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[शास्त्रवार्ता स्त०६इलो०४
इत्थं च तद्विनेया अपि तलिङ्गानुकारिण एवोचिताः' इत्यपि प्रत्युक्तम् , यादृशं गुरुलिम तादृशमेव शिष्यलिङ्गादिकम्' इति वदतां पिच्छिकादिपरिग्रहस्याऽन्याय्यत्वात , भगवता तदपरिग्रहात् । 'गुरुकृतमेष कर्माचरणीयम्' इति व्यामोहवता छद्मस्थावस्थायां भगवतोपदेशशिपदीक्षागुरुवचनानुपमहान् दिग्नामसामपि तदनुपग्रहापत्त्या स्वतीर्थोच्छेदापत्तेः । तस्माच्चतुरातुरेण तथा वैद्योपदिष्टमेव क्रियते, न तु तत्कृतमनुक्रियते, ध्याध्यनुच्छेदप्रसङ्गात् , तथा भव्येनापि धर्माधिकारिणा भगवदुक्त एव मागों यथाशक्त्याऽऽचरणीयः, न तु तचरित्रमा. चरणीयम् , चक्रवर्तिभोजनलुन्धविप्रवद् विपरीतप्रयोजनप्रसङ्गादिति विभावनीयम् । अवोचाम च*"वेज्जुबदिट्ठ ओसहमिव जिणकहियं हि तओ मग्गं।। सेवंतो होइ सुही इहरा विवरीयफलभागी" ॥१॥ इति । [अ० म०प०-३३]
_ [ अनुकरण छोडो, आज्ञापालन करो] 'शास्त्र को सूचना के अनुसार जिनेन्द्र निर्वस्त्र होते हैं अत: उनके शिष्यों को भी उनका अनुसरण करके निर्वस्त्र होना ही उचित है-दिगम्बरों का यह कथन भी निरस्त हो जाता है क्योंकि'गुरु का जो लिङ्ग हो शिष्य का भी वही लिङ्ग होना चाहिए' ऐसा नियम मानने पर दिगम्बरों द्वारा मयूरपिच्छ प्रादि का धारण असंगत हो जायगा क्योंकि भगवान ने उसे धारण नहीं किया है। इस के अतिरिक्त दूसरा घोष यह है कि उक्त नियम के समान दिगम्बरों को यह नियम मानने का मी ठयामोह होगा कि जो कर्म गुरु करता है, वही कर्म शिष्य को भी करना चाहिये और इस व्यामोह का परिणाम यह होगा किजसे भगवान् ने छपस्य (अपूर्णज्ञान) अवस्था में घातोकम को उदय दशा में कोई उपदेश नहीं किया था. किसी शिष्य को चीक्षा नहीं दी थी. गुरुवचन का श्रवण नहीं किया था वैसे ही विगम्मर भी छास्य अवस्था में उक्त कार्य न करेगा, जिसके फलस्वरूप विगम्बरसम्प्रदाय का उच्छव हो जायगा । प्रसः उचित यह है कि जैसे बुद्धिमान रोगी वेद्य द्वारा निविष्ट कर्मों को ही करता है कि वेध द्वारा किये जानेवाले कर्मों का अनुकरण, क्योंकि उन कर्मों के करने से स्पाधिका उच्छेव नहीं हो सकता वैसे ही भव्य धर्माधिकारी को भगवान् द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर ही यथाशक्ति चलना चाहिये न कि उनके चरित्र का अनुकरण करना चाहिये अन्यथा उसे उसी प्रकार विपरीत परिणाम का पात्र होना पड़ेगा जिस प्रकार चक्रवर्ती राजा के भोजन-लोभी साह्मण को उस मोजन से विपरीत परिणाम का पान बनना पड़ा था। यह बात प्रध्यात्ममतपरीक्षा में इस प्रकार कही जा चुकी है कि 'भगवान् जिन द्वारा बताया मागं वैद्य से उपदिष्ट औषध के समान हितकर है, उस मार्ग पर चलनेवाला मनुष्य इष्ट फल को प्राप्त करता है और जो उससे विपरीत चलता है वह अनिष्ट प्राप्त करता है।'
वैद्योपदिष्टमीपत्रमिव जिन थितं हितं ततो मार्गम् । सेवमानो भवति सुखीतरथा विपरीतफलभागी ।। १ ॥