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[ शास्त्रवार्ता स्स० ६ श्लो. ४
लगताऽशुद्धत्वस्येवाऽशुद्धोपयोगरूपस्यान्तरङ्गच्छेदस्य प्रतिषेध इति । तथा च तृष्णाप्रभववस्त्रग्रहणाभावः स्वकारणनित्तिमन्त नेपानपानमाजोनामादिलिगमभुतसम्यन्वानाद्युत्कप विधायकखात् कथं तद्भावबाधकत्वेनोपदिश्यते ?" इति चेत् ? न, साधूना वस्त्रादिग्रहणस्य प्राप्तेष्टवस्त्ववियोगाध्यबसाना-प्राप्ततदभिलाषलक्षणात ध्यानरूपतृष्णापूर्वकत्वाऽसिद्धः, कायकृतादान-निक्षेपादिचेष्टावत आहारग्रहणवद् श यथाविधि धर्मसाधनत्वमत्या साधुभिवस्त्रादिग्रहणात् । नहीं हो सकती, क्योंकि वस्त्रादिहोन दुर्वल मनुष्य द्वारा सम्यग्ज्ञानादि का उपार्जन सम्भव न होने से वस्त्रायभाषरूप विशेष्य का सद्भाव ही सम्यग्ज्ञानादिरूप विशेषण के सद्भाव का बाधक है।
[ वस्त्रादिपरिग्रह में एकान्तिक छेद की आशंका ] यदि यह कहा जाय कि-'वस्त्रादि का परिग्रह तृष्णाजन्य है, क्योंकि तृष्णा के विना वस्त्रादि के ग्रहण मोचन आदि व्यापार की उपपत्ति नहीं हो सकती। परप्राण का हरण 'अशुद्ध उपयोग के सद्भाव-असद्भाव वोनों से सम्भावित होने के कारण यह प्रशुद्ध उपयोग यानो च्छेव (शुद्धोपयोगविरोधी) अनेकान्तिक है। किन्तु परिग्रह तृष्णाजन्य ही होने से उपधि-वस्त्रादि का परिग्रह अशुद्ध उपयोग-तृष्णारूप मलिनभाव से ही जन्य होने के कारण वह अशुद्ध उपयोगात्मक छेव ऐकान्तिक कहा गया है-अर्थात् परप्राणव्यपरोपण में अशुद्ध उपयोग ही हो ऐसा नियम नहीं है किंतु वस्त्रादिग्रहण में एकान्तम अशुद्ध उपयोग ही होने का नियम है। प्रवचनसार में मो यही बात एक कारिका द्वारा प्रतिपादित किया है-कारिका का अर्थ इस प्रकार है-"शरीर प्रवृत्ति से कोई जीव मरे वहां कम का बन्ध हो या न हो निश्चित नहीं है क्योंकि वीतराग की शरीर प्रवृति में कदाचिद जीवधात होने पर भी उन्हें रागादि न होने से कर्मबन्ध नहीं होता, और सराग को होता है। पर यह निश्चित है कि उपधि-वस्त्रादि परिग्रह से ( सृष्णागृहीत होने के कारण ) कर्म का बन्धन होता ही है, इसलिये श्रमणों ने सभी परिग्रहों का त्याग किया है।" तृष्णा-मूलक कार्य से बन्ध होने के कारण ही प्रवचनसार को प्रस्तुत कारिका के ध्याख्याता अमरचन्द्र ने भी कहा है कि-"जैसे तुष के रहते साल में अशुद्धता का प्रभाव नहीं होता उसी प्रकार बहिरङ्ग वस्सुवों के पास में रहते हुए अशुख-उपयोगरागाविमलिन भावयुक्त ज्ञानरूप अन्तरङ्गमछेद यानी अन्तरङ्ग अशुद्धि का भी अमाव नहीं होता।
स्पष्ट है कि यतः वस्त्रग्रहण तृष्णाजन्य है अत: वस्त्रग्रहण का अभाव तृष्णारूप कारण के अभाव से हो हो सकता है। इसलिये जहां वस्त्रग्रहण का भाव होगा, यहां निश्चय ही रागादि के अमाव संपावनार्य रागादि के विरोधी सम्बगहानादि का उत्कर्ष होगा; अतः वस्त्रादिग्रहणाभाव को सम्यग ज्ञानादि के सद्भाव का वाधक कहना कसे संगस हो सकता है ?"
[ऐकान्तिक छेद की आशंका का समाधान ] इस प्राक्षेपात्मक कथन के उत्तर में श्वेतांबरों का कहना है कि साधु के वस्त्रादि ग्रहण में १-अशुद्ध उपयोग-राग-द्वेषसहित शान २-उपधिपरिग्रह-वस्त्रपात्रादि का ग्रहण । ३-अन्तरङ्गच्छेद-अन्तरङ्गअशुद्धि ।
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