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[ शास्त्रवार्त्ता स्त० ६ श्लो० ४
कुत्सितवस्त्रपरिभोगेन च सत्यपि वस्त्रे साधूनां कटीवस्त्रेण वेष्टितशिरसो जलावगाढपुरुषस्येवोपचारेणाऽचेलकत्वव्यवहारात्, निरुपचरितव्यवहारेण च स्कन्धाद् देवदूष्यापगमे भगवत्स्वेवाचेलकत्वव्यवस्थितेरिति । एतेन 'यदि सचेलत्वमपिं' [ पृ० २८ पं० १० ] इत्यादि निरस्तम् ; आचेलक्यस्य मूलगुणत्वाऽसिद्धेः, महाव्रतोपकारकत्वेन पिण्डविशुद्धयादिवत् तस्योत्तरगुणत्वात्, अन्यथोत्सूत्रोपहतेः, अव्यवस्थानाच्च ।
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न जिनेन्द्र जिनकपिकादीनामपि सर्वधाऽबेलकत्वं सिद्धमस्ति, जिनकल्पिकादीनां सर्वदैव जघन्यतोऽप्युपधिद्वयस्य सद्भावात् जिनेन्द्राणामपि प्रवज्याप्रतिपत्तिसमये देवदृष्य
[ सचेलकत्व आचेलक्य का विरोधी नहीं ]
दिगम्बर ने सचेलकस्य सवस्त्रस्य में आवेलक्य = निर्वस्त्रता का जो विशेष बताया उसके विषय में यह ज्ञातव्य है कि सचलकत्व में प्रचेलकत्व का विशेष दो प्रकार का हो सकता है। एक निश्चयनयानुसारी और दूसरा व्यवहारनयानुसारी । इनमें पहला अचेलकरथ के कार्यभूत निर्जर। काविघातकस्वरूप है, किन्तु वह सचेलकत्व में नहीं हो सकता क्योंकि धर्म के उपकरणरूप में स्वरूपवस्त्र धारण करने पर भी उससे साधु को निर्जरा का विघात नहीं होता। दूसरा अचेलकरवव्यवहार का विघातकस्वरूप है, पर वह भी सचेलकत्व में संभव नहीं है, क्योंकि साधु लोकप्रसिद्ध सन्निवेशaafविन्यास का तो त्याग कर देता है और जीर्ण, स्वल्प और कुत्सिस वस्त्र का सेवन करता है। उतने वस्त्र के रहने पर भी उसमें प्रचेलकत्व निर्वस्त्रत्य का उपचरित-गौण व्यवहार उसी प्रकार होता है जैसे कटिवस्त्र को सिर में लपेटकर जल में प्रविष्ट मनुष्य में अचेलकरव का गौण व्यवहार होता है । हाँ, अनुपचरित व्यवहार से यदि मचेलकत्व की व्यवस्था जिज्ञासित हो तो वह तो किसी भी साधु में नहीं हो सकती केवल महावीर भगवान् में हो प्राप्त हो सकेगो क्योंकि स्कन्ध से बेवष्य वस्त्र के गिर जाने पर महावीर भगवान् में मी अचेलकत्व की उपपत्ति होती है।
दिगम्बर की ओर से जो यह कहा गया कि - ' सचेलकत्व यदि अचेलकत्व रूप 'मूलगुण से संबद्ध श्रमणधर्म का विरोधी न हो तो जिनेन्द्र और जिनकल्पिक आदि उत्तम श्रमण अचेलक ही होते हैं - इस शास्त्रप्रसिद्ध सत्य की उपपत्ति कैसे होगी ? - यदि यह माना जाय कि वे प्रसङ्गता की सिद्धि के लिये निर्वस्त्र होते हैं तो उनके शिष्यों को भी उनके चिह्न का अनुकरण कर निर्वस्त्र होना ही उचित है' यह कथन मी ठोक नहीं है, क्योंकि आवेलक्य ( निर्वस्त्र होना) यह मूल गुण है, यह बात असिद्ध है, किन्तु सत्य यह है कि जैसे महाव्रत का उपकारक होने से आहारशुद्धि प्रादि उत्तरगुण है, वैसे हो निर्वस्त्रता भी उत्तरगुण है। यदि ऐसा न माना जायगा तो निर्वस्त्रता को उत्तरगुण दिखाने वाले सूत्र का उपघात यानी विरोध होगा, तथा मूलगुण और उत्तरगुण को सुनिश्चित व्यवस्था न हो सकेगी।
१. मूलगुण-संयमधर्म के अंगभूत अतिआवश्यक पांच महाव्रतों का पालन |
२. उत्तरगुण - पांच महाव्रतों की सुरक्षा के लिये आवश्यक भिक्षाशुद्धि आदि ।