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________________ ४४ ] [ शास्त्रवाहित लो० ४ ।। "*विहियं सुए चिय जओ धरेज्ज तिहि कारणेहिं वत्थं ति । तेणं चिय तदवसं णिरतिसएणं धरेअव्वं ॥१॥ जिणकप्पाजोग्गाणं ही-कुच्छ-परीसहा जोऽवस्सं । ही लज्जं ति व सो संजमो तयत्थं विसेसेणं ॥ २ ॥" इति । यदि च नैमित्तिकत्वाद् वस्त्रादिग्रहणमयुक्तमित्युद्भाव्यते, तदाऽऽहारग्रहणमध्ययुक्तं स्यात्, तस्यापि नैमित्तिकत्वात् । तदुक्तं स्थानाङ्गे- छहिं ठाणेहि समणे णिग्गंथे आहारमाहारेमाणे गाइक्कमइ, तं जहा-वेअणवेयावच्चे, इरिअढाए अ संजमहाए तह पाणवत्तिआए, उदु गुप प्रभावितार" ! ०१०१० ] इति । [ वस्त्रधारण का विधान नियमरिधिरूप] इस सन्दर्भ में यह ज्ञातव्य है कि वस्त्रधारण की उक्त विधि अपूर्व विधि नहीं है, क्योंकि जैसे दम्ब का दाह न होकर अदग्ध का ही वाह होता है, से ही प्राप्त की विधि न होकर प्रप्राप्त की ही अपूर्व विधि होती है । वस्त्रधारण पत: अनेक निमित्त से लोकतः प्राप्त है, अतः शास्त्र द्वारा वस्त्र धारण का अपूर्व विधान न होकर लज्जा, कुत्सा और परोषहरूप केवल तीन निमित्तों से उसका नियमन होता है, अतएव वस्त्रधारण की उक्त विधि नियम विधि है। इस प्रसङ्ग में यह ध्यान रखना उचित है कि-'जिनकल्प' के लिये अयोग्य अतिशयशून्य अधिकारियों के लिये उक्त तीनों ही निमित्त अवश्यंभावि हैं। प्रथवा उक्त निमित्तों में' 'हो' का अर्थ है सयम यानी विशिष्ट लज्जा, यति के वस्त्रधारण में बही प्रधान निमित्त है, अन्य यो कुत्सा और परोषह 'ही' के सहकारी निमित्त हैं । इस बात को भाष्यकार ने भी कहा है, जैसे-तीन कारणों से शास्त्रविहित वस्त्र को धारण करना उचित है, अतः निरतिशय-सामान्य यति को उन कारणों से वस्त्रधारण करना चाहिये, क्योंकि जिनकल्प के अयोग्य मुनियों को लज्जा कुत्ता और परीषह अवश्य होते हैं । अथवा यति को विशेष रूप से 'ही' (लज्जा वश हो वस्त्रधारण करना प्रावश्यक है, क्योंकि 'ह्रीं' का अर्थ है लज्जा एवं संयम और वही यति के लिये मुख्य पालनीय है । यदि यह कहा जाय कि-'वस्त्रधारण निमित्तमूलक होने से अयुक्त है'-तो यह कयन प्राहारग्रहण के सम्बन्ध में भी सम्भव है क्योंकि वह भी निमित्तमूलक ही है। उसको निमित्तमूलकता सत्यानाङ्ग' सूत्र में कही गई हैं, जैसे-'श्रमण छ: निमित्तों से आहार का प्राहरण करने पर भी विहित प्रत एव यतो धारयेत् त्रिभिः कारणवस्त्रमिति । तेनैव तदवश्यं निरतिशयेन धारयितव्यम् ।। जिनकल्पाऽयोग्यानां हो-कुरसा-परीषदा यतोऽवश्यम् । होर्लज्जेति वा स संयमस्त दर्थ विशेषेण ।। २।। १. पभिः स्थानः श्रमणा निग्रन्था आहारमाहरन्तो नातिबामन्ति, तद्यथा-वेदन या वैयावृत्त्ये, ईर्थिम् , ___ संयमार्थम् , तथा प्राणवृत्त्यै, षष्ठं पुनधर्मचिन्तया। २. स्थानाङ्ग'-तृतीय क्रमांक का आगम शास्त्र ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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