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स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
[ २०१ यदि च सर्वथा भगवति क्लेशो नेष्यते कथं तर्हि “एकादश जिन " इति भगवत्येकादशपरीषहाऽऽवेदकं सूत्रं समर्थनीयम् । 'एकादश' इत्यनन्तरं 'न सन्ति । इत्यध्याहारादिति चेत् ? न, स्वामित्वचिन्ताद्यवसरे ऽस्य बिपरीतव्याख्यानत्वात् । एतेन 'एकेनाधिका दशन' इत्यप्यव्याख्यानं द्रष्टव्यम्, तथा समासाऽयोगाच्च । इत्थं च 'एकादश जिने सन्ति, वेदनीयसत्त्वात्, न सन्ति वा, मोहाभावात् ।' इति द्वधा व्याख्यातुः सर्वार्थसिद्धिकृतोऽपि महाननर्थ एवोपतिष्ठते । वेदनीयात्मककारणसत्त्वादेकादशपरीषहाणां भगवत्युपचारे मोहसत्त्वमात्रेणोपशान्तवीतरागेऽपि द्वाविंशतिपरीषहाभिवानप्रसङ्गात् ; 'न सन्ति' इत्यध्याहारस्याऽप्रामाणिकत्वाच्च । भोजनजनकतावच्छेदकजात्यभाववक्षुदादिपरीषहकल्पने च न मानमस्ति । 'अयोगिन्युपचारावश्यकत्वात्
[ दिगम्बर मत में 'एकादशजिन सूत्र की अनुपपत्ति ] केवली भगवान में क्लेश का होना यदि सर्वथा अमान्य होगा तो भगवान में ग्यारह परीषहों का अस्तित्व बताने वाले 'पकादश जिने' इस तत्वार्य सूत्र का समर्थन भी न हो सकेगा। यदि यह कहा जाय कि 'उक्त सूत्र में एकादश शब्द के बाद 'न सन्ति' का अध्याहार कर उस सूत्र को भगवान में ग्यारह परीषहों के अभाव का बोधक मानने से उस का समर्थन हो जाएगा' -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त सूत्र भगवान में स्वामित्व आदि के विचार के अवसर में पठित है। अत पर वह अध्याहार वाला व्याख्यान अप्रासंगिक होगा क्योंकि उक्त स्वामित्व विचार के सन्दर्भ में भगवान में जिन परिषहों का होना सम्भव है उन्हीं को बताना उचित होगा न कि उन के अभाव को बताना ।
उक्त व्याख्यान के अप्रासंगिक होने से ही 'न सन्ति' के अध्याहार के बिना भी एकादश शब्द का 'एकेन अधिका दशन' इस व्युत्पत्ति द्वारा भगवान जिन में पकादश परीषहों के अभाव बताने में उक्त सूत्र का तात्पर्य है' -यद व्याख्यान भी तिरस्कृत हो जाता है। 'एकेनाधिका दश न' इस व्युत्पत्ति के अनुसार एक. दश. न इन तीन पदों का समास सम्भव न होने से उक्त अर्थ में 'एकादश' शब्द की सिद्धि भी नहीं हो सकती।
सर्वार्थसिद्धिकार ने उक्त तत्वार्थ सत्र की दो प्रकार से व्याख्या की है। एक यह कि भगवान जिन में एकादश परीषह हैं क्योंकि उन में घेदनीय कर्म का अस्तित्व है। दूसरी व्याख्या 'न सन्ति' के अध्याहार से यह कि उन में एकादश परीषह नहीं है क्योंकि उन में मोह का अभाव है। ये दोनों प्रकार की व्याख्या महान् अनर्थ से ग्रस्त है क्योंकि वेदनीय कर्मरूप कारण के रहने से भगवान में यदि उपचार से पकादश परीषह होने की बात कही जाएगी तो मोह के अस्तित्वमात्र से उपशम को प्राप्त वीतराग में भी उपचार से बाईस परीषह होने की बात भी कहनी होगी। जब कि ऐसा नहीं कहा गया है और भगवान जिन में मोह के अभाष से एकादश परीषहों के न होने में उक्त सूत्र का तात्पर्य नहीं है अतः यह दूसरी व्याख्या सम्भव नहीं है क्योंकि उक्त सूत्र में 'न सन्ति' का अध्याहार होने में कोई प्रमाण नहीं है।
यह भी कल्पना प्रमाणहीन है कि-भगवान में क्षुधा आदि परीषह तो हैं किन्तु उस में भोजन जनकतावच्छेवक जाति नहीं है। अतएष भगवान में भोजनकर्तृता नहीं होती। कहने २७