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स्या०० टीका एवं हिन्दीविश्वेचन ]
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इत्थं च परप्राणव्यपरोपणस्यानै कान्तिकच्छेदत्वेऽप्युपधेरै कान्तिकच्छेदत्वमणनं गाढाभिनिवेशगरलपानस्यैवोद्गारः, शुभोपयोगसंभविप्रमानादिव्यापारकधर्मोपकरणस्य शुद्धपिण्डपुष्टशरीरवत् त्रिकोटीपरिशुद्धाहारवद् वा नियमतः संयमोपकारकत्वादेर । 'शुभोपयोगोऽपि शुद्धोपयोगस्य च्छेद एव' इति निश्चयेऽभिनिविशमानस्य तु विना शैलेशीचरमसमयं मुक्त्यायसमयं वा न कुत्रापि संयमशुद्धिविश्रामः, शुभोपयोगे सति शुद्धीपयोगानश्काशवत् प्राच्यविशुद्धौ सत्यामप्युत्तरविशुद्धयनवकाशात् । न च शुद्धोपयोगरूपमेव चारित्रं सिद्धान्तितम् । किन्तु मूलगुणविषयस्थैर्यपरिणामरूपम् , तदुपकारित्वमेव च वस्त्रादेः, इति कथं नत्सद्भावे तच्छेदः ?!
इत्थं च 'तुष पटाने लगडलाऽदिवा वस्त्रादिसद्भाव आत्मनोऽशुद्धिः-इत्यमरचन्द्रोक्तमपि प्रत्युक्तम् , तुप-वस्त्रादेरेकरीत्याऽविशुद्धत्वापादकत्वाऽसिद्धेः 'तुपस्यापि विलक्षणपक्तिविरोधित्वादिरूपाऽशुद्धिनियमाऽसिद्धिः, सतुषमुगादेः सिद्धिदर्शनात्' इत्यपि वदन्ति । तृष्णाजन्यस्व प्रसिद्ध है, क्योंकि प्राप्त इष्ट वस्तु के वियोग न होने की इच्छा को एवं अप्राप्त इष्ट वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा को मार्तध्यान कहा जाता है, यह आतध्यान ही तृष्णा है, यह साधु को नहीं होती, अत: उसका वस्त्रादि-ग्रहण तणा से नहीं होता; किन्तु शरीर से किये जाने वाले प्रहण-परित्यागरूप वेष्टा के समान तृष्णा मादि के बिना ही होता है । अथवा यों कहा जा सकता है कि साधु से आहार को धर्म-साधन समन कर ग्रहण करता है उसी प्रकार वस्त्रादि को धर्म-साधन समझ कर विधिपूर्वक उसे ग्रहण करता है, न कि तष्णा से ग्रहण करता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि परप्राणहरण को अनेकान्तिकच्छेद यानी अनेकान्तिक-संयमअशुद्धि कहकर उपधि को जो ऐकान्तिकच्छेद एकान्तेन संयमभशुद्धि कहा गया है, वह दिगम्बरस्य के गाद अमिनिवेशरूप विषपान का ही उद्गार है, क्योंकि वस्त्र आदि धर्मोपकरण 'शुभ उपयोग से होने होने वाले प्रमार्जन आदि व्यापार के द्वारा संयम की साधना में उसी प्रकार नियम से उपयोगी है, जैसे शुद्ध आहार से पुष्ट किया हुमा शरीर अथवा त्रिकोटिपरिशुद्ध आहार संयम की साधना में उपयुक्त होता है।
'शम उपयोग भी शद्ध उपयोग का छेद ही है.'-रस निश्चय में जिस मनुष्य को अभिनिवेश है उसको तो संयम शुद्धि का विश्राम यानी चरम सीमा 'शैलेशी अवस्था का अन्तिम समय अथवा मोक्ष का आद्य समय जब तक उपस्थित नहीं होता, तब तक नहीं होगा। क्योंकि जैसे शुभ उपयोग होने पर शुद्ध उपयोग का प्रभाव रहता है वैसे ही पूर्व विशुद्धि हो जाने पर भी उत्तर विशुद्धि का १. शभ उपयोग-प्रशस्त राग-सहचरित शम अध्यवसाय । २. प्रमाणन जीव रक्षार्थ मृदु औधिक
रजोहरण से पूंज-प्रमाण लेना। ३. निकोटि परिशुद्ध करण-करावण- अनुमोदन तीनों रूप से हिसा दोषरहित । ४. संयम की अशुद्धि । ५. शैलेशी अवस्था-समस्त आत्म प्रदेशों (आत्म मूक्ष्मांशो) की निष्कम्प अवस्था ।