं होता। तो फिर केवल पराघात के उदय से पराघात में केवली की प्रवृत्ति का आपादान कैसे हो सकता है ? ___अन्य विद्वानों ने इस सन्दर्भ में यह कहा है कि केवली भगवान का असातवेदनीय कर्म जली हुई रस्सी के समान हो जाता है क्योंकि उन में 'उदीरणाकरण न होने के कारण प्रचुरकर्म पुद्गल उदयप्राप्त न हो सकने से उन का असातवेदनीय कर्म असहाय-निष्फल है Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] [ शासवा० स्त. १०/६४ निपाताभावाद् भगवदसातवेदनीयस्य दुग्धरज्जुस्थानिकत्वमूचुः । तदपि न पेशलम् , एवं सति सातवेदतीयस्यापि तथास्वप्रसंगात्, सम्यग्दृष्टयाघेकादशगुणस्थानेषु गुणश्रेणीसद्भावात् , तदधिकपुद्गलोपसंहारादधिकपीडाप्रसशाच्च । तस्माद् यथाऽनुभागमेव फलसंभव इति विभावनीयम् । अपरे तु सबलपुण्योदयाभिभूतत्वमेव पापप्रकृतीनां दग्धरज्जुस्थानिकत्वमनुमन्यन्ते । तदप्यसत् , बलवत्सजातीयसातोदयस्य परिवर्तमानतयाऽसातानभिभावकत्वात् । पुण्यप्रकृत्यन्तरोदयस्यामिभावकत्वे च चक्रवादीनामपि क्षुद्वेदनीयाघभिभवप्रसङ्गात् । एतेन 'देवानामपि पुण्याभिभूतं वेदनीयं नास्मदादिसाधारणक्षुदादिजनकम् , देवाधिदेवानां तु कैव कथा ! इति पामरप्रपितं परास्तम् । न खलु देवानां वेदनीयम् 'अभिभूतम्' इत्येव विविकायला , तु तहलोपग्रहनिव-धनविचित्राऽदृष्टवशादौदर्यज्वलनविशेषायनुपष्टम्भहेतुकमिति । जाता है। किन्तु यह कथन भी समीचीन नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर केवली का सात. वेदनीयकर्म भी जली रस्सी के समान हो जाएगा, क्योंकि उस की भी वहाँ उदीरणा नहीं होती। तथा यह भी दोष होगा कि सम्यग्दृष्टि आदि ११ गुणस्थानकों में जहाँ जहाँ गुणश्रेणी की रचना होगी वहाँ वहाँ प्रचुरतम कर्मपुदगल का उदय प्राप्त होने से अत्यधिक पीडा का आगमन हो जायेगा । अनः ग्रही मानना उचित है कि केवटी में सातवेदनीय और असातधेदनीय दोनों कर्म अपने अपने रस के अनुसार अपना फल प्रदान करते हैं। [असातावेदनीय का अभिभव संभव नहीं] अन्य विद्वानों का कहना है कि- बलवान पुण्य के उदय से अभिभूत-अपने कार्य के प्रति असमर्थ हो जाना ही पापप्रकृतियों का जली हुई रस्मी के समान हो जाना है। अतः केयली में बलवान पुण्य का उदय होने से उन में पापप्रकृति के क्लेश आदि कार्यों का होना सम्भव नहीं है'-किन्तु यह यथन ठीक नहीं है। क्योंकि बलवान मजातीय सातवेदनीय कर्मी का उदय परिवर्तित होता रहता है। बलवान सजातीय सातवेदनीय, आदि से अन्त तक नहीं रहता किन्तु सातवेदनीय और असातवेदनीय कर्म का उदय एक एक मुहूर्त में फिरता रहता है। अतः सातवेदनीय बलवान पुण्योदय को असातवेदनीय कर्म का अभिभावक मानना सम्भव नहीं है। अन्य प्रकार की पुण्यप्रकृति के उदय को भी असातधेदनीय कर्म का अभिभावक नहीं माना जा सकता क्योंकि ऐसा मानने पर चक्रवर्ती आदि के भी श्वधाबेदनीय आदि कर्मों का अभिभव हो जाएगा। चक्रवर्ती मादि में विशिष्ट पुण्य प्रकृति का उदय रहता है किन्तु उन के क्षुधाबेदनीय आदि कर्म अक्षम नहीं होते, उन्हें भी भूख-प्यास लगती हैं।-" वेदनीय कर्म से हमलोगों जसे साधारणजनों को जैसी भूख-प्यास होती है वैसी देवताओं को भी नहीं होती क्योंकि उन का वेदनीयकर्म पुण्य अभिभूत होता है। तो फिर देवाधिदेव केवली के बारे में भूख-प्यास आदि होने की कल्पना ही कैसे हो सकती है। "-यह पामर का कथन भी अत्यन्त निःसार है क्योंकि देवताओं का वंदनीयकर्म अपने विचित्र कार्यों के प्रति केवल इसलिए असमर्थ नहीं होता कि वह पुण्य से अभिभूत रहता है। अपितु उस का अन्य कारण भी है, और वह है उन के देवत्वसम्पादक चिचित्र अदृष्ट के प्रभाष से उन के उदराग्नि आदि का उदीप्त न होना। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ २०१ यदि च सर्वथा भगवति क्लेशो नेष्यते कथं तर्हि “एकादश जिन " इति भगवत्येकादशपरीषहाऽऽवेदकं सूत्रं समर्थनीयम् । 'एकादश' इत्यनन्तरं 'न सन्ति । इत्यध्याहारादिति चेत् ? न, स्वामित्वचिन्ताद्यवसरे ऽस्य बिपरीतव्याख्यानत्वात् । एतेन 'एकेनाधिका दशन' इत्यप्यव्याख्यानं द्रष्टव्यम्, तथा समासाऽयोगाच्च । इत्थं च 'एकादश जिने सन्ति, वेदनीयसत्त्वात्, न सन्ति वा, मोहाभावात् ।' इति द्वधा व्याख्यातुः सर्वार्थसिद्धिकृतोऽपि महाननर्थ एवोपतिष्ठते । वेदनीयात्मककारणसत्त्वादेकादशपरीषहाणां भगवत्युपचारे मोहसत्त्वमात्रेणोपशान्तवीतरागेऽपि द्वाविंशतिपरीषहाभिवानप्रसङ्गात् ; 'न सन्ति' इत्यध्याहारस्याऽप्रामाणिकत्वाच्च । भोजनजनकतावच्छेदकजात्यभाववक्षुदादिपरीषहकल्पने च न मानमस्ति । 'अयोगिन्युपचारावश्यकत्वात् [ दिगम्बर मत में 'एकादशजिन सूत्र की अनुपपत्ति ] केवली भगवान में क्लेश का होना यदि सर्वथा अमान्य होगा तो भगवान में ग्यारह परीषहों का अस्तित्व बताने वाले 'पकादश जिने' इस तत्वार्य सूत्र का समर्थन भी न हो सकेगा। यदि यह कहा जाय कि 'उक्त सूत्र में एकादश शब्द के बाद 'न सन्ति' का अध्याहार कर उस सूत्र को भगवान में ग्यारह परीषहों के अभाव का बोधक मानने से उस का समर्थन हो जाएगा' -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त सूत्र भगवान में स्वामित्व आदि के विचार के अवसर में पठित है। अत पर वह अध्याहार वाला व्याख्यान अप्रासंगिक होगा क्योंकि उक्त स्वामित्व विचार के सन्दर्भ में भगवान में जिन परिषहों का होना सम्भव है उन्हीं को बताना उचित होगा न कि उन के अभाव को बताना । उक्त व्याख्यान के अप्रासंगिक होने से ही 'न सन्ति' के अध्याहार के बिना भी एकादश शब्द का 'एकेन अधिका दशन' इस व्युत्पत्ति द्वारा भगवान जिन में पकादश परीषहों के अभाव बताने में उक्त सूत्र का तात्पर्य है' -यद व्याख्यान भी तिरस्कृत हो जाता है। 'एकेनाधिका दश न' इस व्युत्पत्ति के अनुसार एक. दश. न इन तीन पदों का समास सम्भव न होने से उक्त अर्थ में 'एकादश' शब्द की सिद्धि भी नहीं हो सकती। सर्वार्थसिद्धिकार ने उक्त तत्वार्थ सत्र की दो प्रकार से व्याख्या की है। एक यह कि भगवान जिन में एकादश परीषह हैं क्योंकि उन में घेदनीय कर्म का अस्तित्व है। दूसरी व्याख्या 'न सन्ति' के अध्याहार से यह कि उन में एकादश परीषह नहीं है क्योंकि उन में मोह का अभाव है। ये दोनों प्रकार की व्याख्या महान् अनर्थ से ग्रस्त है क्योंकि वेदनीय कर्मरूप कारण के रहने से भगवान में यदि उपचार से पकादश परीषह होने की बात कही जाएगी तो मोह के अस्तित्वमात्र से उपशम को प्राप्त वीतराग में भी उपचार से बाईस परीषह होने की बात भी कहनी होगी। जब कि ऐसा नहीं कहा गया है और भगवान जिन में मोह के अभाष से एकादश परीषहों के न होने में उक्त सूत्र का तात्पर्य नहीं है अतः यह दूसरी व्याख्या सम्भव नहीं है क्योंकि उक्त सूत्र में 'न सन्ति' का अध्याहार होने में कोई प्रमाण नहीं है। यह भी कल्पना प्रमाणहीन है कि-भगवान में क्षुधा आदि परीषह तो हैं किन्तु उस में भोजन जनकतावच्छेवक जाति नहीं है। अतएष भगवान में भोजनकर्तृता नहीं होती। कहने २७ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ] [ शास्त्रवा०ि मत. १०६५ सयोगिन्यप्येफादशानामुपचारौचित्यम् । इति तु वैलक्ष्यभाषितम्, श्रेण्यामप्युपचारापत्तेः । ‘शक्तिव्यक्तियोग्यताभ्यां श्रेण्यां नोपचार' इति चेत ? अन्यत्रापि सुवचमेतत् कालविशेषादिसहकार्यवाप्स्यैव सयोगिन्यभिव्यक्तेरिति दिग् । यदपि-न चातीन्द्रियस्य'....इत्याभिहितम् , तदपि न चतुरचेतोहरम्, तृष्णाधानद्वारके सुखे दुःखे वेन्द्रियाणां तज्जन्यज्ञानस्य बा हेतुत्येऽप्यन्यत्र तथाविधएरिणामादेव दन्य क्षेत्रादिसंपत्तिलब्धविपाककर्मकृतात् सुख-दुःखोपपत्तेः । आहारसंज्ञा-रुची च न क्षुद्दुः ख-भुक्तिसुखयोहेतू , किन्स्वार्तध्यानजन्यदुःख-तत्प्रतिकारमुखयोः अवमकोष्ठताक्षुदेदनीयोदयमतितदोपयोगप्रभवचेष्टामिलापरूपातध्यानमण्याऽऽहारसंज्ञया क्षुद्दुःखाभिवृद्धौ भुक्त्यमाप्तौ तदुःखवेगमसहमानानां वेदनावियोगप्रणिवानरूपार्तध्यानाभिवृद्धया क्रन्दनाद्यभिव्यङ्गयमानसदुःखजननान्, भुक्तिप्राप्तौ चेष्टामिष्वङ्गेन का भाशय यह है कि क्षुधा आदि परीषह को श्रुत्परीष हत्यरूप से भोजनजनकता नहीं हैं किन्तु विजातीय क्षुत्परीषहत्वरूप से भोजन जनकता हैं और जो जाति क्षुत्परीषह में विद्यमान भोजन जनकता का अवच्छेदक है वह केवली भगवान में विद्यमान धुतपरीषह में नहीं है। अतएव उन्न भूख नहीं लगती और वे भोजन नहीं करते ।' किन्तु इसप्रकार की कल्पना में कोई प्रमाण नहीं है। यदि यह कहा जाय कि अयोगी केवली व्यक्ति में एकादश परीषह उपचार से होने का मानना आवश्यक होने से सयोगी केवली में भी उपचार से ही पकादश परीषहो के अस्तित्व का कथन उचित है। अर्थात् केवल उपचार की दृष्टि से ही भगवान में एकादश परीषहों के होने की बात कही गयी है, न कि उस कथन के आधार पर उन में उन परीपहों के फल का होना भी मान्य है।' -तो यह कथन केवल लज्जामात्र मृलक है क्योंकि सयोगी में उक्त रीति से उपचार से पकादश परीपाठों के अभिधान के औचित्य का समर्थन करने पर श्रेणी में भी उपचार से ही उक्त परीषहों के अभिधान की आपत्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि-' शक्ति की अभिव्यक्ति और योग्यता दोनों का श्रेणि में सम्भव होने के कारण श्रेणी में एकादश परीषदों का उपचार नहीं होता' -तो यह बात सयोगी केवली के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है, क्योकि कालविशेप आदि सहकारी के प्राप्त होने से ही सयोगी में भी शक्ति की अभिव्यक्ति होती है। अतः यदि श्रेणी में उक्त परीषहों के उपचार में शक्ति की अभिव्यक्ति बाधक है तो सयोगी में भी उक्त परीषष्ठों के उपचार में बाधक हो सकती है। [केवली अतीन्द्रिय होने पर भी सुख-दुःख का सम्भव ] केषली के सम्बन्ध में जो यह बात कही गयी कि ये अतीन्द्रिय होते हैं अत: उप क्षुधा आदि से दुःख और उस की निवृति से सुख नहीं हो सकता, क्योंकि ये दोनों इन्द्रिय अथवा तजन्य ज्ञान से साध्य हैं। जिन का केवली में अभाव है।' -यह कथन भी बुद्धिमान पुरुषों के चित्त को सन्ताष देने वाला नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय और तन्मूलक ज्ञान उसी सुख और दुःख का कारण होता है जो तृष्णा द्वारा उत्पन्न होते हैं. किन्तु जिन भगवान में तृष्णा नहीं होती है। उन में सुख और दुःख का उदय तदनुकूल देह अथवा आत्मा के परिणाम से ही होता है । यह सुखप्रद और दुःखप्रद परिणाम प्रसे कर्मों के विपाक से हाता है जो द्रव्य क्षेत्र आदि का सग्निधान होने पर सम्पन्न होता है। आहार संज्ञा और रुचि का अभाव भी केवली के दुःख और सुख में बाधक नहीं हो सकता क्योंकि वे दोनों क्षुधाजन्य दुःख और भोजन अन्य Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ २११ मनसा सुखवेदनात् । न चेयं मध्यस्थेषु गतिः, अतिचारजनन्योराहारसंज्ञा रुच्योस्ते ध्वनुपपत्तेः । न हि विहितानुष्ठानेऽप्यतिचारो नाम । एतेन ' आहारसंज्ञां विना केवलिनो नाहारः, मैथुनसंज्ञा विनाऽब्रह्मेव ' इति कुचोद्यमपास्तम्, महर्पणाभिव भगवतो दिनाप्याहारसंज्ञामाहारोपपत्तेः, अन्यथा तेषामाहारसंज्ञयाऽऽहारखद् मैथुनसंज्ञयाऽब्रह्माप्यदुष्टं स्यादिति । यञ्चोक्तम्- ' औदारिकव्यपदेशस्तु भगवच्छरीरस्योदारत्वाद् न तु भुक्तेः' इति । तत्तु न दोषावहम् औदारिकशरीरित्वे स्वकारणाधीनाया मुक्तेरप्रतिषेधाद्, व्यपदेशस्योदारत्वनिमित्तत्वेऽपि स्वकारणनिमित्तप्रकृत भुक्ति सिद्धेः । सुख के हेतु नहीं है, किन्तु आध्यान से उत्पन्न दुःख और उस के प्रतिकार से होने वाले सुख के ही हेतु है । कोष की और का उदय, आहार की मति और उस के विषयभूत अर्थ के उपयोग से आहार संज्ञा का जन्म होता है । जिस में इस को प्राप्त करने की इच्छारूप आर्तध्यान की अधिकता होती है। इस आहार संज्ञा से क्षुधाजन्य दुःख की वृद्धि होती है और भोजन न मिलने पर मनुष्य इस दुःख के वेग को सहने में असमर्थ हो जाता है । उस स्थिति में उपस्थित वेदना की निवृत्ति के उपाय का चिन्तन रूप आध्यान वृद्धिगत होता है जिम से मनुष्य को मानस दुःख होता है जिस की अभिव्यक्ति उन के क्षुधामूलक कन्दन आदि से होती हैं। ऐसे मनुष्य को भोजन प्राप्त हो जाने पर इष्ट के राग से मन में उत्साह हो जाता है और उत्साहित मन से उसे सुख की अनुभूति होती है। उक्त रीति से स्पष्ट है कि आहार संज्ञा और रुचि आर्तध्यानजन्य दुःख और उस के प्रतीकार से होनेवाले सुख के ही हेतु हैं, क्षुधाजन्य दुःख और भोजनसुख के हेतु नहीं है। दुःख और सुख के उदय के सम्बन्ध में जो बात आर्तव्यान के आधार पर बताई गई है, वह मध्यस्थ पुरुषों में नहीं होती है, क्योंकि उन में अतिचार यानी कन्दन कार्यभूतदुःखबैग और इष्ट राग से होय उत्साह युक्त मन से सुखानुभूति की जनक आहार मंशा और रुचि का अभाव होता है। कंबली में आहार संशा और रुचि नहीं होती। उन का भोजन ग्रहण विहित का अनुष्ठान है और त्रिहित के अनुष्ठान में अतिचार नहीं होता है । 4 'आहार संज्ञा के अभाव में केवली द्वारा आहारग्रहण उसी प्रकार अनुपपन्न है। जैसे मैथुनसंज्ञा के अभाव में श्रह्मचर्य का अंग अनुपपन्न हैं। यह कृतकें भी मनायास निरस्त हो जाता है क्योंकि जैसे आहार संक्षा के अभाव में भी छनस्थ महर्षि को आहार उपपन्न होता है। उसीप्रकार आहारसंज्ञा के अभाव में केवली भगवान को भी आहार उपपन्न हो सकता है। यदि यह कहा जाय कि 'महर्षियों का आधार आहारसंशा से ही होता है, अतः महर्षियों के शन्त से केवली के आहार का उपपादन शक्य नहीं है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यदि महर्षियों में आहार की उपपत्ति आहार संज्ञा से की जाएगी, तो उन में मैथुनसंज्ञा से ब्रह्मचर्य का भंग भी निर्दोष मानना होगा। अतः यही उचित है कि महर्षियों के आधार को आहारसंज्ञा निरपेक्ष ही माना जाय और उसी दृष्टान्त से केवली में भी आधार संज्ञानिरपेक्ष आहार को स्वीकृति प्रदान किया जाय । केवली के सम्बन्ध में जो यह बात कही गयी कि उन का शरीर औदारिक होने का जो व्यवहार होता है वह उन के शरीर की उदारता ( अति स्वच्छता) के कारण होता है, न कि उन के भोजन के कारण होता है' उस में किसी दोष की आपत्ति नहीं है अर्थात् उस भाधार पर केवली के भोजनाभाव का आपादान नहीं किया जा सकता, क्योंकि भगवान का Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ] [ शासवा० स्त० १०/६४ यदपि-एकेन्द्रियादीनामयोगिपर्यन्तानामाहारिणां सूत्र उपदेशात् ....इत्याद्युक्तम्-तदप्यसंगतम् , एकेन्द्रियादिसहचरितत्वनिरन्तराहारोपदेशमन्तरेणापि [कृ. संग्र. १८६] “विग्गहगइमावष्ण"-इत्यादि सूत्रसंदर्भस्य केवलिभुक्तिप्रतिपादकस्यागमे सद्भावात् । न च तस्याऽप्रामाण्यम्, सर्वज्ञप्रणीतत्वेनाभ्युपगतसूत्रस्येव प्रामाण्योपपत्तेः । न च तत्प्रणीतागमैकवाक्यतया प्रतीयमानस्याप्यस्याऽतत्प्रणीतत्वम् , अन्यत्रापि तत्प्रसक्तेः । शरीरप्रायोग्यपुद्गलग्रहणमेवाबाहारत्वेनाभिमन्यमानस्य च भवतो विग्रहगत्यापन्नसमवतकेवल्ययोगिसिद्धव्यतिरिक्ताशेषप्राणिगणे शरीरप्रायोग्यपुद्गलग्रहणमेवाहारशब्दवाच्यमिह सूत्रे. ऽभिप्रेतमित्यपूर्व सामायिकशब्दार्थकश्पनकौशलम् । शरीर औदारिक होने पर भी क्षुदवेदनीय कर्मों यरूप कारण के उपस्थित होने पर भोजन का होना अनियार्य है। उस का प्रतिषेध, भगवान औदारिक शरीरी होने के व्यवहार की प्रकारान्तर से उपपत्ति कर देने मात्र से नहीं हो सकता। औदारिक होने का व्यपदेश शरीर की उदारतारूप निमित्त से भी हो सकता है, उस में भोजन की अपेक्षा नहीं हो सकती, यह ठीक है किन्तु साथ ही केवली का भोजन भी उस के सहज कारण के सन्निधानरूप निमित्त से हो सकता है। केवली के अनाहार के समर्थन में जो यह बात कही गई है कि “ सूत्र में एकेन्द्रिय से लेकर अयोगीपर्यन्त आहारग्रहीताओं का उल्लेख होने से केवली को कबलाहार का ग्रहीता मानमा सम्बद्ध सूत्र के अर्थ के अज्ञान का फल है क्योंकि सूत्र में पकेन्द्रिय आदि के साथ भगवान का उस्लेख किया गया है और निरन्तर आहार की बात कही गयी है। इस से स्प है कि भगवान को कवलाहारी बताने में सूत्र का तात्पर्य नहीं है अपितु शरीर की स्थिति के लिए अपेक्षित पुद्गलग्रहण रूप आहार का कर्ता बताने में है। ऐसा न मानने पर समृदयात अवस्था में केवल तीन क्षण को छोड़ कर पुरे समय कपलाहार द्वारा ही भगवान में निरन्तर थाहारी होने की आपत्ति होगी" यह बात ठीक नहीं है। वृहत्संग्रहणीसूत्र में कहा है- “विग्रहगतिवाले, समुद्घातकेवली, अयोगी और सिद्धों को छोड कर बाकी सब जीव माहारी होते हैं"इस में एकेन्द्रिय आदि का सहचारी होने और निरन्तर आहारी होने की बात न कहकर भी स्पष्टरूप से केवली के भोजन का प्रतिपादन किया गया है। उस सूत्र को अप्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अन्य प्रामाणिक सत्र के समान सवेश द्वारा प्रणीत होने से इस सूत्र का भी प्रामाणिक होना निर्याध है। यदि यह कहा जाय कि-'सर्वज्ञ द्वाग रचित आगम के साथ पकवाक्यतापन्न रूप में प्रतीति होने पर भी यह मूत्र सर्वप्रणीत नहीं है' -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यह आपत्ति अन्य सूत्रों में भी इसीप्रकार प्रसक्त हो सकती सरी बात यह है कि यदि शरीरस्थिति के योग्य पदगलों के ग्रहण को ही भगवान का उक्त सुत्र का तात्पर्य माना जायगा तो आप यह भी कह सकते हैं कि वियह गति को प्राप्त, समुदधात गत केवली, अयोगी केवली और सिद्धात्मा इतने को छोड कर सभी प्राणियों को शरीरस्थितियोग्य पुद्गलों का ग्रहण रूप ही आहार उक्त सत्र द्वारा विवक्षित है। यदि सूत्रार्थ का प्रतिपादन ऐसा किया जाएगा तो यह सामायिक शब्द के अर्थ की कल्पना के एक अपूर्व कौशल का नमूना होगा । १. विग्रहगतिमापन।। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या, क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [२१३ यदपि 'निरन्तराहारत्वं केवलिनस्तेनाहारेण समुद्घातक्षणत्रयमपहाय भवेत् ' इत्युक्तम् तदप्ययुक्तम् , विशिष्टाहारस्य विशिष्ट कारणप्रभवत्वात् , तस्य च प्रतिक्षणमसंभवात् ; यस्तु पुद्गलादानलक्षणो लोमाद्याहारः, तस्य प्रतिक्षणं सद्भावेऽप्यदोषात् । यदपि 'यथासंभवमाहारख्यवस्थितेः केथलिनः कवलाहारः, अन्यथा शरीरस्थितेरभावात् ' इत्यभिधानम् तदपि युक्तमेव । न हि देशोनपूर्वकोटि यावद् विशिष्टाहारमन्तरेण विशिष्टौदारिकशरीरस्थितिः संभविनी । न च तच्छद्मस्थावस्थातः केवल्यवस्थायामात्यन्तिकं तच्छरीरस्य विजातीयत्वम् , येन प्रकृताहारविरहेऽपि तच्छीरस्थितेरविरोधो भवेत् , ज्ञानाद्यतिशयेऽपि प्राक्तनसंहननाद्यधिष्ठितस्य तस्यैवाऽऽपातमनुवृत्तः । अस्मदाद्यौदारिकशरीरविशिष्टस्थितेविशिष्टाहारनिमित्तत्वं च प्रत्यक्षाऽनुपलम्भप्रभवप्रमाणेन सर्वत्राधिगतम्, इति विशिष्टाहारमन्तरेण तस्थितेन्यत्र सद्भावे क्वचिदपि तस्थितिस्तन्निमित्ता न भवेत् । ___अथौदारिकशरीरस्थितित्वं न कवलाहारजन्यतावच्छेदकम् , एकेन्द्रियशरीरस्थितौ व्यभिचारात् ; [निरन्तर कवलाहार की आपत्ति का प्रतिकार ] जो यह कहा गया कि-'समुद्घात के तीन क्षण को छोडकर पूरे समय में कयलाहार द्वारा भगवान में निरन्तर आहारमाहीता होने की आपत्ति होगी।' -वह भी ठीक नहीं है क्योंकि विशिष्ट भाहार विशिष्ट कारण होने पर ही उपादेय होता है। कयलाहार एक विशिष्ट आहार है। अतएव शुधारूप विशिष्ट कारण उपस्थित होने पर ही हो सकता है और यह कारण प्रतिक्षण सम्भव नहीं है। अतः प्रतिक्षण कवलाहार सम्भव न होने से उक्त आपत्ति नहीं हो सकती है। जो लोमवारक लोमाहार यामी पुदगलग्रहणरूप आहार है उस के प्रतिक्षण होने पर भी किसी दोष की प्रसक्ति नहीं है। जो यह बात कही गयी कि यथासम्भव आहार की प्यवस्था होती हैं अतः फेवली भगवान में भी कयलाहार मानना उचित है क्योंकि ऐसा न मानने पर उन के शरीर की भी स्थिति न हो सकेगी। -यह तो ठीक ही है क्योंकि किचिद न्यून पूर्व कोटि वर्ष की कालावधि तक विशिष्ट आहार के बिना विशिष्ट औदारिक शरीर का अस्तित्व सम्भव नहीं है। छत्रस्थ अवस्था से केवलीअवस्था का शरीर अत्यन्त विजातीय नहीं होता जिस से प्रकृत आहार के अभाव में भी केवली के शरीर की स्थिति में कोई विरोध न हो । केवली अवस्था में शान आदि का अतिशय सम्पन्न हो जाने पर भी निर्वाण पर्यन्त शरीर में अवयवों की वही संघटना आदि विद्यमान होता है जो केवली अवस्था के पूर्व शरीर में होता है। प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ मूलक प्रमाण से सभी अवस्थाओं में यह सिद्ध है कि हम लोगों के औदारिक शरीर की विशिष्ट स्थिति विशिष्ट आहार ले ही होती है। अतः केवली अवस्था में औदारिक शरीर की स्थिति यदि विशिष्ट आहार के बिना मानी जायगी तो किसी भी समय अर्थात् केवली से पूर्व अवस्था में भी औदारिक शरीर की स्थिति विशिष्टआहारमूलक न हो सकेगी। [परमौदारिक शरीर की असिद्धि] ___यदि यह कहा जाय कि-'मौवारिकशरीरस्थितित्य कयलाहार का कार्यतावच्छेदक नहीं है, अर्थात् सभी औदारिकशरीरस्थिति के लिए कपलाहार की अपेक्षा नहीं है क्योंकि पकेन्द्रिय Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५] [शास्त्रवा िस्त. १०/६४. नाप्यस्मदादिशरीरस्थितित्वम्, अस्मदादित्वस्याननुगतत्वात्, किन्तु विजातीयशरीरस्थितित्वम् ; तच्च वैजात्यं केवलिशरीरे नास्ति, मोहक्षयेण रुधिरादिधातुरहितस्य मूत्र-पुरीपादिमलाधायिकवलाहारानपेक्षस्य परमौदारिकशरीरस्यैब भावादिति चेत् ? न, केवलिशरीरस्य कवलाहारानपेक्षत्वसिद्धौ परमौदारिकत्वसिद्धिः, तत्सिद्धरै च कवलाहारानपेक्षत्वसिद्धिरित्यन्योन्याश्रयात् । न च मोहक्षयेण परमौदारिकत्वमप्युत्पादयितुं शक्यम्, भवोपष्टम्भक शरीरोपमर्दैन शरीरान्तरोपनहे भवान्तरप्रसङ्गात् । अवस्थितशरीरस्यातिशयश्च न रुधेरादिधातूपष्टधमनुप्यशरीरत्वजात्युच्छेदेन संभवति । न ह्यतिशयितोऽपि पद्मरागो मुक्तामणी भवति । ____कथं चैवं पुद्गलविषाकियन्त्रर्षभनाराचसंहननप्रकृतिविपाकोदयस्सत्र स्यात् ! अस्थि-पुद्गलेप्वेव जीव के शरीर की स्थिति कवलाहार के विना भी होती है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि हम लोगों की शरीरस्थिति के लिए कबलाहार की अपेक्षा है क्योकि “हम लोगों" का कोई अनुगत ऐसा अर्थ नहीं है जिस के आधार पर यह बात कही जा सके । क्योंकि हम जैसे लोगों में विभिन्न प्रकार के जीवों का समावेश है जिन के शरीर के लिए कवलाहार की अपेक्षा होती है। किन्तु यही कहना उचित होगा कि कालाहार की अपेक्षा, विजातीय शरीर को होती है और उस शरीर का वैज्ञात्य केबली के शरीर में नहीं होता, केषली का शरीर परमौदारिक होता है । मोह का क्षय होने से उस शरीर में रुधिर आदि धातुओं का अस्तित्त्र नहीं होता। अतपय उस में मृत्र पुरीष आदि भल पैदा करने वाले कबलाहार की अपेक्षा नहीं होती।' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि केवली के शरीर में कवलाहार की अपेक्षा नहीं होती' यह बात सिद्ध हो जाने पर ही 'उस का शरीर परमादारिक होता है। यह बात सिद्ध होगी पली का शरीर परमौवाधिक होता है' यह सिद्ध हो जाने पर ही उस को कवलाहार की अपेक्षा नहीं होती' यह बात सिल होगी। अत एवं उक्त कथन अन्योन्याश्रय दोष से ग्रस्त है। मोह का क्षय हा जाने से केवली का शरीर परमौदारिक हो जाने की उपपत्ति भी नहीं की जा सकती, क्योंकि वर्तमान भव के निमित्तभूत शरीर को निमित्त मान कर ही विजातीय शरीर का अभ्युपगम किया जा सकता है और ऐसा होने पर केवली में भवान्तर की आपत्ति होगी जब कि केवली का भवान्तर सिद्धान्तविरुद्ध है। केवली के शरीर में अन्य शरीरों की अपेक्षा अतिशय की उपपत्ति भी इस रूप में मान्य नहीं हो सकती कि रुधिर आदि धातुओं से निर्मित होने वाले मनुष्यशरीर की जाति का इस में उच्छेद हो जाता है', क्योंकि पंसा नहीं होता कि पनरागमणि पर्याप्त अतिशय से सम्पन्न होने पर भी अपनी सहज जाति पद्मरागत्य को छोड़कर मुक्कामणि हो जाय । इसीलिये यह कहना कथमपि संगत नहीं हो सकता कि केवली का शरीर छमस्थ मनुष्य के शरीर की अपेक्षा अतिशय युक्त होने से मनुष्य शरीर के सहज स्वभाव को छोड़ देता हो । अत एष मनुष्य शरीर के लिए अपेक्षित कवलाहार की अपेक्षा केवलिशरीर में नहीं होने की बात असंगत है। [ संघयण नामकर्म का विपाकोदय कैसे घटेगा ? ] __यह भी सातव्य है कि केवली के शरीर को यदि मनुष्य के रुधिरादि घरित शरीर से सर्वथा विजासीय माना जाएगा तो उस में 'वन ऋषभ नारायसंघयण' नामक पुगहविपाकी Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -स्या. क. टीका-हिन्दी विवेश्वन ] [ २९५ तस्याचिपाकदर्शनात् 'सहयण भट्टणचओ " कर्मग्रन्थे १-३८] इति वचनात् । न चास्थि पुद्गलेषु दृढतररचना विशेष एव तत्प्रकृतिजन्य इति नियमो, न तु तेष्वेवेति वाच्यम्, दृढावयवशरीराणां देवानामपि तत्प्रसङ्गात् । किञ्च, मोहक्षयस्य तत्कार्यराग-द्वेषविलयद्वारा ज्ञानोत्पादकत्वमेव, न तु शरीरातिशायकत्वम्, नामकर्मातिशयादेव जात्यनुच्छेदेन प्रशस्त संहननादिरूपशरीरातिशयोपपत्तेः । तथा चागमः – [आ. नि. ५७१] ८८५ 'संवयण - रूव - संठाण - वष्ण- गइ - सत-सार- उसासा । एमाइगुत्तराई हवंति णामोदया तस्स ॥ १ ॥ " C. न च नामातिशयस्य संहननाद्यतिशायकवज्जा ठरानलनाशकत्वमपि क्वचिदुक्तं युक्तं वा, तत्कारणीभूत तथा विधतैजस शरीरविघटनप्रसङ्गात् लब्धीनां कारणघटन - विघटनद्वारे कार्यघटन - विघटनयोस्तत्रत्वात् । J नामकर्म की प्रकृति का विशकोदय कैसे सम्भय होगा, क्योंकि इस प्रकृति का विपाक अस्थिपुद्गलों में ही होता है, जैसा कि 'संध्यणमट्टिषिचओ-संघयण यानी हड्डीयों का बंधारण' इस वचन द्वारा विदित है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि - " अस्थिपुदुमलों में जो विशेषप्रकार की वृढ रचना होती हैं वही इस प्रकृति से जन्य होती है यह नियम है, न कि यह नियम कि अस्थिमुगलों में ही इस कर्मप्रकृति का दृढ रचना के रूप में विपाक होता है: " क्योंकि ऐसा मानने पर देवताओं में भी उक्तमकार के प्रकृतिविपाक की आपत्ति होगी क्योंकि उन के शरीर के अवयव भी हढ होते I - जो यह बात कही गयी कि केवली के मोह का क्षय हो जाने से उन का शरीर छद्मस्थ के शरीर की अपेक्षा अतिशययुक्त हो जाता है । ' यह ठीक नहीं है क्योंकि मोह का क्षय मोह के कार्य राग और क्षेत्र की निवृत्ति के द्वारा ज्ञान का ही उत्पादक होता है, न कि शरीर के अतिशय का भी सम्पादक होता है । अत्रयवों के उत्तम गठनरूप शरीर के अतिशय की सिद्धि नामकर्म के अतिशय से ही सम्पन्न होती है। उस के लिए पूर्व शरीर के जाति का उच्छेद आवश्यक नहीं होता । जैसा कि आवश्यक नियुक्ति में संघयण रूप संठा-वण- गइ सत्त-सार ऊसासा । पमाइणुत्तराई हथेति णामोदया तस्स ॥ इस गाथा में स्पष्ट कहा गया है कि संहनन, रूप संस्थान, वर्ण, गति, सत्य, सार, श्वासोच्छवास आदि शरीर धर्म, नामकर्म के प्रभाव से केवलि के लोकोत्तर होते हैं। नामकर्म का अतिशय मंहनन आदि के अतिशय का सम्पादक होता है यह बात जैसे कही गयी है। उसप्रकार यह बात कहीं नहीं कही गयी कि नामकर्म के अतिशय से जठगनल का नाश भी होता है। और यह युक्तिसंगत भी नहीं है क्योंकि यदि जठरानल का नाश माना जाएगा तो उस के हेतुभूत तैजस शरीर के भी विघटन की आपत्ति होगी। अतः यह सर्वमान्य है कि लब्धि का अतिशय कारण के संघटन और विघटन सम्पन्न करके ही कार्य के संघटन और विघटन का सम्पादक होता है । - १. संहननमस्थिनिचयः । २. संहनन रूप - संस्थान-गति सत्य सारोच्छ पासा: । एवमाद्यनुत्तराणि भवन्ति नामोदयात् तस्य ॥ १ ॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] [ शाबबा०ि स्त० १०/६४ किच, अत्यन्तवैजात्ये भगवच्छरीरस्य षष्ठशरीरपरिकल्पनामसंगः, धातुमच्छरीरस्थिति-वृद्धयोः क्षुजनितकायद्यपनायकधातूपचयादिद्वारा, कबलाहारस्य, स्थूलौदारिकस्थिति-वृद्धिसामान्ये स्थूलाहारस्य वा हेतुत्वात् । अवोचाम च- [अ० म० परीक्षा ११६ ] ___“ ओरालियत्तणेणं तह परमोरालिंपिं केवलियो । फलाहारावेवखं ठिई च बुद्धिं च पाउणइ ॥ १॥" तस्माद् धूमसामान्ये वहनेरिव विशिष्टोदारिकस्थितिसामान्ये कवलाहारस्य हेतुत्वात् तदभावे चिरतरकाला भगवच्छरीरस्थितिर्न संभवतीति सिद्धम् ।। सर्वज्ञतादिकं तु घातिकर्मक्षयादुपपद्यते । न च प्रकृताहारेण, तत्कारणेन, तद्वयाएकेन वा सर्वज्ञतादेविरोधः, आहारस्य साक्षात् ज्ञानादिघातकत्वेन बाऽविरोधात् ; तत्कारणस्य क्षुदनीयो [केवलिदेह में अत्यन्त वैजात्यादि कल्पनाओं का निरसन ] यह भी ध्यान देने योग्य है कि भगवान के शरीर को यदि अन्य सभी शरीरों की अपेक्षा अस्यन्त विजातीय माना जायगा तो छष्ठे प्रकार के भी शरीर की कल्पना करनी होगी, क्योंकि धातुयुक्त शरीर की स्थिति और बुद्धि के प्रति कवलाहार श्रुधाजनित कृशता आदि को दूर करने वाली धातुवृद्धि के द्वारा कारण होता है। अथवा सामान्यतः स्थूलऔदारिक शरीर की स्थिति और वृद्धि में स्थूल आहार कारण होता है। जैसा कि हमने बताया है कि 'देवली का परमोवारिक भी शरीर, औदारिक होने के कारण स्थिति और वृद्धि के लिए कालाहार की अपेक्षा करता है।' इसलिए जैसे धृम सामान्य में अग्नि कारण होने से आ ग्नि के बिना धूम नहीं होता उसीप्रकार विशिष्ट औदारिक शरीर की सामान्यतः स्थिति में कवलाहार कारण होने से कवलाहार के अभाव में अधिक काल तक भगवान के शरीर की स्थिति नहीं हो सकती-यह निर्विवाद सिद्ध है। [कवलाहार सर्वज्ञतादि का विरोधी नहीं ] सर्वशता आदि जो भगवान में सिद्ध होती है वह घातीकर्मों के क्षय से होती है । प्रकृतकषलाहार, उस के कारण अथवा उस के किसी ध्यापक अन्य धर्म के साथ सर्वज्ञता आदि का कोई विरोध नहीं है क्योंकि आहार न तो सर्वशता का साक्षात् विरोधी है और न शान आदि के घातक होने द्वारा सर्वज्ञता का विरोधी है। आहार का कारण क्षुदवेदनीय के उदय आदि का भी सर्वक्षता आदि के साथ कोई विरोध नहीं है। मोह आदि में आधार की कारण है। अत एव केवली में मोह आदि न होने से आहार न होने की बात नहीं की जा सकती। चिरकाल तक औदारिक शरीर की स्थिति जो कि आहार का कार्य है उस का भी सकता आदि के साथ विरोध नहीं है। प्रमाद आहार का कार्य नहीं है किन्तु योग का दुरुपयोग ही उस का कारण है और यह रागद्वेषमूलक है। इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि केवली के आहार मानने पर उस में प्रमाद होगा और उस से उस की सर्वशक्षा आदि का घ्याघात होगा। यतः सर्वक्षता आदि के साथ आहार का कोई विरोध नहीं है। इसीलिए प्रभाचन्द्र का १. औदारिकरवेन तथा-परमौदारिकमपि केवलिनः । कवलाहारापेक्षं स्थितिं च धृद्धि च प्रकरोति ॥ १ ॥ - Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | २१७ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] दयादेरतथावात्, मोहादेश्च तत्कारणत्वनिरासात्; तत्कार्यस्यापि चिरकालमान्यौदारिकशरीर स्थितेरतथात्वात् ! प्रमाद कार्यग योगदुमपान तन्निमित्तत्वात् तस्य च राग-द्वेषकृतत्वात् । एतेन ' आहारकथयैव चेद् यतीनां प्रमत्तत्वम् तर्हि कथ नाहार कुर्वतां भगवत तदापद्यते ?' इति प्रभाचन्द्रोक्तं निरस्तम्, देशकथा वदाहारकश्या रागादिपरिणामकृतया दोषोपपचावपि देशवदाहारस्योदासीनस्यानपराधात्, अन्यथाऽऽहारकथयेवाहारेणापि सुसंयतानामतीचारप्रसङ्गात् । 7 निद्रापि न तत्कार्यम् दर्शनावरणप्रकृतिजन्यत्वात् तस्याः । न च ध्यान तपोव्याघातौ तत्कार्ये, शैलेशीकरणप्रारम्भात् प्राध्यानानभ्युपगमात् अभ्युपगमे वा तद्व्यामस्य शाश्वतत्वात् अन्यथा गच्छतोऽप्येतद्विनप्रसङ्गात् विशिष्टतपसोऽपि कायक्लेशकरस्य भगवत्यसिद्धेः, "अणुतरे तथे " इति सूत्रस्य शैलेश्यवस्थामा विध्यानरूपस्याभ्यन्तरतपसः पारम्यावेदकत्वात् । नापि रासनमतिज्ञानं तत्कार्यम्, तस्य क्षयोपशमावस्थाविशिष्टकर्म पुद्गलनिमितकत्वात्; अन्यथा सुरविकीर्णजानुदन , यह कहना भी निरस्त हो जाता है कि 'यदि आहार की चर्चा से ही यतियों में प्रमाद होना सम्भव है तो आहार करने वाले भगवान केवली को प्रसाद क्यों नहीं होता ? प्रभाचन्द्र के इस कथन से यह प्रतीत होता है कि ' प्रमाद आहार का कार्य है अत एव भगवान को आहारी मानने पर उन में प्रमाद की आपत्ति अनिवार्य है किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि राग आदि के परिणाम से जो आहार की चर्चा होती है उस से देश चर्चा के समान प्रमाद दोष सम्भव होने पर भी रागादि के परिणाम से मुक्त उदासीन आहार से उदासीन देश के समान ही प्रमाद के उदयरूप अपराध का अस्तित्व नहीं माना जा सकता। यदि केवल आहार कथा से ही यतियों में अतिचार माना जाएगा तो सुसंयत यतिभों में भी आहार में अतिचार की आपति होगी ही । [ निद्रादि दोपापादन का निरसन ] निद्रा भी आहार का कार्य नहीं है किन्तु वह दर्शनावरण प्रकृति का कार्य है । अत एव आहार से निद्रा की सम्भावना कर केवली में सर्वशता आदि के व्याघात का आपादान नहीं किया जा सकता । ध्यान और तप का व्याघात भी आहार का कार्य नहीं है जिस से यह कहा जा सके कि 'भगवान में आहार मानने पर उन के ध्यान और तप का ध्याधात होगा; ' क्योंकि शैलेशी अवस्था के प्रारम्भ होने के पूर्व में भगवान में ध्यान का अभाव हो जाता है और यदि उस अवस्था में भी ध्यान माना जाएगा तो वह शाश्वत होने से उस ध्यान के व्याघात की शंका ही नहीं की जा सकती । अन्यथा अनाहारवादी के मत में भी भगवान गतिशील होने की दशा में ध्यानभंग की आपत्ति होगी। शारीरिक क्लेश का जनक विशिष्ट कोटि का तप भी केवली भगवान् में नहीं माना जाता, अत एव आहार से उन के तप में भी व्याघात की शंका करना उचित नहीं हैं। 'अणुत्तरे तवे अनुत्तरं तप:' इस सूत्र में शैलेशी अवस्था में होने वाले ध्यानरूप आभ्यन्तर तप कर उत्कर्ष बताया गया है, अतः उस के द्वारा भगवान में कायक्लेशजनक तप होने की कल्पना नहीं की जा सकती । १. अनुत्तरं तपः | Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] [ शास्त्रवाक स्त. १०/६४ बहलकुसुमपरिमलादपि घ्राणेन्द्रियोद्भवमतिज्ञानप्रसङ्गात् । नापी-पथिकी क्रिया, गमनादिनापि तत्प्रसजात् । नापि परोपकारहानिः, तृतीययाममुहूर्तमात्र एव भगवतां भुक्तेः शेषमशेषकालमुपकारावसरात् । नापि व्याधिसमुत्पत्तिः, परिज्ञाय हितमिताहाराभ्यवहारात् । नापि पुरीधादिजुगुप्सा, स्वस्य निर्दग्धमोहबीजतयैव तदनुत्पत्तेः, अन्येषां तु तद्भावे मनुजा-ऽमरेन्द्ररमणीसहस्रसंकुलायां समायामनंशुके भगवत्यासीनेऽपि तत्प्रसङ्गात् ; सातिशयत्वपरिहारस्य चोभयत्र तुल्यत्वात् । सामान्यकेवलिभिस्तु विविक्तदेशे तस्करणे दोषाभावात् । कथं चैतदाहारेऽपि निहाराभावमप्युपगच्छताऽऽगमचा नापादयितुं शक्यम् ! "'तिस्थयरा तप्पियरो" इत्यादिवचनात् । न च तद्यापकेनापि सातवेदनीयोदीरणादिना विरोधः, तस्य प्रमादकृतत्वात् चाह्ययोगव्यापारमान्नेण तत्प्रसझे, उपदेशादिनापि तत्प्रसङ्गादिति न किमप्यनुपपन्नम् । [मतिज्ञानादि के आपादन का निस्सन ] रसनेन्द्रियजन्य मतिज्ञान भी आहार का कार्य नहीं है फिन्तु क्षयोपशम भाच विशिष्ट कर्मपुद्गल का कार्य है। यदि तत्तदिलिय से होने वाले मतिज्ञान को क्षयोपशम भाव वाले कर्मपुद्गल से जन्य न मानकर केवल विषयेन्द्रिय सम्पर्कजन्य ही माना जाएगा तो देवता द्वारा पैर से जानु तक बिखेरे हुये प्रचुर पुष्पगन्ध से भी धाणेन्द्रियजन्य मतिज्ञान की आपत्ति होगी। पर्यापथिकीक्रिया भी आहार का कार्य नहीं है, जिस से उस का केवली में आपादन किया जा सके, क्योंकि आहार से उस की उत्पत्ति मानने पर अनाहारवादी के मत में गमनादि से भी उस की आपत्ति होगी। परोपकार की हानि भी आहार का कार्य नहीं है, क्योंकि भगवान का आहार केवल नृतीयमहर के मुहूर्तमात्र में ही होता है। अतः उस से अतिरिक्त पूरे समय में उपकार का अवसर रहता है। रोगोत्पत्ति भी आहार से सम्भव नहीं है क्योंकि भगवान ज्ञानपूर्वक हित और परिमित पथ्य आहार ही ग्रहण करते हैं। [आहार क्रिया से जुगुप्सादि दोषों का निरसन] __ भगवान को आहारी मानने पर आहारजन्य पुरीष आदि में घृणा की भी सम्भावना नहीं की जा सकती क्योंकि भगवान को उक्त घृणा उन के मोहवीज दग्ध हो जाने के कारण नहीं प्रसक्त होगी। अन्य जनों को यदि घृणा होने की आपत्ति की जाएगी तो अनाहारवाद में भी भगवान निर्वस्त्र होने से रब मनुष्यों और देवताओं की सहखों रमणियों से भरी सभा में बैठेंगे तो उन की नग्नता के कारण उन के प्रति उन सहस्रों नारियों के मन में भी पृणा की आपत्ति होगी। और यदि भगवान् के सातिशय होने के कारण उक्त आपत्ति का परिहार किया जाएगा तो यह परिहार मनाहारवाद और आहारवाद दोनों में समान रूप से सम्भव होगा। फलतः भगवान के सातिशय होने के कारण आहार जनित पुरीष आदि के आधार पर उन के प्रति किसी के मन में घृणा की आपत्ति नहीं होगी। हाँ, जो सामान्य केवली हैंअतिशय सम्पन्न नहीं है उन के मस्यन्ध में उक्त प्रकार की आपत्ति का उदभाषन सम्भव है किन्तु यह दाप उन के सम्बन्ध में भी नहीं होगा क्योंकि वे किसी निर्जन दूर देश में पुरीष आदि का त्याग करते हैं। १. तीर्थक तस्तत्वतरः । [हलधर-चकी य वासुदेवा य । मणुआण्य भोगभूमी आहारो, गस्थि णीहारे ।। ] Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. दीका-हिन्दीनियेचन ] [ २१९ यदपि 'श्रूयते च प्रकृताहारमन्तरेणापि '....[१९८-६] इत्याद्युक्तम् , तदप्यपालोचिताभिधानम्, प्रथमतीर्थकरप्रभृतीनां निराहारकालमानोक्तिप्रामाण्ये तदियत्तानियमस्यापि तत एव सिद्धेः, तदधिकनिराहारतच्छरीरस्थितेः सूत्रे निषेधात् निरशनकालस्य तावत एवोत्कृष्टताप्रतिपादनात् “'संवच्छरमुममजिणो" [ उ. माला-३ ] इत्यादिवचनमामाण्यात् । इत्थं च 'निनिमित्तं सूत्रभेदकरणम् ' [१९८-८] इति परास्तम्, तच्छरीरस्य चिरतरकालस्थितेरेव सूत्रभेदकरणनिमित्तत्वात् , प्रकृताहारमन्तरेण तरिस्थतेरसंभवस्य प्रतिपादनात्, सामान्यसूत्रस्याप्यन्यथानुपपत्त्या यथासंभवन्यायेन विशेषयोधकत्वात् । भूयोसि च प्रकृताहारप्रतिपादकानि केवलिनः सूत्राप्यागम उपलभ्यन्ते, प्रतिनियतकालप्रकृताहारनिषेधकानि च; यथा वर्धमानस्य भगवतो व्याख्याप्रज्ञप्त्यादौ बिकटभोजित्वाद्यभिधायकानि, यथा च प्रथमतीर्थकृत एवं चतुर्दशभकनिधनाष्टायन दशसह के पासवृत्तस्य निर्वाणगतिपतिपादनादिसूत्राणीति न सूत्रभेदक्लप्तिदोपोऽपि । । दूसरी बात यह है कि जो आगमबाह्यव्यक्ति यानी दिगम्बर वर्ग तिथयगतपियरो० अनुसार इत्यादि गाथ के तीर्थकर, उन के माता-पिता, बलदेव, चक्रवर्ती, वासुदेव और युगलिक मनुप्यों को सीर्फ आहार ही मानते हैं और नीहार का निषेध करते हैं-वे केवलिभुक्ति में नीहार का आपादन कैसे कर सकते हैं?; यदि कहै कि- आहार से सातवेदनीयको उदीरणा होती है। अत: वह आहार का व्यापक है। उस व्यापक से सर्वज्ञता आदि का विरोध होगा । -तो यह ठीक नहीं क्योंकि उक्त उदीरणा प्रमाद का कार्य है, केवल आहार का कार्य नहीं है । यदि बाययोग का व्यापार मात्र होने के कारण आहार से उत्त. आपत्ति होगी तो उपदेश आदि से भी उस की आपत्ति हो सकती है क्योंकि यह भी वाद्ययोग का ही पक घ्यापार है। उक्त समस्त विचारों से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि भगवान को आहारी मानने में कोई आपत्ति या अनुपपत्ति नहीं है । [निराहार कालस्थिति सूचक सूत्र से ही आहार सिद्धि ] यह सब जो कहा गया था कि [पृ. १९८ में] प्रकृत आहार के विना भी भगवान के औदारिक शरीर की स्थिति चिरकाल तक रह सकती है। यह प्रथम तीर्थकर आदि के विषय में सुना जाता है।' यह कथन भी अधिवेकपूर्ण है क्योंकि प्रथम तीर्थकर आदि के निराहार कालमान सूचक जो प्रमाण कहा गया है उस कालमान बोधक प्रमाण से ही उस की इयत्ता का नियम भी सिद्ध हो जाता है। मतः उस नियतकाल (१० दिन ) से अधिक काल तक निराहार होने और आहार के विना शरीर की स्थिति होने का भी निषेध उक्त सत्र से ही अवगत हो जाएगा, क्योंकि भोजनाभाव के उतने ही काल की उत्कृष्टता का सूत्र में प्रतिपादन मान्य है। यतः उपदेशमाला का यह वचन है कि" संवच्छरमसभजिणो-संवत्सरं वृषभजिनः" इस से सिद्ध है कि एक वर्ष तक ही ऋषभदेव का निराहार कालमान है इसलिए यह कहना कि-'प्रत विषय से सम्बद्ध सूत्र द्वारा निराहार और निराहार काल की इयत्ता दोनों का प्रतिपादन मानने में एक ही सूत्र में मर्धभेद से सुप्रभेद की भी आपत्ति होगी। जिस का कि कोई उचित निमित्त नहीं है ' यह भी परास्त हो जाता है क्योंकि केवली के शरीर की चिरकाल तक स्थिति का प्रतिपादन १."छम्मासा बदमाणजिणचंदो | इस विहरिआ निरसणा, जइन एओत्रमाणेणं ।।" इति शेषः । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] [ शास्त्रवा० स्त० १०/६४ यदपि न चातिशयदर्शनात् [१९८-९] इत्याद्युक्तम् । तदपि न, निराहारौदारिकशरीरचिरतरस्थितेरदृष्टायाः कल्पने सयोगात्यन्तावस्थानस्याप्यतिशयेन प्रसङ्गापादने दोषाभावात् , बाधकानुमानादेश्वोभयत्र सत्त्वात् । एतेन यदुच्यते 'सुनिश्चितासम्भवदाधकप्रमाणत्वादकवलमोजिन्यं भगवतः सिध्यति ' इति: तदपि प्रत्युक्तम् , एतस्य प्रामाण्येऽतन्त्रत्वाच. बाधकप्रमाणाभावस्यान्यतः प्रमाणाद् निश्चये तत्राप्येतन्निश्चयाच प्रमाणान्तरापेक्षायाभनयस्था सनात् । बाधानुपलम्भात् तन्निश्चयस्य चाशक्यत्वात् , उत्पत्स्यमानयाध केऽपि प्रागवाधानुपलब्धिसम्भवात् । न चानिश्चितलक्षणं प्रमाणं प्रमेयन्यबस्थानिवन्धनम् , ज्ञातकरणानां प्रामाण्यनिश्चयापेक्षत्वात् , अप्रामाण्यज्ञानास्क्रन्दितधूमादिपरामर्शाद वहन्यनुभित्य करना हो सक में भेदक का निमिस है। उक्त मूत्र में ही प्रकृतआहार के अभाव में शरीर की स्थिति को असम्भव बताया गया है। सामान्य सूप भी अन्यथा उत्पन्न न होने की दशा में यथासम्भय न्याय से विशेष आम बोधः साना साना 'गह में गली के प्रकृत आहार का प्रतिपादन करने वाले बहुत से सूत्र आगम में उपलब्ध होते हैं। साथ ही एक नियत काल सफ प्रकृत आधार के निपंधक सूत्र भी उपलब्ध होते हैं। असे- व्याख्याप्रशस्ति' आदि सूत्रों में भगवान बर्षमान को चिकामोजी बताने वाले सूच पक्ष अष्टापद पर्वत के उपर दश हजार केवली पुरुणे के मध्य में प्रथम तीर्थकर के चौदह टंक भोजन के निषेध के साथ निर्वाणगति का प्रतिपादन करने वाले नुन | तो इसप्रकार जय भगवान के आधार और एक नियत समय तक निशहार का प्रतिपादन करने वाले भिन्न-भिन्न पत्र उपर हैं -तो पक ही सत्र से उक्त दोनों बातों का प्रतिपादन करने के लिए एक है। सूत्र में अंद की कल्पना का दोष भी नहीं है। [सयोगिकेवली की चिरतर अमर्यादित स्थिति की दिगम्बरपक्ष में आपत्ति ] जो यह सब कहा गया कि पृ.१९८ में] भगवान में अतिशय के दर्शन से जसे समग्र दोषावरणों की हानि होने से आत्मा के अत्यन्त शुद्ध स्वभाव की प्रतिपत्ति होती है; उमीप्रकार प्रकृत आहार के अभाव में भी उन के औदारिक शरीर की भात्यन्तिक स्थिति भी सिद्ध हो सकती है और ऐमा मानने पर “ अशरीरा जीयघणा" इत्यादि आगम के विरोध की आशंका नहीं की जा सकती' -ठीक नहीं है क्योंकि विना प्रकृत आहार के औदारिक शरीर की चिरस्थिति नहीं देखी गयी है। फिर भी यदि उस की कल्पना की जापगी तो सयोगि केवली व्यक्ति के भी अतिशय के आधार पर अत्यन्त अयस्थान की आपत्ति के उदभाचन में कोई दोष नहीं होगा। यदि इस आपत्ति के विरुद्ध कोई अनुमान इसप्रकार का प्रस्तुम हो कि विधादाम्पद सयोगी केवली व्यक्ति का अवस्थान आत्यन्तिक नहीं होता; जैसे अतिशयहीन सयोगी केवली का अघस्थान - तो इसप्रकार का अनुमान निराहार शरीर आत्यन्तिक अवस्थिति के विरोध में भी प्रस्तुत किया जा सकता है। जैसे-निराहार शरीर की अवस्थिति आत्यन्तिक नहीं होती क्योंकि किसी भी औदारिक शरीर की आत्यन्तिक स्थिति उपलब्ध नहीं है। फलतः अतिशय के आधार पर आहार के बिना केवली के औदारिक शरीर की मात्यन्तिक स्थिति का समर्थन नहीं किया जा सकता। यह जो कहा गया कि-आहार के समर्थन में कोई सुनिश्चित बाय प्रमाण न होने में भगवान की निराहारता सिद्ध होती है । यह भी उक कारण से ठीक नहीं हैं और बाधकप्रमाण का अभाष भगवान की निराहारता के साधन को प्रमाणभुत बनाने में अशक भी है क्यों क बाधक प्रमाणाभाय का किसी अन्य प्रमाण से निश्चय मानने पर उस अन्य Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. फ. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ २२१ नुत्पत्तिदर्शनात् । संवादादसंभवद्याधकप्रमाणत्वनिश्चये च संवादित्वमेव तन्त्रमस्तु । तच्च संवादिस्वमतीन्द्रियार्थविषयस्यागमस्याप्तपणीतत्वाद् निधीयते, तत्पणीतत्वनिश्चयश्चागमैकवाक्यतया व्यवस्थितस्य केवलिभुक्तिप्रतिपादकसूत्रसमूहस्य सिद्ध एव । इति निर्बाधागमादपि केवलिभुक्तिसिद्धिरिति सर्वमवदातम् । तेन सिद्धर्मतत्--कवलाहारित्वेऽपि घातिकर्माकलहितेन भगवताऽभिव्यक्तादस्माकमागमाद् धर्माऽधर्मव्यवस्थेति । दिगम्बर ! परस्परं मतविरोध मत्सरं निरस्य हृदि भाव्यतां यदिदमुच्यते तत्वतः । स्थिता परिणतिर्यथाक्रममघातिना कमणां न कि कबलभोजिनं गमयति त्रिलोकीगुरुम् ? ॥१॥ यस्यासन् गुस्त्रोऽत्र जीतविजयाः प्राज्ञाः प्रकृष्टाशया माज-ते सनया नयादिविजयपाज्ञाश्च विद्याप्रदाः । प्रेग्णां यस्य च सद्म पद्मविजयो जातः सुधीः सोदरः तेन न्यायविशारदेन रचितस्तकोऽयमभ्यस्थताम् ॥ २ ॥ इति श्रीपण्डितश्रीयमविजयसोदरन्यायविशारदपण्डितयशोविजयविरचितायों स्याद्वादकल्पलताभिधानायां शास्त्रवार्तासमुच्चयटीकाय दशमः स्तबकः । प्रमाण में भी प्रामाण्य के निश्चय के लिए अन्य प्रमाण की अपेक्षा होने पर अनवस्था की प्रमति होगी। यदि याध के अनुपलम्भ से बाधाभाव का निश्चय किया जाएगा तो यह भी शक्य नहीं हो सकेगा क्योंकि जिस का बाध भविष्य में उत्पन्न होने वाला है, उस की उत्पत्ति के पूर्व उसके भी बाध की अनुपलब्धि है किन्तु पतायता उस का थाधाभाव नहीं मिख होता । क प्रमाण का पारा निश्चित न हो जाय तव तक उस से प्रमेय की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि जो ज्ञात होकर करण होते है, उन में करणता की उपपत्ति प्रामाण्य निश्चय होने पर ही होती है। धृभ आदि के अप्रामाण्यज्ञान से आस्कन्दित परामर्श से अग्नि के अनु. मिति की उपपत्ति नहीं की जा सकती । और बाधकप्रमाण की अमम्भाध्यता का निश्चय जय संयादी प्रमाणान्तर के समर्थन से किया जायगा तब बाधकप्रमाण के अभात्र को प्रामाण्य का प्रयोजक न कह कर सम्वादी होने को ही प्रामाण्य का प्रयोजक कहना उचित होगा और ब्रह संत्रादित्व अतीन्द्रिय अर्थ के प्रतिपादक आगम में आप्तप्रणीत होने के आधार पर निश्चित हो सकता है और आप्तप्रणीतत्व का निश्चय आगम के साथ एकवाक्यतापन्न-उस सूत्रसमूह में भी होगा जो कैवली के भोजन का प्रतिपादक है। इसप्रकार निर्वाध आगम से भी केवली के भोजन की सिद्धि निर्विवाद है। अत: यह पूर्ण रूप से सिद्ध है कि भगवान के कालाहारी होने पर भी उन में घातीकर्मों का कोई कलङ्क नहीं होता है, अत एव उन में सर्वशता का आविर्भाव होने से अतीन्द्रिय अर्थ के प्रतिपादक आगम को प्रकट करते हैं और उसी से धर्म-अधर्म की व्यवस्था होती है। [सर्वज्ञ-कवलाहार चर्चा का उपसंहार] उक्त समग्र विचार का उपसंहार करते हुए अन्य कारने दिगम्बरों को यह शुभ परामर्श दिया है कि वे पारस्परिक मतभेद से उत्पन्न इया भाय का त्याग कर अपने हृदय पर हाथ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] [शासवार्ता० स्त० १०/६४ रख कर इस तात्विक उक्ति पर विचार करें कि क्या अघातीकर्मों की क्रमिक परिणति द्वारा भाहारमाही त्रिलोकीगुरु की उपपसि नहीं होती?।-निश्चय ही रिहित होकर उक्त विद्यार करने पर दिगम्बर इस निष्कर्ष को स्वीकार करने के लिए बाध्य होंगे कि त्रिलोकीगुरु केवली भगवान का आहारी होना युक्ति और आगम उभय से सम्मत है । उपसंहार के अन्तिम पच में ग्रन्थकार ने केवली भगवान के आहार के सम्बन्ध में प्रस्तुत विचारों के सन्दर्भ में निर्णय प्राप्त करने के इच्छुक जनों से अनुरोध किया है कि वे इस सम्बन्ध में उन के द्वारा प्रस्तुत तकौं को हृदयङ्गम करने का अभ्यास करें। ये तर्क कई कारणों से ग्राह्य है, जसे-इन तर्कों को प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति स्वयं न्यायविशारद है, उन के परम गुरु जीतविजय, अत्यन्तप्राज्ञ और उदाराशय रहे। उन के गुरु पर्व विद्या दाता भयविनय भी बडे बुद्धिमान और नयनिपुण थे तथा उन के सहोदर नाता परमप्रेमास्पद पनबिजय भी बहे गुद्धिमान पुरुष थे। फिर जिस व्यक्ति ने स्वयं ग्याय शास्त्र में उच्च कोटि का पाण्डित्य प्राप्त किया है और जिस के मन्त्रदाता और विद्यादाता, गुरु और भाई आदि उत्कृष्ट विद्वान रहे हों जिस का जीवन विद्या के ऐसे वातावरण में पनपा हो उन के तर्क का अकाटच और उत्कृष्ट होना स्वाभाविक है। १३ दशम स्तबक सम्पूर्ण र Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः हिन्दी विवेचन विभूषितस्याद्वाद कल्पलताच्या ख्यालंकृत शास्त्रवार्त्तासमुच्चय [ स्तबक - ११ ] [कारणम् ] अपापायामायानुसृतमतिरभ्येत्य सदने, क्षमाया निर्मायापहृतमदमायान् गणभृतः । सभायामायातान् य इह जनताया मुदमदादपायात् पायाद् वो जिनवृषभवीरः स सततम् ॥१॥ प्रत्यूहापोहमन्त्रः सकलजन वशीकारकृत् सिद्धविद्यो दुर्नीतिव्याधिदिव्यौषधमधमजनम्यालपारीन्द्रनादः । अज्ञानध्वान्तवारा रविकिरणभरो यस्य नामार्थसिद्धि दत्ते विश्वस्य शश्वत् स भुवि विजयतामाश्वसेनिर्जिनेन्द्रः ।। २ ।। [ व्याख्याकारकृत मंगलाचरण ] जिनों में वृषभ (श्रेष्ठ) ऐसे वे वीर प्रभु जो क्षमा के मन्दिर हैं, जिन्होंने लाभबुद्धि के ऐसे निर्मल ज्ञान से ) अपापानगरी में सा कर ग्यारह ब्राह्मण पण्डितों) को गर्व और माया से आपत्ति से निरन्तर हमारा रक्षण करते रहो, अनुसार ( अर्थात् 'वहाँ जाने से लाभ हैं' सभा में आये हुए गणधरों (इन्द्रभूति वगैरह मुक्त बना कर लोगों को हर्ष उपजाया था ।२१।। इस श्लोक में यह घटना सूचित है कि ऋजुवालिका नदी तट पर जब श्रीर भगवान को केवल्यज्ञान की प्राप्ति हुयी उस वक्त अपापानगरी में गौतम गोत्र वाले इन्द्रभूति वगैरह ग्यारह ब्राह्मण पण्डित यश कर रहे थे। वे सब स्वयं सर्वश होने का गर्व करते थे और अपना अज्ञान कहीं खुल्ला न हो जाय इसलिये माया भी करते थे। सर्वश बने हुए भगवान ने देखा कि वहाँ जाने से इन लोगों को प्रतिबोध प्राप्त होगा तो उपकार बुद्धि से वे रातभर बिहार ( पदयात्रा) कर के अपापानगरी में आये, वहाँ उन पण्डितों के हृदयगत संशय की खोल कर उस का ऐसा समाधान दिया जिस से उन पण्डितों के सर्वश होने का गर्व खुर हो गया और अत्र सर्वत्र होने का कपटप्रचार त्याग कर भगवान महावीर के शिष्य बन गये । समग्र जनता में उस से आनन्द फैल गया | दूसरे श्लोक में पार्श्वनाथ भगवान की स्तुति की गयी है वे अश्वसेननृपपुत्र ( पार्श्वनाथ ) जिनेन्द्र पृथ्वी में जय पा रहे हैं, जो अज्ञान तिमिर की धारा के लिये सूर्य के रश्मिवृन्द जैसे हैं, जिन को (सर्व) विधाएँ सिद्ध है और जिन का नाम विघ्नविनाशी मन्त्र ही है, सकल लोगों Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] [ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ११/९ येषां गिरं समुपजीव्य सुसिद्धविद्यामस्मिन् सुखेन गहनेऽपि पथि प्रवृत्तः ते सूरयो मयि भवन्तु कृतप्रसादाः श्रीसिद्धसेन - हरिभद्रमुखाः सुखाय ॥ ३ ॥ L ननु सर्वज्ञोपज्ञादागमाद् धर्माऽधर्भावस्था इत्युक्तम् तच्च कथं युक्तम्, शब्दस्याऽकल्पितार्थाविषयत्वात् शब्दार्थयोर्वास्तयसम्बन्धाभावाच्च १ - इति मनसिकृत्य वार्त्तान्तरमुत्थापयतिअन्ये स्वमित्येवं युक्तिमार्गकृतश्रमाः । शब्दार्थयोर्न सम्बन्धो वस्तुस्थित्यैह विद्यते ॥ १ ॥ 1 अन्ये तु बौद्धाः अभिदधति एवं वक्ष्यमाणमकारम् किम्भूता इत्याह-युक्तिमार्गकृतश्रमाः = अनुभवाद्युत्सृज्य जातियुक्तिमात्रनिष्ठा इत्युपहासः एवमर्थमाह - शब्दार्थयोः लोके प्रसिद्धयोर्नामनामवतो: न सम्बन्धः कश्चिद्वस्तुस्थित्या=परमार्थेन इह = जगति विद्यते सम्बन्धान्तरनिषेधात् तादात्म्यतदुत्पत्योरयोगाच्च ॥ १ ॥ को वश करता है, दुनेयरूप व्याधि के लिये देवताई औषध समान है तथा अधम पुरुवरूप हिंसक पशुओं के लिये अजगर के नाद (कार) तुल्य है, तथा ( जिस का नाम ) सदा के लिये विश्व को इष्टार्थसिद्धि दे रहा है ।। २ ।। भली भाँति विद्या प्राप्त कराने वाली जिन की वाणी का प्रश्रय ले कर इस ( शास्त्र के } गहन मार्ग में भी सरलता से प्रवृत्ति कर सका हूँ वे श्री सिद्धसेनरि (=सम्मति तर्क के कर्त्ता) तथा श्री हरिभद्रसूरि प्रमुख आचार्य मेरे ऊपर प्रसन्न होफर सुख के लिये होवे ॥ ३ ॥ [ शब्द को अर्थ के साथ कुछ सम्बन्ध नहीं - बौद्धवार्ता] प्रश्न:- सर्वज्ञ प्रणीत आगम से धर्म-अधमं की व्यवस्था होने का जो कहा वह से युक्त कहा जाय ? तात्पर्य यह है कि आगम तो शब्द रूप होते हैं और अकल्पित वास्तविक ) अर्थ कभी शब्द गोचर ही नहीं होता, क्योंकि शब्द का अर्थ के साथ कोई वास्तविक सम्बन्ध ही नहीं होता है. तो शब्दात्मक आगम से व्यवस्था कैसे होगी ? इस प्रकार के प्रश्न को ध्यान में रख कर अत्र मूल ग्रन्थकार एक अन्य वार्त्ता ( शब्दार्थ के सम्बन्ध की वार्त्ता) का उत्थान करते हैं • युक्ति मार्ग में परिश्रम करने वाले दूसरे वादी ऐसा कहते हैं कि वस्तुस्थिति से शहर और अर्थ का कोई सम्बन्ध ही विद्यमान नहीं है। यहाँ ये दूसरे वादी बौद्ध मत के अनुयायी हैं। उन का जो कहना है वह तो आगे दिखायेंगे ही; किन्तु उपहासवान जरूर हैं क्योंकि अनुभवादि को एक ओर छोड कर असदुत्तर प्रधान युक्तिवृन्द के ऊपर ही निर्भर रहते हैं, इसीलिये उन के लिये युक्ति मार्ग में परिवम करने वाले पेसा उपहासगर्भित विशेषण प्रयुक्त किया है। मूल कारिका के पूधि में जो 'पयं' पर है उसी का उत्तरार्ध से अर्थ विवेचन किया है कि शब्द और अर्थ का यानी लोक में प्रसिद्ध नाम और नामी का इस जगत् में परमार्थ से कोई सम्बन्ध ही विद्यमान नहीं है। कारण, तादात्म्य और तदुत्पति इन दोनों के सिषा और तो कोई सम्बन्ध ही बन सकता नहीं हैं और तादात्म्य तदुत्पत्ति ये दो सम्बन्ध शब्दार्थ में घटता नहीं है । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेवम ] [ २२५ तत्र तादात्म्यं निरस्यन्ताह न तादात्म्यं द्वयाभावप्रसङ्गाद् बुद्धिभेदतः । शस्त्रायुक्तौ मुखच्छेदादिसङ्गात् समय स्थितेः ।। २ ॥ न तादात्म्यं 'शब्दार्थयोः' इत्यनुकृप्य योज्यते । कुतः इत्याह-द्वयाभावप्रसङ्गात् शब्दार्थयोरेकत्वेन भेदनिबन्धनद्वित्वाभावात् स्वस्वरूपवत् । तथा, बुद्धिभेदतः घटादिशब्द-पटाद्यर्थयोः श्रावण-चाक्षुषादिबुद्धिभेदाद मेदसिद्धौं अभेदाऽसिद्धेः, घर--पवनादिवत् । तथा, शस्त्रायुक्तौ= करवालानलाद्यमिधाने मुखच्छेदादिसंगात् वदनच्छेदनाहादिप्रसंगात् करवालाऽनलादिनिवेशवत् । तथा, समयस्थितेः=संकेतव्यवस्थानात् । न ह्यगृहीतसमयः शब्दोऽर्थं प्रत्याययति, घटपदशक्ति. परिज्ञानविकलानां पामराणां विपरीतव्युत्पन्नानां च घटपदश्रवणमात्राद् घटार्थप्रत्ययप्रसंगात् ; किन्तु यः शब्दो यत्र गृहीतसंकेतः स तमेवार्थ प्रत्याययतीति । न चेदमर्थतादात्म्ये युज्यते । न ह्यर्थ एवं समयव्यवस्थानं दृष्टमिष्टं वा ॥ २ ॥ शब्द और जयं में वादात्म्य का निरसन ] दूसरी कारिका में शब्द और अर्थ में तादात्म्यसम्बन्ध की सम्भावना का निराकरण किया गया है-कारिका का अर्थ इस प्रकार है पर्थ कारिकागत शब्दाशयोस अंश को विंच कर यहाँ न तादात्म्य, के साथ उस का अन्वय करने पर ऐसा अर्थ फलित होगा कि शब्द और अर्थ इन दोनों का तादात्म्य सम्भव नहीं है। इस में क्रमशः चार हेतु हैं (१) द्वयाभाव प्रसंग । शब्द और अर्थ को यदि एक मान लेंगे तो, जसे वस्तु का अपने स्वरूप के साथ पेक्य होने पर वस्तु और उस के स्वरूप में भेदमूलक द्वित्व नहीं होता उनी प्रकार यहाँ भी शब्द और अर्थ में द्वित्व का विलोप हो जायेगा। (२) दूसरा हेतु है बुद्धिभेद । घटादिशब्द की बुद्धि श्रावण प्रत्यक्षरूप होती है जब कि घटादि अर्थ की बुद्धि चाक्षुषप्रत्यक्षरूप होती है। इस प्रकार त्रुदिभेद से उन दोनों का भेद प्रसिद्ध होने से अभेद की सिद्धि अशक्य है। उदा० घट और पवन में बुद्धिभेद से भेद सिद्ध है तो यहाँ अभेद कभी नहीं रहता। (३) तीसरा हेतु यह है कि शस्त्रादि शब्दोच्चार करने पर मुख-द आदि हो जाने की आपत्ति । यदि शब्द और अर्थ में पेक्य होगा तो खड़ग और अग्नि आदि शब्दों का उच्चारण करते समय ही मुख का विभेद और दाह आदि हो जायगा। जैसे कि सच्चे ही मुग्व में खड्ग या अग्नि का सहसा प्रवेश कर दिया जाय तो मुख का भेदन और दाह हो जाता है। (४) चौथा हेतु है, संकेत श्यवस्था। तात्पर्य यह है कि जिस शब्द का संकेत जिस को अज्ञात हो उस को उस शब्द सुन कर भी अर्थबोध नहीं होता। यदि संकेनशान के बिना ही अर्थबोध मानेंगे तो जिन गमार लोगों को 'वट पद का शक्तिग्रह नहीं हुभा है अथवा जिन को 'घट पद अश्व अर्थ का बोधक है। ऐसा विपरीत बोध हो गया है-से लोगों को भी 'घर' पद के श्रवण मात्र से घटरूप अर्थ का बोध हो जाने की आपत्ति होगी। अतः यह Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] [ शास्त्रावार्ता स्त० ११/३ तदुत्पत्ति निराकुरुतेअर्थाऽसनिधिभावेन तदृष्टावन्यथोक्तितः । अन्याभावनियोगाच न तदुत्पत्तिरप्यलम् ॥३॥ अर्थाऽसनिधिभावेन-घाद्यसंनिधावपि घटादिशब्दोत्पत्त्या व्यतिरेकव्यभिचारात् , तदृष्टीदेवदत्ताद्यर्थदृष्टौ अन्यथोक्तित: गोत्रस्खलनादिदशायो यज्ञदत्तादिशब्देनोक्तितो देवदत्तादिशब्दानुस्पत्याऽन्वयन्यभिचारात् ; तथा अन्यस्मिन् घटादौ पटादिशब्दस्य अभावे चात्यन्ता ऽसति वाध्येयादी बान्ध्येयादिशब्दस्य नियोगात सकेतकरणात्, यद् यतो नोत्पत्तिस्वभावं तस्य तत्र नियोगवयात् न तदुत्पत्तिरपि अर्थात् शब्दोत्पत्तिरपि अलं.--शोभते ।। ३ ।। ___ शब्दानां वास्तवार्थत्वे दोषान्तरमाह तो मानना होगा कि जिस अर्थ में जिस शब्द का मकेत इात हो, वह शब्द उसी अर्थ का बोध ! | सकता है। हिनु पार न झाद मी अर्थ से अभिन्न मानने पर नहीं घटेगा। शब्द और अर्थ में यदि अभेद होता तो जसे शब्द में अर्थ का संकेत किया जाता है वैसे अर्थ में शब्द का भी सकत शश्य हो जाता, किन्तु न तो ऐसा कहीं देखा गया है, न तो यह इध है कि अर्ध में शब्द का संकेत किया जाता हो ॥२॥ [शब्द का अर्थ के साथ तदुत्पत्तिसम्बन्ध अशक्य ] तीसरी कारिका में शब्द और अर्थ के तदुत्पत्ति सम्बन्ध की सम्भावना का निराकरण किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है (i) अर्थ से यदि शब्द की उत्पत्ति होती हो तन्य धृम से अग्नि के बोध की तरह शब्द से अर्थ का बोध सम्भवित था, किन्तु अथ से शब्द की उत्पत्ति मानने में व्यतिरेक व्यभिचार बाधक है, क्योंकि घटादि अर्थ सनिहित न होने पर भी घटादि शब्द की उत्पत्ति होती है। (२) अन्वय व्यभिचार भी, अर्थ से शब्दोत्पत्ति मानने में बाधक है, यह इस प्रकार :सामने जब देवदत्तादि अर्थ दिखाई दे रहा है तब उस से - देवदत्त' शब्द की उत्पत्ति होनी चाहिये. उस के बदले गोवस्खलनादि दशा में यज्ञदत्तादि शब्द का उच्चार सहसा हो जाता है। एक नाम बोलने जाय तब गलती से दूसरा नाम बोल दिया जाय उस को गोत्रस्खलनदशा कहते है। यहाँ देवदन्त अर्थ से देवदत्त शब्द का उच्चार (उत्पत्ति न होना यही अन व्यभिचार हुआ। (s) तथा, मकेत तो इच्छानुसार किया जाता है जैसे-घटादि अर्थ के लिये कभी घटादि शब्द का मंकेत किया जाता है। उपगन्त. वनध्यापुत्रादि जो अत्यन्त अभावात्मक ( असत) पदार्थ है उन में भी 'पानध्येय' आदि पदों का संकेत किया जाता है। यदि शब्द अर्थ से उत्पन्न होता तब तो असत् से सत् की उत्पत्ति की आपत्ति आ गिरेगी । मत्पर्य जिस का जिस से उत्पन्न होने का स्वभाव नहीं, उस का उस के साथ संबंतात्मक कुछ सम्बन्ध मानना भी घ्यर्थ है। सारांश, अर्थ मे शब्द की उत्पत्ति का पक्ष भी शोभास्पद नहीं है ॥३॥ [शब्दार्थ के बीच वास्तवसंबन्ध मानने में आपत्ति] चौथी कारिका में शब्द को वास्तविक अर्थ का प्रतिपादन मानने में सम्भधित अन्य दोष का उल्लेख किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था, क. टीका-हिन्दीविवेचन ) [ २२७ परमार्थंकतानत्वे शब्दानामनिबन्धना । न स्यात् प्रवृत्तिरथेषु दर्शनान्तरभेदिषु ॥४॥ परमार्थंकतानत्वे-वास्तवैकविषयत्वेऽभ्युपगम्यमाने शब्दानामनिवन्धना प्रवृत्तिनिमित्तविकला, दर्शनान्तरभेदिपु दर्शनान्तरप्रसिद्धाऽसद्मावेषु अर्थेषु धानेश्वरादिपु प्रवृत्तिः शक्तिः न स्यात् । तथा च प्रधानादिपदानामप्रत्यायकत्वं स्याद् , अनिष्टं चैतत् । न च सखण्डप्रधानत्वादिविशिष्टे शक्तिभ्रमादुपपत्तिः, गवादिपदानामिव प्रधानादिपदानामखण्डधर्मविशिष्ट एवं शक्त्यनुभवादिति भावः ।। ४ ।। अतीताऽजातयोर्वापि न च स्यादनृतार्थता । वाचः कस्यचिदित्येषा बौद्धार्थविषया मता ॥५॥ अपि च, 'अतीता-जातयोः-विनष्टा-ऽनुत्पन्नयोवीप्यर्थयोरसत्त्वेन, न स्यात् प्रतः । तथा न चन्नैव भवेत् , अनृतार्थता असत्यार्थता वाचः, कस्यचित् प्रतारकादेः, अन्यथा परमार्थकतानत्वाऽयोगात्' इति अस्मादुक्तदोषात् एषाम्बाक, बौद्धार्थविपया बुद्धियलप्तार्थविषया, मना=इया शब्दार्थविद्भिः सौगतैः । ___ एतेन यदुक्तमुद्द्योतकरेण='अवाचकावे शब्दान प्रतिज्ञाहतुव्याघातः इति, तत् प्रत्युक्तम् । शब्द को यदि पाम्तव अधं का प्रतिपादक माना जायगा तो अन्य दर्शनों में जिन का अस्तित्व मान्य नहीं है से प्रधान ईHT आदि अर्थों में प्रधान-ईश्वर आदि शादों की शक्ति सम्भव न हो सकेगी, क्योंकि शहद की शक उस के प्रवृत्तिनि मिन से नियमित होती है और उक्त अर्थों में उक्त शब्दों का प्रतिनिमित्त नहीं है। फलतः ये शब्द उन अधों के बोधक न हो सकेंगे जो इष्ट नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-'प्रधीयतेऽस्मिन् इति प्रधानम्' इम व्युत्पत्ति से प्रधान शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त है प्रकृष्ट आधारत्व, और 'इष्ट यः स ईश्वरः' इस व्युत्पत्ति से ईश्वर शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त है जगग्निर्माण आदि का सामर्थ्य | मांख्ययोग सम्मत त्रिगुणात्मक प्रकृति और न्यायषशेषिक सम्मत जगत्कर्ता ईश्वर आदि में उक्त रूप से प्रधान आदि का शक्तिभ्रम होकर प्रधान आदि शब्दों से उन अर्थों का बोध हो सकता है तो यह टीक नहीं है, क्योंकि जैसे · गो' आदि शब्दों की अनाहु गोत्वादि विशिष्ट अर्थ में शक्ति होती है उसी प्रकार प्रधान, ईश्वर आदि. शब्द की भी अखण्ड धर्म विशिष्ट अर्थ में ही शक्ति अनुभवसिद्ध है । अतः उक्त सखण्ड धर्मों को उन शब्दों का प्रवृत्तिनिमित्त मानना असङ्गत है ।।४।। [शन्द बुद्धिकल्पित अर्थ का वाचक ] पाँचवीं कारिका में शब्द को वास्तव अर्थ का प्रतिपादक मानने में कुछ अन्य दोषों का भी उल्लेख किया गया है। कारिका का अर्ध इस प्रकार है शम्त यदि वास्तव अर्थ का ही प्रतिपादक होगा तर शब्द के बिनष्ट और अनुत्पन्न अथों का बोध न हो सकेगा क्योंकि बिनाश और अनुत्पत्ति की दशा में उन की वास्तविकता-वस्तु मत्ता नहीं होती। इस के साथ ही दूसरा दोष यह है कि शब्द यदि वास्तघ अर्थ का ही प्रतिपादक होगा तो वचक आदि के शब्दों से असत्य अर्थ का बोध न हो सकेगा । अतः शब्दार्थवेत्ता बौद्ध विद्वानों की यह मान्यता है कि शब्द का प्रतिपाद्य अर्ध याम्तय न होकर त्रुद्धिकल्पित होता है। [उद्योतकर के आपादान का निरसन ] बौद्ध विद्वानों द्वारा वास्तब अर्थ को शब्दवाच्य न मानकर कल्पित अर्थ को शब्दवाच्य Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] [ शात्रवार्त्ताः स्त० ११/५ न बागोपालपतीतः शब्दार्थों निषिध्यते, किन्तु तत्र सांवृतत्वमभ्युपगम्य तात्त्विकत्वं निषिध्यत इति । तनिषेवश्च स्वलक्षणस्य व्यवहारका लाननुयायित्वेनाऽकृतसमयत्वात् तत्र शब्दस्य । अयमेवाभिप्रायः 'न जातिशब्दो मेदानां वाचक:, आनन्त्यात्' इति वदत आचार्यदिनागस्य । तेन यदुक्तमुद् द्योतकरेण = 'यदि शब्द पक्षयसि तदानन्त्यस्य वस्तुधर्मत्वाद् व्यधिकरण हेतु अथ भेदा एव पक्षीक्रियते तदा नाम्बयी न व्यतिरेकी दृष्टान्तोऽस्ति इत्यहेतुरानन्त्यम्' इति, तद् निरस्तम् । न च जातिविशेषणभेदेषु समयसंभवादयमदोपः जातेर्निरस्तत्यात्, अनन्तभेदविषयनिः शेषव्यवहारो 3 मानने से उद्योतकर का यह कथन कि 'शब्द को वाचक न मानने पर प्रतिक्षा और हेतु का व्याघात होगा क्योंकि वे दोनों शब्दात्मक होते हैं और शब्द का कोई बाध्य नहीं होता'खण्डित हो जाता है। क्योंकि बौद्ध विद्वान भोपाल तक को प्रतीत होनेवाले अर्थ में शब्दवाच्यत्व का निषेध नहीं करते, किन्तु शब्दवाच्य अर्थ की वास्तविकता का निषेध करते हैं। इसलिए बोद्धमत में कल्पित अर्थ शब्दवाच्य होने से प्रतिक्षा और हेतु वाक्य से भी कल्पित अर्ध का बोध हो सकने के कारण उन का व्याघात नहीं हो सकता। शब्दवाच्य अर्थ की वास्तविकता का निषेध भी इस आधार पर होता है कि वस्तुमृत अर्थ स्त्ररक्षण होता है. और वह क्षणिक होने से व्यवहारकाल तक नहीं रहता । अतः उस में व्यवहार द्वारा शब्द का संकेत ग्रहण न होने से वह शब्दवाच्य नहीं हो सकता, फलतः यह सिद्ध होता है कि जो शब्दवाच्य होता है वह वास्तविक नहीं होता है । [ दिग्नाग आचार्य के वचन का अभिप्राय ] 'जातिशब्द- जाति रूप निमित्त से प्रवृत्त होने वाला शब्द, भेद व्यक्तिभूत अर्थ का उन के आनन्त्य के कारण घाचक नहीं होता' आचार्य दिग्नाग के इस कथन का भी यही अभिप्राय है कि शब्दवाच्य अर्थ वास्तविक नहीं होता किन्तु कल्पित होता है । दिग्नाग का उक्त अभिप्राय होने के कारण ही उन के उक्त कथन के सम्बन्ध में उद्योतकर का यह आक्षेप निरस्त हो जाता है कि-"यदि शब्द को पक्ष कर के आनन्त्यहेतु से अचाचकत्व का साधन किया जायगा तो आनन्त्यहेतु व्यधिकरण यानी पक्ष में अमिद्ध होगा। क्योंकि वस्तुधर्म होने से वह शब्द में नहीं रहता, और यदि भेद व्यक्तिभूत अर्थ को पक्ष कर आनन्त्य हेतु से शब्दा वाच्यत्व का साधन किया जायगा तो हेतु और मध्य के कहीं एकत्र सिद्ध न होने से ranteera का. और साध्याभाष - शब्दवाच्यत्व पत्र हेत्वभाव के एकत्र कहीं सिद्ध न होने से व्यतिरेकी दृष्टान्त का अभाव होने के कारण हेतु में साध्य काव्यमिह सम्मत न होने से आनन्त्य हेतु से व्यक्तिमृत अर्थ में शब्दावाच्यत्व का साधन नहीं हो सकता।" यह इसलिये निरस्त हो जाता है कि व्यतिरेक दृष्टान्तरूप में काल्पनिक अर्थ को लेकर वास्तविक अर्थ में शब्दबाध्यत्व का अभाव सिद्ध किया जा सकता है । [ जातिविशेषितव्यक्ति में संकेत का असंभव ] यदि यह कहा जाय किं' व्यक्तिविशेष में शब्द का संकेतग्रह न होने पर भी जाति से विशेषित व्यक्तियों में शब्द का संकेतग्रह हो सकता है क्योंकि स्वलक्षण क्षणिक वस्तु व्यवहार काल में न होने पर भी उसके सजातीय अस्य वस्तु के होने से जातिद्वारा सभी स्वलक्षण व्यक्तियों में शब्द का संकेत हो सकता है । अतः स्वलक्षणात्मक वास्तविक अर्थ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविषसम ] [ २२१ पलम्भस्य कस्यचिदसंभवेनाऽदृष्टेषु भेदेषु समयाऽसंभवाच । विकल्पबुद्ध्याहुतेषु तत्प्रतिपत्त्यभ्युपगमे च विकल्पसमारोपितार्थविषय एव संकेतः प्राप्तः । अथ समयक्रियाकाले क्षणान्तरसंनिधानात् कथं न स्वलक्षणे समयकरणसंभवः ! इति चेत् ! न, तस्याऽऽभोगाविषयीकृतत्वेनाधाभोगाऽविषाकृते संनिहिते गवादाबश्वपदस्येव समयस्य दुर्ग्रहत्त्वात् । साश्येनैक्यमध्यवस्य समयग्रहे च तस्याऽस्वलक्षणत्वेन स्वलक्षणस्य वाच्यत्वाऽसिद्धः । एतेन 'व्यक्तया-ऽऽकृति-जातयः पदार्थः' इति केषाश्चिद मतम् , 'जातिरेव पदार्थः' इत्यन्येषाम् , 'द्रव्यम्' इति च परेषाम् , 'उभयम्' इति चापरेषां मतमपास्तम् जातियोगाद व्यत्यादीनां च स्खलक्षणास्मकत्वात् , तत्पक्षभाविदोषानतिवृत्तेः । बुद्धयाकारेऽपि न समयः संभवति, तस्य व्यवहारकालाननुयायित्वात् , बहिरर्थज्ञापनाभिमानिमिरेव शब्दप्रयोगाश्च । 'अस्त्यर्थमात्रमेवापूर्वदेवतादिपदानामिव में भी शब्दवाच्यत्व का सम्भव होने से शब्दवाच्य बस्तु की वास्तविकता का निषेध सङ्गत नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अनेक दोषों के कारण जाति के अस्तित्व का निराकरण हो चुका है । और बूमरी बात यह है कि जाति के द्वारा भी अनन्त व्यक्तियों में शब्द का संकेतग्रह नहीं हो सकता क्योंकि जो व्यवहार उपलब्ध होता है । यह व्यक्ति विशेष के मन्यन्ध में ही होता है । सम्पूर्ण अनंत व्यक्तियों के सम्बन्ध में होने वाले समग्र व्यवहार का उपलभ तो किसी को नहीं होता। अतः व्यवहार काल में जो व्यक्तिभूत अर्थ अष्ट है उनमें शब्द का संकेतग्रह नहीं हो सकता । और यदि आति एवं व्यक्ति के स्थैर्य और सम्बन्ध को ग्रहण करने बाली विकल्प (आगेए) रूपबुद्धि के आधार पर एक व्यक्ति के ध्यवहार काल में, एक व्यक्ति में शायमान जाति के आश्रयरूप में सम्पूर्ण व्यक्तियों का अलौकिक बोध मान कर उस व्यक्ति के सम्बन्ध में होने याले व्यवहार से भी जाति द्वारा समय व्यक्तियों में शब्द का संकेतज्ञान माना जायगा तो निश्कर्ष रूप में यही फलित होगा कि विकल्प बुद्धि विषयभूत आरोपित अर्थ ही शब्द का वाच्य है, वास्तव अर्थ शब्द का वाच्य नहीं है। [अनभिप्रेत अर्थ में संकेत का असंभव ] बौद्ध को प्रश्न हो सकता है कि-'समयां = संकेत ) के क्रियाकाल में पूर्वक्षण के अतीत हो जाने पर भी अन्य नूतनक्षण का मनिधान होता ही है तो फिर उस स्वलक्षण क्षण में शब्द का संकेतग्रह क्यों नहीं होता?'- इसके उत्तर में चौद्ध का कहना है कि सन्निहित नूतनक्षण आभोग यानी शब्दध्यवहार के अभिप्राय का विषय (लक्ष्य) नहीं है अत: उसमें, ठीक उसी प्रकार शब्द का संकेतग्रह सम्भव नहीं होता, जसे गो आदि के सन्निहित होने पर भी अश्व शब्न के व्यवहार का विषय (लक्ष्य) न होने से उन में अश्व शब्द का संकेत ग्रह नहीं होता । यदि सन्निहित क्षण में शलव्यवहार के बिषयभूत पूर्वक्षण का सादृश्य होने से उसमें पूर्पक्षण के पेक्य की बुद्धि करके पूर्वसदृश क्षण रूप से उसमें शब्द का संकेतग्रह होगा तो सारश्य विशिष्ट श्रण स्वलक्षणात्मक न होने से, उसके शब्दवाच्य होने पर भी स्वलक्षण में शब्दवाच्यता की सिद्धि न होगी। वस्तुभूत अर्थ को शब्दवाच्य मानने के पक्ष में बताए गये दोशे के कारण-१ व्यक्ति, आकृति एवं जाति यह तीनों शब्दपाच्य है, २ जाति मात्र ही शब्द का वाच्य है, ३ द्रव्य शब्द का वाच्य है, ४ जाति और व्यक्ति अथया जाति और द्रव्य दोनों शब्दवाच्य है, इन चारों मत का Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] [ शानघाताः स्त० ११/५ गवादिपदानामर्थः, तत्राकारविशेषपरिग्रहस्तु केषाञ्चित् सिद्धान्तबलात्, न तु शन्दात् ' इत्येके । तद्न, शब्दभेदव्यवहारबिलोपाद् विपाणादिविशेषानुपरागेणास्त्यर्थवाचकत्वे च गोस्वविशिष्टस्य वाच्यत्वमिष्टम् , तत्र चोक्तप्राय एव दोषः । अपरे तु 'तपो-जाति-श्रुतादेह्मिणादिशब्दैः समुदायो विना विकल्प-समुच्चयाभ्यां सामस्स्येनाभिवीयते, यथा बनादिशब्दैर्धवादयः । 'बनम्' इत्युक्ते हि 'धवो वा खदिरो वा' इति न विकल्पेन धीः' न वा 'धवश्च खदिरश्च' इति समुञ्चयेन, आप खु सामस्थेने प्रतीक वादयः, तथा 'ब्राह्मणः' इत्युक्तेऽपि 'तपो वा जातिर्वा श्रुतं वा' 'तपश्च जातिश्च श्रुतं च' इति वा न वीः, निराकरण हो जाता है. क्योंकि जाति का अस्तित्व प्रामाणिक नहीं है; और व्यक्ति स्वलक्षणात्मक है अत. स्वलक्षण को शब्द वाच्य मानने के पक्ष में कथित दोषों से व्यक्ति की शब्दवाच्यता का पक्ष मुक्त नहीं हो पाता । 'अर्थ का बाह्य अस्तित्व नहीं होता किन्तु वह धुद्धि का ही आकारविशेष होता है, इस मान्यता के अनुसार बुद्धि का आधारभूत अर्थ ही शब्द का वाच्य होता है' यह मत भी मंगत नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धि के णिक होने से उसके आकारभून अर्थ के भी अणिक होने के कारण वह भी व्यवहारकाल तक अनुवर्तमान नहीं होता। और तूसरी बात यह है कि शब्द का प्रयोग बायर्य की सत्ता की मान्यता पर ही निर्भर अतः खाद्य को स्वीकार न करके केवट चाकार मात्र को स्वीकार करने पर उसे शब्ददाय कहना कथमपि समीचीन नहीं हो सकता। कुछ एक विद्वानों का कहना यह है कि "-जैसे अपूर्व-देवता आदि शब्द का कोई विशेष आकार से विशिष्ट अर्थ नहीं होता किन्तु अस्त्यर्थ-सतषस्तु मात्र ही उनका अर्थ होता है, और उसमें आकारविशेष का बोध अपने-अपने मिद्धान्तों के अनुसार होता है ठीक उसी प्रकार 'गो' आदि शब्दों का भी विशेपआकार विशिष्ट अर्थ न होकर सद वस्तु मात्र ही अर्थ है और उसमें आकारविशेष का बोध अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार होता है। अतः किसी मत में गो आदि शब्दों का अर्थ बद्न्याकार और किसी मत में बाह्याकार माना जाता है।" किन्तु यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि यदि सन्मात्र ही सभी शब्दों का अर्थ होगा तो गो अश्व आदि सभी शब्दों के समानार्थक होने से अर्थभेद से शब्दभेद के लोकप्रसिद्ध व्यवहार का लोप हो जायगा तथा यदि विषाण( श्रृङ्ग) आदि विशेष आकारों को त्याग कर सन्मात्र को गो आदि शब्द का वाच्य माना जायगा तो ‘गोत्वादिविशिष्ट, गोआदि शब्द का वाच्य है' यही फलित होगा, जो समीचीन नहीं हो सकता, क्योंकि गोत्व आदि जाति का निराकरण किया जा चुका है। [ब्राह्मणादि शब्द से समुदाय का बोध ] अन्य विद्वानों का कहना है कि-" ब्राह्मण आदि शब्द से तप, जाति और विद्या आदि के समुदाय का एक साथ बोध होता है, विकल्प और समुश्चय के रूप में उनका बोध नहीं होता। श्राह्मण शम्ब ठीक बन शब्द के समान है। स्पष्ट ही है कि वन शब्द से घव खदिर आदि वृक्षों के समुदाय का एक समग्रता में बोध होता है, न कि घव अश्या खदिर-इस प्रकार विकल्प से, या धव वन है-खदिर आदि वन है, इस समुच्चय रूप में बोध होता है। ठीक उसी प्रकार ब्राह्मण शब्द से भी तप, जाति विद्या आदि में एक-एक का अथवा समुनचय Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ २३१ अपि तु साकल्येन संबन्ध्यन्तरव्यवच्छिन्नास्तपःप्रभृतयः संहताः प्रतीयन्ते' इत्याहुः । तदपि न, बनादिपदेनापि परस्परसंनिहितमहुवृक्षत्वादिप्रकारकविकल्पबुद्धग्रुपहतार्थस्यैवाभिधानात, समुदायस्य प्रत्येकानतिरिक्तत्वेनान्वयितयानभिधेयत्वात् । परे तु-'द्रव्यत्वादिनिर्धारितस्वरूपैर्यः संबन्धो द्रव्यादीनां स शब्दार्थः । स च संबन्धिनां शब्दार्थत्वेनाऽसत्यत्वादसत्य इत्युच्यते । यद्वा, तपःश्रुतादीनां मेचकवर्णवदेक्येनावभासनादेषामेव परस्परमसत्य: संसर्गस्तथा '–इत्याहुः । अन्ये तु-'असत्यवलयालीयकाद्यपाधिकं सत्यं सुवर्णादिसामान्यमभिधेयम्' इत्याहुः । मतद्वयमिदमसत्, संयोगादिसंबन्धस्य सामान्यस्य च निरासात् , असत्याभिषेयत्वध्रौव्याच। रूप में तप, जाति आदि का बांध नहीं होता, किन्तु किसी अन्य सम्बन्धी के विना ही तप आदि के समुदाय का समग्ररूप में ही बोध होता है । फलतः तप, जाप्ति, विद्या आदि का मिलित समट ही ब्राह्मण नका अभिधेय होता है। यही दृष्टि अन्य सभी शादों के सम्बन्ध में ज्ञातव्य है । क्योंकि गो आदि शब्दों से भी श्रृङ्ग, पुच्छ, मास्ता आदि के समुदाय का भी एक समग्रता में बोध होना आनुभत्रिक है।”- किन्तु यह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि जिस बम शब्द के दृष्टान्त से श्राह्मण शब्द का अर्थ निर्धारित करने की बात कही गयी है उस धन शब्द का उक्त अभिधेय अर्थ होने में ही गलती है। सत्य यह है कि बन शब्द भी धव, खदिर आदि वृक्षों के समुदाय का मिलित समृष्ट रुप में बोधक न होकर परस्पर सन्निहित धव, खदिर आदि विविध बहुवृक्षत्वरूप से एक ऐसे अर्थ का बोधक होता है जो विकल्पबुद्धि द्वारा एक व्यक्ति के रूप में गृहीत होता है । तो जैसे परस्पर सन्निहित धव, खदिर आदि बहुवृक्षत्ररूप से विकल्पबुद्धि द्वारा उपस्थित व्यक्ति वन शब्द का अर्थ होता है, उसी प्रकार तप, जाति, विधा आदि से सम्पन्न रूप में विकल्पबुद्धि से गृहीत व्यक्ति ब्राह्मण शरद का अभिधेय होता है । वन और ब्राह्मण शब्द के पूर्वोक्त समुदाय रूप अर्थ को मान्यता न मिलने का दूसरा कारण यह है कि समुदाय प्रत्येक से भिन्न नहीं होता । अत: असे प्रत्येक अन्वयीरूप से उक्त शब्दों का अभिधेय नहीं होता उसी प्रकार समुदाय भी अन्वयीरूप से उन शब्दों का अभिधेय नहीं हो सकता। [सम्बन्ध अथवा सामान्य में शब्दवाच्यत्व का निरसन ] अन्य विद्वानों का मत यह है कि-द्रव्यत्व आदि निर्धारित रूपों के साथ द्रव्य शदि का सम्बन्ध ही 'द्रध्य' आदि शब्दों का अभिधेय है। किन्तु यह द्रव्यत्व आदि रूप एवं द्रव्य आदि सम्बन्धियों के शब्दार्थरूप से अमत्य होने से असत् कहा जाता है । अथवा यह कहा जा सकता है कि जैसे नील-पीत आदि विभिन्न रूपों का पक चित्ररूप में बोध होता है उसी प्रकार तप, जाति, विद्या आदि का एक ब्राह्मण के रूप में बोध होता है। अतः सप, जाति, विद्या आदि का परस्पर में प्रतीत होने वाला असत्य सम्बन्ध ही ब्राह्मण शब्द का अर्थ है। अन्य विद्वानों का मत है कि कण, अगृठी आदि असत्य उपाधियां सुवर्ण शब्द का अर्थ न होकर वे उपाधियां जिस सामान्य सुषर्ण द्रव्य की होती है वह शुद्ध सुवर्ण सामान्य सुवर्ण व्रध्य का अर्थ होता है । ठीक यही बात ब्राह्मण आदि शब्दों के सम्बन्ध में भी शातध्य है अर्थात् ब्रामण आदि के सम्बन्ध में भी यही मानना उचित है कि तप, जाति विद्या आदि Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] [ शास्त्रवाक स्त० ११/२ 'शब्द एवाभिजल्पत्यमागतः शब्दार्थ, तच शब्दस्यार्थेन सहैक्याध्यवसानम्' इत्यन्ये । एतदपि न, असताऽर्थनकीकरणाऽयोगात्, योगे वा बुद्धिशब्दार्थपक्षप्रवेशात् । 'बुद्धिरूपमेव बाह्यविषयं तथा, गृह्यमाणबुद्धित्वेन वा गृह्यमाणं शब्दार्थः' इति पक्षस्तु निरस्तप्राय एव शाब्दप्रत्ययेनाऽध्यवसीयमानस्य शब्दार्थत्वाऽयोगाच। परेवाहुः-'अभ्यासात् प्रतिभाहेतुः शब्दो न तु बाह्यार्थप्रत्यायकः; यथैव ह्यकुशादिघातादयो हस्त्यादीनामर्थप्रतिपत्तौ क्रियमाणायां प्रतिभाहेतवो बामण शब्द का अर्थ नहीं है किन्तु ये बातें जिस सामान्य-मनुष्य में होती है वह मनुष्यसामान्य ही बामण शब्द का अर्थ है । किन्तु अन्यान्य विद्वानों के उक्त दोनों ही मत ठीक नहीं है, क्योंकि संयोग आदि सम्बन्धों का निराकरण हो चुका है । अतः तन्यत्व आदि रूपों के साथ द्रव्य आदि के सम्बन्ध को व्य आदि शब्द का अर्थ नहीं कहा जा सकता । प. सामान्य पदार्थ का निराकरण हो जाने के कारण सामान्य को भी सुवर्ण आदि शब्दों का अर्थ नहीं कहा जा सकता। इसके साथ ही दूसरी बात यह है कि उक्त दोनों ही मतों में शब्दार्थ की असत्यता अनिवार्य हो जाती है। [अभिजल्पत्र प्राप्त शब्द शब्दार्थ नहीं ] अन्य विद्वानों का मत है कि-"शब्द ही अभिजल्प होने पर शब्द का वाच्य होता है । अभिमल्प होने का मतलब है कि अर्थ के साथ एकीभूत होकर अवगत होना । कहने का आशय यह है कि जब शब्द और अर्थ में अभिन्नता का बोध होता है तब शब्द अर्थात्मना प्रतीत होने से शब्दार्थ हो जाता है किन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि असत् अर्थ के साथ शब्द का एकीकरण असङ्गत है और यदि किसी प्रकार बुद्धि के माध्यम से अर्थ के साथ शब्द के एकीकरण को सम्मत किया जाय ते 'शब्दार्थ युद्धि का है। इस पक्ष में इस मत का प्रवेश हो जायगा । कुछ लोगों का यह भी पक्ष है कि-"बायार्थ को विषय करने वाली बुद्धि किया गृह्यमाण धुद्धि के रूप में सरयमान अर्थ ही शब्दार्थ है। -'' यह भी पक्ष निरस्त जैसा ही है क्योंकि शब्द का प्रयोग बायार्थ में ही अनुभव मिद्ध है न कि उस की बुद्धि में । इस पक्ष के विरुद्ध दूसरी बात यह है कि शाब्दज्ञान से विषयीकृत अर्थ को शब्दार्थ मानना सङ्गत नहीं है। क्योंकि शब्दार्थ सिद्ध होने पर ही शमशान की विषयता होती है। अतः शब्दार्थता को शाटज्ञान के विषयता के आधीन नहीं माना जा सकता ।। [शब्द जन्य प्रतिमा से अर्थबोध-आशंका ] अन्य विद्वानों का मत है कि-" शब्द प्रतिमा को जन्म देता है, अर्थप्रत्यय को नहीं । अतः शब्दार्थ क्या है ? इस बात की घोषणा निरर्थक है। शब्द से प्रतिभा का जन्म होना अनायास समझा जा सकता है. और इस बात को इस प्रकार निरूपित किया जा सकता है कि जैसे अंकुश प्रहार आदि से हस्ती आदि को अपने कर्तव्य अर्थ की प्रतीति हस्ती आदि की प्रतिभा से होती है, और यह प्रतिभा अंकुशप्रहार आदि से उत्पन्न होती है 1 ठीक उसी प्रकार शब्द सुनने पर मनुष्य में एक ऐसी प्रतिभा का उदय होता है जिस से उसे अर्थ का बोध होता है । अतः अर्थे प्रतिभा-बोध्य है न कि शब्दबोध्य । वृक्ष मादि शब्द जो शब्दार्थ के सम्बन्धी माने जाते हैं उनसे अर्थ का बोध उनके द्वारा उत्पन्न प्रतिभा से ही सम्पन्न होता है" Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३३ स्था. क. टीका-हिन्दीविषेचन ] भवन्ति तथा शब्दार्थसंबन्धसमता वृक्षादयः शन्दा यथाभ्यासं प्रतिभामात्रोपसहारहेतवो भवन्ति' इति। अत्रापि प्रतिभा यदि परमार्थतो पामार्थविषया तदैका विरुद्धसमयग्राहिणां विचित्रा प्रतिमा न स्यात्, एफस्यानेकस्वभावाऽसंमवात् । यदि च निर्दिषया, कथं तईि तदर्थे प्रवृत्ति-प्रतिपत्ती! । 'अनर्थेऽर्थाध्यवसायेन प्रान्त्या' चेत् ! तर्हि आन्तः शब्दार्थः प्राप्तः, तत्र च बीजं भावानां परस्परतो भेद एवेति पक्ष एवैध न इति । अन्ये तु- अर्थविवक्षां शब्दोऽनुमापयति, यदुक्तम् “ अनुमानं विवक्षायाः शब्दादन्यद् न विद्यते " इति । अत्रापि विवझाया न पारमार्थिक शब्दार्थविषयत्वम् , अन्वयर्थायोगात् । नापि शब्दस्य तत्प्रतिपादकत्वम् । न च विवक्षायाः प्रतिपाद्यत्वे पहिरर्थे प्रवृत्तिः सुघटा, अमेरितत्वात् । [प्रतिभा से अर्थबोध का निरसन ] -इस मत के विषय में यह विचारणीय है कि शब्द से वास्तव बायार्थ विषयक प्रतिभा का जन्म होता है या निविषयक प्रतिभा का जन्म होता है। दोनों ही बातें निदोष नहीं हो सकती क्योंकि एक अर्थ में विभिन्न रूपों से विभिन्न शब्दों का संकेतशान होने पर उस वस्तु की विभिन्न आकारों में प्रतीति होना अनुभवसिद्ध है, जो उक्त प्रतिभा को शब्दजन्य मानने पर नहीं उपपन्न हो सकती, क्योंकि प्रतिभा जिस किसी एक बाचार्थ को विषय करेगी उस पक अर्थ के अनेक स्वभाव सम्भव न होने के कारण प्रतिभा की विभिन्नरूपाकारता सम्भव नहीं हो सकती। और यदि शब्द से निर्विषयक प्रतिभा का जन्म माना जायगा तो शब्दप्रयोग की प्रवृत्ति और अर्थप्रतिपत्तिरूप प्रयोजनों की सिद्धि न हो सकेगी, क्योंकि प्रतिभा का कोई विषय नहीं है तो उस से किसी अर्थ में प्रकृति और किसी अर्थ की प्रतिपत्ति कैसे हो सकती है? यदि यह कहा जाय कि-शब्द से उत्पन्न होने वाली प्रतिभा का विषय वास्तव में बाशार्थ नहीं होता किन्तु उस में बाधार्थ की अभिन्नता का भ्रम होने से प्रतिभा द्वारा बाह्य अर्थ की प्रतिपत्ति और बाय अर्थ में प्रवृत्ति की उपपत्ति हो सकती है'-तो इस कथन के निष्कर्ष रूप में यही प्राम होगा कि भ्रम का विषयभूत अर्थ ही शब्दार्थ है। और जिस का एकमात्र बीज है भानपदार्थों का परस्पर भेद, जो सौगतों का ही अभिमत पक्ष हैं । [शब्द से अर्थविवक्षा का अनुमान-अन्यमत ] कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि-"शब्द अर्थ का बोधक नहीं होता, किन्तु अर्थ विवक्षा का अनुमापक होता है। जमा कि कहा गया है कि 'शब्द से अर्थ की विवक्षा का अनुमान मात्र होता है।' इस अनुमान से अतिरिक्त शब्द का कार्य नहीं है। इस मतवाद का आशय यह है कि जब मनुष्य को किसी अर्थ की विषक्षा होती है, वह विवक्षित अर्थ में संकेतित शब्द का प्रयोग करता है। श्रोता को उस शब्द से धक्ता की विवक्षा का अनुमान होता है, इस प्रकार विवक्षा के विषयरूप में अर्थ का अनुमितिआत्मक बोध होता है और उसी से श्रोता की विवक्षित अर्थ में प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार घियक्षा के अनुमान से ही विधक्षित अर्थ की प्रतीति और उसमें श्रोता की प्रवृत्ति की उपपत्ति हो जाती है। अतः शब्द से अर्थ की शाद. बोधात्मक प्रतिपत्ति मानने का कोई औचित्य नहीं है।" Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ ] [ शास्रवार्ताः स्त० ११/५ न च विवक्षापरिवर्तिनी बापस्य च सारूप्यादप्रेरितेऽपि तत्र ततः प्रवृत्तिः, यमलकवदिति वाच्यम् , प्रेरितेऽपि तत्प्रसक्त्याऽनियमापत्तेः । स्वप्रतिभासानुमवेऽपि बाह्याथशक्तिभ्रमात् प्रवृत्त्युपगमे च पक्ष एव नः, धूमस्याग्नेरिव शब्दस्याऽतात्त्विकार्थप्रतिपादनेच्छानुमापकत्वात्, तस्यानुमानानतिरेकात् ; तदाहु:-' ववतुरभिप्रायं तु सूचयेयुः' इति । एतेन वैभाषिकोऽपि शब्दविषय नामारूयमर्थचिहरूपं विप्रयुक्तं संस्कारमिच्छन् निरम्तः, तस्याप्यन्वयाऽयोगात्, वाद्ये चाऽप्रवृत्तेः, [ अर्थ विवक्षा के अनुमान का निरसन ] इस मरा के भी विषय में यह विचारणीय है कि शब्द से जिम विवक्षा का अनुमान होता वह वास्तविक विषयक नहीं हो सकती. क्योंकि अन्यी पास्तविक अर्थ असिद्ध है। और शब्द वास्तविक अर्थ का प्रतिपादक ही नहीं है जिससे वास्तविक अर्थ के विषक्षा की शब्द से अनुमिति हो सके। और वृसरी बात यह है कि शब्द से विवक्षा की भनुमिति मानने पर बाच अर्थ में श्रोता की प्रवृत्ति भी उपपन्न नही हो सकती, क्योंकि प्रवृत्ति का विश्यभूत अर्थ विवक्षा की अनुमिति से प्रेरित यानी विषयीकृत नहीं होता। यदि यह कहा जाय कि"विवक्षा में परिवर्तमान याद्वार्थ के सादृश्य से विषक्षा की अनुमिति के अविषयभूत अर्थ में भी ठीक उसीप्रकार प्रवृत्ति हो सकती है जैसे एक साथ उत्पन्न समान आकार के दो मनुष्यों में पूर्य दृष्ट एक व्यक्ति के सादृश्य से पूर्व में अवृष्ट भी दूसरे व्यक्ति के सम्बन्ध में द्रष्टा की उसके साथ वार्ता आदि करने में प्रवृत्ति होती है" -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अप्रेरित अर्थ में, अर्थात् शब्द से होने वाली विवक्षानुमिति के अविषयभूत अर्थ में, प्रवृत्ति मानने पर अनियम की आपत्ति होगी, अर्थात यह नियम नहीं रह जायगा कि वियक्षानुमिति के अविषयीभूत उसी अर्थ में प्रवृत्ति हो जिसमें विवक्षा विषयीभूत अर्थ का साष्टश्य हो' -क्योंकि विद्यक्षाअनुमिति का अविषयत्व विवक्षाविषयीभूत अर्थ से सत्श और असरश दोनों अर्थों में समान है। अतः उक्त अनुमिति के अविषयीभूत पक अर्थ में प्रवृत्ति और अन्य अर्थ में प्रवृत्ति के अभाव का उपपादन शक्य नहीं हो सकता। अब यदि यह कहा जाय कि-' शब्द से श्रोता को अपने प्रतिभास का यानी अपनी बुद्धि काही अनुभव होता है, अत: बुद्धि में ही शब्द की शक्ति है बाह्यार्थ में नहीं, बाधार्थ में तो शब्द का शक्तिभ्रम हाता है और उसी से बाह्यार्थ की प्रतीति और उसमें प्रवृत्ति होती है। -तो इसमें मौगत का पक्ष ही सिद्ध होता है। क्योंकि जैसे धूम अग्नि का अनुमापक होता है उसीप्रकार शब्द अतात्त्विक अर्थ के प्रतिपादन की इच्छा का अनुमापक होता है। ऐसा मानने पर अनुमान से अतिरिक्त शब्दप्रमाण की सिद्धि नहीं होती। और यही सौगत पक्ष है, जैसा कि, कहा गया है कि 'शब्द धक्का के अभिप्राय के सूचक-अनुमापक होते हैं।' 1 [वैभाषिकमत का निराकरण ] शम्दार्थ के सन्दर्भ में वैभाषिक का यह अभिप्राय है कि-'शब्द अर्थ का पक प्रकार का चित है और उससे एक मस्कार का जन्म होता है जो अर्थ से भिन्न होता है। वह संस्कार जिस मर्थ के विषय में होता है उस अर्थ की उस मस्कार से प्रसिपत्ति होती है, और उसमें संस्कारयुक्त श्रोता की प्रवृत्ति होती है।' -यह अभिप्राय मी ग्रहणयोग्य नहीं है क्योंकि संस्कार का उसके उश्यकाल में विद्यमान पान अर्थ के साथ सम्बन्ध होने से उससे न तो Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विषेषन ] [ २३५ सारूप्यात् प्रवृत्तावप्यनियमापत्तेः । तदेवम् 'अकृतसमयत्वात् ' इति हेतो सिद्धता, नाप्यनैकान्तिकत्य. विरुद्धत्वे । इति सिद्धम्-'अपोहकृत् शब्द: ' इति ।। तदिदमाहवाच्य इत्थमपोहस्तु न जातिः पारमार्थिकी ! तदयोगाद्विना भेदं तदन्येभ्यस्तथाऽस्थितेः ।।६।। इत्थं तात्त्विकत्याभावे अपोहस्तु-अपोह एव पाच्या शब्दप्रतिपाद्यः । अवधारणफलमाहन जातिः पारमाथिको अपिता मयादिरूपा चाया। कुतः ! इत्याह-तदयोगात= गोत्वादिजाते#दा-ऽमेदादिविकल्पेनाऽघटमानत्वात्। तथा विना भेदं स्वभावत एव गोत्वाधारस्व भर्य की प्रतीति हो सकती है और न उसमें प्रवृत्ति ही हो सकती है। और यदि संस्कार के विषयभूत अर्थ के सारश्य से उससे असम्बद्ध बाझ अर्थ में प्रवृत्ति होगी तो प्रवृत्ति के संबंध में अनियम की प्रसक्ति होगी। [ शब्द से बोध्य अर्थ अवास्तव-उपसंहार ] इस सन्दर्भ में अब तक की सर्चा का निष्कर्ष यह है कि यास्तव अर्थ में शब्दार्थत्वाभाव को सिद्ध करने के लिए जिस अकृतसमयत्व-संकेतकरणायोग्यत्व किं वा संकेतमहणायोग्यत्व रूप हेतु' का प्रयोग किया गया है, वह वास्तव अर्थरूप पक्ष में असिद्ध नहीं है। क्योंकि इस बात का विशद रूप से प्रतिपादन कर दिया गया है कि स्वलक्षणात्मक वस्तु ही पास्तय अर्थ है। और संकेत के क्रियाकाल में उसका अनुवर्तन न होने से वह संकेतकरण पर्व संकेतग्रहण के अयोग्य है। यह हेतु अनेकान्तिक और घिर भी नहीं है, क्योंकि इस हेतु में शब्दार्थत्याभाव की व्याप्ति निर्विवाद है। अतः बौद्ध का यह पक्ष पूर्णतया स्वीकारयोग्य है कि शब्द से वास्तव अर्थ का बोध नहीं होगा किन्तु विकल्प बुद्धि के विषयीभून नाम, जाति भादि से युक्त असत् अर्थ का ही बोध होता है। उपर्युक्त बातों के आधार पर शब्द से अर्थबोध के विषय में यही सिद्धान्त प्रतिष्ठित होता है कि शब्द से प्रतिपाच अर्थ का बोध किसी भावात्मकरूप से न होकर अपोह यानी अतव्यावृत्तिकप से होता है। फलत: गो आदि शब्द से गो आदि अर्थ का बोध गोत्व आदि भावात्मक सामान्यरूप से न होकर अगोव्यावृत्तिरूप से होता है । इसीलिप 'गो' शब्द से न तो अश्व आदि अगो की प्रतीति ही होती और न उसमें मनुष्य की प्रवृत्ति ही होती है | [स्वभावभेद से गोत्वाधारता का नियमन अशक्य ] छट्ठी कारिका में पूर्वकारिका में संकेतित विषय को स्पष्ट किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है यतः शब्दप्रतिपाद्य अर्थ की ताघिकता पूर्वोक्त युक्तियों से असिद्ध है अतः अगेह अतद्व्यावृति ही शब्दवाच्य है। अपोह को ही शब्दवाच्य कहने के परिणामस्वरूप यह सिद्ध होता है कि अकल्पित-वास्तविक जाति शब्दवाच्य नहीं है, क्योकि व्यक्ति से भिन्न अथवा अभिन्न किसी भी पक रूप में जाति सिद्ध नहीं हो पाती। दूसरी बात यह है कि जातिवादी के मतानुसार गो व्यक्ति में गोत्याधारता उसके स्वभावभेद के कारण होती है न कि अश्व आदि से भिन्न होने के कारण | क्योंकि अश्च आदि का भेद गोत्वाधारता की सिद्धि के पूर्व उसमें सिद्ध नहीं है। यतः गोत्व दैशिक विशेषणता सम्बन्ध से और कालिक सम्बन्ध से व्यापक है, व्यापक Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शाखार्त्ता० स्त० ११ / ७-८ २३६ ] भावलक्षणं गोव्यक्तीनाम् तदन्येभ्यः = अश्वादिव्यक्तिविशेषेभ्यः तथाऽस्थितेः = भिन्नत्वाऽव्यवस्थितेः, गोत्वस्य व्यापकत्वात् तत्त्वेऽपि तत्र गोव्यक्त्याधेयत्वस्य स्वभावभेदनियम्यत्वादिति भावः ॥ ६ ॥ स्वभावभेदसवे दोषमाह सति चास्मिन् किमन्येन शब्दाचद्वत्प्रतीतितः । तदभावे न तद्वत्वं तद्भ्रान्तत्वात्तथा न किम् ? ॥ ७ ॥ सति चास्मिन्= स्वभावभेदे, किमन्येन - गोत्वादिना कल्पितेन ? शब्दात् = गवादिशब्दात्, तद्वत्प्रतीतितः = विशिष्टभेदवद्व्यक्तिप्रतीतेः । पराभिप्रायमाह - ' तदभावे - गोत्वाभावे न तद्वत्त्वम् =न गोवाधारस्वभावमेदवत्त्वम्, तत एव तद्भेदोपपत्तेः । अत्रोत्तरम् - तद्भ्रान्तत्त्वात् तस्य भेदस्य आन्तत्वात् = कल्पितत्वात् तथा न किम् १ = तथाध्यवसायवशेन कल्पितं तद्वत्त्वं न कथम् ? | } वास्तवे स्मिन्न दोषो न पुनर्भ्रान्त इत्यभिप्रायः ॥ ७ ॥ एतदेव व्यतिरेक निरासेन द्रढयति अभ्रान्तजातिवादे तु न दण्डाद्दण्डिवद्गतिः । तद्वत्युभयसांकर्ये न भेदाद्वोऽपि तादृशम् ॥ ८ ॥ होते हुए भी गोत्व में गो व्यक्ति वृत्तिता गो व्यक्ति के स्वभावभेद से नियन्त्रित होती है. मव आदि में वह स्वभावभेद न होने से उनमें गोत्व की आधारता नहीं होती । किन्तु स्वभावभेद से गो का ऐसा नियमन मानना दोषपूर्ण है ( यह अगली कारिका में स्पष्ट होगा ) ॥ ६ ॥ ७ वीं कारिका में पूर्व कारिका के चति दोष का स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है। कारिका का आशय यह है कि [ स्वभावभेद द्वारा ही व्यक्तिबोध का आपादान ] यदि गोत्व के व्यापक होते हुए भी गो व्यक्ति में ही उस की आधारता के उपपादककप में स्वभावभेद की कल्पना की जायगी, तो उसी से गो शब्द द्वारा अश्व आदि से भिन्न गोव्यक्ति का बोध भी हो जायगा । अतः गांव की कल्पना निरर्थक हो जायगी। यदि जातिवादी का यह अभिप्राय हो कि 'गोल्थ के अभाव में गो व्यक्ति में गोत्वाधारतानामक स्वभावभेद सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि गोत्व का अस्तित्व होने पर ही अश्व आदि में रहते हुए गो व्यक्ति में ही उस के रहने के नियामक रूप में स्वभावभेद की कल्पना होती है - तो इस अभिप्राय से भी जातिवादी का लक्ष्य नहीं सिद्ध हो सकता क्योंकि गो व्यक्ति में गोत्व की आधारता का नियामक स्वभावभेद भ्रान्त यानी कल्पित है अतः उस से नियम्य गोत्व को भी आन्त कल्पित ही क्यों न मानना चाहिए ? - यह आपत्ति गोत्व को वास्तव मानने के पक्ष में है और यदि वह भ्रान्त कल्पित रूप में ही मान्य हो तब उस आपत्ति का कोई अवसर नहीं है क्योंकि गोत्व की वास्तविकता का निषेध ही बौद्धों को सिद्ध करना है ॥ ७ ॥ [ शब्दवाच्य वास्तवजाति मानने पर आपत्ति ] ८ कारिका में, पूर्वकारिका में उक्त विषय को ही उस से अतिरिक्त पक्ष का निरास करते हुए पुष्ट किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ २३७ अभ्रान्तजातिवादे तु अस्पितजातिवाच्यस्त्रपक्षे तु, दण्डात् दण्डाभिधानात्, दण्डिवत्दण्डिनीव, तद्वति–जातिमति गतिः परिच्छित्तिः न स्यात् । न च प्रथमं जातिवसीयते, तत स्तवाल्लक्ष्यते, तेन विना तस्या अयोगात्, इति लक्षणया तद्वतो गतिरिति वाच्यम् : क्रमवत् प्रत्ययाऽदर्शनात् । जाति-व्यक्त्योः संकीर्णप्रतिपत्त्युपगमे दोषमाह उभयसांकर्ये जातिव्यक्तिसांकर्य विष्यमाणे वोऽपियुष्माकमपि भेदाअध्यवसीयमानाऽभेदविरोधात् तादृशम् अभ्रान्तम् न 'तद्वत्त्वम् । इति योगः । ननु भ्रान्तसत्त्वस्य वाच्यत्त्वे कथमपोहः शब्दार्थः ! इति चेत् ? सत्यम् , द्विविधो ह्यस्माकमपोहः-पर्युदासलक्षणः, प्रसज्यप्रतिषेघलक्षणश्च । आयो द्विविधा अर्थेऽनुगतकरूपत्वेनाध्यवसितो बुद्धिप्रतिभासो बुद्धधात्मा. विजातीयव्यावृत्तस्वलक्षणार्थात्मा च । तत्र यथा हरीतक्यादयो बहवोऽन्तरेणापि सामान्यलक्षणमेकमर्थम् ज्वरादिशमनं कार्यमुपजनयन्ति, तथा शायलेयादयोऽप्यर्थाः भधान्त-वास्तविक जाति को शब्द वाच्य मानना सतत नहीं हो सकता क्योकि जैसे दण्ड शन्द से वण्डी का बोध नहीं होता उसी प्रकार गो आदि शब्द जातिवाचक होने पर उस से जातिमान की प्रतीति नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाय कि-'यो आदि शब्द से पहले जाति का बोध होता है, उस के बाद लक्षणा से जातिमान का बोध होता है, क्योंकि जातिमान के धिना जाति का 'गो: गच्छति' 'गौ: नश्यति' इत्यादि स्थलों में गच्छति शब्दार्थ और नश्यप्ति शब्दार्थ के साथ अन्वय नहीं हो सकता। अतः अन्वयानुपपत्तिमूलक लक्षणा से जातिमान के बोध की उपपत्ति हो सकती है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जाति और जातिमान के बोध में कम का अनुभव नहीं होता। यदि यह कहा जाय कि-'गो आदि शब्च से जाति और ध्यक्ति का संकीर्ण बोध होता है अदि शव से जाति का बोध होने पर उस से अभिन्न रूप में व्यक्ति का बोध भी हो जाता है..तो यह भी ठीक नहीं कहा जा सकता क्योंकि जातिवादी के मत में जाति और व्यक्ति में भेद माना जाता है, किन्तु उक्तरीति से जाति और ध्यक्ति का संकीर्ण सोध मानने पर शम्द से शायमान जाति और व्यक्ति के अभेद का अंगीकृत भेद के साथ विरोध होने के कारण व्यक्ति से भिन्न वास्तव जाति का अभ्युपगम नहीं सिद्ध हो सकता । [बौद्ध मत में अपोह के विविध प्रकार] प्रश्न होता है कि यदि भ्रान्त तवृत्त्व यानी कल्पित गोत्व आदि शब्दषाच्य है तो अपोह को शब्दार्थ कहना कैसे सङ्गत हो सकता है ? व्याख्याकार ने यौद्धों की ओर से इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है कि बौद्ध मत में अपोह के दो भेद हैं, पर्युदास-प्रतिषेध और प्रसज्यप्रतिषेध । इन में प्रथम के दो भेद हैं, अर्थ में अनुगत एकरूप से भासमान धर्म-जो बुद्धि का साकार होने से श्रुद्धिरुप है, तथा अन्यव्यावृत्त स्वलक्षणभूत अर्थ । इन में पहला विजातीय वस्तु की प्राप्ति का हेतु होने से अपोह शब्द का गौण अर्थ है । पर्युदास रूप अपोह के प्रथम भेद को स्पष्ट करते हुए व्याख्याकार ने कहा है कि जैसे हरीतकी आदि अनेक औषध एक सामान्य धर्म द्वारा अनुगतीकत (अनषिद्ध) न होने पर भी ज्वरनिवृत्तिरूप एक कार्य का सम्पादन करते हैं उसी प्रकार चित्र, धवल, श्यामल आदि गो रूप मर्थ परस्पर भिन्न तथा किसी प्रामाणिक पक अनुगत रूप वाले न होते हुए भी गोत्यादि पफाकार प्रतीति को उत्पन्न करते Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ] [ शासवार्ता स्त० ११/८ सत्यपि भेदेऽधिकृतकाकारपरामर्शमन्तरेणापि वस्तुभूतं सामान्यम् , तदनुभवचलेन यनुत्पन्नं विकल्पज्ञानम् , तत्र यदर्थाकारतयाऽर्थप्रतिबिम्बकं ज्ञानादभिन्नमाभाति तत्रान्यापोह इति व्यपदेशः, अन्यव्यावृत्तवस्तुमाप्तिहेतुत्वादिनोपचारात् । अर्थस्तु विजातीयव्यावृत्तत्वाद् मुख्यतस्तद्वयषदेशभाक् । " प्रसज्यप्रतिषेधस्तु 'गौरगौनं भवत्ययम् ' । इति विस्पष्ट एयायमन्यापोहोऽवगम्यते ॥ " [त० सं० १०१०] । सत्रार्थप्रतिविम्बात्माऽपोहः शब्दजन्यत्वात् साक्षात् शब्दवाच्यः । शब्दाऽर्थयोः कार्य-कारणभाव एव च वाच्यवाचक(भायः) तदुक्तम्--" विकल्पयोनयः शब्दाः "....इत्यादि । अपोहद्वयं च बाह्याांध्यवसायिविकल्पप्रतिबिम्बोसोल सामगया दुजारा दानवाच्यमुच्यते । तदुक्तम्-" न तदारमा परात्मेति संपन्धे सति बस्तुभिः । व्यावृत्तवस्त्वधिगमोऽप्यर्थादेव भवत्यतः ॥ [त० सं०. १०१३] ॥ इति । हैं । इस प्रकार बाथसत्रूप में अवास्तविक और बुद्धिरूप में वास्तविक इस गोत्व सामान्य के अनुभव के बल से अपने में जो 'गौः' इस प्रकार एक विकल्पशान उत्पन्न होता है इस शान में जो अर्थ के आकार रूप में अर्थ का प्रतिविम्ब भासता है जो कि ज्ञान से अभिन्न होता है वही उपचार से अन्यापोह शब्द से व्यपदिष्ट होता है क्योंकि उसी से अन्यथ्यावृत्त वस्तु की प्राप्ति होती है। पर्युदासरूप अपोह के दूसरे भेद को स्पष्ट करते हुए ध्याख्याकार ने कहा है कि स्वलक्षणभूत अर्थ जो वास्तव है वह वास्तव में अन्यव्यावृत्त होने के कारण अपोह शब्द का मुख्य अर्थ है। अपोह के प्रसज्यप्रतिषेधरुप भेद को स्पष्ट करते हुए तत्त्रसंग्रहमें कहा है कि-'गौः अयम् अगौः न भवति-यह गौ है अगी-अश्व आदि नहीं है। इस प्रतीति में स्पष्टरूप से भासनेवाली अगोव्यावृत्ति ही प्रसज्यप्रतिषेधात्मक अपोह है ।इन में पर्युदास का प्रथमभेद-अर्थप्रतिविम्बस्यरूप अपोह गो शब्द से उत्पन्न होने के कारण गो शब्द का साक्षात् वाच्य है, क्योंकि बौद्ध मन में शध्द और अर्थ का कार्य-कारणभाव ही वाच्यवाचकभाव है। शब्द कारण होने से वाचक है और प्रतिबिम्बभृत अर्थ कार्य होने के कारण वाच्य है। इसी बात को वाक्यपदीय में भर्तहरि ने " विकल्पयोनयः शब्दाः"-'शब्द विकल्प के होते हैं। कह कर संकलित किया है। अर्थप्रतिबिम्ब को साक्षात् शब्दवाच्य कहने से यह स्पष्ट हो जाता है कि शेष उक्त दो प्रकार के अपोह, अर्थात अभ्यध्यावत्त स्वलक्षण अस्सहप अपोह तथा, प्रसज्यप्रतिषेधात्मक अपोह ये दोनों उपचार से अपोह शब्द के वाच्य अर्थ हैं क्योंकि शब्द से वायार्थ को ग्रहण करने वाले विकल्पक प्रतिबिम्ब के बाद उस की उपपादकतारूप सामय के बल पर उन का भान होता है। कहने का आशय यह है कि पर्युदास रूप अपोह का द्वितीय भेद तथा अन्यव्यावृत्तिरूप प्रसन्यप्रतिषेध के आधार पर ही शब्द से अर्थप्रतिविम्बरूप यानी बाधार्थ को अध्यक्षित करने वाले विकल्पशाम-का उदय होता है इसलिए शब्दजन्य विकल्प के जन्म के बाद उस में अथवा उस के विषयभूत अर्थ के उपपादकरूप में उक्त भपोहों का ज्ञान होता है। ___ यही बात तत्वसंग्रह में इस प्रकार कही गई है कि- अश्वत्मक अर्थ गर्दभादिस्वभावात्मक नहीं है। यहाँ अश्वप्रतिबिम्ब के साथ तद विमाभावि होनेसे गर्दभादिष्यावृत्तिरूप अपोह भासित होता है। और अश्चादि के साथ परम्परया अश्वप्रतिविम्ब का शब्दद्वारा सम्बन्ध होने से गईभादिष्यावृत्त अश्वस्वलक्षणरूप व्यावृस वस्तु का भी बोध उपचार से होता है । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या, क. टीका-हिन्धी विधेचन ] [ २३९ एतेन यदुक्तं कुमारिलेन- [दृष्टव्य, त. सं. ९०९ तः ९१३] "नन्वन्यापोहकृच्छन्दो युप्मत्पक्षे तु वर्णितः । निषेधमात्रं नैवेह प्रतिभासेऽवगम्यते ॥ १ ॥ किन्तु गोर्गवयो हस्ती वृक्ष इत्यादिशब्दतः । विधिरूपावसायेन मतिः शाब्दी प्रवर्तते ॥२॥ यदि गौरित्ययं शब्दः समोऽन्यनिवर्तने । जनको गवि गोबुद्धेम॒भ्यतामपरो ध्वनिः ॥ ३ ॥ ननु ज्ञानफलाः शब्दा न चैकस्य फलद्वयम् । अपवाद-विविज्ञानं फलमेकस्य वः कथम् ॥ ४ ॥ प्रागगौरिति विज्ञानं गोशब्दश्राविणो भवेत् । येनाऽगोः प्रतिषेधाय प्रवृत्तो गौरिति ध्वनिः ॥ ५॥ इति । तदपास्तम् , प्रागर्थप्रतिविम्धरूपविध्यर्थस्यैवावसायात् ; अनन्तरं च सामथ्यतो निषेधप्रतीतिः, एकस्यापि रात्रिभोजननिषेधार्थापकदिवाभोजनबत् ऋमिक्रविधि-निषेधज्ञानद्वयफलकत्वाऽविरोधात् । [कुमारिल के आक्षेप का प्रतिकार] मौत सहरा गाव नक रूप से प्रतिपादन के फलस्वरूप, प्रकृत विषय में कुमारिल द्वारा उद्भावित आक्षेप का भी निरसन हो जाता है। कुमारिल का आक्षेप इस प्रकार है "बौद्ध मत में शब्द को अन्यापोह-अन्यव्यावृत्ति का बोधक कहा गया है किन्तु इस में एक बड़ी त्रुटि है वह यह कि शब्द द्वारा होनेवाले प्रतिभाल में अभ्यध्यावृत्ति रूप निषेधमात्र का बोध नहीं होता । किन्तु गाय-गधय-हाथी-वृक्ष इत्यादि शब्द से 'गाय-गषय-हाथी -वृक्ष' इस प्रकार भावात्मक रूप में बोध होता है। अनुभव भी यह है कि गो आदि शब्द द्वारा केवल निषेधरूप में अर्थ की प्रतीति नहीं होती किन्तु, भाषरूप में अर्थ की प्रतीति होती है जो बौद्ध मत में उपपन्न नहीं होती। यदि गो आदि शब्द से अन्यध्यावृत्तिरूप अर्थ का बोध होगा तो गोत्व आदि रूप से गो मादि के अनुभवसिद्ध बोध के लिए अन्य शब्द की अपेक्षा होगी जबकि निर्विवाद रूप से अन्य शब्द के बिना ही गो आदि शब्द से ही भाष रूप से भी गो का बोध सर्थमान्य है। दूसरी बात यह है कि शब्द का फल ज्ञान है, अतः गो आदि शब्द से कोई एक शान होने से शब्दप्रयोग की सफलता हो जाती है, अतः दो शान को उत्पन्न करने का कोई औचित्य न होने से उत्त से दो बोध जैसे, अपयाद-अन्यव्यावृत्ति का और विधि-गोआकारता का बोध कैसे सम्भव हो सकता है ? तथा, 'गो' शब्द से मुख्यतया अगोनिवृशि का बोध मानने पर; गोशष्द के श्रोता को पहले गोभिन्न वस्तु का बोध होना चाहिए, क्योंकि बौद्धमत में तो गोभिन्न के निषेध के लिए ही गोशब्दप्रयोग होता है। कुमारिल का उक्त भाक्षेप सर्वथा निर्जीव है, क्योंकि गो आदि शब्द से पहले गौः भादि भावात्मक आकार में अर्थ प्रतिबिम्ब का बोध होता है और उसके अनन्तर अगो मादि में श्रोता की प्रवृत्ति न होकर गौ आदि में ही प्रवृत्ति होने के सामर्थ्य से यह मानना आवश्यक होता है कि अर्थ प्रतिविम्ब के बोध के बाद अन्यव्यावृति रूप से भी उसका बोध हो जाता है। एक शन्द से पक काल में बोधवय की उत्पत्ति अमान्य होने पर भी कम से अर्थद्वय के दो बोध मानने में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि यह सर्वमान्य है कि "पीनो देवदत्तः रात्री न भुरुपते- स्थूल शरीर वाला देवदत्त रात्रि में भोजन नहीं करतास वाक्य से पहले देवदत के रात्रि भोजन के निषेध का ज्ञान होता है और बाद में उसकी शारीरिक स्थूलता के आधार पर उसके दिनगत भोजन का ज्ञान होता है। . . Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ] [ शास्त्रार्त्ता० स्त० ११ / ३ यदपि तेनैवोक्तम् ""अगोनिवृत्तिः सामान्यं वाक्यं यैः परिकल्पितम् । गोत्वं वस्त्ववेव तैरुक्तम् गोऽपोहगिरा स्फुटम् ॥ १॥ . भावान्तरात्मक भावो येन सर्वे व्यवस्थितः । तत्राश्वादिनिवृतात्मा भावः क इति कथ्यताम् ॥२॥ नेष्टोऽसाधारणस्तावद् विशेषो निर्विकल्पनात् । तथा च शाबलेयादिरसामान्यप्रसङ्गतः ॥ ३ ॥ तस्मात् सर्वेषु यद्रूपं प्रत्येकं परिनिष्ठितम् । गोबुद्धिस्तन्निमित्ता स्याद गोत्वादन्यच्च नास्ति तत्" ॥४॥ इति तदपि प्रत्युक्तम्, बाह्यरूपतयाऽध्यस्तस्य बुद्ध्याकारस्यैव सर्वत्र शाबलेयादौ 'गौ गौः ' इति समानरूपतयाऽवभासनात्, तत्रैव भ्रान्तप्रतिपत्तवशेन सामान्यव्यवहारात्, मुख्यसामान्यसाधर्म्यादर्शनेऽप्यन्तरुपलवात् द्विचन्द्रज्ञानवत् तत्र सामान्यभ्रान्त्युपपत्तेः, बुद्धेख्यतिरिक्तत्वेनार्थान्तरानुगमाभावात् । परमार्थतोऽसामान्यरूपवत्त्वेन तस्याऽपोहवाच्यतायां सिद्धसाधनानवकाशात् । [ कुमारिल के अन्य आक्षेप का प्रतिकार ] कुमारिल ने अन्यापोहवादी बौद्ध के विपरीत एक और भी बात कही है यह यह कि - "बौद्धों ने जो अगोनिवृत्ति रूप सामान्य को गो शब्द का वाध्य कहा है, निश्चय ही उन्होंने 'अगोनिवृत्ति' शब्द से वस्तुभूत भावात्मक गोत्व को ही अभिहित किया है। अपोहवादी बौद्ध को इस प्रश्न का भी उत्तर देना है कि प्रत्येक अभाव भावान्तर रूप अर्थात् अन्य भाव स्वरूप होता है और इसी के आधार पर प्रवृत्ति-निवृत्ति आदि की सारी व्यवस्था होती है, इस स्थिति में वह कौनसा अश्वादि से व्यावहै जिसमें शब्द से श्रोता की प्रवृत्ति होती है ? इस प्रश्न के उत्तर में बौद्ध की ओर से यदि यह कहा जाय कि-' अन्यध्यावृत्तभाव असाधारण है जो विकल्प निर्मुक्त विशेषरूप है तो यह समीचीन नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा मानने पर चित्र, धवल आदि को सामान्यरूपता नहीं प्राप्त हो सकती, जबकि अवित्रव्यावृत्त चित्र, अधवलव्यावृत्त धवल आदि को सामान्य गोरुपता लोकप्रसिद्ध है। अतः यह मानना होगा कि चित्र, धवल आदि सभी व्यक्तियों में कोई एक अनुगत रूप है जो उन सभी में गोसामाभ्य बुद्धि को उत्पन्न करता है और जो भी रूप स्वीकार किया जायगा वह वस्तुभूत भावात्मक गोत्व से भिन्न नहीं हो सकता । " कुमारिल का उक्त आक्षेप भी निष्प्राण है क्योंकि चित्र, धवल आदि गो व्यक्तियों में 'गौ: गौः' इस प्रकार जो सामान्य रूपता की प्रतीति होती है उसका निमित्त कोई बाद्यसामान्य नहीं है, किन्तु बुद्धि का आकार ही है । उसी में वायरूपता का भ्रम है। इस भ्रम के अवबोध से ही दुध्याकार को बाह्य सामान्य रूप से व्यवहूत किया जाता है । विज्ञानवाद में बाह्ययस्तु का अभाव होने से मुख्य सामान्यात्मक साधर्म्य का दर्शन न होने पर भी अन्तर्वासना के प्रभाव से सामान्यरूपता के भ्रम की उपपत्ति ठीक उसी प्रकार हो सकती है जैसे अर्ध निमीलित नेत्र से चन्द्रमा की ओर देखने पर दो घन्द्र का भ्रम होने से वास्तव में दो चन्द्र न होने पर भी 'चन्द्रः चन्द्र:' इस प्रकार सामान्यरूपता की प्रतीति होती है । विभिन्न व्यक्तियों में सामान्यरूपता की प्रतीति का भ्रम होने का यह भी कारण है कि विभिन्न अर्थव्यक्तियाँ बुदुद्ध्याकार होने पर भी उनका अनुगम बुद्धि से अभिन्न रूप में नहीं होता किन्तु बालरूप में प्रतीयमान बुध्याकाश्मक सामान्य के माध्य रूप में होता है १ लोकवान्तिकेऽपोहवादे १-२-३-१० तत्वसंग्रहे ९१४ : ९१७ लोक दृष्टव्याः । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ २४१ यदपि ' भ्रान्तस्य शब्दार्थत्वे बाह्यार्थानपेक्षत्वं स्यात्' इत्युच्यते तदपि न, पारम्पर्येण वस्तुषिद्धस्य भ्रान्तस्यापि विकल्पस्य मणिप्रभार्या मणिबुद्धिवद् बाखार्थानपेक्षत्वासिद्धेः । यदपि 'अपोहस्य नि:स्वभावत्वात् अरूपस्य परस्परतो केदाभावात् वृक्ष - रूपादिशब्दवदभिन्नसामान्यवचनानां गवादिपदानाम्, विशेषवचनानां च शाचलेयादिपदानां पर्यायतापत्ति: ' इति तदपि न, भेदवदभेदस्याप्य मावेनाभिन्नार्थाभावे तत्र पर्यायत्वाऽऽसञ्जनस्य कर्तुमशक्यत्वात्, निर्बीजकल्पनायाश्चाव्यवस्थितत्वात् तदुक्तम् - [ तत्त्वसंग्रहे - १०३१-३२ ] 'रूपाभावेऽपि चैकत्वं कल्पनानिर्मितं यथा । विमेदोऽपि तथैवेति कुतः पर्यायता ततः १ ॥ १ ॥ भावतस्तु न पर्यायान पर्यायस्य वाचकाः । नोकं वाच्यमेतेषामनेकं वेति वर्णितम् ॥ २ ॥ इति " , रूप में प्रतीत होने वाले बुद्ध्यात्मक सामान्य को अपोह शब्द से वाच्य मानने में सिद्ध साधन १ की शङ्का नहीं हो सकती क्योंकि उक्त सामान्य के आश्रय रूप में प्रतीति होने वाले व्यक्तियों में पारमार्थिक सामान्य की आधारता नहीं होती । यदि पारमार्थिक सामान्य की आधारता होती तो उसी से विभिन्न व्यक्तियों की समानाकार प्रतीति होने से उस के लिए बाह्यतया आान्य बुद्दध्यात्मक सामान्य की कल्पना करने में सिद्धसाधन का प्रसङ्ग हो सकता था, किन्तु बैसा न होने से उसकी प्रक्ति का कोई अवसर नहीं होता । [ बाह्यार्थ अप्राप्ति की आपत्ति का प्रतिकार ] उक्त सन्दर्भ में जो यह बात कही जाती है कि 'भ्रान्त-कल्पित सामान्य को शब्दार्थ मानने पर बाह्यार्थ की अपेक्षा न होगी अर्थात् शब्द से कल्पित सामान्य रूप से बोध होने पर उस के द्वारा बोधकर्त्ता को बाह्यअर्थ की प्राप्ति न होगी वह भी ठीक नहीं है क्योंकि भ्रान्त विकल्प भी परम्परया वस्तु से सम्बद्ध होता है अतः उस में बाह्यार्थ निरपेक्षता बाह्यार्थ की अप्रापकता नहीं हो सकती, क्योंकि यह सर्वमान्य है कि मणि की प्रभा में मणि की भ्रमात्मक बुद्धि भी प्रभार के मूल उद्गमस्थानभूत मणि की प्रापक होती है । प्रस्तुत सन्दर्भ में जो यह बात कही जाती है कि अपोह का कोई स्वभाव नहीं होता, अतः अपोह मानने पर भी अपोहनीय व्यक्ति स्वरूपहीन होंगी, फलतः उन में कोई भेद नहीं होगा । उसके परिणाम स्वरूप अभिन्न सामान्य के बाचक गो आदि पर और अभिन्न विशेष के वाचक शाबलेय-चित्र धवल आदि पदों में ठीक उसी प्रकार पर्यायता की आपत्ति होगी जैसे वृक्ष और उसके रूप में अभिन्नता के पक्ष में वृक्ष, वृक्षरूप आदि शब्दों में पर्यायता होती है तो यह भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि भेद के समान ही अभेद भी वास्तविक नहीं है। अतः अभिन्न अर्थ का अस्तित्व न होने से उक्त सामान्यरूप विशेष शब्दों में एकार्थता न हो सकने से पर्यायता की आपत्ति नहीं दी जा सकती। और यदि अकारण कोई कल्पना की जायगी सो उसका कोई पर्यवसान ही नहीं होगा, जैसा कि तत्त्रसंग्रह में कहा आश्रय से भिन्नरूप का अस्तित्व न होने पर भी आश्रय और उसके है उसी प्रकार वा व्यक्तिरूप भेद भी कल्पित है, वास्तविक नहीं है। सामान्यवाची और विशेषवाची गो एवं चित्र आदि पदों में पर्यायता की आपत्ति कैसे हो ३१ गया है कि ' वृक्ष आदि रूप में काल्पनिक एकत्व फिर ऐसी स्थिति में Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] [शामधार्ता० स्त. १५/८ न चकेनानुगामिना विना बहुप्वेका अतिर्न नियोक्तु शक्येति वक्तव्यम् , इच्छामात्रपतिबद्धत्वात् शब्दानामर्थप्रतिनियमस्य । स्यादेतद्-मा भुत् पर्यायत्वमेषाम् अर्थाभेदस्य कल्पितत्त्वात् । सामान्य-विशेषवाचिस्व व्यवस्था तु विना सामान्यविशेषाभ्यां कथमेषामिति । मेवम् बहेल्पविषयतत्सकेतानुसारतः सामान्यविशेषधावियाऽविरोधात् , क्ष-धवादिशब्दानामवृक्षाऽधवादिव्यवच्छेदमात्रानुस्यूतार्थप्रतिबिम्बजनकत्वात् । यदपि “विनाऽपोश्वस्याधारस्य या भेदं नापोह भेदः, सदभेदश्च न वस्तुभूतं सामान्यमन्तरेण, इति किमपोहेन ? ' इति; तदपि न, कल्पनयैव व्यावृत्तीनां भेदात् , तत्राऽपोह्यादिभेदस्याऽतन्त्र. स्वात् । परमार्थतस्त्वनादिविकल्पवासना(ज)न्यविविक्तवस्तुसंकेतादेनिमिताद् विकल्पानामेव भेदाभ्युपगमात् । सकती है ? और सत्य बात यह है कि परमार्थ से भिन्न या अभिन्न कोई भी शब्दवाच्य यस्तु है ही नहीं तो फिर वाधकरूप में अभिमत शब्दों में पर्यायता या अपर्यायता की बात ही कहाँ ? पहले ही कर दिया है कि स्वलक्षण या जातिरूप एक या अनेक कोई शब्दवाच्य नहीं है । [सामान्य विशेषवाची शब्द भेद की उपपत्ति ] यदि यह कहा जाय कि-'अनेक व्यक्तियों में अनुगत एक रूप माने बिना अनेक व्यक्तियों में पक शब्द के प्रयोग को नियमित नहीं किया जा सकता । अतः अनुगतरूप को मानना मायश्यक है' -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अर्थ में शब्द का नियमन इच्छा मात्र मूलक है, बस्तुमूलक नहीं है। अतः अनुगतरूप के अभाष में भी नियत अर्थों में नियत शब्दों का नियमन इच्छा द्वारा सम्भव होने से अनुगतरूप की कोई आवश्यकता नहीं होती। यदि यह कहा जाय कि- ठीक है कि सामान्य विशेषवाची उक्त शब्दों में पर्यायता की आपत्ति भिन्नअभिन्न घस्तुभूत अर्थों के न होने के कारण नहीं हो सकती, किन्तु गो, शावलेय आदि शब्दों में सामान्य आर विशेष के वाच्यत्व की व्यवस्था सामान्य और विशेष के अभाव में कैसे हो सकती है ? अत: सामान्य और विशेष स्वरूप वस्तु का अस्तित्व मानना आवश्यक है' -तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि अधिक और अल्प विषय और उनके संकेत से उक्त व्यवस्था सम्भव है। जिस शब्द का संकेत अधिक विषयक होगा यह सामान्यधाची और जिस शब्द का संकेत अल्प विषयक होगा वह विशेष चाची कहा जा सकता है, क्योंकि वृक्ष, धय आदि शब्द अवृक्षध्यावृत्त पत्रं अघवव्यावृत्त अर्थ-प्रतिबिम्ब के जनक होते हैं। घव-खदिरादि अवृक्षव्यावृस अर्थ प्रतिबिम्बों में सकेतित हाने से 'वृक्ष' शब्द सामान्यवाची और केवल अधषच्यावृत्ति अर्थ में संकेतित होने से 'धव' शब्द विशेषाचा होता है। [ अपोहभेद-अपोह्य भेद के लिये सामान्य अनावश्यक ] इसी सन्दर्भ में जो यह बात कही जाती है कि-'अपोहनीय आधार के भेद के बिना अपोहभेव नहीं हो सकता और अपोहनीय आधार का भेद वस्तुभूत सामान्य के बिना नहीं हो सकता। अतः जब अपोहनीय भाधार के भेव के लिए वस्तुभूत सामान्य मानना आवश्यक है तब अपोह की क्या आवश्यकता है ?' -वह भी ठीक नहीं है क्योंकि भग्य व्यावृत्तिरूप पोह Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४३ << तदुक्तम् - [ चत्वार आधा त० सं० १०४५ तः १०४८, पंचमश्च प्र० वा० ३-८६ ] ताश्च व्यावृतयोऽर्थानां कल्पना शिल्पिनिर्मिताः । नापोला -ऽऽवारभेदेन भिद्यन्ते परमार्थतः ॥ १ ॥ तासां हि बाह्यरूपत्वं कल्पितं न तु वास्तवम् । मेदाभेदौ च तत्स्वेन वस्तुन्येव व्यवस्थितौ ॥ २ ॥ स्वबीजनेकविश्लिष्टवस्तुसंकेतशक्तितः । विकल्पास्तु विभिद्यन्ते तद्रूपाध्यवसायिनः ॥ ३ ॥ नैकात्मनां प्रपद्यन्ते न भिद्यन्ते च खण्डशः । स्वलक्षणात्मका अर्था विकल्पः gad त्वसौ || ४ | संसृज्यन्ते न भिद्यन्ते स्वतोऽर्थाः पारमार्थिकाः । रूपमेकमनेकं वा तेषु बुद्धेरुपल्लवः ॥ ५ ॥ इति ॥ स्या. क. टीका- हिन्दीविषेचन ] T N , . L यदपि ' अपोहस्य प्रतिपाद्यत्वे शब्द - लिङ्गयोः प्रामाण्यं न स्यात् प्रतिपाद्याऽव्यभिचारितेन हि तयोः प्रामाणम् प्रतिदाहो निःस्वभाव:, इति क्व तयोरव्यभिचारित्वम् ? इति तदपि न वस्तुभूतसामान्याभावेऽपि विजातीयव्यावृत्तस्वलक्षणमात्रेणान्वयोपपत्तेः, अविवक्षितमेदस्य स्वलक्षणस्यैव सामान्यलक्षणत्वात् । यदपि यथा स्वलक्षणादिषु समयाऽसंभवाद् न शब्दार्थत्वं तथाऽपोहेऽपि । अर्थ निश्चित्य हि समयः कर्तुं शक्यते न चापोह : केनचिदिन्द्रियेःका परस्परभेद् काल्पनिक है उसके लिए अपोहनीय आधार का भेद मानना अनावश्यक है । सत्य यह है कि विकल्प यानी विशिषानुभव से उत्पन्न वासनाये अनादि हैं। उन्हीं के भाधार पर माने जाने वाले विभिन्न वस्तुओं में विभिन्न संकेत होते हैं और उन संकेतों से ही विकल्पों का जन्म होता है । जैसा कि तस्त्रसंग्रह में कहा गया है-" अर्थों के अन्यव्यावृत्तिरूप विभिन्न अपोह केवल कल्पना निर्मित हैं, उनका परस्पर भेद अपोहनीय आधार के पारमार्थिक भेद की अपेक्षा नहीं करता है। अन्य व्यावृत्तियों में जो बारूपता ज्ञात होती है वह भी कल्पित है वास्तव नहीं। जबकि भेद और अभेद वास्तव में वस्तु में ही अभ्युपगत है। अपने सहज अनादिविकल्पवासनारूप बीज, अनेक से व्यावृत्त वस्तु और संकेत, इन सभी के सामर्थ्य से ध्यावृत वस्तु के अध्यवसाय विकल्प ही परमार्थतः भिन्न होते हैं। अभेदाध्यवसायी या भेदाध्यवसायी विकल्पों से स्वलक्षणात्मक अर्थों में भेद नहीं पड जाता किन्तु विकल्प ही भेदानुभव करता है । कि में भी कहा है- " वस्तुभूत गर्थ न तो परस्पर संसृष्ट होते हैं और न भित्र ही होते हैं। उनमें प्रतीयमान एकरूपता किंवा अनेकरूपता केवल विकल्पात्मक बुद्धि की ही देन है । 13 ܕ [ शब्द और लिंग के अप्रामाण्य की आपत्ति निरवकाश ] अपोह के विरुद्ध जो यह बात कही जाती है कि "अपोह को प्रतिपाथ मानने पर शब्द और लिङ्ग के प्रामाण्य का व्याघात होगा क्योंकि वे दोनों अपने प्रतिपाद्य का अन्यभिचारी होने से ही अपने प्रतिपाद्य के विषय में प्रमाण होते है। अपोह नि:स्वभाव है, अतः इसमें शब्द एवं लिङ्ग का अव्यभिचार नहीं हो सकता, क्योंकि अभ्यभिचार किसी स्वभावोपेत वस्तु में ही होता है" वह भी ठीक नहीं है। वस्तुभूत सामान्य के न होने पर भी विज्ञातीयव्यावृत्त] स्वलक्षणात्मक वस्तु अन्य -अध्यभिचार की उपपत्ति हो सकती है क्योंकि वस्तुभूत सामान्य के मान्य न होने पर भी परस्पर भिन्न रूप में अविवक्षित अन्यव्यावृत्तस्वलक्षणात्मक वस्तुरूप सामान्य बौद्ध को भी मान्य है। अतः सामान्य के द्वारा स्वलक्षणात्मक वस्तु में शब्द और लिङ्ग के अभ्यभिचार की उपपति हो सकती है । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] [शास्त्रवाक स्त० ११/८ वसीयते, व्यवहारपूर्व तस्याऽवस्तुत्वात् , इन्द्रियाणां च यस्तुविषयत्वात् । न चान्यव्यावृत्तं स्वलक्षणमुपलभ्य शब्दः प्रयोक्ष्यते, अन्यापोहादन्यत्र शब्दवृत्तेः प्रवृत्त्यनभ्युपगमात् ; नाप्यनुमानेनापोहाध्यवसायः; न चान्वयविनिमुहा प्रवृतिः, 'शब्द-लियो: ' इत्यादिना तत्प्रतिषेधात्' इति; सदस्यत एव निरस्तम् , स्वलक्षणात्मनोऽपोहस्येन्द्रियैरेव गम्यत्वात् , अर्थपतिबिम्बात्मनश्च परमार्थतो बुद्धिस्वभावत्वेन स्वसंवेदनप्रत्यक्षत एव सिद्धेः, प्रसध्यपतिषेधात्मनोऽपि सामर्थ्यगम्यत्वात् । * यदपि 'इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेरपोहे संकेतोऽशक्यक्रियः; तथाहि-अगोव्यवच्छेदेन गोः पतिपत्तिः, स चागौगोनिषेधात्मा, तन्न मा निषेभ्यो गौतिव्यः, अनितिस्वरूपस्य निषेद्धुमशक्यस्वात् ; एवं च गोरगोप्रतिपतिद्वारा प्रतीतिः, अगोश्च गोप्रतिपतिद्वारा, इति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् , प्रतीते च प्राग गवि किमपोहेन ?, अप्रतीते च कथं तत्प्रत्ययः ? इति । तदाह—[ श्लो० या० अपोह ० ८३-८४] "सिद्धश्वागौरपोोत गोनिषेधात्मकश्च सः । तत्र गौ रेव वक्तव्यो नया यः प्रतिषिध्यते ॥१॥ अपोह के विरुद्ध जो दूसरी बात यह कही जाती है कि- जसे स्वलक्षण वस्तु में शब्द का सङ्केत सम्भव न होने से वह शब्दार्थ नहीं होता उसी प्रकार अपोह में भी सङ्केत सम्भव न होने से वह भी शब्दार्थ नहीं हो सकता क्योंकि निश्चित अर्थ में ही शब्द का सङ्केत होता है और अपोह का निश्चय किसी को भी इन्द्रिय द्वारा नहीं होता, क्योंकि शन्दव्यवहार के पूर्व यह अशात होने से अवस्तु होता है और इन्द्रियों वस्तु-सत् को ही ग्रहण करती है। यदि बौद्ध यहाँ बचाव करे कि-'अन्य व्यावृत्तस्यलक्षण की प्रत्यक्ष उपलब्धि होती हैं। अत: इस उपलब्धि के आधार पर उसमें शब्द का प्रयोग हो सकेगा' - तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि अन्यापोह से भिन्न में शब्द की प्रवृत्ति नहीं होती। अनुमान से सभी अपोह का निश्चय नहीं हो सकता क्योंकि अन्वय अध्यभिचार के बिना आनुमानिक प्रतिपत्ति नहीं होती और अन्वय का निधेष "शब्द-लिङ्गयोः प्रामाण्यं न सम्भवति" आदि शठमों से कर दिया गया है।" वह बात भी इस लिए निरस्त हो जाती है कि अन्यव्यावृत्त स्वलक्षणात्मक अपोह का ग्रहण इन्द्रिय द्वारा होता है और अर्थ प्रतिबिम्वरूप अपोह का ग्रहण उसके बुद्धिस्वरूप होने से स्वसंवैदि प्रत्यक्ष से सिद्ध है और प्रसध्यप्रतिषेधरूपअपोह सामर्थ्य द्वारा गम्य है । [ अपोह मान्यता में अन्योन्याश्रय-कुमारील का पूर्वपक्ष ] अगोह के विपक्ष में पर्वपक्षी अब विस्तार से यह कहते है कि-अन्योन्याश्रय दोष के कारण अपोह - गोट्यावृत्त आदि में सङ्केत होना शक्य नहीं है : जसे-अपोहपक्ष में मो का अगोभिन्नरूप में शान होना है और अगो गोभिन्नरूप होने से उसका शान गोभेद के प्रतियोगीभूत गो के शान के अधीन है। यतः अभावशान में प्रतियोगीशान कारण होने से अज्ञात प्रनियागी के निषेध का बोध अशक्य है। इस प्रकार गोज्ञान के लिए अगोशान की और के अगोशान के लिए गोशान की अपेक्षा होने से अन्योन्याश्नय स्पष्ट है। इस दोष से मुक्ति पाने लि. यदि अगोशान के बिना भी मो की प्रतीति मान ली जायगी तो अमेह की कल्पना * अस्य दूरेण तदपि न ' पदैः २४७ पृष्ठे शेयोऽन्वयः । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विषेचन ] [ २४५. स चेदगोनिवृत्त्यात्मा भवेदन्योन्यसंश्रयः । सिद्धश्चेद् गौरपोहार्थं वृथाऽपोहप्रकल्पनम् ॥ २ ॥ गव्यसिद्धे त्वगौर्नास्ति तदभावेऽपि गौः कुतः । " ( ८५ पूर्वार्धम् ) इति । अपिच, एवं नीलोत्पलादिशब्दानामर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टार्थाभिनायकत्वमपि दिङ्नागोक्तं विरुद्धमेव, अनीलानुत्पलादिव्यवच्छेदरूपतयाऽभावैकरूपाणां नीलोत्पलाद्यर्थानामाधाराधेयभावाद्यनुपपत्तेः, तदुक्तम् - " नाधाराधेयवृत्त्यादि संबंधश्चाप्यभावयोः " ( श्लो० १० वा० अपोह० ८५ उत्तरार्ध ) इति । न चानीला - ऽनुत्पलाभ्यां व्यावृत्तं वस्त्वेवार्थान्तरनिवृत्या विशिष्टमुच्यत इति युक्तम् ; स्वलक्षणस्याऽचाच्यत्यात् । न च स्वलक्षणस्यान्यनिवृत्त्या विशिष्टत्वमपि युज्यते, वस्त्ववस्तुनोः संबन्धाभावात्, वस्तुद्वयाधारत्वात् तस्य । भावेनिनीकादिबुवाको हात्यात विशेषतायोगात् । ज्ञातं सचत् स्वाकारानुरक्तबुद्धिं जनयति तस्यैव विशेषणत्वात् । न चेदमपोहे युज्यते प्रागज्ञानात् स्वाकार सार्थक न होगी । और यदि अगोशान के पूर्व गो का ज्ञान न होगा तो उसके बिना अगो का भी ज्ञान सम्भव न हो सकेगा। जैसा कि श्लोकवार्त्तिक में कहा गया है कि " अगो के सिद्ध ज्ञात होने पर ही उसका अपोहन भेदप्रतियोगी रूप से बोधन हा सकता है, किन्तु arrt गोनिषेधात्मक = गोभिन्नरूप है। अतः गो का बोध आवश्यक है, क्योंकि उसके होने पर दीन से गो का प्रतिषेध हो सकता है। इससे यह निर्विवाद है कि यदि गो अगोध्यावृत्ति रूप है तो अन्योन्यालय अनिवार्य है और यदि गो अगोशान के बिना भी ज्ञात हो सकता है तो उसके लिए अपोह की कल्पना व्यर्थ है । गो के अज्ञात होने पर अगो का ज्ञान और अमो के अज्ञात होने पर गो का ज्ञान कैसे सम्भव हो सकता है यह प्रश्न ही है । [ अर्थान्तर निवृत्ति विशिष्टार्थ वाचकता असंगत ] विनाग का यह कथन भी कि -' नीलोत्पल आदि शब्द अर्थान्तर अनील और अनुत्पल की निवृत्ति से विशिष्ट अर्थ के वाचक हैं' असङ्गत ही है क्योंकि नील भनीकन्यावृत्त और उत्पल अनुत्पव्यावृत्त स्त्ररूप होने से अभावरूप है। अतः नील और उत्पल पदार्थ में आधाराधेयभाव अनुपपन्न है, जैसा कि श्लोकबार्तिक में कहा गया है कि 'अभावों में आधाराधेयभाव आदि सम्बन्ध अशक्य है। यदि यह कहा जाय कि -' अनील और अनुत्पल से भिन्न वस्तु ही अर्थान्तर निवृत्ति भनीयावृति और अनुत्पलच्यावृत्ति से विशिष्ट होने से नील पत्र उत्पल शब्द से बाच्य है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि स्वलक्षण वस्तु वाध्य नहीं होती और स्वलक्षण अन्यनिवृत्ति से विशिष्ट भी नहीं होता है; क्योंकि स्वलक्षणात्मकवस्तु और अन्यनिवृत्यात्मक अवस्तु के मध्य सम्बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि सम्बन्ध दो भावात्मक वस्तुओं में ही आधारित होता है। और यदि स्वलक्षणवस्तु और अर्थान्तर निवृत्ति के मध्य आधाराधेयभाव मान भी लिया जाय तो भी नीलवस्तु की बुद्धि द्वारा अपोह का ग्रहण न होने से वह विशेषण नहीं हो सकता, क्योंकि 'जो ज्ञात हो कर अपने आकार से अनुरक्त बुद्धि का जनक' होता है वही विशेषण होता है और यह अपोह में सङ्गत नहीं है क्योंकि ज्ञान होने के पूर्व उसके आकार से अनुरक्त बुद्धि का जन्म नहीं हो सकता और उससे विशेष्य का उपरञ्जन - विशिष्टीकरण भी नहीं हो सकता, क्योंकि भाव और अभाव में विरोध होने से अभाव के आकार से भाग का आकारित होना युक्तिसङ्गत नहीं है । ار Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शाबवार्ताः स्त० ११/८ धियोऽभावात् , तया विशेष्यानुपरक्तेश्व, भावा-ऽभावयोर्विरोधात् । तदाह-- " न चाऽसाधारणं वस्तु गम्यतेऽपोहबत्त्या । कथं वा परिकल्प्येत संबन्धो वस्त्ववस्तुनो ! ॥१॥ स्वरूपसत्त्वमात्रेण न स्यात् किञ्चिविशेषणम् । स्वबुद्ध्या रज्यते येन विशेष्यं तद् विशेषणम् ॥ २ ॥ न चाप्यश्वादिशब्देभ्यो जायतेऽपोहबोधनम् । विशेष्यबुद्धिरिष्टेह न चाज्ञातविशेषणा ॥ ३ ।। न चान्यरूपमन्याछ कुर्याज्झानं विशेषणम् | कथवान्याशे ज्ञाने तदुच्येत विशेषणम् ! ॥ ४ ॥ अथान्यथा विशेष्येऽपि स्याद् विशेषणकल्पना । तथा सति हि यत्किञ्चित् प्रसज्येत विशेषणम् ।। ५ ।। अभावगम्यरूपे च न विशेष्येऽस्ति वस्तुता । विशोषितमपोहेन वस्तुवाच्यं न तेऽस्त्यतः ।। ६॥" इति [लो० वा० अपोह० ८६ तः ९१ तत्त्वसंग्रहे ९४५ तः ९५० अपिच, व्यक्तीनामवाच्यत्वेनाऽनपोह्यत्वात् सामान्यस्य तथात्वेन वस्तुत्वं स्यात् । अपोहास्तु नापोह्याः, अभावरूपत्यागेन वस्तुत्वापातात् , वस्तुत्वनियतत्वाञ्च निषेधप्रतियोगित्वस्य । तदुक्तम्-[ श्लो० वा० अपोह. २५-२६ तत्त्वसंग्रहे ९५४-५५ ] "यदा चाऽशब्दवाच्यत्वाद न व्यक्तीनामपोशाता । तदापोह्येत सामान्यं तस्यापोहाच वस्तुता ॥१॥ प्रलोकवार्तिक में कहा भी गया है कि "असाधारण-स्थलक्षणवस्तु अपोह के आश्रयरूप में शात नहीं होती, वस्तु और अवस्तु के मध्य समय की फरूपमा को हो सकता है ६॥ कोई भी वस्तु स्थरूपसत् होने मात्र से विशेषण नहीं बन जाती, अपितु जो अपनी बुद्धि ले विशेष्य को अनुरक्षित करती है वही विशेषण होती है ॥२॥ ____ अश्य आदि शब्दों से अपोह का बोध नहीं होता। विशेषण के शान के बिना विशेष्य की बुद्धि इष्ट भी नहीं है ॥३॥ ___ स्वाकारवाला विशेषण अन्याकार शाम को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं, यदि यह स्वाननुरूप ज्ञान को उत्पन्न करेगा तो विशेषण कसे कहा जायगा: ॥४॥ यदि अन्य प्रकार से प्रायमान विशेष्य में रूपान्तर को विशेषण माना जायगा तो कोई भी वस्तु कहीं भी विशेषण होने लगेगी ॥५॥ __अभाव द्वारा ज्ञातव्य विशेष्य, वस्तुरूप नहीं हो सकता, क्योंकि भाव-अभाव में विरोध होता है अतः अपोष्ट से विशिष्ट वस्तु बाच्य नहीं हो सकती ॥६॥ [ अपोह्य की अनुपपत्ति ] अपोह के विपक्ष में एक यह भी बात है कि अपोह के व्यावर्तनीय का उपपादन न हो सकने से भी अरोह को मान्यता नहीं दी जा सकती। जैसे-व्यक्ति-स्वलक्षण वस्तु को अपोन नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह शब्दवाच्य नहीं है। सामान्य शब्दवाच्य अवश्य है किन्तु उसे भी अपीश्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसे अपोध मानने पर वह भी वस्तु हो जायगा, क्योंकि अपोह्यता-भेवप्रतियोगिता वस्तुत्व की व्याप्य होती है। अपोह को भी अपोध नहीं माना जा सकता, क्योंकि शवाच्य होने से उसमें अपोसत्व की सम्भावना तो हो सकती है किन्तु उसे अपोध मानने पर उसकी अभावरूपता का विलय हो जाने से उसकी अपोहरूपता Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दीधिवेशन ] [२४७ नापोह्यत्वमभावानामभावाभाववर्जनात् । व्यक्तोऽपोहान्तरेऽपोहस्तस्मात् सामान्यवस्तुनः ॥ २ ॥ इति । अपिच, अपोहानां परम्परतो वैलक्षप्ये गौशब्दाभिधेयस्य गोनिषेधवलक्षण्याद् भावत्वं स्यात् , अभावनिवृत्तिरूपत्वाद् भावस्य । अवलमण्ये च गौरम्यगोः प्रसज्येत, तदवलक्षण्येन तादात्म्यसिद्धेः । न चानादिकालप्रवृत्तविचिन्नतथार्थविकल्पवासनाभेदाद भिन्ना इवार्थानमान इवास्वभावा अपोहाः समारोप्यन्त इति युक्तम् , अबस्तुनि वासनाऽसंभवात् , वासनातोनिर्विषयप्रत्ययस्याऽयोगात्' इति । तदपि न, अन्यग्रहणमन्तरेणैव प्रतिभासरूपगबावसाये तदनन्तरमगोव्यावृत्तेः सामर्थ्यलग्यत्त्वेऽन्योन्याश्रयाभावात् , परमार्थतः क्वचिदप्यपोहविशिष्टार्थानभिधानेनाधाराधेयभावाद्यनुपपत्ययोगात् , ही समाप्त हो जायगी । श्लोकवात्तिक में कहा भी गया है कि “शब्द के अथाध्य होने से जब व्यक्ति-अपोय नहीं हो सकता, तब सामान्य को ही अपोश कहना होगा, और ऐसा होने पर वही वाच्य हो जाने से उसमें वस्तुत्व की आपत्ति होगी ॥१॥ अपोह भी अपोल नहीं हो सकता क्योंकि अपोडा होने पर अभागात्मक भोट की अभापता ही वर्जित हो जायगी। इसलिए मानना होगा कि पक अश्वादि अपोह में होने वाला गोआदि का अपोह घस्तुभूत सामान्य रूप का ही हो सकता है" ॥ २ ॥ [गोस्व में भावरूपता की प्रसक्ति ] अपोह के प्रतिकूल यह भी एक बात है कि यदि अपोहों में परस्पर भेद होगा तो अगो. निवृत्तिरूप गोत्व में गोनिवृत्तिरूप अगोत्व का भेद होने से अगोनिवृत्तिरूप गोत्व गोनिवृत्ति का निवृत्तिरूप होने से भावरूप हो जायगा, फलत: उसकी अपोहरूपता समाप्त हो जायगी । और यदि अपोहों में परस्पर भेद न होगा तो गोमिवृत्तिरूप अगोत्व और अगोनिवृत्तिरूप गोत्व में ऐक्य होने से अगो में गोरूपता की और गो में अगोरूपता की प्रसक्ति होगी, क्योंकि जिसमें जिस का अवलक्षण्य होता है उसमें उसका तादात्म्य अनिवार्य है। यदि यह कहा जाय कि-जैसे गो और अगो में परस्पर भिन्नता होने की विकल्पबुद्धि से जनित घासनाभेद के कारण उनमें भिन्नता मानी जाती है उसी प्रकार अगों में गोनिवृत्तिरूप अपोह की भावरूप में और गो में अगोनिवृत्तिरूप अपोह की भावरूप में कल्पना की जा सकती है। -तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि अवस्तु की कोई बासना नहीं हो सकती। यतः निविषयक यानी अवस्नुविषयक ज्ञान, वासना का हेतु नहीं होता। [ कुमारीलकृत पूर्वपक्ष युक्तियों का निरसन ] ___ अपोह के प्रतिकूल कही गयी उक्त बातों का प्रत्युत्तर देते हुए बौद्ध कहते है कि अगोनिवृत्तिरूप गोत्व को गोशब्द का याच्य मानने में जो अन्योन्याश्रय की आपत्ति दी गयी है वह ठीक नहीं है क्योंकि अगो का ज्ञान न होने की दशा में अगोनिवृत्तिरूप से गो का ज्ञान न होने पर भी गो का प्रतिभासरूप ( गो के विशेषरूप को विषय न करने वाला) सामान्य शान, हो सकता है। और उसके अनन्तर ज्ञाता की अगो में प्रवृत्ति होने के सामर्थ्य से उसमें अगोनिवृत्ति का शान हो सकता है। इस प्रकार अगोनिवृत्तिरूप गोत्व के आश्नयभूत गो के झान में अगो ज्ञान की अपेक्षा न होने से अन्योन्याश्रय की प्रसक्ति नहीं हो सकती । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] [ शास्रवा० स्त० ११८ नीलोत्पलादिप्रतिभासाकारेप्वेब प्रातिभासिकवैशिष्ट्याद्याकारभावेनोपपत्तेः । 'नीलोत्पलादिशब्दा अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टानांनाहुः' इत्याचार्योक्तः, वस्तुतो बुद्धयारूढार्थाभिधानेऽपि बाबार्थाध्यवसायिविकल्पोत्पादनात् , जात्याद्यभिधाननिराकरणप्रयोजनकोपचाराश्रयणेनादुष्टत्वात् । तदुक्तम्-[त० सं० १०६७ तः ७०] " अर्थान्तरनिवृत्त्या विशिष्टानिति यत् पुनः । प्रोक्तं लक्षणका र विक्षित: ॥१॥ अन्यान्यत्वेन ये मावा हेतुना करणेन या। विशिष्टा भिन्नजातीयैरसंकीर्णा विनिश्चिताः ।।२।। वृक्षादीनाहतान् ध्वानस्तद्भावाध्यवसायिनः । ज्ञानस्योत्पादनादेत जात्यादेः प्रतिषेधनम् ॥३॥ अपोह विशिष्ट को शब्दवाच्य मानने पर जो यह कह कर आधागधेय भात्र की अनुपपत्ति बतायी गयी कि 'अभावात्मक अपोह और स्वलक्षण वस्तु में सम्बन्ध न हो सकने से, उसके अपोह विशिष्ट न हो सकने के कारण, किसी अपोह विशिष्ट अवन्नु को ही शब्द का धान्य मानना पडेगा, और यह सम्भव नहीं हो सकता क्योंकि अपोह और उससे विशिष्ट अर्थ दोनों के अभायात्मक होने से उनमें आधाराधेयभाव नहीं हो सकता-वृह अनुपपत्ति भी नहीं हो सकती । क्योंकि वास्तव में अपोह विशिष्ट अर्थ को शहद का वाच्य मानना अभिप्रत नहीं है। आशय यह है कि अपोह विशिष्टरूप में जिस अर्थ को शब्दवाच्य मानना है उसमें अपोह का वास्तव वैशिष्ट्य अपेक्षित नहीं है, और अवास्तव शिष्ट्य अभावों में भी मानने में कोई बाधा नहीं है। [ दिग्नाग के कथन में आशय की स्पष्टता ] 'नीलोत्पल आदि शब्द अनीलध्यावृत्ति और अनुत्पलव्यावृत्ति विशिष्ट अर्थ के वाचक है। दिग्नाग केस कथन का जो यह कह कर निराकरण किया गया कि अनीलल्यावृत्ति और अनुत्पलव्यावृत्ति के अभाषरूप होने से पक दूसरे का आश्रय न हो सकने के कारण नीलोत्पल शब्द को अर्थान्तरध्यावृत्ति विशिष्ट अर्थ का घामक बताना असङ्गल है' वह ठीक नहीं है क्योंकि नीलोत्पल शब्द से अवगत होने वाले प्रतिभासाकार नील और उत्पल में अनीलव्यावृत्ति और अनुत्पलल्यावृत्ति का वास्तव येशिष्ट्य न हो सकने पर भी प्रातिभासिक वैशिष्ट्य सम्भव है, नीलोत्पल शब्द से उसी वैशिष्ट्य का बोध होता है । ____ आशय यह है कि भाचार्य दिग्नाग नीलोत्पल शब्द का अर्थान्तरध्यावृत्तिविशिष्ट अर्थ का पायक बता कर यह कहना चाहते हैं कि नीलोत्पल शब्द से नील और उत्पल शब्द के अनीलठयावृत्ति और अनुत्पलव्यावृत्तिरूप अर्थों में यौद्धिक वैशिष्ट्य होने के आधार पर उक्त निवृत्ति से विशिष्ट बाा अर्थ का बोध होता है। अतः नीलोत्पल शब्द के वाच्यरूप में नीलत्य, उत्पलत्व आदि भावात्मक जाति की कल्पना अनावश्यक है। तत्त्वसंग्रह में कहा भी गया है कि-आचार्य ने जो यह बात कही है कि 'शब्द अर्थान्तर. निवृत्ति से विशिष्ट अर्थ का अभिधान करता है उसका विषक्षित अर्थ निम्नोक्त है ।।१।। 'जो वृक्षादि भाव यानी अर्थ अपने हेतु द्वारा या अपने करण द्वारा अन्य घ्यावृत्तरूप से विशिष्ट तथा भिन्न जातियों से मसंकीणे-विलक्षणरूप में सुनिश्चित है ।। २॥ उन वृक्ष आदि अर्थों को शब्द अभिहित करता है। यह उपचार किया है, क्योंकि शब्द से अर्थान्तरनिवृत्ति विशिष्ट अर्थ को अध्यवसित करने वाले शान की उत्पति होती है। भावारमक जाति आदि का निषेध ही उपचार का प्रयोजन है ॥ ३ ॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विथेसन ] बुद्धौ येऽर्थाविवर्तन्ते तानाहाभ्यन्तरामयम् । निवृत्त्या च विशिष्टत्वमुक्तमेषामनन्तरम् ।।४||" इति अगोव्यावृत्तेश्च वस्तुरूपाया एव विशेषणतयोपादानेन स्वाकारधिया विशेषानुरञ्जनस्याप्युपपत्तेः । न च पुरुधे दण्डस्येवेतरच्या वृत्तर्गवादेभेद एव विशेषणत्वोपपत्तिरिति वाच्यम् , अनुपका रकस्य विशेषणत्वाऽयोगाद् । उपकारकत्वस्य च युगपदऽयुगपत्कालभादयोः सर्वात्मना परिनिष्पत्त्यऽ साग्योभ्यामयोगात् , काल्पनिकस्य विशेषण-विशेप्यभावस्य कल्पनारचितं भेदमाश्रित्योपपत्तेः । __ 'व्यक्तीनामवाच्यत्वेनानपोह्यता' इत्यत्र च हेतुरेवासिद्धः, सांवृतस्य वाच्यत्वस्व तत्र प्रसिद्धे, सात्त्विकं तु वाच्यत्वबदपोत्वमपि न तत्रेति सिद्धसाध्यता । इत्थं च 'सामान्यस्याऽपोह्यत्वेन वस्तुता ' इत्यत्र हेतोरसिद्धत्वम् , अनैकान्तिकत्वं च । न चापोहेऽपि वस्तुता, साध्यचिपर्य यहेतोवधिकप्रमाणाभावात् , भावे विधिरूपतयाऽपोह्यत्वेऽप्यभावस्वेनाऽनपोह्यत्वात् , भवतामपि प्रकृतीश्वरादिजन्यत्वस्य निषेधेऽपि तस्य वस्तुत्वानापत्विदस्माकमपोह्यत्वेऽप्यभावस्य बस्तुत्वानापत्तेः, प्रतियोगित्वस्य वस्तुत्वाऽनियतत्वात् , तदभावाभावत्वादिरूपत्वे तस्य पप्ट्यर्थाद्यनिरुक्तेः, विशेषणस्वादिवत् कल्पना. मात्रनिर्मितत्वात् , आमाससिद्धस्यापि विधि-निषेधोपपत्तेः; अभावग्रहे प्रतियोगिग्रहस्य हेतुत्वेऽपि (अथवा) जो अर्थ बुदि में विवर्त्तमान-प्रतिभासमान होते हैं, शब्द स्वभावतः पहले उन्हीं अभ्यन्तर अर्थों का अभिधान करता है। उनमें अर्थान्तरनिवृत्ति का वैशिष्य तो अन्यान्यत्वेन. इस प्रलोक से कह दिया है ।। ४ ।। [ अर्थान्तर निवृत्तिरूप अपोह में विशेषणता की उपयत्ति ] भपोह के विरुव जो यह बात कही गयी है कि 'अर्थान्तरनिवृत्तिरूप अवस्तु विशेष्य का अनुराक न हो सकने के कारण विशेषण नहीं हो सकता है।' उसका उत्तर यह है कि अन्तरनिवृसि अपने आश्रयभूत वास्तष अर्थ से अभिन्न होने के कारण यस्तुरूप ही है। अत: उसके विशेषणत्व की उपपत्ति निर्वाध है। यदि यह कहा जाय कि-' जैसे दण्ड पुरुष से भिन्न होने के कारण पुरुष का विशेषण होता है, उसी प्रकार अगोच्यावृत्ति गो से भिन्न होने पर ही विशेषण हो सकती है। इसलिए उसे गो से भिन्न बताते हुप वस्तुभूत कहकर उसमें विशेषणत्व की उपपत्ति करना ठीक नहीं है। -तो यह समीचीन नहीं है क्योंकि जो विशेष्य पर कोई उपकार नहीं करता वह विशेषण नहीं हो सकता, और उपकार्य-उपकारकभात्र एक काल में होने वाले दो भाषों में उनकी स्वाभाविक परिनिम्पन्नता (पूर्णता) के कारण पवं भिन्न काल में होने वाले भायों में असामर्थ्य के कारण सम्भव नहीं है। अत: विशेषण-विशेष्यभाष को वहां काल्पनिक ही मानना होगा, और जब वह काल्पनिक है तब तो अगोनिवृत्ति भौर गो में भी, उनके काल्पनिक भेद के आधार पर निर्वाधरूप से यह मान्य हो सकता है । [ व्यक्ति में अपोछता की उपपत्ति ] अपोह के प्रतिकूल बातों के प्रतिपादन के सन्दर्भ में शव से भवाध्यत्व होने के कारण जो व्यक्ति की अपोलता का निषेध किया गया है यह ठीक नहीं है, क्योंकि व्यक्ति में शम्दाबामत्व हेतु इसलिए असिद्ध है, कि व्यक्ति में सांवृत-काल्पनिक शब्दवाच्यत्व सिम है और ३१ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] [ शानवा०ि स० १९४८ तत्रानाभासिकत्वस्य गौरवेणाऽप्रवेशात् । तदिदमुक्तम्- त० सं० १०६० स: ८२ ] " नामावोऽयोहते ह्येवं नाभावोऽभाव इत्ययम् । भावस्तु न तदात्मेति तस्येष्टेचम पोह्यता ॥१॥ यो नाम न यदात्मा हि स तस्यापोह्य उच्यते । न भावोऽभावरूपश्च तदपोहे न वस्तुता ॥२॥ प्रकृतीशादिजन्यत्वं वस्तूनां नेति चोदिते । प्रकृतीशादिजन्यत्वं न हि वस्तु प्रसिध्यति ॥३॥ नातोऽसतोऽपि भावत्वमिति क्लेशो न कश्चन । [१०८३ पूर्वाधः ] यदि तात्विक शब्दद्याच्यन्त्र के अभाव से व्यक्ति में अपोश्चत्य के अभाव का साधन किया जापगा सो सिद्धसाधन होगा क्योंकि पास्तव शवाच्यत्य के अभाव से वास्तव अपोधस्य के अभाव का ही साधन हो सकता है और बास्तव अपोनस्थ का अभाव व्यक्ति में सिद्ध है। इसी प्रकार सामान्य में अपौत्व हेतु से जो वस्तुत्य का आपादन किया गया है उसमें भी दो दोष है [१] मपोहत्य हेतु सामान्य में असिद्ध है और [२] अपस्तुभूत अपोह भी अपोहा होने से अपोवस्व में वस्तुत्व की अनेकान्तिकता (व्यभिचार) भी है। यदि यह कहा जाय कि 'अपोलो में भी वस्तुत्य है अतः व्यभिचार नहीं है' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उसमें धस्तत्वरूप साध्य के विपर्यय-अयस्तत्व के साधक हेतु के होने में कोई वाधक प्रमाण नहीं है। यत: विधिरूप से अपोयत्व होने पर भी अभावस्वरूप से अपोपत्व का अभाव है इसलिए अग्रस्तुत्व के साधक अनपोयत्व हेतु से सत्प्रतिपक्षित होने से अपोद्यत्व से वस्तुत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । [प्रतियोगि में वस्तुत्व का नियम असिद्ध ] बौद्ध कहता है कि यह भी बोद्धव्य है कि जैसे जैनमत में जगत् में प्रकृति, ईश्वर आदि से जन्यत्य का निषेध करने पर भी प्रकृति, ईश्वर आदि (जन्यत्व) में वस्तुत्य की आपत्ति नहीं होती उसी प्रकार अपोवादी मत में अभाव ( अवस्तुभूत मामान्य के) अपोह्य होने पर भी उसमें घस्तुत्व की आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि प्रतियोगिता वस्तुत्वनियत नहीं है। यह कहना कि- तदभाव का प्रतियोगित्व तदभावाभाषत्व रूप है अतः प्रतियोगी का वस्तुरूप होना पूत्र है'- ठीक नहीं है, क्योंकि तवभावाभावत्व के शरीर में प्रविष्ट तस्य अभावः' के अन्तर्गत तत् पद के उत्तर लगी हुयी मष्ठी के अर्थ का निर्वचन न हो सकने से प्रतियोगित्य का उक्त लक्षण मान्य नहीं हो सकता। अतः विशेषणत्व आदि की तरह प्रतियोगित्त्र भी काल्पनिक है। ऐसा स्वीकार करने में कोई बाधा भी नहीं है क्योंकि आभास मात्र से सिद्ध-केवल काल्पनिक के भी विधि-निषेध की उपपत्ति होती है। अभाषज्ञान में प्रतियोगिशाम कारण होने पर भी प्रतियोगी की प्रस्तुता नहीं सिद्ध हो सकती, क्योंकि अनाभास प्रतियोगिज्ञान को कारण मानने पर अनाभासत्व का भी कारणतावच्छेदक कोटि में प्रवेश होने से गौरव होगा। अत: सामान्य रूप से आशाम-अनाभास साधारण प्रतियोगितान कोही कारण मानना उचित है। अतः आभासात्मक प्रतियोगिशान से ही अभावशान की उपपत्ति होने से उक्त कार्यकारण भाव के आधार पर प्रतियोगी को वस्तु नहीं सिद्ध किया जा सकता । तस्वसंग्रह में कहा भी गया है कि-'मभाय-प्रभाव से भिन्न है, इस प्रकार अभाव का व्यावर्तन नहीं होता, जिससे कि उसकी मभावरूपता मापदग्रस्त कही जा सके, किन्तु भाय अभाषात्मक न होने से, अर्थापति से अभाव में भाव की अपोग्रता-भावमिन्नता इष्ट है । जो Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क.टीका-हिन्दीविवेचन ] [ २५१ अपोहाऽवलक्षण्ये गोरगोत्वप्रसकोऽपि वृथा, अश्वादिरूपागोवस्तुना गाँवस्तुनः स्वरूपतो बैलक्षण्यात् , अपोहभेद-सत्तयोश्च तथाविधवासनामूलविकल्पविषयत्वात् , कल्पितवृत्तान्तार्थाद्युपस्थित्यनुरोधेनाऽवस्तुन्यपि वासनोपगमात् । तदुक्तम्-[त० सं० १०८४ तः ८६ ] "अगोंतोविनिवृत्तिश्च गोविलक्षण इष्यते। भाव एव ततो नायं गौरगोमें प्रसध्यते ॥१॥ अवस्तुविषयेऽप्यस्ति चेतोमात्रनिनिर्मिता । विचित्रकल्पनाभेदरचितेष्विव वासना ॥२॥ ततश्च वासना भेदाद् भेदः सद्पतापि च । प्रकरप्यतेऽखपोहानां कश्पनारचितेष्विव ॥३॥" । यदपि ‘एवं वाचकाभिमतस्याप्यपोह्यस्याभावः, वासनाभेदात् , वान्यापोहदाद् वा सामान्यविशेषवाचिशब्दभेदानुपपत्तेः । न च प्रत्यक्षत एव शब्दानां कारणमेदाद् विरुद्ध धर्माध्यासाच्च भेदः जिस रूप नहीं होता वह उसका अपोन कहा जाता है। अभाव भावात्मक नहीं होता. अतः अभाष भी भाव का अपोध है, फिर भी उसमें वस्तुरूपता नहीं है। वस्तु में प्रकृति और ईश्वर आदि जन्यत्व का निषेध करने पर प्रकृति आदि जन्यत्व' वस्तु नहीं हो जाती। अत: अप्सत् के निषेध्य होने पर भी उसमें भावत्व की आपत्ति का क्लेश नहीं हो सकता" ॥ ३ ।। [गौ में अगोरूपता की आपत्ति का निरसन ] प्रस्तत सन्दर्भ में जो यह बात कही गयी है कि अपोहो में भेद न होने पर गो में भी अगोत्य की आपत्ति होगी' यह ठीक नहीं है। क्योंकि गो. अश्व आदि अगो से स्वरूपतः भित्र है । अतः स्वरूपमूलक भेद से गो की अगोरूपता बाधित हो जाएगी। सच तो यह है कि अपोहभेद तथा गो और अगो की पृथक् स्वरूप सत्ता दोनों विकल्पबुद्धि के विषय हैं। और यह बुद्रि दोनों की वासना से उत्पन्न होती है। यह कहना कि'विकल्प का विषय अवस्तु होता है, और अवस्तु में वासना की उत्पत्ति नहीं होती। अतः उक्त दोनों की विकल्पबुद्धि को वासनाजन्य बताना असङ्गत है'-ठीक नहीं है, क्योंकि यदि कोई ध्यक्ति किसी को किसी कल्पित घटना की कहानी सुनाता है तो श्रोता को कालान्तर में उस घटना की स्मृति होती है. अतः इस स्मृति के अनुरोध से अवस्तु में भी बासना का जन्म होना युक्तिसिद्ध है। तस्वसंप्रष्ट में कहा भी गया है कि "अगो से निवृस जो घिलक्षण गो की सिद्धि होती है वह स्वरूप से भी अगो से विलक्षण एक भाव ही है, अतः गो में भगोन्व की आपत्ति नहीं हो सकती ॥॥ जैसे विचित्र कल्पना से कल्पित कथा के विषयभूत अर्थों में बासना होती है उसी प्रकार चित्तमात्र-केवल विकल्प बुद्धि से निर्मित वासना अवस्तु में भी हो सकती है ॥२॥ इसलिए जैसे कलाना से रचित अर्थों में परस्पर भेद और विरक्षण सत्ता होती है उसी प्रकार अपोहों में भी परस्पर भेद और विलक्षण सत्ता, कल्पना के प्रभाव से हो सकती है, इस में कोई बाधा नहीं है ।। ३ ।।" [शब्द प्रतिपाद्य अपोह न होने की आपत्ति ] प्रस्तुत संदर्भ में यह भी एक बात कही जाती है कि वासदाभेद मौर वाच्य अपोह के भेद से सामान्यबाची 'गो' आदि शब्द और विशेषवाची धाधलेय' आदि शब्द का भेद अनुपपन्न होने से वाचक शम से प्रतिपाद्य अपोह का Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] [ शशस्त्रयाः स्त० ११८ प्रसिद्ध एवेत्युक्तानुपपत्तिरिति वाच्यम्, वाचकशब्दमजीकृत्यैवमुक्तेः, श्रोतृज्ञानावसेयस्य स्वलक्षणात्मनः शब्दस्याऽवाचकत्वात् , संकेतकालानुभूतस्य व्यवहारकाले चिरविनष्टत्वात् । अगम्यगमकत्वं चैवमवस्तुनोः शब्दाऽर्थयोः स्यात् , स्वपुष्प-शशशृङ्गवत् । न च मेघाभावाद् वृष्टयभावपतीतेनायमेकान्त इति वाच्यम् , विविक्ताकाशाऽऽलोकाद्यात्मकत्वाद् मेघाघभावस्य ' इति तदप्येतेनैव निरस्तम् , याच्या पोहस्येव वाचकापोहस्यापि प्रतिबिम्बात्मकस्य भेदव्यवस्थाऽविरोधात् , वाच्यवाचकापोइयोबयि वस्तुत्वेन भ्रान्तैरवसितत्वेन सांवृतवस्तुत्वादबस्तुत्वेनागम्यगमकत्वापादनस्याप्ययुक्तस्वात् । पारमार्थिकाऽवस्तुत्वेन पारमार्थिकगम्यगमकभावनिषेधे च सिद्धसाधनात् । तदुक्तम् [त०सं० १०८५] अभाष होगा। अर्थात् सामान्य अथवा विशेषधाची किसी पाचक शब्द के न होने से उसके वाच्य अपोह का भी अस्तित्व सम्भव नहीं हो सकता। यदि इस पर कहा जाय कि कारण भेद से और विरुद्ध धर्म के सम्बन्ध से सामान्य औपचाच मानों में भेद प्रसिद्ध है अत: वाचक शब्द के अभान से उसके प्रतिपाद्य अपोह्य के अस्तित्व के अभाव का कथन अनुपपन्न है' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि वाचक शब्द से बोध्य अपोन के अभाव का जो कथन किया गया है वह वाचक शब्द के अभाष के आधार पर नहीं, किन्तु वाचक शब्द का अस्तिय मानते हुए उसके बोध्य अपोह का अभाव बताया गया है और उसका कारण यह है कि जिस स्वलक्षण शब्द को श्रोता सुनता है उससे अपोह्य का बोध नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें सङ्केत सम्भव न होने से वह पाचक नहीं हो सकता, और जो शब्द सतकाल में अनुभूत होता है वह भी व्यवहारकाल से चिरपूर्व नए हो जाने से व्यवहारकाल में नहीं रहता । इस प्रकार फलतः शब्द और अर्थ के अवस्तुभूत होने से उनमें योध्य-योधक भाष ठीक उसी प्रकार असम्भव है जैसे माकाश पुष्प और शशशृङ्ग आदि शव और उनके अर्थ में है। यदि यह कहा जाय कि-'अबस्तुभूत मेघाभाष से अघस्तुभूत बृष्टि के प्रभाव का शान होने से यह नियम असिद्ध है कि अवस्तु में बोध्य-बोधक भाष नहीं होता' -तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि मेघाभाव विविक्त आकाश रूप होने से और वृष्टि का अभाव विविक्त भालोंक रूप होने से अस्तु में ही बोध्य - बोधकभाय हो सकता है । [ शब्दप्रतिपाय अपोह के अभाव की आपत्ति निरस्त ] किन्तु यह बात भी इसलिप. निरस्त हो जाती है कि जैसे वाच्य अपोह अर्थप्रतिबिम्ब रूप होता है उसी प्रकार याचक अपोह भी अर्थप्रतिबिम्बरुप होता है। अत: ग्राम्य अपोहो के समान याचक अपोहों में भी भेद का कोई बाधक नहीं है। भ्रान्त जन वाच्य और वानक अपोहों को बाद्यवस्तु के रूप में ग्रहण करते हैं। अतः ये दोनों सांवृत वस्तु रूप होते हैं। अत: उन्अवस्तु कह कर उनमें बांध्य-बोधकभाष का असम्भव बताना युक्तिसङ्गत यदि पारमाधिकरूप में अबस्त होने के कारण उनमें पारमाधिक योध्य-बोधकमात्र का अभाव सिद्ध करना अभिमत हो तो यह आवश्यक नहीं है, क्योंकि शब्द और अर्थ में पारमार्थिक बोध्य-बोधकभाष के अमान्य होने से मिदसाधन है । तत्स्यसंग्रह में कहा भी गया है कि'परमार्थतः न तो कोई पाच्य है और न कोई पाचक ही है, क्योंकि शवात्मक और अर्थात्मक सभी भावों के क्षणभङ्गुर होने से संकेतकाल और व्यवहारकाल में व्यापक कोई भी भाव नहीं हो सकता और उसके अभाव में वाच्य-वाचक्रभाष की सम्भावना ही कैसे हो सकती है!' गत नहीं है। और Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीधिवेचन ] [ २५३ " न वाच्यं वाचकं वास्ति परमार्थेन किञ्चन । क्षणभनिए भावेषु व्यापकत्ववियोगतः ॥ १ ।। इति ।" सांवृतगम्यगमकमावनिषेधे तु न तस्य सामर्थ्यम्, काल्पनिकेपु महाश्वेतादिशब्दार्थेषु व्यभिचारात्, शब्दस्वलक्षणस्यापि तत्राऽव्यापकत्वेनाऽवाचकत्वात्, कल्पनातो बोधापलापस्य च कर्तुमशक्यस्यात् । तदुक्तम्-[त० सं० १०२३] " तस्मात् तव्यमेष्टव्यं प्रतिविम्यादि सांवृतम् । तेषु तव्यभिचारित्नं दुनिबारमतः स्थितम् " |॥ २ ॥ 'द्वयम्' इति वाच्यं वाचकं च । 'प्रतिविम्बादि' इत्यादिशब्देन निराकारज्ञानाभ्युपगमेऽपि स्वगतं किश्चित् प्रतिनियतमनर्थेऽर्थत्वाध्यबसायिरूपं गृहीतम् । 'तेषु ' कल्पनारचितेप्वर्थेषु । 'सत् ' इति तस्मात् तस्य वाऽवस्तुत्वस्य हेतोः, [ व्यभिचारित्वंसद्यभिचारित्वम् । यदणहवादे नानादिशःदा दोषण-विशेप्यभावस्य सामानाधिकरण्यस्य च लोकप्रसिद्धस्यापहवः स्यात् , नीलोत्पलादिशब्दानां शवलार्थाभिधायित्व एव तदुपपत्तेः;- “ नहि तत् केवलं नीलम् , न च केवलमुस्पलम्, समुदायाभिधेयत्वात् "-इत्यादिना तेषां शबलार्थाभिधायित्वस्योपपादितत्वात् ' इति; तदपि न, नीलपदेन पीसादिव्यावृत्तपदार्थाध्यवसायिनो अमर-कोकिला__ यदि पारमार्थिक अवस्तु से सांवृत योध्य-बोधकभाव का निषेध अभिमत हो तो यह सम्भव नहीं है, क्योंकि पारमार्थिक अपस्तुत्व में सांवृत बोध्य-बोधकभाव के अभाव की व्याप्ति नहीं है। यतः बाणभट की कादम्बरी में काल्पनिक खी-पुरुष पात्रों के लिए प्रयुक्त महाश्वेता आदि शब्द और उनके अर्थ में सांत बोध्य-बोधकभाव होने से पारमार्थिक अवस्तत्व में सांवृत बाध्य बोधक भाव के अभाव का श्यभिचार है ।--'कादम्बरी के महाश्वेता आदि से सम्बद्ध प्रकरण में केवल अर्थ अवस्तु है. शब्द तो पारमार्थिक ही है' यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि महाश्वेतर आदि शब्दों से अर्थयोधकाल में स्वलक्षण महाश्वेता आदि शब्द के न रहने से वह महाश्वेता आदि पात्रों का वाचक नहीं है। 'उक्त शब्दों से अर्थयोध होता ही नहीं' यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि अनुभवसिद बोध का कल्पना से अपलाप नहीं किया जा सकता । तसंग्रह में कहा भी गया है कि 'स्वलक्षण शब्द का बलक्षण अर्थ में सक्षेतग्रह न होने से सतकाल में अनुभूत शब्द अर्थ के व्यवहारकाल में न होने से, वाच्य और धायक दोनों को सांवृत-काल्पनिक या प्रतिविम्यादि रूप मानना होगा । किं वा निगकारज्ञान के पक्ष में अर्थ रूप में गृहीत यत्किञ्चितस्यनिष्ठशान कप मानना होगा । अतः काल्पनिक अर्थ और शब्दों में गेध्य-बोधकमात्र के अभाव का व्यभिचार अनिवार्य है, किं वा अवस्तुत्व हेतु में 'योभ्यता और बोधकता के अभाव' का व्यभिचार अनिवार्य है। [लोकप्रसिद्ध विशेषण आदि भाव की उपपत्ति ] प्रस्तुत सन्दर्भ में एक बात यह भी कही गयी है कि-'अपोहबाद में नील और उन्पल शब्द के अर्थों में जो लोकमसिद्ध विशेषण-विशेष्यभाव तथा उन शब्दों में जो लोकप्रसिद्ध समान विभक्तिकत्व रूप सामामाधिकरण्य है, उसकी अनुपपत्ति होगी। क्योंकि नील और उत्पल शब्द द्वारा शबल का यानी उत्पल्यात्मक नील और नीलात्मक उत्पल का अभिधान मानने पर ही उसकी उपपति हो सकती है। जैसा कि “नील शब्द से वाच्य नील केवल नील ही नहीं है Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४] [शासवा० स्त. १२/८ अनादिषु संशय्यमानरूपस्य, उत्पलपदेन च भमरादिभ्यो व्यवस्छिद्यानुत्पलव्यावृतवस्तुविषये व्यवस्थाप्यमानस्य परिनिश्चितात्मकस्य विकल्पप्रतिविम्बस्य जननात् परस्परं व्यवच्छेदकव्यवस्थाभावाद् विशेषण-विशेष्यभावस्य, द्वाभ्यां स्वनीलाऽनुत्पलव्यावृतकप्रतिबिम्बात्मकवस्तुप्रतिपादनादेकार्यवृत्तिया सामानाधिकरण्यस्याप्यविरोधात् । परपक्षे तु तद्व्यवस्था दुर्घटा, तथाहि-विधिशब्दार्थपझे नीलादिपदेन नीलादिस्वलक्षणेऽभिहिते उत्पलाऽजनादिविशेषसंशयानुपपत्तिः, सर्वात्मना नीलस्याभिहितत्वात् , एकस्यैकदेकप्रतिपत्रपेक्षया ज्ञाताऽज्ञातत्वविरोधात् । एवमुत्पलादिशब्दप्रयोगाकाङ्कापि न स्यात् , तदर्थस्य नीलशब्देनैव (च्या)कृतत्वात् । न च नीलशब्देनैकदेशाभिधानादयमदोषः एकस्य वस्तुनो देशानुपपत्तेः, एवं उत्पल शब्द से ग्राच्य उत्पल केवल उत्पन्न ही नहीं है क्योंकि नील उत्पल समुदित रूप में नील और उत्पल शब्द के अभिधेय हैं । तसं. पञ्जिका इस प्रन्थ से यह स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है कि नील और उत्पल शब्द शबल अर्थ के घाचक है। किन्तु यह बात भी ठीक नहीं है, क्योंकि नील पद से पीत आदि अनील अर्थों से भिन्न अर्थ का जो शान होता है उसके विषय में यह सन्देश उत्पन्न हो जाता है कि 'नील शब्द से उत्पान समीर पिन्न रूप में भ्रमर को विषय करता है या कोकिल को विषय करता है अथया अनम को विषय करता है किंवा किसी और अन्य नील अर्थ को विषय करता है ? ' नील पद के साथ प्रयुक्त उत्पल पद से अनुत्पललयावृत्त रूप में 'भ्रमर आदि उत्पल भिन्न नील से विलक्षण' उत्पल का बोध होता है फलतः उत्पल पद, नील पद जन्य झरन को भ्रमर आदि से भिन्न नील उत्पल में व्यवस्थित कर देता है। इस प्रकार उत्पल पद के सहयोग से नील पक्ष द्वारा परिनिश्चित स्वरूप नीलोत्पल का विकल्पात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है। अतः नील और उत्पल दोनों के क्रम से नीलभिन्न उत्पल का और उत्पल भिन्न भ्रमर आदि का व्यवच्छेदक होने से दोनों में विशेषण-विशेष्य भाष उपपन्न हो सकता है। और नीलोत्पन्न रूप एक अर्थ के बोधन में मील उत्पल दोनों शब्दों का तारपर्य होने से दोनों में समान विभक्तिकस्त्र रूप सामानाधिकरण्य भी उपपन्न हो सकता है। बौद्ध विरोधि पक्ष में अनुपपत्ति ] पर पक्ष में यानी शबल अर्थ के अभिधान पक्ष में उक्त व्यवस्था नहीं हो सकती, क्योंकि नील शब्द से नीलत्व रूप से नीलोत्पल का बोध होने पर उत्पल, अञ्जन आदि अर्थों के उक्त बोध का विषय होने में संशय महीं हो सकता, क्योंकि नील पद से नील अर्थ सर्वात्मना भभिक्ति हो जाता है। एक साता को एक वस्तु में एक ही समय हातस्व और अज्ञातत्व का संशय नहीं हो सकता। इस मत में उत्पल शब्द के प्रयोग की आकाङ्का भी नहीं रह जाती है क्योकि उत्पल शब्द का अर्थ भी नील शब्द से ही उस हो जाता है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'नील शब्द से उसके अर्थ का पक देश ही अभिहित होता है। मतः उसके सर्वात्मना बोध के लिए उत्पल पद की अपेक्षा होती है' यह इसलिये शक्य नहीं है, कि नील पद का वाच्य अर्थ पक है और एक वस्तु में कोई देश नहीं होता, देश तो अनेक वस्तुओं में होता है। एकत्व अनेकत्व का तो परस्पर में विरोध है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि'नील और उत्पल शब्द से नीरत्व और उत्पनत्य विशिष्ट द्रव्य का भभिधाम होता है। और यह अभियान केवल नील पद था उत्पल पद से नहीं हो सकता। अतः नील पद की उत्पल. पर की और उत्पल पद को मील पद की सर्वमान्य आकार की अनुपपत्ति नहीं हो सकती' Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-मदीपिवेधन ) [ २५५ एकत्वा-ऽनेकत्वयोविरोधात् । न च नीलोत्पलपदाभ्यां नीलत्वोत्पलत्वविशिष्टद्रव्याभिधानाद् नाकाला झनुपपत्तिः, नीलशब्देनाधिकृतद्व्यस्य सर्वात्मनाभिधाने उत्पलश्रतेवैयर्थ्यप्रसङ्गस्य तदवस्थत्वात् । अर्थान्तरसंशयव्यवच्छेदायोत्पलश्रुतेः सार्थक्ये च भ्रान्तिसमारोपिताकारव्यवच्छेदमात्रस्यैव प्रतिपादने विध्यर्थपक्षक्षतेः, तद्विषयकनिश्चयचेतसस्त ['द्विषयकनिश्चयने ततस्त ] विषयकाऽऽरोपचित्तप्रतिबन्धकत्वेन संशयविषयस्य शब्दार्थत्वाऽयोऽगाच्च, समानप्रकारकतादेः प्रतिबन्धकतायां निवेशे गौरवात् । यचोद्योतकरणोच्यते-“निरंशमेक वस्तु सर्वात्मना विषयीकृतम् नांशेन ' इति विकल्पस्यैवानवतारः, सर्वशब्दस्यानेकार्थविषयत्वात्, एकशब्दस्य चावयववृत्तित्वात् " इति । तद् वाक्यार्थाऽपरिज्ञानविज़म्भितम्, 'नीलशब्देन सर्वात्मना तत् प्रकाशितम् ' इत्यत्र ‘सर्वात्मना' इत्यस्य 'स्वाभिघेयत्वव्याप्यस्वभाववत्त्वेन' इत्यर्थात्, कृत्स्नैकदेशविकल्पानुपपत्युद्धावनस्य तत्र वाक्टलमात्रत्वात् ; क्योंकि नील शब्द से अधिकृत द्रव्य का सर्वात्मना अभिधान हो जाने से उत्पल शब्द की निरर्थकता ज्यों की त्यों बनी रहती है। यदि उत्पल भिन्न भ्रमर आदि नील अर्थों के संशय के निगकरणार्थ उत्पल पद के प्रयोग की सार्थकता मानी जायगी तो उत्पल पद से भ्रम द्वारा आरोपित आकार के निषेध मात्र का ही प्रतिपादन होने से उसके भावार्थकत्व की हानि होगी। और दूसरी बात यह है कि उक्त रूप से उत्पल पद के प्रयोग की सार्थकता भी सभी हो सकती है जब नील पद से बोध्य अर्थ अमर आदि के रूप में संदिग्ध हो, किन्तु यह सम्भव नहीं है, क्योंकि नील पद से उत्पन्न नीलनिश्चयात्मक चिस ही उत्पल पद के सहयोग से नीलोत्पल का निश्चायक होता है। अतः उस चिस से उसके विषयभूत नील में भ्रमर आदि रूपता के आरोपात्मक चिस का प्रतिबन्ध हो जायेगा। यदि यह कहा जाय कि-'उत्पल पद के समिधान से नीलनिश्चयात्मक चित्त नीलत्य रूप से ही नील का ग्राहक है अतः उससे नील में अमर भादि रूपता के आरोपात्मक चित्त का प्रतिबन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि विरोधी वस्तुओं के समानप्रकारक शान में ही प्रतिबध्य-प्रतिबन्धक भाव होता है' -तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि समान प्रकारकत्व का प्रतिबध्य-प्रतिबन्धक भाव के गर्भ में निवेश करने में गौरव है। [ उद्योतकर प्रयुक्त अनुपपत्ति का निरसन ] इस सन्दर्भ में उद्योतकर ने जो यह बात कही है कि-"निरंश एक व्यक्ति रूप वस्तु के विषय में इस विकल्प का उस्थान नहीं हो सकता कि 'नील आदि पद से वस्तु सर्वात्मना अभिहित होती है अंश-एक देश से नहीं ।'