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स्या० का टोका एवं हिन्वीविवेचन ]
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"ज पि बत्थं च पायं वा कंबलं पायपुछणं ।
तं पि संजमलज्जट्टा धारंति परिहरति अ॥१॥" इत्यादि । अत्र चाऽदग्धदहनन्यायेन यावदप्राप्तं तावद् विधेयम् , इति यस्त्रधरणस्य लोकत एवं प्राप्तत्वाद् ह्री-कुत्सा-परीपहनिमित्तं तद्ग्रहणं नियम्यते । तत्र च निमित्तत्रयमपि जिनकल्पाऽयोग्यानां निरतिशयानामधिकारिणामावश्यकम् , अथवा, हीपदार्थः संयमलज्जा, सैव मुख्य निमित्तम् , इतरत्तु द्वयं तदुपकारि निमित्तम् , तदुक्तं भाष्यकृता-[वि०आ०मा० २६०२-३] तुस्त्यज है, क्या बसे ही गुणवान् सुकृतो पुरुषों को वस्त्र प्रादि उपकरण दुस्त्यज नहीं है ? अत: उचित यह है कि किसी एक पक्ष का आग्रह त्याग कर पवित्र भाव से इस कथन पर विचार किया जाय । विचार करने से यह वस्तुस्थिति स्पष्ट हो जाती है कि जैसे धर्म साधनार्थ शरीर को दीर्घकाल तक सुरक्षित रखने के लिये पाहार दुस्त्या है, उसी प्रकार शरीर के रक्षार्थ वस्त्रादि उपकरण भी दुस्त्यज है। यदि यह कहा जाय कि- वस्त्रादि के बिना भी जीवन सम्भव होने से उसे दुस्त्यज बताना धष्टता है तो इस कथन के समान ही यह भी कहा जा सकता है कि आहार के बिना भी कुछ दिन तक जीवन सम्भव होने से आहार को भी दुस्त्यज कहना षष्टता है, क्योंकि 'जैसे क्षुधा से पीड़ित व्यक्ति के प्रातंध्यान का औषध भोजन है. वैसे ही शीत आदि से त्रस्त व्यक्ति के लिये वस्त्रादि का सेवन भी प्रौषध है। इसके प्रतिवाद में विम्बरों की ओर से यदि यह कहा जाय कि-"जैसे शीत आदि से त्रस्त व्यक्ति के लिये वस्त्रादि का सेवन उचित है । उसी प्रकार कामिनी के प्रभाव से उत्पन्न होने वाले दुष्टध्यान के प्रवाह को रोकने के लिये सुन्दरी तरुणी का सेवन भी यति के लिये उचित होना चाहिये-तो इसका उत्तर यह है कि ऐसी बात आहारग्रहणऔचित्य के विरोध में भी कही जा सकती है, जैसे यह कहा जा सकता है कि दिगम्बर जैसे विहित आहार ग्रहण करते हैं, वैसे वे मांस का प्राहार क्यों न ग्रहण करें, क्योंकि सामिष-निरामिष दोनों ही आहार समानरूप से शरीर के पोषक हैं। यदि यह कहा जाय कि-'मांसाहार से तामसवृत्ति का प्रकटन होता है तो यह बात तो कामिनी सेवन के सम्बन्ध में भी समान है। व्याख्याकार दिगम्बर को मित्र शब्द से सम्बोधित कर कहते हैं कि तरुणी के सम्पर्क से किस पुरुष का मन कलुषित नहीं हो सकता! क्योंकि स्पष्ट है कि निर्मल भी जल पडू के सम्पर्क से मलिन हो जाता है। क्या शास्त्रवलों ने स्त्रियों को स्वाद से अजन्य व्याधि, भूमि से अजन्य विषलता आकाश से अजन्य यच एवं शरीरधारिणी मारण विद्या नहीं बताया है ! ?
उक्त विचार के अनुसार यह निर्विवाद सिद्ध है कि जैसे दुष्टभयान का विघातक और शुमध्यान का संपावक होने से यतियों के लिये शास्त्रविधान के अनुसार प्राहार का ग्रहण उचित है, उसी प्रकार शास्त्र विधान के प्रनुसार वस्त्रआदि उपकरणों का सेवन भी उचित है । उपकरणों के विधायक शास्त्रवचन का अर्थ यह है- यति को तीन स्थानों से यानी निमित्त से वस्त्रधारण करना चाहियेलज्जा के लिये, जुगुप्सानिवारण के लिये एवं दुस्सह शीत आदि से बचने के लिये। तथा, संयम और लज्जा के लिये जो भी वस्तु अपेक्षित होती है, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पर का प्रोग्छन आदि, यति उसका ग्रहण और त्याग करते हैं ।। 卐 यदपि वस्त्रं च पा वा कम्बलं पादप्रोञ्छनम् । तदपि संयमलज्जार्थ धारयन्ति परिहरंति च ।।५।।