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स्या. क. टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
शमादयश्च पञ्च-'शमः, संवेगः, 'निवेदः, अनुकम्पा, "आस्तिक्यं चेति । तत्र शमा ऋराणामनन्तानुवन्धिना कषायाणामनुदया, सच प्रकृत्या, कषायपरिणतः कटुकफलावालोकनाद् वा भवति । तदुक्तम्- [श्रा०प्र० ५५ ] * पपईए, कम्माणं नाउणं चा विवागमसुहे ति । अवरद्धे वि न कुप्पइ उपसमओ सबकालं पि ॥ १ ॥
अन्ये तु 'क्रोधकण्ट्रविषयतृष्णोपशमः शमः' इत्याहुः। कृष्ण श्रेणिकादौ चैतदभावेऽपि न क्षतिः, लिगं विनापि लिङ्गिनो दर्शनात् । संज्वलनकषायोदयाद् वा कृष्णादीनां क्रोधकण्ट्रविषयवृष्णे । भवन्ति हि संज्वलना अपि केचन कषायास्तीवतयाऽनन्तानुबन्धिसदृशविपाकवन्त इति । संवेगो-मोक्षामिलापः, सम्यग्दृशाऽहमिन्द्रपर्यन्तसुखस्य दुःखानुषङ्गाद् दुःखतयैव पर्यालोचनाद । तदाह-[ श्रा० प्र० ५६ ] भर-विबुहेसरसुक्खं दुक्खं चिय भावओ अ मण्णतो ।
संवेगओ ण मुक्खं मोत्तणं किंचि पत्थेइ ॥ १॥" ठोक उसी प्रकार जैसे पलाल प्रावि को त्यागकर धान्य की प्राप्ति ही कृषि का फल होता है, अत एव परिष्कृतबुद्धि से सम्पन्न व्यक्ति पर्यन्तफल-मोक्षरूप परमफल को देने वाली दर्शनरूप क्रिया को मोक्ष का मार्ग मानते हैं।
कारिका में आये 'सम्यक्त्व' पद का अर्थ है प्रात्मा का सम्यगभाव । सम्यग्भाव का अर्थ है मिथ्यात्वरूपमल की निसि होकर परमनल्य की प्राप्ति ! 'तत्त्ववेवत' का अर्थ है आत्मा को वह योग्यता जिससे भगवान् से उपदिष्ट तत्त्व पर श्रद्धा का उदय हो। 'दुःखान्तकृत्' का अर्थ है प्रन्थि का भेदन कर निबिड-हबद्ध कर्मों से उत्पन्न संसार दःख का नाशक । 'सुखारम्भ' का अर्थ है सुखजनक, जिससे सुख की उत्पत्ति हो।
उक्त तत्तत् अर्थ के बोधक समी शब्द जैसे मुक्तिबोज, सम्यक्त्व, तत्त्ववेदन, दुःखान्तकृत और सुखारम्भ ये 'दर्शन' शन्द के पर्याय-दर्शनशम्द के प्रतिपाच अर्थ के प्रतिपादक माने गये हैं क्योंकि ये सभी शब्द यौगिक-प्रवयवलभ्य तत्तत विशिष्ट अर्थ के बोधक होते हये भी 'दर्शन' रूप अर्थ में जसीप्रकार नियत रूढ है जैसे एवज आदि शव पङ्कजन्य अर्थ में यौगिक होते हुये भो पद्म में नियत होते हैं ।
___'दर्शन' का लक्षण है शम आदि से ध्यत होने वाला आत्मा का शुभ परिणाम, जिसके संवाची आर्षवधन का अर्थ है-वर्शन सम्यक्त्वरूप है जो प्रशस्त सम्यक्त्वमोहनीय नामक कर्म के अणुवों के वेदन या उपशम अथवा क्षय से उत्पन्न आत्मा का शुभ परिणाम कहा गया है।
* प्रकृत्या, कर्मणां ज्ञात्वा वा विपाकमशुभमिति । अपराध्येऽपि न कुप्यत्युपशमतः सर्वकालमपि ।। १॥ नरविबुधेश्वरसौख्यं दुःखमेव भावतश्च मन्वानः । संवेगतो न मोक्षं मुक्त्वा किञ्चित् प्रार्थयते ।। १ ।।