SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ [शानघार्ता० १०/४ न चाऽज्ञातकरणकत्वादभावज्ञानमपरोक्षमित्यप्याशङ्कनीयम्, क्वचिज्ज्ञाताया एवानुपलब्ध करणत्वात् । तथाहि-यत्र गृहाद् निर्गतश्चैत्रस्तत्र कि मैत्र आसीत् । इति केनापि पृष्टः क्षणं ध्यात्वा वदति-'नासीत् तत्र मैत्रः' इति । तत्र प्राग्नास्तिताबुद्धौ ज्ञातैव सा करणम् । न हीय स्मृतिः, गृहसनिकर्षकाले मैत्राऽस्मरणेन तदभावाननुमवात् । नापि प्रत्यक्षम्, गृहाऽ संनिकऽपि जायमानत्वादिति । 'प्रकृताभावज्ञानं मावभूतकरणसचिवमनोजन्यम् , बहिविषयकालौकिकेतरज्ञानत्वात्' इति चाप्रयोजकम् । यह कलाना की जाती है कि अधिकरणांश के चाक्षुष ज्ञान से होनेवाले अभाव ज्ञान में आलोक कारण होता है और अधिकरण के त्याच ज्ञान से होनेवाले अभावकान में आलोक कारण नहीं होता। उक्त हेतु से ही 'घटाभावं पश्यामि' इस ज्ञान का भी समर्थन हो जाता है क्योंकि जैसे 'घा पश्यामि इत्यादि स्थल में घट के माथ चश्च का सन्निकर्ष घटज्ञान में नियामक होना है. तथा. शुकि में रजतस्त्र को विषय करनेवाली 'इदं रजतम्' इत्यादि प्रतीति के स्थल में शुक्ति में रजतत्वग्राहक दोषविशेष रजतज्ञान में चाचपन्यभान का नियामक होता है, उसीप्रकार घटाभावं पश्यामि' इत्यादि स्थल में अधिकरण का चाक्षुषक्षान घटाभाषज्ञान के चाच. पत्वभान का नियामक होता है। यदि यह कहा जाय कि इस प्रकार उक्तकारणता और निया. मकता की कलाना में गौरव होगा' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अभाघज्ञान में आलोक आदि को कारण न मानने से इस पक्ष में स्पष्ट लाघय है ।। [अभावप्रमाण में अपरोक्षता की आपत्ति का निवारण] यदि यह शङ्का की जाय कि 'अभावशान को अभावप्रमाणजन्य मानने पर अज्ञातकरणक होने से उस में अपरोक्षत्व की आपत्ति होगी तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कहीं कहीं पर ज्ञात ही अनुपलब्धि अभावज्ञान का करण होती है । अतः 'जो प्रमाण सर्वत्र अज्ञात ही होकर प्रमा का करण होता है उस प्रमाण से जन्य ज्ञान ही अपरोक्ष होता है। इसप्रकार की व्यवस्था कर देने से, जो अभावशान अज्ञातअनुपलब्धिकरणक होता है उस में अपरोक्षत्व की आपत्ति नहीं हो सकती । ज्ञात अनुपलब्धि अभाषज्ञान का करण कहां होती है-इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जच घर से बाहर निकले हुये चैत्र से कोई व्यक्ति. यह पूछता है कि क्या वहाँ मैत्र था? तो चैत्र थोडा ध्यान देकर उत्सर देता है कि मैत्र बहां नहीं था । इस उत्तर के लिये गृह में मंत्र के पूर्वास्तित्व के अभाव का जो ज्ञान ध्यानद्वारा चैत्र को होता है उस में मैत्रशस्तित्व की ज्ञात अनुपलब्धि द्वी करण है क्योंकि चैत्र का उक्त ज्ञान स्मरणरूप नहीं है, यतः गृह में अवस्थित रहने के समय मैत्र का स्मरण न होने से चैत्र को मैनाभाव का अनुभव नहीं होता और जब उस समय मैत्राभाव का अनुभव नहीं होता तो गृह से बाहर आने पर उस की स्मृति कैसे हो सकती है? चैत्र के उस कान को प्रत्यक्षरूप भी नहीं माना जा सकता क्योंकि गृह के साथ सन्निकर्ष न होने पर भी यह उत्पन्न है ।। 'चत्र का उक्त मैत्राभावज्ञान भावभूतकरणसहकृत । से जन्य है क्योकि अलौकिक ज्ञान से भिन्न हिविषयक ज्ञान है', इस अनमान में भी चैत्र के उक्त मैत्रामावज्ञान में प्रत्यक्षत्व की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि इस हेतु में उक्त साध्य के व्याप्तिज्ञान का प्रयोजक कोई तर्क नहीं है। अत: यह सिद्ध है कि गृह से बाहर
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy