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________________ १८ ] [साबार्ता १० यदि यः कसा जार शि.अभाचाधिकरणाम धर्मी का इन्द्रियजन्यज्ञान-यह तो इन्द्रिय का व्यापार हैं । अत: उस से इन्द्रिय को अन्यथासिद्ध नहीं मान सकते; क्योंकि व्यापार से व्यापारी अन्यथासिन्द नहीं होता; अन्यथा संयोग आदि सन्निकर्ष से प्रतियोगीप्रत्यक्ष के प्रति भी इन्द्रिय अन्यथासिद्ध हो जायभी'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अभावधान में इन्द्रियजन्यत्व सिद्ध होने पर ही अधिकरण शान में इन्द्रियजम्यत्वं ससि इन्द्रियजन्याभावज्ञानमनकायस्प व्यापारत्व की सिद्धि हो सकती है । अत: अभावशान में इन्द्रियजन्यन्त्र की सिद्धि के लिप. अधिकरणप्रत्यक्ष में इन्द्रियव्यापारत्व की सिद्धि की अपेक्षा होने में एवं इस सिद्धि में अभावशान में इन्द्रिय जन्यत्वसिद्धि की अपेक्षा होने से अन्योन्याश्रय स्पष्ट है । फलत: अधिकरणप्रत्यक्ष को व्यापार मान कर, 'उस से इन्द्रिय अन्यथामिद्ध नहीं हो सकती' यह कहकर इन्द्रिय में अनन्यथासिद्धत्व को स्थापित कर के उसे साधन का अव्यापक बताते हुये, उस के उपाधित्व का परिहार करने का प्रयास सफल नहीं हो सकता । यदि यह शङ्का की जाय कि-'अभावभ्रम दुष्टकरण में जन्य होता है और पित्त आदि रोग से जन्य दोष इन्द्रियरूप करण में ही उपपन्न होता है अतः इन्द्रिय को अभावभ्रम का करण मानना आवश्यक होने से उसे अभाव प्रभा का भी करण मानना न्यायप्राप्त है। कारण, जिस दोषयुक्त करण से जिम वस्तु का ग्रहण होता है दोष के अभाव में उस करण से ही उस वस्तु की प्रमा भी होती है-यह सर्वसामान्य न्याय है'-तो यह शङ्का ठीक नहीं हैं क्योंकि जैसे इन्द्रिय में दोषसाहित्यरूप दुष्टता होती है पैसे यह अनुपलब्धि में भी हो सकती है अत: यह पक्ष भी उचित है कि दुष्ट अनुपलब्धि से अभाव का भ्रम होता है और दोष में असन्निहित अनुपलब्धि से अभाव की प्रमा होती है । [अभावज्ञान इन्द्रियजन्य होने की दीर्घ आशंका] गदि यह आशंका की जाय कि-'भृतले बटो नास्तिम्भूतल में घटाभाष है। इस प्रकार जो अधिकरणविशिष्ट अभाव की बुद्धि होती है उस को आप के मत में इन्द्रियजन्य नहीं माना जा सकता क्योकि वह बुद्धि अभावविषयक है और अनुपलब्धिप्रमाणवादी के मन में इन्द्रिय मे अभाविषयक बुद्धि नहीं होती । उक्तबुद्धि को अनुपस्धिरूप करण से भी जन्य नहीं माना जा सकता क्योंकि वह अधिकरणरूप भाव पदार्थ को विषय करती है और सिद्धान्त यह है कि अनुपलब्धि अभावुद्धि का ही करण होती है, भावुद्धि का नहीं । उक्त बुद्धि को इन्द्रिय और अनपलधि उभय से भी जन्य नहीं माना जा सकता कि दो प्रमाणों में विरोध होने प्राणों में एक अद्धि का जन्म नहीं हो सकता । और यदिदो प्रमाणों में विरोध न मान कर दोनों से एकधुद्धि की उत्पत्ति मानी जायगी तो दो प्रमाणों के जन्यतावच्छेदक दो जातियों में सांकर्य हो जायगा, क्योकि पकैकममाणमा प्रजन्य बुद्धियों में ये जातियो परस्पर अभाव की समानाधिकरण होगी और प्रमाणयजन्य एकबुद्ध में दोनों का समानाधिकरण्य भी होगा । अत: इन्द्रिय को ही अधिकरणविशिष्ट अभावज्ञान का जनक मानना उचित है क्योंकि अनुपलब्धि का प्रामाण्य विप्रतिपत्तिग्रस्त है और इन्द्रिय का प्रामाण्य भावपदार्थों के सम्बन्ध में निर्णीत है। यदि बीच में यह कहा जाय कि जैसे घ्राण द्वारा ज्ञात सौरभ से विशिष्ट चन्दन की 'सुरभि चन्दनम्' अथवा 'चन्द ने सौरभम' इसप्रकार की चाक्षुष उपलब्धि होती है वैसे ही अनुपलब्धि से गृहीत अभाव से विशिष्ट भृतल की भी चाक्षुष उपलब्धि हो सकती है क्योंकि उस उपलब्धि में विशेषणभूत अभाव का ग्रहण अनुपलब्धि प्रमाण से सम्पन्न हो जाता है तो
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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