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[ शास्त्रवार्ता स्त० ९ श्लो. ४
तारतम्येनोपचीयमानं भावनग्रंन्थ्य विवक्षितम् , आहोस्विद् वायवसाधभावरूपम् ?। आधे तयाभूतसम्पग्नानादिविपक्षत्वेन वस्त्रादिग्रहणस्याऽसिद्धेहतोविशेष्याऽसिद्धना। द्वितीये वस्त्राद्यभावस्य रागाद्यपचयनिमित्तताऽसिद्धे हे तोविशेषणाऽसिद्धता । न च वस्त्राधभावो रागाद्यपचयनिमित्तत्वेन सिद्ध एवेति वाच्यम् , अतिशयितरागवद्भिः पारापतादिभिव्यभिचारात् । न च 'पुरुषत्वे सति' इति विशेषणीयम् , वस्त्रविकलैरनार्यदेशोत्पन्नैव्यभिचारात् । न प 'आर्यदेशोत्पन्नपुरुषत्वे सति' इति विशेषणाद् न दोप इति वाच्यम्; तथाभूतकामुक पुरुषव्यभिचारात् । न च 'व्रतधारितथाभूतपुरुषत्वे सति' इति विशेषणाद् न दोपः, तथाभूतपाशुपतैर्व्यभिचारात् । न च 'जनशासनप्रतिपत्तिमत्तथाभृतपुरुषत्वे सति' इति विशेपणोपादानाद् न दोषः, उन्मसदिगम्बर व्यभिचारात् । न च "अनुन्मसत्वे सति' इत्यपि विशेषणीयम् ; मिथ्यात्वोपेतद्रव्यलिंगावलम्बिदिग्याससा व्यभिचारात् । न च सम्यग्दर्शनादिसमन्त्रितपुरुषत्वे सति वस्त्राऽभावो हेतुः, विशेषणस्यैव तत्र समर्थत्वेनाऽसमर्थविशेष्यत्वात् । किञ्च, वस्त्रादिधर्मोपकरणाभावे यतियोग्याहारविरह इव विशिष्टश्रुत-संहननविकलानामेतत्कालभाविपुरुषाणां विशिष्टशरीरस्थितेरेवाभावाद् न सम्यग्दर्शनादिसमन्वितत्वविशेषणोपपत्तिरिति विशेष्य सद्भाव एवं विशेषणसद्भावं बाधते ।
सिंहों के साथ युद्ध करने को तैयार नहीं होते, ऐसी स्थिति में ये मर्यादित रूप में अपना मुख कैसे दिखा सकते हैं ? अन्ततः उनको लज्जा शिथिल पड़ जाती है और वे निर्वस्त्र हो जाते हैं ।
दिगम्बरों ने श्वेताम्बरों में महात-परिणाम-शून्यता अथवा महावतफसासाघकता को सिद्ध करने के लिये वस्त्र, पात्र आदि के परिमहरूप हेतु का प्रयोग किया है। उसका प्रथ है,-रागाविअपचय के जनक नेनन्थ्य का विरोधी है रागावि-उपचय के जनक वस्त्रादि का परिग्रह। इसमें विरोधी पर्यन्त भाग विशेषण है और रागावि-उपचय के जनक वस्त्रादि का परिग्रह विशेष्य है।
पाख्याकार ने इस हेतु को सबोष बताने के लिये विशेषण कुक्षि में प्रविष्ट निग्रंथता के सम्बन्ध में यह प्रश्न उठाया है कि निग्रन्यता से या अभिप्रेत है-सर्वाश निपन्यता अथवा अंशतः पानी अंशतः निर्गन्यता? इनमें प्रथम मान्य नहीं हो सकती, क्योंकि यह सर्वाश निर्ग्रन्थता अष्टविष कमों के सम्बन्ध का प्रत्यन्ताभावरूप होने से मुक्त जनों में ही रहती है, प्रतः वह रागादि के अपचय का हेतु नहीं हो सकतो, कारण, मुक्त में जब रागादि ही नहीं रहता तो फिर उस नियन्यता से किसे दूर किया जायगा ? फलतः उक्त हेतु विशेषणासिद्धि दोष से ग्रस्त हो जायगा।
निग्रंन्यता का द्वितीयरूप भी मान्य नहीं हो सकता क्योंकि द्वितीय रूप अंशतः-देशतः निन्थता के सम्बन्ध में यह प्रश्न उठता है कि देशतः निर्ग्रन्थता का क्या अर्थ है ? (१) सम्यगज्ञान
आधि के उपचय से समृद्ध होने वाली भाव निग्रन्थता!' अथवा (२) बाह्यवस्त्रादि का प्रभाव ?' १. नैर्ग्रन्थ्य-ग्रन्थि-रहितता यानी परिग्रह से रहितत्व ।