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[ शासवा० स्त. १०/६४
निपाताभावाद् भगवदसातवेदनीयस्य दुग्धरज्जुस्थानिकत्वमूचुः । तदपि न पेशलम् , एवं सति सातवेदतीयस्यापि तथास्वप्रसंगात्, सम्यग्दृष्टयाघेकादशगुणस्थानेषु गुणश्रेणीसद्भावात् , तदधिकपुद्गलोपसंहारादधिकपीडाप्रसशाच्च । तस्माद् यथाऽनुभागमेव फलसंभव इति विभावनीयम् ।
अपरे तु सबलपुण्योदयाभिभूतत्वमेव पापप्रकृतीनां दग्धरज्जुस्थानिकत्वमनुमन्यन्ते । तदप्यसत् , बलवत्सजातीयसातोदयस्य परिवर्तमानतयाऽसातानभिभावकत्वात् । पुण्यप्रकृत्यन्तरोदयस्यामिभावकत्वे च चक्रवादीनामपि क्षुद्वेदनीयाघभिभवप्रसङ्गात् । एतेन 'देवानामपि पुण्याभिभूतं वेदनीयं नास्मदादिसाधारणक्षुदादिजनकम् , देवाधिदेवानां तु कैव कथा ! इति पामरप्रपितं परास्तम् । न खलु देवानां वेदनीयम् 'अभिभूतम्' इत्येव विविकायला , तु तहलोपग्रहनिव-धनविचित्राऽदृष्टवशादौदर्यज्वलनविशेषायनुपष्टम्भहेतुकमिति ।
जाता है। किन्तु यह कथन भी समीचीन नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर केवली का सात. वेदनीयकर्म भी जली रस्सी के समान हो जाएगा, क्योंकि उस की भी वहाँ उदीरणा नहीं होती।
तथा यह भी दोष होगा कि सम्यग्दृष्टि आदि ११ गुणस्थानकों में जहाँ जहाँ गुणश्रेणी की रचना होगी वहाँ वहाँ प्रचुरतम कर्मपुदगल का उदय प्राप्त होने से अत्यधिक पीडा का आगमन हो जायेगा । अनः ग्रही मानना उचित है कि केवटी में सातवेदनीय और असातधेदनीय दोनों कर्म अपने अपने रस के अनुसार अपना फल प्रदान करते हैं।
[असातावेदनीय का अभिभव संभव नहीं] अन्य विद्वानों का कहना है कि- बलवान पुण्य के उदय से अभिभूत-अपने कार्य के प्रति असमर्थ हो जाना ही पापप्रकृतियों का जली हुई रस्मी के समान हो जाना है। अतः केयली में बलवान पुण्य का उदय होने से उन में पापप्रकृति के क्लेश आदि कार्यों का होना सम्भव नहीं है'-किन्तु यह यथन ठीक नहीं है। क्योंकि बलवान मजातीय सातवेदनीय कर्मी का उदय परिवर्तित होता रहता है। बलवान सजातीय सातवेदनीय, आदि से अन्त तक नहीं रहता किन्तु सातवेदनीय और असातवेदनीय कर्म का उदय एक एक मुहूर्त में फिरता रहता है। अतः सातवेदनीय बलवान पुण्योदय को असातवेदनीय कर्म का अभिभावक मानना सम्भव नहीं है। अन्य प्रकार की पुण्यप्रकृति के उदय को भी असातधेदनीय कर्म का अभिभावक नहीं माना जा सकता क्योंकि ऐसा मानने पर चक्रवर्ती आदि के भी श्वधाबेदनीय आदि कर्मों का अभिभव हो जाएगा। चक्रवर्ती मादि में विशिष्ट पुण्य प्रकृति का उदय रहता है किन्तु उन के क्षुधाबेदनीय आदि कर्म अक्षम नहीं होते, उन्हें भी भूख-प्यास लगती हैं।-" वेदनीय कर्म से हमलोगों जसे साधारणजनों को जैसी भूख-प्यास होती है वैसी देवताओं को भी नहीं होती क्योंकि उन का वेदनीयकर्म पुण्य अभिभूत होता है। तो फिर देवाधिदेव केवली के बारे में भूख-प्यास आदि होने की कल्पना ही कैसे हो सकती है। "-यह पामर का कथन भी अत्यन्त निःसार है क्योंकि देवताओं का वंदनीयकर्म अपने विचित्र कार्यों के प्रति केवल इसलिए असमर्थ नहीं होता कि वह पुण्य से अभिभूत रहता है। अपितु उस का अन्य कारण भी है, और वह है उन के देवत्वसम्पादक चिचित्र अदृष्ट के प्रभाष से उन के उदराग्नि आदि का उदीप्त न होना।