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________________ स्या० का टीका एवं हिन्दीविवेचन ] अथ ज्ञानादिपुष्टालम्बनेनाऽदुष्टाहारग्रहणे न दोषः, वस्त्रादेस्तु मलादिदिग्धस्य यूकादिसंमूर्छनानेकसत्त्वहेतुतया तग्रहणे तद्व्यापत्तरवश्यंभावात , तत्ग्रहणमपौष्टालम्यनिकत्वाद् न न्याय्यमिति चेत् ? न, आहारग्रहणेऽप्यस्य दोषस्य समानत्वात् । संभवन्त्येव धागन्तुकाः संमूच्छेनजाश्चानेकप्रकारास्तत्र जन्तवः, तत्परिभोगे चावश्यंभावी तेषां विनाशः, मुक्तस्य च कोष्ठगतस्य संसक्तिमत्त्वात् तदुत्सर्गेऽनेकहम्यादिव्यापत्तिरवश्यंभाविनीति । अथावधानेन तत्परिभोगादिकं विदधतो न सत्यव्यापत्तिः, व्यापत्तौ वा शुद्धाशयस्य तद्रक्षादौ यत्नवती गीताथेस्य ज्ञानादिपुष्टावलम्बनप्रवृत्तेरहिंसकत्वाद् न तद्ग्रहणमन्यायमिति चेत् ? तुल्यमिदमन्यत्र । अथ वस्त्रादेमलदिग्धस्य पालनेऽप्कायादिविनाशो चाकुशिकन्वं चाऽझालने च संसिक्तदोष इत्युभयतःपाशा रज्जुः, इति न ताहणं युक्तमिति चेत् ! आहारादिग्रहणेऽपि तुल्यमेतत् , तद्दिग्धस्याऽऽस्यादेः प्रक्षालनादपकायविनाशाद , अग्रक्षालने च प्रवचनोपघातादिति । प्रासुकोदकादिना यत्नतः प्रक्षालने दोषाभावोऽप्युभयत्र तुल्य इति । .- -.निग्रंथ रहते हैं, निर्ग्रन्थ को मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करते जिन छ: निमित्तों से यति को प्राहारप्रहण को सम्मति दी गई है, ये हैं वेदना, वैयावृत्य, ईर्या, संयम, प्राणरक्षा तथा धर्मचिन्तन । [ वस्त्रग्रहण में जीयोत्पत्ति आदि दोप का निरसन ] यदि यह कहा जाय कि-'ज्ञान प्रादि पुष्ट आलम्बन से निर्दोष आहार का ग्रहण होने से उसमें नैमित्तिकता प्रयुक्त अनौचित्य दोष नहीं है किन्तु वस्त्रादि ग्रहण में मनोनित्य दोष अनिवार्य है क्योंकि वस्त्रादि के मलिन होने पर उसमें यूका आदि अनेक मलप्रभव जीवों की उत्पत्ति होती है, वस्त्रादि को ग्रहण करने पर उन जीवों का नाश अवश्यम्भावी होता है अतः पुष्टालम्बन पर प्राश्रित न होने से वस्त्रादि ग्रहण न्यायसंगत नहीं हैं तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि यह वोष पाहार ग्रहण में भी विद्यमान है, क्योंकि प्रम्हार में प्रागन्तुक तथा 'सम्मूर्छनजन्य अनेक प्रकार के जीव होते हैं, आहार का सेवन करने पर उन जीवों का नाश अवश्य होता है। एवं परिभुक्त माहार कोष्ठ में पहुंचकर संसक्तिमान-जन्तुसंपृक्त हो जाता है, अतः उसका-त्याग करने पर मलत्याग के स्थान में विद्यमान कृमि आदि अनेक गोषों का विनाश भो अवश्य होता है। यदि यह कहा जाय कि-'सावधानी से आहार-सेवन तथा मलत्याग करने पर जीवों का नाश नहीं हो सकता और उत्तरोति से जीयों का नाश यदि सम्भव भी हो तब भी आहार ग्रहण अयुक्त .--.--- १. निग्रन्थ-क्रोधादि आत्मशत्रु को ग्रन्थ कहते हैं-उसके त्यागी को निग्रंथ । २. वेदना-क्षधा लगने ___ पर उस का शमन करने के लिये । ३. वैयावृत्त्य-गुरुदेव और अन्य वडिलों की सेवा-सुश्रुषा । ४. ई-चलते समय किसी भी सूक्ष्म जंतु का पादाक्रमण न हो ऐसी सावधानी । ५. सम्मुच्छिम-गर्भ के विना ही जिनकी उत्पत्ति हो ऐसी कुछ जीवसरिट ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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