-क्योंकि 'सर्व' पद अनेकार्थक होने में एक वस्तु के विषय में 'सर्वात्मना' कथन मसंगत है। एवं वस्तु के निरश होने से यह अंश-एक देश से अभिहित नहीं होती' यह कथन भी असंगत है। यत: 'एक देश' शब्द अवयव में प्रयुक्त होता है किन्तु यह कथम बाक्यार्थ के अज्ञान का फल है। क्योंकि 'सर्वात्मना' शब्द से इस अर्य का प्रतिपादन अभिप्रेत है कि वस्तु का स्वभाय नील आदि पद के अभिधेयस्व का व्याप्य है। फलतः नील आदि पद से वस्तु का अभिधान होने पर वह किसी रूप में अनभिहित नहीं रह जाता। इसलिए उद्द्योतकर द्वारा उक्त ग्रन्थ से वस्तु के सम्बन्ध में कृत्त (=समप्र ) १-अधि कोऽयं पाठः पूर्वमुद्रिते किमुद्रित इव प्रतिभाति । न विद्यते हस्तादर्श । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ । [शासवा० सं० ११/८ विशेषणशब्देन तादृक्षस्यैव तद्वस्तुनोऽभिहितत्वेन विशेष्यशब्दप्रयोगानुपपत्तेः, प्रयोगे वा पर्यायताऽऽपातात् तदुक्तम्- [प्र. वा० ३-५० ] " अन्यथैकेन शब्देन व्याप्त एकत्र वस्तुनि । बुद्ध्या वा नान्यविषय इति पर्यायता भवेत् ॥१॥” इति । अस्मत्पक्षे तु नायं दोषः, नीलोत्पलश्रतिजनितपतिविम्वाभ्यामनीलाऽनुत्पलव्यावृत्तस्याध्यसितबाह्यकरूपस्य विकल्पप्रतिबिम्बस्यानुरोधात् सांवृत्तसामानाधिकरण्योपपत्तेः, उभयोरभिन्नप्रतिविम्बजनकत्वरूपपर्यायत्वाऽयोगात् । यदपि 'लिक संन्या-क्रिया-कालादिभिः संबन्धोऽपोहस्याऽवस्तुत्वादयुक्तः, न च लिङ्गादिविविक्तः पदार्थः शक्यः संबन्धेनाभिधातुम् ; न च व्यावृत्याधारभूताया व्यक्तेस्तुत्वात् लिङ्गादिसंबन्धात् तदद्वारेणापोहस्याप्यसौं व्यवस्थाप्यः, व्यक्तनिर्विकल्पकज्ञानविषयत्वालिसंख्यादिसंबन्धेन भौर पक देश के विकल्प का उमावन किया जाना वाक्छल मात्र होने से नितान्त अनुचित है। यह भी शातव्य है कि विशेषण बोधक शब्द से विशेषण विशिष्ट विशेष्यभूत वस्तु का ही अभिधान होने पर विशेष्य बोधक पद के प्रयोग की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती । अपित उसका प्रयोग करने पर उससे भी विशेषण शब्द से बोध्य अर्थ काही बोध होने से विशेषण-विशेष्य बोधक पदों में पर्यायता की आपत्ति होती है प्रमाणवात्तिक में भी कहा है कि 'अन्यथा-नील आदि शब्दों को शबल अर्थ का अभिधायक मानने पर एक शब्द एवं तज्जन्य बोध से समग्र यस्तु की ध्याप्ति हो जाने से शब्दान्तर का कोई अन्य विषय न रह जाने से विशेष्य-विशेषण बोधक नील उत्पल आदि शब्दों में पर्यायता की आपत्ति होगी।' बौद्ध विद्वानों का कहना है कि उनके अपने मत में यह दोष नहीं है क्योंकि उनके मतानुसार नील पद और उत्पल पद के श्रवण से भिन्न दो प्रतिबिम्बों का जन्म होता है और उनसे एक पेस विकल्प प्रतिबिम्ब का उदय होता है जो अनील व्यावृत्त और अनुत्पलव्यावृत्त एक कल्पित बान मर्थ को ग्रहण करता है। इस विकल्प प्रतिबिम्ब के कारण ही नील और उत्पल पद में सामानाधिकरण्य होता है जो वास्तष न होकर सांवृत (काल्पनिक) होता है; क्योंकि उसका कारण, सांवृत बाय अर्थ को ग्रहण करने वाला प्रतिनिम्ब होता है। इस मान्यता के अनुसार नील, उत्पल आदि शम्दों में पर्यायता नहीं हो सकती, क्योंकि पर्यायता का अर्थ है अभिन्न प्रतिबिम्ब की जनकता, मो नील उत्पल आदि शब्दों में नहीं है। [ लिंगादि के साथ अपोह का सम्बन्धविचार ] अपोह के प्रस्तुत सन्दर्भ में एक यह भी बात कही गयी है कि-'अपोह अवस्तुभूत है, अत: लिङ्ग-संख्या-क्रिया-काल आदि के साथ उसका सम्बन्ध अयुक्त है। क्योंकि जो पदार्थ बिज आदि से शून्य है उसे लिङ्ग आदि से सम्बद्ध कहना शक्य नहीं है। यदि यह कहा जाय कि 'मतदुव्यावृत्ति का माधारभूत व्यकि वास्तविक है, उसके साथ लिक आदि का सम्बन्ध होने से उसके द्वारा अपोह के साथ भी लिङ्ग आदि के सम्बन्ध की उपपसि से सकती है' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि व्यक्ति निर्विकल्पक ज्ञान का विषय होता है। अतः उसे सित Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ ૭ व्यपदेष्टुमशक्यत्वात्, अपोहस्य तद्द्वारेण तद्व्यवस्था सिद्धेः' इति तदपि लिङ्गादीनां वस्तुधर्मत्वे शोभते, न तु स्वतन्त्रेच्छाविरचित संकेतशालित्वेन काल्पनिकरवे । वस्तुत्वे च लिस्यैकत्र तटाख्ये वस्तुनि लिङ्गत्रययोगात् त्रैरूप्येण सदा शबलप्रतिपत्तिप्रसङ्गः । विवक्षावशादेकरूपपतिपत्त्युपगमे च तस्याव्यात्मक वस्तुविषयताया अनुपपत्तिः, तदा कारशून्यत्वात् चक्षुर्विज्ञानस्येव शब्दविषयतायाः । यन्तु 'संस्थान स्थिति स्त्री-पुंनपुंसकव्यवस्था' इति तत्र तादिवदन्यत्राप्येवमविशेषेण त्रिलिनतापतेः स्थित्यादिषु खरविषाणादिषु च तदभावेऽपि ' स्थितिः स्थानम्, , संख्या आदि से सम्बद्ध रूप में व्यवहृत नहीं किया जा सकता। क्योंकि जो वस्तु जिस रूप में ज्ञात नहीं है उस रूप में उसका व्यपदेश नहीं होता। अतः व्यक्ति द्वारा अपोह में दिनसंख्या मादि के सम्बन्ध की उपपत्ति नहीं हो सकती - किन्तु यह बात भी तभी समीचीन हो सकती है जब लिङ्ग संख्या आदि वस्तुभूत धर्म हो, न कि स्वतन्त्रेच्छा द्वारा संकेतित होने से काल्पनिक होने पर। और यदि लिङ्ग संख्या आदि को वस्तुभूत धर्म माना जायगा तो तट नाम की एक वस्तु स्त्रीलिङ्ग और पुंलिङ्ग तथा नपुंसक लिङ्ग तीनों का सम्बन्ध होने से तीनों लिङ्गों के साथ उसकी सदैव शबल प्रतीति की आपत्ति होगी। यदि विषक्षा के अनुरोध से एक काल में किसी एक ही लिङ्ग से युक्त तट की प्रतीति मानी जायगी तो जैसे शब्दाकार से शून्य होने के कारण चक्षुर्जन्यज्ञान शब्दविषयक नहीं होता उसी प्रकार लिङ्गत्रय के आकार से शून्य होने के कारण एक लिङ्गमात्र से युक्त तट की प्रतीति लिङ्गत्रय युक्त वस्तु विषयक न हो सकेगी। जबकि तटविषयक सभी प्रतीति तट के लित्रयशाली होने से लिङ्गत्रय युक्त वस्तु विषयक होनी चाहिये ! [ शब्दों के स्त्री-पुं- नपुंसकता का निरसन ] ' इस प्रसङ्ग में यह कहना कि ' स्थिति में स्त्रीलिङ्ग, प्रसव में पुलिङ्ग और संस्थान में नपुंसक लिङ्ग व्यवस्थित है । अतः उनमें और उनके सदृश अन्य पदार्थों में बिलिङ्गता की प्रतीति नहीं हो सकती ठीक नहीं है। क्योंकि तट आदि के समान अन्य अर्थों में भी समान रूप से विलिङ्गता की आपत्ति अनिवार्य है। स्थिति आदि में और खर-धूम आदि में त्रिलिङ्गता का अभाव होने पर भी स्थिति, स्थान और स्वभाव शब्दों से स्थिति में, और अस्वभाष, निरुपाख्य और तुच्छता शब्द से खर-शृङ्ग में लिङ्गमय की प्रतीति देखी भी जाती है। किसी अन्य का यह कहना कि 'स्त्रीत्व आदि भी गोत्र आदि के समान सामान्य विशेष रूप है' ठीक नहीं है। क्योंकि गोरव आदि सामान्यविशेषात्मक पदार्थों में अन्य सामान्यविशेष के अभाव में भी जाति, भाव और सामान्य शब्द स्त्रीत्व आदि की प्रतीति होती हैं। यदि खोत्व आदि भी सामान्यविशेष रूप होते तो गांव आदि में जैसे अन्य सामान्यविशेष नहीं रहता, उसी प्रकार उनमें स्त्रीत्व आदि को भी नहीं रहना चाहिए | [ वैयाकरण मतानुसार जाति में जाति मान्य ] यदि यह कहा जाय कि 'सामान्य में भी सामान्य का होना इष्ट है। क्योंकि वैयाकरण के मत में जाति को अनुगताकार बुद्धि रूप प्रत्यय, अनेक व्यक्तियों में एक रूप से प्रयुक्त होने ३३ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८] [ शासवार्ता स्त. १९/८ स्वभावः, अस्वभावः, निरुपाख्यम् , तुच्छता' इत्यादिशन्दैलिमन्त्रयप्रतिपत्तिदर्शनाच्च । 'स्त्रीत्वादयो गोत्वादय इव सामान्यविशेषाः' इत्यन्यः; तदपि न, तेष्वेव सामान्यविशेषेष्वन्तरेणाप्यपरं सामान्यविशेषं 'जातिः, भावः, सामान्यम् ' इत्यादेः स्त्री-पु-नपुंसकलिङ्गस्य प्रवृत्तिदर्शनात् । यदि तु सामान्यस्याप्यस्यापराणि सामान्यानीष्यन्ते वैयाकरण:-प्रत्ययामिधानान्वयव्यापारकार्योन्नीयमानरूपा हि जातयः; न हि तासां शास्त्रान्तरपरिदृष्टा नियमव्यवस्थति; तदुक्तम्- [वा०प० ३-१-११) "अर्थजात्यभिधानेऽपि सर्वे जातिविधायिनः । व्यापारलक्षणा यस्मात् पदार्थाः समवस्थिताः ॥१॥ इति ।" तथाप्यवस्तुनि लिङ्गप्रतीत्यनुरोधाद् व्याकरणनियन्त्रितपरिभाषाविशेषप्रतिसंधानमहिम्नाऽर्थप्रति घाले शब्द रूप अभिधान और अन्वयध्यापार यानी पदार्थसंसर्गग्राही बोध रूप कार्यों से जाति को अनुमेय माना जाता है। अतः उक्त कार्यात्मक लिङ्ग, जाति आदि में भी सम्भव होने से जाति में भी जाति की अनुमति के निर्बाध होने के कारण जाति में जाति के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। जिप्त मत में भावकार्य के कारणतावच्छेदक रूप में अथवा भावनिष्ठ कार्यता के अयच्छेदक रूप में जाति की अनुमिति होती है उस मत में ही सामान्य आदि में उक्त कारणता और कार्यता के न होने से उन में जाति के होने में बाधा हो सकती है। किन्तु जानि के सम्बन्ध में उस मत में माने हुए नियम एसे मत में लागू नहीं हो सकते कि जिस में प्रत्यय, अभिधान आदि से जाति की अनुभेयता मान्य हो, जैसे कि गोत्वं जातिः गजत्वं आतिः, अश्वस्त्र जातिः आदि अनुगत बुद्धि, पवं गोत्व आदि में प्रयुक्त जाति शब्द, तथा 'जातिः नित्या' इस प्रकार के 'जाति'शब्दार्थ में नित्य 'शब्दार्थ के अभेद संसर्गग्राही बोध से गोत्र आदि जाति में आतित्व सिद्ध होता है, और इसीलिये इस मत में उसे जात्यात्मक मानना उचित प्रतीत होता है। वाक्यपदीय की कारिका में कहा भी गया है कि-" यद्यपि 'गो' आदि शब्द से गो आरि अर्थों में विद्यमान गोत्व मादि जाति का ही अभिधान होता है। तो भी इससे यह नहीं कहा जा सकता कि 'गो आदि शब्द ही जाति के अभिधायक हैं। और गो आदि अर्थों में ही जाति रहती है' किन्तु सभी शब्द जाति के अभिधायक होते हैं, और उन शब्दों के अर्थ जाति के आश्रय होते हैं क्योंकि पदार्थ व्यापार ( =प्रयोजन) से शाप्य माने जाते हैं। अर्थात् जिस पर से जिम अर्थ का बोध होता है वही उस पद का अर्थ होता है, यही सर्वाभिमत मत है।" अत असे गो आदि शब्दों से गो आदि अर्थ का बोध होने से गो आदि अर्थ 'गो' आदि पद का वाच्यार्थ माना जाता है उसी प्रकार जाति पद से गोत्य, गजत्व आदि का बोध होने से गोल्ब-गजत्व आदि भी पद का घाख्यार्थ है । और जैसे मौ: नलति-गौः कृष्णा' इत्यादि शब्दों से होने वाले अन्य बोध के अन्ययितावच्छेदक रूप में गोत्व आदि की सिद्धि होती है, और उन जाति माना जाता है, उसी प्रकार “जातिः नित्या, ' 'जातिः प्रमेया' इत्यादि शब्दों से होने वाले बांध में अन्वयितावच्छेदक रूप से जातित्व का भान होता है। अत: उसे भी जाति मानना उचित है। [ वैयाकरण मत के ऊपर बौद्ध की मीमांसा ] ध्याकरण के मतानुसार जाति में जाति आदि के अस्तित्व का उक्त रीति से औचित्य Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था, क.टीका-हिरवीषिवेधन ] विम्वपतिवन्धसांवृत्तलिकोत्पत्तिरेव वक्तुं युक्ता । न चैवं विरुद्धलिङ्गयुताद् घटादिपदाद् नियतलिङ्गोत्पत्तिर्मा भूत् , घटाद्यर्थप्रतिविम्वोत्पत्तिस्तु स्यादिति वाच्यम् , रूपादिसामग्रीयिरहे घटानुत्पत्तिवद् नियतलिङ्गसामग्रीविरहे नियतार्थप्रतिबिम्यानुत्पत्तेः । संख्याया अपि वास्तवत्वे 'आपः, दाराः, सिकताः, वर्षाः । इत्यादावसत्यपि वस्तुनो भेदे बहुत्वसंख्या प्रवर्तमाना न घटेत; नापि 'वनम् , त्रिभुवनम्, जगत्, पण्णगरी' इत्यादिप्वसत्यप्यभेद एकत्वसंख्या ध्यपदिश्येत । अर्थकदार-व्यक्तावप्यवयवगतबहुल्बमादाय बहुत्वव्यपदेशः, वनशब्देऽपि धादिव्यक्तिगतजात्येक्यमादायकत्वध्यपदेशः; भाक्तं वा तत्रैकत्वमिति चेत् ? न, एक-बहुवधू-वृक्षार्थे वधूवृक्षादिपदेऽपि बहुत्वैकत्वप्रसक्तेः; प्रतीत होने पर भी वास्तव में यह मानना अधिक युक्तिसङ्गत है कि अवस्तुभूत अपोह में, लिङ्ग की प्रतीति के अनुसार व्याकरणस्वीकृत परिभाषा के आधार पर अर्थ में लिङ्ग आदि का सम्बन्ध न मानकर अर्थप्रतिविम्ब में ही काल्पनिक लिएकी उत्पत्ति मामी जाय। कहने का आशय यह है कि अर्थ तो दर असल क्षणिक स्वलक्षण मात्र होता है और उसी की वास्तविक ससा है। किन्तु उसका प्रतिबिम्ब जो विशिष्ट वुद्धि, शब्दसङ्केत तथा ग्रहण त्याग मादि व्यवहार का विषय होता है वह अवस्तु होता है। उसी में लिङ्ग आदि की प्रतीति होती है। अतः यह मानना युक्तिसङ्गत है कि वह प्रतीति उसमें काल्पनिक लिङ्ग आदि की उत्पत्ति होने से होती है। यदि यह शङ्का की जाय कि-'पुंलिङ्ग आदि से विरुद्ध स्त्रीलिङ्ग से युक्त 'घर' आदि पद से नियत लिन वोडिङ्गादि की कमी होने ५३ भी उस घट आदि अर्थप्रतिबिम्ब की उत्पत्ति होनी चाहिए जिसकी उत्पत्ति 'घ' आदि पद पंलि यक्त होने पर 'घट' आदि पद से होती हैं' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे घर आदि नियमेन रूपादिविशिष्ट होने के कारणा, रूप आदि की सामग्री न रहने पर घट आदि की उत्पत्ति नहीं होती, इसीप्रकार नियत लिक की सामग्री के अभाव में उस घटादि अर्थप्रतिबिम्व की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती, जिसकी उत्पत्ति नियत लिङ्ग की सामग्री होने पर होती ।। [ संख्या की काल्पनिकता ] लिङ्ग के समान ही संख्या को भी काल्पनिक मानना उचित है क्योंकि संख्या यदि वास्तविक हो तो पक जलविन्दु, एक स्त्री, एक सिकता-कण और एक वर्षा बंद के लिए क्रम से बहुयमनान्त 'अ' शब्द, 'दार' शब्द, 'सिकता' शब्द और 'घ' शब्द के प्रयोग सङ्गत नहीं हो सकते । क्योंकि एक-एक जल आदि में वास्तव बहुत्य संख्या बाधित है। किन्तु उक्त प्रयोग होता है। अतः उसकी उपपत्ति पक-पक जल आदि में फाल्पनिक बहुत्व संख्या मान कर ही करनी होगी। इसीप्रकार संख्या को पास्तधिक मानने पर वन, त्रिभुवन, जगत् , षण्णगरी आदि शब्दों का एकवचनान्त प्रयोग भी सङ्गत नहीं हो सकता, क्योंकि धन आदि शब्दों के अर्थ अनेक हैं. अत: उनमें वास्तव एकत्व संख्या सम्भव नहीं है। इसलिए एकवचनान्त बन आदि शब्दों के प्रयोग की उपपत्ति भी उनके अर्थों में काल्पनिक पक्रत्व के द्वारा ही करनी होगी । यदि यह कहा जाय कि-'पक स्त्री में भी उसके भजनों के बहुत्व से एक नो में भी Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] [ शानधाता स्त० ११/८ विवक्षाऽभावात् तत्र तदप्रसक्तौ च विवक्षाया बहुत्वादिप्रतीत्युत्पादकत्वापेक्षया साँवृतबहुत्वाधुत्पादकत्वकल्पनाया एबौचित्यात ; अन्यथा घट-वनादिष्वेकाकारकत्वप्रत्ययानुपपत्तेः । क्रिया कालयोरपि वस्तुत्वे 'सत्ताऽस्ति, विद्यमानकालोऽस्ति' इत्यादो स्वस्मिन् स्वपतीत्यनुपपत्तिः, सांवृतत्वे तु तादृशभेदमादायोपपत्तिरिति द्रष्टव्यम् । __यदपि 'आख्यातेप्वन्यनिवृत्तेरसंप्रत्ययादव्यापिन्यपोहव्यवस्था ' इति; तदपि न, जिज्ञा. सितेऽर्थे शब्दप्रयोगेणा ष्टार्थप्रतिपत्तो सामर्थ्यात्, उत्सर्गतोऽनीष्टव्यवच्छेदप्रतीतेः __ " तथाहि-पचतीत्युक्ते नोदासीनोऽवतिष्ठते । भुङ्क्ते दीव्यति वा नेति गम्यतेऽन्यनिवर्तनम् ।।" [त० सं० ११४५] बहुत्वव्यवहार के लिए बहुषचनान्त 'दार' शब्द का प्रयोग हो सकता है, एवं वन शर के अनेक वृक्ष रूप अर्थ में भी वन के घटक घव आदि. वृक्ष की ववत्व आदि जाति के एकत्व से वृक्ष समूह में विधमान बुद्धिविषविषयत्व रूप लाक्षणिक पकत्व से एकत्व व्यवहार के लिए एक वचनान्त वन आदि शब्द के प्रयोग की उपपत्ति हो सकती हैं। -तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि उक्त रीति से एक व्यक्ति में बहुत्य व्यवहार और अनेक व्यक्ति में एकत्व व्यवहार के लिए बहुवचनान्त और पकवचनात शब्द का प्रयोग मानने पर एक वध के लिए बहुवचनान्त वधू शब्द के और अनेक वृक्षों के लिए पकवचनान्त वृक्ष शब्द के प्रयोग की भी आपत्ति अपरिहार्य होगी। यदि यह कहा जाय कि-'शब्द का प्रयोग विवक्षा के अधीन होता है, अतः एक वधू में वधू शब्द से बहुत्व की विवक्षा न होने से बहुवचनान्त वधू शब्द एवं अनेक वृक्ष में वृक्ष शब्द से पकत्य की विवक्षा न होने से एकवचनान्त वृक्ष शब्द के प्रयोग की आपत्ति नहीं हो सकती' -तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि यह उत्तर बहुत्य-एकत्व आदि की विधक्षा को बहुत्य पकत्व आदि के बोध का कारण मानने पर ही सम्भव है। अत: विवक्षा को सख्या का बोधक मानने की अपेक्षा सांवृत मख्या द्वारा ही संख्या बोध मानना उचित होने से उक्त उत्तर सङ्गत नहीं हो सकता। इस सन्दर्भ में यह भी ध्यान देने योग्य है कि यदि कहीं एकत्व की प्रतीति व्यक्तिगत एकत्व(-वास्तव एकत्व) और कहीं जातिगत एकत्व किंवा भाक्त एकत्व से मानी जायगी तो 'एकः घटः' और 'पक धनं' इस प्रकार पकत्व की पकाकार प्रतीति न हो सकेगी। क्योंकि उक्त प्रतीतियों के विषयभूत पकत्व में एक रूपता नहीं है। लिङ्ग संख्या आदि के समान किया और काल को भी काल्पनिक मानना उचित है । यदि उन्हे वास्तविक माना जायगा तो एक बस्तु में आधाराधेय भाव न होने से सत्ता में अस्तित्व का एवं विद्यमान काल में अस्ति शब्द से वर्तमान कालवृत्तित्व का बोध न होगा क्योंकि सत्ता और अस्तित्व एवं विद्यमान काल और वर्तमान काल में परस्पर भेद नहीं है। किया काल को काल्पनिक मानने पर यह दोष नहीं हो सकता क्यों कि उक्त काल्पनिक क्रिया और काल में काल्पनिक क्रिया और काल का भेद मानने से उक्त दोष का परिहार हो सकता है। [ अपोह की अध्यापकता का निरसन ] अपोह के शब्दार्थपक्ष में यह एक दोष दिया जाता है कि-आख्यात तिला प्रत्यय से अन्य Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] C [ २६१ यच्च पचति' इत्यनिषिद्धं तु स्वरूपेणावतिष्ठते 37 [ लो० ० वा० अपो० ४० १४० ] इत्युच्यते तत्र स्ववचनन्यायात एव एवकारेणान्यरूपनिषेधस्यैवोपदर्शनात् । यदपि " पचति 'इत्यादौ पूर्वापरी मृतावयवक्रियात्वरूपस्य साध्यत्वस्य अभूद् भविष्यति' इत्यादौ च भूतादिकालविशेषस्य प्रतीतिरपोहवादे न स्यात्, अपोहस्य निष्पन्नत्वात् ' इत्युच्यते तदपि न, निरुपाख्ये वाह्यवस्तुस्वारोपेण निवृत्ति का बोध नहीं होता । अतः अपोह की कल्पना व्यापक नहीं हो सकती । अर्थात् सभी शब्दों से अपोह होता है यदर्ती वन' किन्तु यह ठीक नहीं है. क्योंकि शब्द का प्रयोग जिज्ञासित अर्थ में होता है। अतः उससे अभीष्ट अर्थ की प्रतीति शब्दसामर्थ्य से होती है अनभीष्ट का निषेध तो उत्सर्गतः होता है, क्योंकि अभीष्ट की प्रतीति अनभीष्ट की निवृत्ति के साथ ही सम्भव होती है। शब्द से अर्थप्रतीति की इस व्यवस्था के अनुसार तत्वसंग्रहकारने यह कहा है कि-' पचति' इत्यादि तिङन्त स्थल में केवल यही प्रतीति नहीं होती कि अमुक व्यक्ति पाक सम्पन्न कर रहा है, अपितु यह भी प्रतीति होती है कि अमुक व्यक्ति निष्क्रिय नहीं है, और न भोजन ही कर रहा है तथा न खेल ही रहा है । ' इससे स्पष्ट है कि 'पचति' से निष्क्रियता, भोजन किया. क्रीडा आदि की निवृत्ति के योध के साथ पाकक्रिया के कर्तृत्य का बोध होता है । यदि यह कहा जाय कि निषेध बोधक शब्द के बिना पचति मात्र का प्रयोग करने पर किसी निषेध की प्रतीति नहीं होती अपितु पचति' शब्द का अर्थ अपने स्वरूप मात्र से ही अवगत होता है तो यह कथन अपने ही वचन के व्याघात दोष से ग्रस्त हो जाता है । F 7 इस अवधारण गर्भित कथन से अतः उससे अन्य निवृत्ति का बोध न स्पष्ट ही 'स्व' का व्याघातक है । अन्य स्वरूप के निषेध' की होकर 'पति' शब्दार्थ के 66 क्योंकि ' स्वरूप मात्र से ही अवगति हो ही जाती है। स्वरूप मात्र का प्रतिपादन [ साध्यत्वादि की उपपत्ति ] इस सन्दर्भ में एक यह भी दोष दिया जाता है कि अपोह को शब्दार्थ मानने पर 'पचति' शब्द से पाक में पूर्वोत्तर भागपत्र कियात्व रूप साध्यत्व की प्रतीति नहीं हो सकती, एवं 'अभूत् ' शब्द से भूतकाल तथा 'भविष्यति' शब्द से अनागत काल की प्रतीति नहीं होगी। क्योंकि कमिक किया समुदाय, भूतकाल एवं अनागतकाल अनिष्पन्न होता है और भदोह निष्पन्न होता है। अतः अपोह को शब्दार्थ मानने पर शब्द से अनिष्पन्न के बोध की उपपत्ति नहीं हो सकती ' किन्तु यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि अपोह अवस्तु है, अतः उसमें बाच वस्तुत्व का आरोप होने से निष्पन्नस्य का जैसे आरोप होता है, उसीप्रकार उसमें साध्यत्व, भूतत्व एवं अनागतत्व आदि का भी आरोप निर्वाध रूप से हो सकता है। ऐसा मानने पर यह आपत्ति नहीं हो सकती कि ' अवस्तु में वाध वस्तुष के आरोप से अन्य धर्मों का आरोप मानने पर साध्य में सिद्धत्य का, सिद्ध में साध्यस्व का अतीत में अनागतत्य का और अनागत में अतीतत्व का आरोप भी प्रसक्त होगा। क्योंकि इन अर्थों की प्रतीति के लिए जो शब्द शास्त्र में नियम माने गये हैं वे अवस्तु में भी इन अर्थों की प्रतीति में अपेक्षित है। अतः जैसे वस्तुबादी के मत में साम्य आदि में सिद्धत्व आदि का बोध नहीं होता उसीप्रकार अवस्तुवादी के मत में भी साध्य आदि रूप से प्रतीति योग्य अत्रस्तु में सिद्धत्व आदि की भी प्रतीति नहीं हो सकती । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शासवा० स्त० ११८ निष्पन्नत्वादिधर्मारोपवदेव साध्यत्वादिधर्मारोपस्याप्युपपत्तेः सांवृतार्थप्रतिपत्तिविशेधे शास्त्रकृतनियमा पेक्षणेन चानतिप्रसङ्गात् । यदपि 'विध्यादावन्यापोहनिरूपणम्, 'न न पचति चैत्रः' इत्यत्र च नाऽपरेण नत्रा योगेनैकापोहः, प्रतिषेधद्वयेन च विधिरेवावसीयते' इति तदपि न, विध्यादेरर्थस्य निषेध्यादपि व्यावृत्ततयाऽवस्थितत्वात् , नद्वयस्थलेऽपि नअन्तराभ्यामवसेयस्यान्यापोहस्य जागरुकत्वात् । तदुक्तम्[त.सं.११५६-५७] " मासौ , मशीको नमो पचतीति हि । औदासीन्यादियोगश्च तृतीये नञि गम्यते ॥ १ ॥ तुर्थे तु तद्विविक्तोऽसौ पचतीत्यवीयते । तेनात्र विधिवाक्येन सममन्यनिवर्तनम् ॥२॥" यदपि 'चादीनामसंबन्धवचनत्वाद् नब्योगाभावेन तत्रान्यापोहस्याऽव्यापकत्वम् ' इति; तदपि न, नयोगेऽपि तत्र सामर्थ्यादन्यनिषेधपतीत्यबाधात् । तदाहः-[ त० सं० ११५८ ] [ 'पचति' से अन्यापोह के बोध की उपपत्ति ] इस प्रसङ्ग में एक यह जो दि बतायी जाती है कि-'विधि भावात्मक अर्थ के प्रत्यायक 'पति' इत्यादि से अन्यापोह, 'पाककर्तृत्व से अन्य अपाककर्नत्य के अपोह' का बोध नहीं होता। और यदि 'पति' के स्थान में न न पचति चन:' का प्रयोग किया जाय तो उससे भी दो नत्र का बोध होने से अपोह का बोध नहीं हो सकता। क्योंकि दो प्रतिषेध का संबंध भाव में ही पर्यवसान होता है किन्त यत ठीक नहीं है। क्योंकि विधि (-भायात्मक) अर्थ, मिषेय (-स्वभिन्न से ध्यावत होकर ही ध्ययस्थित होता है। अतः मत: : पति ' कहने से 'न पचति' शब्दार्थ के निषेध के साथ ही 'पचति' शदा) का बोध होता है। और इसी सातत्य में जो यह बात कही गयी है कि 'न न पचति चत्रः' कहने पर दो नञ् का सम्बन्ध होने के कारण अपोह का बोध नहीं होगा, वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक नञ् से दूसरे नार्थ के अपोह (-व्यावृत्ति) का बोध सुस्पष्ट है। इसलिए दो नत्रों के योग होने से अपोह के बोध का निषेध करना युक्तिसङ्गत नहीं है। तत्यसंग्रह में कहा भी गया है कि 'असौ न न पचति-अमुक व्यक्ति पाक नहीं करता ऐसा नहीं है-ऐसा कहने पर पति शब्द से पाक क्रिया कर्तुत्य रूप भावात्मक अर्थ का बोध होता है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि जैसे अपोहवादी के मत में 'अयं गौः' कहने पर 'अयं न अगो:' कथित होता है जिससे 'गो' शब्द के शरीर में ही दो नत्र के प्रवेश की सूचना मिलती है। उनी असौ पचति-अमक ध्यक्ति पाक करता है. कहने पर 'असौ न न पचति-अमक व्यक्ति पाक नहीं करता एसा नहीं है' कथित हो जाता है। इस प्रकार 'पति' शब्द के भीतर ही नद्धय का समावेश है और अब 'असौ न न पति' कहा जाता है, तब इस कथन में चार नञ् समाविष्ट हो जाते हैं। दो पचति शब्द के शरीर में और दो अलग से। इन चार नों में तीसरे न से पाक का में औसीन्यादि का सम्बन्ध प्रसक्त होता है और चौथे नञ् से उसके निषेध का बोध होता है। फलतः ' असौ न न पचति' इस कथन से औदासीन्य एवं भोजनादि क्रिया कर्तृत्व से शुन्य व्यक्ति में, 'पचति' शब्दार्थ का, 'न न पचति' इस रूप में 'पति' शब्दार्थ से अन्य न पचति' शब्दार्थ के निषेध रूप में बोध होता है। इससे स्पष्ट है कि विधिवाक्य से विध्यर्थ और अन्य निवृत्ति साथ ही अवगत होते है। - Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ २६३ “समुच्चयादियश्चार्थः कश्चिचादरेमीप्सितः । तदन्यस्य विकल्पादेर्भवेत् तेन व्यपोहनम् ॥१॥" इति । यदपि 'फल्माधवर्णवत् शबलैकरूपो वाक्यार्थः तत्रान्यनिवृत्त्यनुपपत्तिः, तदवयवस्य विवेक्तुमशक्यत्वात् , 'चैत्र ! गामानय' इत्यादाबचैत्रादिव्यवच्छेदस्य पदार्थस्यैव प्रत्ययात्' इत्युच्यते; तदपि न, कार्यकारणभावेन संबद्धानां पदार्थानामेव वाक्यार्थत्वात् , तद्व्यतिरिक्तनिरवयवस्य शबलात्मनः फल्माषवर्णप्रख्यस्य वाक्यार्थस्यानुपलब्धः । यदप्युच्यते- अनन्यापोहशब्दादौ वाच्यं न च निरूप्यते' इस प्रसङ्ग में एक यह भी दोप दिया जाता है कि-'च' आदि निपातशब्द सम्बन्ध के बोधक होते हैं। अतः नञ् शब्द के अभाव में अन्यापोह का बोध नहीं होता, अपितु पक से सम्बद्ध अन्य काही बोध होता है। जैसे 'घट पट च आनय' कहने पर घटसम्बद्ध पट के आनयन का बोध होता है। किसी अन्य के आमयन के निषेध का बोध तब तक नहीं होता जब तक उसके साथ 'न अन्य' न कहा जाय। इसलिए सभी शब्दों से अन्यापोह का बोध मानने का सिद्धान्त अध्यापक है-किन्त यह ठीक नहीं है। क्योंकि 'च' आदि शब्दों से भी शब्द सामर्थ्य के बल से अन्य निषेध की प्रतीति होने में कोई बाधा नहीं हैं। इसी कारण 'धर्ट पढे च आनय' कहने पर बट पढ दोनों के ही आने का बोध होता है। वैकल्पिक कप में घट या पद के आनयन का बोध नहीं होता। इससे स्पष्ट है कि 'च' शब्द से विकल्प की निवृत्ति के साथ सन्चय का बोध होता है। तत्त्व संग्रह की कारिका में कहा भी गया है कि-जिस च नाशि का सामुन्य मावि ऐना है, का समुच्चय से अन्य विकल्प आदि का अपोहन होता है। [ शबल एक स्वरूप वाक्यार्थ का निरसन ] इस सन्दर्भ में एक यह दोष दिया जाता है कि-'जैसे मित्रवर्ण, नीलपीत आदि रूपात्मक न होकर उनसे विलक्षण उनका मिश्रित रूप होता है, उसी प्रकार वाक्यार्थ भी वाक्य घटक तत्तत् पद का अर्थ रूप न होकर शबल यानी तत्तत् पदार्थों से विलक्षण पक अर्थ रूप होता है। अत: वाक्य से अन्यापोह का बोध नहीं हो सकता, क्योंकि वाक्यार्थ के अवयय का विवेचन शक्य न होने से, वाक्यार्थ से अन्य का बोध असम्भव होने के कारण उसके अपोह की प्रतीति दुर्धट है। यह बात ‘चत्र ! गामानय' इस थाक्य के अधिवेषन से स्पष्ट है। क्योंकि इस वाक्य में “चत्र' आदि पद से 'अचैत्र' आदि से व्यावृत्त पदार्थ का ही बोध होता है न कि वाक्यार्थ का।'-किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि कार्यकारणभाव द्वारा परस्पर सम्बद्ध पदार्थ ही वाक्यार्थ होता है । वाक्यार्थ पदार्थ से विलक्षण नहीं होता। क्योंकि चित्रवर्ण के समान ऐसा शबल वाक्यार्थ उपलब्ध नहीं होता जोशाक्यघटक पदार्थों से भिन्न पचं अवयषहीन एकरूप हो। इस प्रसंग में शोकवात्तिक कारने यह भी दोष दिया है कि-'अपोह (-अन्य घ्यावृत्ति । को शब्दार्थ मानने पर 'अनन्यन्या अपोह' आदि शन्दों के बाच्य का निरूपण नहीं हो सकता, क्योंकि शब्द मात्र से अन्यापोह ही चाच्य माना गया है और 'अनन्यापोह' शब्द से तो अन्यापोह को निषेध अभिव्यक्त होता है। अतः अन्यापोह रूप वाच्य यहाँ दुर्धर है। -किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यापोह का निषेध वाच्य न होने पर भी उसके वितथ विकल्प मिथ्या बोध से उत्पन्न वासना द्वाग उसका मिथ्या बोध होकर अग्यापोह के भी अपोह (-अन्यापोळ्यावृत्ति ) की बुद्धि का उदय हो सकता है । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] [ शास्त्रवार्ता० स० १२/८ इति; [ सो ० जारी रह: : तदपि न, वितथविकल्पवासनावशात् तत्र तथाविधार्थविकल्पक्रमेणान्यापोनिषेधतिप्रवृत्तेः । यदपि 'ज्ञेय-प्रमेयादिशब्दानां न किञ्चिदपोह्यमस्ति, सर्वस्यैव ज्ञेयादिस्वभावत्वात् , इत्यव्यापिन्यपोहव्यवस्था; आंद वाऽज्ञेयं कल्पितं कृत्वा तद्व्यवच्छेदेन ज्ञेयेऽनुमानमिप्यते, तदा वरं वस्त्वेव विधिरूपशब्दार्थत्वेन कल्पितं भवेत् । इति; तदपि न, संशयादिनिरासाथ वाक्यगर्भितस्यैव ज्ञेयाविशब्दस्य प्रयोगात् , 'क्षणिकत्वेन ज्ञेया भावाः ' इत्यादिवाक्यम्थेन तेन क्षणिकवादिनाऽज्ञेयत्वादेः समारोपितस्य व्यावर्तनात् । 'कथं तर्हि 'अनित्यत्वेन शब्दाः प्रमेया नवा' ! इति प्रस्तावे ' प्रमेयाः' इति प्रयोगे प्रकरणानभिज्ञस्यापि प्रतिपत्तः केवल शब्दश्रवणात् सुबमानरूपा शाब्दी धीः ?' इति चेत् ! न कथञ्चित् । 'घटेनोदकमानयामि, उताञ्जलिना' इति प्रस्तावे तदनभिज्ञस्य ‘घटेन' इति शब्दादिव पूर्ववाक्यार्थानुसरणं विनाऽऽकानाया अपरिपूर्तेः, वाक्येपूपलवस्यार्थवतः शन्दस्य सादृश्येनापहतनुद्धेः केवलशब्दश्रवणात् केवलमर्थप्रत्ययाभिमान इति दिग् ॥ ८ ॥ इस सन्दर्भ में एक यह भी दोप दिया जाता है कि-'वस्तु मात्र क्षेय पत्र प्रमेय होने से 'ज्ञेय' और 'प्रमेय' आदि शब्दों का कोई अपोझ नहीं हो सकता। अतः इन शब्दों से अपोह का बोध न हो सकने से शब्द मात्र में अबोहवाचकन्य का सिद्धान्त अध्यापक है । और यदि कल्पित ज्ञेय मान कर उससे व्यावृत्ति रूप में ज्ञेय की बुद्धि मानी जायगी तो उसकी अपेक्षा यही कल्पना उचित होगी कि विध्यर्थक वस्तु ही शब्द का प्रतिपाय है, न कि अन्य व्यावृत्तिरूप अत्रस्तुभूत अपोह ।'-किन्तु यह भी ठीक नहीं है क्योंकि संशय आदि के निरसन के लिए वाक्य के घटक रूप में ही क्षेय आदि शब्द का प्रयोग होता है। इसीकारण 'क्षणिकत्वेन ज्ञेया भायाः-भाच पदार्थ क्षणिकरूप में झय हैं। इस वाक्य में प्रविष्ट झेय शब्द से भाव में आरोपित मणिकत्व भादि रूप से अज्ञेयत्व का निषेध होता है। 'वाफ्यगर्भस्थ ही 'झेय आदि शब्द से भर्थबोध होता है। ऐसा मानने पर यह प्रश्न होता है कि 'अनित्यत्वेन शब्दाः प्रमेया न बा ? शब्द अनित्यत्व रूप से प्रमेय हैं ? अथवा अप्रमेय हैं ?' इस प्रकरण में 'प्रमेयाः इस शब्द का प्रयोग होने पर जिस व्यक्ति को प्रकरण का ज्ञान नहीं है उसे केयल 'प्रमेय' शब्द के श्रवण से जो प्रमेयविषयक शाब्द बुद्धि होती है यह वाक्यगर्भस्थ ही झेय आदि शब्द को अर्थ बोधक मानने पर कैसे हो सकती है। इसका उत्तर है कि कथमपि नहीं हो सकती, क्योंकि जैसे 'घटेन उदकम् मानयामि उताज लिना-घर से जल लाऊँ या अञ्जलि. से ?' इस प्रकरण में प्रकरण के अनभिज्ञ घ्यक्ति को केवल घटेन' इस शब्द से पूर्व वाश्य 'घटमानय' के अनुसन्धान के बिना आकाङ्क्षा की पूर्ति नहीं होती, उसीप्रकार उक्त प्रकरण में केवल 'प्रमेया: ' शब्द का प्रयोग होने पर शाब्दबोधानुकूल आकाङ्क्षा की पूर्ति नहीं होती। और आकाङ्क्षा की पूर्ति के बिना शाब्दबोध का उदय नहीं होता। अतः यदि कोई ऐसा समझता है कि केवल 'प्रमेय' शब्द के श्रवण से केवल प्रमेय रूप अर्थ की प्रतीति होती है तो यह उसका अभिमान है जो उस दशा में होता है कि जब मनुष्य की यह बुद्धि कि 'वाक्य गर्मस्थ ही 'शेय' भादि शब से अर्थ बोध होता है' या बुद्धि वाक्य में उपलब्ध अर्थ बोधक शब्द से अपहत हो जाती है ॥ ८॥ [ बौद्ध पूर्वपक्षवार्ता समाप्त ] Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ) [ २६५ अत्र समाधानवा माह-- अन्ये त्वभिदधत्येवं वाच्यवाचकलक्षणः । अस्ति शब्दार्थयोर्योगस्तत्प्रतीत्यादि तत् ततः ॥९॥ अन्ये तुम्जैनाः अभिदधति एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण, यदत वाच्यवाचकलक्षणः अर्थे शब्दवाच्यतास्वभावरूपः शब्दे. चार्थवाचकतास्वभावरूपः शब्दाऽर्थयोर्योगः-संबधः अस्ति 'तत्त्वतः' इति शेषः । संवृत्या तदस्तित्वस्य परेणाप्यभ्युपगमात् । तत् तस्मात् कारणात् , ततः शब्दात् तत्प्रतीत्यादिबाच्यप्रतीति-प्रवृत्ति-प्राप्ति-निवेदनाद्यागोपालाननं प्रसिद्धं युज्यते ।। ९ ॥ अन्यश चैतदनुपपत्तिरित्याहनैतद् दृश्य-विकरप्याथकीकरणेन भेदतः । एकामात्रभावाच्च तयोस्तवाऽप्रसिद्धितः ॥१०॥ एतत् शब्दाद् याच्यप्रतीत्यादि. दृश्य-विकल्प्याथैकीकरणेन=विकल्प्येऽर्थे दृश्याथैयाध्यवसायेन न युज्यते । कुतः ? इत्याह-भेदता दृश्यविकरप्यार्थयोर्भदात् , तदभेदाध्यवसायाऽयोगात् । न च मुख्य भेदस्य सांवृताधियोऽविरोधित्वमिति वाच्यम् , मुख्यभेदशालित्वे विकरुप्यस्य दृश्यत्वा [शब्द और अर्थ के बीच तान्त्रिक सम्बन्ध-उत्तरपक्ष ] ९ वीं कारिका में शब्दार्थ के सम्बन्ध में बोच विद्वानों द्वारा कथित आपत्तियों का समाधान प्रस्तुत किया गया है। जम बौद्ध मत के विरुद्ध अन्य विद्वान जैनों का यह कहना है कि शब्द और अर्थ के मध्य तात्विक सम्बन्ध हैं, और यह है वाच्य-वाचक भाव | उसका अर्थ है अर्थ में शब्द का वाच्यस्थ सम्बन्ध है और शब्द में अर्थ का वाचकत्व सम्बन्ध है । सम्बन्ध तात्विक है ऐसा इसलिये कहा है कि यह सम्बन्ध काल्पनिक रूप में तो बौद्रों को भी स्वीकार्य है। इस सम्बन्ध के कारण ही विशिष्ट विश पुरुष से लेकर गोपालवधू तक शब्दविशेष से अर्थविशेष की प्रतीति, उसमें प्रवृत्ति, उसकी प्रानि और उसके बोधन आदि की उपपत्ति होती है ।। १ [ शब्दार्थ सम्बन्ध न मानने पर बाधक ] १० वी कारिका में यह बात बतायी गयी है कि शब्द और अर्थ के मध्य तात्विक सम्बन्ध न मानने पर शब्दविशेप से अर्थविशेष की व्यवस्थिति-प्रतीति आदि की उपपत्ति नहीं हो सकती। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-दृश्य निर्विकल्प प्रत्यक्ष के विषयभूत स्वलक्षणवस्तु और विकल्प्य-विशिष्ट वुद्धि के विषयभूत नाम-जाति आदि से विशिष्ट कलिपत अर्थ, इन दोनों के एकीकरण-अभेदज्ञान से शब्दविशेष बाग वाच्यविशेष की प्रतीति आदि की उपपत्ति नहीं मानी जा सकती। क्योंकि उक्त दोनों अर्थों में भेद होने से उनमें अभेदबुद्धि नहीं हो सकती। यह नहीं कहा जा सकता कि उक्त दोनों में भेद बास्तव है और अभेद काल्पनिक है । अत: वास्तव भेद काल्पनिकअभेद का विरोधी न होने से दोनों में अभेदज्ञान हो सकता है।' क्योंकि यदि विकल्प्य विषयीभूत अर्थ में दृश्य का वास्तविक भेद माना जायगा तो यह भी एक स्थलक्षण अर्थ से भिन्न अन्य स्पलक्षणवस्तु के समान दृश्य हो जायगा। इसके अतिरिक्त उक्त रीति से शब्दवाच्य अर्थ की प्रतीति आदि की अनुपपत्ति का दूसरा कारण भी है; और Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ) [शाखयाा० स. १२/११ पत्तेः, स्वलक्षणवत् । हेत्वन्तरमाह-एकप्रमात्रभावाचदृश्य-विकल्प्यप्रमातृक्षणयोरेकरवाभावाच तयोः दृश्य-विकल्प्ययोः तत्त्वाऽप्रसिद्धितः ऐक्याऽप्रसिद्धः, परस्परं स्वलक्षण इतरप्रतियोग्यभावेनैक्यस्य दुरध्यवसानत्वात् ॥ १० ॥ स्यादेतत्--विनालप्याकीकरण नामालाहालम्बनस्य विकल्प्यस्य बाघालावनत्वेन प्रतीतिः, न तु वस्तुगत्या भिन्नयोस्तयोरेकीकरणम् ; तथाचाहशब्दात्तद्वासनाबोधो विकल्पश्च ततो हि यत् । तदित्थमुच्यतेऽस्माभिन तत्स्तदसिद्धितः ॥११।। शब्दादिति कारणे कार्योपचारात् शब्दज्ञानात् , तद्वासनाबोधः विशिष्टविकल्प वासनाबोधः विकल्पश्च-विशिष्टविकल्पश्च, ततो हि-तत एव विशिष्टवासनाबोधात्, यद्यस्मात् तत् तस्मात् इत्थमुच्यते='दृश्य-विकल्प्यावविक्रीकृत्य' इत्येवमभिधीयते अस्माभिः, विकरुपवैशिष्ट्याद् गवाद्यर्थपतीतेगवाधर्थप्रवृत्तेः, भ्रमात् प्रवृत्तस्यापि स्वलक्षणप्रतिबन्धेन प्राप्तेर्गवादिबोधनाद्यर्थ निवेदनादेश्वोपपत्तेरिति भावः । एतदाश कयाह-न-नैतदुक्तम्, ततः-शब्दात् तदसिद्धितः विशिष्टवासनाबोधाऽसिद्धेः ॥ ११ ॥ घह है दृश्य और विकल्प्य अर्थों के माता का एक न होना। आशय यह है कि जैसे बौन मत में दृश्य और विकल्प्य अर्थ क्षणात्मक हैं उसीप्रकार दृश्य का दृष्या और विकल्प्य का ज्ञाता भी क्षणात्मक है। अत पब दोनों में पेक्य न होने से दुश्य और विकल्प्य का अभेदक्षान नहीं हो सकता; क्योंकि जिसे दृश्य का दर्शन है उसे विकल्प्य का बोध नहीं है और जिसे विकल्प्य का बोध है उसे दृश्य का दर्शन नहीं है। साथ ही स्वलक्षण दृश्य और इतर सम्बन्धी विकरूप्य दोनों के परस्पर एक-दूसरे के समकालिक न होने से भी दोनों में अभेद का अध्यवसान दुःशक है ।। १८॥ (दृश्य-विकल्प्य अर्थी के एकीकरण के नये अर्थ का परिहार ] १२ घी कामिका में दृश्य और विकल्प्य अर्थों के एकीकरण के सम्बन्ध में पूर्वकारिका में उक्त मनुभपत्ति के परिहागर्थ १इन और विकल्प्य अर्थों के पकीकरण की यह व्याख्या की गयी है कि उक्त अयों के एकीकरण का आशय अभेदज्ञान नहीं है किन्तु अबाह्य-आलम्बनभृत विकल्प्य अर्थ में वाय-आलम्बनत्व का आरोप है। कारिका का अर्थ करने पहले पक बात यह कर ले कि कारण में कार्य का उपचार होता है अत: कारण बोधक शब्द से कार्य का ग्रहण सम्भव होने से कारिकागत 'शब्दात् ' का अर्थ है 'शब्दज्ञानात' । इमसे कारिका की इमप्रकार ध्याख्या सम्ध होती है कि शब्दज्ञान से विशिष्ट विकल्प को उत्पन्न करने में समर्थ वासना का बोध होता है और उस बोध से विशिष्ट विकल्प का जन्म होता है। इसी बात को उपजीव्य बना कर बौद्ध विद्वान दृश्य और विकल्प्य अर्थों के पकीकरण का प्रतिपादन करते हैं। तदनुसार वासना बोध से उत्पन्न गो आदि विषयक विशिष्ट विकल्प से गो आदि अर्थ में प्रवृत्ति और उसके योध के लिए गो आदि शब्द का प्रयोग होता है। प्रवर्तक विकल्प के भ्रमात्मक होने पर भी गो आदि Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या, के. टीका-हिन्दीधिवचन एतदेवोपपादयतिविशिष्टं वासनाजन्म बाधम्तच्च न जातुचित् । अन्यतस्तुल्यकालादेविशेषोऽन्यस्य नो यतः ।१२। विशिष्टम तथाविधविकल्पजननस्वभावम् वासनाजन्म-वासनोत्पाद एव बोधा-प्रकृतवास्नाबोधो वाच्यः; तच्च विशिष्टवासनाजन्म न जातचित्=न कदाचित् युज्यते । कथम् ! इत्याह-- अन्यतः= अन्यस्मात् सहकारिणः तुल्यकालादेः-तुल्यकालादतुल्यकालाद् वा विशेषः विशिष्टीभावः अन्यस्य%विशेषस्य नो-नेत्र, यतः यस्माद् हेतोः ॥ १२ ॥ एतदेव विकरूपदोपोपन्यासद्वारेणाहनिष्पनत्वादसवाच्च द्वाभ्यामन्योदयो न सः । उपादानाऽविशेषेण तत्स्वभावं तु तत्कुतः।१३। निप्पन्नत्वात् तुल्यकालात् सहकारिणो म विशेषः, विशेष्यस्य तदानीमनाधेयाऽतिशयत्वात् , विशेषस्य चातिशयत्वादिति भावः । असत्वाच्चाऽतुल्यकालादपि सहकारिणो न विशेषः, तदा तस्याऽसत्त्वात् , असतश्चोपकारकरणाऽयोगादिति भावः । द्वयोभवोऽपर एव विशेष इन्याशक्याहद्वाभ्याम् उपादान-सहकारिभ्याम् अन्योदयः विशिष्टापरोत्पादः न स विशेषः ! कुतः ? इत्याह-उपादानाऽविशेषेण=पूर्ववदविशिष्टकार्यजननस्वभावत्वाऽतिरस्कारेणान्योदयस्यैवाऽसिद्धेरित्यर्थः । अर्थ की प्राप्ति की भनुपपत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि इस भ्रम में स्वलक्षण वस्तु का प्रतिबन्ध मव्यभिचार है। जिस भ्रम में वस्तु का प्रतिबन्ध होता है उससे बस्तु की प्राप्ति देखी जाती है जैसे कि मणिप्रभा में मणि के भ्रम से मणि की प्राप्ति दृष्ट है। कारिका के चतुर्थ चरण से इस परिहार का यह कह कर प्रतिरोध किया गया है शि शब्द से विशिष्ट वासना के बोध की उत्पत्ति असिद्ध होने से उक्त प्रतिपादन समीचीन नहीं है ॥ ११ ॥ १२वीं कारिका में, पूर्वोक्त अर्थ का उपपादन किया गया है। कारिका का अर्थ इसप्रकार है-पूर्व कारिका में शब्दशान से जिस वासनाबोध की उपपत्ति बतायी गयी है वह चोध विशिष्ट विकल्प के उत्पादन में समर्थ वासना के जन्म रूप दी है। और वासनाजन्म शब्दज्ञानरूपी सहकारी से कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि वासना का जन्म सहकारी से तभी हो सकता है अष सहकारी द्वारा उपादान-मुख्य कारण में कोई विशेष सम्भव हो, जो कि उपादान के समानकालिक अथवा असमानकालिक सहकारी से साध्य नहीं है ॥ १२ ॥ [ सहकारिद्वारा उपादान में विशेषाधान असंभव ] १२त्री कारिका में प्रतिपादित अर्थ को ही प्रस्तुत १३वीं कारिका में विकल्प दोष का उभावन करते हुए कहा गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है 'सहकारी कारण से उपादान कारण में विशेष का उदय होता है और उस विशिष्ट उपादाम से विशिष्ट विकल्प की उत्पत्ति होकर प्रवृत्ति आदि का सम्पादन होता है'-यह कहने पर दो विकल्प उत्थित होते हैं-पक यह कि क्या उपादान के समकालिक सहकारी से उसमें विशेष का उदय होता है, अथवा उपादान के भसमानकालिक सहकारी से उसमें विशेष का Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] शामवार्ताः सत० २१/१४ तदेवोपादानं तत्स्वभावम् यदन्यदप्यन्योदयकारीत्याशङ्कयाह-तत्स्वभाव विति-अनुपकारिणमपि सहकारिणमासाद्य विशिष्टापरजननस्वभायमेवेत्यर्थः तत्-उपादानम्, कुतः १८न काचिदत्र युक्तिः, वानमात्रमेतदिति भावः ॥ १३ ॥ 'स्वहेतोविशिष्टजननम्नभावस्यैवोत्पत्तिः । इत्याशयं परिहरतिनयुक्तवत्स्वहेतोस्तु स्याच नाशः सहेतुकः । इत्थं प्रकल्पने न्यायादत एतन्न युक्तिमत् ॥१४॥ नहि उक्तवत् = तुल्यकाला-ऽतुन्यकालसहकारिकृतविशेषाभाववत् स्वहेतोस्तु-स्वकारणादेव विशेषाऽभावे तत्स्वभावमुपादानं युक्तम् । तथाहि-नाम्यापि स्वहेतुरविशिष्टः सन्निदं विशिष्टं जनयेन् , आधान होता है ? इनमें प्रथम विकल्प स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि उपादान में उसके मस्तिस्वकास में किसी अतिशय का आधान नहीं होता और विशेष भी अतिशय रूप ही है, भत पत्र उपादान के अस्तित्वकाल में उसमें विशेष के उदय की धात सङ्गत नहीं है । दूसरा विकल्प भी स्वीकार्य नहीं है. क्योंकि उपादान के अस्तित्वकाल में सहकारी का अस्तित्व नहीं है और जिस समय में जिसका अस्तित्व ही नहीं है उस समय वह किसी का कोई उपकार ( किसी वस्तु में किसी विशेष का आधान,) कैसे कर सकता है ? यदि यह कहा जाय कि-'सहकारी से उपादान में किसी विशेष का आधान नहीं होता अपितु उपादान और सहकारी से किसी अन्य विशिष्ट का जन्म होता है और उस विशिष्ट से कार्यान्तर सम्पन्न होते हैं' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि सहकारी की उपस्थिति से यदि उपादान में कोई वैशिष्ट्य नहीं होता तो उसमें अकेले किमी विशिष्ट कार्य को उत्पन्न न करने का स्वभाव जो पहले था वह सहकारी संनिधान होने पर भी ज्यों का स्यों बना रहता है। मतः सहकारीकाल में भी उससे किसी अन्य विशिष्ट का जन्म होना अमान्य है। यदि राह कहा जाय कि 'उपादान का यह स्वभाव है कि उसके सहकारी से अन्य विशिष्ट का जन्म होता है तो यह भी ठीक नहीं है. क्योंकि अपना कोई उपकार न करने शाला सहकारी प्रान होने पर अन्य विशिष्ट को जन्म देना-उपादान का स्वभाव होता है' ऐसा भानने में कोई युक्ति नहीं है. इसलिये यह कथन युक्तिहीन शब्दोपन्यासमात्र है । १३ । [ उपादान के कारणों से उसमें विशेषाधान असंभव ] १८वीं कारिका में इस मान्यता का परिहार किया गया है कि 'उपादान अपने कारण से ही कार्यान्तर को उत्पन्न करने का विशिष्ट स्त्रमान प्राप्त करता है।' कारिका का अर्थ इस प्रकार है-जैसे समानकालिका अथवा असमानकालिक सहकारी से उपादान में विशेष का आधान नहीं होता. वैसे ही उसके कारण से भी उसमें विशेष का आधान नहीं हो सकता। और उसमें विशेष का आधान नहीं होगा तो कार्यान्ता को उत्पन्न करने का स्वभाव भी उसे नहीं प्राप्त हो सकता। कहने का आशय यह है कि उपादान का हेतु भी स्वयं विशेषहीन होने पर विशेषयुक्त उपादान को जन्म नहीं दे सकता। और किसी अन्य से उसने विशेष का आधान होता नहीं। अत: केवल में ही कार्यान्तर के जन्मानुकूल वैशिष्टय मानना होगा और यही बात सभी पदार्थों में स्वीकार करनी होगी। तो फिर जय प्रतीति में कोई वैशिष्टय न होगा तो उससे ग्यारहवीं कारिका में उक्त बासनाबोध की उपपत्ति कैसे हो सकेगी? इसके अतिरिक्त दूसरा Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विषेषन ] [ २६९ न चान्यतो विशिध्येतापि, इति केवलस्यैव वैशिष्टयमेष्टव्यम् ; एवं च सर्वत्र वैतत् , इति प्रतीतिवैशिष्ट्याभावे तद्वासनाबोधानुपपत्तिरिति । दोषान्तर माह-स्याच नाशो भवतामपि सहेतुकः= उत्पादहेतुव्यतिरिक्तहेतुसापेक्षः, इत्थं प्रकल्पने-' स्वहेतोरेवानुपकारिणमपि सहकारिणमवाप्य विशिष्टापरजननस्वभावमेतत् ' इत्येवं प्रकल्पने, एतदपि वक्तुं शक्यत एव 'अकिञ्चित्करमपि नाशहेतुमवाप्य निवृत्तिस्वभावमेतज्जातम् ' इतिविशिष्टोत्पादवत् सहेतुको नाश आपन्नः न्यायात् भवत्कल्पितयुक्तेः, अनिष्ट चैतद् भवतः । अतः अस्मात् कारणात् एतत् इत्थं स्वभावकल्पनम् न युक्तिमत् । एवं च स्वनीतितो विकल्पानुपपतर्वचनमात्रमेवैतद् यदुत—'दृश्य-बिकरप्यार्थकीकरणं नामा याह्यालम्बनस्य विकल्प्यस्य बाह्यालम्बनत्वेन प्रतिपत्तिः । इति । विरुद्धं च याह्याकाराया धियोऽबाबालम्बनत्वम् 'वासनायां वैशिष्टयं तु तस्कुर्वपत्वं स्वभावत एव ' इत्यपि निरस्तम् , तत्कुर्वद्रपस्यापि कादाचित्कत्वेन हेतुनियम्यत्वाच; अन्यथोत्पादस्याप्यतत्त्वापत्तेरिति दिग ॥ १४ ।। दोष यह भी है कि जैसे भाव कार्य की उत्पत्ति में उपादान से अतिरिक्त सहकारी कारण की अपेक्षा होती है उमीप्रकार भाव के नाश में भी भाव के उत्पादक कारण से अतिरिक्त कारण की अपेक्षा प्रसक्त होगी। क्योंकि सहकारी द्वारा कोई उपकार न होने पर भी उसकी प्राप्ति होने पर उपादान कार! : ( उत्पासा। भारः हो, भिशिष्ट कार्य को उत्पन्न करने का स्वभाव प्राप्त करता है यह अब मानते हैं तो यह भी नियिवाद रूप से कहा जा सकता है कि नाश हेतु के अकिञ्चित्कर होने पर भी भाष कार्य का नारा उसे प्राप्त कर दी उत्पन्न होता है । फलतः बौद्ध की उक्त रीति द्वारा विशिष्ट भाव कार्य के समान उसके नाश की भी हेतृसापेक्षता अनिवार्य हो जाती हैं, जो उन्हें इश नहीं है। अतः उपादान में अनुपकारी सहकारी की अपेक्षा से कार्य को जन्म देने के स्वभाव की कल्पना युक्तिसङ्गत नहीं है। उक्त स्थिति में अपनी ही युक्ति से विकल्प की उपपत्ति न होने के कारण यह सारहीन वचनोपन्यासमात्र ही है कि 'दृश्य और विकल्प्य अर्थों के एकीकरण का तात्पर्य यह है कि भवाय अर्थ को आलम्बन करने वाले विकल्प की बाह्य अर्थ को आरम्बन करने के रूप में प्रतीति होती है। इसके साथ ही यह भी ज्ञातव्य है कि बायाकार बुद्धि को अबान अर्थ का आलम्बनकारी मानना विरुद्ध है। और यदि इसे विरुद्ध न माना जायगा तो इसी के समान पीताकार बुद्धि के अपीतालम्बन हो जाने से पक बड़ी अव्यवस्था खड़ी हो जायगी। तथा, 'यह प्रत्यक्ष सिद्ध है कि शब्दजन्य विकरूप में पशिष्ट्य असविषयकत्व मूलक होता है और घासना में जो वैशिष्ट्रय होता है वह उससे उत्पाद्य कार्य का कुचंदूपत्य स्वरूप होता है। और वह किश्चिद्धतुक न होकर स्वाभाविक होता है।' यह कथन भी युक्तिहीन होने से निरस्त हो जाता है और वास्तव में किसी कार्य विशेष के कुर्वद्रूपत्व को स्वाभाषिक मानना उचित नहीं है, क्योंकि कुर्बद्पत्व के भी कादाविक होने से उसे भी हेतुसापेक्ष मानना अनिवार्य है, और सा न माना जायगा तो नाश के समान कार्य की उत्पत्ति भी अमात्त्विक हो जायगी |॥ १४ ॥ [ तादात्म्यादिविकल्पप्रयुक्त दोषों का निरसन ] पर-प्रतियादी द्वारा पूर्व में उदाथित दोषों का निराकरण करने के उद्देश्य से १५वीं Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] [ शाखवा स्त० ११ / २५ - १७ परोक्त दोषजाल निराचिकीर्षन्नाह अनभ्युपगमाच्चे तादात्म्यादिसमुद्भवाः । न दोषा नो न चान्येऽपि तद्भेदाद्धेतुभेदतः | १५ | अनभ्युपगमाच्च-अनङ्गीकरणाच्च इह = प्रकृतविचारे तादात्म्यादिसमुद्भवाः शब्दाऽर्थनचान्येऽपि= योस्तादात्म्य – तदुत्पत्तिविकल्पप्रभवाः न दोषाः - नानिष्टापादकाः नः अस्माकम् — परमार्थेकतानत्वे ' इत्यादिनोक्ताः । कुतः ? इत्याह- हेतुभेदतः कारणमेदेन तद्भेदात्-शब्दभेदात् ' अतीता-जातयोश्च विद्यमानवत् स्वकाले सत्त्वेन तत्र शब्दप्रवृतेर विरोधाच्च ' इत्यपि पूरणीयम् ॥ १५ ॥ उक्तमेवोपपादयति वन्ध्येतरादिको भेदो रामादीनां यथैव हि । मृपा - सत्यादिभेदानां तद्वत्तद्धेतुभेदतः ||१६|| वन्ध्येतरादिकः = वन्ध्याऽवन्ध्यादिकः भेदः विशेषः यथैव हि रामादीनाम् = स्त्रीप्रभृतीनाम् सकललोकपतीतः, आदिभ्यां मत्कुणा - मस्कुण पुरुषादिप्रह:, मृषा - सत्यादिशब्दानाम् आदिना सत्यमृषा - ऽसत्यामृषापरिग्रहः, तद्वत् = वन्ध्येतरादिरामादिवत् ' मेवः' इत्यनुषज्यते; तद्धेतुभेदत्त:= मृषादिशब्दहेतुभेदात् सत्यादिभाषाद्रव्यवर्गणानां मेदाभ्युपगमादिति ॥ १६ ॥ 2 यतश्चैवम् अतः किम् ? इत्याहपरमार्थैकतानत्वेऽप्युक्तदोषोपवर्णनम् । प्रत्याख्यातं हि शब्दानामिति सम्यग् विचिन्त्यताम् ॥ १७॥ काfरका विद्ध हुई है। इसका अर्थ इसप्रकार है-शब्द और अर्थ में तादात्म्य एवं उत्पाचउत्पादकभाव आदि बात को लेकर जो दोष बताए गये हैं वे उन बातों को अङ्गीकार न करने से ही निरस्त हो जाते हैं । अन्य दोष भी, जैसे शब्द को वस्तुमात्र मिष्ठ मानने पर अपनी दृष्टि से अवस्तु में शब्द प्रयोग की अनुपपत्ति, एवं अतीत और अनागत वस्तु शब्दप्रयोग काल में न होने से अवस्तु होने के कारण उनमें शब्दप्रयोग की अनुपपत्ति आदि भी नहीं हो सकते, क्योंकि हेतुभेद से शब्दभेद होता है। इसी सन्दर्भ में यह पूरणीय है कि विद्यमान वस्तु के समान अतीत और अनागत भी अपने काल में वर्तमानरुप होने से वस्तु हो सकने के कारण उनमें शब्दप्रयोग होने में कोई अनुपपत्ति नहीं है ।। १५ ।। १६वीं कारिका में पूर्व कारिका के अर्थ का ही उपपादन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है जिस प्रकार को आदि में वन्ध्या, अवन्ध्या आदि का भेद, एवं कारिका में प्रयुक्त पूर्व के दो 'आदि' शब्दों से क्रमशः चिवचित मत्कुण- अमत्कृण एवं पुरुष आदि का भेद लोकप्रसिद्ध है, उसी प्रकार मृत्रा और सत्य शब्दों का तथा कारिकागत तीसरे आदि शब्द से विक्षित सत्यमृषा एवं असत्यामृषा आदि शब्दों में भी भेद उनके हेतुभेद द्वारा हो सकता है। क्योंकि सत्य आदि भाषाद्रव्य की श्रमणाओं में भेद मान्य है ॥ १६ ॥ १७वीं कारिका में पूर्व कारिका के कथन का फलितार्थ बताया गया है। कारिका का अर्थ इसप्रकार है- शब्द को वस्तुमात्रनिष्ठ मानने पर जो यह दोष बताया गया है कि अन्य दर्शनों में अभ्युपगत त्रिगुणात्मक प्रकृति आदि जो अन्य दर्शन की दृष्टि से अवस्तु है उसमें Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क.टीका-हिन्दीविवेचन ] [ २७१ परमार्थकतानत्वेऽपि वस्त्वेकगोचरत्वेऽपि शब्दानामुक्तदोषोपवर्णनम् दर्शनान्तरभेदिषु प्रधानादिष्वप्रवृत्त्याद्यभिधानलक्षणम् प्रत्याख्यातं हि-निराकृतमेच; इति एतत् सम्पग्-माध्यस्थ्येन विचिन्त्यताम्, प्रधानादिपदानां प्रवृत्तिनिमित्तवैकल्ये गवादिपदानां तदापादनस्याऽयुक्तत्वात् , अत्यन्त मिथो भेदात् ॥ १७ ॥ एतदेव स्पष्टयतिअन्यदोषो यदन्यस्य युक्तियुक्तो न जातुचित् । व्यक्तावणे न बुद्धानां भिक्ष्वादि शबरादिवत् ।१८। अन्यदोपः अर्थान्तरभूतवस्तुदोषः, यद्यस्मात् , अन्यस्य अर्थान्तरस्य न युक्तियुक्तः न प्रमाणोएपन्नः, जातुचित् कदाचित् । प्रतिवस्तूपमया द्रढयति-बुद्धानाम् भगवताम् मिक्ष्वादिमिङ्वादिपदम्, शबरादिवत् शबरादिपदवत् , व्यक्तावर्णन व्यक्तो वो येनेति विग्रहादवर्णव्यचकम् न । तथा च शबरादिभिक्ष्वादिपदानां जातिभेदादवर्णव्यञ्जकाऽव्यञ्जकत्ववत् प्रधान-गवादिपदानामपि प्रवृचिनिमित्तवैकल्याऽवैकल्ये नायुक्ते इति भावः । न चैवं प्रधानाद्यर्थाऽसत्त्वात् तत्र प्रधानादि शब्दप्रवृत्ति न हो सकेगी-इत्यादि. यह सुतरां निरस्त हो जाता है, यह बात तटस्थ दृष्टि से विभावनीय है। इस सन्दर्भ में यह कहना भी कि जैसे अन्य दर्शन स्वीकृत प्रकृति मादि अर्थ में प्रधान आदि शवों के प्रवृत्तिनिमित्त का अभाव है, उसीप्रकार गो आदि अर्थों में गो आदि पदों के भी प्रवृत्ति निमित्त के अभाव की आपत्ति होगी, असङ्गत है क्योंकि प्रधान आदि और गो आदि शब्दों में परस्पर भेद है ॥ १७ ॥ [प्रधान और गो आदि पद में वलक्षण्य ] १८वीं कारिका में उक्त अर्थ को ही स्पष्ट किया गया है। कारिका का अर्थ इसप्रकार हैएक अर्थ में जो दोप होता है अन्य अर्थ में भी उस दोष का होना कदापि प्रमाणोपपन्न नहीं हो सकता। यह बात इस प्रतिवस्तुपमा से पुत्र होती हैं कि शवर आदि पद अवर्ण व्यञ्जक होने पर भी भगवान बुद्ध के लिए प्रयुक्त भिक्षु आदि पद असे अवर्णव्यञ्जक नहीं होता उसी प्रकार पक अर्थ के दोषयुक्त होने से अन्य अर्थ दोपयुक्त नहीं हो सकता। कहने का आशय यह है कि जैसे शबर आदि पद में अवर्णव्यनकता और मिश्नु आदि पद में उसका अभाव होना अयुफ नहीं है. उमीप्रकार प्रधान आदि शायद में प्रवृत्तिनिमिस का अभाष और गो आदि पद में प्रवृत्ति निमित्त का सदभाव भी अयुक्त नहीं है । यदि यह कहा जाय कि-'प्रधान आदि अर्थों के असत्य होने से उनमें प्रधान आदि पद की शक्ति सम्भव न होने के कारण प्रधान आदि पद से प्रधान आदि अर्थ का बोध न हो सकेगा' -तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि मृषाभाषणद्रव्य की धगणा से उत्पन्न होने वाले शब्दों में उन शब्दों की प्रवृत्ति की जतिका शक्ति मानने में कोई विरोध नहीं है। यदि यह कहा जाय कि- प्रधान आदि पद से उत्पन्न होने वाला विकल्पज्ञान यदि प्रधानत्य आदि से विशिष्ठ अखण्ड अर्थ को विषय करेगा तो अमख्याति की आपत्ति दोगी' -तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि किसी भी विकल्पज्ञान में अखण्ड एक विषयकत्व का Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शासवार्ता० स्त० ११९ पदाऽशक्तेस्तेषामप्रत्यायकत्वापत्तिः, अर्थाऽसत्त्वेऽपि मृषाभाषावर्गणाप्रसूतानां शब्दानां तच्छन्दजनन्याः शक्तेर विरोधात् । न चैवं प्रधानादिपदजनितविकरुपस्याखण्डप्रधानत्वादिविशिष्टविषयकत्वेऽ-सत्स्यात्यापत्तिः, विकल्पस्यापि कस्यचिदखण्टेकविषयत्वाननुभवात् , निरंशेऽर्थे संशयधीपसराऽयोगान, प्रकृते यथान्यसमयसंकेतानुसार शशविषाणादिसंकेतिततदादिपदार्थवद्वाक्यार्थमयत्वात् पन्द्रार्थस्य तत्सद्भाबतात्पर्यादसद्भुतोद्भावनरूपमृषायादोपपत्तेः । अत एव परसमयाभिधानपराणां निषेधपराणां चासत्यभाषावगणाप्रसूतवाक्यस्थानां प्रकृत्यादिपदानां सद्भावानभिप्रायाद् न मृषात्वम् । अत एव च पाण्डुरपत्रकिशलयादिवृत्तान्तार्थानामुपमावचनानां स्वार्थबाधेऽपि तात्पर्ये प्रामाण्याद् न तथात्वमिति दिग । तत्त्वमत्रत्य मत्कृतभापारहस्यादवसेयम् ।। १८ ।। ननु शब्दभेदसिद्धौ तस्य हेतुभेदनियम्यत्वाद् हेतुभेदसिद्धिः, तसिद्धौ च शब्दभेदसिद्धिरित्यन्योन्याश्रय इत्याशङ्क्याहज्ञायते तद्विशेषस्तु प्रमाणतरयोरिव । स्वरूपालोचनादिभ्यस्तथादर्शनतो भुवि ॥ १९ ॥ ज्ञायते प्रमातृभिः, तद्विशेषस्तु सत्येतरशब्दभेदम्तु प्रमाणेतरयोरिव-प्रमाण-सदाभासयोरिख, 'स्वकृतप्रतिभाससाम्येऽपि विशेषः' इति योजना । स्वरूपालोचनादिभ्यः-संवादाऽसंबादनिरूपणादिभ्यः । एषां भेदव्याप्यत्वमाह भूचि=थिन्याम् , तथादर्शनतः, अनेन प्रकारेण तद्भेदसिद्धेः, अनुभव नहीं होता! श्वं जो अर्थ अंशहीन होता है उसमें संशयात्मकज्ञान का भी उदय नहीं होता। प्रकृत विषय के सम्बन्ध में यह ज्ञातव्य है कि जैसे अन्य मत के संकेतात्मक समय के अनुसार जब तत्' आदि पद शशविषाण आदि में सङ्केतित होता है तो उसका अर्थ पदार्थ होने पर वाक्यार्थ रूप भी होता है, उसी प्रकार प्रधानादि पदं के अर्थ के भी बाक्यार्थात्मक होने से यह कहा जा सकता है कि प्रधान आदि पद का प्रयोग असदभूत अर्थ का उभाषक होने से प्रधान आदि पद भी मृषावाद है। यही कारण है जिससे अन्य मत के सङ्केतित अर्थ के प्रतिपादकतथा निषेध बोधक प्रकृति आदि पद जो असत्यभाषा की बगंणा से उत्पन्न बाझ्या के घटक होते हैं वे अपने प्रतिपाच अर्थ के अस्तित्व प्रतिपादन में अभिप्राय न रखने से मृषा नहीं होते। और इसीकारण से यह भी बात उपपन्न होती है कि पाण्डर पत्र किसलयादि दृष्टान्तभूत अर्थों के बोधक (उपमावाची) शब्दों के अर्थ का बाध होने पर भी तात्पर्य में प्रमाण होने से उनमें मृषात्व नहीं होता। प्रस्तुत विषय की तात्विकता के बोध के लिए ध्यारूपाकार के भाषारहस्य नामक ग्रन्थ का अवलोकन अपेक्षित है ॥ १८ ॥ [ हेतुभेद-शब्दमेद दोनों में अन्योन्याश्रय का निरसन ] पन्द्रहवीं कारिका में हेतुभेद से शब्दभेद की सिद्धि बतायी गयी है। उस पर यह शङ्का होती हैं कि-शभेद सिद्ध हो जाने पर उसके हेतुभेद से नियम्य होने के कारण उससे हेतुभेद की सिद्धि होगी; और हेतुभेद सिद्ध हो जाने पर उससे शब्दभेद की सिद्धि होगी। अतः हेतुभेद से शब्दभेद की सिद्धि अन्योन्याश्रय दोष से ग्रस्त है।' १९वीं कारिका इसी शङ्का का परिहार करने के लिए प्रवृत्त है। कारिका का अर्थ इसप्रकार है-जैसे प्रमाण और प्रमाणामास से उत्पन्न प्रतिमास के समान होने पर भी प्रवृति के संबाद मौर विसंवाद से Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या, क. टीका-हिन्दीषिवेचन ] [ २७३ परैरपि सदसदर्थप्रतिभासाऽविशेषेऽपि संवादाऽसंवादाभ्यामेव भेदाभ्युपगमात् । न चैकान्ततुल्ययोः संवादाऽसंवादसंभव इति विभावनीयम् । अथ स्वातिरिक्तगुण-दोषसंबन्धादेव तेपामेकान्ततुश्यत्वं न भविष्यति, इति किं स्वरूपभेदेन ?, अन्यथा कालभेदेन भ्रम-प्रमाजनकचक्षुरादेरपि स्वरूपभेदः स्यादिति चेत् ? न, सत्येतरादिशब्दानां सर्वथा स्वरूपामेदे. संवादेतराद्यनापत्तेः, कार्यभेदे स्वभावभेदस्य प्रयोजकत्वात् , सहकारिभेदस्याप्यजनकस्वभानपरित्यागौपायकत्वात् , निर्मलाऽनिर्मलचक्षुरादेरपि स्वरूपभेदाभ्युपगमात् । इप्यते च सत्येतरादिव्यबहारभेदादपि सत्येतरादिभेदः, असति साधके व्यवहारस्यापि प्रमाणत्वात् , स च हेतुभेदमाक्षिपतीति कान्योन्याश्रयः ? इति दिग ॥ १९ ।। प्रमाताओं को प्रमाण और प्रमाणाभास के भेद का बोध होता है उसीप्रकार सत्य शब्द (-प्रमाणभूत शब्द ) और असत्य शब्द (-अप्रमाणभूत शब्द ) के भी भेद का ज्ञान सम्बाद और विसम्वाद से होता है। कोपि मायाद और घिसम्वाद में सम्बाध और विसम्बाध के भेद की व्याप्ति लोक में दृष्ट है। अत: इस व्याप्ति के बल पर सम्बाय और विसम्याद द्वारा सत्य और असत्य शब्दों में भेद की सिद्धि निर्बाध रूप से सम्भव है। प्रतिवादी भी सत्य शब्द और असत्य शब्द से होने वाले सदर्थविषयक और असदर्थविषयक प्रतिभास के समान होने पर भी सम्वाद और विसम्बाद से ही सत्य असत्य शब्दों में भेदशान का अभ्युपगम करते हैं। क्योंकि यह ज्ञातव्य है कि जो एकान्त सुल्य (-सर्वथा समान ) होते हैं उनमें सम्याद और विसम्बाद नहीं होता, यह तो परस्पर भिन्न में ही होता है। [ सत्य-असत्य शब्दों में स्वरूप भेद का समर्थन ] यदि यह कहा जाय कि-'अपने द्वारा होने वाले गुण दोषों से ही सत असत् शब्दों में पकान्त तुल्यता का अभाव हो जायगा । अतः उनमें स्वरूप भेद् मानना उचित नहीं है। और यदि-गुण दोषात्मक कार्यभेद के कारण स्वरूपभेद माना जायगा तो कालभेद से प्रम और प्रमारूप भिन्न कार्यों का जनक होने से चक्षु आदि में भी स्वरूप भेद की आपत्ति होगीतो यह ठीक नहीं है। क्योंकि सत्य और अमत्य शब्दों में यदि स्वरूपभेद न होगा तो उनमें क्रम से सम्बाद और असम्वाद की उपपत्ति न हो सकेगी । क्योंकि कार्यभेव स्वरूपभेदाधीन होता है। यदि यह कहा जाय कि 'दो कारणों में स्वरूपतः अभेद होने पर भी सहकारी के भेद से कार्यभेद की उपपत्ति हो सकती हैं तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि सहकारी कार्य का जनक नहीं होता अपितु मूल कारण के अजनकत्व स्वभाव को दूर करने में ही उपयोगी होता है। और सच तो यह है कि प्रमाजनक निर्मलचक्षु और भ्रमजनक अनिमलचक्षु में भी स्वरूप भेद होना ही है । यह भी ज्ञातव्य है कि सत्य और असत्य हयवहार से भी सत्य और असत्य शब्दों का भेद सिद्ध होता है, क्योंकि बाधक न होने पर व्यवहार भी प्रमाण होता है। इस प्रकार व्यवहारभेद से सिद्ध शब्दभेद से जब हेतुभेद का आक्षेप (अनुमान) सम्भव है तो हेतुभेद से शब्दभेद स्वीकार करने में अन्योन्याश्रय का अवसर कहाँ है ? ||१९|| Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रमा० स्त० १६/२० नन्वेवं शब्दाऽथयोः स्वाभाविकसंबन्ध-सत्येतरादिभेदसाम्राज्ये संकेतवैयय॑म् , स्वत एवं शब्दस्यार्थप्रतिपादनयोग्यतायां संकेताऽदर्शिनोऽपि स्वतोऽर्थपतिपत्त्यविरोधादित्याशङ्क्याहसंमयापेक्षणं चेह तत्क्षयोपशमं विना । तत्कतत्वेन सफल योगिनां तु न विद्यते ॥२०॥ समयापेक्षणं चसकेतपतिसंधानान्वय-व्यतिरेकानुविधानं च, इह-शब्दस्थले, तत्क्षयोपशमं बिना शब्दार्थसंबन्धज्ञानावरणक्षयोपशम विना, तत्कर्तत्वेन उक्तक्षयोपशमकतत्वेन , सफलं सार्थकम् , शाब्दबोधे शक्तिमहस्यैव हेतुत्वेऽपि संकेतस्य तदभिव्यञ्जकत्वेनोपयोगात् । यत्तु एवं शक्तिव्यञ्जकत्वाभिमतस्य संकेतमहस्यैव शाब्दबोधहेतुत्वौचित्यम्' इतिः तल, पट्वन्यासे संकेतमननुस्मृत्यापि वाच्यताज्ञानेन शाब्दबोधोदयेन व्यभिचारात् । यत्त 'अतिरिक्त शक्त्यभावज्ञानेऽपि शाब्दबोधोदयात् संकेतज्ञानमेव शाब्दप्रयोजकम् ' इति ; तत्तु धर्म-धर्मिणोर्भेदाभेदयादिनां न दोपावहम् , उक के सन्दर्भ में यह शङ्का होती है कि-"जब शब्द और अर्थ में स्वाभाविक सम्बन्ध है एवं सस्य, असत्य शब्दों में भेद है तब अर्थ विशेष में शब्द विशेष का उत मानना ध्यर्थ है । क्योंकि जिस मनुष्य को जिस अर्थ में जिस शहद का सङ्केतलान नहीं है उस मनुष्य को भी शब्दार्थ के स्वामाचिक सम्बन्ध होने के कारण उस शब्द से उस अर्थ का बोध मानने में कोई विरोध नहीं है ।"-इसी शङ्का के परिहारार्थ २० वीं कारिका प्रवृत्त है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है [शाब्दबोध में शक्तिग्रह की हेतुता का समर्थन] अर्थविशेष' में शब्द विशेष के स्वाभारिक सम्बन्धरूप शक्ति के होने पर भी जब तक उसके ज्ञानाचरण का क्षयोपशम नहीं होता तब तक शम्दार्थ का बोध नहीं होता । अतः उस के लिये अर्थ घिशेष में शब्दविशेष का सत और उसका शान आवश्यक है। इसी बात को स्यात्याकार ने इस रूप में कहा है कि शाकदबोध में सतग्रह के अन्वय व्यतिरेक का जो अनुविधान होता है अर्थात् सङ्केतशान के होने पर जो शाब्दबोध का जन्म होता है और सतत्रान के अभाव में जो शब्दयोध का जन्म नहीं होता है वह शाब्दबोध में अपेक्षित वार्थ सम्बन्ध के शानावरण के क्षयोपशम के द्वारा होता है । यह ठीक है कि 'शाम्रोध में शक्तिशान ट्वी कारण होता है, उसमें सनशान की कारणता निर्विवाद सिद्ध नहीं है' तथापि शक्तिप्रह के लिए सङ्केतशान की उपयोगिता अनिवार्य है। तो अवश्यक्लप्सनियत पूर्ववर्ती होने से सकतज्ञान को ही शाब्दबोध का कारण मानना उचित है न कि शक्तिग्रह को' ऐसा जो कथन है वह भी ठीक नहीं हैं, क्योकि पटु अभ्यास की दशा में अर्थात् शब्दविशेष से अर्थविशेष के बोध का पुन: पुनः जन्म होने की स्थिति में सङ्केतक्षान के बिना भी अर्थ में शब्द की वाच्यता का ज्ञान होकर शायबोध का जन्म होने से शामयोध के प्रति सतज्ञान की कारणता में व्यतिरेक व्यभिचार है। इस सन्दर्भ में कुल जिद्वानों का जो यह कहना है कि 'शब्द में अर्थ बोधिका शब्दस्वरूप से अतिरिक्त कोई शक्ति नहीं है, यह शान रहने पर भी शाबोध होता है । अतः अतिरिक्त शक्ति को माने बिना मात्र संकेतशान को ही शाब्दबोध प्रयोजक मानना चाहिए' -यह धर्म और धर्मों में भेदाभेदवादी के मन में किसी दोप का आषादक नहीं हो सकता, क्योंकि शब्द में अर्थ-बोधिका जो शक्ति मानी जाती है यह सदस्वरूप से सर्वथा भिन्न नहीं है । अत: Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका- हिन्दीविवेचन ] [ २७५ तत्पदबोध्यत्वप्रकारकेच्छाविषयत्वस्य गौरव - व्यभिचाराभ्यामतन्त्रत्वात् । एतेन 'सतत्पद बोद्धव्यत्वप्रकारता निरूपितेश्वरेच्छाविशेष्यत्वं तचत्पदार्थ मात्रवृत्तितत्तस्पदवाच्यत्वम्' इति नैयायिका दिमतमपास्तम्, लक्ष्यादावतिप्रसक्तत्वात् ईश्वरमनत्रीकुर्वतामपि वाच्यत्वव्यवहारात् लाघ्याच्च तत्पदबोध्यत्वरूपस्यार्थधर्मस्यैव तत्त्वात् । न चैवं लक्षणोच्छेदः अर्थान्तरवोधार्थमाश्रीयमाणे संकेतान्तर एव तद्वयपदेशात् । 1 2 उस अभिन्न शक्ति के होने पर भी शब्द में अर्थ बोधानुकूल अतिरिक्त शक्ति के अभाव का ज्ञान हो सकता है और उस ज्ञान के होने पर भी शब्द में अर्थ बोध की सम्पादिका शब्दस्वरूप से भिन्नाभिन्न शक्ति का ज्ञान हो सकता है। यदि श में अबोध की प्रयोजिका इस प्रकार की शक्ति को स्वीकार न कर अर्थ में पदजन्य बोध विषयत्वप्रकारक इच्छा पिता को ही वाध्यतारूप माना जायगा और उसके ज्ञान को शब्दजन्य अर्थबोध का कारण माना जायगा तो शक्तिशान की कारणता की अपेक्षा गौरव होगा । तथा उक्त विषयतारूप वाच्यता का ज्ञान न रहने पर भी अमोध की सम्पादिका शब्दस्वरूप से भिन्न भिन्न शक्ति के ज्ञान से शाब्दबोध की उत्पत्ति होने से व्यभिचार भी होगा । अतः पदजन्य बोध विषयत्य प्रकारक इच्छा विषयत्वरूप वाच्यत्व शाब्दबोध का प्रयोजक है । [ नैयायिक अभिमत शक्तिपदार्थ का निरसन ] इस सन्दर्भ में नैयायिकों का यह कहना है कि- ' तत्तत् अर्थ निष्ठ तत्तत्पदवाच्यता का ज्ञान तत्तत्पदजन्य तत्तत् अर्थ विषयकषोध का कारण है। और तत्तत्पदवाच्यत्व तत्तत्पदजन्यबोध विषयत्वप्रकारक ईश्वरेच्छा की विशेष्यतारूप है । किन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि वाच्य ( शक्य ) अर्थ के समान लक्ष्य अर्थ में भी लक्ष्यक पदजन्य बोधविषयत्वमकारक ईश्वरेच्छाविषयता रहती है। क्योंकि ईश्वरेच्छा सर्वविषयक होती है । अतः लक्ष्य अर्थ लक्ष्य पदजन्य बोधविषयता प्रकारक ईश्वरेच्छा का विषय होना अनिवार्य है । फलतः पदजन्य बोधविषयत्वप्रकारक ईश्वरेला विपयता को पदवाच्यत्वरूप मानने पर लक्ष्य अर्थ में भी लक्ष्य पद के बाध्यताध्यवहार की आपत्ति होगी। इसके अतिरिक्त उक्त वाध्यताज्ञान को शाब्दबोध का कारण मानने पर अनीश्वरवादी को शाब्दबोध न हो सकेगा। क्योंकि उसके मत में ईश्वर का अस्तित्व ही न होने में उस अर्थ में पहजन्य योधविपत्कार ईश्वरेला विषयत्व का ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए लाघव के कारण तत्तत्पदबोध्यत्वरूप अर्थधर्म को ही तत्तत्पदवाच्यतारूप, और उसके ज्ञान को ही तत्तत्पदाधीन अर्थबोध का कारण मानना उचित है। यदि यह कहा जाय कि- 'तसत्पदबोध्यत्व को तत्तत्पदवाच्यत्वरूप तत्तत्पद की शक्ति मानने पर लक्षणा का उच्छेद हो जायगा क्योंकि लक्ष्य अर्थ में भी लक्ष्यपबोध्यस्थ रहता हैं और तत्तत्पदबोध्यत्व को तत्तत्पदवाच्यतारूप मानने के पक्ष में वदी शनिरूप हो जायगा ? - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वास्तव में लक्षणा सङ्केत से अतिरिक्त कोई वृत्ति नहीं है। अपितु प्रसिद्ध अर्थ से भिन्न अर्थ के बोध के लिए शब्द में उस अर्थ का जो अन्य संकेत माना जाता है उसी को लक्षणशब्द से व्यवहृत किया जाता है। अतः वास्तव में लक्षणा सङ्केत से भिन्न नहीं है और यही उचित भी है । क्योंकि लक्षणा को सङ्केतात्मक शक्ति से भिन्न मानने पर शब्द जन्य अर्थ बोध के प्रति शक्ति-लक्षणा अन्यतर को प्रयोजक मानना होगा। जो दक्षणा को शक्ति में अन्तर्भावित कर शक्तिमात्र को शब्दजन्य अर्थ बोध का प्रयोजक मानने की अपेक्षा गौरवग्रस्त होने से व्याज्य है । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] [ शाखवार्ता० स्त० ११/२० युक्तं चैतत् , शान्दयोधे शक्ति-लमणान्यतरत्वेन प्रयोजकत्वापेक्षया शक्तित्वेनैव तत्त्वौचित्यादिति दिग् । नन्वेवं समयस्य क्षयोपशमार्थत्वे सर्वत्र गलितावरणानां योगिनां वाचकप्रयोगार्थ तदपेक्षा न स्यात् , इत्यत इष्टापत्तिमाह-योगिनां तु न विद्यते समयापेक्षणम् , स्वयमेव वाच्यवाचकभावं ज्ञात्वा वाचकप्रयोगादिति ॥२०॥ अन्यस्यान्यत्र समये विरोध इत्येतत् परिहरन्नाह---- सर्ववाचकभावत्वाच्छब्दानां चित्रशक्तितः।वाच्यस्य च तथान्यत्र नाऽऽगोऽस्य समयेऽपि हि ॥२१॥ सर्ववाचकभावत्वान =देशाद्यपेक्षया विलम्बितादिपतीतिजनकत्वेन सर्ववस्तुवाचकदमावत्यात्, शब्दानां चित्रशक्तितः विचित्रार्थयोधनशक्तिमत्त्वात् ; वाच्यस्य च तथा अनेकशब्दवाच्यत्वस्वभावत्वेनानेक्रपतीतिनिबन्धनानेकशक्तिमत्त्वात् , अस्य-घटादिशब्दस्य , अन्यत्रपटादौ, समयेऽपिसंकेतेऽपि, नाऽऽगा=नापराधो वृथानियोगलक्षणः , हिनिश्चितम् , अधिकृतप्रतीतिजनकत्वेनो यदि यह शङ्का की जाय कि- 'समय (-सङ्केत) को शब्दार्थ सम्बन्ध के शानावरण के क्षयोपशम के माध्यम से ही वाचक शब्द के प्रयोग में एवं तजन्य अर्थबोध में-उपयोगी माना जायगा तो योगियों को याचकपद के प्रयोग में सवत की अपेक्षा न होगी। क्योंकि उनके समस्त ज्ञानाचरणों का भय हो चुका रहता है ।' -तो योगियों के सम्बन्ध में इस शङ्का का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि उन्हे सङ्केतशान के बिना ही अर्थ और शब्द में घाच्यवाचक भाव का ज्ञान हो जाता है । अत: सङ्केतक्षान के बिना ही ये वाचकपद का प्रयोग आवश्यकतानुसार करते रहते हैं ॥२०॥ २२ वीं कारिका में अन्य पद का अभ्य अर्थ में-घटादिषद का पटादि अर्थ में-सङ्केत स्वीकार करने पर होनेवाले विरोध का परिहार किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है ['सर्वे सर्वार्थवाचकाः ' इस पक्ष में विरोध का परिहार] सब्दों में सभी अर्थों का वाचक होने का स्वभाव है । क्योंकि सभी शब्द देश-काल-पुरुष आदि की अपेक्षा से चिलमय अथवा अविलम्ब से सभी अर्थों की प्रतीति के जनक होने हैं। शब्दों का यह स्वभाव उनमें विचित्र अर्थों की बोधक भिन्नाभिन्न शक्ति के अस्तित्व के कारण होता है । जिस प्रकार शब्दों में सभी अर्थों की याचकता का स्वभाव है उसी प्रकार अर्थ में सभी शब्दों से वाच्य होने का भी स्वभाय है। यह भी विभिन्न शब्दों से होने वाली प्रनीति की विषयता की नियामक शक्तियों के कारण होता है। अन्य शब्द का अर्थ में , जैसे घटादि शब्द का पटादि अर्थ में सङ्केत मानने पर भी इस प्रकार का कोई दोष कि- 'यदि पट आदि में घट आदि शब्द का सत है तो पट आदि अर्थों में बद आदि शब्दों का प्रयोग होना चाहिए-नहीं हो सकता । पवं 'पट आदि को घट आदि शब्दों से बोध्य होना चाहिए। इस प्रकार का भी दोष नहीं हो सकता, श्योंकि शब्द में अधिकृत अर्थ की प्रतीति की जनता होती है। अत: उक्त दोष का परिहार सम्भवित होने से शब्द और अर्थ दोनों का उक्त स्वभाव उपपन्न होता है । शब्द नियतसङ्केतज्ञान के सरकार से ही अर्थे का बोधक होता है। और नियत सङ्गत सभी शब्दों का सब अर्थों में नहीं होता। अतएव शब्द के सब अर्थों के प्रति निर्विशेषता सिद्ध न होने से उक्त प्रकार का कोई अतिप्रसङ्ग नहीं हो सकता। यहाँ-'जब Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- ----.mmmww.P.A ... स्या, क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ २७७ भयोस्तत्स्वभावस्वात् , नियतसंकेतसहकृतस्य शब्दस्य सर्वार्थान् प्रत्यविशिष्टत्वाऽसिद्धेश्नतिप्रसङ्गात् , नियतत्वस्य सहकारियोग्यतास्यस्य तन्नियामकधर्मान्तररूपस्य वा कार्यगम्यत्वात् ; अन्यथा चक्रादिसमवहितस्य दण्डादेरपि घटान्यकार्यजननेऽविशिष्टतापत्तेः । 'कतः पुनरेतत् स्वरूपं शब्दादेः' इति पर्यनुयोगे तु 'स्वहेतुप्रतिनियमात् ' इत्युत्तरं न्यायविदः । न चैवं 'पटो घटपदवाच्यः' इति व्यवहारापत्तिः । यथाप्रमात्रादिभेदं तत्सत्त्वेनेष्टत्वात्-अन्यथा च तदभावादेव-पौरुषेयस्य शब्दार्थसंबन्धस्य निरपेक्षत्वाऽसिद्धेः । स्वरूपयोन्यतामादाय सामान्यतः 'घटो घटपदवाच्यः' इति न्यवहारस्तु नामादिभेदभिन्नत्वाद् घटपरिणामस्य , पटादेरपि घटपदवाच्यत्वेन घटत्वावच्छेदेनैव घटवाच्यत्वस्य(१ स्याऽ) साकाऋत्वादिति दिग् ॥२१॥ सभी शब्दों का सभी अर्थों के साथ सङ्केत माना जायगा तो अमुक अर्थ में अमुक शब्द का सङकेत नियत है यह निश्चय करने में कठिनाई होगी-यह शङ्का नहीं की जा सकती । क्योंकि नियतत्व सहकारि योग्यतारूप अथवा सहकारि योग्यता के नियामक अन्य धर्म रूप है , जो अर्थविशेष में विद्यमान शब्द विशेष के सइकेत में ही होता है, यह बात शब्दविशेष से अर्थघिशेष की प्रतीति रूप कार्य से ही शात होती है। सहकारि योग्यता रूप किं या उसका नियामक . अन्य धर्मरूप नियतत्व की कार्य द्वारा ज्ञयता केवल शब्दार्थ के सकेत तक ही सीमित नहीं है किन्तु अन्यतः भी मान्य है । जैसे-- चक्र आदि से सन्निहित दण्ड आदि में ही घट की उत्पत्ति में सहकार करने की योग्यता है। यह बात चक्र आदि से सन्निहित दण्ड आदि से घररूप कार्य की उत्पति से ही ज्ञात होती है। यदि यह बात नहीं मानी जायगी तो उक्त प्रकार के दण्ड आदि में घट से भिन्न पट आदि कार्यों के प्रति भी निर्विशेषता की आपत्ति होने से उन दण्ड आदि से पट आदि की भी उत्पत्ति होने की आपत्ति होगी। यदि यह प्रश्न हो कि शब्द को यह स्वभाव कैसे प्राप्त है , तो इसका उत्तर यह है कि शब्द आदि के उत्पादक कारण द्वारा ही शब्द आदि को यह स्वभाव प्राप्त होता है। अर्थात् न्यायवेत्ताओं के मत के अनुसार शब्न आदि कार्य अपने कारणों से ही तथाविध स्वभाव से विशिए ही इत्पन्न होते है । सभी शब्दों में सभी अर्थों की वाचकता मानने पर, 'पटो घर पद वाच्यः इस व्यवहार की आपत्ति होगी' -इस दोष का भी उद्भावन नहीं हो सकता; क्योंकि जब कभी किसी जगह किसी प्रमाता को घट शब्द से पट का बोध होता है उस समय उस स्थान में उस प्रमाता की दृष्टि मे पट में 'घटपद याच्यत्व' का व्यवहार इष्ट ही है। और अगर किसी भी प्रमाता को ऐसा योध होता नहीं तो वह बोध के अभाव के कारण ही यह श्यवहार की आपत्ति नहीं है । ऐसे प्रमाता के तादृश बोध की विद्यमानता या अविद्यमानता पर ही साहश व्यवहार या उसका अभाव जो होता है इसका कारण यह है कि शब्द और अर्थ का संबन्ध पुरुषमूलक होने से उसमें पुरुष की प्रमा की सापेक्षताही होती है, मिरपेक्षता नहीं। फिर भी सभी शब्दों एवं अर्थों में रद्दी हुई स्वरुपयोग्यता के कारण सामान्यत: पेसा व्यवहार किया जाता है कि सभी अर्थ सभी शयदों से वाध्य है 'घट घट पद से वाच्य है' ऐसा विशेष ज्यवहार तो चटपरिणाम नामादि भेद से भिन्न होने के कारण होता है । उपर जो बता गये कि अगर प्रमाता को घट पदसे घट का बोध होता है तो पट में भी घटपश्वाच्यता का व्यवहार इष्ट ही है, इससे सूचित होता है कि घटपद की बाध्यता घटत्यावच्छेदेन ही साकाङ्क है ऐसा नहीं है ॥ २९ ॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] [ शास्त्रवा० स्त० ११/२२-२३ अत्रैवानुक्तदोषपरिहारायाहअनन्तधर्मकं वस्तु तद्धर्मः कश्चिदेव च। वाच्यो न सर्व एवेति ततश्चेतन बाधकम् ॥२२।। अनन्तधर्मकं बस्तु, तथातथाऽनेककार्यकरणात्, एकस्वभावादनेककार्याऽसिद्धेः, तद्धर्म: कश्चिदेव च-अभिधेयपरिणामरूपः, वान्यः अभिधेयः, न सर्व एव सर्वथेन्द्रियान्तरमाह्योऽपि, इति; यस्मादेवं ततचैतद्-वक्ष्यमाणं न बाधकम् ।।२२।। किं तत् ? इत्याहअन्यदेवेन्द्रियग्राह्यमन्यच्छब्दस्य गोचरः । शब्दात् प्रत्येति भिन्नाक्षो न तु प्रत्यक्षमीक्षते ॥२३॥ अन्यदेवेन्द्रियग्राह्यम्=तात्विकं स्वलक्षणम् , अन्यत् शब्दस्य गोचर:-सांवृतं सामान्यलक्षणम् । कुतः ! इत्याह शब्दात्-घटादिशब्दात् प्रत्येति जानाति घटादिकम् , भिन्नाक्ष: अपरध्याहारादन्धोऽपि, न तु प्रत्यक्षमीक्षते चक्षुष्मानिव । ततः स्पष्टत्वाऽस्पष्टत्वविरुद्धधर्माध्यासाद् मेद एव दृश्यविकल्प्ययोः ॥२३॥ [वस्तुमात्र अनन्त धर्मात्मक है] प्रस्तुत कारिका में अब तक उद्भवित न किए गये दोषों के परिहार का उपक्रम किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है प्रत्येक यस्तु अनन्त धर्मात्मक है क्योंकि उससे भिन्न-भिन्न कार्यों का जन्म होता है और कोई भी वस्तु एक धर्म-एक स्वभाव से विभिन्न कार्यों का जनक नहीं हो सकती। वस्तु के अनन्त धर्मों में कुछ ही धर्म जो अभिधेयपरिणामात्मक होते हैं वही शब्द से वाच्य होते हैं न कि ऐसे धर्म जो सर्वथा इन्द्रियान्तर से ग्राह्य हो वे भी पाच्य होते है 1 क्योंकि सभी धर्म किसी पक शब्द निरूपित अभिधेय परिणामात्मक नहीं होते । शब्दविशेष से अर्थविशेष के अभिधान की इस स्थिति में अन्य दोष जो कि आगे कहा जाने वाला है यह शब्द की मर्वार्थवाचकता और अर्थ की सर्व शव्यबाध्यता में बाधक नहीं हो सकता ||२२|| [ दृश्य और विकल्प्य अर्थी में भेदसाधन की आशंका] २३ थीं कारिका से अब तक अनुदभावित दोष का कथन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है इन्द्रिय से जिस अर्थ का ग्रहण होता है वह अन्य है , और शहद से जिस अर्थ का बोध होता है, वह अन्य है । अर्थात् स्वलक्षण क्षणिक वस्तु चश्च से प्राश होती है और सम्भवतः काल्पनिक ( नाम जाति आदि से विशिष्ट) सामान्य अर्थ शब्द से बोध्य होता है। इसीलिए जिसकी आँम्ब नष्ट हो जाती है या जन्मान्ध होता है उसे वस्तु का दर्शन नहीं होता किन्तु से ग्रस्त का बोध होता है। इसलिए दृश्य (निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के विषयभत) अर्थ में स्पष्टता और विकल्प्य (सविकल्पक बुद्धि के विषयभूत) अर्थ में अस्पष्टता होने से दृश्य और विकरूप्य में भेद मानना आवश्यक है । अन्यथा दोनों को एक मानने पर उसमें स्पष्टता और अस्पष्टता इन विरुद्ध धर्मों के समावेश की आपत्ति होगी ||२३|| Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविदेखन ] [ २७९ एतदेव विशिष्य भावयति--- अन्यथा दाहसंबन्धादाई दग्धोऽभिमन्यते । अन्यथा दाहशब्देन दाहार्थः संप्रतीयते ॥२४॥ अन्यथा स्पष्टत्वेन, दाहसंबन्धात्-द्वाहेन्द्रियोगात् टाई दग्धः पुरुषोऽभिमन्यते एकलोली. भावेन साक्षास्कुरुते; अन्यथा अस्पष्टतथा, दाशब्देन श्रुतेन दाहार्थः संप्रतीयते-बिकल्पगोचरीक्रियते, अतोऽनुभवसिद्धमेवेन्द्रिय-शब्दार्थयोस्तुन्छाऽतुच्छत्वमिति भावः ।।२४।। __यथैतस्योक्तस्य न बाधकत्वं तथाह-- इन्द्रियग्राह्यतोऽन्योऽपि वाच्योऽसौ न च दाहकत् । तथाप्रतीतितो भेदाभेदसिद्धथैव तत्स्थितेः॥२५॥ इन्द्रियग्राह्यतः इन्द्रियग्राह्याद् धर्मात् अन्योऽपि वाच्यो धर्मः, अपिशब्दावनन्योऽपि, अतो युक्तमिदं यत्--' शब्दात् प्रत्येति भिन्नाक्षो न तु प्रत्यक्षमीक्षते' इति, तदभिधेयधर्मस्य कथश्चित् ततो भेदात् , अन्यथा प्रतीतिभेदानुपपत्तेः । न च शब्दार्थ नेक्षत एव, कश्चित् तद्माखानुविद्वस्यैव शब्दात् प्रतीतेः, यथाक्षयोपशमं तथानुभवादिति । सथा, असौ दाहशब्दवाच्यो धर्मः, न च दाहकृत्-न च दाहकरणशीलः, चशब्दाद् नाऽदाहकच्च, अतोऽयुक्तमिदं (युक्तमिदं)यदुक्तम्-'अन्यथा २४ घी कारिका में पूर्वकारिकोक्त अर्थ को सुस्पष्ट किया गया है, कारिका का अर्थ इस प्रकार है। जब किसी मनुष्य की इन्द्रिय को दाह ( अग्नि के साथ सम्बन्ध ) होता है तब वह दग्ध पुरुष दाह का एकलोलीभाव से साक्षात्कार करता है किन्तु जब वह दाह शरुद को केवल सुनता है तब उसे दाह के अर्थ का विकल्पात्मक बोध मात्र ही होता है । इससे स्पष्ट है कि इन्द्रियग्राम्य अर्ध सत्य और शब्द वेच अर्थ असत्य होता है। ॥२४|| २५ थीं कारिका में पूर्वकारिकोक्त दृश्य और विकरुप्य के भेद को घस्तु की अनेकान्तरूपता का अबाधक बताया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है [ भेदाभेद की सिद्धि से पूर्व-आशंका का निरसन ] शब्दयाच्य धर्म, इन्द्रियग्राह्य धर्म से कथञ्चित् अन्य भी है और कथश्चित अनन्य भी है। इसलिए यह कथन की-“ नेत्रहीन व्यक्ति को शब्द से अर्थ का बोध होता है किन्तु नेत्र से अर्थ का दर्शन नहीं होता" -यह ठीक ही है. क्योंकि इन्द्रियग्राह्य अर्थ का अभिधेय धर्म, इन्द्रियग्राम धर्म से कश्चित भिन्न है । अत: अभिधेय धर्म के रूप में नेत्र द्वारा अर्थ का अग्रहण ठीक ही है । यदि अभिधेय धर्म और इन्ध्रियग्राह्य धर्म में भेद न होगा तो शब्द जन्य प्रतीति और इन्द्रियजन्य प्रतीति में भेद ही न बन सकेगा । "नेत्रहीन ध्यक्ति शब्दार्थ का किसी भी रूप में ईक्षण ही नहीं करता" -यह समझना ठीक नहीं है क्योंकि इन्द्रियग्राह्य धर्म ले कथञ्चित् अनुविद्ध ही अर्थ का शब्द से बोध होता है । ज्ञानावर के क्षयोपशम के तारतम्य से इन्द्रियग्राम्य और शदबोध्य धर्म की प्रतीति अनुभव सिद्ध है । शब्दवाच्य धर्म दाह का कारण भी नहीं होता और दाह का अकारण भी नहीं होता अपितु कचित् उभयात्मक होता है । इसलिए यह कहना Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ] [शास्वार्सा० स्तर ११/२५ दाहसंबन्धात् '....इत्यादि, स्पर्शनेन्द्रियगम्यधर्मस्य कथञ्चिदभिधेयधर्मतो भेदात् । न च शब्दादपि न तत्पतीतिरेव, अस्पष्टाकारतया प्रतीतेः, एकत्रापि प्रतिभाससामग्रीभेदात् स्पष्टाऽस्पष्टप्रतिभासोपपत्तेः । तथा दावेदनं वसातवेदनीयकमोदयादिनिमित्तम् , न तु दाहसंबन्धमात्रजमिति न दोषः । द्वैरूप्ये हेतुमाह-तथाप्रतीतितः उक्तवदितरेतरगर्भपतीतेः, भेदाभेदसिद्धथैव-जात्यन्तरात्मक भेदाभेदोपपत्त्यैव, तस्थिते:-अभिधेयेन्द्रियग्राह्यधर्मव्यवस्थानात् । यदि चैवमपि स्वाग्रहादस्पष्टज्ञानं वस्त्वविषयमेवेप्यते तदा काचादिव्यदहित वस्तुपतिभासिदर्शन दूरस्थवृक्षादिदर्शनं चाऽस्पष्टमुच्छिद्येत । न च तत्र नाऽस्पष्टत्वम् , सामान्योपसर्जनविशेषप्रतिभासत्वेन तत्र सार्वजनीनाऽस्पष्टत्वव्यवहारात् । श्रान्तत्वे चास्य प्रमाणद्वयानन्त तस्याऽज्ञातवस्तुमकाश-संवादाभ्यां प्रमाणान्तरतापत्तिः । न चास्य स्वप्रतिभासेऽस्येव संस्थानविशेषलिङ्गत्वेनानमानेऽन्तभावा न प्रमाणान्तरत्वम्, अनुमानस्य व स्वातिमासिन्यनर्थेऽर्थाध्यबसायेन प्रवृत्तेन्तिस्वम्, प्रान्तस्यापि च पारम्पर्येण वस्तुप्रतिबन्धात् प्रामाण्यमिति वक्तव्यम् , अनुमानप्रामाण्यान्यथानुपपत्त्या अयुक्त (?युक्त) है कि-' इन्द्रिय से दाह- ( अग्नि का सम्पर्क ) होने पर मनुष्य अपने को दग्ध मानता है और शब्द से दाह का बोध होने पर पैसा नहीं मानता ।' -यह मान्यताभेद का कारण यह नहि है कि इन्द्रियग्राम और शब्दबोध्य में अत्यन्त भेद है, अपितु यह है कि स्पर्शनेन्द्रिय से ग्राह्य धर्म अभिधेय धर्म से कश्चित् भिन्न है। और कथञ्चित् भेद के कारण ही यह बैलक्षण्य होता है कि स्पर्शनेन्द्रिय से दाह का ग्रहण होने पर दग्धता होती है और दाहशब्द से दाह का बोध होने पर दग्धता नहीं होती। यह भी बात नहीं है कि 'शब्द से इन्द्रियग्राह्य धर्म की प्रतीति किसी भी रूप में होती ही नहीं' -किन्तु सच यह है कि शन्द्र से भी इन्द्रियग्राह्य की प्रतीति होती है किन्तु वह अस्पष्ट होती है। ग्राहक सामग्री के भेद से एक ही वस्तु की भी स्पष्टाकार और अस्पष्टाकार प्रतीति होना युक्तिसङ्गत है । इन्द्रिय से जो दाह का बोध होता है, उससे दग्धता होने का कारण केवल यह नहीं कि वह बोध इन्द्रियजन्य है, बल्कि इसलिए होती है कि इन्द्रिय से दाह के ग्रहणकाल में असातवेदनीय- (दुःजननक्षम ) कर्म का उदय होने से होती है। अर्थ की ग्राह्य और अभिधेय उभयरूपता असिद्ध नहीं है अपितु अभिधेय गर्भग्राह्य और ग्राश्चगर्भ अभिधेय की क्रम से इन्द्रिय और शब्द से होने वाली प्रतीति से सिद्ध है । परस्पर विरोधी भेद और अभेद से विजातीय परस्पर अविरोधी भेदाभेद की जो एक अर्थ में प्रतीति होती है उसी से अर्थ की ग्राम और अभिधेय धर्मरूपता व्यवस्थित है। [अस्पष्टज्ञान में कल्पित विषयता का निरसन] यदि अपनी धारणा के बल से यह कहा जाय कि शब्द से होने वाला अस्पष्टज्ञान कल्पित विषयक ही होता है वस्तुविषयक नहीं होता , तो काम आदि से व्यवहित वस्तु का जो अस्पष्ट दर्शन होता है , पर्व दूर स्थान में स्थित वृक्ष आदि का जो अस्पष्ट दर्शन होता है उसका उच्छेद हो जायगा । अर्थात् अस्पष्ट होने के आधार पर उन दर्शनों के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि वे वस्तविषयक नहीं है। यदि यह कहा जाय कि उक्त दर्शन अस्प है अपितु जो अंशदृष्ट होता है उस अंश में वह स्पष्ट ही है तो वह ठीक नहीं है। क्योंकि उक्तदर्शन सामान्य के द्वारा गौणीभूत विशेष प्राही प्रतिभासरूप होने से उसमें अस्पश्ता का ध्यवहार Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या, क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [२८१ विकल्पस्य स्वातन्त्र्येण प्रामाण्यस्य व्यवस्थापितत्वात् , समानविपयतया प्रवृत्तिविज्ञानजनकत्वपर्यवसितस्याऽविसंवादकत्वलक्षणस्य पामाण्यस्य भ्रान्तेऽयोगाच, प्रवर्तकत्वमात्रत्वस्य स्वरदर्शिताथप्रदर्शक(१ प्रवत्तक)त्वमात्रस्य च सैनिकृष्टज्ञानान्तरे पीतशङ्खादिग्राहिज्ञानान्तरे चातिव्याप्तः । अथ तत्रापि प्राो आरोपितवस्तुनि स्वाकारे वा प्राप्याऽभेदाध्यवसायेन प्राप्यांशेन समानविषयतया प्रवर्तकरय प्रामाज्यमक्षतम् नम्-सतोऽपि विकल्पात् तदध्यवसायेन वस्तुन्येब प्रवृत्तेः, प्रवृत्तौ च प्रत्यक्षेणाभिन्नयोग-क्षेमत्वात् ' इति; अन्यदप्युक्तम्-'न ह्याभ्यामर्थ परिच्छिद्य प्रवर्तमानोऽथक्रियाय विसंबायते,' इति चेत् ? न, उभयोरेकाय विषयसाम्यस्याऽसिद्धेः, लोकनबहारार्थ काल्पनिकम्य तस्याश्रयणे च तन्निबोहाय नित्यानित्यवस्तुमाहकत्वाऽऽश्रयणस्यैव युक्तसर्वसम्मत है । भौर यदि उक्तदर्शन को भ्रम माना जायगा तो प्रत्यक्ष और मनुमान इन बौद्धा. भिमत दो प्रमाणों में इसका अन्तर्भाव नहीं होगा। किन्तु उसे अतिरिक्त प्रमाण के रूप में स्वीकार करने की आपत्ति होगी, क्योंकि वह भी अशात वस्तु का प्रकाशक है और उस दर्शन से होने वाली वस्तुपापक प्रवृत्ति का संत्रादी भी है और इन्हीं दो चीजों से (अनुमान में भी! प्रामाण्य की सिद्धि होती है। [अस्पष्ट प्रतीति का अनुमान में अन्तर्भाव अशक्य ] यदि यह कहा जाय कि 'उक्तप्रतीति संस्थान विशेषरूप हेतु से होती है अत: अनुमान में इसका अन्तर्भाय हो जाने से उसमें प्रमाणान्तरस्त्र की आपत्ति नहीं होगी; अनुमान अपने विषयभूत अवस्तु में वस्तु का अध्यबसायी होने से प्रवर्तक होता है, इसलिए वह भ्रान्त होता है; और भ्रान्त होने पर भी वौद्धमत में वह परम्परचा वस्तु से व्याप्त होने के कारण प्रमाण माना जाता है तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि पूर्व स्वयक में अनुमान के प्रामाण्य की अन्यथा उपपत्ति न होने से विकल्पवान में स्वतन्त्ररूप से प्रामाण्य की सिद्धि की जा चुकी है। अत: उसे उक्तरीत से भ्रान्त होने पर भी प्रमाणरूप में व्यवहाय बताना समीचीन नहीं है। यह भी हातक्ष्य है कि अविसम्वादकत्वरूप प्रामाण्य समान विषयक प्रवृत्ति-विज्ञान की कारणतारूप है, मत: वह भ्रान्सज्ञान में कथमपि सम्भव नहीं है। केवल प्रवत्तक होने से भी या तो केवल स्वप्रदर्शित अर्थ का प्रवर्शक (? प्रवर्तक होने से भी यदि शान को प्रमाण माना जायगा तो सन्निकृ.माही अन्य भ्राम्तज्ञान में पर पीतरूप में शव को ग्रहण करने वाले शान में अतिव्याप्ति होगी, क्योंकि एक देशस्थ रङ्ग (कलाई ) और रजत को जब क्रम से रजत भार ग्रु के रूप में ज्ञान होता है तब भी यह रजतार्थी का प्रवर्तक एवं अपने पूर्व उम्पन्न रजत और के ग्राहक प्रत्यक्ष से प्रदर्शित अर्थ का प्रदर्शक ( ! प्रवर्तक )हाता है। पीकर में शङ्खग्राही शान भी शतार्थी का प्रपत्तंक और शादी प्रत्यक्ष से प्रदर्शित अर्थ का प्रदशक( ? प्रधक होता है। अत: ऐसे शानों में प्रामाण्य की मतिष्याप्ति अनिवार्य है। [विकल्प में आरोपितवस्तुविषयता अमान्य] यदि यह कहा जाय कि-" उक्तज्ञान स्थल में भी इसके विषयभूत आरोपित यस्तु में अथवा उसके आकार में प्राप्य वस्तु के अभेद का शान होता हैं । अतः प्राप्य अंश को लेकर समान विषयक होने से प्रवर्तक होने के कारण उस हाम में भी प्रामाण्य अप्रतिहत है । कहा Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२) [शाखवार्ता स्त० ११२५ स्वात् । उक्तप्रामाण्यस्योपेक्षणीयार्थाऽव्यापकत्वात्, दृश्यप्राप्ययोरथयोः कश्चिदेकत्वं विना प्रवृत्तिप्रतिनियमानुपपत्तेश्च स्वपस्यवसायिज्ञानत्वस्यैव प्रामाण्यलक्षणस्य युक्तत्वादिति दिग् । इत्थं च दूरस्थवृक्षाविज्ञानवदस्पष्टस्यापि शाब्दस्य नाऽपामाण्यम् । न चाशेष-विशेषाध्यासित वस्तुप्रतिभासवैकल्या दप्यस्य तथात्वमाशङ्कनीयम् , प्रत्यक्षेऽपि तथात्वप्रसक्तेः । न अस्मदादिप्रत्यक्ष क्षणिकत्व-नैरात्म्याद्यशेषधर्माध्यासितसंख्योपेतघटायाकारपरिणतसमस्तपरमाणुप्रतिभासः, तथैवाऽनिश्चयात् । अत एवं "मति श्रुतयोनिबन्धो द्रव्येवसर्वपर्याये' [त.सू.१] इति समाविषयत्वम क्षज-शाब्दयोस्तवार्थसूत्रकृता प्रतिपादितम् । न चाऽवस्तुभूतसामान्यविपयत्वादस्याऽप्रामाण्यम्, एकाकारप्रतीतिहेतुत्वेन वस्तुभूतस्य तस्य व्यवस्थापितत्वादिति दिंग ।।२५।। भी गया है कि - विकल्पशान से भी वस्तु का ग्रहण होने से वस्तु में ही प्रवृत्ति होती है। अतः प्रवृत्ति के सम्बन्ध में उत्तका योगक्षम प्रत्यक्ष के तुल्य ही है। उक्त की पुष्टि में दुसरी यह भी बात कही गयी है कि प्रत्यक्ष और अनुमान से होने वाले अशनिश्चय के अनुसार प्रवृत्त होने वाले पुरुष की अर्थक्रिया में कोई विवाद नहीं होता" तो यह टीक नहीं है। क्योंकि उक्त दोनों प्रकार के झानों में पक ही प्रकार का विषय साम्य नहीं है और यदि लोकव्यवहार के हित इल्पिा किसान का कोनों में प्रामाण्य की उपपत्ति की जायगी तो उसकी अपेक्षा यह मानना अधिक युक्ति सना होगा कि ज्ञान कथञ्चित् नित्य-अनित्य उभयात्मक वस्तु का ग्राहक है । प्रतिपक्षी द्वारा कथित प्रामाण्य उपेक्षणीय अर्थ के ग्राहक ज्ञाम में अव्यान होने से भी स्वीकार्य नहीं है । दृश्य और प्राप्य अर्थ में यदि किसी भी रूप में पेश्य माना जायगा तो प्रवर्तक ज्ञान का प्रवृत्ति के प्रति प्रतिनियम की अर्थात् 'प्रवर्तकशान से गृहीत अर्थ की ही प्रवृत्ति द्वारा प्राप्ति के नियम' की उत्पत्ति न होगी । अत: परोक्तमामाण्य का परित्याग कर ज्ञान द्वारा स्त्र और पर उभय का व्यवसायात्मक ग्रहण होना ही ज्ञान का प्रामाण्य है-यह मानना ही युक्ति सङ्गत है । इस प्रकार प्रस्तुत विचार से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि दूरस्थवृक्ष आदि ज्ञान के समान ही शुरुङ्गजन्य अस्पष्टज्ञान में भी अप्रामाण्य नहीं है। [अणामाग्य मकलविशेष अग्राहकना रूप नहीं है ] यदि यह कहा आय कि- शब्दजन्य ज्ञान वस्तु के अशेष-विशंप का ग्राहक नहीं होता। अतः वह अप्रमाण है' -तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि अशेष-विशेष का ग्राहक न होने से यदि शाब्दज्ञान को अप्रमाण कहा जायगा तो प्रत्यक्ष में भी प्रामाण्य की अनुपपत्ति होगी, क्योंकि यह भी अपनी विषयभूत वस्तु को उसके अशेष विशेषरूषों के साथ ग्रहण नहीं करता, क्योंकि यह निर्विवाद है कि सामान्यजनों को जो प्रत्यक्ष होता है उनमें क्षणिकत्व, नेरान्भ्य आदि अशेष अर्थों से विशिष्ट पस सण्या युक्त घट आदि के आकार में परिणत परमाणुन मूह का मान नहीं होता। क्योंकि उसीरूप में घटादि का निश्चय सभी के लिये असिद्ध है। यही कारण है कि तत्त्वार्थ सूत्रकार ने मति और श्रुतक्षान को सम्पूर्ण पर्यायों के ग्रहण के बिना भी सर्व द्रश्य पाही कहकर इन्द्रियजन्यज्ञान और शब्दजन्यज्ञान में समान विषयकत्व का प्रतिपादन किया है। यदि यह कहा जाय कि-'शम्दजन्यज्ञान अबस्तुभून सामान्य का ग्राहक होने से मप्रमाण है' -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यह सिद्ध किया जा चुका है कि एकाकार प्रतीति का ऐतु होने से सामान्य भी वस्तु ही है ||२५|| Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीटा-हिन्दीषिये चन] [२८३ 'वाच्य इत्थमपोहम्तु' इत्युक्तं निराकरोतिअपोहस्यापि वाच्यत्वमुपयत्या न युज्यते । असच्चाद्वस्तुभेदेन , बुद्ध्या तस्यापि बोधनः ॥२६।। अपोहस्यापि परस्परिकल्पितरय वाच्यत्वम् =अभिप्रेयत्वम् , उपपच्या मुक्या न युध्यते । कुतः ? इत्याह-वस्तभेदेन वस्तुभिन्नतया तस्याऽसत्त्वात् , विजातीमध्यावृत्तेरपि समानपरिणतिरूपतया वस्तुवाच्यत्वपक्षपसमात, तुन्छस्य बस्तुना संघन्धाऽयोगात् । विकल्पगतार्थप्रतिबिवाच्यस्यमधिकृत्याह-बुद्धधा-तृतीयाया अदार्थत्वाद् विकरप-युद्धभितम्य, तस्य अपोहस्यापि बोधतःअद्वयवोधात् ‘भैदेनाऽसत्त्वात् ' इति योगः । न हि बोधमात्रवादिनोऽस्यव्यतिरिक्त किञ्चिदति , इति कुत इष्ट पतिभासः ! ] तमिरिकादीनां प्रतिभासावशेषोऽपि लोके बोधमात्रसामग्रीमिन्द्रकर्मसिमिरापरकेशदर्शनादिजो युज्यते, न तु बोधमानसामग्रीतः, तम्यापरमन्तरेण वैशिष्ट्याऽयोगात् ! [अपोह की शब्दवाच्यता का निरसन ] १६ वीं कालिका में अपोह के पूर्व प्रतिपादित शब्दवाच्यत्य का निराकरण किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है बौडद्वारा कल्पित अपोह की शाश्वाच्यता युक्तिसङ्गत नहीं है, क्योंकि वस्तु से भिन्न होने के कारण अपोह असत् है । यद्यपि उसे असादृष्यावृत्तिरूप माना गया है किन्तु अतट्यावृत्ति भी समान परिणामरूप ही है , अतः उसे वाच्य मानने पर वस्तु में दी शब्दान्यता की प्रति होती है । और जब अपोद अवस्तु है तो वह शब्दवाच्य नहीं हो सकता, क्योंकि शब्द वस्तु है और अपोह तुच्छ है । फिर तुच्छ का वस्तु के साथ सम्बन्ध कैसे सङ्गत हो सकता है ? ! बौद्ध विद्वानों ने जो विकल्पगत अर्थप्रतिविम्य कय अपोह को शध्दवाच्य यहा है, वह भी समीचीन नहीं है, क्योंकि अर्थ प्रतिविम्वरूप अगेह भी विकल्पास्मक बुद्धि से अभिन्न है, क्योंकि अवय { बाणार्थ शून्य ) बोध से भिन्नरूप में उसकी सत्ता नहीं है, क्योंकि बोधमात्रवादी के मत में अद्वय बांध से भिन्न किसी भी वस्तु अस्तित्व नहीं है । अत: उसे शब्दवाच्य मानने पर वस्तु ही शब्दवाच्य होगी, क्योंकि उसके बुद्ध यात्मक होने में वह वस्तुरूप ही है। वस्तुस्थिति की दृष्टि से यह भी ज्ञातव्य है कि तिमिर रोग से ग्रस्त चक्षुबाले मनुष्यों को तथा अन्यानों के प्रतिभाम में इस प्रकार का अन्तर फि. मिरिक को अन्य क्षणों का भी श्यामाकार प्रतिभास होता है और अन्य जनों को श्यामवर्ण का ही श्याम कार प्रतिभास होता है । लोक में जो ऐसा विशेष दे जाता है कि र योगवाले को श्वेत फेशादि भी श्याम दिखाई देते है यह सीर्फ घोधमान कर सामना से नहीं घट सकता, किंतु उससे अतिरिक्त तथाविध कर्म , तिमिर राग और बाधभिन्न केशादि का दर्शन आदि सामग्री के मिलने से ही घर सकता है । यल बोधगात्र की सामना से यह नहीं हो सकता, क्योंकि बोधभिन्न तिमि रादि साथी के विना मिरिक के दशन में उन बाशएच असम्भव है। साथ ही यह भी दृष्य कि बांध मात्र यादी के पक्ष में पारमार्थिक बाह्यवस्तु न होने से भीलपद और उत्पलपद में जो सामानाधिकरण्य होने का बहार धोता है उसका उछेद प्रसक्त हागा । कारण, पं.से व्यवहार के लिये भिन्न भिन्न नीरूत्व और उस्परूत्व) को प्रवृत्ति Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४] [शानवा० स्त० १४/९६ अपि च , एवं सामानाधिकरण्यादिव्यवहारोऽप्युच्छिद्येत , प्रवृत्तिनिमित्तद्वयवत एकस्य बहिर्भतस्थ धर्मिणोऽभावात् । न च मिन्नप्रवृत्तिनिमित्तोपरक्तकवाकारविकल्पादेव सामानाधिकरण्यव्यवहारोपपतिः, एकात्मवादिनाऽनेकाकारकविकल्पस्याभ्युपगन्तुमशक्यत्वात् । न चाऽतात्विकमनेकत्वमिति न दोषः, एकत्वस्य तात्विकत्वेऽविनिगमात् ; ज्ञानात्मन्यविद्यमानस्य चानेक(त्व)स्य स्वसंवेदनेनाऽपरिच्छेदप्रसक्तेः; परिच्छेदे वाऽविद्यमानाकारग्राहित्वेनाऽप्रत्यक्षत्वासङ्गात् , सदऽसतोरेकत्वाऽनेकत्वयोनितादात्म्यविरोधेनाऽतदाकारज्ञानवेदने साकारवादक्षतेश्च । एतद्भयाज्ज्ञानवैचित्र्योपगमे च बहिरवैचित्र्येण क्रिमपराद्धम् ? ! विवेचिततरं चतत्, इति नेदानी प्रयासः । अपि च. शब्दार्थाऽपोहयोजन्य-- जनकभावरूपवाच्य-वाचकभावाभ्युपगम आकाङ्क्षादिज्ञानात् प्रागेव शाब्दीप्रसङ्गः । ‘पदार्थोंपस्थितिस्थानीयतिचिम्ने आकांक्षाचनपेक्षायामपि शान्दस्थानीयप्रतिबिम्बे नियमतस्तदपेक्षणाद् नाय प्रसा' इति चेन् ? न, क्षणिकस्य शब्दस्य तदपेक्षाऽयोगात् । अनन्तरोत्पन्नशब्दाकारक्षणे स्वक्षणसंयोगरूपापेक्षायोगे च हेदुधर्मस्य कार्य संक्रमात् शाब्दे नियमत आकाङ्कादिभानापत्तेः, निरंशस्यांशेनाऽपेक्षाऽयोगात् । निमित्त के आधारभूत तक बाह्य नीलकमलस्वरूप धर्मी का होना अनिवार्य है। किन्तु अपोदवादी के मत में बोधभिन्न कोई धम्तु ही है नहीं, अत: वह व्यवहार कैसे हो सकेगा? ! [भिन्न भिन्न प्रवृत्ति निमित्त वाले दो माम मिलकर पकार्थवाचक बन जाय इसी को सामानाधिकरण्य कहा जाता है जो बोगादतपक्ष में उक्त रीति से घट नहीं सकता। यदि यह कहा जाय कि- "भिन्न भिन्न प्रवृत्ति निमित्त से युक्त एक धोकार विकल्प से सामानाधिकरण्य की उपपत्ति हो सकती है। आशय यह है कि दी प्रवृत्ति निमित्त के आश्रयभूत बाह्यवस्तु का सद्भाय न होने पर भी दो भिन्न प्रवृत्ति निमित्तों को ग्रहण करने वाली गक धोकार विकल्प बुद्धि तो हो सकती है । फिर उन दोनों के माध्यम से सामानाधिकरण्य के व्यवहार में कोई बाधा नहीं हो सकती " 1ो यह दीक नहीं है। क्योंकि एकान्तबादी के मत में अनेकाकार एक विकल्प भी स्वीकार्य नहीं है। यदि यह कहा जाय कि कान्तावाद में भी 'अतात्विक अनेकत्व मानने में कोई दोप नहीं है' तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'अनेकत्व अताविक है और पकत्व तात्त्विक है' इसमें कोई बिनिगमक नदी है'. प्रत्युत शानस्वरूप में यदि अनेकाकारता विद्यमान न होगी तो स्वसम्वेदी शान से उसका परिच्छेद । बोध ) भी न हो सकेगा। और यदि परिच्छेद होगा तो अविद्यमान का प्राहक होने से वह प्रत्यक्षात्मक ज्ञान न रह जायगा । क्योंकि प्रत्यक्षज्ञान विद्यमान का ही प्राहक होता है। दूसरी बात यह भी है कि आप के पक्ष में यम: एकच और अनेकत्व क्रम से सत् और असन् रूप है, अतः उसमें ज्ञान का तादात्म्य नहीं हो सकता , और जब वह ज्ञान का आकार न होगा तो शान साकार होता है। इस सिद्धान्त की हानि हो जायगी । और उक्तमय से यदि शाम में स्वभावत: वैचित्र्य माना जायगा तो बाघ अर्थ के वेचिश्य का क्या अपर ओ उसे स्वीकार न किया जाय ! इस विषय का विवेचन पहले किया जा चुका है। अतर इस सम्बध में यहां कुछ अधिक नहीं कहना है । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] | २८५ यथा अपि च लिङ्ग-संख्यादियोगोऽप्यनन्तधर्मात्मकबाह्य वस्तुसमाश्रित एवं इति नापोहस्य वाच्यत्वम् एकत्र स्त्री-पुंनपुंसकारख्यभावत्रयस्य, एकत्व - द्वित्वादिसंख्यायाश्चाऽविरोधात्, विवक्षमनन्त धर्माध्यासिते वस्तुनि कस्यचिद् धर्मस्य केनचित् शब्देन प्रतिपादनात् प्रतिनियतोपाधिविशिष्टवस्तुप्रतिभासस्य प्रतिनियतक्षयोपशमविशेषनिमित्तत्वेन शबलाभासानापत्तेः । अपि च, शब्दस्य बहिरर्थापतिपादकत्वेऽदृष्टेषु नदी - देश -- पर्वत - द्वीपा दिष्वाप्तप्रणीतत्वेन निश्चितात शब्दात् प्रतिपत्तिनं स्यात्, अदृष्टे विकल्पानुपपत्तेः । न च तद्विशेषाऽनिश्चयेऽपि न कथञ्चित् ततो निर्णीतिः, प्रत्यक्षस्यापि स्वविषयप्रतिपत्तेः कथञ्चिदेव संभवात् वस्तुविषयस्य प्रत्यक्षस्याऽनिश्चायकत्वम्, अतथाभूतस्य च विकल्पस्य निश्चायकत्वं च वदतः सौगतस्यैव निर्विकल्पत्वादिति दिग् ॥२६॥ J 1 इस सन्दर्भ में यह भी एक दोष अनिवार्य है कि यदि शब्द और अर्थापोह (अतद्व्यावृत अर्थ ) का शाब्दबोध, इन दोनों में जन्यजनक भावरूप वाच्यवाचकभार माना जायगा तो आकांक्षा आदि के ज्ञान से पहले ही शाब्दबोध हो जाने की आपसि होगी । यदि, यह कहा जाय कि'बौद्धमत में पदार्थोपस्थिति के प्रतिनिधिरूप में मान्य अर्थप्रतिबिस्व के लिये आकांक्षा विज्ञान की अपेक्षा न होने पर भी शब्द से उत्पन्न होने वाले शाब्दबोध स्थानीय अर्थ प्रतिविश्व के लिये नियमतः आकांक्षादिज्ञान की अपेक्षा होने से, उसके सम्पादक आकांक्षा-मादि ज्ञान से पूर्व शाब्दबोध की आपत्ति नहीं हो सकती । तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि शब्द क्षणिक होता है, अतः शाब्दबोध स्थानीय अर्थप्रतिबिश्व के लिये किसी की भी अपेक्षा युक्ति सङ्गत नहीं है। यह भी प्रष्टव्य है कि यदि अव्यवहित उत्तर क्षण में उत्पन्न क्षणिक शब्द में अध्यवहित पूर्वोत्पन्न क्षणिक शब्द की सम्बन्धरूप अपेक्षा होती है तो कार्य में कारण धर्म का संक्रमण होने से नियमतः शाब्दबोध में आकांक्षादि का भान भी हो जायगा क्योंकि निरंश शब्द की किसी एक अंश मात्र से ही अपेक्षणीयता मानना अयुक्त है। यह भी ज्ञातव्य है कि लिङ्ग संख्या आदि का सम्बन्ध अनन्त धर्मात्मक बाह्यवस्तु में समाधित है। अतः वस्तु के पकात्मक न होने से अतदुव्यावृत्ति दुर्घट है। इन दोरों के कारण अपोह शब्द का चाय नहीं हो सकता एक वस्तु में श्री, पुरुष और नपुंसक के स्वभावप्रय में और पकत्व द्वित्यादि संख्या के होने में कोई विरोध नहीं है । वस्तु अनन्त धर्मात्मक होती है । जब जिस धर्म की विवक्षा होती है तब किसी शब्द द्वारा उस धर्मं से वस्तु का प्रतिपादन होता है । तत्तद्वर्म से विशिष्ट वस्तु का बोध तत्तद के ज्ञानावरण के क्षयापशम से होता है । और सभी धर्मों के ज्ञानावरण का क्षयोपशम एक साथ नहीं होता। अत पत्र विवक्षित किसी एक धर्म के रूप में होने वाले वस्तुबोध में अन्य धर्म का भान सम्भव न होने से किसी भी शब्द से वस्तु के शबलाकार (मिश्रिताकार ) बोध की आपत्ति नहीं हो सकती । यह भी ज्ञातव्य है कि यदि शब्द वाचअर्थ का प्रतिपादक न होगा तो जो नदी, देश, पर्वत, द्वीप आदि पूर्व ट नहीं है उनका, निश्चितरूप से आप्त पुरुष भाषित शब्द से भी नियताकार बोध न हो सकेगा। क्योंकि जो अर्थ दृष्ट नहीं है उसका frकल्प बोध अनुपपन्न है । यदि यह कहा जाय कि ' अष्टष्ट नदी, देश आदि के विशेष रूप का निश्चय नहीं होता, अतः किसी भी रूप में शब्द द्वारा उनका निर्णय नहीं होता' तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि प्रत्यक्ष के भी विषय की प्रतिपत्ति कथचित् ही होती है। प्रत्यक्ष से वस्तु के सर्वे विशेष का Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] [ शास्त्रवार्ता० स्त० ११/२७ अपिच, अवस्तुवाच्यत्वेऽपसिद्धान्तोऽपि परस्येत्याह 2 क्षणिकाः सर्वसंस्कारा अन्यथैतद्विरुध्यते । अपोहो यन्त्र संस्कारो न च क्षणिक इष्यते ||२७|| अन्यथा = अवस्तुनो वाच्यत्थे, ' क्षणिकाः सर्वसंस्काराः = कृतकाः सर्व उत्पत्तिमन्तः इति एतत् = उक्तम्, विरुध्यते । कथम् ? इत्याह अपोहो यद्यस्मात् न संस्कारः, अवस्तुत्वात् न च क्षणिका = नश्वरः इप्यते, तत एवेति । नन्वेवं हेतु-साध्यो भयाभावे न व्यभिचार इति क विरोधः संस्कारसामान्यमुद्दिश्य क्षणिकत्वविधाने व्याप्यव्यापकभावस्यैव लाभादिति चेत् ? सत्यम्, तथापि बुद्धिप्रतिमासरूपा पोहस्यावस्तु संस्पर्शेन विपर्ययापादने, सामर्थ्यप्रतीयमाने तुच्छापोह इवान्यत्रापि तुच्छ त्वेऽपि तथापीत्युपपत्त्या वा विरोधोद्भावने तात्पर्यात् ||२७|| निश्वय न होने पर भी जैसे उससे वस्तु का कथञ्चित् रूप में निर्णय होता है वैसे ही शब्द से भी अदृष्ट नदी आदि का कथञ्चित् रूप में बोध हो ही सकता है। किन्तु शब्द को धाचार्थअदृष्ट अर्थ का प्रतिपादक न मानने पर उसकी उपपत्ति न हो सकेगी। इस प्रसङ्ग में सौगत का यह कहना ठीक नहीं हो सकेगा कि वस्तु विषयक सविकल्पक प्रत्यक्ष अनिश्चायक है और अवस्तु विषयक निर्विकल्पक निश्चायक है । क्योंकि ऐसा मानने पर स्वयं सौगत ही वस्तुग्राही होने से निर्विकल्परूप हो जायगा । फलतः यह किसी भी बात का निश्चायक न हो स्वकेगा ||२६|| [ क्षणिका सर्वसंस्काराः - इस की अनुपपत्ति ] २७६ कारिका में यह बताया गया है कि अवस्तु को शब्दवाच्य मानने पर बौद्ध सिद्धान्त का विरोध होगा । कारिका का अर्थ इस प्रकार है- अवस्तु यदि शब्द का वाच्य होगा तो बौद्ध का यह सिद्धान्त कि सभी संस्कार अर्थात् सभी उत्पत्तिमान कृतक (क्षणिक) होते हैं इस बौद्ध सिद्धान्त का विरोध होगा, क्योंकि अपोह शब्द वाच्य होने पर वह भी सर्वशब्दार्थ में गृहीत होगा । किन्तु अवस्तु होने से नवह संस्कार ही है और न उसकी नश्वरता ही इष्ट है । यदि यह कहा जाय कि- " अवस्तुभून अपोह में संस्कारत्व और क्षणिकत्व रूप दोनों का अभाव होने से हेतु और साध्य दोनों का अभाव है। अतः व्यभिचार नहीं है, क्योंकि साध्यशून्य में हेतु के रहने पर ही व्यभिचार होता है । प्रकृत में यह स्थिति नहीं है । अतः विरोध की सम्भावना कहाँ है ? प्रत्युत उसके विपरीत, संस्कार सामान्य को उद्देश्य बनाकर क्षणिकत्य का विधान करने पर संस्कारस्य और क्षणिकत्ष में व्याप्यव्यापकभाव का ही लाभ होता है । " - ता इसमें उत्तर में यह कहना है कि अपोह प्रभास रूप है. उसे अवस्तु मानते हुए शब्दवाच्य मा ने पर अवस्तुस्व से बुद्धिप्रतिभास रूपता के अभाव की आपति होगी । इसी में कारिको राध का तात्पर्य है । अथवा सामर्थ्य से प्रतीयमान वस्तु में तुच्छ अपोह की तरह अन्य तुच्छ में भी शब्दजन्य प्रतीति की उपपत्ति होगी इस प्रकार के विरोधाद्भावन में कारिका का तात्पर्य है [ बौद्धशास्त्र निरर्थक हो जाने की आपत्ति ] *व कारिका में मवस्तु को शब्दवाच्य मानने पर बौद्धशास्त्र आदि व्यर्थ हो जाने की आपति का उद्भावन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विरेचन ] (२८७ अपि च, एवं शास्त्रादिवैयर्यमपीत्याहएवं च वस्तुनस्तत्वं हन्त : शास्त्रादनिश्चितम् । तदभावे च सुव्यक्तं तदेनच्छुकखण्डनम् ॥२८॥ एवं चकल्पितस्य वाच्यत्वे च वस्तुना=स्वलक्षणस्य, तत्त्वम् =अनित्यत्वादिमत्त्वम् , हन्त ! शास्त्राच-पिटक त्रयलक्षणात् , अनिश्चितं भवन्नीत्या । तदभावे च-तत्त्वनिश्चयाभावे च मुव्यक्तम् अतिस्पटम् , तदेनत शास्त्रप्रणयनम् तन्मूलं भवदनुष्ठानं च शुष्कखण्डनम् , फलकणाऽनासादनात् । अथ शब्दजनितविकल्पात् सामर्थ्यन तथास्वलक्षणप्रतीतेनं दोप इति चेत् ! न. विकरूप स्वलक्षणयोः प्रतिबन्धस्यवासिद्धः, स्खलक्षणमालम्बनं बिनाऽप्यसत्यविकल्पवत् सत्यविकरूपेऽप्याकारनियमोपपत्रः सामथ्र्यजविकल्पस्यापि स्वलक्षणासशिल्यात् , समारोपव्यवन्छेदम्य च शाब्दविकरुपादेवोपपत्तेस्तत्कस्पनायां मानाभावात् । 'अस्त्वेषमेव शास्त्राऽवैयर्थ्य मिति चेत् ? न, तथा सति स्वलक्षणाऽस्पर्शिनो व्याप्त्याधनपेक्षस्त्यार्थपापकस्य शाब्दम्य मानान्तरवासनात् , अर्थविवक्षानमितिरूपत्वे च तस्य स्वातन्व्येण माह्यार्थानध्यवसायिस्वेनाऽपवर्तकत्वापातात् , 'नानुमिनोमि किन्तु शान्दयामि' इत्यनुभवानुपपत्तेश्व । कल्पित को शब्दवाच्य मानने पर बौद्धशास्त्र सुतपिटक आदि त्रिपिटक के द्वारा स्पलक्षणवस्तु का अनित्यत्य आदि निश्चित नहीं हो सकेगा। क्योंकि भनिन्यत्व आदि कल्पित न होने से शब्दवाच्य नहीं है । अतएव शास्त्र से उनका निकाय नहीं हो सकेगा, और दस पिति नौद्धशास्त्र का प्रणयन और तन्मूलक बोहों का अनुष्ठान किनित भी फल का प्रापक न होने से सखे डण्ठल को कूटने के समान निरर्थक होगा । यदि यह कहा जाय कि-- "शब्द से उत्पन्न विकल्प बोध से अनुमान द्वारा मनित्यत्यादि पसे बरक्षणवस्त की प्रतीति होने से उक्त दोष नहीं हो सकता' तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि विकल्प में स्वलक्षण की व्याप्ति असिद्ध है । यतः जैसे असत्य विकल्प स्वलक्षण यस्त के आलम्बन के अभाव में उत्पन्न होता है उसी प्रकार सत्य विकल्प भी उसके अभाव में नियत आकार में उत्पन्न हो सकता है । और दूसरी बात यह है कि असे शब्दजन्य विकल्प स्वलक्षण वस्तु को विश्य नहीं करता उसी प्रकार अनुमानजन्य विकल्प भी स्वलक्षण वस्तु को विषय नहीं करेगा। अन. अनुमान द्वारा नित्यत्व अनि रूप से स्त्ररक्षण वस्तु की प्रतीति का मानना सम्भव नहीं है। __"समारोप के व्यत्रच्छेद के लिये व्याप्ति मामनी आवश्यक है" ऐसा भी कहना समीचीन नहीं है, क्यों कि समाशोप का व्यवच्छेद ता शाद विकल्प से ही हो जाना उपपन्न है। ऐसे विकल्प-स्वलक्षण के बीच में प्रतिबन्ध की कल्पना करने में कोई प्रमाण रहता नहीं है। " उस प्रतिबन्ध के विना ही शब्द कैसे भी अर्थप्रापक बन जाता है, और अतः शास्त्र से भी अनित्यतादि की प्रतीति हो जाने से शास्त्रधैयर्य नहीं है" ऐसा कहना भी उचित नहीं, क्योंकि इसका फलिस यह होता है कि यह स्वलक्षण का अस्पर्शी है. व्याप्त्यादि से निरपेक्ष है और फिर भी अर्थप्रापक है। इसलिये उसका अनुमान में अन्तर्भाध न हो सकने से उसको प्रमाणान्ता मानने की आपत्ति आयेगी । यह भी नहीं कहा जा सकता कि शान्दजन्य विकल्प अर्थ विवक्षा की अनुमिति रूप है अतः उसमें प्रमाणान्तरत्व की आपत्ति नहीं हो सकती। क्यों कि मर्थ विवक्षा की अनुमितिरूप होने पर स्वतन्त्ररूप से बाधार्थ का माहक न होने के कारण यह अर्थ प्राप्ति के Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८] [ शास्त्रबार्सा० स० ११/२८ अपि च, अन्यविवक्षायामन्यशब्ददर्शनाद् विवक्षाविशेषसूचकत्वमपि कथं शब्दानाम् ! । 'सुविवेचितं कार्य कारणं न व्यभिचति' इति न्याथात् शब्दविशेषाणां तद् न विरुध्यत इति वेत् ! तहि येनैव प्रतिबन्धेन शब्दविशेषो विवक्षाविशेषसूचकस्तत एवार्थविशेषप्रतिपादकः कि नाभ्युपगम्यते ! । 'विवक्षया सह तदुत्पत्तिरेव प्रतिबन्धोऽर्थन सह पुनरियमसमविनी' ति चेत् ? न, तथापि विवक्षाया वचनेऽर्थप्रतिपादनरूपेष्टसाधनताज्ञानं विनाऽसंभवाद, विवक्षोपसर्जनतयाऽर्थप्रतिपादकत्वस्य च शुकादिबचने व्यभिचारात् , कल्पितार्थप्रतिपादकत्वे च सत्याऽसत्यविभागाभावाल्लोकयात्रोस्टेदात् , शब्दजनितार्थप्रतिबिम्बे बहिरर्थविषयता यास्ताविकत्वकल्पनाया एवौचित्यादिति दिग ॥२८॥ लिए माता का प्रवर्तक न हो सकेगा । दूसरी बात यह है कि यदि शदजन्य विकल्प को अर्थ विवक्षा की अनुमितिरूप माना जायगा तो उसके अनुमिति भिन्नत्व और शाब्दबुद्धिव रूप से होने वाले 'नानुमिनोमि किन्तु शाददयामि' • अनुमान नहीं किन्तु शाब्दबोध कर रहा हूँ। इस अनुभव की अनुपपत्ति होगी। साथ ही यह भी विचारणीय है कि शब्द अर्थविशेष की विवक्षा का अनुमापक भी कैसे होगा, क्योंकि अन्य अर्थ की विवक्षा में भी अन्य शब्द का प्रयोग देखा जाता है । जैसे-कोई मनुष्य किसी अर्थ की विषक्षा करता है किन्तु उस अर्थ के बोधक शब्द की जानकारी न होने से भ्रमवश अन्य अर्थ के बोधक शब्द का प्रयोग कर देता है। यदि यह कहा जाय कि-" सुविवेचित कार्य कारण का व्यभिचारी नहीं होता, अर्थात् कार्याभास की जिस से व्यावृत्ति हो सके ऐसे सुविधेक से निश्चित हुआ कार्य कारण का व्यभिचारी नहीं होता । ऐसे सुविवेक से जो शब्दविशेष निश्चित होता है यह अर्थविषक्षा का ध्यभिचारी नहीं होता 1 इसलिये शब्दषिशेष विवक्षा का समक( अनुमापक) होने में कोई विरोध "तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जिस व्यानि से शम्दविशेष विवनाविशेष का अनुमापक होग उसी से उसको अर्थ विशेष का बोधक माना जा सकता है। यदि यह कहा जाय कि-'अर्थ की विद्यक्षा से शब्द उत्पन्न होता है अतः विवक्षा में शब्द की उत्पत्ति लक्षण च्याप्ति है। किन्तु अर्थ के साथ यह व्याप्ति असम्भव है । यतः शब्द की उत्पत्ति अर्थ से नहीं होती तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि शब्द में अर्थ प्रतिपादन रूप इष्ट की साधनता के ज्ञान के बिना विवक्षा नहीं होती । अतः शब्द में अर्थ प्रतिपादकता आवश्यक होने से विवक्षा के उपसर्जन रूप में शब्द से अर्थ की आनुमानिक प्रतिपत्ति मानना असङ्गत है और दूसरी बात यह है कि शब्द विवक्षा के उपसर्जन रूप में अर्थ का प्रतिपादक मानने में शुक आदि के शब्द में व्यभिचार है । क्योंकि शुक आदि को अर्थ की विवक्षा न होने पर भी उनके नाम उच्चारित शहद अर्थ की प्रतिपत्ति होती है। यह भी शातव्य है कि शम्द को यदि कल्पत अर्थ का बोधक माना जायगा तो शब्दों में सत्य-असत्य का विभाग न हो सकने से शब्धिमूलक लोक. प्रवृत्ति का उच्छेद हो जायगा । उक बातों को दृष्टि में रखते हुए यही उचित प्रतीत होता है कि शब्दजन्य अर्थ प्रतिबिम्ब (अर्थ बोध में) बानार्थ विषयकत्व को कल्पित न मान कर उसे ताविक ही माना जाय यह अच्छा है ॥ २८ ॥ __२९ वीं कारिका में ‘अवस्तु शब्दवाच्य है' इस यौद्ध मत में अन्य दोष का प्रदर्शन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. दीका-हिन्दीविवेचन] [२८९ दोषान्तरमभिधातुमाह-- बुद्धावणेपि चाग्दोषः संस्तवेऽप्य गुणस्तथा । आह्वाना प्रतिपक्ष्यादि शब्दार्थाऽयोगतोध्वम् ।।२९।। बुद्धावणेऽपि च बुद्धाऽश्लाघायामपि च अदोषः-दोषाऽप्रसङ्गः प्रामोति परस्य, बुद्धावर्णस्य बुद्ध विशेष्यकापकृष्टत्वप्रकारकज्ञानजनकत्वाभावात् । तथा, संस्तवेऽपि-बुद्धस्तुतिकरणेऽपि, अगुणः = गुणाभाषप्रसङ्गः, बुद्धसंस्तववर्णस्य बुद्धविशेष्यकोत्कृष्टत्वप्रकारकज्ञानजनकत्वाभावात् । तथा आलानाप्रतिपत्त्यादि-आह्वाने कृतेऽप्यप्रतिपत्त्यप्रवृत्त्यादि, शब्दार्थाऽयोगतः शब्दार्थसंबन्धाभाव इप्यमाणे, ध्रुवम् आवश्यकम् । 'बुद्ध्याकारे बहिरर्थाऽध्यासात् सर्वमिदं नोपपन्नम् इति स्वीदृशविशेषदर्शिनः परस्य कथं समाधानं शोभते ! । अथानुमानिकश्चैत्यज्ञाने सत्यपि पित्तदोषेण शो पीतिमाध्यासवद् विशेषदर्शिनोऽप्यदिशो लोकवासनादोषाद् न प्रकृताध्यासानुपपत्तिरिति चेत् ! न, अधिष्ठानतज्ज्ञानाऽभावेऽभ्यासानुपपत्तेः । असाक्षात्कारिभ्रमस्य विशेषदर्शनमात्रनिवर्णत्वनियमाञ्च; अन्यथा [बुद्धनिंदा में दोपाभाव की आपत्ति ] अवस्तु को शब्दवाच्य मानने पर बुद्ध की निन्दा करने पर भी कोई दोष न होगा । क्योंकि बुद्ध की निन्दा के लिये प्रयुक्त शब्द से युद्ध में अपकृष्टस्य का ज्ञान नहीं होगा। यतः अवस्तु शश्नवाच्य होने से अपकर्ष बोधनार्थ प्रयुक्त शब्द से यास्तव अपकृष्टस्य का बोध दुर्घट है। इसी प्रकार बुद्ध की स्तुति करने पर भी कोई गुण-पुण्य नहीं होगा, क्योंकि अवस्तु की शम्श्याच्यता के पक्ष में बुद्ध के स्तुति वचनों से बुद्ध के उत्कृष्टत्व का शान नहीं होगा । उक्त दोष के साथ ही यह भी एक दोष है कि पक मनुष्य द्वारा दुसरे मनुष्य की भावान किप जाने पर आहूत व्यक्ति का आह्वान कर्ता की ओर आभिमुख्य या उसकी और चलने में प्रवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि अवस्तु की शब्दषाच्यता के पक्ष में शब्द और अर्थ के बीच कोई सम्बन्ध ही नहीं है । बौद्ध की ओर से यदि यह समाधान किया जाय कि 'बुद्धि आकार में बाह्य अर्थ का अध्यास होने से उक्त दूषण समूह नहीं हो सकता' तो उसका यह समाधान कैसे समीचीन हो सकता है। क्योंकि धस्नुमात्र को खुद्धि आकार रूप समझते हुए बाद्यार्थ का अध्यास सम्भव नहीं है। यदि यह कहा जाय कि जैसे शा में श्चैत्य का आनुमानिक झान रहने पर भी मंत्र के पित्त दोष से ग्रस्त होने पर शङ्ख में श्चत्य का प्रत्यक्ष भ्रम होता है उम्मीप्रकार खुद्धयाकार का बोध होने पर भी लोकवासनारूप दोष से बा अर्थ का अध्यास हो सकता है तो यह टीक नहीं है । क्योंकि अधिष्ठान और अधिष्ठानज्ञान के बिना अध्यास का उदय नहीं होता। अतः अवस्तु की शब्दवाच्यता के पक्ष में शब्द से अवस्तु का ही ज्ञान होने से अधिष्ठान का अस्तित्व न होने के कारण शब्द हेतुक अभ्यास नहीं हो सकता । दूसरी बात यह है कि साक्षात्कार से भिन्न सभी भ्रम , विशेषदर्शनमात्र से प्रतिबध्य होते हैं । अतः बुद्धनाकार के दर्शन से शब्दाधीन बाह्यार्थ भ्रम बाधित होने से बाह्यार्थ का शब्दमूलक अध्यास सम्भव नहीं है । यदि साक्षात्कार से भिन्न भ्रम को विशेषदर्शनमात्र से निवयं न माना जायगा तो क्षणिकत्वानुमान से बौद्ध के अक्षणिकत्यारोप की निवृत्ति नहीं होगी । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. ] [ शाखवार्ताः म्त० ११३० क्षणिकत्वानुमानात् परस्याऽक्षणिकत्वसमारोपस्याऽप्यनिवृत्यापत्तेः। यदि च बहिराध्यवसायिशाब्दविकरुपप्रतिबन्धकविशेषदर्शने लोकवासनाया उत्तेजकत्वं स्वीक्रियते, अत एव लोकवासनाविरहिणां विशेषदर्शिनां योगिनां न पूर्वक्षणबलायातोऽपीदृशविकल्प इतीण्यते, तदा लाघवादस्य बहिविषयेऽभ्रान्तत्वमेव करप्यताम् , किंतमा भ्रान्तम्बम्ग, दायमा विदोघे नत्प्रतिबन्धकोत्तेजकत्वादेश्च कल्पनया ! इत्यादि सूक्ष्मधिया विभावनीयम् ॥ २१॥ तदेवं सिद्धः शब्दाऽर्थयोः संबन्धः, तत्सिद्धौ च निराबाधा सर्वज्ञेनाभिध्यक्तादागमाद धर्माऽधर्मव्यवस्था, ततश्च 'ज्ञान-क्रियाभ्यां मुक्तिः' इत्यत्र नयमतमेदजनित वार्तान्तरमुत्थापयतिज्ञानादेव नियोगेन सिद्धिमिच्छन्ति केचन । अन्ये क्रियात एवेति द्वाभ्यामन्ये विचक्षणाः ॥३०॥ ज्ञानादेव केवलात् नियोगेन अवश्यभायेन, सिद्धिम् =मुक्तिम् इच्छन्ति केचन-ज्ञानवादिनः। अन्ये क्रियावादिनः, ‘क्रियात एघ केवलाया मुक्तिः' इतीच्छन्ति । अन्ये-ज्ञान-क्रियावादिनः, विचक्षणाः-उभयसमर्थनाद यथावस्थितबुद्धयः द्वाभ्यां समुदिताभ्यां ज्ञान-क्रियाभ्याम् सिद्धिमिच्छन्ति ।। ३० ।। यदि यह कहा जाय कि-'ब्राह्मअर्थ को विषय करनेवाले शब्दजन्य विकल्प में विशेष. दर्शन के प्रतिबन्धक होने पर भी लोकवासना उत्तेजक है । अर्थात् टोकत्रासनाविरह विशिष्ट बुद्धन्धाकार का दर्शन शब्दाधीन बायार्थ के विकल्पबांध में प्रति कारण है कि जिस से योगियों में न्दोकवासना न होने के कारण उन्हें बुद्धयाकार में बाधार्थ का अध्यास नहीं होता तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि शब्दजन्य विकल्प को वाह्यार्थविषय में अभ्रान्त मार लेने में प्लाधव है । उस के बदले उसे भ्रान्त मानने में तथा उसकी उत्पत्ति को सम्भव बनाने के लिए उसके प्रतिबन्धक में लोकवासना को उत्तक मानने में गौरव है । यह सब मृक्षमता के साथ विचारणीय है, ! २९ ॥ शब्दार्थ सम्बन्ध चर्चा समान) उक्त विचार के फल स्वरूप यह सिद्ध होता है कि शब्द और अर्थ में सम्बन्ध है । इस लिप सर्वेशद्वारा उपदिष्ट अगम संघ अधर्म की व्यवस्था में कोई वाधा माह ज्ञान और क्रिया से मुक्ति होती है। इस विषय में जय मम्बन्धी मतभेद से जो तथ्य निर्गत होता है प्रस्तुत ३० वीं कारिका में उसे प्रदर्शित किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है__ कुछ ज्ञानयादि लोगों का यह अभिप्राय है कि केवल ज्ञानमात्र से मुकि निश्चित ही होती है 1 और अन्य क्रियावादी लोगों का अभिमाय है कि केवल क्रिया से ही मुकि होती है। तथा ज्ञान-निया उभयवादियों का अभिप्राय हैं कि ज्ञान और क्रिया दोनों के अवलम्बन करने से मुक्ति होती हैं । यह (तीसरा) अभिप्राय रखने वाले विद्वान विशिष्ट कोटि के हैं, यथार्थबुद्धि वाले हैं, क्योंकि शान-क्रिया दोनों को मुक्ति का साधक बताकर थे वास्तविक पक्ष को प्रस्तुत करते हैं ॥ ३० ॥ [ज्ञान से ही मोक्ष-ज्ञानवादिपक्ष ] ३२ वीं कारिका में शानयादी का मत प्रदर्शित किया गया है ! कारिका का अर्थ इस प्रकार हैज्ञान ही इष्ट फल की प्राप्ति का साधन है । क्योंकि फलोपाय के यथार्थशान से फलप्राप्ति Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ २९१ तत्र प्रथम ज्ञानवादिमतमुपन्यस्यतिज्ञानं हि फलदं पुंसां न क्रियाकलदा मता। मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य फलप्राप्तेरसंभवात् ॥३१॥ ज्ञान हि-ज्ञानमेव, फलदम्-ईहितफलहेतुः, पुंसाम्फ लार्थिनां फलोपायं प्रमाय प्रवर्तमानानाम् , फलाऽव्यभिचारदर्शनात् । न क्रिया फलदा मताः कुतः ! इत्याह-मिथ्याज्ञानात्-उपायत्रमात् प्रवृत्तस्य पुरुषस्य फलप्राप्तेरसंभवात् । न हि मृगतृष्णिकाजलज्ञानप्रवृत्तस्यापि तदवाप्तिरिति भावः । आगमेऽप्युक्तम्-“ पढमं नाणं तमो दया'' इत्यादि । इत्यतोऽप्ययमर्थः सिध्यतीति द्रष्टव्यम् ।। ३१ ॥ 'ज्ञानोत्कर्षाऽपकपाभ्यां फलोत्कर्षाऽपकर्षयोरपि ज्ञानस्यैव फलहेतुत्वम् , क्रियो कषऽपकपयोस्तत्राऽतन्त्रत्वात् ' इत्यभिप्रायवानाज्ञानहीनाश्च यल्लोके दृश्यन्ते हि महाक्रियाः। ताम्यन्तोऽतिचिरं कालं क्लेशायासपरायणाः ॥३२॥ ज्ञानहीनाच-सम्यगुपायपरिज्ञानविकलाश्च, यत्-यस्मात् , लोकेजगति, महाक्रियाः= अपेर्गम्यमानत्वाद् महाक्रिया अपि पुरुपाः काष्टवाहकादय: क्लेसायासपरायणा: शारीर-मानसदुःखपराः, अतिचिरं कालं ताम्यन्तः क्लिश्यन्तः श्यन्ते, हि निश्चितम् , न तु क्रियोत्कर्षेऽप्युस्कृष्ट फलं लभन्ते ।। ३२ ॥ तथा, ज्ञानवन्तश्च तद्वीर्यात्तत्र तत्र स्वकमणि। विशिष्टफलयोगेन सुखिनोऽल्पक्रिया अपि ॥३३॥ ज्ञानचन्तश्व-सम्यगुपायपरिज्ञानोऐताश्च नदीत ज्ञानोत्कर्षात् तत्र तत्र-अधिकृते स्वकर्मणि के लिए प्रवृत्त होने वाले पुरुषों को फल की प्राप्ति देखी जाती हैं। क्रिया फल प्राप्ति का साधन नहीं है क्योंकि फलोपाय के मिथ्याज्ञान से फल प्राप्ति के लिए क्रियाशील होने पर मी फल की प्राप्ति नहीं होती । आगम में भी यह कहकर कि “पहले ज्ञान प्राप्ति और तब दया होती है।" उक्त अर्थ की पुष्टि की गयी है ॥ ३१ ॥ १२ वीं कारिका में ज्ञानयादी का यह आंभिप्राय यर्णित है कि ज्ञान के उत्कर्ष-अपकर्ष से फल में उत्कर्षाऽपकर्ष होता है। इस से भी शान की ही फलहेतुता सिद्ध होती है। क्रिया के उत्कर्ष और अपकर्ष से फल का उत्कर्ष अपकर्ष नहीं होता। कारिका का अर्थ इस प्रकार है संसार में यह देखा जाता दें कि जिन फलोपाय का यथार्थ बोध नहीं होता वे अत्यन्त क्रियाशील होने पर भी फलप्राप्ति से वञ्चित रहते हैं । लकड़ी आदि बोज दोने का कार्य करने वाले मनुष्य शारीरिक क्लेश और मानसिक पीडा उठाते हुए चिरकाल तक अपनी क्रिया में लगे रहते हैं । किन्तु अपनी क्रिया के उत्कर्ष के अनुसार उत्कृष्ट फल की प्राप्ति नहीं कर पाते ।। ३२ ॥ उक्त सन्दर्भ में ही ३३ वीं कारिका अवतरित है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है फलोपाय के सम्यक् शान से सम्पन्न मनुष्य अपने शानोष के कारण रत्न व्यापार आदि अपने कर्म में अल्प क्रियाशील होने पर भी प्रचर धनरुप फल की प्राप्ति कर के क्रिया की अल्पता के कारण उनके लाभ में अल्पता नहीं होती । धर्म क्रिया के सम्बन्ध में भागम में भी कहा गया है कि अज्ञानी जिस कर्म को कोटि धर्षों में निवृत्त करता हैं, शानी मन-वचन-काया से गुप्त हो कर उच्छ्वासमात्र में ही उसे निवृत्त करता है ॥ ३३ ॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ ] [शात्रवार्त्ता० त०] १६/३६ रत्नवाणिज्यादौ, अल्पक्रिया अपि = अल्पव्यापारा अपि, विशिष्टफल योगेन = उत्कृष्टधनप्राप्त्या, सुखिनः 'दृश्यन्ते' इति योगः, न तु क्रियापकर्षादिष्कृष्ट फलभाजो भवन्ति । धर्मक्रियामाश्रित्यागमेऽप्युक्तम् [ "जं अन्नाणी कग्मं खबेइ बहुआहिं वासकोडीहि । तं नाणी तिहि गुत्तो खवेइ ऊसासमिरोणं ॥ १॥" ||३३॥ प्रधानमपि पुरुषार्थमङ्गीकृत्य ज्ञानमेव साक्षादुपयोगीत्याह केवलज्ञानभावे च मुक्तिरप्यन्यथा न यत् । क्रियावतोऽपि यत्नेन तस्माज्ज्ञानादसौ मता । ३४ || केवलज्ञानभावे च = केवलज्ञानोत्पादे च मुक्तिरपि भवति । अन्यथा केवलज्ञानानुत्पादे क्रियाबतोऽपि यत्नेन=प्रयासेन यत् यस्मात् न भवति तम्मात् कारणात् अमौ-मुक्तिः ज्ञानाद मता, न तु क्रियात इति ।। ३४ ।। कियाचादिमतमुपन्यस्यन्नाह क्रियैव फलदा पुंसां न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ।। ३५ ।। क्रियैव प्रवृत्तिलक्षणा फलदा पुंसां = फलार्थिनाम् न ज्ञानं फलदं मतम् यतः =यस्मात्, स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो न ज्ञानात् = स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञानमात्रात्, सुखितो भवेत्, किन्तु स्त्रीभक्ष्यभोगेणैवेति ॥३५॥ क्रियाभावे ज्ञानोत्कर्पस्याप्यपयोजकत्वमाह क्रियाहीना लोके दृश्यन्ते ज्ञानिनोऽपि हि । कृपायतनमन्येषां सुखसंपद्विवर्जिताः || ३६ || क्रियाहीनाश्च = व्यापारविरहिताश्च यत् = यस्मात् लोके - जगति ज्ञानिनोऽप्यालस्योपहताः, हि-निश्चितम् सुखेन अन्तरानन्देन संपदा च लक्ष्म्या विवर्जिताः, अत एवान्येषां पश्यतां प्राणिनाम्, कृपायतनं करुणाभाजनम्, दृश्यन्ते ।। ३६ ।। ३४ वीं कारिका में यह बताया गया है कि पुरुषार्थ के प्रधान होने पर भी मुक्ति में ज्ञान ही साक्षात उपयोगी है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है केवलज्ञान की उत्पत्ति के अनन्तर ही मुक्ति होती है । केवलधान की उत्पत्ति के पूवं मुकि कदापि नहीं होती । यत्नपूर्वक पर्याप्त क्रियाशील होने पर भी केवलज्ञान के अभाव में मुक्ति का लाभ नहीं होता । अतः किया में नहीं किंतु ज्ञान से ही मुक्ति होने का पक्ष मानना चाहिए || ३ || ( ज्ञानवादी पक्ष समाप्त ) [क्रिया से ही मोक्ष - क्रियावादी पक्ष ] ३५वीं कारिका में क्रियावाद की उपन्यस्त किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार हैप्रवृत्तिरूप किया हीं से फल की प्राप्ति होती है, ज्ञान में नहीं। क्योंकि स्पष्ट देखा जाता है कि स्त्री और भोज्यपदार्थ के भोगज्ञान मात्र से मनुष्य सुखी नहीं होता, सुख का अनुभव नहीं कर पाता, अपितु उनकी भोगक्रिया से ही सुखी होता है ॥ ३५ ॥ प्रकार है ३६ वीं कारिका में यह बताया गया है कि क्रिया के अभाव में उत्कृष्ट ज्ञान भी फलप्राप्ति का प्रयोजक नहीं होता । कारिका का अर्थ इस संसार में यह देखा जाता है कि जिन्हें किन्तु वे यदि क्रियाहीन और आलसी है तो कर दूसरों - क्रियाशील धनवानों की करुणा के फलसाधनों का परस उत्कृष्ट ज्ञान होता है आन्तरिक आनन्द एवं लक्ष्मी से डीन हो सहारे ही जीते हैं ॥ ३६ ॥ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दी षिवेचन ] [२९३ उपचयमाहक्रियोपेताश्च तद्योगाददग्रफलभावतः। मूर्खा अपि हि भूयांसो विपश्चित्स्वामिनोऽनघाः ।।३।। क्रियोपेताश्व व्यापारप्रवाणाश्च, तद्योगात्=क्रियासामथ्र्याद, उदग्रफलभावत: बिशिष्टफलसिद्धेः, मुर्खा अपि हि सन्तो भूयांस ईश्वराः, विपश्चित्स्वामिनः पण्डिताधिपतयः अनघाः अपापा: दृश्यन्ते । ततः फलसिद्धावतन्त्रं ज्ञानम् । आगमेऽपि क्रियाया एव प्राधान्यमुक्तम् ; तथाहि “ सुबहुँ पि सुअमहीअं किं काही चरणविप्पहीणस्स | अंधस्स जह पलिता दीवसयसहस्सकोडी वि! ।। १ ॥" तश्रा" नाणं सविसर्याणअयं न नाणमित्तेण कजनिष्फत्ती । मम्गण दिळंतो होइ सचेट्ठो अचेठो य॥१।। आउज्जनकुसला वि नट्टिआ तं जणं ण तोसेइ । जोगं अर्जुजमाणा णिदं खेयं च सा लहइ ॥२॥ इय नाणलिंगसहिओ काइअजोगं ण जुजइ जो उ। न लहइ स मुक्खसुक्खं लहइ अणिदं सपवस्त्राओ।।३।। जाणतो वि य तरि काइअजोगं ण जुंजई जो उ । सो बुड्डइ सोपणं एवं नाणी चरणहीणो ॥४॥" इत्यादि ।। ३७ ॥ यदप्युक्तम्-'ज्ञानोत्कदेव मुक्तिः, न क्रियोत्कर्षात् ' इति; तत् प्रतिविधित्सुशहक्रियातिशययोग च मुक्ति कलिनोऽपि हि नान्यदा केवलित्वेऽपि तदसौ तन्निबन्धना ॥ ३८ ॥ ३७ श्री कारिका में क्रियापक्ष की ही पुष्टि की गयी है। अर्थ इस प्रकार है जो मनुष्य क्रियाशील हो कर व्यापार में लगे रहते हैं, वे मृन होते हुए भी अपनी क्रिया के प्रभाव से प्रचुर सम्पत्ति का लाभ कर विद्वानों के भी स्वामी होते हैं। उन की आर्थिक सहायता से ही विद्वानों का जीवन-पावन होता है। और वे अपनी क्रियाशीलता से अजित धन से विद्वानों के निष्पाप सहायक होते है। इसलिए निदिचन है, कि ज्ञान फन्दप्राप्ति का अप्रयोजक है । शास्त्र में भी क्रिया प्राधान्य दिखाया है, जग्ने शास्त्रों के अत्यधिक अध्ययन से क्रियाहीन को क्या लाभ होगा ? दीप की प्रज्यलित मैकडों शिखाये भी अन्धे के लिप बेकार होती हैं । शान अपने विषय में ही नियत रहता है, शानमात्र से फल की सिद्धि नहीं होती। गतिशील और गतिहीन मार्ग इस में दृष्टान्त हैं। गतिशील मार्गक्ष गन्तव्यस्थान पर पहुंचता है किन्तु गतिहीन मार्गश जहाँ का तहाँ ही बैठा रह जाता है। वाच और नृत्य में कुशल भी नर्तकी कायिक व्यापार का प्रयोग न करने पर लोगों को मन्तुष्ट नहीं कर पाती, निन्द्रा और खंद मात्र ही उस के हाथ लगता हैं। इसलिए शानलक्षण से सम्पन्न होने पर भी जो मनुष्य शारीरिक क्रिया नहीं करता वह मोक्ष का सुख नहीं प्राप्त कर-पाता, अपितु अपने ही पक्ष के लोगों से निन्दा ही प्राप्त करता है। जैसे तैरना जानते हुए भी मनुष्य यदि पानी में हाथ-पैर नहीं चलाता तो वह प्रवाह में इन जाता हैं, उसी प्रकार कियाहीन ज्ञानीपुरुष मंसार में दृध जाता है ।। ३८ ॥ ३८ वीं कारिका में इस कथन का खण्डन किया गया है कि क्रिया के उत्कर्ष से मुक्ति नहीं होती किन्तु शान के उत्कर्ष से ही होती है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है केवलशान का लाभ हो जाने पर भी सवंश को मुक्ति की प्राप्ति शैलेशी-करण की क्रिया के Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शाखा स्त० ११ / ३९ केवलिनोऽपि = सर्वज्ञस्यापि क्रियातिशययोगे च शैलेशीकरणाख्यव्यापारोत्कर्षे च मुक्तिः, नान्यदा - शैलेश्या अर्वाक् के लित्वेऽपि सति तत् तस्मात् असौ मुक्तिः, तनिबन्धना=क्रियानिमित्तिकैवेत्यर्थः ॥ ३८ ॥ 7 २९४ ] उभयवादिमतमुपन्यस्यन्नाह फलं ज्ञान - क्रियायोगे सर्वमेवोपपद्यते । तयोरपिं च तद्भावः परमार्थेन नान्यथा ॥ ३९ ॥ सर्वमेव फलं - पुरुष थेरवेन व्यवह्रियमाणम् ज्ञानक्रियायोगे - उभयसमुदाय एवं उपपद्यते, विशिष्टफलमधिकृत्य प्रत्येकं देशोपकारितायाः समुदाये संपूर्णतोपपत्तेः; उक्तं च भाष्यकृता [ ] "वीण सन्वयि सिकता तेल व साहणाभावो । देसोबगारिया जा सा समवायम्मि संपूण्णा ॥ १ ॥ " अथ संपूर्णता फलोपहितहेतुत्वं देशोपकारिता च हेतुत्वमात्रम्, तच न पृथग्-ज्ञानक्रिमयोः परस्परमुक्तदोषात् तथा च कथं समवाये पूर्णता ? इति चेत् ? न, प्रत्येकमपि ज्ञान-क्रिययोद्वयोरस्वय—व्यतिरेकानुविधानाऽविशेषेण हेतुत्वात् असम्यग्ज्ञाने फलव्यभिचारस्य चाऽसम्यक 3 } बाद ही होती है उससे पूर्व नहीं होती । अतः क्रिया ही मुक्ति का साक्षात् कारण है न कि शान मात्र || ३८ | (क्रियावादी पक्ष समाप्त ) [ ज्ञान - क्रिया समुच्चय मुक्तिहेतु उभयवादीमत ] ३९ व कारिका में शान-क्रिया उभयवादी का मत उपन्यस्त किया गया है | कारिका का अर्थं इस प्रकार है पुरुषार्थ शब्द से व्यवहृत होने वाला सम्पूर्ण फल ज्ञान और क्रिया दोनों के योग से प्राप्त होता है, क्यों कि विशिष्ट फल की सिद्धि में ज्ञान और क्रिया प्रत्येक में आंशिक उपकारकता है। और दोनों के समुदाय में सम्पूर्ण उपकारकता है। भाग्यकार ने भी कहा है कि जिस प्रकार सिकता बालू में तेल का सर्वथा अभाव होता है उस प्रकार शानक्रिया प्रत्येक में मुक्तिसाधनता का सर्वथा अभाव नहीं है । किन्तु प्रत्येक में मुक्ति की आंशिक साधनता है जो ज्ञान-क्रिया दोनों के समुदाय में सम्पूर्ण होती है । यदि यह शङ्का की जाय कि सम्पूर्णता का अर्थ है फलोपघायकता रूप हेतुता और देशो पकारिता यानी आंशिक उपकारिता का अर्थ है केवल हेतुता, और वह अलग-अलग ज्ञान और क्रिया में नहीं है। क्योंकि ज्ञान किया दोनों को स्वतन्त्ररूप से कारण मानने में दोप बताया जा चुका है, तो फिर जब पृथक् प्रत्येक में हेतुता नहीं है तो दोनों के समवाय में उसकी पूर्णता कैसे हो सकती है ?' तो यह ठीक नहीं है, क्यों कि प्रत्येक ज्ञान किया दोनों में फ्ल के अन्वयव्यतिरेक के अनुविधान में साम्य होने से दोनों में से प्रत्येक में हेतुता सिद्ध है । यदि यह कहा जाय कि असम्यक ज्ञान में फल का व्यभिचार होने से ज्ञान को हेतु मानना सम्भव नहीं है' तो यह बात असम्यक् क्रिया में भी समान है। और यदि यह कहा जाय कि ' फल को उत्पन्न न करने वाला ज्ञान वास्तविक ज्ञान ही नहीं है तो यह भी कहा जा सकता है कि ' फल को न उत्पन्न करने वाली क्रिया भी वास्तव अर्थ में किया ही नहीं है । यह अभिप्राय कारिका के उत्तरार्ध में प्रकट किया गया है । * Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ २९५ क्रियायामपि तुल्यत्वादिति भावः । यदि च फलमनुपदधानं ज्ञानं ज्ञानमेव तत्त्वतो नेष्यते, तदा फलमनुपदधती क्रियापि क्रियेति नोच्यत एवेत्यभावातही न ज्ञात किययोः, तद्भावः = ज्ञानक्रियाव्यपदेशः, परमार्थेन - निश्चयेन नान्यथा- न तद्योगमन्तरेण, फलानुपहितस्य सतो - कारणत्वात् कुशूलस्थचीजाऽवीजयोरविशेषात् कारणस्य च सतः फलोपहितत्वात् क्षेत्रस्थवीजवदितिभावः ।। ३९ ।। एतदेवाह - I 2 साध्यमर्थ परिज्ञाय यदि सम्यक् प्रवर्तते । ततस्तत्साधयत्येव तथा चाह बृहस्पतिः ॥ ४० ॥ साध्यमर्थं परिज्ञाय - इष्टत्वसाध्यत्वादिना प्रमाय यदि सम्यक् परिज्ञानानुसारेण, प्रवर्तते साध्योपाये, ततः तत् = अधिकृतं साध्यम् साधयत्येव तथा चाह वृहस्पतिरेतत्संवाद ।। ४० ।। 'सम्यक्प्रवृत्तिःसाध्यस्य प्राभ्युपायोऽभिधीयते । तदप्राप्ताबुपायत्वं न तस्या उपपद्यते ||४१ || ' सम्यक् प्रवृत्तिः = सम्यग्ज्ञानपूर्विका क्रिया साध्यस्य इष्टार्थस्य प्राप्युपायोऽभिवीचते । तदप्राप्तौ = साध्याऽप्राप्तौ सत्याम् उपायत्यम् = अधिकृत साध्यहेतुत्वम् न तस्याः =सम्यक् प्रवृत्तित्वाभिमतायाः, उपपद्यते; अतो नासौ सम्यक् प्रवृत्तिरेवेति भावः ॥ ४१ ॥ फलितार्थमाह--- 1 असाध्यारम्भिगस्तेन सम्यग्ज्ञानं न जातुचित् । साध्यानारम्भिणश्चेति द्वयमन्योन्य संगतम् ॥४२॥ असाध्यारम्भिणस्तेन कारणेन सम्यग्ज्ञानं तत्त्वनीत्या न जातुचित्, फलावच्छिन्नवृत्त्यनन उत्तरार्ध की व्याख्या इस प्रकार है ।ज्ञान और क्रिया में ज्ञान और क्रिया शब्द का व्यवहार भी परमार्थतः वानी निश्चय से फलाधान के अभाव में नहीं होता, क्योंकि जो फल से युक्त नहीं होता वह कारण नहीं होता । यह भी इसलिये कि कुशलस्थ बीज और अबीज यह दोनों अनुत्पादक के रूप में समान ही हैं जो कारण होता है वह निश्चित रूप से क्षेत्रस्थ बीज के समान फलयुक्त ही होता है ॥ ३९ ॥ ३९वीं कारिका में उक्त अर्थ को ही ४०चीं कारिका में प्रकारान्तर से कहा गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है इष्टत्व, साध्यत्व आदि रूप से फल का सम्पक् ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य यदि साध्य के उपाय में ज्ञानानुसार प्रवृत्त होता है तो प्रवृत्ति का त्रिषयभूत साधन निश्चितरूप से लाध्य की मिद्धि सम्पन्न करता ही है । यह बात बृहस्पति ने भी कही है ।। ४० ।। सम्यकशान के अनुसार की गयी क्रिया को प्राप्ति का उपाय कहा जाता है । साध्य की प्राप्ति न होने पर सम्यक किया के अभिमान से अनुष्ठित क्रिया में साध्य की हेतुता नहीं उपपन्न होती । इसलिए ऐसी क्रिश सम्यक क्रिया नहीं है ॥ ४१ ॥ ४२वीं कारिका में पूर्वोक कारिका के कथनों का फलित अर्थ बताया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शासवा० स्त० ११/४४ त्वात् ; साध्यानारम्भिणश्च-व्यर्थकालक्षपणकृतः ततएवः इति हेतोः द्वयम् ज्ञानक्रियोभयम् अन्योन्य संगतम् इतरेतरनान्तरीयकं निश्चयतः ।। ४२ ।। अन्योन्यसंगतिसमर्थकमेव वृद्धव्यपदेशमाह-- अत एवागमनस्य या क्रिया सा क्रियोच्यते । आगमशोऽपि यस्तस्यां यथाशक्ति प्रवर्तते ॥४३॥ अत एव-ज्ञानक्रिययोमिथोऽनुविद्धत्वादेव--आगमज्ञस्य पुंसः या क्रिया सा परमार्थेन क्रियोच्यते, आगमज्ञोऽपि स उच्यते अस्तस्य कथायाम् यथाशक्तिः-स्वसामानुपं वर्तते । अत एवाऽगीतार्थानां स्वच्छन्दविहारिणां मासक्षपणादिकामपि न क्रियामामनन्ति श्रुतवृद्धाः, न वा भग्नचारित्राणां पूर्वपर्यन्तमपि ज्ञानमामनन्ति “णिच्छयणयस्स चरणस्सुवघाए नाण--दसणबहोवि" [ ] इति वचनादिति द्रष्टव्यम् ।। ४३ ॥ उक्तमेव दृष्टान्तेन भावयन्नाहचिन्तामणिस्वरूपज्ञो दौगत्योपहतो नहि । तत्प्राप्त्युपायवैचित्र्ये मुक्त्वान्यत्र प्रवर्तते ॥४४॥ चिन्तामणिर्दारिद्यनाशनो रत्नविशेषस्तत्स्वरूपज्ञः-परमार्थेन तत्स्वरूपज्ञाता दारिधोपहतः सन् तत्प्राप्त्युपायवैचित्र्ये-तल्लाभोपायनानात्वे सति, स्वकृतिसाध्यतासूचनाय वैचित्र्योपादानम् ; नहि असाध्य-(यानी फल से अनुपहित )क्रिया का आरम्भ करने वाले मनुष्य का शान, उक्त कारण से फलानुपहित में हेतुत्य का अभाव होने से वास्तविक दृष्टि से कदापि सम्यक् शान नहीं होता । क्योंकि वह फलोपहित प्रवृत्ति का प्रयोजक नहीं है । और इसी प्रकार साध्य( यानी फल्लोपहित )क्रिया का जो आरम्भ नहीं करता वह व्यर्थ ही कालयापन करता है, उसकी क्रिया भी फलोपचापक न होने से सम्यक क्रिया नहीं होती। इसलिए शान और क्रिया दोनों की ही परस्परमति होती है। निश्चित है की वे एक दूसरे के बिना फलोपधायक नहीं होते ॥ ४२ ॥ ४३वीं कारिका में ज्ञान-क्रिया की परस्पर संगति के समर्थन में वृद्ध श्चन को उपन्यस्त किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है [ज्ञानक्रिया की अन्योन्यसंगति फलसाधक] ज्ञान और क्रिया के परस्परांपेक्षा होने से ही आगमक्ष पुरुष की क्रिया को वास्तविक अर्थ में क्रिया कही जाती है और आममन्न भी उसे ही कही जाती है जो क्रिया में अपने सामयं के अनुसार प्रवृत्त होता है। इसीलिए जो साध अगीतार्थ और स्वच्छन्द्र छन्द रूप से आचरण करने वाले होते हैं उनकी मास पर्यन्त होने वाली उपवास आदि तपश्चर्या को भी आगमन पुरुष क्रिया नहीं मानते । और-जिन साधुओं का चारित्र भग्न हो जाता है उनके नौ नौ पूर्व तक के शान को भी शाम नहीं मानते । क्योंकि आगम वृक्षों का यह वचन है कि चारित्र का उपधात होने पर निश्चय नय के अनुसार-शान और दर्शन का भी उपचात हो जाता है|३|| 'चिन्तामणि' दारिद्रय को दूर करनेवाला एक विशेष रत्न है, उसके स्वरूप का यथार्थहान मिसे होता है यह दारिद्रय से पीडित होने पर उसकी प्राप्ति के प्रयत्न साध्य अनेक उपायों में प्रवृत्त होता है । यह नहीं हो सकता कि उनके भनेक उपायों के मध्य में एक भी Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क, टीका-हिन्दीविवेचन ] बहूनामुपायानां मध्य एकोऽप्यनलसस्य कृतिसाध्यो न भवतीति नहि-नैव, मुक्त्वा तदुपायम् अन्यत्र-अन्योपाये प्रवर्तते ॥ ४४ ।। न चासौ तत्स्वरूपनो योऽन्यत्रापि प्रवर्तते । मालतीगंधगुणविद् दर्भे न रमते ह्यलिः || ४५ ॥ यस्त्वन्यत्र प्रवर्तते नासौ तम्तमान एवेत्माट.-. न चासौ तत्स्वरूपज्ञा तत्त्वतश्चिन्तामणिरत्नम्वरूपज्ञः, योऽन्यत्रापि चिन्तामणिव्यतिरिक्तोपायेऽपि, तदुपायं मुक्त्वा प्रवर्तते । प्रनिवस्तू पमया समर्थयत्ति-मालतीगन्धगुणवित्=जातिकुसुमसौरभज्ञः अलिः अमरस्तियक्सत्त्वोऽपि हि-यतः दर्भ-तृणविशेषे न रमते; किमुतान्यः ! एवं न भवतीत्यभिप्रायः ।। ४५ ।। प्रधानपुरुषार्थमङ्गीकृत्योभयोपयोगमाहमुक्तिश्च केवलज्ञान-क्रियातिशयजैव हि। तद्भाव एव तद्भावात्तदभावेऽप्यभावतः ॥४६।। मुक्तिश्चप्रधानपुरुषार्थरूपा केवलज्ञान-क्रियातिशयजैव हि-उभयनिवन्धनव, नानुभयनिबन्धनिकेत्यर्थः । कुतः ! इत्याह-तद्भाव एव-केवलज्ञान-शैलेशीकियाभाव एवं तद्भावातमुक्युत्पादात् तदभावेऽपि केवलज्ञान-शैलेश्यन्तराभावेऽपि अभावात मुक्त्यनुत्पादात्, उभयोर्निय उपाय आलस्यहीन मनुष्य की कृति से साध्य न हो । अतः वह चिन्तामणि के प्रापक उपाय को छोडकर किसी अन्य उपाय में नहीं प्रवृत्त होता ।। ४४ ।। जो व्यक्ति अन्यत्र-यानी चिन्तामणि से भिन्न उपाय में प्रवृत्त होता है वह चिन्तामणि रन के स्वरूप को नहीं ही जानता है, यही बात ४वी कारिकामें कही गयी है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है____जो मनुष्य चिन्तामणि प्राप्ति के उपाय को छोड़कर अन्य उपाय में प्रवृत होता है वह वास्तव में चिन्तामणि रत्न के स्वरूप को नहीं जानता । यह बात कारिका के उत्तरार्ध मेंप्रतिवस्तूपमालकार से समर्थित की गयी है। जिसका आशय यह है कि मालती पुष्प की सुगन्ध को अनुभव करने वाला भ्रमर जैसा तिर्यच प्राणी भी उसे छोडकर कुश जैसे निर्गन्ध तृणों में जब नहीं रमता तो फिर ज्ञानी मनुष्य श्रेष्ठतम उपाय को छोडकर उपायान्तर में कैसे भलग्न हो सकता है । आशय यह है कि ऐसा नहीं होता ।। १५ ।। ४६वीं कारिका में प्रधान पुरुषार्थ के सम्बन्ध में ज्ञान क्रिया दोनों के उपयोग का वर्णन है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है मुक्ति यह धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुम्बार्थों की अपेक्षा श्रेष्ठ होने से परम पुरुषार्थ है, और वह केवलज्ञान और सातिशय क्रिया इन दोनों से ही उपलब्ध होती है । दोनों में किसी एक का भी अभाव होने पर नहीं होती, क्यों कि केवलज्ञान और शैलेशी क्रिया दोनों के होने पर ही मुक्ति का लाभ होता है । केवलशान और शैलेशी क्रिया में किसी एक का अभाव होने पर भी मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती । मुक्ति में दोनों को अन्वय-म्यतिरेक नियन अनुविधान Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८] [शाखाक स्त० ११/४७-४८ तान्वय-व्यतिरेकानुविधानेऽप्यन्यतरेणान्यतराऽसिद्धौ चाऽविनिगमादितिभावः ॥ ४६ ।। तन्त्रान्तरीया अपि मध्यस्था इत्थमेवाऽऽस्थितवन्त इत्याहन विविक्तं द्वयं सम्यगेतदन्यैरपीप्यते । स्वकार्यसाधनाभावाद्यथाह व्यासमहर्षिः ॥ ४७ ।। न विविक्तम् अन्यतराऽसंयुक्तम् एतद्द्वयम् अन्यरपि-तन्त्रान्तरीयैरपि सम्यगिप्यते । कुतः ! इत्याह-स्वकार्यसाधनाभावात् , कार्याऽसाधकस्य चाऽसम्यक्त्वात् । संवादमाह-यथा व्यासमहर्षिः 'बठरश्च तपस्वी च शू रश्वाप्यकृतवणः । मद्यपा स्त्री सतीत्वं च गजन् ! न श्रदधाम्यहम् ॥४८॥ होने पर भी किसी को कारण मानकर-तूसरे को अन्यथासिद्ध नहीं माना जा सकता। क्यों कि इस में कोई विनिगमक नहीं है कि दोनों में कौन कारण हो और कौन अन्यथा सिन्द्र हो ? ॥ ४६ ॥ ७वीं कारिका में यह बात कही गयी है कि अन्य शास्त्रों के अभिश मध्यस्थ पुरषों की भी ऐसी ही आस्था है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है अन्य शास्त्रवेत्ता भी ज्ञान और क्रिया दोनों को एक दूसरे से निरपेक्ष रहकर सम्यकफल का साधक नहीं मानते । क्यों कि जो अपने कार्य का साधक नहीं होता बह पास्तव में असम्यक-अकारण होता है, मर्षियास ने भी ऐसा ही कहा है ॥ १६ ॥ राजा को सम्बोधित कर व्यासजी का कहना है कि मूख के तपस्थी होने में, पहले आघात आदि से यरव्यहीन वीर होने पर भी घात्र रहित होने में, चितभ्रमकारी मद्य का पान करने वाली स्त्री के पतिता होने में, उनका विश्वास नहीं है । क्यों कि मूखन्य और तपस्वित्य आदि में शीत उष्ण स्पर्श के समान परस्पर विरोध है। [ ज्ञान में अन्यथासिद्धि की शंका का निरसन] शङ्का होती है " कि फलविशिष्ट में दी कारणता का ध्यवाहार होने पर भी फलोपहितत्व रूप से कारणता नहीं मानी जा सकती, क्योंकि फलोपहितत्व फल की उपधापकना-उत्पादकता रूप होने से कारणता रूप दी है अतः उसको कारणता का अचछेदक मानने में आत्मा अपदोष है। कुत्रवत्व से पवं भेदविशेष से यानी अकार पर व्यक्ति-भेद कूट रूप से भी कारणता नहीं मानी जा सकती। क्योंकि उन रूप से फर-कार्य में कार णत्वेन अभिमत वस्तु के अन्वय और व्यतिरेक के अनुविधान का ज्ञान नहीं होता । अतः सम्यक प्रवृत्तित्व रूप से फलमाप्ति की कारणता मानना उचित है । ज्ञान प्रवृत्ति का जनक होने से फन.सिद्धि के प्रति अन्यथा मिद्ध हैं," -किन्तु यह शङ्का असङ्गत है। क्योंकि रस्न का वाणिज्य आदि कर्म ही विशिष्ट धन आदि फल की प्राप्ति का हेतु है । सम्यकशान और प्रवृत्ति का धनप्रापक वाणिज्य आदि कर्म में समान व्यापार ई । यही कारण है जिस से धन के व्यापारी शक्तिसम्पन्न पुरुषों में पाण्डित्य के प्रयोग क सभ्यशान का अभाव होने पर भी रत्न वाणिज्य आदि कर्म के प्रयो. जक सम्यकूशाम होने से कर्म के प्रति सम्यकशान और प्रवृत्ति को सत्र्यापार मानने में कोई क्षति नहीं होती । यदि यह बात न मानी जायगी तो सानवादी की ओर से यह कहा जा सकेगा कि प्रवृत्तिगत सम्यक्त्व कलावच्छिन्नन्यरूप होने से उसे तुता का अपनछेदक नहीं माना जा सकता, और यदि सम्यक् ज्ञानपूर्वक प्रवृत्तित्व रूप से कारणता मानी जायगी तो Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] वरश्च मूर्खश्च तपस्वी च = उत्कृष्टतपःकारी च शूश्वापि प्रथमप्रहारादिवच्व्हीनश्चापि अकृतव्रण: = अनिर्मितक्षतः तथा मद्यपा = चित्तश्रमहेतुमद्यभोगवती स्त्री सतीत्वं च पतिव्रतात्वं च; तत्र राजन ! न श्रदधाम्यहमेतत् शीतोष्णस्पर्शादिवत् परस्परविरुद्धत्वाद् वटरस्वतपस्वित्वादीनामिति भावः । ननु फलोपहित एव तत्त्वतो हेतुत्वव्यवहारेऽपि फलोपहितम्बेन न हेतुता, आत्माश्रयात् नापि कुर्वद्रूपत्वेन भेद या तेन रूपेणान्वयन्तु सम्यकमवृत्तित्वेनैव फलासहेतुता, ज्ञानं तु प्रवृत्तिजनकतयाऽन्यथासिद्धमिति चेत् ? न, रत्नवाणिज्यादिकर्मण एव विशिष्ट घनादिफलप्राप्तिहेतुत्वात् सम्यग्ज्ञानप्रवृत्त्योस्तु तत्र तत्र कर्मण्येव तुल्यबद्व्यापारात् । अत एव धनव्यापारवतामीश्वराणां पाण्डित्यप्रयोजक सम्यग्ज्ञानाभावेऽपि रत्नवाणिज्यादिप्रयोजकसम्यग्ज्ञानसत्त्वाद् न क्षतिः, अन्यथा फलावच्छिन्नत्वरूपप्रवृत्तिसम्यक्त्वस्य हेतुतावच्छेदकत्वायोगात् ; सम्यग्ज्ञानपूर्वकमवृत्तित्वेन हेतुत्वेत्वावश्यकत्वाज्ज्ञानस्यैव हेतुत्वमिति ज्ञाननयेन वक्तुं शक्यत्वात् चारित्रस्य तु प्रवृत्तिरूपस्यैवाधिकृत फल हेतुकर्मत्वात् । तत्रज्ञान - क्रिययोर्द्वार - द्वारिभावेन फल - हेतुत्वं निराबाधम् । एतेन ' मन्त्राद्युपयोगादेव केवलाद् वनितादिफलमाप्तेः क्रियाया अकिञ्चित्करत्वम् ' इति ज्ञाननयोक्तो दोषो निरस्तः, तत्र वनिताद्यागमनस्यैव वनितादिप्राप्तिहेतुत्वात् तत्र च मन्त्रोपयोगवत् परिजपनादिक्रियाया अपि हेतुत्वात् । तदाह माव्यकारः- [वि. आ. मा. ११४० ] 'परिजवणाई किरिया मंतेसु वि साहणं ण तम्मत्तं । तन्नाणओ अन फलं तन्त्राणं जो मक्किरिये ॥ १ ॥ अथ परिजनमपि धारावाहिकं मन्त्रज्ञानमेव, न तु बाळ्यापाररूपा क्रियाऽपि तूष्णीं मन्त्र जपतामपि फलसिद्धेः । न चाकियत्याकाशवत् कार्यजनकत्वमसंगतमिति वाच्यम् ; क्रियायाः संयोग- , 2 ८८ 3 [ २९९ ܕܕ कारणतावच्छेदक के गर्भ में प्रविष्ट होने से आवश्यक होने के कारण ज्ञान को ही कारण मानना उचित है | चारित्र तो प्रवृतिरूप है, अतः वह अभीर फल का हेतुभृत कर्म ही है । उसके प्रति ज्ञान और क्रिया में द्वार और द्वारीरूप से अर्थात् द्वार होने से किया में और शारी होने से ज्ञान में फल की कारणता निर्बाध है । [ मन्त्रप्राप्य फल में भी उमयहेतुता निर्वाध ] इस संदर्भ में ज्ञानवादी द्वारा यह दोष दिया जाता है कि मन्त्र आदि के उपयोग मात्र से ही स्त्री आदि फल की प्राप्ति होती है अतः फलप्राप्ति में किया अकिश्चित्कर है, ।' किन्तु यह दोष पूर्वक्ति विचार के आधार पर निरस्त हो जाता है । यतः स्त्री आदि का आगमन ही उस की प्राप्ति का हेतु है । आगमन में मन्त्रोपयोग के समान मन्त्रजप की क्रिया भी हेतु है । यह बात भाष्यकार ने भी कही है जैसे " मन्त्र आदि से साध्यफलों में मन्त्रजप आदि क्रिया हेतु है । मन्त्र का शान मात्र मन्त्र फल का साधक नहीं है, मन्शान मात्र से मन्त्र का फल नहीं प्राप्त होता । यदि मन्त्रज्ञान मन्त्रजप की क्रिया से युक्त न हो । शङ्का होती है कि 'मन्त्र का जप भी मन्त्र का धारावाहिक ज्ञान ही है । वह वागूव्यापार रूप क्रिया नहीं है। क्योंकि मौन होकर मन्त्र जपने वालों को भी फलप्राप्ति होती Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००] [शासवार्ता. स्त० ११/५८ विभागादावेव हेतुत्वेन तां विनाऽऽकाशादावपि कार्यान्तरान्युपगमादिति चेत् ? न, पुरुषार्थे वनिताद्याकर्षणे परिजपनरूपमानसव्यापाराख्याया अप्यन्तःक्रियाया हेतुत्वात् , ततन्मन्त्रसंकेतोपनिबद्धदेवताप्रेरणजन्यत्वाच्च तस्य तदाह- [वि. अ. भा. ११४११ " तो त कत्तो, भन्नइ त समयणिबद्धदेवओबहियं । किरियाफलं चिय जो न णाणमित्तोवओगस्सा ॥१॥" स्थादेतत् ज्ञान परिषद एवोपक्षीणं न मुक्तिप्रासावुपयुध्यत इति । मैवम् , ज्ञान-क्रिययोः शिविकावाहकपुरुषवदेवस्वभावेनाऽसहकारित्वेऽपि नयन चरणयोरिव स्वभावभेदेन सहकारिवाभिधानात्, तयोद्वारि-द्वारिभावेनैव हेतुत्वोपपत्तेः । 'तथा सति प्रवचनमातृज्ञानातिरिक्तश्रुतानुपयोगः स्यादिति चेत् ! न स्वातन्त्र्येण श्रुतस्यापि ध्यानादिमानसक्रियाद्वारकस्येवोपयोगात् ; अन्यथा द्रव्यश्रुतत्वापत्तेः । स्यादेत-ज्ञानस्य परम्परया हेतुत्वादन्नपक्ताविन्धनादेरिय गौणं हेतुत्वम् : " पारंपरप्पसिद्धी दसण-नाणेहिं होइ चरणस्स । पारंपरपसिद्धी जह होइ तहन्नपाणाण ॥१॥" है । यदि यह कहा जाय कि-विहीन में प्रकाश रूमान का जनकता असङ्गत है -तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि क्रिया संयोग-धिभाग आदि कार्यों का ही हैतु है । अतएव क्रिया के न होने पर भी आकाश में सन्द आदि अन्य कार्यों की कारणता मानी जाती है।'किन्तु उक्त शा ठीक नहीं है। क्योकि स्त्री आदि के आकर्षणरूप पुरुष के ए फल में मानस जप आतरिक क्रिया हेत है. साथ ही जप मन्य में सङ्केतित देवता को प्रेरणारूप क्रिया भी हेतु है। कहा भी गया है कि-[क्रिया के बिना भी मन्त्र से फल प्राप्त होता है ] तो यह कैसे उत्तर-मन्त्र में सतिति देवता द्वारा सम्पादित होने से क्रिया का ही फल है। शान मात्र के उपयोग का फल नहीं हैं। [ज्ञान-क्रिया में अन्योन्य नेत्र-चरणवत् सहकारिता] ___ यदि यह कहा जाय कि-"शान मुक्ति-उपाय का निश्चय कर के ही उपक्षीण होता है । मुनि प्राप्ति में उसका उपयोग नहीं है" -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यह कहा गया है कि ज्ञान और क्रिया शिबिकावाही पुरुषों के समान, यद्यपि समान रूप से मुक्तिप्राप्ति में एक दूसरे के सहकारी नहीं है। फिर भी नेत्र और चरण के समान भिन्न स्वभाव से सरकारी है । अतः उन दोनों में द्वार-द्वारीभाव से ही मुक्ति हेतुता की उपपत्ति होती है। यदि यह कहा माय कि- “ज्ञान और क्रिया को द्वार-द्वारी रूप में हेतुता मानने पर अष्ट प्रवचनमाता से अतिरिक्त श्रम का उपयोग न हो सकेगा, क्योंकि फलसिद्धि के सम्पादन में उससे अधिक ज्ञान द्वारा नहीं हैं'-तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि स्वतन्त्ररूप से श्रुतहान भी ध्यान आदि मागत क्रिया के द्वारा ही फलसिद्धि में उपयोगी होता है। यदि ऐसा न माना जायगा तो उसे द्रव्यश्रुतरूपता की आपत्ति होगी । शङ्का होती है कि-"शान को परम्परया हेतु मानने पर पाक-क्रिया में ईधन आदि के समान बह गौण हेतु होगा। मागम में भी कहा गया है कि-'ज्ञान और दर्शन के क्रिया धारक होने से उनमें पारम्परिक कारणता की सिद्धि उसी प्रकार होती है जैसे अन्नपान की अन्य किसी फलसिद्धि के प्रति प्रारम्भिक कारणता सिद्धि होती है ।' अभिप्राय यह हुआ कि जैसे अन्न और पान के बिना मनुष्य किसी काम को सम्पन्न नहीं कर सकता, अतपव Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी बिधेसन ] ३०१ [ आ. निं. ११६६ ] इत्यागमात् क्रियायास्त्वनन्तरत्वाद मुख्य हेतुत्वमिति क्रियानयो विशिष्यते, ज्ञाननयस्तुहीयते तदिवमुक्तं भाग्यक्रतापि " नाणं परं परमंणतरा उ किरिया तय पहाण यरं, जुतं कारणं [११३७] इति कथमुभयनयानुग्राहकमुभयवादिमतमिति । मैचम्, प्रवृत्तिकाले तज्जनकज्ञानस्यापि सत्त्वेनानन्तरत्वाविरोधात् । न तरविशेषगुणेन पूर्वविशेषगुणनाश इत्यभ्युपगमो नः । न चैब क्रियाया द्वारत्वविरोधः, द्वारिणोऽनाशेऽपि स्वफलयोर्नियतमध्यभावेन तदविरोधात् द्वारत्वे द्वारिनाशविशिष्टत्वाऽप्रवेशात् तदिदमुक्त माप्यकृतैव 'अहवा समय तो दोन्नि जुताई " । प्रथमपक्षाभिधाने तु ज्ञाननयाभिमतस्वविषय मुख्यत्वाभिनिवेशत्यागाय हरवत्व-दीर्घत्वयोरिव गौणत्व - मुख्यत्वयोरापेक्षिकत्वात् । एतेन CC LC " 'जम्ह | देसण - नाणा संपुनफलं ण दिति पत्तेयं । चारितजुआ दिति हु विसिस्सए तेण चारितं ॥ १ ॥ इतीयमागमोतियख्याता, आत्मगृहशुद्धये प्रदीपदीपन - संमार्जनीमा जनवातायनजालक वह जिस प्रकार परम्परया हेतु होने से गौण होता है उसी प्रकार ज्ञान और दर्शन किया द्वारा परम्परया कारण होने से गौणहेतु है । क्रिया फल का अव्यवहित कारण होती है, अत: वह मुख्य हेतु | इसलिए स्पष्ट है कि क्रियावाद श्रेष्ठ है और शानवाद उसकी अपेक्षा हीन हैं । भाष्यकार ने भी यह बात कही है, जैसे- ज्ञान पारम्परिक कारण है और क्रिया अध्यवहित कारण है अत एव उसी की मुख्यकारणता युक्तिसङ्गत है ।" इसलिए उभयवादी क्रिया और ज्ञान उभयनय दोनों का पोषक कैसे हो सकता है। किन्तु यह शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि प्रवृत्तिकाल में ज्ञान के भी उपस्थित रहने से उसमें फल की अव्यवहित पूर्वता में कोई विरोध नहीं हैं । यतः नैयायिक की तरह उत्तर विशेष गुण से पूर्वगुण का नाश होना जैनों को मान्य नहीं है । अत एव फल के अध्यवष्टित पूर्वेक्षण में ज्ञान का अस्तित्व असम्भव नहीं हो सकता । फल के अव्यवहित पूर्व में ज्ञान की अवस्थिति होने से क्रिया में ज्ञान की द्वाररूपता बाधित नहीं हो सकती क्योंकि व्यापारी का नाश न होने पर भी व्यापारी ज्ञान और उसके मुख्य फल के मध्य में क्रिया के नियमित विद्यमानता के नाते उस में ज्ञान का व्यापारत्व उपपन्न हो सकता है। क्योंकि व्यापार का मात्र इतना ही लक्षण है कि जो जिस से जन्य हो और उसके जन्य का अनक हो वह उसका व्यापार है । इस में तनाशकालीनत्वरूप विशेषण का प्रवेश नहीं है । अत: इस विशेषण से शून्य उक्त लक्षण प्रवृत्तिकाल में ज्ञान के होने पर भी प्रवृत्ति - क्रिया में सुसंगत है। यह बात भाष्यकार ने भी कही है, जैसे- " अथवा ज्ञान और क्रिया दोनों एककालत्ति कारण हैं ।" भाग्यकार ने पहले जो ज्ञान को परम्परा से और किया को साक्षात्कारण कहकर क्रिया की मुख्य कारणता और ज्ञान की गौण कारणता कही है, वह 'ज्ञान ही मुख्य कारण है' ज्ञान - नयवादी के इस आमद के निराकरण के उद्देश्य से कही है । वास्तव में ज्ञान और क्रिया की गौण मुख्यता ह्रस्वत्व और दीर्घत्व के समान सापेक्ष है । उक्त प्रतिपादन से आगम के इस वचन की व्याख्या हो जाती है कि 'ज्ञान और दर्शन प्रत्येक से सम्पूर्ण फल की प्राप्ति नहीं होती, किन्तु चारित्र के सहकार से प्राप्त होती है, इसलिए चारित्र उन दोनों की अपेक्षा विशिष्ट है । वस्तुस्थिति यह है कि गृह की शुद्धता के Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ [ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ११ / ४४ पिधान स्थानीयज्ञान - तपः संयमानामेकदेव व्यापारात् फलोपयोगितया द्वयोरपि मुख्यत्वाऽविशेषात् यदागमः - [ वि आ. भा. ११६९ ] 'नाणं पयासयं सोहगो तो संजमो अ गुत्तिकरो । तिरहे पि समाओगे मुकखो जिणसासणे भणिओ || १ ||" इति । यदि चैचमपि कालतो देशतश्च स्वेतरसकलकारणसमवधानव्याप्यसमबधानकत्व लक्षण उत्कर्षश्चास्त्रिक्रियायामेव न खलु षष्ठगुणस्थानमावि परिणामरूपं चारित्रं चतुर्थगुणस्थानमात्रिपरिणामरूपं ज्ञानमतिपत्य वर्तते, न वा चतुर्दशगुणस्थानचरम समयभा विपरमचारित्रं त्रयोदशगुणस्थानमावि - केवलज्ञानमतिपत्येति; घटकारणेषु दण्डादिष्वपि चरमकपालसंयोगोऽपि हीत्थमेव विशिष्यते । लिए प्रदीप को दीप्त रखने, झाड़ से धूल आदि निकालने, और बाहर से गन्दी वस्तुओं के प्रवेश को रोकने के लिए झरोखे की जाली बन्द करने की जो उपयोगीता होती है वही उपयोगीता आत्मशुद्धि के लिए ज्ञान, तप और संयम की भी है। जैसा कि भागम में कहा गया है--' शान प्रकाशक होता है, तप शोधक होता है और संयम गुप्तिकारक होता है । तीनों के सनिधान में ही मोक्षलाभ होने की बात जिनशासन में कही गयी है । ' [विशिष्ट समवधान से क्रिया में उत्कर्ष की आशंका ] यदि यह माना जाय कि उक्त रूप से शान और क्रिया के मोक्ष के प्रति एककालवृत्ति कारण होने पर भी ज्ञान की अपेक्षा क्रिया का यह वैशिष्ट्य है कि देशकाल दोनों दृष्टि से क्रिया का समवधान, उससे भिन्न मोक्ष के सफल कारणों के समवधान का व्याप्य है । यह वैशिष्ट्य ज्ञान आदि में नहीं है । यह निश्चित है कि गुण स्थान में होने वाले विशुद्ध परिणाम रूप चारित्र चतुर्थगुण स्थान में होने वाले परिणाम रूप ज्ञान के बिना नहीं होता, एवं चतुर्देश गुण स्थान के अन्तिम समय में होने वाले परमोच्च चारित्र त्रयोदशगुण स्थान में होने वाले केवलज्ञान के बिना नहीं होता घट के दण्ड आदि कारणों में भी चरम कारणीभूत कपालसंयोग में भी उक्त प्रकार का ही वैशिष्ट्य होता है। क्योंकि उसके समवधान काल में घट के दण्ड आदि अन्य सभी कारणों का समधान सम्पन्न हो चुका रहता है | ! इसके विपरीत यह नहीं कहा जा सकता कि स्वप्रयोज्य विजातीय संयोग सम्बन्ध से दण्ड आदि का समयधान भी घट के अन्य सभी कारणों के समवधान का व्याप्य ही होता है । उसी प्रकार स्वप्रयोज्य अतिशयित चारित्र सम्बन्ध से ज्ञान आदि का भी समग्रधान मोक्ष के अन्य कारणों के समवधान का व्याप्य ही होता है। अतः उक्त रीति का वैशिष्ट्य घट कारणों में केवल कपाल संयोग में ही नहीं है एवं मोक्ष के कारणों में केवल क्रिया में ही नहीं है यह इस लिये नहीं कहा जा सकता कि क्रिया और कपाल संयोग में जो उक्त प्रकार का वैशिष्ट्य बताया गया है उसका अभिप्राय यह है कि क्रिया के स्वतः- ( साक्षात् सम्बन्धमूलक ) समयधान में मोक्ष के अन्य सॠष्ट कारणों के समवधान की व्याप्ति है एवं कपाल संयोग के स्वतः( साक्षात सम्बन्धमूलक ) समवधान में घट के अन्य सभी कारणों के समवधान की व्याप्ति है । ऐसी स्वतः व्याप्ति मोक्ष के ज्ञान आदि कारणों में एवं घट के दण्ड आदि कारणों में नहीं है । