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________________ १८ ] [ शास्त्रवार्ता० १०/४ किच, परसंतानवसिरागादिसाक्षात्करणादस्य रागादिमत्त्वमपि स्यात् । अपि च, अतीतकालाद्याकलितस्य वस्तुनो विद्यमानतया तेन प्रतिसंधाने भान्तत्वापत्तिः, अन्यथा च तज्ञानस्य प्रत्यक्षतानुषपत्तिः, अवर्तमानविषयत्वात् । अपि च, वस्तुनः प्रागभावध्वंसयोस्तस्य युगपद् मानाद् युगपजातमृतव्यपदेशापत्तिः । किञ्च, सर्वज्ञकालेऽपि सर्वज्ञो(ऽसर्व:) न ज्ञातुं पार्यत इति कथं तद्वाक्यविश्वासः । इति बहुसर्वज्ञकल्पनापत्तिः । तदुक्तम्- (श्लो. वा. चो, सू. १३४-३५-३६) " सर्वज्ञोऽयमिति तत् तत्कालेऽपि बुमुत्सुभिः । तम्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितर्गम्यते कथम् ! ॥१॥ कल्पनीयाश्च सर्वज्ञा भवेयुबहवस्तव । य एव स्यादसर्वज्ञः स सर्वज्ञं न बुध्यते ।।२।। सर्वज्ञो नाबबुद्धश्च येनैव, स्याद् न तं प्रति । तवाक्यानां प्रमाणत्वं मूलाज्ञानेऽन्यवाक्यवत् ॥३॥" इति । यह अभिमत नहीं है किन्तु अभिमत यह है कि आगमजन्य ज्ञान के अभ्यास से श्रवण, मनन आदि के क्रम से आगमप्रतिपाद्य धर्म आदि पदार्थों के प्रत्यक्ष ज्ञान की उत्पत्ति होती है। अतः उक्त दोष नहीं हो सकता-तां यह भी ठीक नहीं. क्योंकि परोक्षवान से अपरोक्षशान की उत्पत्ति नहीं दी जाती और नसरी बात यह है कि श्रवण, मनन आदि को धर्म आदि प्रत्यक्ष प्रमा का करण मानने पर उन में प्रत्यक्ष प्रमाणत्व की आपत्ति होगी । साथ ही यह भी शातव्य है कि सर्वश के ज्ञान में एकक्षण में ही समस्त पदार्थ का ग्रहण हो जाने से उत्तरकाल में किमी ज्ञातव्य अर्थ अघशेष न रहने से सर्वन सर्वथा अन्न हो जायगा । इस के अतिरिक्त यह भी दोष प्रसक्त हो सकता है कि यदि अन्य सन्तान में अन्य मनुष्य में विद्यमान राग आदि का साक्षात्कार यदि मर्वज्ञ को होगा तो मर्वश में गगादि की भी प्रसति होगी क्योंकि रागादि और उस के साक्षात्कार में सामानाधिकरण्य का नियम है । घुसरा दोष यह भी है कि अतीत, अनागत काल से सम्बद्ध वस्तु का विधमानतया शान मानने पर सर्वश में प्रान्तत्व की आपसि होगी और यदि उन वस्तुओं का वर्तमानत्यरूप से शान न होकर अतीतत्व आदि रूप से ही शान होगा तो सर्वज्ञ का होनेवाला उन वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्षात्मक न हो सकेगा, क्योंकि प्रत्यक्ष धर्तमानविषयक ही होता है और सर्यक्ष का उक्त वस्तुओं का ज्ञान वर्तमानविषयक नहीं है। इन सब दोषों के अतिरिक्त एक यह भी दोप है कि सर्यश को वस्तु के प्रागभात्र और ध्वंस दोनों का एक काल में भान न होने से वस्तु में एक काल में ही 'उत्पन्न और मृत' होने के व्यवहार की आपत्ति होगी। माथ ही साथ यह भी दोष है कि सर्वश के अस्तित्वकाल में भी असर्वज्ञ मनुष्यों को सर्वज्ञ का सर्वशत्वरूप में शान न हो सकेगा क्योंकि सर्वशत्य का ज्ञान सर्घशानाधीन है अतः सर्वज्ञ के वाक्य में असर्धन को विश्वास कैसे होगा? अत पप इस संकट के परिहार के लिये अनेक सर्वज्ञों की कल्पना करनी होगी। कहा भी है सर्वज्ञ के अस्तित्वकाल में भी जिन्नासुओं को यह पुरुष सर्घज्ञ है' यह शान कैसे हो सकेगा क्योंकि सर्वशता के ज्ञान में सर्वविषयक शान और उस के विषयों का ज्ञान अपेक्षित है, जो जिज्ञासुओं में नहीं है ॥ १ ॥ सर्वज्ञ का ज्ञान प्राप्त करने के लिये सर्वज्ञ के अस्तित्ववादी को अनेक सर्वक्षों की कल्पना करमी होगी फिर भी जो कोई व्यक्ति असर्वज्ञ होगा उसे सच का बोध न हो सकेगा ॥ २ ॥
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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