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________________ स्या का टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [ २६ अन्न ब्रमःदिक्पटाः सितपटैः सह सिंहवारणा अपि रणाय न सजाः । दर्शयन्तु वदनानि कथं ही ! तेन ते परिंगलभिजलजाः ॥१॥ तथाहि-यत् तावद् रागद्यपचनिमित्तनैन्थ्यविषक्षभृतत्वेन तदुपचयहेतुत्वं वस्त्रादेरुक्तम् , तत्र नै ग्रन्थ्यं सर्वतो देशतो वोपात्तम् ? । आये अष्टविधकर्मसंवन्धरूपान्थात्यन्तिकाऽभावरूपस्य तस्य मुक्तेष्वेव संभवात कथं तस्य रागाद्यपचयहेतुता १ । न हि तदा रागादिकमेवास्ति, इति किं तेनापचेयम् ? इति विशेषणाऽसिद्धो हेतुः । द्वितीयेऽपि किं सम्यग्ज्ञानादि [दिगंबरों का निर्वस्त्र-निग्रन्थता का समर्थन ] विगम्बरों का कहना यह है कि निग्रन्थता-पूर्णप्रपरिग्रह रागादि के अपचय का साधन है और वस्त्र प्रादि का ग्रहण रागादि के उपचय का हेतु होने से उसका विरोधी है, अतः वह विशिष्ट प्रकार के शृङ्गारों से सजी अङ्गना के अद्धाश्लेष के समान मोक्ष के प्रतिकल क्यों नहीं होगा ? जैन साधु अध्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन चारों दृष्टि से परिग्रह के परित्याग का व्रत लेता है, फिर यदि वह वस्त्र ग्रहण करता है तो उसके अपरिग्रहरूप पञ्चम महावत का मन क्यों नहीं होगा ? और जब वस्त्र आदि पर द्रव्य में उसकी रति होगी तो उसका श्रमणभाव, जो अपने प्रात्मस्वरूप मात्र में विधान्त होने से सम्पन्न होता है, कैसे समृद्ध होगा? साधु जब वस्त्र रखेगा तब चोर आदि से उसकी रक्षा का भी उसे ध्यान रखना होगा, फिर ऐसी स्थिति में उसे संरक्षणानुबन्धी रौनध्यान का अवसर क्यों नहीं होगा? जब साधु वस्त्रधारण करेगा तब वह आचेलक्य परीषह का विजय वस्त्राभाव जन्य क्लेश को सहने का सामर्थ्य कसे प्राप्त कर सकेगा? क्योंकि-सचेलकत्व अचेलकत्व एक दूसरे से विरुद्ध नहीं है-यह बात नहीं है, अतः सचेलक-सवस्त्र होते हुये अचेलक-प्रवस्त्र नहीं हुप्रा जा सकता। यह भी विचारणीय है कि सचेलता-सवस्त्रता यदि अचेलता-निर्वस्त्रता के मूल गुण से मण्डित श्रमणभाव का विरोधी नहीं है तो शास्त्र में जिनेन्द्र, जिनकल्पिक प्रादि निर्वस्त्र परम श्रमणों का ही उल्लेख क्यों है ? कहना होगा कि निश्चय ही उन श्रमणों ने असङ्ग होने के लिये ही वस्त्रों का त्याग किया होगा, इसलिये उचित यही है कि परम श्रमणों ने वस्त्र आदि का त्याग कर जिस लिङ्गचिन्ह को अपनाया है, उनके शिष्य भी वस्त्र आदि का त्यागकर उन्ही चिह्नों को अपनायें । श्वेताम्बर साधु ऐसा नहीं करते अत: उनके सम्बन्ध में यह अनुमान निर्बाध रूप से सम्भव है कि 'श्वेताम्बर साधु महावतों के परिणाम से वञ्चित होते हैं किंवा महायतों के प्राप्य फल के साधक नहीं होते, क्योंकि वे वस्त्र, पात्र आदि परिग्रह से युक्त होते हैं, जैसे महान आरम्भों में लगे गृहस्थ । [ दिगम्बरमत का खण्डन ] ध्याख्याकार ने अपने एक पद्य द्वारा विगम्बरों के उक्त आक्षेप का उत्तर देने का उपक्रम किया है। पद्य का अर्थ इस प्रकार है:-दिगम्बर यद्यपि हाथी के समान बलवत्तर हैं तथापि वे श्वेताम्बर १. परमश्रमण-जिनकल्पिकादि ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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