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________________ स्या, क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [२१३ यदपि 'निरन्तराहारत्वं केवलिनस्तेनाहारेण समुद्घातक्षणत्रयमपहाय भवेत् ' इत्युक्तम् तदप्ययुक्तम् , विशिष्टाहारस्य विशिष्ट कारणप्रभवत्वात् , तस्य च प्रतिक्षणमसंभवात् ; यस्तु पुद्गलादानलक्षणो लोमाद्याहारः, तस्य प्रतिक्षणं सद्भावेऽप्यदोषात् । यदपि 'यथासंभवमाहारख्यवस्थितेः केथलिनः कवलाहारः, अन्यथा शरीरस्थितेरभावात् ' इत्यभिधानम् तदपि युक्तमेव । न हि देशोनपूर्वकोटि यावद् विशिष्टाहारमन्तरेण विशिष्टौदारिकशरीरस्थितिः संभविनी । न च तच्छद्मस्थावस्थातः केवल्यवस्थायामात्यन्तिकं तच्छरीरस्य विजातीयत्वम् , येन प्रकृताहारविरहेऽपि तच्छीरस्थितेरविरोधो भवेत् , ज्ञानाद्यतिशयेऽपि प्राक्तनसंहननाद्यधिष्ठितस्य तस्यैवाऽऽपातमनुवृत्तः । अस्मदाद्यौदारिकशरीरविशिष्टस्थितेविशिष्टाहारनिमित्तत्वं च प्रत्यक्षाऽनुपलम्भप्रभवप्रमाणेन सर्वत्राधिगतम्, इति विशिष्टाहारमन्तरेण तस्थितेन्यत्र सद्भावे क्वचिदपि तस्थितिस्तन्निमित्ता न भवेत् । ___अथौदारिकशरीरस्थितित्वं न कवलाहारजन्यतावच्छेदकम् , एकेन्द्रियशरीरस्थितौ व्यभिचारात् ; [निरन्तर कवलाहार की आपत्ति का प्रतिकार ] जो यह कहा गया कि-'समुद्घात के तीन क्षण को छोडकर पूरे समय में कयलाहार द्वारा भगवान में निरन्तर आहारमाहीता होने की आपत्ति होगी।' -वह भी ठीक नहीं है क्योंकि विशिष्ट भाहार विशिष्ट कारण होने पर ही उपादेय होता है। कयलाहार एक विशिष्ट आहार है। अतएव शुधारूप विशिष्ट कारण उपस्थित होने पर ही हो सकता है और यह कारण प्रतिक्षण सम्भव नहीं है। अतः प्रतिक्षण कवलाहार सम्भव न होने से उक्त आपत्ति नहीं हो सकती है। जो लोमवारक लोमाहार यामी पुदगलग्रहणरूप आहार है उस के प्रतिक्षण होने पर भी किसी दोष की प्रसक्ति नहीं है। जो यह बात कही गयी कि यथासम्भव आहार की प्यवस्था होती हैं अतः फेवली भगवान में भी कयलाहार मानना उचित है क्योंकि ऐसा न मानने पर उन के शरीर की भी स्थिति न हो सकेगी। -यह तो ठीक ही है क्योंकि किचिद न्यून पूर्व कोटि वर्ष की कालावधि तक विशिष्ट आहार के बिना विशिष्ट औदारिक शरीर का अस्तित्व सम्भव नहीं है। छत्रस्थ अवस्था से केवलीअवस्था का शरीर अत्यन्त विजातीय नहीं होता जिस से प्रकृत आहार के अभाव में भी केवली के शरीर की स्थिति में कोई विरोध न हो । केवली अवस्था में शान आदि का अतिशय सम्पन्न हो जाने पर भी निर्वाण पर्यन्त शरीर में अवयवों की वही संघटना आदि विद्यमान होता है जो केवली अवस्था के पूर्व शरीर में होता है। प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ मूलक प्रमाण से सभी अवस्थाओं में यह सिद्ध है कि हम लोगों के औदारिक शरीर की विशिष्ट स्थिति विशिष्ट आहार ले ही होती है। अतः केवली अवस्था में औदारिक शरीर की स्थिति यदि विशिष्ट आहार के बिना मानी जायगी तो किसी भी समय अर्थात् केवली से पूर्व अवस्था में भी औदारिक शरीर की स्थिति विशिष्टआहारमूलक न हो सकेगी। [परमौदारिक शरीर की असिद्धि] ___यदि यह कहा जाय कि-'मौवारिकशरीरस्थितित्य कयलाहार का कार्यतावच्छेदक नहीं है, अर्थात् सभी औदारिकशरीरस्थिति के लिए कपलाहार की अपेक्षा नहीं है क्योंकि पकेन्द्रिय
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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