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[ शानवा० १० न चैवमभावज्ञाने इन्द्रियान्वय-व्यतिरेकानुविधानं न स्यादिति शनीयम् , तस्याधिकरणग्रहणोपक्षीणत्वात् , अधिकरणग्रहण-प्रतियोगिस्मरणयोस्तन हेतुत्वात् । तदुक्तम्- "गृहीत्व! वस्तुसदभावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया ।। श्लो. वा, अ, २८० ॥" इति ।
न चाधिकरणज्ञानम्य हेतुत्वेऽन्धस्यापि त्वगिन्द्रियोपनीते घटादौ नीलाद्यभावग्रहः स्यादिति वाच्यम् । प्रतियोगिग्राहकेन्द्रियजन्याधिकरणज्ञानस्य तथास्वात् । न चैवं त्वगिन्द्रियोपनीते वायौ झपाभावप्रतीत्यनुदयप्रसङ्गः, रूपानुपलम्भेन तदभावानुमानात् । न च हेतोरपि दुर्घहत्त्वम् , उपलभस्य तवातीन्द्रियत्या तदभावस्याज्ञातानुपलब्ध्यगम्यतया, ज्ञातानुपलब्धिगम्यत्वेऽनवस्थानात् , प्राकट्याभावस्यापि रूपाभावतुल्यतया तेन तदनुमानाऽयोगात्; काय-वाग्व्यवहारामावेऽप्युपेक्षाज्ञानसत्त्वाद् व्यवहाराभावेनापि तस्याननुमेयत्वादिति वाच्यम् , मनोजन्यवायुज्ञानसत्त्वात् , प्राकट्याभावेन मनोग्राह्येण रूपानुपरमानुमानसंभवात् । 'वायौ रूपाभावं पश्यामि' इति धीस्तु भ्रान्तव । अथानुपलम्मे विशेषाभावाचक्षुषाऽभावग्रह आलोको हेतुन तु त्वचेति युतः । इति चेत् ! सत्यम् , चक्षुरादाविवालोकादेरप्यधिकरणज्ञानविशेष एवोपयोगात . अभावज्ञानेऽनुफ्लम्भविशेषकृतविशेषामात्रेडधिकरणज्ञानविशेषोपपप्यत्तः । अत एब 'वटाभाव पश्यामि' इत्यप्यविगानं समर्थितम् . 'पश्यामि' इति विघयताविशेषे संनिकर्षदोपविशेषादिवदधिकरणज्ञानविशेषस्यापि नियामकत्वात् । न चवं गौरवम् , अभावज्ञान आलोकादिहेतुत्वाऽकल्पनलाघवात् ।
प्रत्यक्ष आदि की अनुत्पत्ति को प्रमाणाभाव कहा जाता है । यह प्रतियोगिज्ञानरूप आत्मपरिणाम के अभावरूप होता है, अथवा अन्य वस्तुविषयक झानरूप होता है ।।१।।
यदि यह शङ्का की जाय कि- अभावज्ञान को इन्द्रियान्य न मानने पर उस के द्वारा इन्द्रिय क. अन्वयव्यतिरेक का अनकरण नहीं होना चाहिए, किन्तु अनुकरण होता है अत: उसे इन्द्रियजन्य मानना आवश्यक है-तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि अभावज्ञान नियम से किसी अधिकरणमें ही होता है । अत एय अधिकरणग्रहण के लिये अभावज्ञान भी इन्द्रिय के अन्यय व्यतिरेक का अनुकरण करता है किन्तु इस अनुकरण से अभायज्ञान में इन्द्रियजन्यत्व की सिद्धि नहीं हो मकती, क्योंकि इन्द्रिय अभावाधिकरण के अवषोध को उत्पन्न कर ऋतार्थ हो जाती है अतः अभावज्ञान में अधिकरण ज्ञान और प्रतियोगिस्मरण ही हेतु होता है इन्द्रिय नहीं । शोकार्तिक में कहा भी है कि
वस्तु-अधिकरण के अस्तित्व का ज्ञान और प्रतियोगी के स्मरण से अभाव प्रमाण सहन मन द्वारा अभाव था। ग्रहण होता है, उस में इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं होती ।। १ ।।
[अधिकरणज्ञान को हेतु मानने में आपत्ति का निवारण ] यदि यह कहा जाय कि-' अभावज्ञान में अधिकरणशान को कारण मानने पर अन्धे को भी त्वगिन्द्रिय से गृहीत घटादि में नीलादि के अभावग्रह की आपसि होगी क्योंकि उसे अधिकरण का सार्शनशान, नीलादिरूप प्रतियोगी का झान और भीलादि की अनुपलब्धिरूप अभावप्रमाण मिद्यमान है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रतियोगी के ग्राहक इन्द्रिय से