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स्वा० क० टीका एवं हिन्दीविवेचन ]
] इत्या
वस्त्रग्रहणश्रवणात् ""सन्धे हि एगदूसेण णिगया जिणवरा चउन्त्रीसं" [ धागमत्रामाण्यात् । न चास्यान्यार्थत्वम्, आधारावङ्गेषु तैस्तैः सूर्भगवत्येकवस्त्रग्रहणस्य श्रामण्यप्रतिपत्तिसमये प्रतिपादितत्वात् । न चैवं तदा सर्ववस्त्र परित्याग वेदकः कश्चिदागमः श्रूयते । योऽपि ""बोसट्टचतदेहो विहरद्द गामाणुगामं तु" इत्यागमः, सोऽपि न श्रामण्यप्रतिपत्तिसमय माविभगवन्नग्नत्वावेदकः, किन्तु तदुत्तरकालं रागादिदोषविप्रमुक्तत्वं भगवत्या वेदयतीति । यस्त्विदानीं प्रमाणानुपपत्त्याद्युद्भावयन्ना चाराङ्गादिसद्भावमेव न स्वीकुरुते, सोऽतिवापः, स्त्रक्लृप्तशास्त्रमूलप्रवृत्तावन्धपरम्पराशङ्काया दुर्निवारत्यात्, ""जो मण नत्थि धम्मो ..." इत्यादिना महाप्रायश्चित्तापदेशात्, असंभाष्यत्वाच्च तस्य ।
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[ तीर्थकरादि में भी पूर्ण आलक्य असिद्ध ]
यह मी ज्ञातव्य है कि जिनेन्द्र और जिनकल्पिक आदि भी पूर्णरूप से निर्वस्त्र नहीं होते क्योंकि शास्त्रों से ज्ञात होता है कि जिनकल्पिक आदि को कम से कम दो उपधि रजोहरण और मुहपत्ती रखना सभी समय आवश्यक होते हैं और जिनेन्द्रों को प्रव्रज्या संन्यासग्रहण करने के समय देवेन्द्रप्रदत्त देववृष्य वस्त्र का ग्रहण होता है। इस बात को आगम यह कहकर प्रमाणित करता है कि- 'सनी
बोसों जिनवरों ने 'देवदूष्य' नामक एक वस्त्र के साथ निर्गम-गृहत्याग किया।' प्रागम के इस कथन का कोई अन्य अर्थ नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्राचारादि भङ्गों में कई सूत्रों द्वारा बताया गया है कि श्रमणधर्म को स्वीकार करते समय भगवान् एकवस्त्र ग्रहण करते हैं। दूसरी ओर ऐसा कोई वागम उपलब्ध नहीं होता जिससे यह ज्ञात हो सके कि श्रमणधर्म को प्रतिपत्ति के समय सभी वस्त्रों का परित्याग कर दिया जाता है। एक आगम जो यह बताते उपलब्ध होता है कि 'जिन्होंने बेह का विसर्जन एवं त्याग किया है वे भगवान गांव-गांव विहार करते हैं उस आगम का भी यह अर्थ नहीं है कि श्रमणधर्म को स्वीकार करने के समय भगवान् नग्न होते हैं, अपितु उसका अर्थ यह है कि श्रमणधर्म को स्वीकार करने के उत्तरकाल में भगवान् बेहसंबन्धि रागावि समस्त दोषों से मुक्त हो जाते हैं। जो उक्ति इस समय प्रमाण को अनुपपत्ति अदि का उद्भावन कर प्राचाराङ्ग आदि आगमों का अस्तित्व ही नहीं मानता वह जैनसम्प्रदाय से अत्यन्त दूर है. क्योंकि दिगम्बर समाज को मान्य शास्त्रों के आधार पर धर्म तथा अध्यात्म के सम्बन्ध में जो विगम्बर जैन जनता की प्रवृत्ति होती है उसमें भी अन्धपरम्परा को शङ्का प्रतिवार्य है । तथा-'धर्म नहीं है' इत्यादि कहने वाले मनुष्य को समस्त जैन संघ से बाहर निकाल देना चाहिये इस शास्त्रोक्ति से वह आगमावलापी महाप्रायश्चित का पात्र है एवं धार्मिकजनों द्वारा वह सम्भाषण के लिये भी प्रयोग्य है ।
१. सर्वेऽप्येकदूष्येण निर्गता जिनवराश्चतुविशतिः । २. व्युत्सृष्टत्यक्तदेहो विहरति ग्रामानुग्रासं तु । ३. सो समणसंघबज्झो कायन्त्रो सब्दसघेणं ॥ इत्युत्तरार्द्धः ।
४. जिनकल्पिक - किंचिदधिक नव पूर्वो का अध्ययन हो जाने के बाद कठोर निरपवाद संयम मार्ग का स्वीकार करने वाला जैन साधु ।