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[ शास्त्रवार्ता स्त। ६ श्लो०४
शुद्धाहारादिव शुद्धोपकरणादनेकगुणसंभवस्तु निरपाय एव । तथाहि-समस्तरात्रिजागरणं कुर्वतां साधूना तुषारकणगणप्रवर्षिणिशीतकाले यतनया कल्पनावरणेन भवति स्वाध्यायनिर्वाहः । तथा, सचित्तपृथिवी-धूमिका-वृष्टिं-अवश्याय-रजः-प्रदीपतेजाप्रभृतीनां रक्षापि तैः कृता भवति तथा. मृताच्छादन-बहिनयनाधर्थ ग्लानप्राणोपकारार्थ च भरति वस्त्रस्योपयोगः; तथा संपातिमरजोरेणुप्रमार्जनाद्यर्थं मुखवस्त्रस्य, आदान-निक्षेपादिक्रियायां पूर्व प्रमार्जनार्थ लिङ्गार्थ च रजोहरणस्य, वाट्यादिनिमित्तबिक्रियावल्लिङ्गसंवरणाद्यर्थ च चोलपट्टपटलादेरिति ।
नहीं हो सकता क्योंकि आहारग्रहीता यति शुद्धाशय वाला होता है, जीवरक्षा के लिये यत्नशील रहता है तथा 'गीतार्थ होता है। अत: ज्ञान प्रादि पुष्ट आलम्बन पर आधारित होने से उसकी प्रवृत्ति अहिंसक होती है तो यह बात वस्त्रादि ग्रहण में भी समान है।
यदि यह कहा जाय कि-"मलयुक्त वस्त्रादि का प्रक्षालन करने पर प्रकाय आदि जीवों का नाश होगा और यति को बाकुशिकता - (वस्त्र को विभूषा आदि दोष) को प्रसक्ति होगी और यति यदि वस्त्र मलित हो जाने पर उसका प्रक्षालन न कर उसे ही यथापूर्व धारण करता रहेगा तो संसक्तिदोष-यति के देहसंपर्क से वस्त्रगत मालिन्यजन्य जीवों के घातक होने का दोष प्रसक्त होगा। प्रतः मलिन वस्त्र को धोने एवं न घोने दोनों ही दशा में दोष होने से उभयथा बन्धन की प्रसक्ति होने के कारण यस्त्राविग्रहण अनुचित है"-तो यह दोष आहारग्रहण में मो समान है, क्योंकि पाहार से संसक्त मुख आदि का प्रक्षालन करने पर अप्काय जीवों के नाश की और प्रक्षालन न करने पर जूठेमुख प्रवचन की निंदा होने से प्रवचन-विनाश को आपत्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि-'जीवों का घात न हो ऐसी सावधानी के साथ जीवरहित (अचित्त) अल्प जल से मुखादि का प्रक्षालन करने पर उक्त दोष सम्भव न होने से आहार ग्रहण का औचित्य अक्षुण्ण हैं'-तो यह बात वस्त्रादिग्रहण के पक्ष में भी समान है।
[ वस्त्रग्रहण के अनेक लाभ ] यह ज्ञातव्य है कि जैसे शुद्ध आहार में अनेक गुण होते हैं, वैसे ही शुद्ध उपकरण में भी अनेक गुण निधि रूप से विद्यमान हैं, जैसे हिमकणवर्षी शीतकाल में यतनापूर्वक वस्त्रावरण से समूची रात जागने वाले साधुवों के स्वाध्याय का निर्वाह होता है। वस्त्रावरण से सचित्त पृथिवी, धमिका, वृष्टि, अवश्याय, रज और प्रदीप के तेज आदि को रक्षा होती है एवं मृत के ऊपर माच्छादन तथा बहिर्गमन आदि में तथा गीत से मरणासन्न साधु को प्राण रक्षा में भी वस्त्रादि का उपयोग होता है, इसी प्रकार आकाश से गिरने वाले रजःकण धुली आदि के प्रमार्जन में मुखवस्त्र की; आदान,
१. गीतार्थ मूत्र और उनके अर्थ को सद्गुरु के पास अच्छी तरह पढ़ा हुआ। २. अप्काय-जलद्रव्य को
शरीररूप में परिणत कर के धारण करने वाले जीवसमूह। ३. यतना-जीवघात न हो ऐसी
सावधानी। ४. सचित्तपृथिवी- पृथ्वी द्रव्य को दारीररूप में धारण करने वाले जीवसमूह । ५. धूमिका और अवश्याय-ये दोनों अप्कार के भेदविशेष है ।