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[ शास्त्रवार्ता. १०/४
न्द्रियदर्शनात् ॥ २ ॥ प्राज्ञोऽपि हि नरः सूक्ष्मानर्थान् द्रष्टुं क्षमोऽपि सन् । स्वजातीरनतिक्राम नतिशेते परान् नरान् ॥ ३ ॥ एकशास्त्रविचारेषु दृश्यतेऽतिशयो महात् । न च शास्त्रान्तरज्ञान तन्मात्रेणैव लभ्यते ॥ ४ ॥ ज्ञात्वा व्याकरणं दूरंबुद्धिः शब्दाऽपशब्दयोः । प्रकृष्यते न नक्षत्र - तिथि - अह्णनिर्णये ॥ ५ ॥ ज्योतिर्विच प्रकृष्टोऽपि चन्द्रार्क-ग्रहणादिषु । न भवत्यादिशब्दानां साधुत्वं ज्ञातुमर्हति ।। ६ ।। तथा वेदेतिहासादिज्ञानातिशयवानपि । न स्वर्गदेवता - पूर्वप्रत्यक्षीकरणे क्षमः || ७ || दशहस्तान्तरं व्योम्ति यो नामोत्प्लुत्य गच्छति । न योजनम सौ गन्तुं शक्तोऽभ्यासशतैरपि ।। ८ ।। " [त संग्रहे ३१५९तः ३१६७ मध्ये ]
कथं च धर्मादिमाहिज्ञानस्योत्पत्तिः । ' अभ्यासादिति चेत् न, अक्षाणां रूपादादेव प्रवृत्तेः, अनुमानस्यापि धर्मादावव्यापारात् । आगमप्रभवस्यापि ज्ञानस्याभ्यासे तस्य सर्वज्ञप्रणीतस्यैवाश्रये चक्रकप्रसङ्गात्, अस्पष्टज्ञानस्याभ्यासशतेनापि स्पष्टताया अयोगाच्च ।
होने की बात कही गई है यह अल्प, अल्पतर आदि रूप में सत्तदिन्द्रियायोग्य पार्थ के ही सम्बन्ध में है ।
कहने का आशय यह है कि प्रज्ञा, मेधा आदि का उत्कर्ष जिस मनुष्य में होता है वह उस के बल से चक्षु आदि द्वारा चक्षु आदि के योग्य विषयों के सूक्ष्म सूक्ष्मतर आदि रूपों को भी देख लेता है किन्तु विषयान्तर यानी चक्षु आदि के अयोग्य विषयों के प्रकृष्टरूप को भी चक्षु आदि से नहीं देख पाता, अतः किसी भी पुरुष में अतीन्द्रियार्थदर्शितत्त्वरूप की सिद्धि नहीं हो सकती । श्लोकवार्त्तिक आदि में कहा भी है कि
जिस इन्द्रिय में जो अतिशय देखा जाता है उस में वह अतिशय उस इन्द्रिय से योग्य अर्थ का अतिक्रमण न करके ही मान्य होता है। जैसे दूर, सूक्ष्म आदि पक्ष योग्य पदार्थों का ही सातिशय चक्षु से दर्शन होता है । चक्षु से अयोग्य का नहीं । प्रक्षेत्र में कितना भी अतिशय क्यों न हो, वह रूप को नहीं देख सकता ॥ १ ॥
प्रा, मेधा आदि द्वारा जो मनुष्य अतिशययुक्त देखे जाते हैं वे भी तत्तद् इन्द्रिय से तत्तद् इन्द्रिय योग्य सूक्ष्म, सूक्ष्मतर वस्तु के दर्शन से ही अतिशय युक्त माने जाते हैं अतीन्द्रिय अर्थ के दर्शन से नहीं, क्योंकि इन्द्रिय से इन्द्रियातिक्रान्त विषय का दर्शन नहीं होता ॥ २ ॥
प्राज्ञ और सूक्ष्म अर्थों को देखने में समर्थ भी मनुष्य तत्तद् इन्द्रिय योग्य पदार्थों के स्वजातीय पदार्थों का अतिक्रमण न करते हुये भी अन्य पुरुषों से अतिशयित - उत्कृष्ट होता है न कि तत्तद् इन्द्रिय से अयोग्य पदार्थों के भी दर्शन से अन्यापेक्षया उत्कृष्ट होता है ॥ ३ ॥ कशास्त्र के विचारों में जिस पुरुष में महान् अतिशय देखा जाता है वह उतने मात्र से ही अन्य शास्त्रों का भी शान नहीं प्राप्त कर लेगा || ४ ||
व्याकरणशास्त्र का अध्ययन कर शब्द, अपशब्द के
विषय में जिस की बुद्धि बहुत दूर तक पहुँचती है वह भी व्याकरण में ही प्रकृष्ट होता है । नक्षत्र, तिथि और ग्रहण के निर्णय में प्रकृष्ट नहीं होता ॥ ५ ॥