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३०३ न च स्वप्रयोज्यातिशयितचारित्रसंबन्धेन च ज्ञानादेरपि स्वेतरसकलकारणसमवधानव्याप्यसमवधानकत्वं निर्वाधमिति वाच्यम् स्वतस्तथात्वस्य विशेषार्थत्वात् इत्यमिमन्यते, तदा 'ज्ञानमेव विशिष्यते, तादृशक्रियाजनकत्वात् । न च स्वापेक्षया तस्यातिशयोऽस्तु न तु स्वकार्यापेक्षयेति वाच्यम्, "दासेण मे "० इत्यादिन्यायाद स्वकार्यस्यापि स्वकार्यत्वाऽविशेषात् कार्यद्वैविध्येन तस्य द्विधातिशयात् स्वकार्यनिष्ठातिशयस्य परम्परया स्वनिष्ठत्वाच्च । यथा हि मृत्तिकाऽपान्तरालवर्तिपिण्डादिकार्य जनयन्ती घटं प्रति न मुख्यतां जहाति तथा ज्ञानमप्यान्तरालिक संवरं जनयद् न मोक्षं प्रति तथा इति ज्ञाननयस्मयप्रसरोऽपि कथं निवारणीयः ? ! तस्मात् तुल्यवत्समुच्चयेनैव ज्ञान-क्रिये आदरणीये इति । अधिकं परीक्षायाम् || ४८|| तदेवमुपदर्शितं शास्त्रसम्यक्त्वम् || स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसंबन्धेन " E दण्डादेरपि अथ प्राग् वक्ष्यमाणत्वेन प्रतिज्ञातमुक्तेर्मृत्यादिवर्जितत्वमुपपादयतिमृत्यादिवर्जिता चेह मुक्ति: कर्मपरिक्षयात् । नाकर्मणः क्वचिञ्जन्म यथोक्तं पूर्ववरिभिः ||४९|| तो इसके सामने यह भी माना जा सकता है कि ऐसी स्थिति में षष्टगुण स्थान में क्रिया का जनक होने से चतुर्थगुण स्थानीय ज्ञान एवं चतुर्दशगुण स्थानीय परमचारित्र कर जनक होने से त्रयोदशगुण स्थानीय केवलज्ञान ही उक्त क्रियाओं की अपेक्षा विशिष्ट है। क्योंकि यह ज्ञान यथोक्त समवधानवाली क्रिया का उत्पादक है। यदि यह कहा जाय कि ज्ञान में क्रिया की अपेक्षा जो वैशिष्ट्य अतिशय दिखाया वह रूप की अपेक्षा यानी साक्षात् नहीं है किन्तु स्वजन्य क्रिया पर अवलस्थित है । जब कि किया में स्व की अपेक्षा अतिशय रहता है और वही है।' तो यह ठीक नहीं क्योंकि- 'अपने गुलाम से खरिदा हुआ गर्दभ अपना ही होता है। इस रीति से ज्ञानजन्य क्रिया से उत्पन्न कार्य भी ज्ञान का ही कार्य निर्वाधरूप से माना जा सकता है, क्योंकि ज्ञान के दो कार्य हुए, इसलिये उसमें अतिशय भी दो प्रकार का रहेगा और ज्ञान के कार्य में रहा हुआ भी आखिर परम्परा से ज्ञान का ही मानना होगा । जैसे मृत्तिका, घट के पूर्व पिण्ड आदि अवान्तर कार्यों का जनक होने पर भी घट के प्रति अपनी मुख्य कारणता का परित्याग नहीं करती, उसी प्रकार ज्ञान मोक्ष के पूर्व नंबर का जनक होने पर भी मोक्ष के प्रति अपनी मुख्यता का परित्याग नहीं करता । इस प्रकार क्रियायादी के सामने ज्ञान को मोक्ष का मुख्य हेतु मानने का ज्ञान नयवादी के अभिमान का भी निवारण नहीं किया जा सकता । अतः ज्ञान नयवादी और क्रिया नयवादी दोनों का मोक्ष के प्रति ज्ञान की मुख्य हेतुता एवं क्रिया की मुख्य हेतुता के प्रतिपादन संगत करने के लिए यही उचित है कि ज्ञान और क्रिया के समुच्चय को मोक्ष का हेतु माना जाय । इस विषय में इससे अधिक ज्ञातथ्य का अवलोकन अध्यात्ममत परीक्षा ग्रन्थ में करना चाहिए। उत्तरीति से शास्त्र के सम्यक्त्व का प्रदर्शन सम्पन्न समझना चाहिए || १८ || | समुच्चयवाद समाप्त ] मोक्ष मृत्यु आदि से रहित उपन्यस्त किया गया है । अर्थ इस [कर्म विना जन्मादि नहीं होते ] होता है, इस पूर्व प्रतिज्ञात अर्थ को ४९ श्री कारिका में प्रकार है Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४] [ शासवार्ताः स्त० ११,५०-३२ मृत्यादिवर्जिता चः-मृत्यु-जरा-जन्मवर्जिता च इह-प्रवचने मुक्तिः कर्मपरिक्षयात् सर्वथा कर्मविगमात्, तदभावे च कारणं बिना कार्यानुत्पत्तेरुक्तोपपत्तेः । तदाह-न अकर्मण:कर्मरहितस्य क्वचित् जन्म-सम्मूर्च्छनोत्पत्त्याविरूपम् , जन्मनो गत्यादिकर्मनिमित्तत्वात् ; यथोक्तं पूर्वसूरिभिः उमास्वातिप्रमुखैः ॥४९॥ विभुक्तम् ! इत्याह-[ तत्वार्थकारिका. लो०८ ] दग्धे बीजे यथात्यन्त प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । कर्मचीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्करः ॥५०॥ अत्यन्त निःशेषतया दग्धे बीजे-शास्यादिबीजे यथाऽजुरः शाश्यङ्कुरः न प्रादुर्भवति; तथा कर्मवीजे-ज्ञानावरणादिप्रकृतिमये अत्यन्तं दम्ये सति भवानर-नारकाद्यग्रिमभवः ‘न प्रादुर्भवति' इति योज्यम् ॥५०॥ जन्मभावे जरा-मृत्योरभायो हेत्वभावतः । तदभावे च निःशेषदुःखाभावः सदैव हि ।।५१॥ जन्माभावे जरा-मृत्योः वयोहान्याऽऽयुःक्षयलक्षणयोः अभाव: अनुत्पत्तिः , हेत्वभावत:कारणाभावात् , जन्मावस्थारूपत्वात् तयोः । ततः सिद्ध मृत्यादिवर्जितत्यम् । तदभावे च-त्याद्यमावे च निःशेषदुःखाभावः रोग-शोका दिसकलदुःखविरहः, सदैव हि-आकालमेब । एवं च दुःखोद्विग्नानानां मुक्त्यर्थप्रवृत्तिरुपपादिता भवति ॥५१|| न चवमभावकमयी मुक्तिरित्याहपरमानन्दभावश्च तदभावे हि शाश्वतः । व्याबाधाभावसंसिद्धः सिद्धानां सुखाच्यते ॥ ५२ ॥ मुक्ति मृत्यु-जन्म-जरा आदि से रहित होती हैं, और यह सम्पूर्ण कर्मों के नाश से सम्पन्न होती है। कर्म ही जन्म का कारण है और कारण के अभाव में कार्य का जन्म नहीं होता, यह नियम है । अतः समय कर्मों का नाश हो जाने पर पुनर्जन्म नहीं होता, जैसा कि उमास्त्राति आदि पूर्व विद्धानों ने कहा है ॥ १९ ॥ ५० वीं कारिका में पूर्व विद्वानों का कथन अङ्कित किया गया है । जो इस प्रकार है बीम के पूर्णरूप से दग्ध हो जाने पर जसे धान्यादि का अङ्कर नहीं उत्पन्न होता है उसी प्रकार कमीज के सम्पूको रूपसे दग्ध-नष्ट हो जाने पर भव का नरक आदि अग्रिम अङ्कर भी नहीं उत्पन्न होता है ॥ ५० ॥ जन्म का अभाव होने पर वय की हानिरूप जगा और आयु की समाप्तिरूप मृत्यु के भी कारण का अभाव होने से अभाव हो जाता है। क्योंकि जरा और मृत्यु जाम की ही अवस्थाएं है । जरा और मृत्यु का अभाव होने पर रेग, शोक आदि समस्त दुःखों का अभाव सबंदा के लिए हो जाता है । मुक्ति में दुःख आदि न होने से ही दुःख से उद्विग्न मनुष्यों की मुक्ति के उपायों के अनुदान में प्रवृत्ति होती है ।। ५१ ॥ [मुक्ति में शाश्वत परमानन्द ] ५२ वीं कारिका में यह बताया गया है कि मुक्ति एक मात्र अभावमय नहीं है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] परमानन्द भावश्वप्रकृष्टस्वास्थ्यलक्षण: तदभावे - निःशेषदुःखाभावे, शाश्वतः = अप्रतिपाती, व्यावाधाभावमं सिद्धः = काम-क्रोध- शीतोष्ण-क्षुत्-पिपासादिव्याकुलतानिवृत्त्युपजातः सिद्धानां सुखमुच्यते । न च तत्र सुखाभावः, विपयसंनिकर्षादिवद् व्याबाधामावस्यापि सुखविशेषहेतुत्वात् काम-क्रोधाद्यभावेऽपि योगिनां सुखसाक्षात्कारसाम्राज्यात् । न च तत्र दुःखाभाव एवं सुखाभिमानः शमादितारतम्येन ततारतम्यानुभवात् । न चाभिमानिकमेव तत् सुखं न मुक्तावनुवर्तितुमुःसहत इति वाच्यम् चुम्बनादिजनिनस येतात जतिरहे तदभिव्यवतेश्च । नापि मानोरधिकत्वादेव तस्य मुक्तावननुवृत्तिः, संहृतसकलविकल्पानामपि तदनुभवात् । वैषयिकत्वं तत्राऽसंभवदुक्तिकमेव, खगादिविषयाणां तदाऽसंविधानात् । नाप्याभा(? भ्या) सिकत्वादेव तस्य मुक्तावननुवृत्तिः । न ह्यनभ्यस्तयोगानां शमसुखसंभवः । न चाभ्यासोऽसकृत्प्रवृद्धिलक्षणो मुक्तौ संभवतीति वाच्यम्, अभ्यासस्य तत्त्वज्ञान इव निरुपमसुखेऽपि प्रतिबन्धकनिवर्तकत येवोपयोगित्वात्, , [ ३०५ हि=निश्चितम् निःशेष दुःखों का अभाव हो जाने पर मनुष्य को प्रकृष्ट स्वास्थ्य स्वरूप परमानन्द प्राप्त होता है । यह परमान्द शाश्वत है, इसकी निवृत्ति कभी नहीं होती और यह काम, कोध, शीत, उष्ण, भूख प्यास आदि की व्याकुलता की निवृत्ति से उत्पन्न होता है । इसे ही सिद्ध आत्माओं का सुख कहा जाता है। मुक्ति में सुख का अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि अमुक्तदशा में जैसे विषयेन्द्रियसन्निकर्ष आदि सुख का कारण होता है वैसे ही मुक्तावस्था में काम, कोच आदि बाधाओं का अभाव भी सुख का विशेष हेतु होता है। क्योंकि यह निर्विवाद है कि काम, क्रोध आदि से मुक्त योगियों को सुख के लाक्षात्कार का साम्राज्य प्राप्त होता है । यह नहीं कहा जा सकता कि योगियों को दुःखाभाव में ही सुख का अभिमान होता है' क्योंकि शम-दम आदि के तारतम्य - उत्कर्षक्रम से सुख का तारतम्य - सुख का उत्कर्ष अनुभवसिद्ध है । यह भी नहीं कहा जा सकता कि ' योगियों को अभिमानिक ही सुख का अनुभव होता है | अतः मुक्ति में उसका अनुवर्तन नहीं हो सकता। क्योंकि योगियों के सुख में चुम्बन आदि से उत्पन्न सुख की अपेक्षा वैलक्षण्य का अनुभव होता है; पत्रं अभिमान का अभाव हो जाने पर ही योगियों को सुख की अभिव्यक्ति होती है। अतः योगि सुख अभिमानिक न होने से मुक्ति में उसकी अनुवृत्ति निर्वाध है । यह भी नहीं कहा जा मकता है कि-' योगी का सुख मनोरयमात्र मूलक है। अतः मुक्ति में उसकी अनुवृत्ति नहीं हो सकती ।' क्योंकि जिन के सम्पूर्ण विकल्पों की समस्त मनोरथों की निवृत्ति हो जाती है। उन्हें भी उस सुख का अनुभव होता है। योगी के सुख को मिलक सुख भी नहीं कहा जा लकता, क्योंकि योगावस्था में योगी को माला आदि विषयों का सनिधान नहीं होता । यह भी नहीं कहा जा सकता कि " योगी का सुख अभ्यासमात्र मूलक होता है । इल लिए मुक्ति में उसकी अनुवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जो योग में अभ्यस्त नहीं होते उन्हें रामजन्य सुख नहीं होता, और अभ्यास पुनः पुनः प्रवृत्ति रूप होने से मुक्ति में उसका सम्भव नहीं है, " क्योंकि अभ्यास जैसे तत्वज्ञान में बाधक तत्त्वनिराकरण करने द्वारा उपयोगी होता है, उसी प्रकार निरुपम सुख में भी वह प्रतिबन्धक का निवर्तक होने से ही उपयोगी है। हेतु तो वस्तुतः प्रतिबन्धक का अभाव ही है । प्रतिबन्धक भी काम, कोव मादि घ्यावा ३९ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाअवार्ता. स्त० ११५३ तत्त्वतस्तु तत्र प्रतिबन्धकापगमस्यैव हेतुत्वात् । प्रतिबन्धकं च तत्र व्यावाधाजनक वेदनीय कर्मव । इति सिद्धं याबाधाऽभावसिद्धं सिद्धानां सुखम् । न च धर्माभावात् तदा सुखानुपपत्तिः, तदमावेऽपि तजनितसुखना शकाभावेनानुवृत्तेः, स्थैर्यरूपचारिधर्मस्य तदा सद्भाचस्यापि ग्रन्थकदभिमतत्वाद्य । उत्पन्ने सिद्धसुखे प्रध्वंसाभाचे दृष्टमविनाशित्वमनभ्युपगच्छतः, कायदृष्टमयच्युतानुत्पन्नमीश्वरज्ञानादिकं चाभ्युपगच्छतः परस्य तु सुस्थितं नैयायिकत्वमिति दिग् ॥ ५२ ॥ एतद्गुणगर्भमेव सिद्धस्वरूपमभिष्टौतिसर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्ताःसर्वचाधाविवर्जिताः। सवसंसिद्धसत्कार्याः सुखं तेषां किमुच्यते ।। ५३ ॥ ___सबैः शीतोष्णादिमिविनिर्मुक्ताः, तथा सर्वाभि धाभिः क्षुत्-पिपासादिपीडाभिर्विवर्जिताः तथा, सर्व संसिद्धं सत्कार्यमानन्दोपयोगि कृत्यं येषां ते तथा । ईशा हि सिद्धा भगवन्तः । किमुच्यते तेषां मुखम् (सुखस्य) ? परिमिताहेतुकत्वात् अपरिमितं हि तत् ; सर्वपामपि सांसारिक सुखानामेतदनन्तभागवर्तित्वात् एतदुपमानस्य कस्याप्यलाभात् । यथा हि नगरगुणान् दृष्ट्या पलियामागतो मिलततिगलं काम पश्यन् जान्न्नपि नोपमाटुमीष्टे परेषां पुरः, धाओं को उत्पन्न करने वाला वेदनीय कर्म ही है। अत: यह निर्विवाद सिद्ध है कि बदनीय कर्म की निवृत्ति होने पर व्याबाधा के अभाव से सिद्धों को सुख की प्राप्ति होती है । प्रतिबन्धक निवृत्ति हो जाने पर अभ्यास निरुपयोगी होने से मुक्ति में उसकी आवश्यकता नहीं है । यह भी नहीं कहा जा सकता कि 'मुक्ति में धर्म न होने से उसमें सुख के अस्तित्व की उपपत्ति नहीं हो सकती । क्योंकि धर्म का अभाव होने पर भी धर्मजन्य सुख का कोई नाशक न होने मे उसकी अनुकृति होने में कोई बाधा नहीं हैं। और सच तो यह है कि ग्रन्थकारों ने मुक्ति में भी स्थैर्यरूप चारित्र धर्म के अस्तित्व का स्वीकार किया है। सिद्ध सुख के उत्पन्न होने पर उसका प्रध्वंस न होने से उसकी अनश्वरता प्रमाणसिद्ध है । प्रमाणसिद्ध होने पर भी यदि नथायिक उसे स्वीकार नहीं करता. तथा अनुत्पन्न और अविनाशी प्रमाणहीन ईश्वरज्ञान आदि को स्वीकार करता है तो इससे उसके नेयायिक होने की समीचीनता (!)-उपहसनीयता स्पष्ट हो जाती है ।। ५.२ ॥ ५३ वीं कारिका में उक्त गुण से सम्पन्न सिद्ध सुख की प्रशस्ति की गयी है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है सिद्ध जीय शीत, उष्ण आदि सभी द्वन्द्वों-दुःख कारणों से रहित होते हैं, और भूख प्यास आदि की सभी प्रकार की पीड़ाओं से मुक्त होते हैं। उनके द्वारा शाश्वत सुख के सम्पादक समस्त सस्कृत्य-सत् प्रयोजन सिद्ध किये होते हैं, ऐसे सिद्ध भगवान होते हैं। फिर उसके सुख के बारे में क्या कहा जा सकता है? उनका सुख सीमित हेतुजन्य सुख नहीं होता, अत पव उनका सुख स्वाभाविक अत पत्र अपरिमित होता है । सांसारिक समस्त सुख सिद्ध सुख के अनन्त भाग में होता है। इसलिये सिखसुख का कोई उपमान दृष्टान्त नहीं प्राप्त होता है । जसे कोई भील किसी मगर के गुणों को देखकर जब जंगल में अपनी पल्ली में वापस आता है और वहाँ उसके स्वजन द्वारा नगर कैसा ऐसा पूछा जाने पर यह नगर के समान किसी को Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ ३०७ तथा जानन्नपि हि सिद्धसुखमहिमानमसद्भिरुपमानैः केवल्यपि नोपमातुमीप्टे । इति कथमित्र परेषामदोवाचां गोचरः ! इति स्मर्तव्यम् ॥ ५३ ।। ___ भूयोऽपि परममङ्गलमूतममीप लक्षणमभिष्टौतिअमूर्ताः सर्वभावशास्त्रलोक्योपरिवर्तिनः । क्षीणपङ्गा महात्मानस्ते सदा सुखमासते ।।४।। अमूर्ताः नाम-गोत्रकर्मक्षयाद रूपादिसंनिवेशमयमू तिरहिताः, सर्वभावज्ञाः निरावरणज्ञस्वभावतया सकलपदार्थज्ञातारः, तथा, त्रैलोक्योपरिवर्तिनः ऊर्ध्वगतिस्वभावत्वेन परतो धर्मास्तिकायाद्यनुपमहेण च लोकान्तस्थाः “अलोएपरिहया सिद्धा लोगगम्मि पइदिटया' इत्यागमात् : तथा क्षीणसङ्गाः क्षीणाशेषकर्माणः, अतः एव महात्मानः अष्टगुणयोगिस्वेन सर्वथा शुद्धात्मानः, अबोचाम च-" सम्वहा परमप्पत्तं सिद्धाणं चेव संसिद्धं" । ते-सिद्धाः सदा-निरन्तरम् , सुख एकरूपतयैवाऽव्याकुलम् आसते अवतिष्ठन्ते ।। ते च सिद्धास्तीर्थादिभेदात् सूत्रे पञ्चदशविधाः प्रज्ञप्ताः, तथा च प्रज्ञापनासूत्रम्--"अणन्तरसिद्ध असंसारसमावण्णगजीवपण्णवणा पन्नरसविहा पण्णता तं जहा-तित्थसिद्धा, अतित्थसिद्धा, तित्थगरसिद्धा, अतित्थगरसिद्धा, सयंबुद्धसिद्धा, पत्तेयबुद्धांसद्धा,बुद्धचोहिअसिद्धा, इथीलिङ्गसिद्धा, पुरिसलिङ्ग. सिद्धा, णपुंसगलिशसिद्धा, सलिनसिद्धा अणलिङ्गसिद्धा, गिहिलिक सिद्धा, एगसिद्धा, अणेगसिद्धा" नहीं देख पाता तो वह स्वयं जानता हुआ भी उसका वर्णन करने में समर्थ नहीं; उसी प्रकार सिद्ध सुख की महिमा को जानने वाले केवलशानी सर्वज्ञ भी कोई उपमान न होने से किसी के साथ उसकी उपमा नहीं कर सकतं । यह स्मरणीय है कि सिद्ध सुख पसे लोगों के आग जिन्हें उस असायोगिक सुख का अनुभव नहीं है कैसे वर्णित किया जा सकता है ? ।। ५३॥ ५४ वीं कारिका में सिद्धों के परममङ्गलभूत स्वरूप की पुनः स्तुति की गयी है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है । जो पुरुष नाम-गोत्र-कर्म की निवृत्ति होने से रूप आदि के संयोगमय शरीर से रहित होते हैं और वे निराकरण हो शानस्वभावत्राले होने से सम्पूर्ण वस्तुओं के माता होते हैं नशा अर्धगति-स्वभाव होने से पयं आगे गतिप्रयोजक धर्मास्तिकाय का सहकार न रहने से, 'अलोक से प्रतिहत होकर सिद्धात्मा लोक के अग्रभाग में प्रतिष्टित होते हैं: इस आगम के अनुसार लोकान्त में अवस्थित होते हैं। और निःशेप कर्मों के क्षय हो जाने से अष्टगुण युक्त हो पूर्णरूप से शुद्धामा होते हैं । और जिनमें पूर्ण रूप से परमात्मरूपता की सिद्धि बतायी गयी है वे सब सिद्ध हमेशा एकरूप होने से निरन्तर अध्याकुलभाव से सुखपूर्वक विराजमान होते हैं। [सिद्धात्माओं के १५ भेद ] सूत्र में पैसे सिद्धों के तीर्थ सिद्धादि पन्द्रह भेद बताए गये हैं । जैसा कि श्री प्रज्ञापना' स्त्र में कहा गया है कि जो असंसारभावापन्न अनन्तर यानी प्रथम समयोत्पन्न सिद्ध जीव है उनकी प्रशापना पन्द्रह भेदवाली है, जैसे-तीर्थसिद्ध, मतीर्थसिद्ध, तीर्थकरसिद्ध, अतीर्थकरसिद्ध, Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ] शाखवार्ता० स्त० ११/५४ इति । तत्र (१) तीर्थे चतुर्वर्णश्रमणसंघरूपे प्रथमगणधररूपे वोत्पन्ने सति सिद्धास्तीर्थसिद्धाः । (२) तीर्थस्याभावेऽनुत्पत्तिलक्षणे आन्तरालिकव्यवच्छेदलक्षणे वा सति सिद्धा अतीर्थसिद्धा मरुदेव्यादयः, सुविधिस्वाम्याद्यपान्तराले विरज्याप्तमहोदयाश्च । (३) तीर्थकरा अवाप्तजिननामोदयार्जितसमृद्धयः सन्तः सिद्धास्तीर्थकरसिद्धाः । (४) अतीर्थकरा: सामान्यकेवलिनः सन्तः सिद्धा अतीर्थकरसिद्धाः । (५) स्वयमेव बाह्यप्रत्ययमन्तरेणैव निजजातिस्मरणादिना बुद्धा सन्तः सिद्धाः स्वयंबुद्धसिद्धाः, ते च तीर्थकरा-उतीर्थकरभेदेन द्विविधाः, इह चातीर्थकरैरधिकारः (६) प्रत्येकं बाह्य बृषभादिकारणमभिसमीक्ष्य बुद्धा: सन्तः सिद्धाः प्रत्येकबुद्धसिद्धाः (७) बुद्धगर्वादिमियोंधिता: सन्तः सिद्धा बुद्धबोधितसिद्धाः । (८) स्त्रिया लिङ्ग स्त्रीलिङ्गं स्त्रीत्वस्योपलक्षणमित्यर्थः, तच विधा-घेदः, शरीरनिवृतिः, नेपथ्यं चेति । इह च शरीरनिर्वत्यैवाधिकारो न वेद-नेपथ्याभ्याम्; तयोर्मोक्षानत्वात् । ततस्तस्मिलिले वर्तमानाः सन्तः सिद्धाः स्त्रीलिङ्गसिद्धाः । आह च नन्धध्ययनचूर्णिकृत " इत्याए लिहं इस्थिलिङ्गं, इयाए उवलक्षणं ति बुतं हवह । तं च तिविह-वेदो, सरीरं, णेवस्थं च । इह सरीरणिवत्तीए अहिगारो, ण वेअ-णेवत्थेहि " । (१) तथा, पुलिन्ने पुशरीरनिर्वतिरूप व्यवस्थिताः स्वयंशुद्ध सिद्ध, प्रत्येकबुद्ध सिद्ध, बुद्धबोधितलिशा, स्त्रीलिङ्गमिद्ध, पुरुषलिङ्गसिद्ध, नपुसकलिङ्गसिद्ध, स्थलिङ्गसिद्ध, अन्य लिन सिह, गृहिलिङ्गसिद्ध, एकसिन्द्र और अनेकसिन । (२) तीर्थ' का अर्थ है श्रमण-श्रमणी-श्रावक-श्राविका (1) चारों का संघ अथवा (२) प्रथम गणधर, उनकी स्थापना के बाद सिद्ध होने वाले तीर्थसिद्ध कहे जाते हैं स्थापना के पहले अथवा उसका विच्छेद होने के बाद नूतनतीर्थ स्थापना न होने तक के काल में जो सिद्ध हुऐ चे अतीर्थसिद्ध होते हैं, जैसे कि, तीर्थस्थापना के पूर्व सिद्ध मरूदेधी माता आदि, तथा जो सुविधिनाथ और शीतलस्वामी आदि के अपान्तगल में तीर्थनाश के बाद विरक्त होकर महोदय मोक्ष प्राप्त करते हैं। (३) जो तीर्थकर होते हैं और जिन्हें 'जिन' नाम कई के उदय से अस्ति अष्टप्रतिहार्यादि समृद्धियाँ प्राप्त होती हैं ऐसे सिद्ध होने वालों को तीर्थकर सिद्ध कहा जाता है । (४) जो तीर्थकर नहीं होते किन्तु सामान्य केली हुए सिद्ध होते हैं ऐसे तीथमिझों को अतीर्थकर सिद्ध कहा जाता है। (4) जो बाबकारण के विना स्वयं ही जातिस्मरण आदि ज्ञान से बोध सम्पन्न होकर सिद्धि में जाते है ऐसे सिद्धी की म्नमवुव मिद का जाना है। समयबुद्ध सिद्ध दो प्रकार के होते है, तीर्थकर और अतीधकर। प्रकृत भेद में अतीर्थकर सिद्ध ग्राह्य है । (६) वृषभ आदि बाय प्रत्येक कारण के अभियीक्षण से जो बोध सम्पन्न हो कर सिद्ध होते हैं उन्हें प्रत्येक सिद्ध कहा जाता है । (७) खुदत्व को प्राप्त गुरु आदि मे बोध प्राम कर के सिद्ध होने वालों को बुद्विघोधित सिद्ध कहा जाता है। (८) स्त्रीलिङ्ग का अश्श है, स्त्रीत्व का शापक। इसके तीन भेद है-वेद, शरीर की निधृत्ति-रचना और नेपथ्य-परिधान । प्रकृत में शरीर निषेत्ति मात्र से ही अभिप्राय है, वेद और नेपथ्य से नहीं। क्यों कि वे दोनों मोक्ष के अङ्ग नहीं है। शरीर की नित्ति रूप स्रोलिङ्ग में रहते हुए जो सिद्ध होते हैं उन सिखों को खीलिङ्ग सिद्ध कहा जाता है। नदी अध्ययन ऋणिकार ने कहा भी है, स्त्रीलिङ्ग का अर्थ है खी का लिङ्ग-स्त्रीत्व का ज्ञापक चिड़। वह विविध है-धेद, शरीर और परिधान 1 मोक्ष के सन्दर्भ में यहाँ शरीर ही या है, Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ ३०९ सन्तः सिद्धाः पुंलिङ्गसिद्धाः । एवं (१०) नपुंसकशरीरे व्यवस्थिताः सन्तः सिद्धा नपुंसकलिङ्गसिद्धाः । तथा (११) स्वलिङ्गे रजोहरणादिरूपं व्यवस्थिताः सन्त सिद्धाः स्वलिङ्गसिद्धाः । (१२) अन्यलिने परिव्राजकादिसंबन्धिन्येय व्यवस्थिताः सिद्धा अन्यलिङ्गसिद्धाः । (१३) गृहिलिने व्यवस्थिताः सिद्धा गृहिलिङ्गसिद्धा मरुदेव्यादयः (१४) एकस्मिन् समय एकका एव सन्तः सिद्धा एकसिद्धाः | (१५) एकस्मिन् समयेऽनेकैः सह सिद्धा अनेकसिद्धाः । अत्राचक्षते क्षपणका अभिनिवेशपेशल चित्ताः – 'स्त्रीलिङ्गसिद्धा:' इत्यत्र 'पूर्व क्षीणस्त्रीवेदाः सन्तः सिद्धाः' इत्ययमर्थ आश्रयणीयः, लिङ्गपदेन मोक्षाननस्यापि वेदस्यानोपादानात्, तीर्थकर सिद्धादाविव मोक्षाङ्गोपाध्युपादाने नियमाभावात् स्त्रीशरीरावस्थितास्तु न मुक्तिभाजः स्त्रीत्वात्, व्यतिरेके पुरुषवत् । अथवा, स्त्रियो मोक्षभाजो न भवन्ति विशिष्टपूर्वाध्ययनलब्ध्यभाववत्वात्, अभयवत् इति । ते भ्रान्ताः, लिङ्गपदेन वेदोपादानेऽप्युक्तार्थस्य स्त्रीमुक्ति विनाऽनुपपत्तेः पूर्वं स्त्रीवेदादिक्षयस्य शरीरनिर्वृतिनियम नियतत्वात् । तथाहि - यदि पुरुषः प्रारम्भकस्तदा पूर्वं नपुंसक वेदम्, वेद और परिधान नहीं । (९) पुरुषशरीर में विद्यमान होकर जो सिद्ध होते हैं, उन्हें पुरुषलिङ्ग सिद्ध कहा जाता है । (१०) नपुंसक शरीर में विद्यमान होकर जो सिद्ध होते हैं, उन्हें नपुंसक लिङ्गसिद्ध कहा जाता है। (११) जो रजोहरण आदि अपने जैन धर्मोक्त साधु) लिङ्ग में रहते हुप सिद्ध होते हैं उन्हें स्वलिङ्गसि कहा जाता है। (१२) जो परिवाजक आदि से सम्बन्धी ( अन्य अजैन धर्मति) लिङ्ग में रहते हुए दिए होते हैं वे अम्ल होत । (१३) जो गृहिरूपलिङ्ग में रहते हुए सिद्ध होते हैं उन्हें गृहिलिङ्गसिद्ध कहा जाता है जैसे मरुदेषी आदि । (१४) जो एक समय में अकेले ही सिद्ध होते हैं उन्हें एकसिद्ध कहा जाता है । और (१५) जो एक समय में अनेकों के साथ सिद्ध होते हैं उन्हें अनेक सिद्ध कहा जाता है । [ स्त्री मुक्तिवादचर्चा में दिगम्बर- पूर्वपक्ष ] इस प्रसङ्ग में अभिनिविष्ट चित्तवाले क्षपणकों दिगम्बरों का यह कहना है कि श्रीलिङ्ग सिद्ध का यह अर्थ है कि जो सर्वप्रथम स्त्रीवेद के क्षीण हो जाने पर सिद्ध होते हैं वे खीलिङ्ग सिद्ध है क्योंकि स्त्रीलिङ्ग शब्द में लिङ्गपद से मोक्ष का अनङ्ग होने पर भी वेद का ग्रहण अभिमत है, क्योंकि अतीर्थंकरसिद्ध आदि के समान बोलिङ्गसिद्ध में भी 'मोक्ष के अङ्गभूत उपाधि का ही ग्रहण होने का नियम' नहीं है। अपने अभिमत की सिद्धि के लिये क्षपणकों का इस प्रकार अनुमान प्रयोग होता है कि 'जो श्री शरीर में अवस्थित होते हैं ये स्त्री होने के कारण मोक्ष के अधिकारी नहीं होते, जो मोक्ष के अधिकारी होते हैं ये स्त्री नहीं होते, जैसे पुरुष अथवा यह भी एक अनुमान उनके द्वारा प्रस्तुत होता है जैसे- 'स्त्रीयां मोक्ष की अधिकारिणी नहीं होती, क्योंकि वे 'पूर्व' के अध्ययन की लब्धिरूप विशिष्ट योग्यता से शून्य होती हैं, जैसे अभव्यजीव । ' [ दिगम्बर की भ्रान्ति का सूचन ] _sureurore कहते हैं कि उक्त पक्ष को प्रस्तुत करनेवाले क्षपणक-दिगम्बर अन्त है, क्योंकि बीलिङ्ग शब्द में लिङ्ग पद से खेद का उपादान करने पर भी श्री मुक्ति माने विना Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दा-पाना. १९ 1 ततः स्त्रीवेदम्, ततो हास्यादिपदकं क्षपयति, ततः पुरुषवेदं खण्डत्र्यं कृत्वा खण्डद्वयं युगपत् क्षपयति, तृतीयखण्डं तु संज्वलनको प्रक्षिपति । यदि च स्त्री प्रारम्भिका ततः प्रथमं नपुंसक वेदम्, ततः पुरुषवेदम्, ततः पट्कम्, ततश्व स्त्रीवेदम् । यदि नपुंसकः प्रारम्भकस्तदा प्रथमं स्त्रीवेदम्, ततः पुरुषवेदम्, ततः षट्कम्, ततो नपुंसकवेदमिति । अन्यथा कल्पनं चानागमिकम् । न च 'स्त्रीलिङ्ग सिद्धा:' इत्यत्र स्वारसिकोऽयमर्थः, सतिसप्तम्याः स्त्रीलिङ्गव्यवस्थितस्यैव स्वरसतो लाभात् । परिभाषा चाऽसंप्रदायिकी कल्पितत्वाद् न प्रमाणम् इति न किञ्चिदेतत् । • 1 haf 'स्त्रियो न मुक्तिभाजः इत्यत्र च सर्वासां स्त्रीणां पक्षीकरणेऽभव्यस्त्रीया भुवत्यनभ्युपगमात् सिद्धसाधनम् । भव्यस्त्रीणामपि पक्षीकरणे भव्यानामपि सर्वासां मुक्त्यनभ्युपगमात् भव्यादि ते अनंता जे सिद्धिसुहं ण पार्वति " इति चचनप्रामाण्यात्, अवाप्तसम्यग्दर्शनानामपि पक्षीकरणे परित्यक्तसम्यग्दर्शनादि, अपरिष्कतसम्यदर्शीकरणेऽप्राप्ता चिकलचारित्राभिस्तद्दोषतादवस्थ्यात् । << उक्त अर्थ की उपपत्ति नहीं हो सकती । क्योंकि सर्वप्रथम स्त्री वेद आदि का क्षय श्री शरीर निर्वृत्ति का नियमत: अविनाभात्री है। वस्तुस्थिति यह है कि यदि पुरुष क्षपकश्रेणि का प्रारम्भ करता है तो पहले नपुंसकवेद का क्षपण करता है, उसके बाद खीवेद का, उसके बाद हास्य आदि छः नोकवाय का क्षपण करता है, और उसके अनन्तर पुरुषछेद कर्म के तीन खण्ड करके दो खण्डों का एक साथ नाश करता है और तीसरे खण्ड को संज्वलनात्मक क्रोध में प्रक्षिप्स करता है । यदि स्त्री प्रारम्भ करती है तो वह पहले नपुंसक वेद उसके बाद पुरुषवेद, उसके बाद हास्य आदि छः नोकपाय और अन्त में स्त्रीयेद का क्षपण करती है। और यदि नपुंसक प्रारम्भ करता है तो पहले श्रीवेद उसके बाद पुरुषवेद, उसके बाद हास्य आदि पद नोकपाय तथा उसके बाद नपुंसक वेद का क्षपण करता है। यदि इससे भिन्न क्रम की कल्पना की जायगी तो वह आगम विरुद्ध होगी । 'बोलिङ्गसिद्ध ' शब्द का क्षपणकोक्त अर्थ स्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि स्त्रीलिङ्गसिद्ध शब्द के स्त्रीलिङ्गे सिद्धा:' इस विग्रह वाक्य में सति अर्थ में चिह्नित सप्तमी से स्त्रो शरीर में अवस्थिति का ही स्वभावतः लाभ होता है | क्षपणकों ने जो स्वारसिक अर्थ को त्यागकर पारिभाषिक अर्थ कहा है वह कल्पित होने से प्रामाणिक भी नहीं हैं। अतः उनके उक्त कथन का कोई मूल्य नहीं है । निरसन ] 'स्त्रियां मोक्ष की अधिकारिणी नहीं उक्त अनुमान में समस्त मोक्ष की अधिकारिणी भव्यत्री को पक्ष किया [ दिगम्बरोक्त अनुमान का क्षपणकों ने जो यह अनुमान प्रस्तुत किया है कि होती, क्योंकि वे स्त्री हैं, वह भी दोषग्रस्त होने से न्याज्य है । जैसे स्त्री की पक्ष करने पर अंशतः सिद्धसाधन है, क्योंकि अभव्य श्री नहीं होती - - यह बीमोक्षवादी को भी मान्य है । और यदि सम्पूर्ण जायगा तो भी सिद्धसाधन अनिवार्य है, क्योंकि सभी भयों की भी मुक्ति नहीं होती, इम विषय में प्रवचन - शाम्बवयन प्रमाण है । उसमें कहा गया है कि भव्य भी ऐसे अनन्त हैं जो मोक्षसुख नहीं प्राप्त कर पाते। जिन स्त्रियों ने सम्यकदर्शन प्राप्त कर लिया है यदि उन्हीं की पक्ष किया जाय तो सम्यकदर्शन प्राप्त कर उसका परित्याग कर देनेवाली स्त्रियों की मुक्ति मान्य न होने से उनमें सिद्धसाधन होगा। एवं जिन स्त्रियों ने सम्यकदर्शन प्राप्त Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ ३११ किञ्च, स्तन-जघनादिस्याकारयोगित्वरूपस्त्रीत्य-हेतुविपर्यये बाधकपमाणाभावात् संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनैकान्तिकः । न च पक्षीययभिचारसंशयस्यानुमितिप्रतिबन्धकत्वेऽनुमानमात्रोच्छेद इति शङ्कनीयम् , स्वारसिकस्य सस्याऽतथात्वेऽप्यप्रयोजकत्वाहितस्यान्वयव्यतिरेकाभ्यो प्रतिबन्धकरवाऽवधारणात् । एतेन 'स्त्रीत्वपर्यायकालायच्छेदेन स्त्रीत्वावच्छिन्ने मुक्त्ययोगित्वसाधने न दोषः, पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन साध्यसिद्धावंशतःसिद्धसाधनम्य 'पृथिवीतरेभ्यो भिद्यते' इत्यादाविवादोषत्वात् ' इत्युक्तावपि न क्षतिः । नन्वेवमपि द्वितीयहेतौ न बाधकम् , पूर्वाध्ययनाभावे सफलफर्मविटपिदयानलकल्पाऽऽद्यशुक्लध्यानद्वयाभावात् , " आये पूर्वविदः' इति वचननामाण्यात् , तदभावे च केवलज्ञानानुत्पत्त्या किया है किन्तु परित्याग नहीं किया है उन्हें पभ किया जाय तो जिन बियों ने अविकल चारित्र प्राप्त नहीं किया है उनकी मुक्ति न होने से उनमें सिह साधन होगा। [ हेतु में संदिग्धविपक्षन्यावृत्तिदोष ] इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि श्रीत्व हेतु का अर्थ है स्त्री सहज स्तन, जघन मादि आकार से युक्त होना । और इसके मोक्षाधिकारी में रहने में कोई बाधक प्रमाण नहीं है | अत: विपक्षल्यावृत्ति का सन्देह होने से स्त्रीत्वहंतु अनेकान्सिक भी है । यदि यह कहा जाय कि-'यह संशय पक्ष में व्यभिचार का संशय है. और ऐसा संशय अनुमिति का प्रतिबन्धक नहीं होता, क्योंकि सशय को अनुमिति का प्रतिबन्धक मानने पर अनुमान मात्र का उच्छेद हो जायगा । यत: पक्ष में साध्यया साध्याभाव का सन्देह रहने से हेतु में विपक्षव्यावृत्ति का सन्देह सर्वत्र सम्भव है। किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि हेतु में विपक्षव्यावृत्ति का स्वारसिक सन्देह भले ही अनुमिति का प्रतियन्धक न हो किन्तु अपयोजकत्वम्अनुकुल सर्क के अभाय से हेतु में जो विपक्षावृत्तित्व का सन्देश होता है उसमें अन्वयव्य तिरेक से अनु. मिति की प्रतिबन्धकता निश्चित है। "धूमः अस्तु, बहिर्मास्तु-धृम रहे और अग्नि न रहे" इस अप्रयोजकत्व शङ्का से धूम में अग्नि म्याभिचार का सन्देह होने से अग्नि की अनुमिति का न होना सर्वमान्य है। प्रकृत में भी “अस्तु नीत्वं, मास्तु, मोक्षानधिकाग्विम-स्त्रीत्व हो, मोक्षाधिकारिता का अभाव न हो' इस शङ्का से स्त्रीत्र से मोक्षानधिकारित्व के ध्यभिचार का संशय होने पर स्त्रीत्व हेतु से मोक्षानधिकारित्व की अनुमिति का प्रतिबन्ध होना अनिवार्य है। इसीलिप उक्त सिद्धसाधन दोष का इस प्रकार परिहार करने पर भी कि-"स्त्री आकार रूप पर्यायकाल में मुक्ति की अयोग्यता का अनुमान करने में दोष नहीं होगा, क्योंकि पक्षताश्च्छेदकावच्छेदेन सम्पूर्ण पक्ष में साध्य को भनुमिति में अंशत सिद्रिसाधन दोष नहीं होता यह बात यत्किश्चित् पृथ्वी में पृथ्वीतरभेद की अनुमिति का होना स्वीकार करने से निर्विवाद सिद्ध है ।"-क्षपणक से प्रयुक्त उक्त अनुमान की सदोपता का अभाव नहीं होता, क्योंकि उक्तरीति से सिद्धसाधन दोष का परिहार होने पर भी हेतु की सन्दिग्ध अनेकान्तिकता का दोष बना रहता है। [पूर्वश्रुत के अध्ययन के बिना मोक्षाभाव-पूर्वपक्ष ] यदि यह कहा जाय कि- "स्त्री में मोक्ष की अनधिकारिता के साधनार्थ जो पूर्वाध्ययन लब्धिरूप विशिष्ट योग्यता के अभाषरूप तूमरे हेतु का प्रयोग किया गया है उससे अभिमत Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रार्त्ताः स्त० ११ / ५४ 1 मुक्त्यनुपपतेरप्रयोजकत्वाभावात् । अयमेवाभिप्रायः न स्त्रीणां मुक्तिः, पुरुषेभ्यो हीनत्वात्, नपुंसकादिवत्' इति प्रभाचन्द्र प्रयोगस्यापि श्रुतापेक्षया हीनत्वस्य ग्रहणात् उक्तरीत्यांशतः सिद्धसाधनस्याऽदोषत्वाच्च " सामान्यतः पक्षत्वे सिद्धसाधनम् विवादास्पदभूतानां पक्षत्वे चेतरव्यावर्तकपक्षविशेषणानुपादाने पक्षस्य न्यूनत्वम् प्रकरणादेव तल्लाभे च पक्षस्यापि तत एव लभ्यस्यानुपादानप्रसङ्गः " इति दोषानवकाशादिति चेत् ? न, पूर्वाध्ययनं विनाऽऽयशुक्लध्यानद्वयाभावे प्राक्तनभवानधीत पूर्वाणां वर्तमानतीर्थाधिपत्यादीनामपि तदभावेन मुक्त्यमावापत्तेः । यदि च 'शास्त्र योगागम्यसामर्थ्ययोग वसेयभावेष्वतिसूक्ष्मेष्वपि तेषां विशिष्टक्षयोपशमप्रभवप्रभावयोगात् पूर्वधरस्येव बोधातिरेकसद्भावादाद्यशुक्लध्यानद्र्यप्राप्तेः केवलावातिक्रमेण मुक्तिमातिरिति न दोषः अध्ययनमन्तरेणापि भावतः पूर्ववित्त्वसंभवात्' इति विभाव्यते तदा निन्यानामप्येव द्वितयसंभवे दोषाभावात् । अनुमिति के होने में कोई बाधा नहीं है । क्योंकि ' आये पूर्वविद' इस तस्थार्थाधिगम महाशास्त्र के अनुसार पूर्वाध्ययन के अभाव में सम्पूर्ण कर्मवन के दाह में दावानल जैसा काम करने वाले आध दो शुक्ल ध्यानों का खियों में अभाव होता है और उनके अभाव में केवलज्ञान की उत्पत्ति न होने से मुक्ति नहीं होती । इसलिए द्वितीय हेतु में अप्रयोजकत्व नहीं है । यही अभिप्राय प्रभाषन्द्र के इस अनुमानप्रयोग का भी है कि 'पुरुषों से हीन होने से नपुंसक आदि के समान बियों की मुक्ति नहीं होती ।' स्त्रियों में पुरुष की अपेक्षा जो हीनता बतायी गयी है यत की अपेक्षा से ही विक्षित है। उत्तरीति से पचतावच्छेदकावच्छेदेन अनुमिति में अंशतः सिद्धिसाधन दोष नहीं है । इसलिये यह जो दोषापादन किया जाता है कि-' बी को सामान्य रूप से पक्ष करने पर सिद्धसाधन होगा और विशदास्पद स्त्री को पक्ष करने पर इतर विवादानास्पद के व्यावर्तक पक्ष विशेषण का उपादान न करने पर पक्ष की न्यूनता होगी। क्योंकि विवादानास्पद का पक्ष में अन्तर्भाव अनभिमत है । प्रकरण से ही इतर की व्यावृति होने से मात्र विवादास्पद की पक्षता का लाभ हो जाने से यदि इतर वारक पक्ष विशेषण के उपादान को अनावश्यक बताया जायगा तो प्रकरण से ही पक्ष का भी लाभ हो जाने से उसके भी अनुपादान की प्रति होगी ।" इस दोष को भी अवकाश नहीं है । क्योंकि स्त्री मात्र में पर्यायकाल में मुक्ति की अयोग्यता का साधन दोषमुक्त है 12 [ पूर्ववत अध्ययन विना भी मोक्षप्रामि - उत्तरपक्ष ] ३१२ ] } 1 तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि पूर्वाध्ययन के बिना आप शुक्ल ध्यानइय का अभाव होने से यदि मुक्ति का अभाव माना जायगा तो जिन्हों ने प्राकन जन्म में पूर्वाध्ययन नहीं किया है ऐसे तीर्थाधिपति तीर्थंकर आदि में भी आधशुक्ल ध्यानद्रय का अभाव होने से उनकी भी सुकि का अभाव होगा । G यदि यह कहा जाय कि तीर्थाधिपति आदि को ऐसे अत्यन्त सूक्ष्म विषयों में भी जो शास्त्रयोग से अगस्य एवं सामर्थ्ययोग से गस्य होते हैं। विशिष्ट क्षयोपशम होने से ऐसा प्रभाव प्राप्त होता है जिससे पूर्वघर के समान उन्हें भी बोधातिशय का लाभ हो जाता है और उसीसे शुक्लध्यान युगल की प्राप्ति होने से केवलज्ञान की प्राप्ति होकर मुक्ति का लाभ होता है । क्योंकि अध्ययन के बिना भी भावतः उन्हें पूर्वविता हो जाती है। " तो उत्तरीति से निर्मन्थस्त्रियों में भी शुक्ल ध्यानद्वय के सम्भव होने से उनकी मुक्ति मानने में कोई दोष नहीं है । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दीविधेयन ] किच्च, विशिष्टपूर्वाध्ययनानधिकारोऽपि तासां कुतः सिद्धः । 'सवैज्ञप्रगीतादागमादिति चेत् ? तत एव मुक्तिभावत्वस्यापि तासां सिद्धिरस्तु । न हि 'एकवाक्यतया व्यवस्थितो दृष्टेष्टादिपु बाधामननुभवन्नाप्तागमः क्वचित् प्रमाणं क्वचिद् ने इत्यभ्युपगन्तुं शक्यं प्रेक्षावता । वस्तुतोऽशतः सिद्भसाधनमध्यबाधितविशेषान्तरोपस्थित न दोषः, अन्यथांशतस्त्बायोगात् । न चात्राऽप्राप्ताऽविकल. चारित्रातिरिक्तं मुक्त्यमाजनं विशेषान्तरमुपतिष्ठते येन तद् न दोषः स्यादिति न किश्चिदेतत् । इत्थं च विवादास्पदीभूतत्रोणां पक्षत्वेऽपि न निर्वाहः, विवादास्पदीभूतत्येनातिरिक्त विशेपपरिग्रहाऽयोगात् । एतेन 'न्यूनत्वं पुरुषदोषो न तु वस्तुदोषः, न चैतावतव वादिपराजयात् कथापर्यवसानम् , तत्वनिर्णिनीषायामदोषात्' इत्युक्तावपि न क्षतिः । अथ चारित्राभायादेव मीणां न मुक्तिः । नन्वसावपि तासां कुतः सिद्धः १ । 'स्त्रीत्वादिति चेत्, नन्वेवं पुरुषत्वात् पुरुषस्यापि तदभावः किं न सिध्येत् । । अथ पुरुषे सकलसावद्ययोगनिवृतिरूप साथ ही यह भी प्रप्रव्य है कि स्त्रीयों का पूर्वाध्ययन में अधिकार नहीं हैं, यह किस प्रमाण से सिद्ध हाता है ? यदि सर्वज्ञ प्रणीत आगम से इसकी सिद्धि मानी जाय तो उनी से खीयों की मुक्तियोग्यता की भी सिद्धि हो सकती है। क्योंकि कोई भी बुद्धिमान मनुष्य यह नहीं स्वीकार कर सकता कि 'जिसमें पकवाक्यता है और देश आदि में जिसे कोई बाधा नहीं प्राप्त है यह आगम किमी विषय में प्रमाण होता है, और किमी में प्रमाण नहीं हो सकता।' सच यह है कि अंशतः सिमाधन भी होर उस स्थिति में नहीं होता जब सा कोई अन्य विशेष उपस्थित हो जिसमें साध्य अबाधित हो । क्योंकि उम स्थिति में भी यदि यह दोष होगा तो उसे अंशत: कहना ही असङ्गल होगा । प्रका में पेसा कोई विशेष उपस्थित नहीं है जो अविफल चारित्र न प्राप्त करने वालों में अतिरिक्त हो तथा मुक्ति के अयोग्य हो, जिससे अंशतः सिद्धिसाधन दोष न हो। अतः श्री को मुक्ति की अपात्रता सिद्ध करने का क्षपणक का प्रयास नहीं जैसा है। इस प्रकार विषादास्पद स्त्रियों को पक्ष करने पर भी मुक्ति की अयोग्यता की अनुमिति का निर्वाह नहीं हो सकता, क्योंकि विवादास्पदत्य रूप से अतिरिक्त विशेष का ग्रहण नहीं होता । न्यूनता पुरुष का दोष है, यस्तु दोष नहीं । अतः पुरूप की न्यूनता मात्र से वादी का पराजय होने पर कथा की समाप्ति नहीं हो जाती हैं । तरच निर्णय की इच्छा रहन पर न्यूनता दोष नहीं हैं। यह कहने पर भी खीमीक्षबादी की कोई हानि नहीं है, क्योंकि अब तक की कथा में स्त्री की मुक्ति की अयोग्यता के अनुमान में दोष बताया जा चुका है और कथा का आर्ग विस्तार होने पर उसमें भी दोष का प्रदर्शन किया जायगा । [स्त्रीत्व चारित्राभाव का प्रयोजक नहीं] यह भी नहीं कहा जा सकता कि 'मियों में चारित्र का अभाव होता है, क्योंकि स्त्रियों में चारित्राभाय होने में कोई प्रमाण नहीं है । 'स्त्रीत्व हेतु से चारित्रामात्र का अनुमान होगा यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि स्थीरव चारित्राभाय का अप्रयोजक है-स्त्रीत्य में चारित्राभाव की व्याक्ति का प्राहक तर्क नहीं है। यदि अप्रयोजक होने पर भी स्त्रीन्य से स्त्री में बारित्राभाष की सिद्धि की जाय तो पुरुषत्व से पुरुष में चारित्रभाव की सिद्धि क्यों न हो? ४० Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] [ शात्रवार्ता० स्त० ११/५४ ८८ चित्तपरिणतेः स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धत्वात् अन्यैश्चानुमानाद् न तत्सिद्धिः इति चेत् ! ननु सा स्त्रियां तथैव किं नावसीयते । अथ 'तासां भगवता नैर्ब्रन्ययस्यानभिधानाद् न तत्प्राप्तिः । ' असदेतत्, तासां तस्य भगवता 'णो कम्पदि णिस्स ग्गिंथीए वा अभिन्नतालपलंबे परिगाहित्तए, ' इत्याद्यागमेन बहुशः प्रतिपादनात् अयोग्यायाः प्रवज्याप्रतिषेधस्य विशेषाभ्यनुज्ञापरत्वाच्च । अथ सलज्जतया तासां चारित्रमूलमचेलत्वं न संभवति, अपावृतानां तासां तिरचीनामिव पुरुषैरभिभवनीयत्वात्, "नो कम्पइ णिगंथीए अचेलाए होत " इति भगवदागमेनापि निषिद्धमेव नाम्यम्, इति न तासां चारित्रसंभव इति चेत् ? न, नाम्यं हि न चारित्राङ्गम्, लज्जारूपसंयमविघातित्वात् । न चरणधरणेन परिग्रहः तस्य मूर्च्छारूपत्वादिति प्रपञ्चितत्वादिति न किञ्चिदेतत् । न च (? ननु) स्त्रीणां स्वभावत एव मायाप्रकर्षवत्त्वमुज्जृम्भतेः न च तत्रकर्षे निष्कपायपरिणामरूपं चारित्रमुज्जीवतीति चेत् ? न, चरमशरीरिणामपि नारदादीनां नायादिप्रकर्षवत्त्वश्रवणात् । ' तेषां संज्वलनी माया न चारित्रविरोधिनी 'ति चेत् ? संयतीनामपि तादृश्येव सा कि न तथा । यदि यह कहा जाय कि पुरुष में पुरुषत्व में चारिशभाव की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि उसमे कलावययोग की निवृत्तिरूप वित्तपरिणाम होता है, जो उसे स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से ज्ञात होता है। और अन्य पुरुषों को भी अनुमान द्वारा उसका ज्ञान होता है तो इस पर यह कहा जा सकता है कि यही यात स्त्रियों के सम्बन्ध में भी क्यों न मानी जाय ? यदि यह कहा जाय कि भगवान ने स्त्रियों के निर्ग्रन्थ होने की बात नहीं कही है इसलिए उनमें उत प्रकार की चित्तपरिणति एवं चारित्र की प्राप्ति नहीं होती तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि भगवान ने "णां कम्पदि णिग्गंथस्स" इत्यादि आगम कि जिसका अर्थ है- 'निर्ग्रन्थ पुरुष अथवा निर्वन्धी स्त्री के लिए अभिन्न तालप्रत्रों का ग्रहण अकल्प्य है उससे अनेकशः स्त्रीयों में निर्ग्रन्थता का प्रतिपादन किया गया है। तथा अयोग्य स्त्री को जो प्रवज्या ( संन्यास ) का निषेध किया गया है इसका तात्पर्य विशेष स्त्री के लिए उसकी स्वीकृति में हैं । यदि यह कहा जाय कि स्त्रियांत होती हैं अतः उनमें निर्वस्त्र होने का चारित्र सम्भव नहीं हैं, क्योंकि उनके वस्त्रहीन होने पर स्त्री जाति के पशु, पक्षी आदि के समान पुरुषों द्वारा उनका अवमान हा सकता है। भगवान ने भी निर्ग्रन्थी की वस्त्रहीनता सम्भव नहीं है एतदर्थ आगम से उनकी नग्नता का निषेध किया है. अतः उनमें चारित्र सम्भव नहीं है" तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि लज्जारूप संयम का विरोधी होने से 'नग्नता' मात्र ही नहीं है । यह भी कहना उचित नहीं है कि 'वस्त्रादिरूप धर्मोपकरण को धारण करने से लज्जा का निर्वाह करने पर भी परिग्रहदोष होगा क्योंकि परिग्रह मूर्च्छारूप होने से उसके द्वारा उक्त आपत्ति नहीं हो सकती, यह पहले सिद्ध किया गया है। अतएव स्त्री की निर्ग्रन्थता के विरोध में जो कुछ कहा गया है वह 'कुछ नहीं' के बराबर है । [ मायाबहुलता के कारण सकल स्त्री में मुक्तिनिषेध अनुचित ] यदि यह कहा जाय कि स्थियों में स्वभावतः माया का बाहुल्य होता है और मायाबाहुल्य के रहते उनमें निष्कषायपरिणाम रूप चारित्र नहीं हो सकता' - यह ठीक नहीं है । क्योंकि नारद आदि अन्तिमदेद्दधारियों में भी माया आदि की बहुलता सुनी जाती है किन्तु Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या, क. टीका-हिन्दीषियन ) [ ३१ न च सर्वासां मायाप्रकर्षनियमोऽपि, स्वभावसिद्धाया अपि तस्या भूयसीप विपरीतपरिणामेन निवृत्तिदर्शनात । एतेन 'स्त्रियो न चारित्रपरिणामवत्यः, पुरुषापेक्षया तीवकामवत्वात् , नपुंसकवत्' इत्यपास्तम् , तीब्रस्यापि कामस्य भूयसीपु तासु श्रुतपरिशीलन-साधूपासनादिप्रसूतविपरीतपरिणामेन निवृत्तिदर्शनात् । न च मिथ्यात्वसहायेन महापापेन स्त्रीत्वस्य निर्वर्तनाद न त्रीशरीवर्तिन आत्मनश्चारित्रप्राप्तिरिति शनीयम् , सम्यक्त्वप्रतिपत्त्यैव मिथ्यात्वा दीनां क्षयादिसम्भवात् ; आस्त्रीशरीरं तदनुवृत्तौ तस्याः सम्यक्त्वादेरप्यपलापप्रसन्नात् । उक्तं च 'सम्यक्त्वप्रतिपत्तिकाल एवान्तः(कोटा)कोटस्थितिकानां सर्वकर्मणां भावेन मिथ्यात्वमोहनीयादीनां क्षयादिसंभवान' इति । न च कक्षा-स्तनादिदेदोष संसजनाबशुद्धः प्राणातिपातबहुलत्वाद् न तासां चारित्रमिति वाच्यम् ; शुद्धशरीराया अपि भूयस्या दर्शनात् , प्राणातिपातपरिणामाभावात् । यदि च वीणां चारित्रं न स्यात् तदा ‘साधुः, साधी, श्रावकः, श्राविका च' इति चतुर्वर्णसंघव्यवस्थोरसीदेत् । उतने मात्र से जैसे वे चारित्रहीन नहीं होते उसी प्रकार म्रियां भी माया होने पर भी चाग्निवती हो सकती हैं। इसके उपर यदि यह कहा जाय कि 'नारद आदि की माया तो मज्वलनीकपा यरूप होती है, अतः उससे चारित्र का विघात नहीं होता । तो यह बात सयमसम्पमा खी के सम्बन्ध में भी क्यों न मानी जाय कि उनकी माया भी मम्बलनीरूप होने से चारित्र का घातक नहीं होती । यसरी बात यह है कि सब स्त्रियों में माया की बहुलता होने का नियम भी नहीं है। क्योंकि माया का स्वभाव सिद्ध होने पर भी बहुत मी त्रियों में विपरीत परिणाम (मायाविरोधी परिणाम) द्वाग उसकी निवृत्ति भी देखी जाती है । इस प्रसङ्ग में यह अनुमान भी कि "खियां चारित्र परिणाम से शून्य होती हैं क्योंकि पुरुष की अपेक्षा के प्रबल कामाग्निबाली होती हैं, जैसे कि प्रबल कामाग्निबाले नपुंसक' निरस्त हो जाता है। क्योंकि काम के तीन होने पर भी बहुत सी स्त्रियों में श्रुतपरिशीलन और साधुसंतों की उपासना आदि से उत्पन्न विरोधी परिणाम द्वाग उसकी निवृत्ति देखी जाती है । यह भी शङ्का कि 'मिथ्यात्व सहकृत महापाप से स्त्रीत्व की प्राप्ति होती है, अत: स्त्री शरीर में विद्यमान आत्मा में चारिश की उत्पत्ति नहीं हो सकती' चित नहीं है । क्योंकि मभ्यक्त्व की प्रतिपसि से मिथ्यात्त्र आदि का क्षय हो सकता है, अतः स्त्री शरीर रहने तक मिथ्यात्व क्री अनुवृत्ति मानी जायगी तो स्त्री के सम्यक्त्व आदि का भी अपलाप हो जायगा । कहा भी गया है कि-मिश्यात्य मोहनीय आदि जितने भी कर्म हैं वे सम्पयत्व प्राप्तिकाल में ही अन्त: कोटा कोटी स्थिति वाले हो जाते हैं। उन सभी कर्मों की अधिक स्थिति का सम्यक्त्व प्रतिपत्तिमूलक परिणाम से भय आदि होता है। यह भी कहना कि--स्त्रियों के कक्षा कटि, काँख, स्तन आदि स्थानों में जीयमसति आदि अशुद्धि होने से अनेक कृमिकीट आदि के बहुल प्राणघात होने से स्त्रियों में चारित्र की उपपत्ति नहीं हो सकती- ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसी भी बहुत स्त्रियां होती हैं जिनका शरीर शुद्ध होता है, जिनमें किसी भी जीय का प्राणघात आदि परिणाम नहीं होता । दुसरी बात यह है कि यदि स्त्रियों में चारित्र न होगा तो साधु, साधी, नायक तथा प्राविका इन चार वर्णों के संघ की घ्यवस्था भी उम्सन्न यानी नष्ट हो जायगी । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६] शाखषार्ता. स्त० ११/५४ __ अथाणुगतधारिणी श्राविकापि साध्वी' इत्येवं व्यपदिश्यत इति न दोष इति चेत् ! हन्त ! तर्हि केवल सम्यक्त्वधारिण्येव श्राविकाव्यपदेशमासादयेत् , एवं च श्रावकेपि तथा द्वैविध्यप्रसङ्गेन पञ्चविधः संघः प्रसन्येत । अथ वेषधारिणी श्राविका ‘साध्वी' इति व्यपदिश्यते, श्रावकस्तु तथाभूतस्तत्त्वतो यतिरेवेति चातुर्विध व्यवतिष्ठत इति चेत् ? नून गुणं विना वेषधारणे विडम्वकचेप्दैव सा । एतेन ' एकोनषष्टिरेव जीबा यथा त्रिप्टिशलाका पुरुषा व्यपदिश्यते तथा त्रिविंधोऽपि संघो विवक्षावशाच्चतुर्विधो व्यपदिश्यते' इति निरस्तम् , विवक्षावीजाभावात् । स्यादेतत्संभवतु नाम चारित्रलेशः स्त्रीणाम् ग्रहलादिमाः सावीत्र्यपदेशमासादयेयुः, न तु मोक्षहेतुस्तस्यकोंऽपि तासु संभवी । मेवम् , स्त्रीत्वेन समं सायकवस्त्र वि.सिद्धेः, तप शैलेश्यबस्न्यापरम [ संघ की चतुर्विधता के उच्छेद की आपत्ति अपरिहार्य] यह भी नहीं कहा जा सकता कि-अणुव्रत के धारण करने वाली श्राधिका भी माध्वी कही जाती है. अतः साध्वी के रूप से उसका ग्रहण करने पर चानुवर्णमध की व्य संघ की व्यवस्था नए होने का दोष नहीं हो सकता। -क्योंकि इस प्रकार विचार करने पर यह भी स्थिति उत्पन्न हो सकती है कि केवल सम्यकत्र को धारण करने वाली स्त्री ही श्राविका कही जाय, और इमी प्रकार ( श्राविका के समान) श्रायक्रों में भी अणुव्रतधारी एवं कंवल सम्यकाव धारी रूप से वैविध्य हो जाने से चतुर्विधमंघ के स्थान में पञ्चविध संघ की प्रसक्ति हो जायेगी। इस प्रसङ्ग में यदि यह कहा जाय कि - " साध्यी जसा घेष धारण करने वाली श्राविका ही साध्वी है, और श्रावक यदि माधु वेषधारी हो तो यह यति-साधुवर्ग में समाविष्ट होगा, अतः श्रावक में द्वविध्य न होने से सब के चतुर्विध होने की व्यवस्था अनुगण रह सकती है," -तो इस कथन के सम्बन्ध में यही कहना पर्याप्त है कि गुण के विना केवल वेष धारण करना विडम्बनाकारी की चेष्टा मात्र है । अतः वेषधारण मात्र से न कोई श्राविका साध्वी कही जा सकती है और न श्रावक 'यनि-साधु ही कहा जा सकता है। इस सन्दर्भ में क्षपणको की ओर से जो यह कहा जाता है फि- “एक कम माठ ही जीव जैसे विवक्षा से शलाकापुरुष की गिनती में तीन सहित साठ शलाका पुरुष कहे जाते हैं उसी प्रकार साधु, धावक और श्राविका यह विविध सच ही विणक्षा से चतुर्विध कहा जाता है। अतः धास्तव अर्थ में साध्वी का अस्तित्व न मानने पर संघ के चातुविंध्य की हानि किंवा उक्तरूप से श्राविका और श्रावक में वैविध्य होने से संघ के पञ्चविधत्व की आपत्ति का उभावन नहीं हो सकता,-" वह निरस्त हो जाता है, क्योंकि त्रिविध संघ की चतुर्विध रूप में विवक्षा का कोई बीज नहीं है। [स्त्रीत्व चारित्रोत्कर्ष का विरोधी नहीं] यदि यह कहा जाय कि- 'स्त्रियों में चारित्र के मर्वथा अभाव की सिद्धि दुःशक होने से यदि उनमें चारित्र माना भी जाय तो यह स्वल्प मात्रा में ही मान्य होगा । जिसके आधार पर उन्हें साध्वी कहना सम्भव हो सकेगा; किन्तु मोक्ष के लिए मिस उत्कृष्ट चरित्र की अपेक्षा है वह खो में न होने से स्त्रो का मोक्ष नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि खोस्य के साथ चारित्र के उत्कर्ष का विरोध अप्तिद्ध है, क्योंकि चारित्र का उत्कर्ष शैलेशी अवस्था के मन्तिम समय में होने से यह रन नहीं होता, जिससे स्त्रीत्व के साथ उसके विरोध की सिद्धि Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल्या. के. टीका-हिन्दीविवेचन ] समयभावित्वेनादृष्टत्यात्, तददर्शने च स्वभावत एव च्छाया-ऽऽतपयोरिव तयोः प्रत्यक्षेण विरोधाऽग्रहात्, प्रत्यक्षाऽप्रवृत्तौ चानुमानस्याऽप्रवृत्तः, तस्य प्रत्यक्षमूलत्वात् , आगमस्य च तद्विरोधप्रतिपादकस्याऽश्रवणात् , प्रत्युत तदविरोधपतिपादकस्यैव जागरुकत्वात् । न च वाद-विक्रिया-चारणादिलब्धिविशेषहेतुसंग्रमविशेषविरहे कथं तासां तदधिकमोक्षहेतुतत्सत्त्वम् ! इति वाच्यम् , लब्धिविशेपहेतुसंयमविरहस्य मोक्षहेतुसंयम विरहाऽव्याप्यत्वात् , माषतुपादीनां लब्धिबिशेषहेतुसंयमाभावेऽपि मोक्षहेतुतच्छवणात् , क्षायोपशमिकलब्धिविरहेऽपि क्षायिकलव्धेरप्रतिघातात् , अन्यथावधिज्ञानादिकमुपमृद्य केवलज्ञानस्याऽप्रादुर्भावप्रसन्नात् । आह - [ ] "बादविंकुईणत्वादिलब्धिबिरहे श्रुते कनीयाँस च । जिनकल्प-मनःपर्ययविरहेऽपि न सिद्धिविरहोऽस्ति ॥ १।। " इति । एतेन 'स्त्रीणां वेद-मोहनीयाविकर्मणः पुरुषापेक्षया प्रबलत्वात् , प्रबलस्य च कर्मणः प्रयले. की सम्भावना की जाय । स्पष्ट है कि जब रखकः शन नहीं होता तो या और आतप के समान उसमें और स्त्रीत्व में स्वभाषतः ही विरोध का प्रत्यक्ष अवधारण नहीं हो मकता । के सम्भव न होने पर अनुमान भी नहीं सम्भव हो सकता, क्योंकि अनुमान प्रत्यक्षमूलक होता है। मागम से भी स्त्रीत्व और चारित्र प्रकर्ष का विरोध नहीं सिद्ध हो सकता. क्योंकि विरोध का बोधक कोई आगम उपलब्ध नहीं है । अपित उन दोनों के अविरोध का प्रतिपादक ही आगम उपलब्ध है। यदि यह कहा जाय कि- 'उनमें जब बाद, विक्रिया, चारण आदि लब्धि विशेष के हेनुभून संयमविशेष का अभाव होता है तो मोक्ष का हेतुभूत संयम विशेष जो उक्त संयम विशेष से अधिक है वह उनमें कैसे हो सकता है ?' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि लब्धिविशेष के हेतुभूत संयम का अभाय मोक्ष के तुभूत संयम के विरह का व्याप्य नहीं है, जिससे उक्त कथन का औचित्य हो सके। यह भी ज्ञातव्य है कि लब्धिविशेष के हेनभत संयम के न होने पर भी मोक्षकारक संयम विशेष का सदभाव हो सकता है। जैसा कि-मापतवमनि आनि में लधिनिशेष के हेतभत संयम का अभाव होने पर भी मोक्ष के हेतुभूत सयम का सदभाव सुना जाता है. साथ ही यह भी तथ्य है कि क्षयोपशम जन्य लब्धि के अभाव में क्षयमूलक लब्धि की उत्पत्ति निर्वाध छै । यदि ऐसा न माना जायगा तो अयधिज्ञान आदि का अतिक्रमण करके भी जो केवलज्ञान का प्रादुर्भाष प्रमाणसिद्ध है वह न हो सकेगा । कहा भी गया है कि 'जब वाद-विकुर्वणन्य आदि लम्धि का अभाव होता है तथा श्रुतज्ञान अल्प होता है और जिनकल्प मनापर्यवशान का अभाव होता है तब भी केवलज्ञान की सिद्धि का अभाव नहीं होता ।' [प्रचलकर्मता स्त्री-पुरुष साधारण] इस सन्दर्भ में क्षपणकों की ओर से एक यह भी बात कही जाती है कि- “स्त्रियों का येदमोहनीय आदि कर्म पुरुष के वेद मोहनीय आदि कम की अपेक्षा बलवान होते हैं । और प्रयल कर्म का नाश प्रबल अनुष्ठान से ही हो सकता है । यदि ऐसा न माना जायगा तो जिनकल्प आदि का उच्छेद हो जायगा । जिणकप्पिया...... इत्यादि आरम याक्य में स्त्री को जिनकल्प होने का निषेध किया गया है । अत: स्त्रियों में विशिष्ट चारित्र न होने से उनके प्रबल Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८] [ शासवार्ता स्त० ११:५४ नैवानुष्ठानेन क्षपणयोग्यत्वात् । अन्यथा जिनकल्पाचुच्छेदापत्तेः, स्त्रीणां च "जिणकप्पिया इन्थी ग हबइ ” इत्याद्यागमेन जिनकल्पनिषेधात् , विशिष्टचारित्राभावात् कथं प्रबलकर्मक्षपणम् , तदभावे च कथं मोक्षः ? ' इति निरस्तम् , पुरुषेभ्यः प्रबलकर्मत्वम्यैव स्त्रीणामसिद्धः, स्त्रीवेदस्य पंवेदापेक्षया प्राबश्ये ऽपि तस्य पुरुषेवप्यचाधितत्वात् , नरन्तण प्रज्वलनस्य चाऽनियतत्वात् ; कचित् स्त्रीत्वसहचरितदोषप्रायदयेऽपि क्वचित् पुंस्त्वसहचरितदोषप्रायत्यस्यापि दर्शनात् । अस्तु या पुरुषापेक्षया स्त्रीणां प्रथलकर्मस्वम् , तथापि तासां भाववैचिन्यादेव विचित्रकर्मक्षयः संभवी । नन्वेव विशिष्टविहारं विना भाववैचित्र्यसंभावनया जिनपिकादीनां जिनकल्पादौ प्रवृत्तिर्न स्यादिति चेत् ! न, शक्त्यनिगृहनेन संयमवीयोल्लास एव हि चारित्रं परिपूर्यते " जइ संजमे वि विरियं ण णिगहिज्जा ण हाविजा" इत्यागमात् । जिनकरुिपकादीनां च स्थविरकल्पापेक्षया विशिष्टमार्गे जिनकल्पादौ शक्तानां विपरीतशङ्कया तत्र शक्तिनिगहने चारित्रमेव हीयेत, कुतस्तरां तदतिरेकाधीनभाववैचित्यमाप्तिसंभावना ? ! स्त्रीणां तु विशिष्टमार्गे शक्तिरेव न, इति स्वीचामा निलमिर्तमानानां न नाम शक्तिनिगहनाधीना चारित्रहानिरस्ति । एवं चोत्तरोत्तरं चारित्रद्धिरेब तासां संभवति । इति भाववैचि-याधीनो विचित्रकर्मक्षयः । इदमेवाभिप्रेत्योक्तम् कर्म की निवृत्ति कैसे हो सकती है ? और कर्म की निवृत्ति न होने पर उन्हें मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है।" -किन्तु यह बात भी निरस्त हो जाती है, क्योंकि पुरुष की अपेक्षा स्त्री में प्रचलकर्म का होना सिद्ध है । पुरुषवेद की अपेक्षा स्त्रीचेद के प्रबल होने पर भी पुरुष में प्रबलक में होने में कोई बाधा नहीं है । स्त्री में निरन्तर कामाग्नि प्रज्वलन का होना भी नियत नहीं है और यदि किसी व्यक्तिविशेष में स्त्रीत्व के साथ दोष की प्रबलता देखी जाती है तो किमी व्यक्तिविशेष में पुम्त्व के साथ भी दोष की प्रबलता देखी जाती है । यदि पुरुष की अपेक्षा स्त्री में प्रबलकर्म का मदभाय मान भी लिया जाय तो उससे कोई हानि नहीं हो सकती, क्योंकि स्त्री के भाव वैचिम्य से स्त्री के प्रयल फर्म की निवृप्ति हो सकती है ।। [जिनकल्पी मुनियों की जिनकल्पनवृत्ति का उच्छेद संभव नहीं] यदि यह कहा जाय कि- 'भावयचिभ्य से प्रबल. कर्म का क्षय मानने पर विशिष्ट बिहार के बिना भी भाववैचित्र्य सम्भव होने से जिनकल्पी मुनियों की जिनकल्प आदि कठोर आचरण में प्रवृत्ति नहीं होगी' -तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि शक्ति का निग्रहन न होने पर संयमषीय के उत्कर्ष से ही चारित्र की पूर्णता हो जाती है। जैसा कि 'यदि संयमऽपि वीर्य न निगृहेदन हापयेत् 'यदि संयम के विषय में वीर्य का निगृहन न हो एवं उसकी हानि न हो' इस आगम वाक्य में प्रकट है। प्रश्न हो सकता है कि जिनकल्पिकादि मुनि में स्थविरकला की अपेक्षा जिनकल्प आदि विशिष्ट मार्ग में जाने की अधिक शक्ति होने पर भी किसी विपरीत शङ्का से यदि यह शक्ति का निदान करता है तो उसके चारित्र की ही हानि होगी, फिर उनमें चारित्र के आधिक्य से होने वाले भावचिध्य की सम्भावना कैसे हो सकती है? स्त्रीयों की बात अलग है, क्योंकि स्त्रियों में विशिघ्र मार्ग पर चलने की शक्ति ही नहीं होती । इमलिा. ये शक्ति का निगृहन न कर यदि अपने उचित चारित्र के लिए प्रवृत्त होती हैं तो उनमें शक्ति निग्रहन प्रयुक्त चारित्रशानि नहीं हो सकती । अपितु उत्तरोसर उनके चारित्र की वृद्धि होती Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दी यिवेचन ] [३१९. "जिनवचनं जानीते श्रद्धचे चरति चार्यका शबलम् । नास्यास्त्यसंभवोऽस्या नादृष्टविरोधगतिरस्ति ।।