________________
स्था० ६० टोका एवं हिन्दीविषेचन ]
अथ वस्त्रादिपरिग्रहस्तृष्णापूर्वकः, तद्विषयग्रहण-मोचनादिप्रक्रमस्य तां विनानुपपत्तः । अत एव परप्राणव्यपरोपणस्याऽशुद्धोपयोगसद्भावा-ऽसद्भावाभ्यामनैकान्तिकच्छेदत्वेऽप्युपधेरशुद्धोपयोगेनैव परिग्रहसंभवादैकान्तिकच्छेदत्वमाम्नातम् ; तथा च प्रवचनसारकृत-[३-१९]
अहवदि च ॥ यदि बंधो मदेऽध जीवेऽध कायचेट्टम्मि।
बंधो धुवमुवधीदो इदि सवणा छडिआ सन्नं ।। १॥ इति । अत एव चैतद्व्याख्याताऽमरचन्द्रोऽप्याह-"न खलु वहिरङ्गसङ्गसद्भावे, तुपसद्धावे तण्डुइनमें प्रथम अर्थ को ग्रहण करने पर उक्त हेतु विशेष्यासिद्धि दोष से ग्रस्त होगा. क्योंकि गादि के अपचय में हेतुभूत सम्पगज्ञान आदि का विरोधी न होने से सम्यगज्ञानादि को विपक्षता वस्त्रादि ग्रहण में असिद्ध है। देशतः निर्ग्रन्थता का ब्राह्मवस्त्राभावरूप दूसरा अर्थ भी मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें रागादि के अपचय की हेतुता असिद्ध होने से हेतु विशेषणासिद्धि दोष से ग्रस्त होगा। 'वस्त्रादि के प्रभाव में रागादि के अपचय को हेतुता प्रसिद्ध ही है', ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि घस्त्रादिहोन कपोत आदि में प्रतिशय राग होने से बस्त्रादि के अभाव में रागादि के अपचय को कारणता में व्यभिचार है । वेशतः निर्ग्रन्थता का 'पुरुषत्वविशिष्ट वस्त्रादिकाभाव' अर्थ करके भी व्यभिचार का परिहार नहीं किया जा सकता क्योंकि अनार्यवेश में उत्पन्न वस्त्रादि-होन पुरुषों में भी रामादि का अपक्षय नहीं होता। आर्यदेशोत्पन्न पुरुषत्व का उक्त अर्थ के शरीर में प्रवेश करके भी व्यभिचार का वारण नहीं किया जा सकता, क्योंकि आर्यदेशोत्पन्न कामुक व्यक्ति वस्त्रहीन पुरुष होते हुये भी रागाविमान होते हैं । आर्यवेशोत्पन्न व्रतधारि पुरुषत्व विशेषण से भी व्यभिचार का निरास नहीं किया जा सकता, क्योंकि पाशुपत सम्प्रदाय के व्यक्ति आर्यवेशोत्पल व्रतधारी वस्त्रहीन होते हुए भी रागाविमान होते हैं, जनशासन को प्रमाण मानने वाले आर्यदेशोत्पन्न प्रतधारी पुरुष का विशेषण दल में प्रवेश करके भी व्यभिचार का निराकरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि उन्मत्त दिगम्बर उक्त प्रकार का पुरुष होने पर भी रागादिमान होते हैं । विशेषण को कुक्षि में अनुन्मत्तत्व का प्रवेश करने से भी व्यभिचार का परिहार नहीं हो सकता, क्योंकि मिथ्यात्य से युक्त व्यलिङ्गधारी दिगम्बर यथोक्त पुरुष होते हए भी रामाविमान होते हैं। सम्यगवर्शनादि से विशिष्ट वस्त्राद्यमाव को भी रागादि के अपचय का हेतु नहीं कहा जा सकता, क्योंकि 'सम्यगदर्शनादिरूप विशेषणा मात्र हो रागादि का अपचय उत्पन्न करने में समर्थ है, अतः हेतुगर्भ में वस्त्रायभान प्रवेश की प्रावश्यकता न होने से हेतु में असमर्थविशेष्यत्व को आपत्ति होगी।
दूसरी बात यह है कि जैसे यति-योग्य आहार के प्रभाय में वर्तमान कालीन मनुष्यों में विशिष्ट श्रुत-संहनन (देहावययों को सुदृढ़ रचना) न होने से कार्यक्षम शरीर की स्थिति नहीं रहती, उसो प्रकार वस्त्रादि बाह्य धर्मोपकरणों के अभाव में भी अवयवों के समुचित संहनन न होने से कार्यक्षम शरीर की स्थिति नहीं रह पाती अतः वस्त्रादि के अभाव में सम्यग्जानादिरूप विशेषण को उपपत्ति १ भवति वा न भवति बन्धो मृतेज्य जीवेऽथ कायचेप्टायाम् ।
बन्धो ध्र वमुपधित इति श्रमणा छदिताः सर्वम् ।। १ ।।