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________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ २११ मनसा सुखवेदनात् । न चेयं मध्यस्थेषु गतिः, अतिचारजनन्योराहारसंज्ञा रुच्योस्ते ध्वनुपपत्तेः । न हि विहितानुष्ठानेऽप्यतिचारो नाम । एतेन ' आहारसंज्ञां विना केवलिनो नाहारः, मैथुनसंज्ञा विनाऽब्रह्मेव ' इति कुचोद्यमपास्तम्, महर्पणाभिव भगवतो दिनाप्याहारसंज्ञामाहारोपपत्तेः, अन्यथा तेषामाहारसंज्ञयाऽऽहारखद् मैथुनसंज्ञयाऽब्रह्माप्यदुष्टं स्यादिति । यञ्चोक्तम्- ' औदारिकव्यपदेशस्तु भगवच्छरीरस्योदारत्वाद् न तु भुक्तेः' इति । तत्तु न दोषावहम् औदारिकशरीरित्वे स्वकारणाधीनाया मुक्तेरप्रतिषेधाद्, व्यपदेशस्योदारत्वनिमित्तत्वेऽपि स्वकारणनिमित्तप्रकृत भुक्ति सिद्धेः । सुख के हेतु नहीं है, किन्तु आध्यान से उत्पन्न दुःख और उस के प्रतिकार से होने वाले सुख के ही हेतु है । कोष की और का उदय, आहार की मति और उस के विषयभूत अर्थ के उपयोग से आहार संज्ञा का जन्म होता है । जिस में इस को प्राप्त करने की इच्छारूप आर्तध्यान की अधिकता होती है। इस आहार संज्ञा से क्षुधाजन्य दुःख की वृद्धि होती है और भोजन न मिलने पर मनुष्य इस दुःख के वेग को सहने में असमर्थ हो जाता है । उस स्थिति में उपस्थित वेदना की निवृत्ति के उपाय का चिन्तन रूप आध्यान वृद्धिगत होता है जिम से मनुष्य को मानस दुःख होता है जिस की अभिव्यक्ति उन के क्षुधामूलक कन्दन आदि से होती हैं। ऐसे मनुष्य को भोजन प्राप्त हो जाने पर इष्ट के राग से मन में उत्साह हो जाता है और उत्साहित मन से उसे सुख की अनुभूति होती है। उक्त रीति से स्पष्ट है कि आहार संज्ञा और रुचि आर्तध्यानजन्य दुःख और उस के प्रतीकार से होनेवाले सुख के ही हेतु हैं, क्षुधाजन्य दुःख और भोजनसुख के हेतु नहीं है। दुःख और सुख के उदय के सम्बन्ध में जो बात आर्तव्यान के आधार पर बताई गई है, वह मध्यस्थ पुरुषों में नहीं होती है, क्योंकि उन में अतिचार यानी कन्दन कार्यभूतदुःखबैग और इष्ट राग से होय उत्साह युक्त मन से सुखानुभूति की जनक आहार मंशा और रुचि का अभाव होता है। कंबली में आहार संशा और रुचि नहीं होती। उन का भोजन ग्रहण विहित का अनुष्ठान है और त्रिहित के अनुष्ठान में अतिचार नहीं होता है । 4 'आहार संज्ञा के अभाव में केवली द्वारा आहारग्रहण उसी प्रकार अनुपपन्न है। जैसे मैथुनसंज्ञा के अभाव में श्रह्मचर्य का अंग अनुपपन्न हैं। यह कृतकें भी मनायास निरस्त हो जाता है क्योंकि जैसे आहार संक्षा के अभाव में भी छनस्थ महर्षि को आहार उपपन्न होता है। उसीप्रकार आहारसंज्ञा के अभाव में केवली भगवान को भी आहार उपपन्न हो सकता है। यदि यह कहा जाय कि 'महर्षियों का आधार आहारसंशा से ही होता है, अतः महर्षियों के शन्त से केवली के आहार का उपपादन शक्य नहीं है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यदि महर्षियों में आहार की उपपत्ति आहार संज्ञा से की जाएगी, तो उन में मैथुनसंज्ञा से ब्रह्मचर्य का भंग भी निर्दोष मानना होगा। अतः यही उचित है कि महर्षियों के आधार को आहारसंज्ञा निरपेक्ष ही माना जाय और उसी दृष्टान्त से केवली में भी आधार संज्ञानिरपेक्ष आहार को स्वीकृति प्रदान किया जाय । केवली के सम्बन्ध में जो यह बात कही गयी कि उन का शरीर औदारिक होने का जो व्यवहार होता है वह उन के शरीर की उदारता ( अति स्वच्छता) के कारण होता है, न कि उन के भोजन के कारण होता है' उस में किसी दोष की आपत्ति नहीं है अर्थात् उस भाधार पर केवली के भोजनाभाव का आपादान नहीं किया जा सकता, क्योंकि भगवान का
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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