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________________ स्या. क. टीका हिन्दीविवेचन ] होनेवाला अधिकरण ज्ञान ही अभावज्ञान का कारण होता है, बगिन्द्रिय नीलादिरूप प्रतियोगी का ग्राहक नहीं है अतः यगिन्द्रियजन्य अधिकरणशान में अभावज्ञान की आपत्ति नहीं हो सकती । यदि यह कहा जाय कि गोमा मानने पर अगिन्द्रिय से गृहीम वायु में रूपाभाव की प्रतीति की उत्पनि न हो सकेगी-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि रूप की अनुपलग्धि मे रूपा. भान की आनुमानिक प्रतीति में कोई बाधा नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-'रूपानुपलब्धि रूप हेतु का शान दुःशक है क्योंकि भट्टमीमांसक के मत में ज्ञान के अतीन्द्रिय होने से उस का अभाव अशात अनुपलब्धि में ही गम्य होगा । यदि शात अनुपलब्धि से गम्य मानेंगे तो अनवस्था होगी, क्योंकि उपटम्ममाघ अतीन्द्रिय होने से सभी अनुपलब्धि को अनुमानयन ही मानना होगा । प्राकटय - शातता के अभाव से भी उपटम्भाभाव का अनुमान नहीं हो मकता, क्योंकि वह भी रूणभाव के तुल्य है। अतः जैसे त्वमिन्द्रिय से सात वायु में रूपाभाव की प्रतीति नहीं होती उत्सीप्रकार उम में प्राकट्याभाव की भी प्रतीति नहीं हो सकती । प्राकन्याभाव से उपलम्भाभाव का अनुमान नहीं हो सकता । कारण, अनुमान अज्ञातलिङ्गक नहीं होता । एवं जिस वस्तु का कायिक और याचिक व्यवहार नहीं होता उस का भी उपेक्षात्मक ज्ञान होता है अतः व्यवहागभाव में उपलम्भाभाव का अनुमान नहीं हो सकता । अतः वायु में रूपानुलब्धि से रूपाभाव की आनुमानिक प्रतीति का समर्थन नहीं हो सकता.' ___ तो यह कथन टोक नहीं है क्योंकि प्राकट्य-ज्ञातता मनावद्य है अतः मन में गृहीत वायु में 'वायौ रूपं न शातम्' इसप्रकार रूपशातता के मानस अभावज्ञान में रूपानुलब्धि का अनुमान होकर उस से वायु में रूपाभाय की आनुमानिक प्रतीति का समर्थन हो सकता है । वाय में रूपाभाव को अनामित मानने पर यह शा नहीं की जा सकती कि-यायौ रूपाभावं पश्यामि-बाय में रूपाभाव को देखता है. सरकार रूपाभावप्रतीनि की चालषस्वरूप में वृद्धि नहीं हो सकती-क्योंकि यह बुद्धि चाचपन्य अंश में भ्रम है. अत: दोषषश रूपाभाव की अनुमिति का चाचपत्वरूप से ग्रहण हो मकता है । [आलोक की हेतुता और अहेतुता की उपपनि ] यदि यह प्रश्न किया जाय कि-"अनुपलम्भ में कोई लक्षण्य न होने में चश्च के व्यापार के अनन्तर होनेवाले अभावज्ञान में आलोक हेतु होता है. और स्वगिन्द्रियव्यापार के अनन्तर होनेवाले अभायज्ञान में आलोक हेतु नहीं होता. यह व्यवस्था की होगी : क्योंकि अभावज्ञान अब प्रतियोगी के अनुपलम्भरूप अभावप्रमाण से ही होता है तब अभावज्ञान को उत्पन्न काने में अनुपलम्भ को आलोक की अपेक्षा कभी नहीं होनी चाहिये अथवा सदा होनी चाहिए ।"-तो इस प्रश्न का उतर यह दिया जा सकता है कि अभायज्ञानस्थल, में अश्वगादि के समान आलोक आदि का भी उपयोग अधिकरण के ज्ञान में ही होता है. मीधे अभावज्ञान में नहीं होता । फिर भी यदि यह प्रश्न हो कि-'चक्षु के व्यापार के अनन्तर होनेवाले अभारशान तथा स्वगिन्द्रिय के व्यापार के अनन्तर होनेवाले अभावशान में अभावांश के ग्रहण में आलोक की अपेक्षा नहीं है तो चापच्यापार के अनन्तर होनेवाले अभावज्ञान में आलोक की अपेक्षा होती है और स्त्राचव्यापार के अनन्तर होनेवाले अभावज्ञान में लोक की अपेक्षा नहीं होती, ऐसा क्यों ? तो इस का उत्तर यह है कि दोनों अमावज्ञानों में अनुपलम्भ के लक्षण्य से वैलक्षण्य न होने पर भी अधिकरण शान के चलक्षण्य मे वेलक्षण्य होता है। अतः
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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