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________________ २१२ ] [ शासवा० स्त० १०/६४ यदपि-एकेन्द्रियादीनामयोगिपर्यन्तानामाहारिणां सूत्र उपदेशात् ....इत्याद्युक्तम्-तदप्यसंगतम् , एकेन्द्रियादिसहचरितत्वनिरन्तराहारोपदेशमन्तरेणापि [कृ. संग्र. १८६] “विग्गहगइमावष्ण"-इत्यादि सूत्रसंदर्भस्य केवलिभुक्तिप्रतिपादकस्यागमे सद्भावात् । न च तस्याऽप्रामाण्यम्, सर्वज्ञप्रणीतत्वेनाभ्युपगतसूत्रस्येव प्रामाण्योपपत्तेः । न च तत्प्रणीतागमैकवाक्यतया प्रतीयमानस्याप्यस्याऽतत्प्रणीतत्वम् , अन्यत्रापि तत्प्रसक्तेः । शरीरप्रायोग्यपुद्गलग्रहणमेवाबाहारत्वेनाभिमन्यमानस्य च भवतो विग्रहगत्यापन्नसमवतकेवल्ययोगिसिद्धव्यतिरिक्ताशेषप्राणिगणे शरीरप्रायोग्यपुद्गलग्रहणमेवाहारशब्दवाच्यमिह सूत्रे. ऽभिप्रेतमित्यपूर्व सामायिकशब्दार्थकश्पनकौशलम् । शरीर औदारिक होने पर भी क्षुदवेदनीय कर्मों यरूप कारण के उपस्थित होने पर भोजन का होना अनियार्य है। उस का प्रतिषेध, भगवान औदारिक शरीरी होने के व्यवहार की प्रकारान्तर से उपपत्ति कर देने मात्र से नहीं हो सकता। औदारिक होने का व्यपदेश शरीर की उदारतारूप निमित्त से भी हो सकता है, उस में भोजन की अपेक्षा नहीं हो सकती, यह ठीक है किन्तु साथ ही केवली का भोजन भी उस के सहज कारण के सन्निधानरूप निमित्त से हो सकता है। केवली के अनाहार के समर्थन में जो यह बात कही गई है कि “ सूत्र में एकेन्द्रिय से लेकर अयोगीपर्यन्त आहारग्रहीताओं का उल्लेख होने से केवली को कबलाहार का ग्रहीता मानमा सम्बद्ध सूत्र के अर्थ के अज्ञान का फल है क्योंकि सूत्र में पकेन्द्रिय आदि के साथ भगवान का उस्लेख किया गया है और निरन्तर आहार की बात कही गयी है। इस से स्प है कि भगवान को कवलाहारी बताने में सूत्र का तात्पर्य नहीं है अपितु शरीर की स्थिति के लिए अपेक्षित पुद्गलग्रहण रूप आहार का कर्ता बताने में है। ऐसा न मानने पर समृदयात अवस्था में केवल तीन क्षण को छोड़ कर पुरे समय कपलाहार द्वारा ही भगवान में निरन्तर थाहारी होने की आपत्ति होगी" यह बात ठीक नहीं है। वृहत्संग्रहणीसूत्र में कहा है- “विग्रहगतिवाले, समुद्घातकेवली, अयोगी और सिद्धों को छोड कर बाकी सब जीव माहारी होते हैं"इस में एकेन्द्रिय आदि का सहचारी होने और निरन्तर आहारी होने की बात न कहकर भी स्पष्टरूप से केवली के भोजन का प्रतिपादन किया गया है। उस सूत्र को अप्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अन्य प्रामाणिक सत्र के समान सवेश द्वारा प्रणीत होने से इस सूत्र का भी प्रामाणिक होना निर्याध है। यदि यह कहा जाय कि-'सर्वज्ञ द्वाग रचित आगम के साथ पकवाक्यतापन्न रूप में प्रतीति होने पर भी यह मूत्र सर्वप्रणीत नहीं है' -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यह आपत्ति अन्य सूत्रों में भी इसीप्रकार प्रसक्त हो सकती सरी बात यह है कि यदि शरीरस्थिति के योग्य पदगलों के ग्रहण को ही भगवान का उक्त सुत्र का तात्पर्य माना जायगा तो आप यह भी कह सकते हैं कि वियह गति को प्राप्त, समुदधात गत केवली, अयोगी केवली और सिद्धात्मा इतने को छोड कर सभी प्राणियों को शरीरस्थितियोग्य पुद्गलों का ग्रहण रूप ही आहार उक्त सत्र द्वारा विवक्षित है। यदि सूत्रार्थ का प्रतिपादन ऐसा किया जाएगा तो यह सामायिक शब्द के अर्थ की कल्पना के एक अपूर्व कौशल का नमूना होगा । १. विग्रहगतिमापन।।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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