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________________ स्या० १० टोका एवं हिन्दीषियेचन ] " जड चेलभोगगेत्ता ण जियाचेलयपरीषहो गार। भुजतो अजिअखुहापरीसहो तो तुमं पत्तो ॥ १ ॥” इति । न च सचेलकत्वेऽचेलकत्वकार्थनिर्जराविघातकत्वलक्षणं नैश्चयिकमाचेलक्यविरोधित्वम् , न वा तद्व्यवहार विधातिवलक्षण व्यावहारिकमपि लोकविदितसंनिवेशपरित्यागेन जीर्ण-स्तोक _ [ क्षुधापरिषहजय की भाँति आवेलक्यपरिषहविजय ] विगम्बर की ओर से जो यह प्रश्न उठाया गया कि-'साधु यदि वस्त्र धारण करेगा तो वह 'आचेलक्यपरोषह पर विजय-निर्वस्त्र रहते हुये नानतास्वरूप क्लेश पर विजय कसे प्राप्त कर सकेगा?' यह प्रश्न भी निस्सार है क्योंकि जैसे भूख को तीववेदना होने पर 'एषणा आदि दोष से दषित आहार को न ग्रहण कर निर्दोष आहारस्वष्टव भिक्षा के अन्वेषण द्वारा शास्त्रविहितरीति से भूख को पीडा का प्रतीकार करने पर क्षत्परीषद के ऊपर विजय प्राप्त होता है, न कि माहार का सर्वथा परित्याग कर देने पर । यदि माहार के सबंधा त्याग को ही क्षधापरिषह का विजय मानेंगे तो अनुपम पेय और उत्कृष्ट संघयगबल से सम्पन्न तीर्थकर भी सर्वथा आहारत्यागी न होने से क्षत्परीषह के विजेता नहीं थे ऐसा मानने की आपत्ति होगी । वैसे शीत आदि की पीड़ा से पराभूत साधु मो दोषयुक्त वस्त्रादि उपकरण का त्याग कर निदध वस्त्रादि के सेवन से शीत पीडा का प्रतीकार कर नग्नतारूप आखेलक्यपरीषह का विजय प्राप्त कर सकते हैं, उसके लिये वस्त्र का सर्वथा परित्याग आवश्यक नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-भूख की पीडा का विरोधी परिणाम हो निश्चयनयानुसार क्षुत्परीषह विजय है-तो उसीके समान यह भी कहा जा सकता है कि शोत प्रावि की पीडा का विरोधो परिणाम हो याचेलक्य परीषह विजय है । यदि यह कहा कि-आध्यात्मिक यानी आत्महितकारी ऐसे परोषह विजय का साधन होने से प्राहार ग्रहण का औचित्य हो सकता है पर वस्त्रादि प्राध्यात्मिकविजय का साधन न होने से उसके ग्रहण में औचित्य नहीं हो सकता-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि आध्यात्मिकपरोषहविजय की साधनता आहार के समान धस्त्रादि में भी विद्यमान है जैसा कि व्याख्याकार ने अध्यात्ममतपरोक्षा ग्रन्थ में कहा है कि-'वस्त्र झा सेवन करने के कारण साधु यदि आवेलक्यपरीषह का विजेता नहीं हो सकता तो आहार का सेवन करने वाला साधु प्राहार सेवन करने के कारण क्षुत्परीषह का भी विजेता नहीं हो सकता'-उपर्युक्त युक्तियों सो स्पष्ट है कि-आहार तथा वस्त्रग्रहण दोनों में गुण-दोष समान होने से एक के औचित्य और दुसरे के अनौचित्य का स्थापन नहीं किया जा सकता। *यदि चेलभोगमात्रान जिताचेलकपरीषहः साधः। भजानो जितक्षत्परीषहस्ततस्तव प्राप्तः॥१॥ १. आचेलक्यपरिषह-नग्न रह कर जो कष्ट सहन करना पड़े। इस पर विजय यानी इसमें व्याकुल न होकर समभाव रखना। २. एषणादूषितआहार-एषणा यानी आहारादिपिंडरूप भिक्षा का ग्रहण, उस समय लगने वाले हिंसा नुमोदनादि दोष से दूषित आहार। ३. क्षुत्परीषह-भूख की पीडा का जो कष्ट सहन करना पड़े।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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