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[ शास्त्रवास्ति लो०४
यदपि-'कथं चैवमाचेलक्यपरीपहविजयः कृतः स्यात १, न हि सचेलकत्वमषेलकत्वं च न विरुद्धम्' इत्युक्तम्-ताप तुच्छम् , यथा हि तीव्रक्षुद्वेदनोदयेऽप्येपणादिदोषदुष्टमाहारमगृतस्तदोपरहितमाहारमुपलभ्य विधिना क्षुद्वेदना प्रतिकुर्वतः क्षुत्परीषहविजयः, न तु सर्वथाऽऽहाराऽग्रहणेन, निरुपमधृति-संहननानां जिनानामपि तदजेतृत्वप्रसङ्गात् , तथा शीतादिवेदनाभिभूतेनापि दोषदुष्टोपधित्यागेन दोपरहितोपधिपरिभोगेन च तन्प्रतिकार आचेलक्यपरीषहविजयोपपत्तः, न तु सर्वथा तत्परित्यागेन । अथ क्षुद्वदनाप्रतिपक्षः परिणाम एव निश्चयतः क्षुत्परीपहविजय इति चेत् ? तर्हि शीतादिवेदनानिपक्षः परिणाम एव निश्चयत आचेलक्यपरीपहविजय इति तुल्यम् । आध्यात्मिकपरीपहविजयोपष्टम्भकत्वं चाहारोपकरणयोस्तुल्यमिति । तदिदमवदाम-[अ० म. परीक्षा-२७ ]
___ यह भी ज्ञातव्य है कि शरीररक्षा में रौद्रध्यान को प्रशस्त मानने वाले दिगम्बर से यदि यह प्रश्न किया जायगा कि रौद्रध्यान तो अप्रशस्त हो हो सकता है प्रशस्त-प्रशस्तरूप में उसके दो विमाग कैसे हो सकते हैं-तो इस प्रश्न के उत्तर को स्फत्ति न होने से विगम्बर को आकाश को पोर निहारने के अतिरिक्त और कुछ न सूझेगा । दिगम्बर की ओर से यदि यह कहा जाय कि-'वस्त्र आदि को रक्षा के प्रसङ्ग में चौर आदि से बचाव करने के लिये वस्त्रादि के ग्रहोता को सार्थ का अन्वेषण करना होता है जिस से यह ज्ञात होता है कि वस्त्राविग्रहीता को चोर से द्वेष है । फिर यह द्वेष कैसे प्रशस्त हो सकता है ?'-तो यह कथन भी एक निरर्थक व्यामोह हो है क्योंकि जिस द्वष में चोर का वध करने की भावना प्रधान होली है वह द्वेष जैसे अप्रशस्त होता है वैसे ही चोर की ओर से अपहरण होने की सम्भावना में चोर के प्रति जो द्वेष उदित होता है उसमें चोर का वध करने को माता न होने से वह प्रशस्त भी हो सकता है। ऐसा द्वेष, चार की कोई हानि करने की इच्छारूप संक्लेश न होने पर भी 'चोर के प्रति मुझे द्वेष है मनुष्य के इस अनुभव से भी प्रमाणित होता है । यदि यह कहा जाय कि-'विशुद्ध और संक्लेश दोनों का अङ्गभूत यानी हेतुभूत होने से राग तो प्रशस्त-अप्रशस्तभेद से दो प्रकार का हो सकता है पर द्वेष तो एकमात्र सक्लेशरूप हो होता है प्रत: उसका एक अप्रशस्त ही प्रकार हो सकता है तो यह कथन भी अज्ञानमूलक है क्योंकि जैसे मोक्ष को इन्छा रागजन्य होसी है वैसे ही संसारत्याग की इच्छा द्वेषजन्य होती है, तो फिर यह द्वेष संसारत्याग का निमित्त होने से प्रशस्त क्यों नहीं हो सकता? यदि यह प्रश्न किया जाय कि स्फटिकमणि में तापिच्छ पुष्प के रंग के समान द्वेषमात्र अशुभंकरूप ही होता है अत: उसके शुभ-अशुभ हो रूप कैसे हो सकते हैं ? तो ऐसा प्रश्न करनेवाले से यदि यह पूछा जाय कि स्फटिक में जपाकुसुम के रंग के समान राग भी शुभकरूप है अतः उसके शुभ अशुम दो रूप कैसे हो सकते हैं-सो वह इसका क्या उत्तर दे सकेगा ? यदि यह कहा जाय कि उपाधि के भेद से उपधेय भेद होने में कोई बाधा नहीं है तो वस्त्र और आहार दोनों में उद्देश्य आदि के भेव से परिणामभेव के सम्भव होने से दोनों । प्राहार और वस्त्र के ग्रहण के सम्बन्ध में विरुद्ध वो मत रखना उचित नहीं हो सकता ।