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स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
अथ दृश्यत् एव कामशोकायुपप्तचेतसामस्पष्टस्यापि ज्ञानस्य स्पष्टत्वम् । उक्त च'काम-शोक-भयोन्माद-रोग-शोकाग्रुपद्वैताः । अभृतानपि पश्यन्ति पुरतोऽवस्थितानिव ।।१॥' इति । तद्वदेतदपि स्यादिति चेत् ? न, तद्रदेवास्याप्याप्लुतत्वप्रसवतेः । अथागमजं ज्ञानमेयाभ्यासात् साक्षात्कारीभवतीति नाङ्गीकारः, किन्तु तदभ्यासात् श्रवणादिक्रमेण तदुत्पत्तिरिति न दोष इति चेत् ? न, परोक्षादपरोक्षोत्पत्त्यदर्शनात् , श्रवणादेः प्रत्यक्षप्रमाकरणत्वेन प्रत्यक्षप्रमाणत्वप्रसङ्गाच्च । अपि च, सर्वज्ञज्ञानेनकक्षण एव समस्तार्थग्रहण उत्तरकालं तस्याऽकिञ्चित्वप्रसङ्गः ।
___ चन्द्रसूर्य के ग्रहण आदि में प्रकृष्ट भी ज्योतिषी 'भवति' आदि शब्दों का साधुत्थ नहीं बता सकता १६ :
घेद में वर्णित इतिहास आदि के भतिशय ज्ञान से सम्पन्न भी पुरुष स्वर्ग, देवता और अपूर्व का प्रत्यक्ष करने में समर्थ नहीं होता ॥ ७॥
जो पुरुष कूद कर दश हाथ तक ही उपर झाने में समर्थ होता है वह सैंकडो बार अभ्यास करके भी एक फूद फर योजन की दूरी तक नहीं जा सकता है ॥ ८ ॥
[धर्म-अधर्म आदि का ज्ञान प्रत्यक्षादि से असम्भव ] यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि धर्म, अधर्म आदि को ग्रहण करनेवाले ज्ञान की उत्पत्ति मनुष्य को कैसे हो सकती है ? अभ्यास द्वारा इन्द्रिय से उस की उपपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि इन्द्रियों की रूप आदि विषयों में ही प्रवृत्ति होती हैं। अनुमान से भी उस की उपपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि यह धर्म आदि विषयों में नहीं पहुँच पाता। आगमान्य ज्ञान के अभ्यास से भी उस की उपपत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि सयभरचित आगम का आश्रय लेने पर चक्रक दोष की प्रसक्ति अनियाय है क्योंकि आगमाभ्यास से धर्मादि शान में सर्वशप्रणीत आगम की अपेक्षा और उस आगम के लिये सर्यक्ष की अपेक्षा और सर्वशता के लिये आगमाधीन धर्मादि ज्ञान की अपेक्षा है।
दूसरी बात यह है कि आगम से धर्मादि का जो ज्ञान होगा यह परीक्ष होने से अस्पष्ट होगा, अतः शतशः अभ्यास से भी उस में स्पष्टता नहीं आ सकती है, अतः धर्मादि का स्पद शान संभव नहीं है ।
[ सर्ववस्तुविषयक स्पष्ट ज्ञान का असम्भव ] यदि यह कहा जाय कि 'जिन मनुष्यों का चित्त काम, शोक आदि से आक्रान्त होता है उन को अस्पष्ट-परोक्ष ज्ञान में भी स्पष्टता देखी जाती है, कहा भी है कि-काम, क्रोध, भय, उन्माद, रोग, शोक आदि से आक्रान्त मनुष्य, जो उत्पन भी नहीं हैं उन्हें भी अपने समक्ष अवस्थित जैसा देखते हैं, तो जैसे उन मनुष्यों का अस्पष्ट भी शान स्पष्ट होता है उसी प्रकार धर्म आदि का आगमजन्य अस्पष्ट शान भी स्पष्ट हो सकता है'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि धर्मादिज्ञान को कामादिग्रस्त मनुष्यों के ज्ञान के समान अस्पष्ट मानने पर उन्हीं के समान धर्मादि के शाता पुरुष में कामादि से ग्रस्त होने की आपत्ति होगी ।
यदि यह कहा जाय कि-'आगमजन्य ज्ञान ही अभ्यास से साक्षात्कार रूप हो जाता है।
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