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________________ स्या क० टोका एवं हिन्दीविवेचन ] इत्यं च 'न सितपटा महाव्रतपरिणामवन्तः' इत्याधनुमाने हेत्वसिद्धिः मूर्छाऽभानेन परिग्रहयोगित्वाभावात् ""मुच्छा परिग्गहो वुत्तो" [द. वै० ] इति भगवचनात , वस्त्रादियोगित्वस्य श्रेण्यारूढे व्यभिचारित्वादिति स्मर्तव्यम् ।। इदं कपटनाटकं प्रकटमद्य वो दिक्पटा:! सभासु विदितं सतामिति किमत्र भूयः श्रमः !! इतो जयति शासनं जगति चार जैनेश्वरं सिताम्बरसमाश्रितं कृतधियां हितं शाश्वतम् ॥१॥ तत् सिद्धमेतत्--'गुरुवचनमनुसृतेषु चरणकरणपरायणेषु विदितनयेषु संसारभीरुषु सिताम्बरेश्वेर दर्शन-ज्ञान-चारित्र-संपत्तिरूपः परो मोक्षोपायः' इति ॥४॥ दर्शनमेषाभिष्टोतं यथार्थान् दर्शनपदपर्यायानाहमूलम्-दर्शनं मुक्तिबीजं च सम्यक्त्वं तत्ववेदनम् । दु:स्वान्तकृत्सुखारम्भः पर्यायास्तस्य कीर्तिताः॥५॥ [दिगम्बरमतनिरसन उपसंहार ] विगम्बरों ने खेताम्बरों के विरुद्ध जो यह अनुमान प्रयोग किया है कि-"वेताम्बर अपरिग्रह महानत का फल नहीं पा सकते क्योंकि वे घस्त्र, पात्र आदि परिग्रह से युक्त होते हैं जैसे महान आरम्म-समारम्भ में गृहस्थ"- वह भी ठीक नहीं है क्योंकि श्वेताम्बर साधुनों में मूी-बस्त्र पात्र आदि को प्रासक्ति,-न होने से उनमें परिग्रह का सम्बन्ध सिद्ध नहीं है, क्योंकि भगवान् के कथनानुसार वास्तव में मूर्छा हो परिग्रह है । अतः यह अनुमान पक्ष में हेतु के अमाषरूप स्वसिद्धि दोष से ग्रस्त है । क्षपकश्रेणी (मोहनीयक्षम के तीन प्रध्यवसाय में ) प्रारूद साधु वस्त्रावि के युक्त होने पर भी अपरिग्रह महाव्रत का फल प्राप्त करते हैं अतः वस्त्रावि सम्बन्धरूप हेतु में अपरिग्रह महावत के फलप्राप्तिरूप साध्य का व्यभिचार भी है। व्याख्याकार ने इस विचार का अपने एक पद्य द्वारा उपसंहार किया है । पद्य का अर्थ इस प्रकार है 'साधु को अपरिग्रह महानत का फल पाने के लिये वस्त्र का त्याग करना चाहिये इस पक्ष को सिस करमे का जो कपटनाटक दिगम्बरों द्वारा विद्वानों को समानों में खेला जाता रहा, प्राज उसका आवरणभङ्ग हो गया, यह सत्पुरुषों ने जान लिया, अतः इस विषय में और श्रम करना निरर्थक है, दिगम्बरों के माटक को कपटमयता प्रकट होने के फलस्वरूप जिनेश्वर का यह शासन, जिसका श्वेताम्बरों ने आशरा किया है, जो परिष्कृतद्धिवालों का शाश्वत हितकारी है, पूर्ण उत्कर्ष से उमा. सित होने लगा है। उक्त विचारों से यह निविवाद सिद्ध है कि ज्ञान, दर्शन, पारिश्यरूप मोक्ष का श्रेष्ठ साधन गुरुवचन का अनुसरण करने वाले, चारित्रपालन में निरन्तर तत्पर नयों के सम्यग वेसा, संसार से भोत रहने वाले श्वेताम्बरों को सुलभ हो सकता है। १. मूर्छा परिग्रहः उक्तः ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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