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________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विधचन ] किञ्च, नित्यसमाधानसंभवे विकल्पाभावाद् कथं सर्वज्ञस्य वचनम् ? । वचने वा विकल्पसंभवात् समाधानविरोधाद् न समाहितत्वं स्यात् । समाधिर्हि चित्तवृत्तिनिरोधः, विकल्पश्च चित्तवृत्तिरिति । अपिच, रागाद्या वरणाभावे परेण सार्वश्यं वाच्यम् , रजोनीहाराद्यावराणापाये वृक्षादिवर्शनस्येव रागाद्यावरणरूपविज्ञानाऽवेशद्यहेत्वपाये सर्वज्ञज्ञानस्य विशदताऽभिमानात् । तथा च रागाधमावे कथं तस्य वचनादि, पतिसामान्य हटाया पद्धवान ! १ च रागादीनामावरणत्वमपि प्रसिद्धम् , कुञ्यादीनामेव झावारकत्वप्रसिद्धिः, इति कथं तदपगमे सर्वसाक्षात्कारादयः ? इति दिग ।। ४ ।। सर्वज्ञाभावे धर्माऽधर्मव्यवस्थामेव सम्धगुपपादयितुमाहधर्माधर्मव्यवस्था तु वेदाख्यादागमास्किल । अपौरुषेयोऽसौ यस्माद्धेतुदोषविवर्जितः ॥ ५ ।। जिस पुरुष को सर्व का शान न होगा, उस पुरुष के प्रति उस के वाक्य ठीक उसी प्रकार प्रमाण म हो सकेंगे जैसे मुलभूत प्रमाण का शान न होने से अन्य पुरुष के घाव प्रमाण नहीं होते ॥ ३ ॥ [समाधिमन्नावस्था में बचनप्रयोग अशक्य ] यह भी विचारणीय है कि यदि मर्वश सर्वदा समाधिमग्न होगा तो उसे विकल्प विषयान्तर का ज्ञान न होने से यह बाक्यप्रयोग न कर सकेगा और यदि घास्यप्रयोग करेगा तो उस के लिए विकल्प आवश्यक होने से समाधि का भंग हो जाने से वह समाधिमग्न न रह जायगा, क्योंकि समाधि चित्तवृशियोंका निशोधरूप है और विकल्प चित्तवृत्तिरूप है । दूसरी बात यह है कि राग आदि आवरणों का अभाव होने पर ही जैनों को सर्वशता मान्य है, एवं जैसे धूलि, कुहरा आदि आवरण का अभाव होने पर वृक्ष आदि का दर्शन होता है उसीप्रकार विज्ञान की अविशदता-अस्पष्टता के हेतुभूत गगादि आवरणों का अभाव होने पर सर्वस के शान में विशदता-स्पष्टता अभिमत है। किंतु इसप्रकार सर्वश में जब रागादि का अभाव होगा तो याक्यप्रयोग में उम की प्रवृत्ति कैसे होगी? क्योंकि प्रवृत्ति मात्र के प्रति इच्छा कारण होली है। यह भी ज्ञातव्य है कि राग आदि में आवरणत्न प्रसिद्ध नहीं है किन्तु भित्ति आदि में ही प्रसिद्ध है अतः रागादि की नियुभि होने पर समस्त वस्तुओं के साक्षात्कार की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? इस सम्बन्ध में अब तक जो कुछ कहा गया वह प्रस्तुत विषय में दिग्दर्शनमात्र हैलेवेतमात्र है || ४ ॥ [धर्म-अधर्म की व्यवस्था वेदमूलक ] सर्वत्र के अभाव में धर्म अधर्म की व्यवस्था का सम्यक उपपादन करने के लिये पांचधी कारिका प्रस्तुत की गई है। इस का अर्थ इसप्रकार है धर्म-अधर्म की व्यवस्था का अर्थ है 'याग आदि धर्म का साधन है' इस ज्ञान से होनेवाली यागादिविषयकप्रवृत्ति और ब्रह्महत्या आदि अधर्म का साधन है' इस शान से होनेवाली ब्रह्मइत्यादि कर्मों से निवृत्ति । इस व्यवस्था की उपपत्ति 'वेद' नाम से प्रसिद्ध आगम से
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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