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स्पा. क. टीका हिन्दी विवेचन ]
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एवं 'विप्रतिपन्न प्रत्यक्षं यदि सूक्ष्माद्यर्थमाहकं स्यात्, प्रत्यक्षं न स्यात्' इत्यादि प्रसङ्गसाधनमपि द्रष्टव्यम् । न च गृत्रादीनां चक्षुरादिज्ञानेऽपूर्वदशित्वाद्यतिशयदर्शनाद् नराणामपि प्रज्ञा-मेघादिभिस्तदर्शनात् कस्यचिदतीन्द्रियार्थं द्रष्टुत्वेनाप्यतिशयः स्यादिति संभावनीयम्, गुनादीनामपि स्वविषय एव रूपादों चक्षुरादेदूरदशित्वादिविशेषदर्शनात् विषयपरित्यागेन रूपादौ श्रोत्रादिवृत्तेरतिशयस्याऽदर्शनात् सर्वज्ञे चक्षुरावविषयसूक्ष्मा द्यर्थद्रष्टुत्वाऽसिद्धेः । प्रज्ञा-मेघादिभिरपि नराणां स्तोकस्तोकान्तरत्वेनैवातिशयदर्शनाद् विषयान्तरे प्रकर्षपर्यन्तं च तददर्शनादुक्ताऽसिद्धेः । तदुक्तम् — (लो. वा. चो. ११४, त. संग्रहे ३३८६ )
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यत्राप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलङ्घनात् । दूर- सूक्ष्मादिदृष्टौ स्याद्, न रूपे श्रोत्रवृत्तिता ॥ १ ॥ " येऽपि सातिशया द्वष्टाः प्रज्ञा- मेधादिभिर्नराः । स्तोकस्तोकान्तरत्वेन न त्वती
यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त रीति से अभाव विशिष्ट अधिकरणज्ञान की उपपत्ति होने पर भी प्रतियोगिविशिष्ट अभाषज्ञान की उपपत्ति अनुपलब्धि द्वारा संभव नहीं है क्योंकि अनुपलब्धि से अभाव के विशेषणरूप में भागत्मक प्रतियोगि का ग्रहण नहीं हो सकता, अत: इन्द्रिय को दी अधिकरणविशिष्ट प्रतियोगिषिशेषित अभाष का ग्राहक मानना आवश्यक होने से अभाव ग्रहण के लिये अनुपलब्धिप्रमाण का अभ्युपगम अनावश्यक हो जाता है।
किन्तु यह आशंका ठीक नहीं है, क्योंकि 'भृतले वटो नास्ति' इस अधिकरणविशिष्ट अभावज्ञान की अनुपलब्धिजन्य मानने पर भी उस में ज्ञान द्वारा उपनीत अधिकरण और प्रतियोगी का अभाव के विशेषणरूप में उपनायक शानरूपभावग्राहक सामग्री के बल से मान हो सकता है । इसप्रकार उक्त विचारों से यह सिद्ध है कि सर्वेश की अनुपलब्धिरूप अभाव प्रमाण से सर्वश का अभाव ही सिद्ध होता है न कि सर्व सिद्ध होता है क्योंकि उस का साधक कोई प्रमाण नहीं है ।
[ प्रत्यक्ष से सूक्ष्म - दूरवर्ती वस्तु का ग्रहण अशक्य ]
यह भी ज्ञातव्य है कि सर्वश के ज्ञान को यदि सूक्ष्म-दूरवर्ती आदि अर्थ - का प्रत्यक्षरूप ग्राहक माना जायगा तो यह आपत्ति हो सकती है कि विवादग्रस्त प्रत्यक्ष यदि सुक्ष्मादि अर्थ का ग्राहक होगा तो प्रत्यक्षात्मक न हो सकेगा क्योंकि अनुमानादिजन्य ज्ञानों में सूक्ष्मादि अर्थ की ग्राहकता में प्रत्यक्षत्वाभाव की व्याप्ति सिद्ध है । यदि यह कहा जाय कि 'गीध आदि को चक्षु आदि से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान में 'अपूर्वदर्शित्व' आदि अतिशय देखा जाता है: एवं मनुष्यों के ज्ञान में भी रक्षा, मेधा आदि के द्वारा अपूर्वदशित्व आदि अतिशय देखा जाता है । इसलिये किसी पुरुष के ज्ञान में अतीन्द्रियार्थशित्वरूप अतिशय की संभावना की जा सकती है और जिस पुरुष के ज्ञान में अतिशय होगा वह सर्वश ही हो सकता है । इस प्रकार इस युक्ति से भी सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध हैं तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि गीध आदि के भी चच आदि में जो दूरदर्शित्व आदि अतिशय देखा जाता है, वह चक्षु के विषय 'रूप' आदि में ही सीमित है, क्योंकि अपने विषय का परित्याग कर रूप आदि अन्य विषयों के सम्बन्ध में श्रोत्र आदि में अतिशयं नहीं देखा जाता, अतः सर्वश में चक्षु आदि के अयोग्य सूक्ष्म, व्यवहित आदि अर्थ का दर्शनरूप अतिशय असिद्ध है । प्रज्ञा, मेधा आदि से मनुष्यों में जो अतिशय