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________________ ६२ ] [ शास्त्रवार्ता स्त. ६ श्लो. ५ दर्शनं-दृश्यतेऽनेन यथावस्थितमात्मतत्त्वमिति । मुक्तिषीच, चः समुच्चये, मुक्तः सकलकर्मनिवृत्तेः फलभूताया धर्मचिन्ताबकुरक्रमेण बीजं सत्प्रशंसादिलिङ्गमाघकारणम् ; तदाहुः-[ ] "चपनं धर्मवीजस्य सत्प्रशंसादि तद्गतम् । तच्चिन्ताधङ्करादि स्यात् फलसिद्धिस्तु निर्वृतिः ॥१॥ चिन्ता-सत्श्रुत्य-नुष्ठान-देवमानुषसंपदः । क्रमेणाधुर-सत्काण्ड-नाल-पुष्पसमा मता ॥२॥ फलं प्रधानमेवाहुनानुषङ्गिकमियपि । पलालादिपरित्यागात् कृषों धान्यादिवद् बुधाः ॥३॥ अत एव च मन्यन्ते तत्र भावितयुद्धयः । मोक्षमार्गक्रियामेका पर्यन्तफलदायिनीम ॥४॥ इति । सम्यक्त्वम् आत्मनः सम्यग्भावो मिथ्यात्वमलापगमात परमनिर्मलीमावलक्षणः । तत्यवेदनम् तचं जगलास हो गद्धीसलेलोशि । मुस्तान-प्रन्थिमेदाद् निविडकर्मजन्यसंसारदुखान्तकरम् । अत एव सुखारम्भः-सुखस्यारम्भो यस्मात् तत् । एते तस्यदर्शनस्य पर्यायाः-एकार्थप्रतिपादकाः शब्दाः, कीर्तिताः, सत्यपि योगे पङ्कजादिषदानां पनादाविद दर्शने नियतत्वादेतेषाम् । लक्षणं चास्य शमाभिव्यङ्ग्यः शुभात्मपरिणामः । तदाम्-"से य सम्मत्ते पसत्थसम्मत्तमोहणिजकम्माणुवेअणोवप्तम-खयसमुत्थे सुहे आयपरिणामे पण्णत्ते" इति । [पर्यायपदों से दर्शन की स्तवना] वर्शन का महत्त्व बताने के लिये इस पांचवी कारिका में दर्शनपद के यथार्थपर्यायों का उल्लेख किया गया है कारिका का अर्थ इस प्रकार है - 'दृश्यतेऽनेम=जिससे देखा जाय' इस व्युत्पत्ति के अनुसार आत्मतत्त्व' यथावस्थितरूप में जिससे ज्ञात हो वही दशन हैं क्योंकि उसीसे सब कुछ जाना जाता है। कारिकायत '' शब्द समुच्चयार्थक है, उससे यह सूचित होता है कि 'दर्शन' पद को तरह मुक्तिबीजादि सभी शाब सम्यस्य के पर्यायवाची है । मुक्ति का अर्थ है समस्तकों का क्षय, जो सम्पम् दर्शन का फल है, बीज का पर्व है प्रथमकारण, जो धर्मचिन्तादि अङ्कुर के क्रम से संबंधित होकर फल का निर्वाह होता है और सत्प्रशंसा आदि लिङ्गों से ज्ञात होता है। जैसा कि विद्वानों ने कहा है धर्मगतसत्प्रशंसा आदि (धर्म की भूरि-भूरि प्रशंसा, उसके उत्तमफल का वर्णन आदि) धर्म बोज का वपन है, धर्म का चिन्तन मावि अङ्कुर है, मोक्ष लाभ फलप्राप्ति है। ___ धर्म का चिन्तन, धर्म के विषय में अच्छी बातों का श्रवणा, धर्मकार्य का अनुष्ठाम. देवी और मानुषी सम्पत्ति क्रम से अङ्गुर, सुपुष्ट काण्ड, नाल और पुष्प के समान है। धर्म का एक ही मुख्यफल है मोक्ष, अन्य कोई आनुङ्गिक फल वास्तविक फल नहीं है। यह *तच्च सम्यक्त्वं प्रशस्तसम्यक्त्वमोहनीयकर्मागुवेदनोपशम क्षयसमुत्थः शुभ आत्मपरिणामः प्रज्ञप्तः।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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