१।।” इति । अथ ‘विप्रतिपन्नाऽयलाऽशेषकर्मक्षयनिबन्धनाध्यवसायविकला, अविद्यमानाध:सप्तमनरकप्राप्त्यविकलकारणकर्म बीजभूताध्यबसानत्वात् , यो नैव स नैवम् , यथा संप्रतिपन्नपुरुषः ' इति व्यतिरेकिण: स्त्रीषु मुक्तिहेत्वध्यवसायाभावः सिष्यतीति चेत् ? न, अबलातो निवर्तमामस्य यथोक्ताध्ययसानस्य मुक्तिहेस्वध्यबसायनिवर्तकत्वे तत्कारणत्वस्य तद्व्यापकत्वस्य वा तन्त्रत्वात् । आह च न्यायवादी "तस्मात् तस्माद् न संबद्धः स्वभावो भावमेव बा । निवर्तयेत् कारणं वा कार्यमव्यभिचारतः ।। १ ॥ इति । न च तत्कारणत्वं तद्व्यापकत्वं वान्त्र संभवति, योगिनोऽपि यथोक्ताध्यवसानावश्यंभावे नरकप्राप्तिप्रसङ्गात् ; अन्यथा तदविकलकारणत्वाऽयोगात् । अपि च, नाधोगतिविपये मनोवीर्यपरिणतिवैषम्यदर्शनादूर्वगताबपि तद्वैषम्यं कल्पयितुं शक्यम् , येनोत्कृष्टाशुभमनोपीयपरिणतिविरहे उत्कृष्टशुभमनोवीर्यपरिणतिविर है। अतः भाववैविध्य से उनके विचित्र कर्म का क्षय होना निर्विवाद हैं । हमी आशय से कहा गया है कि आर्या-माधी को जिनवचन का ज्ञान है और उस पर उसकी तदनुसार विचित्र आधरण भी करती है तो उसमें चारित असम्भव नहीं है, तथा अष्ट्र विरोध का प्रसङ्ग भी नहीं है।' [सप्तमनरकमापक अध्यवसाय का अभाव अकिचित्कर] यदि खी मोक्ष के विरोध में यह कहा जाय कि- 'स्त्री में अशेष कर्मक्षय-मोक्ष का अभाव इस प्रकार के व्यतिरेकी अनुमान द्वारा सिद्ध है कि मोक्ष की अधिकारिणी होने न होने के संशय की विषयभूत श्री में, सम्पूर्ण कमी के क्षय के कारणभूत अध्यबसाय का अभाव है, क्योंकि उसमें से अध्यवसाय का अभाव है जो अधोगति में मातमनरक की प्राप्ति के अधिकल कारणभूत कर्म का बीजरूप हो, जिसमें मोक्ष के हेनभूत अध्यवसाय का अभाव नहीं होता उसमें उक्त प्रकार के कर्म के बीजभूत अध्यवसाय का अभाव भी नहीं होता, जैसा कि सम्प्रति. पन्न-- मुक्तिगामी पुरुष में सिद्ध है-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यह तभी हो सकता है जब उक्त कर्म के बीजभूत अध्यवसाय मोक्ष के हेतुभूत अध्यवमाय का कारण हो अथवा व्यापक हो । क्योंकि कारण की निवृत्ति से कार्य की निवृत्ति और व्यापक की निवृत्ति ले व्याप्य की निवृत्ति होती है। न्यायवादी ने भी कहा है कि-'किसी अभाव से किसी अभाव का अनुमान करने में अनुमापक अभाव के प्रतियोगी में अनुमेय अभाव के प्रतियोगी की कारणता अथवा ध्याएकता ही प्रयोजक होता है अतः कारण और व्यापक जहाँ असम्बद्ध-अवृत्ति होता है वहाँ कम से कार्य और च्याप्य का निवर्तक होता है, क्योंकि कारणाभाव और ध्यापकाभाव में कार्याभाय और व्याप्याभाव का अव्यभिचार है ।' प्रकत में उक्तविध कर्म के बीजभूत अध्ययसान में अशेप. कर्मक्षय के कारणभूत अभ्यवसान की कारणता किंथा व्यापकता सम्भव नहीं है। क्योंकि योगी में सप्तमनरकायुबन्धोचित अध्यवसाय के न होने पर भी मुक्तिप्रापक अध्यवसाय होता है । यदि उसमें सप्तमनरकायुःवन्ध कारणभूत उक्तविध कर्म के बीजभूत अध्यवसान को अवश्य मानेंगे तो उसे नरकप्राप्ति की भापति अवश्य होगी, और यदि ऐसा न होगा तो उसमें नरक Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्त्ता० त०] १२ / ५४ ३२० हस्तासां स्यात् । यतो भुजपरिसर्पाः पक्षिणः, चतुष्पदाः, उरगाथाधोगतावुत्कर्षतो यथाक्रमं द्वितीयाम्, तृतीयाम्, चतुर्थीम् पञ्चमीं च पृथ्वीं गच्छन्ति ऊर्ध्व तु सहस्रारं यावदेवेति । स्यादेतत्तेषामूर्ध्वाऽधोगतिचैषम्यं भवरवाभान्यादेव, स्त्रीणां तु न तथा नरभवे सप्तमन्दरक पृथिव्यामपि गमनसंभवात् तस्मात् स्त्रीपर्यायस्यैवायं स्वभावः यत इमाः सप्तमनरक पृथिव्यां न गच्छन्ति इति मोक्षेऽपि ता न गच्छन्ति' इति कुतो नासां स्वभाव: : इति । मैवम् तथा कारण संपत्त्यसंपत्तिभ्यामेव तथास्वाभाव्यनिर्वाहात् स्त्रीणां सप्तमनरकगमनकारणाऽसंपत्तौ तद्गमनाऽस्वाभाव्येऽपि मुक्ति , J कारण संपत्त्या तद्गमनस्वाभाव्यानाधात् । L 1 एतेन 'उर्ध्वगतिपरमोत्कर्ष एवाधोगतिपरमोत्कर्ष व्याप्यः, प्रसन्नचन्द्रादौ तथा दर्शनात् तेनान्तरालिकवैपम्यदर्शनेऽपि न क्षतिः' इति निरस्तम् । किञ्च, स्त्रीणां सप्तमनरक पृथ्वीमा सिनिबन्धनाध्य प्राप्ति की अविकल कारणमा ही नहीं होगी । इससे स्पष्ट है कि योगी में उक्त अध्यवसाय नहीं होता. फिर भी अशेषकर्मक्षय का हेतुभृत अध्यवसाय होता है। इसलिए उक्त अध्यवसान में अशेषकर्मक्षय के हेतुभूत अध्यवसाय की कारणता पत्र व्यापकता असिद्ध है। यह भी ज्ञातव्य है कि अधोगति के सम्बन्ध में मन की वीर्यपरिणतियों में विषमता के होने से ऊर्ध्वगति के विषय में भी मन की वीर्यपरिणति में विमता की कल्पना शक्य नहीं है, जिससे कि स्त्रियों में मनोषीर्य की उत्कृष्ट शुभ परिणति का अभाव होने पर उनमें उत्तरोत्तर मनोवीर्य की उत्कृष्ट शुभपरिणति का भी अभाव सिद्ध किया जाय ! क्योंकि, भुजपरिसर्पहाथ से गति करने वाले प्राणी, पक्षी, चतुष्पद-चौपाये और उग्ग- सर्पादि, अधोगति में उत्कर्षतः कम से द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पञ्चम पृथ्वी में जाते हैं । फिर भी ऊर्ध्वगति में सहस्रार ( आट देवलोक ) पर्यन्त जा सकते है । [ स्त्री में ऊर्ध्वागतम्य का प्रयोजक कारणवैपम्य ! यदि यह कहा जाय कि 'भुजपरिसर्पादि जीवों की ऊष्यं और अधोगति में जो पस्य होता है वह तो उनके जन्मस्वभाव के ही कारण होता है किन्तु स्त्रियों में यह बात नहीं है, क्योंकि मनुष्यभव में सप्तमनरक में भी मनुष्य का गमन हो सकता है, इसलिए भवस्वभाव नहीं किन्तु स्त्रीपर्याय का ही यह स्वभाव है कि उस पर्याय से खियों का सप्तमनरक में गमन नहीं होता और इसी कारण से मोक्ष में भी उनका गमन नहीं होता-ऐसा क्यों न माना जाय ? ' -तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि स्त्री पर्याय में मोक्षगमन के कारण की सम्पत्ति और सप्तम नरक गमन के कारण की असम्पत्ति से ही स्त्री पर्याय के उक्त स्वभाव का निर्वाह हो सकता है । यतः सममनरक में गमन करने के कारणों की सम्पत्ति न होने से सप्तमनरक में न जाने का स्वभाव होने पर भी मोक्ष कारण की सम्पत्ति में मोक्ष में गमन करने का स्वभाव होने में कोई बाधा नहीं है ! [ ऊधोगतिप्रकर्ष में व्याप्यव्यापकभाव निरसन ] इस सन्दर्भ में स्त्री मोक्षविरोधियों का यह भी कहना है कि- 'ऊर्ध्वगति का परमोत्कर्ष दृष्ट है । अधोगति के परमोत्कर्ष का व्याप्य है' यह बात प्रसन्नचन्द्र आदि के सम्बन्ध अतः आन्तरालिक वैषम्य नरकपर्याय में भुजपरिसर्पादि में द्वितीयादिनरकावधिक अधोगति प्रकर्ष Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. फ. टीका-हिन्दीविवेचन ] { ३२१ बसायाभावः कुतः प्रतिपन्नः ! 'आमागमादिति चेत् । तदाऽशेषकर्मशैलबन्नभूतशुभाश्यबसायोऽपि तत एबाध्यवसीयताम् । न ह्यतीन्द्रिय एवंविधेऽर्थेऽम्मदादेशि आप्तागमाहतेऽन्यद बलवत्तर प्रमाणमस्ति । न च दृष्टेष्टाऽविरोध्याप्तवचनमसत्तानुसारिजातिविक्रमपर्वाधामनुभवति, तेषां प्राप्ताऽप्राप्तत्वापादकमतगजविकल्पबदवस्तुसंस्पर्शित्वात् । तदुक्तं भर्तहरिणा-- "अतीन्द्रियानसंखेशारद पश्यन्गा पर शुषा से भागान, नाका ते नानुमानेन याध्यते ॥१॥” इति । न चाप्तबचन स्त्रीनिर्वाणप्रतिपादकमप्रमाणम् , सप्तमनरकमाप्तिप्रतिषेधकं च प्रमाणमिति वक्तुं शक्यम् , उभयत्राप्याप्तप्रणीतत्वादेः प्रामाप्यनिबन्धनस्याऽविशेषात् । न चैकमाप्तपणीतमेव न भवतीति वाच्यम् , इतरत्राप्यस्य सुवचत्वात , पूर्वापरोपनिबद्धाशेपदृष्टाऽदृष्टप्रयोजनार्थप्रतिपादकावान्तरवाश्यसमूका अभाव और देवपर्याय में ८ वे स्वर्ग तक गमन प्रकर्ष रूप वपस्य के दिखाई देने पर भी कोई हानि नहीं है, क्योंकि स्त्रीपर्याय में अधोगति का प्रकर्षरूप म्यापक के न होने से ऊर्ध. गति प्रकर्षरूप व्याप्य के अभाव की मिद्रि हो सकती है।' -किन्तु यह कथन भी उक्तरीति से स्त्रीपर्याय में मोक्षगमन की मयुक्तिकता सिद्ध होने से निरस्त होना है। उक्त के अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि स्त्रीयों में सप्तमनरकभूमि की प्राप्ति के कारणभूत अध्यवसान का अभाव किस प्रमाण से सिद्ध होता है? यदि आपतआग से, तो उसी में श्रियों में अशेषकर्मरूप पर्वत भेदन के लिए धनतुल्य अध्यषमाय की सत्ता का भी स्वीकार कर लेना उचित है, क्योंकि इस प्रकार के अतीन्द्रिय विपर्या के सम्बन्ध में हम जैसे स्थलदर्शी लोगों के लिए आगम को छोड़ कर दूसरा कोई बलवत्तर प्रमाण नहीं है । यतः दृष्ट-इन का अविरोधी आगमवचन असत् तर्क पर अबलम्बित जात्यात्मक (दृपणाभास स्वरूप) विकल्पों से बाधित नहीं हो सकता। क्योंकि वे विकल्प, प्राप्तत्त्र पर्व अप्रातत्य के आपादक मतङ्गज विकल्प के समान अवस्नुविषयक है। जैसा कि भर्तहरि ने कहा है कि-"जो महापरुष अतीन्द्रिय सेयभावों को आपति से देखते हैं उनका षचन अनुमान से बाधित नहीं होता ॥ १ ॥' यह नहीं कहा जा सकता कि 'खी के मोक्ष का प्रतिपादक आगम का बचन भप्रमाण है, और सप्तमनरक की प्राप्ति का निषेध करने वाला बनन प्रमाण है ।' -क्योंकि दोनों ही वचनों में प्रामाण्य का प्रयोजक आमप्रणीतल्न समान रूप से विद्यमान है। यह कहना भी ठीक नहीं है कि 'स्त्रीमोक्ष का प्रतिपादक घचन आप्ताचित ही नहीं है क्योंकि यह बात स्त्री को सप्तमनरक प्राप्ति के निषेध बधन में भी कही जा सकती है। क्योंकि जैनागम पूर्वापर सम्बद्ध पर्व दृष्ट-अट अर्थरूप प्रयोजन के प्रतिपादक अवान्तर वाक्यों का समूहरूप होने से एक है इसी लिये किसी अवान्तर बाक्य को अप्रमाण मानने पर उससे बदित समृचे आगम में अप्रामाण्य की आपत्ति होगी । [ ज्ञानपरमप्रकर्ष में स्त्रीवृत्तिस्याभाव का साधन दुष्कर ] ___ इस सन्दर्भ में यह अनुमान भी कि-'ज्ञान का परमप्रकर्ष त्रो में नहीं होता, क्योंकि यह परमप्रकारूप है, जो परमप्रकर्ष होता है वह स्त्री में नहीं होता, असे-सप्तमनरक पृथ्वी में गमन का प्रयोजक अपुण्य (पाप) का परमप्रकर्ष-निरस्त हो जाता है। क्योंकि सही में Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२] शाखवार्ता० स्त० ११ / २४ हान्मकैकमहावाक्यरूपतयाहदागमम्यकत्वात् , अवान्तरवाक्यविशेषाऽप्रामाण्ये सर्वस्याप्यागमस्याऽप्रामाण्यप्रसक्तेः । एतेन "ज्ञानादिपरमप्रकर्षों न स्त्रीवृत्तिः, परमप्रकर्षत्वात् , सप्तमनरकपृथ्वीगमनाऽपुण्यपरमप्रकर्षकत्' इत्यपि निरस्तम् , मोहनीयस्थिति-स्त्रीवेदपरमप्रकपण च व्यभिचारात्; सामनरकपृथ्वीगमना पुष्यजातीयपरमप्रकपरवस्य हेत्वर्थस्ये च हेतोः पक्षाऽवृत्तित्वात् , आत्मपरिणामत्वजात्या तज्जातीयविदाक्षायां चोक्तदोषतादयस्थ्यात् । 'चारित्रप्रको न स्त्रीवृत्तिः, गुणप्रकर्षत्वात्, शुतज्ञानप्रकर्षचन्' इत्यत्रापि सम्यग्दर्शनप्रकण व्यभिचारः, ज्ञानप्रकर्ष विनापि चास्त्रिप्रकर्पस्य माषतुषादी सिद्धरवेनाऽप्रयोजकत्वं चेति न किञ्चिदेतत् । एतेन च “पुस्त्वेनैव लघुना मुक्तिस्वरूपयोग्यता, न तु गुरुणाऽक्कीवत्वेन, इति न स्त्रीणां मुक्तिः । इति कल्पनाप्यपास्ता, भव्यत्वेनैव सिद्धौ स्वरूपयोग्यत्वात् , कचित् कदाचिदितारकारविलम्पादेव काबिलग्यो । यदि य पुस्यापि मनुष्यत्वादिषद् ज्ञानादिमोहनीय और नौवेद की उत्कृष्टस्थिति होती है, अतः परमप्रकपत्यरूप हेतु मोहनीय की उत्कृष्टस्थिति और स्त्री वेद की उत्कृष्टस्थितिरूप परम प्रकर्य में, स्त्रीत्तिधाभाव का व्यभिचारी है । यदि कहै कि उक्त अनुमान में सप्तमनरक पृथ्वी में गमन के प्रयोजक अपुण्य के सजातीय परमप्रकर्मत्व को ही हेतु किया जाय तो, स्त्रीवेद के परमप्रकर्ष में स्त्रीवृत्तियाभावरूप साध्य के समान उक्त हेतु का भी अभाव होने से व्यभिचार नहीं होगा' -तो यह तो ठीक है किन्तु इस रूप में प्रयुक्त हेतु पक्ष में असिद्ध है। यतज्ञानप्रकर्षरूप पक्ष उक्त अपुण्य प्रकर्ष का सजातीय न होने से उसमें यह हेतु अविद्यमान है । और यदि आन्मपरिणामस्व रूप से उक्त अपुण्य के सजातीय परमप्रकर्षत्व को हेतु किया जायगा तो पक्षासिन्द्रि दोष का परिहार हो जाने पर भी पहले कहे गये व्यभिचार दोष ज्यों का न्यों बना रहेगा। वह इस प्रकार-स्त्रीवेद का परमप्रकर्ष भी आत्मपरिणामस्वरूप से उक्त अपुण्यप्रकर्ष का सजातीय ही है। अतः उसमें यह हेतु विद्यमान है तथा श्रीवृतित्याभावरूप साध्य अविद्यमान है। यदि यह अनुमान किया जाय कि चारित्रप्रकर्ष गुण प्रकर्षरूप होने से श्रुतज्ञान के परमप्रक के समान स्त्री में अत्ति है तो यह भी ठीक नहीं है । क्योंकि इस अनुमान में प्रयुक्त गुणप्रकत्वरूप हनु सम्यकदर्शन प्रकर्ष में स्त्रीवृत्तित्वाभाव का व्यभिचारी है । तथा ज्ञान प्रकर्ष के बिना भी चारित्र का प्रकर्ष मातुष मुगि आदि में सिद्ध है, अत: ज्ञान-प्रकर्ष में स्त्रीवृत्सित्य का अभाव चारियप्रकर्य में स्त्रीवृत्तित्वाभाव का अप्रयोजक है। अत एव स्त्रीमोक्ष के विरोध में उन्न प्रकार के अनुमान आदि के प्रयोग का प्रयास भी नहीं के बराबर है। [क्लिबभिन्नत्वरूप स्वरूपयोग्यता का समर्थन ] इस सन्दर्भ में स्त्री-मोक्ष के विरोधियों का यह कहना कि-'मोक्ष के प्रति क्लिबभिन्नत्य की अपेक्षा पुरुष रूप से स्वरूपयोग्यता मानने में लाघव है, अत: पुरुषत्व को ही स्थ रूपयोग्यता मानना है और यह पुंस्त्वहीन होने से स्त्री में नहीं है, अतः स्त्री को म मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जिस में जिस कार्य की स्वरूपयोग्यता होती है उसी में बह कार्य असान होता है'-परन्तु यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि पुंस्त्व की अपेक्षा भव्यस्व रूप से ही मोक्ष के प्रति स्वरूपयोग्यता उचित है, पुंस्त्व तो मभध्य पुरुष में भी रहता है और उसका मोक्ष नहीं होता, अतः पुंसस्वरूप से मोक्ष की स्वरूपयोग्यता स्वीकार नहीं हो सकती Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] संपादकतया परम्परया मोक्षाङ्गता करप्यते, तदा स्त्रीत्वेनापि पृथगेषा कल्पनीया, गुरुणाप्यक्तीबरवेन वा; लायवमात्रेणागमस्यापवदितुमशक्यत्वात् , परस्यापि स्त्री-क्लीबमोहम्योः कारणविघटक त्वबल एने गौरवसाम्याच्च । न च पुरुषानभिवन्धत्वात् स्त्रीणां न मुक्ति रित्यभिधानीयम् : असिन्द:, भगबज्जनन्यादीन जगद्वन्धविश्रवणात् , आचार्यानभिवन्द्यत्वेन शिष्ये, साधुमात्राशिव द्यत्वेन शो चा व्यभिचारात् , पुरुपानाभवन्द्यत्वस्य मुक्तिवाप्यविन्धवत्वेनाऽप्रयोजकत्वाच । यदि च तदनभिवन्द्यत्वेन तदपेक्षयानुतमगुणत्वाद् न स्त्रीणां मुक्तिरिती यते, तदा तीर्थकृद गुणापेक्षया गणरादेरप्यनुमत्याद् मुक्तिप्रातिर्न भवेत् | अथाऽशेषकर्मक्षयनिबन्धनस्थाध्यवसायस्य गणधरादिपु तीर्थकृदपेक्षया तुरुवत्यादयमदोपः, तदा समानमेतदार्यकास्वपि । यदि च तीर्थस्य भगवदर्भिवन्धत्वात् प्रथमगणधरस्थापि तीर्थशन्दाभिधेयत्वेन भव्यत्वरूप से स्वरूप योग्यता में कोई भापत्ति नहीं है। क्योंकि कभी यदि किसी भत्र्य को मोक्ष की प्राप्ति में बिटम्य होता हैं तो यह उसकी अयोग्यता के कारण नहीं होता, अपितु मोक्ष के इतर कारण के समयधान में दिलम्ब होने के नाते होता है। यदि स्त्री-मोक्ष के विरोधी वर्ग, इस सन्दर्भ में यह कह दि. मनुष्य के समान पुंस्त्व भी शानादि का प्रयोजक होने से परम्पस्या मोक्ष का प्रयोजक है अतः जैसे मोक्ष के उपायभूत शान की प्राप्ति के लिए मनुष्य होना आवश्यक है उसी प्रकार पुरुष होना भी आवश्यक है अत: स्त्री का मोक्ष नहीं हो सकता |' -तो इसके विरोध में बीमोक्षवादी यह कहेगा कि जैसे पुंस्त्वज्ञानप्राप्ति का प्रयोगक है उमी प्रकार स्वतन्त्ररूप से स्त्रीत्र भी शानप्राप्ति का प्रयोजक है । अथवा पुंस्त्र और स्वीत्व को प्रयोजक न मान कर गुरुभून भी किटवभिन्नन्ध को दी ज्ञान प्राप्ति का प्रयाजक मानना उचित है । कबल पुस्त्य को ज्ञानप्राप्ति का प्रयोजक मानने में लाघव होने के आधार पर स्त्रीमोक्ष के प्रतिपादक आगम को याधित करना अशक्य है । इस प्रसङ्ग में फिलवभिन्नत्य को शानप्रापित अथवा मोक्षप्राप्ति के प्रति प्रयोजक मानन में श्रीमोक्ष विरोधियों की ओर से गौरव बताया जाता है, उसका भी कोई औचित्य नहीं है क्योंकि शीमोक्ष विरोधियों को भी स्त्री और फ्लिब में मोक्षप्राप्ति के विघटन के प्रयोजक की कल्पना करने में गौरव अपरिहार्य है, क्योंकि नीत्व-बिलबत्व अन्यतररूप से मोशकारणविघटकत्व मानना पडेगा। [ पुरुप से अनभिवन्धत्व का निरसन ] इस सन्दर्भ में यह भी कहना कि-बियां पुरुषों की अभिवन्दनीय नहीं होती, अतः उनका मोक्ष नहीं होता'- ठीक नहीं है । क्योंकि त्रियों का पुरुषों से अभिवादनीय में होना असिद्ध है । यतः ऐसा सुना जाता है कि भगवान अर्हन् की माता आदि समृच जगत के लिये वन्दनीय है । आचार्यद्वाग अभियन्दनीग न होने, किंवा साधु मात्र द्वारा अभियन्दनीय न होने मात्र से भी स्त्री के मोनाभाय का साधन नहीं हो सकता क्योंकि पहाया हेनु शिष्य में और दूसरा हेतु साधुभात्र की शिक्षा ग्रहण करने वाले नूतन दीक्षितव्यक्ति में मोक्ष का ध्याभचारी है, क्योंकि वे दोनों भी जान चारित्र आदि का प्रकप प्राप्त होने पर मोक्ष भ करते हैं किंतु आचार्यादि के लिये वन्ध नहीं होते । मुख्य बात तो यह है कि पुरुप द्वारा अभिवन्द Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ] शानया स्त: ११/५४ तथात्वाद् न दोषः, तदा चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघस्यापि तीर्थशब्दाभिधेयत्वादायकाणामपि तत्रान्तर्भावात् तुत्यमेतत् । यत्तु 'धर्मे पुरुषोत्तमत्त्वविपर्ययशङ्कया स्त्रीणां चारित्रग्रहणं न युक्तम् ' इति; तदसभ्यअलपितम् ; आज्ञाशुद्धभावेन यथाशक्ति प्रवर्तमानामामार्यकाणामीदृशशङ्कानुदयात् , तस्याः पापजन्यत्वात् । अत एवं 'भगवतामनलकृतविभूपितत्वादिविपर्ययधीप्रसङ्गादाभरणादिभिर्विभूषा न विधेया' इति हतं नीय न होना मोक्षप्राप्ति का प्रतिवन्धक नहीं है अतः वह मोक्षाभात्र की सिद्धि में अप्रयोजक है । और यदि स्त्रीमोक्षविरोधियों की ओर से यह कहा जाय कि-'खियां पुरुषों द्वारा अभिवन्दनीय न होने से उनकी अपेक्षा अल्पगुणा होती हैं. अत: उनका मोक्ष नहीं हो सकता'-तो यह भी उचित नहीं हैं क्योंकि किमी एक मोक्षाधिकारी की अरेक्षा अन्य छयक्ति में अल्पगुणन्व को यदि मोक्ष में बाधक माना जायगा तो तीर्थयों की अपेक्षा गणधर आदि अल्पगुणवाले होने से उनकी भी मोक्षप्राप्ति बाधित हो जायगी। [चतुर्विधसंघस्वरूप तीर्थ में स्वीप्रवेश] यदि यह कहा जाय कि-'गणधरों के अशेष कर्मक्षय का कारणभृत अध्यवसाय तीर्थकरों के अध्यवसाय के समान है अत: अध्यवसाय की दृष्टि से गणधरों में तीर्थरों की अपेक्षा अल्प. गुणत्व न होने से उक्त दोर नहीं होगा' -तो यह बात तो मोक्षमार्ग पर आरूढ स्त्रियों के सम्बन्ध में भी समान है। अत: उनमें भी उक्तरीति से मोक्षामाव का साधन अशक्य है। यदि सीमोनलिगधियों की ओर में यह कहा जाय कि-'तीर्थ भगवान का बन्ध है, प्रथम गणधर भी तीर्थशब्द से अभिहित होने से नीश रुप सोने के कारण भगवान के द्वारा बन्ध होने से अपेक्षा की दृष्टि से अल्पगुण नहीं है। अतः उनके मोक्ष में बाधा नहीं है तो मोक्षमार्गस्थ स्त्रियों के भी सम्बन्ध में उसी प्रकार यह कहा जा सकता है कि चतुर्यात्मक श्रमण संघ को भी तीर्थ कहा जाता है। अत: उसके अन्तर्गत आने से मोक्षमार्गस्थ स्त्रीयां भी तीर्थरूप होने से पुरुष की अपेक्षा अल्पगुण नहीं कही जा सकती, अतः उनके भी मोक्ष में कोई बाधा नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-'स्त्रियां यदि चारित्र ग्रहण करेगी तो उनमें शङ्का होगी कि धर्म में पुरुषवग ही उत्तम नहीं है। अत: स्त्रीयों का चारित्र ग्रहण अनुचित है और चारित्र ग्रहण के अभाव में उन्ई मोक्ष की प्राप्ति सुतराम् दुर्वट है।' -तो यह कथन असभ्यों के प्रलाप जैसा है, क्योंकि आशाशुभ भावानुसार अपनी शक्ति की सीमा में चारित्र पालन में प्रवृत्त आर्य स्त्रियों में इस प्रकार की शङ्का करना नितान्त असतत हैं, क्योंकि यह शङ्का पापजन्य है । [भगवान् की वस्त्राभूषण से पूजा न्याययुक्त ] रोमोक्षविरोधियों का एक यह भी मत है कि - भगवान को वस्त्र-भूषण आदि से मलंकृत नहीं करना चाहिए क्यों कि इस प्रकार अलंकार करने से यह शक हो सकती है कि-अलंकार के अभाव में भगवान स्वत: विभूषित नहीं होते । -किन्तु यह मत भी इस लिए निरस्त हो जाता है कि जो व्यक्ति भगवान को वस्त्र-भूषण आदि से अलंकृत करते हैं उनका यह कार्य शुभभाव मूलक एवं शुभभाष का वर्धक है। और इसी लिये कर्मक्षय का अवन्ध्य कारण है। और यह भी स्पष्ट है कि उक्त शङ्का का उदय मलिन फर्म वाले को ही होता है। इसलिए भगवान को अलंकृत करने वाले व्यक्तियों में मलिन कर्म का अभाव होने से उन्हें भगवान के विषय में उक्त प्रकार की ऐसी शङ्का होना नितान्त असङ्गत है। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] परेषां मतम्, तत्करणस्य शुभभावनिमित्ततया कर्मक्षयाऽवन्ध्यकारणत्वात, विपर्ययशङ्कायाश्च विना कल्मषमनुदयात् । यदि च येयावस्थायां भगक्ता भूषणादेस्नङ्गीकृतत्वाद् न तत्पतिकृतौ तद् विधेयम्, तदा समजनाङ्गराग-पुष्पादिधारणस्यापि तदवस्थायां भगवताऽनाश्रितत्वाद् न तत् तत्र वित्रेयं स्यात् । अय मेहमस्तकादिपु तदभिषेकादाविन्द्रादिमिस्तस्य विहितत्वादस्मदादिमिरपि कृतानुकरणादिमिर्हेतुभिस्तत् तत्र विधीवते, तर्हि तत एवाभरणादिबिभुषादिकमपि विधेयम् , कृतानुकरणादेः समानत्वात् । न ह्येतदत्र स्पर्धासाधनम् , किन्तु प्रवृत्तौ निर्मलत्वशक्कानिरासेन भावाभिवृद्धिनिबन्धनमिति दिक् । अथाऽकल्याणभाजनबाद् न मुक्तियोग्याः स्त्रिय इति चेत ! न, तीर्थकरजननात् : न ह्यतः परं कल्याणमस्ति लोके । अथ हीनबलत्वादेव स्त्रीणां न मुक्तिरिति चेत् ? न, रलायसाम्राज्ये हीनबलवत्त्वस्याऽप्रयोजकत्वात् ; अन्यथा स्त्रीभ्योऽपि हीनयलाः पञ्वादयः पृरुपा रत्नत्रयसाम्राज्येऽपि न मुच्येरन् । 'हीनचलानां विशिष्टचारूपं चारित्रमेव न स्यादिति चेत् ? न, यथाशक्तयाचरणरूपस्य [इन्द्रादिकृत भक्ति अनुकरणीय] यदि यह कहा जाय कि 'ध्येय अथवा केवलशानरूप परमात्मस्वरूप अवस्था में भगवान ने भूषण आदि को अङ्गीकार नहीं किया है अत: उनकी प्रतिमा को भी भूषण आदि से अलंकृत नहीं करना चाहिप' तो पेसा मानने पर यह बात भी प्राप्त होगी कि भगवान ने ध्येयावस्था में मजम, अङ्गराग और पुष्प आदि भी अङ्गीकार नहीं किया है अत: उनकी प्रतिमा में मजन आदि भी करना अनुचित है । यदि यह कहा जाय कि-' मेरुमस्तक आदि पर इन्द्रादि ने मजन अङ्गराग पुष्पमाला आदि से भगवान का पूजन किया है अतएव उनके अनुकरण में भगवान के अन्य भक्तों को भी उन साधनों से भगवान की प्रतिमा का अर्चन करना सुसङ्गत हैं'-तो उसी प्रकार यह भी कहना अतीय समीचीन है कि यत्तः इन्द्रादि ने वस्त्रभूषण आदि से मेरुमस्तक आदि पर भगवान का अर्चन किया है. अतः अन्य भगवद-भक्तों का भी वस्त्रभूषण आदि से भगवान की प्रतिमा का पूजन करना सर्वथा उचित है । भगवदभक्तों द्वारा इन्द्रादि के अनुकरण करने की जो बात कही गयी है वह इन्द्र आदि के साथ स्पर्धा की वृद्धि के लिए नहीं, अपितु उक्त प्रवृत्ति में निर्मूलत्व की शङ्का का निराकरण कर भाव की अभिवृद्धि के लिए कही गयी है। [स्त्रीकल्याण का भाजन इस सन्दर्भ में स्त्रीमाक्षविरोधियों का यह कहना कि स्त्रियां कल्याण (उत्तम कार्यफर्तता) का पात्र नहीं है, अत: मुक्ति के अयोग्य हैं। ठीक नहीं है, क्योंकि नियां तीर्थकर को जन्म देती हैं, फिर इससे उत्कृष्ट संसार में दूसरा कौन सा कार्य है जिससे उन्हें कल्याण का अपात्र कहना सम्भव हो सके? यह भी कहना कि-'त्रियां निर्यल होने के कारण मोक्ष प्राप्ति के अयोग्य हैं' -ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञान, दर्शन, चारित्र हन तीनों रत्नों की पूर्ण समृद्धि रहन पर निर्बलत्व मोक्ष का प्रतिरोध करने में अप्रयोजक है। उक्त रत्नत्रय का प्रकर्ष होने पर भी निर्बल होने के कारण मोक्ष का अभाव हो तो पङ्गु, अन्ध आदि पुरुष भी निर्बल होने से उक्त रत्नत्रय की प्रथुरता होने पर भी मुक्त न हो सकेंगे। यह भी कहना कि- 'निर्बलों में Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवार्ताः स्त० ११/५४ सत्त्वसाध्यम्य तस्य तासामप्यविरोधात् । न हि दुर्धरब्रह्मचर्यधारिणीनामसदभियोगादौ तृणवत्प्राणपरित्यागं कुर्वाणानां सत्त्वं तास नातिरिच्यत इति वक्तुं शक्यम् । न चानुपस्थाप्यतापाराञ्चितकानुपदेशेन तासु सत्त्वहीनता सिध्यति, सत्यापेक्षयैव शाने विशुद्धचनुपदेशात् , योग्यतापेक्षत्रैव तत्र तचिन्योपदेशात् । उक्तं च.... "संवर-निर्जररूपो बहुपकारस्तपोयिधिः शास्त्रे । योगचिकित्साविधिरिय कस्यापि कथञ्चिदुपकारी ॥१॥" तदेव संपूर्णयोग्यतामभिप्रेत्योक्तं यापनीयतन्त्रे-"नो ग्वलु इत्या अर्जवे, ण यावि अभव्या, न यावि दंसणविरोहिणी, नो अमागुस्सा, नो अणारिउत्पत्ती, नो असेखाउआ, नो अइकुरमई, नो न उवसंतमोहा, नो न सुद्धाचारा, नी असुद्धचोंदी, नो ववसायवजिआ, नो अपृच्चकरणविरोहिणी, नो नबगुणठाणरहिआ, नो अजोगा लीए, नो अकल्लाणभायणं ति कह न उत्तमधम्मसाहगा!" इति । एवं व्यवस्थितेऽनुमानमध्याहुः नुरालीजातिसंवन्यपहिला यनिमती, प्रनयाधिकारिजातित्वात् , पुरुषजातिवत् । न च तास प्रत्रज्याधिकारस्य पारम्पर्येणैव मोक्षहेतुतया निर्वाहादप्रयोजकत्वम् ; न चैवमरूपायाससाध्ये तद्धेतुदेशविरल्यादाधेव प्रवृत्तिः स्यात्, न तु मलायाससाध्यसर्वविरताविति वाच्यम् । देशविस्यादिभूयोभवटितपारम्पर्यण मोक्षहेतु स्वेऽपि चारित्रस्यैवाल्पभवघटितपारम्पर्यण विशिघ्र चर्या रूप धारित्र सम्भव नहीं है'. -ठीक नहीं है, क्योंकि यथाशक्ति आचरणरूप चारित्र जो सत्त्य-शुद्धभाव से साध्य है वह हीन बला खियों में भी सम्भव है । 'त्रियों में उत्कृष्ट सत्त्व हो ही नहीं सकता' यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि वे दुर्धर ब्रह्मचर्य धारण करती हैं और असत् कर्म के सम्मुख यह तृण के समान अपने प्राण तक का परित्याग कर देती हैं. फिर उनमें सत्य का उत्कर्ष न होने का प्रश्न ही कैसे उठ सकता है ? यदि यह कहा जाय कि शास्त्र में उन अनपस्थाप्यता, पाराश्विक दो प्रायश्चित का विधान नहीं है इसलिए ये सत्यहीन होती है। -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि शास्त्र में मत्स्य की अपेक्षा ही विशुद्धि (प्रायश्चित: का विधान नहीं है किंतु योग्यता की अपेक्षा ही विविध प्रायश्चितों का उपदेश हैं। कहा भी गया है कि शास्त्र में सम्बर-निर्जगरूप अनेक प्रकार के तपों का विधान किया गया है, उनमें कोई तप किमी के लिए और कोई तप किसी के लिए कथञ्चिन उपकारक होता है, सब सबक लिप. सर्वदा उपकारक नहीं होता। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे अनेक प्रकार के योग और चिकित्सा के विधानों में कोई-कोई योग और चिकित्सा किसी-किसी के लिए उपकारक होती है. मब सबके लिए नहीं । ___ यापनीय तन्त्र में, घी में सम्पूर्ण योग्यता की सम्भावना के अभिप्राय से कहा गया है कि “ स्त्री अजीब नहीं है, अभव्य भी नहीं हैं, सम्यगदर्शन की विधिनी भी नहीं है, वह अमानुषी भी नहीं है, यह सय अनार्य से उत्पन्न भी नहीं है, सभी स्त्री की आयु भी असंख्य वर्ष नहीं है,उमकी बुद्धि भी अतिकूर नहीं है, वह ऐसी भी नहीं है जिस का मोह उपशम-अयोग्य अनुपशाम्त हो, [शुद्ध आचारबाली नहीं है पता भी नहीं,] वह शरीर से अशुद्ध भी नहीं है, जिस में शुम चारित्र न हो, उसके लिए व्यवसाय उद्यम का निषेध भी नहीं हैं, अपूर्वकरण की वह विरोधिनी भी नहीं है, वह (६ से १४) नवगुण स्थानों से शून्य भी नहीं है, वह लधि के अयोग्य भी नहीं है और वह कल्याण का अभाजन भी नहीं है. तो फिर वह उत्तम धर्म की साधिका क्यों नहीं हो सकती?" Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुया. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ ३२७ मोक्षहेतुत्वात् तादृशपारम्पर्येण मोक्षार्थितया तत्र प्रयुकत्वात् कथमन्यथा दुःषमाकालवर्तिनो मुमुक्षवस्तत्र प्रवर्तिध्यन्ते इति वाच्यम्, तास चारित्रस्य पारम्पर्येणैव मोक्षहेतुत्वाऽश्रवणात्, साक्षात्कारणस्य चारित्रस्याऽसति प्रतिबन्धके तद्भव एव मुक्तियापकत्वोपपत्तेः स्त्रीत्वस्य प्रतिबन्धकत्वे मानाभावात्, अन्यथा तत्र साक्षाच्चारित्रार्थितयैव प्रवृत्त्यापत्तेरिति । एवं 'मनुष्यस्त्री काचिद् निर्वाति, अविकलतत्कारणत्वात् पुरुषवत्' इत्यप्याद्दुः । तदेव स्त्रीमुक्तिसिद्धेः सिद्धाः पञ्चदश सिद्धमेदाः इति सिद्धमदः प्रासन्निकमिति सर्वमवदाततरम् ||५४॥ 7 [ स्त्री-मुक्ति साधक अनुमानप्रयोग ] उक्त प्रकार से विरोधी पक्ष के निराकरण एवं अनुकूल आगम से स्त्रों की मोक्षयोग्यता सिद्ध हो जाने पर अनुमान से भी उसकी सिद्धि सम्पादित की जा सकती है। अनुमान का प्रयोग इस प्रकार हो सकता है - मनुष्य स्वीजाति मुक्ति से उपहित व्यक्ति से युक्त है ( मुक्ति मापक देह पर्याय से युक्त है क्योंकि वह प्रत्रज्या ( सन्यास ) की अधिकारीजाति है जैसे पुरुषजाति 4 इस प्रसङ्ग में स्त्री मोक्ष विरोधियों का यह कहना कि बी को शो संन्यास में अधिकार प्राप्त हैं वह परस्परया - ( जन्मान्तर में पुरुष शरीर पर्याय की प्राप्ति द्वारा ) मांझ का साधक है | अतः प्रब्रज्याधिकारजातित्व से मनुष्य- स्त्री जाति में मोक्षप्रापक देह से युक्तता' के साधन में उक्त हेतु अयोजक है । इस कथन पर स्वीमोक्षवादी यदि ऐसा कहें कि 'यदि स्त्री जाति का संन्यास परम्परया मोक्षोपयोगी है तो अल्प प्रयत्न से साध्य ( आराध्य ), मोक्षहेतुभूत देशविरति आदि में ही स्त्री की प्रवृत्ति होनी चाहिए, न कि बहुप्रयत्न से साध्य सर्व विरति में प्रवृत्ति होनी चाहिए।' तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि देशविरति आदि की परम्परा अनेक जन्मों से वटित है, उस परम्परा के मोक्ष का हेतु होने पर भी चारित्र ही अल्पजन्मों से घटित परम्परा से मोक्ष का हेतु है । इसलिए चारित्र की अल्प जन्म घटित परम्परा से मोक्ष के लिए सर्व संन्यास में स्त्री की प्रवृत्ति होना समीचीन है। यदि ऐसा न माना जायगा तो दुःखमाकाल में रहने वाले मोक्षार्थी उसमें कैसे प्रवृत्त होगे ? - किन्तु स्त्रियों के संन्यास ग्रहण को परम्परया मोक्ष का प्रयोजक मान कर उससे स्त्री पर्याय में मोक्षयुक्तता की सिद्धि में अप्रयोजक कहना यह दिगम्बर मत ठीक नहीं हैं। क्योंकि 'उनका चारित्र परम्परा से मोक्ष का साधक है' यह बात शास्त्र में श्रुत नहीं हैं, अपितु चारित्र मोक्ष का साक्षात्कारण है अतब्ध प्रतिबन्धक न होने पर स्त्री का चारित्र स्त्री शरीर के पर्याय में ही मोक्ष का साधक हो सकता है। यदि कहा जाय कि 'स्त्रीत्व ही मोक्ष की प्राप्ति में प्रतिबन्धक है' तो इसमें कोई प्रमाण नहीं है। यदि स्त्रीत्व मोक्ष का प्रतिबन्धक होगा तो संन्यास में मोक्ष के लिए स्त्री की प्रवृत्ति न होकर चारित्र के लिए ही होने की आपत्ति होगी जो इष्ट नहीं हैं, क्योंकि स्त्री मोक्ष के उद्देश्य से ही संन्यास में प्रवृत्त होती है । स्त्री मोक्ष के साधन में इस प्रकार के भी अनुमान का प्रयोग हो सकता है कि कोई कोई मनुष्य स्त्री मोक्ष प्राप्त कर सकती है, क्योंकि वह मोक्ष के समग्र कारणों से युक्त होती है । यह ठीक उसी प्रकार जैसे मोक्ष के समग्रकारणों से सम्पन्न पुरुष मोक्ष प्राप्त करता है । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ] शास्त्रवा० स्त० ११/५३.५८ एता वार्ता उपश्रुत्य भावयन् बुद्धिमान्नरः। इहोपन्यम्तशास्त्राणां भावार्थमधिगच्छति ॥५५॥ शतानि सप्त इलोकानामनुष्टुप्छन्दसां कृतः । आचार्यहरिभद्रेण शास्त्रवार्तासमुच्चयः ॥५६|| कृत्वाप्रकरणमेतद् यदवाप्तं किश्चिदिह मया कुशलम् । भवविरबीजमन लभतां भव्यो जनस्तेन ॥५७|| यं बुद्धं बोधयन्तः शिखि-जल-मरुतस्तुष्टुवुलोकवृत्त्य ज्ञानं यत्रोदपादि प्रतिहत्तभुवनालोकवन्ध्यत्वहेतु । सर्वप्राणिस्वभाषापरिणतिसुभगं कौशलं यस्य वाचा तस्मिन् देवाधिदेवे भगवति भवता धीयतां भक्तिरागः ॥५८॥ समाप्तः शास्त्रवार्तासमुच्चयग्रन्थः इस प्रकार उक्त रीमि सेमी का मोक्ष सिद्ध हो जाने पर सिद्धों के पन्द्रह भेद की सिद्धि निर्वाधरूप से सम्पन्न होती है । यह पर्चा प्रासङ्गिकार से की गयी है । जो कुछ विचार इस सम्बन्ध में प्रस्तुत लुभा है. यह सर्वथा समुज्वल है। मूल अन्ध के रचयिता श्री हरिभद्रसरिजी ने ग्रन्थ के अन्त में चार श्लोकों से ग्रन्थ का उपमहार प्रस्तुत किया है। उनमें उनका कहना है कि इस ग्रन्थ में शास्त्रों के सम्बन्ध में जो बातें कही गयी है, बुद्धिमान मनुष्य उनको भावना द्वारा इस अन्य के उपन्यम्त सभी शाम्रों के भावार्थ को अवगत कर सकता है। यह भी उन्होंने कहा है कि अनुष्टुप छन्द के ७०० (सातसो। इलोकों में उन्होंने इस शाम्बवार्ता सम्मय' ग्रन्धकी रचना की है। ग्रन्थकार ने यह भी अपनी उत्कृष्टतम भावना प्रकट की है कि इस प्रकरण अन्य की रचना से जो कुछ पुष्य उन्हें प्राप्त हुआ है उससे भव्य मनुष्यों को पेसा बोध प्राप्त हो जो उनकी संसानिवृत्ति का निदोष बीज बन सके ।।। ५-६-१७ || अन्तिम श्लोक में उन्होंने भव्यमनुष्यों से यह मार्मिक निवेदन किया है कि जिस बुद्धज्ञानमूर्ति महापुरुष को सम्बोधित करते हुए अग्नि जल और वायु ने ग्दोकहित के लिए उसकी स्तुति की है, और जिस पुरुर में भुवनालोक को निरर्थक बनाने वाले कारण का प्रतिघाती ज्ञान प्रादुर्भत हुआ है और जिस की वाणी का कौशल अपनी अपनी भाषा की परिणति में सभी प्राणियों को सुन्दर सहायक है, उस देवाधिदेव भगवान में भक्तिगग धारण करना भव्य मानय का परमकर्तव्य है ।। ५८ ॥ इति । _ [इन चार श्लोकों के उपर कोई भी प्रति में स्था० का व्याख्या उपलब्ध नहीं है और व्याख्याकारकृत प्रशस्ति भी अनुपलब्ध है।] ।। ग्यारहवा स्तबक सम्पूर्ण ।। ।। शास्त्रवार्तासमुच्चय ग्रन्थ सम्पूर्ण ॥ ॥ हिन्दी विवेचन सम्पूर्ण ॥ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : १ शास्त्रवासमुच्चय स्वचक- ९-१०-११ गतमूलश्लोकानामकारादिक्रमः म्तयकांकः श्लोकाङ्क्षः १९४३ १११५ १०/४० १०/६२ १०११० २०१४८ १०/१२ १०/५० लोकांश अंत पाय अतीताजासयोषपि अतीन्द्रियार्थदृष्टा सु अतीन्द्रियार्थसंवादी मतोऽपि शुक्लं यद्वृत्तं अत्रापि प्राश इत्यन्ये अत्रापि ते केचिद अत्रापि भुवते वृद्धाः अत्रापि वर्णयन्त्यन्ये अत्राप्यभिदधत्यन्यै अधिकार्यपि चास्येह अनन्तधर्मकं वस्तु अनभ्युपगमान्नेह अनादिभव्यभावस्य अन्यथा दाहसम्बन्धाद अन्यदेवेद्रियग्राम अन्यदोषो यदन्यस्य अन्ये पुनर्भवत्येयं अन्येत्वभिदधत्येवं अन्येत्यभिदधत्येवं अपोहस्यापि वाच्यत्य अपौरुषेयताप्यस्य अभ्रान्तजातिषाने तु अमूर्त्ताः सर्वभावमा: भयत्र न चेत्यभ्य अर्थानिधिभावेन ४२ ९ १४ १०।१ १०/६३ २२।२२ ११।१५ ९२६ ११/२४ ११/२३ ११११८ ९/१ ११/१ १९१९ ११/२६ ६०/४१ ११८ ११।५४ १०/४९ ११/३ श्लोकांशः श्रसाध्यारम्भिणस्तेन आगमादपि तत्सिद्धि आत्मा नामी पृथक् कर्म भाइ बालोकदे इन्द्रियातोऽन्योऽपि इष्टापूर्त्तादिभेदोऽस्मात् उपादेयविशेषस्य ऋत्विग्भिर्मन्संस्कारे एवं च वस्तुनस्तत्वं एवं तथापि तद्भावे पण स्थाणुर मार्ग कर्मादि परिणत्यादि केवलशानभावे च क्रियातिशययोगे च किपाहीनाश्र यल्लोके कियैव फलदा पुंसां क्रियोपताच तथोगाइ क्षणिकाः सर्वसंस्काराः चारित्रपरिणामस्य चिन्तामणिस्वरूपशो जन्ममृत्युजराव्याधि स्तबकांकः श्लोकाङ्कः १११४२. १०/१५ ६०/६१ १०/६ ९१।२५ ६०/७ ९/१६ २०१८ जन्माभावे जरामृत्यो ज्ञानयोगस्तपः शुद्धमित्यादि ज्ञानयोगस्य योगीन्द्रैः ज्ञानयोगादी मुक्ति ज्ञानवन्तश्च द्वीर्यात् ११।२८ १०/६६ १०/३४ ९/२ १२३४ ११।३८ ११/३६ ११/३५ ११/३७ १६३२७ ९/२५ ११४४४ ९.११ १२१५१ १९।२२ ९.५३ ९।२७ ११.३३ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ] "लोकांशः ज्ञानहीनाथ यलोके ज्ञानादेव नियोगेन ज्ञायते तद्विशेषस्तु ज्ञानं हि फलदं पुंसां ततश्च दुष्करं तन्न ततः स सर्वविभूत्या निवृत्तौ न चोपायो तस्यैव चित्ररूपत्यात् तद्दर्शनमवाप्नोति तर चिन्तयत्येवं नीतिप्रतिपत्यादे तस्माद्व्याख्यानमस्येदं तस्मान्न चाऽविशेषेण तेनाग्निहोध जुहुयात. दग्धे बीजे यथात्यन्तं दर्शन मुक्तिबीजं च दुष्करं क्षुद्रसस्थानाम् दृश्यमानेऽपि चाशंका दोषाणां ह्रासष्ट्येह धर्मranteedera धर्मादयोऽपि चाध्यक्षा धर्माधर्मव्यवस्था तु न चागमेन यदसौ नवाप्यतीन्द्रियार्थत्वात् न चाप्यपौरुषेयोऽसौ न चावस्थानिवृत्येश न चासौ तत्स्वरूप शो न चास्यादर्शनेऽप्यथ न तावत्यं दयाभाव न लौकिकपदार्थेन स्तत्रक्रांकः श्लोकाङ्कः २६/३२ १२।३० ११।१९ ११।३१ ९।१७ ९।२१ રારક ९३ ९/७ ९।१० १०/५१ १०/३३ १०/२९ १०।२६ २११५० ९/६ २११५ १०/३७ १०१५२ ९/२४ १०/१४ २०१५ १०/३ १०२४६ १०/३५ ९८२६ १९/४५ १०१५४ ११/२ १०१२२ शाश्रयात० परिशिष्ट : १ तवांकः श्रीकाङ्कः १२/२७ 7 १२/१४ 1)રૂર २०१४२ २०१४ श्लोकांशः न विविक्तं द्वयं सम्यग् न क्रुद्धसम्प्रदायेन वक्तवत्स्तो नान्यप्रमाणसंवादात् नाऽभ्यास० पत्रमादीनां नाथपस्यापि सर्वो ऽर्थ नित्यत्वाऽपौरुषेयस्वा निष्पन्नत्वादसत्वाच नश्यविकलण्यार्थे परवित्तादिधर्माणां परमार्थकतानत्थे परमार्थकतान परमानन्दभाश्रश्च पापाशी बुद्धि प्रतिभालोचनं ताबद् प्रत्यक्षेण प्रमाणन प्रदीपादिवदित् प्रमाणपञ्चकावृत्ति वर्तमान एवं प्रामाण्यं रूपविषये फलं ज्ञानक्रियायोगं बठरश्च तपस्वी च बहूनामपि संमोह शुद्धवर्णेऽपि चादोष: शुद्धचैव भवनैर्गुण्यं मन्त्रादीनां च सामर्थ्य मुक्तिश्व केवलज्ञान मृत्यादिवर्जिता नेह यत पकं न सत्यार्थ पतृव्यापारभावेऽपि १०/२३ ११११३ ११।१० રાક ११/४ १६।१७ १९।५२ १०३८ १०१५५ १०/२ १०।२७ १०/१८ ९।२० १०।२१ ११।३९ ११॥४८ १०।३९ ११/२९ २१२११४ ६०४४ ११.४६ ११/२९ १०।६० १०/३६ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१७ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन] [ ३३१. लोकांशः स्तत्रकांक/लोकाङ्कः । "लोकांक: स्तरकांकः श्लोकाः बाध्यतरादिको भेदी १२॥१६ सम्यक्प्रवृत्तिः साध्यस्य १६॥ वर्गाश्रमध्यवस्थापि सर्वक्षेन अभिव्यक्तान १६५७ बस्तु स्थित्यापि तत्ताम् १०१२८ सर्वत्र रष्टे संवादान १०७ वाच्य इस्थमपोहस्तु १९४६ सर्ववन्द विनिमुक्ताः १६॥५३ वापीकृषतहागानि मर्यवाचकभावत्वात् विपरीतप्रकाशश्च १०॥२८ सार्थ विषयं तश्चत् विशि; वासनाजन्म संसारख्याधिना ग्रस्तः ९।१२ वेदाचर्मादिसंस्थापि १०१९ साधुनवेति संकेतो १०।३० वेदेऽपि पठञ्चते ह्येष १०४५ साध्यमर्थ परिज्ञाय श्याधियस्तो यथारोग्य ९।१८ सिध्येत्प्रमाण यद्येव शब्दातद्वासनाओधो ११।११ सुखाय तु परं मोक्षो २।१२ शास्वादतीन्द्रियगते स्वकृताध्ययनस्यापि १०१४३ स पश्यत्यस्य यदूपं स्वयं रागादिमानार्थ १०१२५ सति चास्मिन् किमन्येन ११७ हृदगताशेषसंशीति १०।१६ सति चास्मिनसौं धन्यः ८ | हदगताशेषसंशीति २०५३ समयापेक्षण चेह ११।२० । हेनुर्भवस्य हिंसादि २४१३ परिशिष्ट : २ स्तबक ९-१०-११ गत उद्धृतपाठानामकारादिक्रमः उद्धृतश्लोकांशः पृष्ठाङ्क: उद्धृतश्लोकांश: अगोतो विनिवृत्तिश्च (त. सं.) २.१ अन्यार्थप्रेरितो बायु (प्रलो. या) १५७ अगोनिवृतिः सामाभ्यं (श्लो. वा.) २४० अन्यस्ताल्पादिमयोग (,) १४७ अणन्तरसिद्धअसंसार (प्रशाएन। ३०७ अपरिगया सुते (वि. मा. ३०६३) ९।२९ अतस्त्वयोगो योगानां (यो. स. ११) ९६१३३ अभध्यस्य भक्ष्या. (आचा. टीका) ९।७४ अतीन्द्रियानसंवेद्यान (वा. प.) ३२१ अभावगम्यरूपे च (श्लो. या.) २४६ अथ तरचनेनैष (श्लोक वा.) अभावावगतेजन्म (,) ९ अवमागहीए भासाए ( ) ११९ अभ्यासः कर्मणां । ) अथान्यथा विशेष्येऽपि (श्लो, वा) २४६ अर्थजात्यभिधानेऽपि (वा. प. ३।३-६) १५८ अनन्यापोहशवादी (,) २६४ अन्तरनिवृत्याद (त. सं.) २४८ अनुमानं विषक्षायाः ( ) २३३ अलोए पडिया सिद्धा ) ३७ अग्धं तमः प्रविशन्ति ( ) ९४२० अवस्तुविषयेऽप्यस्ति (त. स) २६ अन्य केन शब्देन (प्र. वा. ३-५०) २५६ अयाचकाचे शमशानां (उद्योतकर) २२७ अन्याम्यत्वेन ये भाषा (त. सं.) २४८ अम्याप्तेरधिकव्याप्ते (न्या. कु.) १२३ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ J उद्धृतश्लोकांशः पृष्ठाङ्कः असर्वशप्रणीतात्तु (प्रलो. पा.) असाध्यः कस्यचिद योगः ( )९।१९ आउज्जनकुमला ( ) २९३ आया सामाइप ( ) ९।१२२ आसन्नकालमष, (उप. माला २९०) ९७४ आहारोब्ध ॥ गथो (वि. भा. २५७२) २३३५ आता हि विषयक (लौकिका ९७८ इस्थीए लिंग स्थिलिंग (नन्दी .) ३०८ इय नागलिंगसहिओ ( २९३ इहभविप भंते चरिते ) ९।१२२ उपदेशो हि बुद्धादे: (प्रलो. पा.) ६ उवसामगढिगयस्स (वि. आ. ५२९) ९१६९ उसालं ग गिरंभइ (आ. नि.) ९।९४ एकशाबविचारेषु (त सं.) १६ एकादश जिने (त. स.) ३८ एको भावस्तत्वतो ( ) ३८ ओरालियसणेणं (अ. म. प. ११६) २१६ औपशमिकादि. (त. स. १०४) ९।११५ कथयति भगवान् (पुराण) १।२२ कर्नुमिच्छोः श्रुतार्थस्य (यो. स. ३) ९।१३ कर्मणा बध्यते जन्तु ( ) ९।२५ कल्पनीयाश्च सर्यशा (प्रलो, या.) ९८ कामशोकमयोन्माद ( १७ कार्य भृमो हुतभुजः (प्र. वा. ३३५) ८० किन्तु गौघयो हस्ती (लो. वा.) २३९ केवल नाणेणत्थे (आ. नि. ७८) ११७ कोडिसहस्सपृहत्तं ( ) ९१२३ खुहिम्स जहा खण. (सामा) ९८८ गव्यसिद्धे. त्वगीर्नास्ति (श्लो. वा.) -४५ गंधित्ति सुदुर्भमो (वि. आ. ११९२) ९।६९ शावा. परिशिष्ट : २ उद्धृतश्लोकांशः पृष्ठाः गृहीत्वा वस्तु सदभावं लो. वा.) १० मेण्हदि ष ण मुंबवि (प्र. सार १९३२) २०१ ग्रन्थिदेश नु सम्प्राप्ता ( ) २०६९ जह चेलभोगमेत्ता (अ. म. प. २७) ९५७ जं अन्नाणी कम्म खवेद ( ) २२२ जंपि पत्थं च पायं षा ( ) ९.५३ ज पुण तं इववियं अ. म. प. १३४) ९।१२८ जे सेलेसीगयाण ( ) ९।१२३ सम्हा सणनाणा ( ) ३०१ जम्हा विगन्छमाण (वि. आ. ३३२२) २।१२० जइ संजमवि घिरिय ) ३१८ जस्स अणसणमप्पा (प्र. सार ३।२७) ९/३९ जाणतो विय तरिदं ( ) २९३ जिणकम्पिया इत्थी णहबद ( ) ३१८ जिनवचनं जानीते ( ) ३१९ जे पगं जाणइ (भाचा) ३८ जे जत्तिया य हेऊ भवस्स ( ) ९४१ जे संघयणाईआ (सम्मति.) १३१६ जोगाण समाहाणं (आ. नि.) ९९४ जो भणइ णस्थि ( ) ९९९ ज्ञात्वा याकरणं दूरं (त. सं) १६ शानादेव नु वन्य ( ) ९।२५ ज्योतिर्विश्व प्रकृतोऽपि (त. सं) १६ ठाणणिसेज्जबिहारा (प्र. सार ११४५) २०० णरविधुहेमर (श्रा. प्र. ६६) ९।६३ णिच्छयणयस्स चरण. ( ) २९६ गतेण कयत्यो (वि. आ. ११८३) ११८ णो कप्पदि णिगंथस्स ( ) ३१४ तं च कई वेइ, (भा. नि ७४३) ११७ । तशाम्यार्थप्रधानं (श्लो. वा.) Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] . . ... ... ... ... ........... - -------- उद्धृतश्लोकांशः पृप्राङ्कः ततध वासनाभेदाद (त. सं.) २५१ तत्थ ण जे ते असं. प्रिक्ष. १६७२) ९।११४ तथा वेदेतिहासादि (त. मं.) १६ तथाहि पचतीत्युक्ते (त. सं. १९४५) २६० तथैव तत्समीपस्थ: (श्लो. वा.) १४१ तपसा कल्मषं हन्ति ( ) ९२५ तप्पुस्विआ अरहया (आ, नि. ५६७) १११ तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति ( ) ९।२०-२५ तम्हा किमस्थि वत्थु (दि. भा. २५७३) ९।३५ तरति शोकमानमषित् ( ) ९।२५ तस्मात्तद्वयमेष्टट्यं (स. में) २५३ तस्मासस्मान्न संबद्धः ( ) ३१९ तस्मात्सर्धेषु यस्पं (श्लो. वा.) २४० तस्मादुत्पत्यभिव्यक्त्यो (श्लो. वा.) १४७ तस्माद्यस्मयते (श्लो. वा. 3. ३७) ६७ तस्सोदाआइया (वि. आ. ३०८७) ९।११४ ताश्च व्यावृत्तयोऽर्थानां (त. सं) २४३ तासां हि बाबरूपत्वं (त. सं) २४३ तित्थयरा तप्पियरो ( ) ५१८ तिहिं ठाणेहिं वत्थं (स्था. ३।३।१७१) ९४२ तुर्ये तु तद्विषित्तगऽसौ (त. से) २६२ तेनाग्निहोत्र जुहु. (प्र. वा.) १२७ तोतं कत्तो भन्नइ (घि. भा. ११४१) ३०० तो मुभा नाणवुद्धि (आ. नि. ८९) ११९ दळूण पाणिणिवलं (श्रा. प्र. ५८) ९।६४ दर्शनस्य पगरयात् ( ) २३ दश हस्तान्तरं (त. से) १६ द्वितीयापूर्वकरणे (यो. स. १०) ९।१३३ विधायं धर्मसंन्यास (यो. स. ९) ९।१३३ दुःखे विपर्यासमति ( ) ९१२२ दूसइ अव्वाबाह (अ, म. प. ७१) २०४ उद्धृतश्लोकांशः पृष्ठाङ्क हो क्रमो चिसनाशस्थ ( ) ९।१९ न कर्मणा न प्रजया (श्रुति) ९२२५ न च मन्त्रार्थयादानां (ो. वा.) ६ न चागमधिधिः कश्चिद् () न चान्यरूपमन्याटक ) २४६ न चाप्यचादिशब्देभ्यो (,) २४६ न चाप्यस्यानुमानत्वं ,) ९ न चासाधारण वस्तु (श्लो. वा.) २४६ न चैतदेव यत्तस्मात् (यो, स. ८) ९।१३३ न च तस्य धर्मत्वं (श्लो. वा.) ९ नम्मि उ छाउमथिए (आ. नि. ४२१) १११ न तदात्मा परान्मेति (त. सं. १०१३) २३८ न तापदिन्द्रियेणपां (प्रलो पा.) ८ ननु शानफलाः शब्दा (,) २३९ नन्षन्यापोहकृत (,) २३९ नरपसु जाई अइ (उप. मा. २७९-२८७) ९२८२ नरण सविसणिअयं ( ) २९३ नाणं पायासयं सोहगो (वि. आ. १९६९) ३०२ नाणं परंपरमणेतरा (वि. आ. १९३७) ३०१ नातोऽसतोऽपि भाष, (त. सं.) २५० नापोयत्यमभावाना (श्लो. वा.) २४७ नाऽप्रत्ययानुग्रह. (अषधृत) ૬૭ नाऽभावोऽपोद्यते ोषं (त. सं.) २५० नारयतिरियनरा (श्रा. प्र. ५७) ९६४ नासो न पचतीत्युक्ते (त. सं) २६२ निपाताधोपसर्गाश्च ( ) ।१०४ निजितमदभवनानां (प्र. र. १३८५ ९८६ निवृत्ताधिकारायां (गोपेन्द्र) ९७२ निष्पत्तरपराधीनमपि ( ) ३१ नीलोत्पलादिशब्दा (आसार्योक्ति) २४८ नेष्टोऽसाधारणस्ताघद (श्लो. या.) २४० । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ] उद्धृतश्लोकांश: तो कग्गिंधी ( नो खलु इत्थो अजी ( बाप तं ) नैकात्मनां प्रपथन्ते (त. सं . ) पचतीत्य निषिद्धं तु ( श्लो. घा.) पचतीत्युक्तं (तसं.) पृष्ठाङ्कः ३१४ ३२६ २४३ २६१ २६२ ९१६३ ३०० > ८४ पयइए कम्माणं (धा. प्र. ५५) परदव्यस्मि पवित्ती (अ. म. प २२) ९ १२४ परिजवणाई किरिया (वि. आ. ११४०) २९९ पारंपरप्पसिद्धी (आ. नि. १९६६) पिश्रो बरह्मणत्वेन ( पुढं सुणे सर्व ( आ. नि. ५) पुण्णफला अरहंता (प्र. सार १२४५) प्रकृतिसुन्दरं चिन्ता. (ल. वि . ) प्रकृतीशादिजन्यत्वं (त. मं.) प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः (लो. बा.) १७२ २०० १९९२ २५० प्रमाणपञ्चकं यत्र ( ) प्रवृत्तिपरक्रम ( > प्रसज्यप्रतिषेधस्तु (त. सं २०१० ) } ' प्राशोऽपि हि नरः (त सं.) प्रेक्षावता पुनर्ज्ञेया ( बाचे तपः परमदुश्वर ( बुद्धादयो वेदशा (लो. या.) gat saf विवर्तन्ते (त. सं . ) ब्रह्मविदाम्नोति परं ( G २४९ > ९१२५ > भवा वि ते अणता ( ३०९ भावतस्तु न पर्याया (त. मं. २०३२) २४६ भावप्रमेयापेक्षायां ( } भाषान्तरात्मकोsभाषी (श्री. वा.) मतितयोनिबन्ध (त.सू.) मन्नइ तमेष सचं (आ. प्र. ५९ ) मुच्छा परिग्गहो खुत्तो ( वश वै.) ८ ९।७० २३८ દ ६३ १९६२४८ ܐܝ २४० २८२ ९१६४ ९/६१ [शावात परिशिष्ट : २ उद्धृतलह यः कर्मपुद्गलादान ( यो. शा. ४/८०) ९/२२. यत्राप्यतिशयो दृष्टः (श्लो. वा. ) यथैवोपमानोऽयं (..) १५ १४१ ૨૯૬ २३९ ८३ ९८५३ २९/६९ ९।१०२ यदा चाऽशब्दवाच्यत्वादू (, ) यदि गौरित्यर्य शब्दः यद्यस्यैव गुणान ( (,,) यद्वत् तुरग (प्र. र. यमप्रशमजीचा ( > १४१ ) यस्य पुनः केवलिनः ( ये तु मन्वादयः (श्लो. बा.) येsपि सातिशया दृष्टाः (त. सं . ) १५. २५० > १३८ यो नाम न यदात्मा ( तसं.. ) यो ह्यन्यरूपसंवेद्यः ( रुद्रस्तारकं व्याचष्टे (श्रुति) ९।२२ रूपाभावेऽपि चैकत्वं (त. सं. २०३२) २४१ स्थाई तेण जं ञं (वि. आ. २५७४) ९३९ पनं धर्मबीजस्य ( ल. वि.) यादवकुर्वत्यादि ( ९१६२ ३१७ ર } विकल्पयोनयः शब्दाः (वाक्यप. ) विहगमावण्ण (बृ. सं. १८६ ) विद्यां चाविद्यां च ( विसुंण सहक्षिय ( > } वृक्षादीनाहतान् ध्वानः (त. सं . ) पृष्ठाङ्कः संवच्छरमुसभ (उप. मा. ३) संवरनिर्जररूपो ( > वेज्जुषदि मसह (अ. म. प. ३३) १०/६० बोसो ( ९/६९ ) व्यञ्जकानां हि वायूनां (लो. वा.) शास्त्रयोगविह] ज्ञेयो (यो. स. ४) ९/१३२ १४७ शाबसंदर्शितोपायः (यो. स. ५ ) संघयणरूय संठाण (भा. नि. ५७१) ९/१३२ २१५ २१९ ર ९/२० २९४ ૫૮ ॐ ३२६ " Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था, क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [३३५ उद्धृतश्लोकांश: पृष्ठाङ्कः - उद्धृतश्लोकांश: पृष्ठाङ्कः समृज्यन्ते न भिन्ते (प्र. वा.) २४३ सिद्धनणेण य पुणो (सम्मति) ९।११६ संहयणमद्विणिचओ (कर्मग्रन्थ १।३८) २१५ सिद्धश्चागौरपोयेत (श्लो. वा.) २४८ स चेदगोनिवृत्त्यात्मा (श्लो. बा.) २४५ सिद्धा ण अधीरिआ ( ) ९।१२५ समुच्चयादियेधार्थः (त सं. १९५८) २६३ सिद्ध णो चरित्ती ( ) ९।१०९ सम्मत्तच्चारित्ता (वि. आ. २०७८) ९।११५ सियाख्यपदसंप्राप्ति (यो. स. ६) ९११३२ सर्च पश्यतु वा मा {प्र. वा. २॥३३) ३७ सुदढप्पयत्तवावारणं (वि. आ. ३०७१,९।१०५ सर्य पश्यतु या मा वा (प्र. वा. १६३५) ३७ सुबहुंपि सुअमहीअं ( ) २९.३ सर्वथा तत्परिच्छेदात (यो. स. ७) ९।१३२ से परिग्गडे चउबिहे (पाक्षिकसूत्र) ९।२१ सर्वशसरश कञ्चित् (श्लो. वा.) से य सम्वत्त पच. नि. गि) ९३२ सघशोततया वाक्यं (,) सेवंतो वि ण सेवा ( ) ९१७८ सर्वशो रश्यते तापद (..) ६ सोक्त श्रा पुण दुक्ख (प्र. सार १५२०) १९७ सर्वशो नावबुद्धश्च सो य तवो कायश्यो ( (,.) १८ ४४८ स्वबीजानेकविश्लिष्ट (त. सं.) २४३ सर्वशोऽयमिति तत् (,) स्वयं रागादिमान (प्र. वा.) १२६ सम्बथोशाशे चरित्तायाभो ( ) ९।१२२ स्वरूपसत्यमात्रेण (श्लो. पा.) २४६ सध्वाहा परमप्यत्तं ( ) ३०७ स्वर्गकेषलाथिना ( ) सम्वेहि पगसेण (आ. नि.) ९।५९ हदि ॥ हवदिबंधो (प्र. सा, ३।१९) १६३१ साण भंते ! अकिरिया ( ) ९११९ हिरण्यगर्भः सम. (ऋग्वेद) १७८ सारखणाणुबंधो (वि. आ. ३०५३) ९।५५ । टुति कसायायाओ ( ) ९१२३ परिशिष्ट : ३ ग्रन्थगतविशेषनाम्नामकारादिक्रमः विशेषनाम अमरचन्द्र ९।३२-३३ कुमारिल अवधूताचार्य ९/७२ कूण ९/६३ आचारटीका ९७५ गोपेन्द्र ફર भाचारांग गंगेश ९।७५ ९।७४,९१,११३ चार्वाकमत उदयनमत ९/२२ जैमिनी ऊयोतकर ૨૨૭ ૨૨૮ ज्ञानार्णव. उमास्वाति तत्त्वार्थसूत्रकृत् ૨૮૨ विशेषनाम उदयन Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शाखबार्साः परिशिष्ट : 3 336 ] 9978: 72 dandit 2013 9 / 2 317.312 33,111,177 9328 228,242 126 9 / 25 विशेषनाम तौतातित त्रिदण्डी विक्पट दिगंबर दिग्नाग धर्मकीत्ति नध्य नव्यमत नारद नैयायिक न्यायवादी परीक्षा पूर्वाधार्य प्रशनि प्रतापना प्रभाचन्द्र प्रभाकरमर 314 विशेषनाम मिश्र मिश्रमत माषतुष मीमांसक मीमांसकमत मुरारिमिश्र यापनीयतंत्र यौक्तिक योग ललितविस्तरा वर्धमान यशि बाचक मुख्य विशेषावश्यक विशेषावश्यक वृत्ति নিময় মহীঘি घ्याख्याज्ञप्ति व्यासमहर्षिः 9499 9 / 129,303 2 / 39 952 2114-122-229 2 / 12 204,297 9.14 65 228 श्रुतकेवल प्रमारहस्य प्रवचनसार प्रवचनसारकृत् प्रसन्नचन्द्र प्राभाकर / 931 320 2578 2388 9 / 29 খলিঙ্গ समयसारकूत् सम्मसिकार सर्वार्थसिद्धिकृत साख्यमत सामाचारीप्रकरण सितपट सिताम्बर सौगत स्तृतिकृत स्थानांग स्वतन्त्र हरिभद्र 272 भट्ट भट्टमत भर्तृहरि भाषारहस्य भाष्यकार भाष्यकृत् 943-615,118,294, 301 भास्करीय मधुसूदन 919 मनु 9 / 48 9020 328