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[ शास्त्रवा०ि मत. १०६५ सयोगिन्यप्येफादशानामुपचारौचित्यम् । इति तु वैलक्ष्यभाषितम्, श्रेण्यामप्युपचारापत्तेः । ‘शक्तिव्यक्तियोग्यताभ्यां श्रेण्यां नोपचार' इति चेत ? अन्यत्रापि सुवचमेतत् कालविशेषादिसहकार्यवाप्स्यैव सयोगिन्यभिव्यक्तेरिति दिग् ।
यदपि-न चातीन्द्रियस्य'....इत्याभिहितम् , तदपि न चतुरचेतोहरम्, तृष्णाधानद्वारके सुखे दुःखे वेन्द्रियाणां तज्जन्यज्ञानस्य बा हेतुत्येऽप्यन्यत्र तथाविधएरिणामादेव दन्य क्षेत्रादिसंपत्तिलब्धविपाककर्मकृतात् सुख-दुःखोपपत्तेः । आहारसंज्ञा-रुची च न क्षुद्दुः ख-भुक्तिसुखयोहेतू , किन्स्वार्तध्यानजन्यदुःख-तत्प्रतिकारमुखयोः अवमकोष्ठताक्षुदेदनीयोदयमतितदोपयोगप्रभवचेष्टामिलापरूपातध्यानमण्याऽऽहारसंज्ञया क्षुद्दुःखाभिवृद्धौ भुक्त्यमाप्तौ तदुःखवेगमसहमानानां वेदनावियोगप्रणिवानरूपार्तध्यानाभिवृद्धया क्रन्दनाद्यभिव्यङ्गयमानसदुःखजननान्, भुक्तिप्राप्तौ चेष्टामिष्वङ्गेन
का भाशय यह है कि क्षुधा आदि परीषह को श्रुत्परीष हत्यरूप से भोजनजनकता नहीं हैं किन्तु विजातीय क्षुत्परीषहत्वरूप से भोजन जनकता हैं और जो जाति क्षुत्परीषह में विद्यमान भोजन जनकता का अवच्छेदक है वह केवली भगवान में विद्यमान धुतपरीषह में नहीं है। अतएव उन्न भूख नहीं लगती और वे भोजन नहीं करते ।' किन्तु इसप्रकार की कल्पना में कोई प्रमाण नहीं है। यदि यह कहा जाय कि अयोगी केवली व्यक्ति में एकादश परीषह उपचार से होने का मानना आवश्यक होने से सयोगी केवली में भी उपचार से ही पकादश परीषहो के अस्तित्व का कथन उचित है। अर्थात् केवल उपचार की दृष्टि से ही भगवान में एकादश परीषहों के होने की बात कही गयी है, न कि उस कथन के आधार पर उन में उन परीपहों के फल का होना भी मान्य है।' -तो यह कथन केवल लज्जामात्र मृलक है क्योंकि सयोगी में उक्त रीति से उपचार से पकादश परीपाठों के अभिधान के औचित्य का समर्थन करने पर श्रेणी में भी उपचार से ही उक्त परीषहों के अभिधान की आपत्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि-' शक्ति की अभिव्यक्ति और योग्यता दोनों का श्रेणि में सम्भव होने के कारण श्रेणी में एकादश परीषदों का उपचार नहीं होता' -तो यह बात सयोगी केवली के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है, क्योकि कालविशेप आदि सहकारी के प्राप्त होने से ही सयोगी में भी शक्ति की अभिव्यक्ति होती है। अतः यदि श्रेणी में उक्त परीषहों के उपचार में शक्ति की अभिव्यक्ति बाधक है तो सयोगी में भी उक्त परीषष्ठों के उपचार में बाधक हो सकती है।
[केवली अतीन्द्रिय होने पर भी सुख-दुःख का सम्भव ] केषली के सम्बन्ध में जो यह बात कही गयी कि ये अतीन्द्रिय होते हैं अत: उप क्षुधा आदि से दुःख और उस की निवृति से सुख नहीं हो सकता, क्योंकि ये दोनों इन्द्रिय अथवा तजन्य ज्ञान से साध्य हैं। जिन का केवली में अभाव है।' -यह कथन भी बुद्धिमान पुरुषों के चित्त को सन्ताष देने वाला नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय और तन्मूलक ज्ञान उसी सुख और दुःख का कारण होता है जो तृष्णा द्वारा उत्पन्न होते हैं. किन्तु जिन भगवान में तृष्णा नहीं होती है। उन में सुख और दुःख का उदय तदनुकूल देह अथवा आत्मा के परिणाम से ही होता है । यह सुखप्रद और दुःखप्रद परिणाम प्रसे कर्मों के विपाक से हाता है जो द्रव्य क्षेत्र आदि का सग्निधान होने पर सम्पन्न होता है। आहार संज्ञा और रुचि का अभाव भी केवली के दुःख और सुख में बाधक नहीं हो सकता क्योंकि वे दोनों क्षुधाजन्य दुःख और भोजन अन्य